रविवार, 6 अप्रैल 2014

सामाजिक वर्गों की राजनीति को एक नई दिशा देने की कोशिश

लोकसभा चुनाव 2014 अभियान जोरों पर है। इस चुनाव में सूचना क्रान्ति के दमदार असर को साफ देखा जा सकता है।  लोकसभा चुनाव 2009 में भी इंटरनेट का इस्तेमाल हुआ था लेकिन हर हाथ में इंटरनेट नहीं था। उन दिनों यह बहस चल रही थी कि कम्प्यूटर, टेलीविजन सेट और सेल फोन को एक ही इंस्ट्रूमेंट में रहना है, देखें कौन जीतता है। अब यह बहस तय हो चुकी है, सेल फोन ने बाजी मार ली है। अब कंप्यूटर और टेलीविजन का काम भी सेल फोन के जरिये हो रहा है। जाहिर है एक बहुत बड़े वर्ग के पास हर तरह की सूचना पहुंच रही है। और उसके हिसाब से फैसले हो रहे  हैं।  सूचना क्रान्ति का अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने वालों में बीजेपी का नंबर सबसे आगे है।  प्रधानमंत्री पद के उसके दावेदार नरेंद्र मोदी की निजी वालंटियरों की सेना भी इंटरनेट का बड़े पैमाने पर प्रयोग कर रही हैं।  हालांकि उनसे भी बेहतर प्रयोग आम आदमी पार्टी ने किया और दिल्ली विधानसभा के चुनावों में नरेंद्र मोदी के निजी प्रयास के बावजूद उनकी पार्टी को सत्ता से बाहर रखा।
इस चुनाव की सबसे बड़ी खासियत यही मानी जायेगी कि इस बार अधिकतम लोगों  तक अधिकतम सूचना पंहुच रही है। यह भी सच है कि बहुत सारी गलत सूचनाएं भी सच में बदल रही हैं। सबसे महत्वपूर्ण तो गुजरात राय का तथाकथित विकास है जिसको एक माडल के रूप में पेश कर दिया गया है और उसका पेटेंट नरेंद्र मोदी के नाम पर फिक्स करने की कोशिश की गई है। सच्चाई यह  है कि पहले से ही विकसित गुजरात राय नरेंद्र मोदी के राज में  विकास के बहुत सारे पैमानों पर चला गया है लेकिन नरेंद्र मोदी की प्रचार शैली की वजह से देश में लोग उसी तरह का विकास मांगने लगे हैं।  कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी के विकास के दावों की पोल खोलने की कोशिश भी की लेकिन सूचना तंत्र की कुशलता के अभाव में कोई फर्क नहीं पड़ा था। हां, आम आदमी पार्टी वाले अरविन्द केजरीवाल ने यह काम बहुत ही तरीके से कर दिखाया और अब बीजेपी वाले दिल्ली जैसे उन इलाकों में गुजरात माडल के विकास की बात नहीं करते जहां आम आदमी पार्टी का भारी प्रभाव है। इसमें दो राय नहीं है कि इस बार का चुनाव सूचनातंत्र की प्रमुखता के लिए अवश्य याद किया जाएगा।

इस चुनाव की दूसरी जो सबसे अहम् बात है वह यह कि भारतीय जनता पार्टी ने एक नई तरह की सोशल इंजीनियरिंग को अपनी पार्टी स्थायी भाव बनाया है। बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी ने जब बिहार की एक सार्वजनिक सभा  में कहा कि आने वाला समय पिछड़ी और दलित जातियों की राजनीतिक प्रभुता देखेगें तो  शुरू में लगा था कि बिहार में पिछड़ी जातियों के राजनीतिक महत्व को भांपकर नरेंद्र मोदी ने स्थानीय राजनीति के चक्कर में यह बात कह दी लेकिन बाद की नरेंद्र मोदी की राजनीति को बारीकी से देखें पर बात समझ में आने लगती है। बीजेपी के नए नेतृत्व ने शुध्द रूप से जातियों की नई प्राथमिकताएं निर्धारित की हैं। ब्राह्मणों के प्रभुत्व वाली पार्टी ने अब उनको दरकिनार करने की योजना पर काम शुरू कर दिया है। ऐतिहासिक रूप से ब्राह्मण जाति के लोग कांग्रेस के सहयोगी हुआ करते थे। 1977 के पहले तक पूरे देश में  कांग्रेस का स्थायी समर्थन तंत्र ब्राह्मण, मुसलमान और दलित हुआ करते थे। जब 1977 में यह समीकरण टूटा तो कांग्रेस की सरकार चली गई, जनता पार्टी का राज आया। जनता पार्टी का राजनीतिक प्रयोग सत्ता में बने रहने के लिहाज से बहुत ही बेकार साबित हुआ लेकिन जनता पार्टी के प्रादुर्भाव से यह साबित हो गया कि अगर जातीय समीकरणों को बदल दिया जाए तो सत्ता हासिल करने के लिए कांग्रेस के प्रभुत्व को नकारा जा सकता है। 1977 में  कांग्रेस से अलग होने वाला प्रमुख वर्ग मुस्लिम ही था लेकिन 1978 में ही बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक, कांशीराम ने दलितों को कांग्रेस से अलग पहचान तलाशने की प्रेरणा देना शुरू कर दिया था।  1989 आते-आते यह काम भी पूरा हो गया और दलितों ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस से अलग और  कई बार तो कांग्रेस के खिलाफ बहुजन समाज पार्टी में अपनी पहचान तलाश ली थी। कांग्रेस के तब तक लगभग स्थायी मतदाता के रूप में पहचाने जाने वाले ब्राह्मण समुदाय ने उसके बाद से नई जमीन तलाशनी शुरू कर दी और जब लालकृष्ण आडवानी का रथ सोमनाथ से अयोध्या तक दौड़ा तो ब्राह्मणों को एक नया पता मिल गया था। उत्तर भारत में  बड़े पैमाने पर वर्ण व्यवस्था के शिखर पर मौजूद सबसे उच्च सामाजिक वर्ग बीजेपी का कोर वोटर बन चुका था। वह व्यवस्था अब तक चालू है।  2007 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के दौरान मायावती ने ब्राह्मणों को साथ लेने की रणनीति अपनाई और दलित ब्राह्मण एकता के बल पर सत्ता पर काबिज होने में सफलता पाई। उसके बाद बीजेपी और कांग्रेस उत्तर प्रदेश में बहुत पिछड़ गए। तीसरे और चौथे स्थान की पार्टियों के रूप में संतुष्ट रहने को मजबूर हो गए।  लेकिन बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही ब्राह्मण प्रभुत्व वाली पार्टियां बनी रहीं।  कांग्रेस में आज भी  ब्राह्मणों का ऐसा  दबदबा है कि किसी अन्य जाति के लोगों का अस्तित्व ब्राह्मणों की कृपा से ही चलता है। नेहरूजी के समय में तो सभी बड़े नेता ब्राह्मण ही हुआ करते थे। बाद में डीपी मिश्र, उमाशंकर दीक्षित और कमलापति  त्रिपाठी का जमाना आया। आजकल भी कांग्रेस के वोट बैंक के रूप में किसी भी राय में ब्राह्मण नहीं हैं लेकिन कांग्रेस में सबसे बड़े नेता ब्राह्मण ही हैं और अन्य जातियों के नेताओं को ऊपर नहीं आने देते।


बीजेपी में भी वही हाल है। अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवानी की पार्टी के रूप में पहचान बना चुकी बीजेपी में ब्राह्मण प्रभुत्व चौतरफा देखा जा सकता है लेकिन अब यह बदल रहा है। नरेंद्र मोदी ने इसको बदल देने का काम शुरू कर दिया है। अटल बिहारी वाजपेयी की भांजी करुणा शुक्ला को जब पार्टी से अलग करने की योजना बन रही थी तो रायपुर में मौजूद इन रिपोर्टर को साफ  नज् ार रहा था कि कहीं कुछ बड़े बदलाव की तैयारी हो रही थी। अब एक बात और नज् ार रही है कि उन लोगों को भी हाशिये पर ला दिया जाएगा जो  अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवानी के करीबी माने जाते हैं। नरेंद्र मोदी की नई सोशल इंजीनियरिंग में ब्राह्मणों के खिलाफ अभियान सा चल  रहा है। मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज, केशरीनाथ त्रिपाठी, कलराज मिश्र सभी हाशिये पर हैं। नरेंद्र मोदी के नए राजनीतिक समीकरणों की प्रयोगशाला में गुजरात में यह प्रयोग जांचा परखा जा चुका है। वहां यह काम बहुत समय से चल रहा है। सुषमा स्वराज  ने खुद स्वीकार किया है कि उनकी कुछ नहीं चल रही है।  उनकी मर्जी के खिलाफ, उनके ऐलानियां  विरोध के बाद ऐसे लोगों को टिकट दिया जा रहा है जिनसे पार्टी को नुकसान हो सकता है लेकिन नरेंद्र मोदी की नई जातीय राजनीति में उन लोगों का इस्तेमाल किया जा रहा है जिनका सुषमा स्वराज विरोध करती हैं। ब्राह्मणों को हाशिये पर लाने की नई रणनीति के तहत उत्तर प्रदेश में मुरली मनोहर जोशी के अलावा केशरीनाथ त्रिपाठी और कलराज मिश्र को भी औकात बताने की कोशिश की गई है। गुजरात में हरेन पाठक का टिकट काटना भी एक बड़े बदलाव का संकेत है।
ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी को मालूम है कि ब्राह्मणों को दरकिनार करके ही अन्य सामाजिक वर्गों को साथ लिय जा सकता है।  शायद इसीलिए गुजरात कैडर के जिन सिविल सर्विस अफसरों को परेशान किया गया उनमें अधिकतर ब्राह्मण ही हैं। साफ नज् ार रहा है कि बड़े पैमाने पर सामाजिक वर्गों की राजनीति को एक नई दिशा देने की कोशिश हो रही है। अभी अन्य जातियों के लोगों के बीजेपी की तरफ आने की पक्की खबर तो नहीं है लेकिन इतना तय है कि लोकसभा 2014 में ब्राह्मण नेताओं का एक वर्ग बीजेपी के नए नेताओं से नाराज हैं... यह देखना दिलचस्प होगा कि चुनाव में यह किस तरह से असर डालता है। जानकार बताते हैं कि जिन नये वर्गों को, खासकर पिछड़े वर्गों और राजपूतों को अपने करीब खींचने में नरेंद्र मोदी अपनी तरफ खींचने की कोशिश कर रहे हैं, वे पहले से  ही किसी अन्य राजनीतिक पार्टी के साथ हैं। अभी यह किसी को पता नहीं है कि वे इस काम में कितना सफल होंगें लेकिन यह तय है अब ब्राह्मण नरेंद्र मोदी की बीजेपी से दूर जाने की तैयारी में हैं। यह भी लग रहा है कि इन चुनावों में उसक असर भी स्पष्ट दिखेगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुल पेज दृश्य