गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

वंशवाद का प्रचलन

देश की राजनैतिक पार्टियों में वर्तमान पीढ़ी द्वारा अगली पीढ़ी को उत्तराधिकार देने का प्रचलन तेज होता जा रहा है। 2014 के लोकसभा चुनावों को देखा जाए, तो साफ  हो जाता है कि यह और भी तेज हो रहा है। इस सिलसिले में 2013 का साल बहुत ही महत्वपूर्ण था। पिछले साल जनवरी महीने में राहुल गांधी को जयपुर सत्र में कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाया गया। उसके 9 महीने बाद भारतीय जनता पार्टी ने नरेन्द्र मोदी को अपना प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किया। अधिकांश पार्टियों में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सत्ता सौंपने में वंश का ध्यान रखा जा रहा है। इसके कारण हमारे देश का लोकतंत्र एक वंशवादी लोकतंत्र का शक्ल लेता जा रहा है। यह काफी दिनों से चल रहा है। बाप या मां अपने बेटे या बेटी को पार्टी पर कब्जा दिला रहे हैं। जम्मू और कश्मीर में फारुक अब्दुल्ला ने अपनी पार्टी की बागडोर अपने बेटे उमर अब्दुल्ला के हाथों मे थमा दी। वे वहां के मुख्यमंत्री बना दिए गए। वहां की प्रमुख विपक्षी पार्टी पीडीपी है। उसके नेता मुफ्ती मुहम्मद सईद ने भी पार्टी अपनी बेटी महबूबा मुफ्ती के हवाले कर दी है।

समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने भी अपने बेटे की ताजपोशी कर दी है। उनके बेटे उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बन चुके हैं। डीएमके प्रमुख करुणानिधि ले अपने बेटे एमके स्टालिन के हवाले अपनी पार्टी कर दी है। पीएमके के पिता रामदौस ने पार्टी को अपने बेटे अम्बुमनी रामदॉस को सौंप दी है। भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन कराने में मुख्य भूमिका अम्बुमनी ने ही निभाई। उसी तरह स्टालिन ने करुणानिधि को समझा दिया कि पार्टी कांग्रेस के साथ कोई तालमेल या गठबंधन नहीं करे। बिहार में लोक जनशक्ति पार्टी के नेता रामविलास पासवान के बेटे के हाथों पार्टी की कमान चुकी है। उन्होंने ही भारतीय जनता पार्टी के साथ अपनी पार्टी का गठबंधन कराया। लालू यादव ने भी अपनी बेटी मीसा को चुनाव मैदान में उतार कर अपनी अगली पीढ़ी के हाथ में पार्टी की सत्ता देने की तैयारी कर ली है। वे अपनी बेटी को ही नहीं, बल्कि अपने बेटे को भी आगे बढ़ाने के लिए हाथ पैर चला रहे हैं।  महाराष्ट्र का भी यही हाल है। बाल ठाकरे के बाद उनके बेटे उध्दव ठाकुर शिवसेना के सुप्रीमो बन गये हैं। एक अन्य सेना महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख बाल ठाकरे के भतीेजे हैं। शरद पवार ने भी अपनी बेटी सुप्रिया सुले और भतीजे अजित पवार के हाथों पार्टी की बागडोर थमाने का काम शुरू कर दिया है।पार्टियों का नियंत्रण एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी के हाथ में जाना अपने आपमें गलत नहीं है। देश की आबादी की संरचना बदल रही है। मतदाताओं की संरचना भी बदल रही है। देश में 543 लोकसभा क्षेत्र हैं। औसतन प्रत्येक लोकसभा क्षेत्र में एक लाख 80 हजार मतदाता पहली बार मतदान करेंगे। अब वे भारत के भविष्य को तय करेंगे। वे भारत की आकांक्षा का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए पार्टियों का नेतृत्व भी यदि युवाओं के हाथ में जाता है, तो यह अनुचित नहीं है।

पीढ़ीगत बदलाव के कारण कुछ समस्याएं अपने आप सामने रही हैं। भारतीय जनता पार्टी अपने आपको बदलने की कोशिश कर रही है और इसमें उसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का भी समर्थन मिल रहा है। इसमें संकेत दिया जा रहा है कि पुराने लोगों को अब जाना होगा। और यदि वे खुद नहीं गए, तो उन्हें बाहर खदेड़ दिया जाएगा। नरेन्द्र मोदी पार्टी पर अपना दबदबा बना रहे हैं और यह काम वह बहुत तेजी से कर रहे हैं। इसके कारण पार्टी के पुराने नेताओं की चिंता बढ़ती जा रही है। उन्हें लग रहा है कि मोदी उन्हें हाशिए पर धकेल रहे हैं। मोदी चाहते हैं कि आडवाणी शालीनता से राजनीति से अलग हो जाएं, लेकिन आडवाणी इसके लिए तैयार नहीं हैं। उन्हें नहीं लगता कि उनके हटने का समय आया है।

पार्टी के अनेक वरिष्ठ नेता मोदी से नाराज हो गए हैं। पुराने नेताओं से छुटकारा पाने में कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी को भी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। सोनिया ने राहुल को खुली छूट दे रखी है। उनकी टीम ही पार्टी के लिए रणनीति तैयार करने में जुटी हुई है। राहुल ने अपनी पसंद के लोगों को कांग्रेसी मुख्यमंत्री और पार्टी संगठन में पदाधिकारी बना रखा है। कांग्रेस के अंदर के वरिष्ठ नेता भी उनके काम करने के तरीके से नाखुश हैं। यानी भाजपा हो या कांग्रेस- पीढ़ी बदलाव का विरोध हो रहा है, लेकिन इसके बावजूद बदलाव हो रहे हैं।


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