मंगलवार, 27 नवंबर 2012

जैव विविधता


जैव विविधता, किसी दिये गये पारिस्थितिकी तंत्र, बायोम, या एक पूरे ग्रह में जीवन के रूपों की विभिन्नता का परिमाण है। जैव विविधता किसी जैविक तंत्र के स्वास्थ्य का द्योतक है। पृथ्वी पर जीवन आज लाखों विशिष्ट जैविक प्रजातियों के रूप में उपस्थित हैं। सन् 2010 को जैव विविधता का अंतरराष्ट्रीय वर्ष, घोषित किया गया है।

संकट में जैव-विविधता

मानव की बढती आबादी व भोगवादी पाश्चात्य संस्कृति आधारित विकास की अवधारणा ने भारत के मूल प्राकृतिक स्वरू प को नष्ट कर दिया है। नतीजतन जलवायु परिवर्तन, तापमान का बढना, हिम खण्डों का तेजी से पिघलना, समुद्र का जल स्तर बढना और वायु मण्डल की ओजोन परत में छेद होने जैसी घटनाएं बढने लगी हैं। इसका सीधा प्रभाव विभिन्न क्षेत्रों की भौगोलिक पारिस्थितिकी पर पड रहा है। वनस्पति व वन्य-जीव जन्तुओं की कई प्रजातियां लुप्त हो गई हैं और कई समाप्ति के कगार पर हैं।

जैव विविधता की दृष्टि से भारतीय उपमहाद्वीप की भौगोलिक संरचना तथा भू-आकृतियां विश्व के कई देशों से अधिक आकर्षक तथा विविधता लिए हुए हैं। यहां संपूर्ण विश्व की 2 प्रतिशत भूमि पर पांच प्रतिशत जैव विविधता है। यहां वनस्पति की 45 हजार प्रजातियां पाई जाती हैं, जो विश्व की वानस्पतिक प्रजातियों का 10.78 प्रतिशत है। इनमें से 15 हजार पुष्प पल्लवित प्रजातियां हैं। वन्य प्राणियों की गणना की दृष्टि से भारत में 89 हजार 451 प्रजातियां पाई जाती हैं, जो विश्व का 7.31 प्रतिशत है। हाल ही में प्रकाशित आई.यू.सी.एन. के सर्वे पर आधारित रिपोर्ट के अनुसार भारत में 240 वनस्पति की प्रजातियां और वन्य प्राणियों की 321 प्रजातियां समाप्ति की संवेदनशीलता की सीमा के निकट पहुंच गई है। वैज्ञानिक इसका मुख्य कारण प्राकृतिक आवासों का ह्रास, प्राकृतिक संसाधनों का अतिदोहन, घटते वन क्षेत्र, वनों की सघनता कम होना, औद्योगीकरण तथा अवैज्ञानिक तरीके से खनन के साथ अवैध शिकार और तस्करी को मानते हैं।
भारत के पारिस्थितिकी तंत्र में मरूस्थल, जहां पहले घास के मैदान थे तथा पशुपालन मुख्य व्यवसाय था, इंदिरा गांधी नहर के आने से मरूस्थल में खेती होने लगी जो मरूस्थलीय पारिस्थितिकी के प्रतिकूल थी। इससे पारम्परिक वनस्पति व वन्य जीवों का लोप होना शुरू हुआ। साथ ही मरू भूमि में जल प्लावनता और भू-क्षारीयता जैसे अवगुण पैदा होने लगे। इससे भूमि बंजर होने लगी। अरावली व मरूस्थल को हरा-भरा बनाने की चाह में सरकार ने विलायती बबूल (प्रोसोपिस जुलीफ्लोरा) का व्यापक रू प से बीजारोपण करवाया। इससे हरियाली में तो वृद्धि हुई, परन्तु इससे दूरगामी दुष्परिणाम हुए। इसी तरह अनियंत्रित खनन उद्योग ने किसी भी पहाड या नदी को अछूता नहीं छोडा है। इससे न केवल प्राकृतिक आवास तथा जैव विविधता नष्ट हो रही है, बल्कि वनों के नष्ट होने से स्थानीय तापमान में वृद्धि, वर्षा का कम होना और स्थानीय जलस्त्रोत भी नष्ट हो रहे हैं।

अत: सरकार को संतुलित व टिकाऊ विकास के लिए भौगोलिक और पारिस्थितिकीय आवश्यताओं के अनुसार विकास की योजनाएं बनानी चाहिए और प्राथमिकता के आधार पर पर्यावरण व विकास में हरसंभव सामंजस्य रखने का प्रयत्न करना चाहिए। जैव विविधता व प्राकृतिक पर्यावरण को अक्षुण्ण रखने के लिए यथासंभव नदी-नालों व पहाडों का सीमांकन कर उन्हें पुनर्जीवित करने का प्रयास करना होगा। वैदिक परम्पराओं की पुन: स्थापना के साथ ही वृक्ष को हमारा परम मित्र मानते हुए नव प्रकृति जागृत परम्परा का शुभारम्भ करना होगा। इससे जैव विविधता के विकास के साथ-साथ पारिस्थितिकीय तंत्र का भी विकास होगा। इन प्रयासों में वन एवं वन्यजीवों के आवासों को संरक्षित करना, जैविक उद्यानों का निर्माण, राष्ट्रीय उद्यानों व अभयारण्य कानून और नियमों का निर्माण कर क्रियान्वयन करना शामिल है।
दुर्भाग्यवश भोगवादी पाश्चात्य सभ्यता की अंधी दौड में आज हम प्रकृति से सामंजस्य रखने की परम्परा को भूलते जा रहे हैं। अथर्ववेद में कहा गया है कि पृथ्वी मेरी माता है, मैं पृथ्वी का पुत्र हूं अर्थात् भूमि से हमारे "मां-बेटे" का सम्बन्ध त्याग कर हम भूमि को भोग्या के रूप में देखने लगे हैं। ऎसे में वन, वन्यजीव या फिर उनके प्राकृतिक आवास सभी विनाश के कगार पर खडे हो गए हैं। 

कमल नारायण जोशी

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