शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

जैव विविधता


 जैव विविधता पर हैदराबाद में संपन्न हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के 11 वें अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के  नतीजे बहुत उत्साह जनक नहीं रहें । 19 दिनों तक चलने वाले  इस  विश्व स्तरीय सम्मलेन में  192 देशों के लगभग  प्रतिनिधियों ने भाग लिया लेकिन जैव विविधता को सहेजनें के लिए किसी विशेष कार्ययोजना पर सहमति नहीं बन पायी है । जबकि जैव विविधता पर ध्यान देनें के लिए ठोस क्रियान्वयन की सख्त जरुरत है । वैश्विक प्रयासों के बावजूद 2010 में तय किए गए जैव विविधता के लक्ष्या को पूरी तरह हासिल नहीं किया जा सका।
जैसा कि हर सम्मेलन में होता है इस बार भी हुआ जल, जंगल, जमीन के संरक्षण के जितने भी अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन और कार्यक्रम होते हैं, उनमें विकासशील और विकसित देशों के बीच आर्थिक मुद्दों पर विवाद होता है । इस सम्मेलन में जैव विविधता के भविष्य के लिए 30 प्रस्तावों पर विचार हुआ । इनमें से 28 पर सभी ने अपनी मुहर लगा दी । जिन दो पर सहमति नहीं बन पाई वे दोनों जैव विविधता को आर्थिक सहायता देने से संबंधित थे । इस कांफ्रेंस में विकासशील देशों के ग्रुप -77 की मांग थी कि विकसित देश आर्थिक योगदान बढ़ाए । लेकिन विकसित देश और विशेषकर यूरोपियन यूनियन के सदस्य इसे मानने के लिए तैयार नहीं हुए । विकसित देश अधिक जिम्मेदारी उठाना नहीं चाहते और  वो चाहते है कि विकासशील देश ही जैव विविधिता दुनिया में गर्म होती जलवायु, कम होते जंगल, विलुप्त होते प्राणी, प्रदूषित होती नदियों, सभी को बचाने  का काम करें । यहाँ तक कि इन कामों के लिए वे पर्याप्त आर्थिक मदत देने के लिए भी तैयार नहीं है । इस सम्मेलन में भी विकसित और विकासशील देशों के बीच यही मतभेद रहें । जैव विविधता के लिए आधुनिक विकास और प्रकृति संरक्षण दोनों के बीच संतुलित तालमेल बैठाना बहुत जरूरी है । नहीं तो इसका खामियाजा प्रकृति को भुगतना पड़ेगा । जैवविविधता पर संकट इसका ही नतीजा है।
समूचे विश्व में 2 लाख 40 हजार किस्म के पौधे 10 लाख 50 हजार प्रजातियों के प्राणी हैं। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजनर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) 2000 की रिपोर्ट में कहा कि, विश्व में जीव-जंतुओं की 47677 प्रजातियों में से एक तिहाई से अधिक प्रजातियाँ यानी 15890 प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। आईयूसीएन की रेड लिस्ट के अनुसार स्तनधारियों की 21 फीसदी, उभयचरों की 30 फीसदी और पक्षियों की 12 फीसदी प्रजातियाँ विलुप्ति की कगार पर हैं। वनस्पतियों की 70 फीसदी प्रजातियों के साथ ताजा पानी में रहने वाले सरिसृपों की 37 फीसदी प्रजातियों और 1147 प्रकार की मछलियों पर भी विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है।
विश्व धरोहर को गंवाने वाले देशों की शर्मनाक सूची में भारत चीन से ठीक बाद सातवें स्थान पर है। पिछले दशक में भारत ने कम से कम पांच दुर्लभ जानवर लुप्त होते देखे हैं। इनमें इंडियन चीता, छोटे कद का गैंडा, गुलाबी सिर वाली बत्तख, जंगली उल्लू और हिमालयन बटेर शामिल हैं। ये सब इंसान के लालच और जगलों के कटाव के कारण हुआ है।
जैव विविधिता की चिंता अकेले किसी एक देश अथवा महाद्वीप की समस्या नहीं है और न ही कोई अकेला देश इस समस्या से निपटने हेतु उपाय कर सकता है। वैश्विक समुदाय को जैव विविधिता संकट के लिए जिम्मेदार माना जाता है और यह समस्या भी वैश्विक समुदाय की ही है। इसलिए सबकी नैतिक जिम्मेदारी है कि वे मिल जुलकर इस समस्या से निपटने के रास्ते तलाशें और जैव विविधिता को संरक्षित करने वाली योजनाओं को क्रियान्वित करें।  दुर्भाग्य से जैव विविधिता पर आयोजित किसी भी वैश्विक सम्मेलन और वार्ता के दौरान इसके लिए ईमानदार प्रयत्न नहीं दिखा है। वर्तमान में अपने विकास की दुहाई देकर जैव विविधिता का जिस प्रकार शोषण किया जा रहा है उसका दूरगामी दुष्परिणाम भी विकास पर ही देखने को मिलेगा। आज आवश्यकता यह है कि विकास के लिए जैव विविधिता के साथ बेहतर तालमेल बनाया जाए। आरंभ में विकास और जैव विविधिता को दो अलग -अलग अवधारणा के रूप में देखा जाता था, लेकिन बाद में यह महसूस किया गया कि विकास और जैव विविधिता को दो अलग-अलग हिस्से नहीं माना जा सकता। जैव विविधिता के संरक्षण के  बिना विकास का कोई महत्व नहीं है .
अंतरराष्ट्रीय संस्था वर्ल्ड वाइल्ड फिनिशिंग ऑर्गेनाइजेशन ने अपनी रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि 2030 तक घने जंगलों का 60 प्रतिशत भाग नष्ट हो जाएगा। वनों के कटान से वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की कमी से कार्बन अधिशोषण ही वनस्पतियों व प्राकृतिक रूप से स्थापित जैव विविधता के लिए खतरा उत्पन्न करेगी। मौसम के मिजाज में होने वाला परिवर्तन ऐसा ही एक खतरा है। इसके परिणामस्वरूप हमारे देश के पश्चिमी घाट के जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियां तेजी से लुप्त हो रही हैं। एक और बात बड़े खतरे का अहसास कराती है कि एक दशक में विलुप्त प्रजातियों की संख्या पिछले एक हजार वर्ष के दौरान विलुप्त प्रजातियों की संख्या के बराबर है। जलवायु में तीव्र गति से होने वाले परिवर्तन से देश की 50 प्रतिशत जैव विविधता पर संकट है। अगर तापमान से 1.5  से 2.5  डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है तो 25 प्रतिशत प्रजातियां पूरी तरह समाप्त हो जाएंगी।
देश के प्राकृतिक संसाधनों का ईमानदारी से दोहन और जैव विविधता के संरक्षण के लिए सरकारी प्रयास के साथ साथ जनता की  सकारात्मक भागीदारी की जरुरत है । जनता के बीच जागरूकता फैलानी होगी, तभी इसका संरक्षण हो पायेगा । जैव विविधता के संरक्षण का सवाल पृथ्वी के अस्तित्व से जुड़ा है। इसलिए  विश्व के जीन पूल को कैसे बचाया जाए इस पर पूरी दुनियाँ को गंभीरता से विचार करते हुए ठोस निर्णय लेना होगा ।

BRICS


BRICS is the title of an association of emerging economies, arising out of the inclusion of South Africa into the original BRIC grouping in 2010. The group's five members are Brazil, Russia, India, China and South Africa. With the possible exception of Russia, the BRICS members are all developing or newly industrialised countries, but they are distinguished by their large, fast-growing economies and significant influence on regional and global affairs. As of 2012, the five BRICS countries represent almost 3 billion people, with a combined nominal GDP of US$13.7 trillion, and an estimated US$4 trillion in combined foreign reserves. Presently, India holds the chair of the BRICS group.
Hu Jintao, the President of the People's Republic of China, has described the BRICS countries as defenders and promoters of developing countries and a force for world peace. However, some analysts have highlighted potential divisions and weaknesses in the grouping, such as India and China's disagreements over territorial issues, the failure of the BRICS to establish a World Bank-analogue development agency, and disputes between the members over UN Security Council reform.
The foreign ministers of the initial four BRIC states (Brazil, Russia, India, and China) met in New York City in September 2006, beginning a series of high-level meetings. A full-scale diplomatic meeting was held in Yekaterinburg, Russia, on May 16, 2008.
The BRIC grouping's first formal summit commenced in Yekaterinburg on June 16, 2009, with Luiz Inácio Lula da Silva, Dmitry Medvedev, Manmohan Singh, and Hu Jintao, the respective leaders of Brazil, Russia, India and China, all attending. The summit's focus was on means of improving the global economic situation and reforming financial institutions, and discussed how the four countries could better co-operate in the future. There was further discussion of ways that developing countries, such as the BRIC members, could become more involved in global affairs.
In the aftermath of the Yekaterinburg summit, the BRIC nations announced the need for a new global reserve currency, which would have to be 'diversified, stable and predictable'. Although the statement that was released did not directly criticise the perceived 'dominance' of the US dollar – something which Russia had attacked in the past – it did spark a fall in the value of the dollar against other major currencies.
In 2010, South Africa began efforts to join the BRIC grouping, and the process for its formal admission began in August of that year. South Africa officially became a member nation on December 24, 2010, after being formally invited by the BRIC countries to join the group.The group was renamed BRICS – with the "S" standing for South Africa – to reflect the group's expanded membership. In April 2011, South African President Jacob Zuma attended the 2011 BRICS summit in Sanya, China, as a full member.
The BRICS Forum, an independent international organisation encouraging commercial, political and cultural cooperation between the BRICS nations, was formed in 2011. In June 2012, the BRICS nations pledged $75 billion to boost the International Monetary Fund's lending power. However, this loan is conditional on IMF voting reforms.
The grouping has held annual summits since 2009, with member countries taking turns to host. Prior to South Africa's admission, two BRIC summits were held, in 2009 and 2010. The first five-member BRICS summit was held in 2011. The most recent summit took place in New Delhi, India, on March 29, 2012. The next BRICS summit is scheduled to take place in Durban, South Africa, in March 2013.
Summit
Participants
Date
  Host country
  Host leader
Location
1st
2nd
3rd
4th
5th
BRIC
BRIC
BRICS
BRICS
BRICS
June 16, 2009
April 16, 2010
April 14, 2011
March 29, 2012
March 26–27, 2013
   Russia
   Brazil
   China
   India
  South Africa
 Dmitry Medvedev
 LuladaSilva
 Hu Jintao
 Manmohan Singh
  Jacob Zuma
 Yekaterinburg
 Brasília
 Sanya
 New Delhi
 Durban





गुरुवार, 29 नवंबर 2012

OIL SPILLS



The causes of oil spills can be divided into two groups: accidents and operations.
Accidents:
There is often a large oil loss in accidents, up to 1/5 have an oil loss of over 700 tonnes.
·         collisions: a common accident with 475 occurring between 1974-1999
·         hull failures: these accidents have occurred the most between 1974-1999, with 671 hull failures between these two years
·         fires and explosions: this is the most uncommon type of accident, only occuring 154 times between 1974-1999
·         groundings: a common accident with 518 occurring between 1974-1999, and the greatest number of oil losses over 700 tonnes
Operations:
Most oil losses occur when ships are carrying out routine operations at ports or oil terminals, but the majority of such spills are small, with 93% of them producing a spillage of less than 7 tonnes.
loading/discharging: commonest cause of oil spillages (either during routine operations or resulting from accidents), with 3070 occurring between 1974-1999
bunkering: the least common operational oil loss with only 566 occurring between 1974-1999
What happens to the oil spill?
The oil can end up anywhere, depending on factors such as wind speed, wind direction, sea conditions and/or the volume of oil spilled.
When the oil is spilled, it spreads over the sea surface and as oil has a lower density than water it stays afloat. The speed at which it spreads depends on how viscous the oil is. If it has a high viscosity, it will spread more slowly than if it has a low viscosity. As time passes the oil slick starts to break up and form narrow strips due to wind, water turbulence and waves. Lighter components of the oil will evaporate into the atmosphere, an oil with a high percentage of light, volatile compounds will evaporate more than one with a larger proportion of heavy compounds. Evaporation increases with high temperatures, high wind speeds and when the surface area increases. Waves and water turbulence can cause the oil to break up into little droplets (this is called dispersion), the smaller droplets will stay suspended in the sea water, whereas the larger tend to rise to the surface where they either spread out into a thin film of oil or where they rejoin with other droplets to form another slick.
These are the main processes involved in the early stages of an oil slick.
Oils tend to react chemically with the oxygen in the water and air, this is called oxidation. The rate of oxidation increases as the light intensity increases. Tars form as the thick layers of oil oxidise, producing tarballs which often wash up on seashores. The density of crude heavy oils can exceed 1g/cm3, so such would sink in fresh water. However, very few crude oils have a density greater than that of sea water (1.025 g/cm3) so rarely sink in marine environments. Sinking may occur if the oil mixes with sand from the shore and is then washed back into the sea. Sedimentation may also occur if the oil catches fire - the residues can have a higher density than sea water and will sink. Another fate of oil is biodegradation. This is the process by which micro-organisms and microbes feed off the oil, partially degrading it initially into water soluble compounds and eventually into carbon dioxide and water. However, not all compounds can be degraded as some are very resistant to micro-organisms and microbes. The level of phosphorus (P), nitrogen (N) and oxygen (O) in the water must be high enough for the microbes and micro-organims to live, because their nutrients are P and N and they need O to respire.
These processes are more important later on and determine the ultimate fate of the oil.
Effects of oil spills:
Oil spills have affected many people and many industries. They affect both the economy and the environment. Some of the things affected are:
·         marine life
·         local industries (often tourist industry)
·         fishing industry
Effect on marine life:
People immediately think of birds and fish as being species affected by an oil spill. On the news you will often see large numbers of dead birds and dead fish washed up on the beach. Some birds die because they have ingested oil. However, more commonly the birds drown because they stick to the oil and cannot get out of the water, starve because there's no food left for them because the fish have been poisoned by the oil or lose too much body heat because of damage to their plumage by the oil. Fish die of starvation because of loss of food or from being poisoned by the oil.
Some marine mammals and reptiles, such as dolphins, whales and turtles are very vulnerable to oil spills because they have to be able to surface to breathe and the reptiles also need to leave the water to breed. The layer of oil makes surfacing difficult and the animals drown.
Vegetation in the water can be vulnerable to light crude or light refined oil spills if the oil reaches the root area of the plants. However, a thick coating of oil on the leaves does almost no damage if it occurs outside the growing season. Loss of vegetation can lead to more animal deaths as they lose sources of food. Living coral is also vulnerable to oil slicks. If the living coral dies, then the reef of coral can be destroyed by wave erosion. This means many fish and animals lose their homes.
The time taken for these damaged populations to recover depends on many factors and is highly variable.
Effect on local industries:
Oil, tarballs, dead fish and birds all get washed up on the shores and the oil slick inteferes in activities such as fishing, sailing, swimming, ... The local tourist industry suffers because tourists are not interested in coming to a coastal area where they cannot do the activities as listed above. Industries that rely on clean seawater for routine operations can also suffer because operations have to be stopped while the water is cleaned.
Effect on fishing industry:
The fishing industry suffers badly when an oil spill occurs. Firstly because the fish are often covered in oil, or have swallowed oil making them poisonous. Also a large number of fish die, decreasing the number of fish that could have possibly been caught. It is also difficult for boats to sail because the oil can damage them and the devices they use to catch the fish. However there are usually no long-term effects because the normal over-production of fish eggs means there will be few losses.
Clean-up techniques:
Three possible methods of removing the oil:
1. Dispersant Chemicals:
These are chemicals which enhance the natural dispersion of oil. This is the most common method used for oil slicks, especially when mechanical recovery is impossible. They are used to reduce the extent of damage caused by the floating oil. However, there are some limitations on chemical dispersants as they can cause damage themselves if they are not controlled.
How they work: these chemicals increase the rate of natural dispersion. When the dispersant is sprayed onto the oil slick the oil forms droplets of variable size (this process is called dispersion), the larger droplets float and the smaller droplets remain in suspension. Dispersants have two main components, a solvent and a surfactant.
Methods of application: workboats can be used for small spills in confined areas of water, but for the larger, off-shore oil slicks large aeroplanes are used and for small oil slicks near the shore small aeroplanes and helicopters are used. A spray of "rain drop" sized droplets is used in order not to lose too much in wind drift.
Limitations: Chemical dispersants have little effect on oil with a high viscosity as the chemicals run off the oil before the solvent can work. Oils that the dispersants have an initial effect on become resistant after a while because the viscosity increases as the more volatile oils evaporate.
2. Bioremediation:
This is the name for the 2 processes used to promote the natural biodegradation process. The two processes are bioaugmentation (application of microbes to degrade oil) and biostimulation (addition of nutrients).
Bioaugmentation:
This is used in many waters (both sea and fresh) to degrade waste such as oil as well as raw sewage and industrial discharges. Microbes are added to the water to feed on these wastes. The species of microbes added will not compete with the naturally occuring species so that degradation is as efficient as possible.
Biostimulation:
For the microbes to work efficiently there has to be enough phosphorus, nitrogen and carbon available. In the case of an oil spill, the carbon level escalates and the nitrogen and phosphorus levels are too low to allow the microbes to work at optimal efficiency. Fertilisers containing these 2 elements are added so the microbes are able to degrade the oil.
Limitations:
Even though these processes seem attractive, they cannot be taken at face value. If bioremediation is used on oil floating on the surface, the materials added will quickly dilute and be lost. Oxygen is also required, which is not present in the oil itself, only at the water/oil interface. Bioremediation is therefore not suitable for the removal of large volumes of oil. The processes of bioremediation and bioaugmentation currently available are too slow to prevent the majority of the oil from reaching the shoreline. They can be physically and biologically harmful in some habitats such as salt marshes.
3. In-situ burning:
This is the name given to the burning of the oil while it is still at sea. Technically this seems like a good method which will remove most of the oil, however in reality there are a number of problems with this technique including: production of a lot of smoke, formation of residues, ignition of oil, and safety concerns.
Smoke: when oil burns large clouds of black smoke occur which react with the normal clouds and causes oily rain which contaminates farm crops and animals. Two oil accidents were related to on board fires on the Castillo de Bellver (in 1983 on the coast of South Africa) and the Aegean Sea (in 1992 on the coast of Spain), both accidents caused problems with local areas: the Castillo de Bellver cause contamination of sheep and wheat and the Aegean Sea cause temporary evacuation of the city of La Coruna. These were not intentional in-situ burning however these can be effects of the smoke produced by burning the oil.
Residue: the residues formed by in-situ burning are heavily viscous and are extremely hard to remove from the sea and the shorelines. These residues affect fishing gear, boats and the shoreline. Some of the residues sink and can poison the sealife and is almost impossible to recover.
Ignition: the time it takes for the ignition and fire safety devices to be set up many of the lighter fractions of the oil will have already evaporated making ignition more difficult. Ignition can be done by different methods, from simple petrol or diesel soaked cloths to sophisticated devices such as the helitorch (a flamethrower attached to a helicopter).


दवा प्रतिरोधी तपेदिक (MDR-और XDR-टीबी)


बहु - दवा प्रतिरोधी तपेदिक (MDR-TB), टीबी का वह प्रकार है जो कम से कम आई एन एच और आरएमपी के लिए प्रतिरोधी है. वे आइसोलेट्स जो टीबी-रोधी दवाओं के किसी और संयोजन के लिए प्रतिरोध को बढ़ाते हैं, लेकिन आईएनएच और आरएमपी के लिए प्रतिरोधी नहीं हैं, उन्हें MDR-TB की श्रेणी में नहीं रखा जाता है.
अक्टूबर 2006 को दी गयी परिभाषा के अनुसार, "बड़े पैमाने पर दवा प्रतिरोधी तपेदिक" (XDR-TB ) को MDR-TB के रूप में परिभाषित किया जाता है जो क्विनोलोन के लिए प्रतिरोधी है और केनामाइसिन, केप्रिओमाइसिन या एमिकासिन में से किसी एक लिए प्रतिरोधी है. XDR-टीबी की पुराने मामले की परिभाषा MDR-TB है जो भी तीन या दूसरी पंक्ति की दवाओं के छह से अधिक वर्गों के लिए प्रतिरोधी है. इस परिभाषा का उपयोग अब नहीं किया जाना चाहिए.
MDR-टीबी और XDR-टीबी दोनों के उपचार के लिए समान सिद्धांत हैं.मुख्य अंतर यह है कि XDR-टीबी में मृत्यु दर MDR-टीबी की तुलना में अधिक होती है, क्योंकि इसमें प्रभावी उपचार के विकल्पों की संख्या कम होती है. XDR-टीबी के महामारी विज्ञान का वर्तमान में अच्छी तरह से अध्ययन नहीं किया गया है, लेकिन यह माना जाता है कि XDR-TB आसानी से स्वस्थ आबादी में संचरित नहीं होता है, लेकिन यह ऐसी आबादी में महामारी का रूप ले सकता है जो पहले से ही एचआईवी से पीड़ित है इसलिए उनमें टीबी के संक्रमण की संभावना अधिक होती है.
MDR-टीबी पूरी तरह से संवेदनशील टीबी के उपचार के दौरान विकसित हो सकता है और ऐसा अक्सर रोगी के द्वारा कोई खुराक न लेने या उपचार पूरा न करने के कारण होता है.
 MDR-टीबी के उपचार
MDR-टीबी का उपचार और निदान संक्रमण के बजाय बहुत कुछ कैंसर से मिलता जुलता है. इसमें मृत्यु दर 80 प्रतिशत तक है, जो कई कारकों पर निर्भर करती है, इन कारकों में शामिल हैं:
·       जीव कितनी दवाओं के लिए प्रतिरोधी है (जितनी कम होंगी उतना बेहतर है)
·       रोगी को कितनी दवाएं दी गयी हैं (पांच या अधिक दवाओं से रोगी का इलाज करना बेहतर है)
·       इंजेक्शन से दी जाने वाली दावा दी गयी है या नहीं (यह कम से कम पहले तीन माह तक दी जानी चाहिए)
·       जिम्मेदार चिकित्सक की विशेषज्ञता और अनुभव
·       रोगी उपचार में कितना सहयोग दे रहा है (उपचार लंबा और कठिन होता है, और इसके लिए रोगी की दृढ़ता और संकल्प की आवश्यकता होती है)
·       रोगी एचआईवी सकारात्मक है या नहीं (साथ में एचआईवी संक्रमण होने से मृत्यु की संभावना बढ़ जाती है)
·       उपचार की अवधि कम से कम 18 महीने की होती है और इसमें एक साल भी लग एकता है; इसमें शल्य चिकित्सा की आवश्यकता भी पड़ सकती है, हालांकि इष्टतम उपचार के बावजूद मृत्यु दर अधिक होती है.
 उपचार कम से कम 18 माह की अवधि का होता है और इसमें प्रत्यक्ष प्रेक्षण का अवयव उपचार की सफलता को 69 प्रतिशत तक बढ़ा सकता है.
MDR-टीबी का इलाज ऐसे चिकित्सक से ही लेना चाहिए जो MDR-टीबी के उपचार में अनुभवी हो. विशेषज्ञ केन्द्रों में उपचार लेने वाले रोगियों की तुलना में गैर विशेषज्ञ केन्द्रों में उपचार लेने वाले रोगियों में मृत्यु दर अधिक पाई गयी है.
स्पष्ट जोखिम के आलावा (अर्थात MDR-टीबी के रोगी में ज्ञात जोखिम) अन्य जोखिम भी देखे जाते हैं जैसे पुरुष लिंग, एचआईवी संक्रमण, पहले भी टीबी का हो चुका होना, टीबी का उपचार असफल होना, मानक टीबी के उपचार के लिए प्रतिक्रिया न होना, और टीबी के मानक उपचार के बाद रोग का फिर से हो जाना.
MDR-टीबी का उपचार संवेदनशीलता परीक्षण के आधार पर किया जाना चाहिए: इस जानकारी के बिना ऐसे रोगियों का उपचार असंभव है.
अगर MDR -टीबी के संदिग्ध रोगी का उपचार किया जा रहा है तो रोगी का उपचार प्रयोगशाला संवेदनशीलता परिक्षण के आधार पर SHREZ+MXF+साइक्लोसेरीन के साथ शुरू किया जाना चाहिए.
कुछ देशों में rpoB के लिए एक जीन जांच उपलब्ध है, और यह MDR -टीबी के लिए के उपयोगी मार्कर का काम करता है, क्योंकि आइसोलेटेड आरएमपी प्रतिरोध दुर्लभ है (ऐसी स्थिति को छोड़कर जब रोगी का उपचार पहले कभी केवल रिफाम्पिसिन के साथ किया जा चुका हो.अगर जीन जांच (rpoB ) के परिणाम सकारात्मक आते हैं तो आरएमपी को हटा कर SHEZ+MXF+साइक्लोसेरीन का उपयोग किया जाना चाहिए. MDR-टीबी के संदेह के बावजूद रोगी को INH पर रखने का कारण यह है कि INH टीबी के उपचार में इतनी शक्तिशाली है कि इसे हटाना मुर्खता होगी जब तक इस बात का सूक्ष्मजैविक प्रमाण न मिल जाये कि यह अप्रभावी है.
आइसोनियाज़िड-प्रतिरोध के लिए भी जांच उपलब्ध है (katG और mabA-inhA [61]), लेकिन ये अधिक व्यापक रूप से उपलब्ध नहीं हैं.
जब संवेदनशीलता ज्ञात हो जाती है और आइसोलेट को निश्चित रूप से INH और RMP दोनों के लिए प्रतिरोधी पाया जाता है, दवाओं को निम्नलिखित क्रम में चुना जाना चाहिए (ज्ञात संवेदनशीलताओं के आधार पर):
·       एक एमिनोग्लाइकोसाइड (उदाहरण, एमिकासिन, केनामाइसिन) या पॉलीपेप्टाइड एंटीबायोटिक (उदाहरण केप्रिओमाइसिन)
·       PZA
·       EMB
·       एक फ़्लोरोक्विनोलोन: मोक्सीफ्लोक्सासिन को प्राथमिकता दी जाती है (सिप्राफ्लोसासिन का और अधिक इस्तेमाल नहीं किया जाता).
·       रीफाब्युटिन
·       साइक्लोसेरीन
·       एक थायोएमाइड: प्रोथायोनेमाइड या एथोनेमाइड
·       पीएएस
·       एक मेक्रोलाइड: उदाहरण क्लेरीथ्रोमाइसिन
·       लिनेज़ोलिड
·       उंची खुराक INH (प्रतिरोध अगर कम स्तर का हो)
·       इंटरफेरॉन-γ
·       थायोरीडैज़ाइन
·       मेरोपेनेम और क्लावुलेनिक एसिड
दवाओं को सूची में सबसे उपर रखा जाता है क्योंकि वे अधिक प्रभावी और कम विषाक्त हैं; दवाओं को सूची में सबसे नीचे रखा जाता है क्योंकि वे कम प्रभावी और अधिक विषाक्त हैं, या उन्हें प्राप्त करने में कठिनाई होती है.
एक वर्ग के भीतर एक दवा के लिए प्रतिरोध का अर्थ है कि आमतौर पर उस वर्ग में सभी दवाओं के लिए प्रतिरोध होता है, परन्तु रिफाम्पिसिन एक उल्लेखनीय अपवाद है: रिफाम्पिसिन के लिए प्रतिरोध का तात्पर्य हमेशा रीफाब्युटिन से प्रतिरोध नहीं होता और प्रयोगशाला में इसकी जांच के लिए कहा जाता है.दवा के प्रत्येक वर्ग में केवल एक दवा का उपयोग करना ही संभव है.
यदि उपचार के लिए पांच दवाएं ढूंढना मुश्किल है तो चिकित्सक इस बात का अनुरोध कर सकता है कि उच्च स्तरीय INH -प्रतिरोध की जांच की जाये. अगर उपभेद में केवल निम्न स्तर का INH -प्रतिरोध है (प्रतिरोध 1.0 mg/l INH पर, परन्तु 0.2 mg/l INH पर संवेदी) तो INH की उंची खुराक का उपयोग उपचार के एक हिस्से के रूप में किया जा सकता है. दवाओं को जारी रखने के साथ, PZA और इंटरफेरॉन का काउंट शून्य हो जाता है; अर्थात, चार दवाओं के साथ PZA को शामिल करने से, आप पांच करने के लिए एक दवा का चयन और कर सकते हैं. एक से अधिक इंजेक्शन वाली दवा का उपयोग करना संभव नहीं होता (STM, केप्रिओमाइसिन या एमिकासिन), क्योंकि इन दवाओं का विषाक्त प्रभाव थोड़ा बहुत हो सकता है: अगर संभव हो, एमिनोग्लाइकोसाइड्स प्रतिदिन कम से कम तीन महीने के लिए दी जानी चाहिए (और संभवतया इसके बाद सप्ताह में तीन बार). सिप्रोफ्लोक्सासिन का उपयोग ट्यूबरकुलोसिस के उपचार में नहीं किया जाना चाहिए अगर अन्य फ्लोरोक्विनोलोन उपलब्ध हो.
MDR-टीबी में उपयोग के लिए कोई आंतरायिक उपचार नहीं है, परन्तु चिकित्सकीय अनुभव यह है कि सप्ताह में पांच दिन के लिए इंजेक्शन से दी जाने वाली दवाओं (क्योंकि सप्ताहांत पर दवा देने के लिए कोई भी उपलब्ध नहीं होता है) का बुरा परिणाम नहीं होता. प्रत्यक्ष प्रेक्षित थेरेपी निश्चित रूप से MDR -टीबी के परिणामों में सुधार करने में मदद करती है और इसे MDR -टीबी के उपचार का एक अभिन्न हिस्सा माना जाना चाहिए.
उपचार के लिए क्या प्रतिक्रिया हो रही है, इसका पता लगाने के लिए बार बार थूक का कल्चर किया जा सकता है (अगर संभव हो तो हर माह इसे करना चाहिए). MDR-टीबी का उपचार कम से कम 18 महीने के लिए दिया जाना चाहिए और इसे तब तक नहीं रोकना चाहिए जब तक कि रोगी का कल्चर कम से कम नौ महीने के लिए नकारात्मक ना हो जाये. MDR-टीबी के रोगियों में दो साल या अधिक समय के लिए उपचार करना असामान्य नहीं है.
अगर संभव हो तो MDR-टीबी के रोगियों को एक नकारात्मक दबाव के कमरे में अलग रख देना चहिये.
MDR-टीबी के रोगियों को उसी वार्ड में नहीं रखा जाना चाहिए जिसमें प्रतिरक्षादमन के रोगियों (एचआईवी संक्रमित रोगी, या ऐसे रोगी जिन्हें प्रतिरक्षा दमन की दवाएं दी जा रही हैं) को रखा गया है.
MDR-टीबी के प्रबंधन के लिए उपचार के अनुपालन की निगरानी सावधानीपूर्वक की जानी चाहिए (और कुछ चिकित्सक केवल इसीलिए रोगी को अस्पताल में भर्ती करने की सलाह देते हैं). कुछ चिकित्सकों के अनुसार रोगी को तब तक अलग रखना चाहिए जब तक उसका स्मियर नकारात्मक ना हो जाये, या सिर्फ कल्चर नकारात्मक हो जाये (इसमें कई महीनों, यहां तक कि सालों का समय भी लग सकता है). रोगी को कई सप्ताहों या महीनों के लिए अस्पताल में रखना व्यावहारिक रूप से असंभव होता है, और इसका अंतिम फैसला रोगी का उपचार करने वाले चिकित्सक पर निर्भर करता है. चिकित्सक को विषाक्त प्रभाव से बचने के लिए और अनुपालन पर निगरानी रखने के लिए दवाओं का पूर्ण उपयोग (विशेष रूप से एमिनोग्लाइकोसाइड्स) करना चाहिए.
कुछ पूरक ट्यूबरकुलोसिस के उपचार में उपयोगी हो सकते हैं, परन्तु MDR -टीबी की दवाओं को जारी रखने के प्रयोजन के लिए, उनकी गणना शून्य की जाती है. (यदि आपके उपचार में पहले से तीन दवाएं चल रही हैं, तो आर्जिनिन या विटामिन D या दोनों को शामिल करना लाभकारी हो सकता है, लेकिन आपको पांच दवाएं पूरी करने के लिए फिर भी एक दवा की आवश्यकता होती है.
·       आर्जिनिन  (मूंगफली इसका एक अच्छा स्रोत है)
·       विटामिन डी
नीचे सूची में दी गयी दवाओं का उपयोग निराशा के साथ किया जाता है और यह अनिश्चित है कि वे प्रभावी हैं या नहीं. इनका उपयोग तब किया जाता है जब ऊपर दी गयी सूची में पांच दवाओं को ढूंढना संभव नहीं होता.
·       इमिपेनेम
·       को-एमोक्सिक्लेव
·       क्लोफाज़िमाइन
·       प्रोकलोरपेराजाइन
·       मेट्रोनिडाजोल
नीचे दी गयी दवाएं प्रयोगात्मक यौगिक हैं और व्यावसायिक रूप से उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन इन्हें निर्माता से चिकित्सकीय परिक्षण के लिए या क्षतिपूर्ति आधार पर प्राप्त किया जा सकता है. उनकी प्रभावकारिता और सुरक्षा अज्ञात हैं:
·       PA-824 [76] (पेथोजिनेसिस कोरपोरेशन, सिएटल, वाशिंगटन द्वारा विनिर्मित
·       R207910 [77] (कोएन एन्द्रीस एट अल., जॉनसन एंड जॉनसन के तहत विकसित).
MDR -टीबी के उपचार में शल्य चिकित्सा की भूमिका के प्रमाण बढ़ रहें हैं (लोबेकटोमी या न्युमोनेक्टोमी), हालांकि इसे ठीक प्रकार से नहीं बताया गया है कि यह जल्दी की जानी चाहिए या देर से.
आधुनिक समय में, तपेदिक की शल्य चिकित्सा, कई दवाओं से प्रतिरोधी टीबी के प्रबंधन तक ही सीमित है. MDR-टीबी का रोगी जिसका कल्चर कई महीने के उपचार के बाद भी सकारात्मक रहता है, उसमें संक्रमित ऊतक को काटने के लिए लोबेक्टोमी या न्युमोनेक्टोमी का उपयोग किया जाता है. शल्य चिकित्सा के लिए उपयुक्त समय निर्धारित नहीं है, और शल्य चिकित्सा के बाद भी रुग्णता बनी रह सकती है. अमेरिका में एक केंद्र है जिसके पास सबसे ज्यादा अनुभव है. यह केंद्र डेनवर, कोलोराडो में नेशनल ज्यूइश मेडिकल एंड रिसर्च सेंटर है. 1983 से 2000 तक, इन्होने 172 रोगियों में 180 शल्य चिकित्साएं कीं; इनमें से 98 लोबेक्टोमी थीं, और 82 न्यूमोनेक्टोमी थीं. इसमें 3.3% ऑपरेटिव मृत्यु दर दर्ज की गयी; 6.8% लोग ऑपरेशन के बाद मर गए; 12% में महत्वपूर्ण रुग्णता (विशेष रूप से सांस ना ले पाने की स्थिति) की स्थिति बनी रही 91 रोगी जिनका कल्चर शल्य चिकित्सा से पहले सकारात्मक था, उनमें से 4 का कल्चर शल्य चिकित्सा के बाद भी सकारात्मक आया.
शल्य चिकित्सा के बाद तपेदिक का उपचार करने के बाद भी कुछ जटिलताएं पायीं गयीं जैसे बार बार हिमोपटाईसिस, फुफ्फुस का नष्ट हो जाना या एम्पाइएमा (फुफ्फुसीय गुहा में मवाद का इकठ्ठा हो जाना).
फुफ्फुस के अलावा किसी अन्य अंग के टीबी में, शल्य चिकित्सा अक्सर निदान के लिए आवश्यक होती है (उपचार के लिए नहीं): लसिका पर्वों की सर्जिकल छंटाई, फोड़े में से स्राव, ऊतक बायोप्सी, आदि इसके उदाहरण हैं. टीबी कल्चर के लिए लिए गए नमूनों को निर्जर्मीकृत पात्र में रखकर प्रयोगशाला भेजा जाना चाहिए, ध्यान रखना चाहिए की इसमें कोई बाहरी पदार्थ ना मिल जाये (यहां तक की पानी या सलाइन भी नहीं) और जितना जल्दी हो सके इसे प्रयोगशाला पहुंचा दिया जाना चाहिए. जहां तरल कल्चर की सुविधा उपलब्ध है, निर्जर्मीकृत स्थान से नमूने को सीधे प्रक्रिया स्थान में डाल दिया जाना चाहिए; इससे परिणाम में सुधार आता है. मेरुरज्जु के टीबी में, रीढ़ की हड्डी के अस्थिरता के लिए शल्य चिकित्सा का संकेत दिया जाता है (जब अस्थियों को बहुत अधिक नुकसान पहुंच चूका हो) या जब मेरुरज्जु को ख़तरा हो. टीबी के संग्रह के स्राव की नियमित जांच के संकेत दिए जाते हैं और यह उपयुक्त उपचार में मददगार होते हैं. टीबी मैनिंजाइटिस में, हाइड्रोसिफेलस एक संभावी जटिलता है और इसमें वेंट्रिकुलर को डालने की या स्राव को बंद करने की आवश्यकता हो सकती है.

एथेमब्युटोल का नाम EMB या E है,
आइसोनियाज़िड का नाम INH या H है.
पायराज़ीनामाईड का नाम PZA या Z है,
रिफाम्पिसिन का नाम RMP या R है,
स्ट्रेप्टोमाइसिन का नाम STM या S है

बुधवार, 28 नवंबर 2012

Trans fat


Trans fat is the common name for unsaturated fat with trans-isomer (E-isomer) fatty acid(s). Because the term refers to the configuration of a double carbon-carbon bond, trans fats are sometimes monounsaturated or polyunsaturated, but never saturated. Trans fats do exist in nature but also occur during the processing of polyunsaturated fatty acids in food production.
The consumption of trans fats increases the risk of coronary heart disease by raising levels of LDL cholesterol and lowering levels of "good" HDL cholesterol. There is an ongoing debate about a possible differentiation between trans fats of natural origin and trans fats of vegetable origin but so far no scientific consensus was found. Unsaturated fat is a fat molecule containing one or more double bonds between the carbon atoms. Since the carbons are double-bonded to each other, there are fewer bonds connected to hydrogen, so there are fewer hydrogen atoms, hence the name, 'unsaturated'. Cis and trans are terms that refer to the arrangement of the two hydrogen atoms bonded to the carbon atoms involved in a double bond. In the cis arrangement, the hydrogens are on the same side of the double bond. In the trans arrangement, the hydrogens are on opposite sides of the double bond.
The process of hydrogenation adds hydrogen atoms to unsaturated fats, eliminating double bonds and making them into partially or completely saturated fats. However, partial hydrogenation, if it is chemical rather than enzymatic, converts a part of cis-isomers into trans-unsaturated fats instead of hydrogenating them completely. Trans fats also occur naturally in a limited number of cases: Vaccenyl and conjugated linoleyl (CLA) containing trans fats occur naturally in trace amounts in meat and dairy products from ruminants, although the latter also constitutes a cis fat.
In chemical terms, trans fat refers to a lipid molecule that contains one or more double bonds in trans geometric configuration. A double bond may exhibit one of two possible configurations: transor cis. In trans configuration, the carbon chain extends from opposite sides of the double bond, rendering a straighter molecule, whereas, in cis configuration, the carbon chain extends from the same side of the double bond, rendering a bent molecule.
Fatty acids are characterized as either saturated or unsaturated based on the presence of double bonds in its structure. If the molecule contains no double bonds, it is said to be saturated; otherwise, it is unsaturated to some degree.
Only unsaturated fats can be trans or cis fat, since only a double bond can be locked to these orientations. Saturated fatty acids are never called trans fats because they have no double bonds, and, therefore, all their bonds are freely rotatable. Other types of fatty acids such as crepenynic acid, which contains a triple bond, are rare and of no nutritional significance.
Carbon atoms are tetravalent, forming four covalent bonds with other atoms, whereas hydrogen atoms bond with only one other atom. In saturated fatty acids, each carbon atom is connected to its two neighbour carbon atoms as well as two hydrogen atoms. In unsaturated fatty acids, the carbon atoms that are missing a hydrogen atom are joined by double bonds rather than single bonds so that each carbon atom participates in four bonds.
Hydrogenation of an unsaturated fatty acid refers to the addition of hydrogen atoms to the acid, causing double bonds to become single ones, as carbon atoms acquire new hydrogen partners (to maintain four bonds per carbon atom). Full hydrogenation results in a molecule containing the maximum amount of hydrogen (in other words, the conversion of an unsaturated fatty acid into a saturated one). Partial hydrogenation results in the addition of hydrogen atoms at some of the empty positions, with a corresponding reduction in the number of double bonds. Typical commercial hydrogenation is partial in order to obtain a malleable mixture of fats that is solid at room temperature, but melts upon baking (or consumption).
In most naturally occurring unsaturated fatty acids, the hydrogen atoms are on the same side of the double bonds of the carbon chain (cis configuration — from the Latin, meaning "on the same side"). However, partial hydrogenation reconfigures most of the double bonds that do not become chemically saturated, twisting them so that the hydrogen atoms end up on different sides of the chain. This type of configuration is called trans, from the Latin, meaning "across". The trans configuration is the lower energy form, and is favored when catalytically equilibrated as a side reaction in hydrogenation.
The same molecule, containing the same number of atoms, with a double bond in the same location, can be either a trans or a cis fatty acid depending on the configuration of the double bond. For example, oleic acid and elaidic acid are both unsaturated fatty acids with the chemical formula C9H17C9H17O2. They both have a double bond located midway along the carbon chain. It is the configuration of this bond that sets them apart. The configuration has implications for the physical-chemical properties of the molecule. The trans configuration is straighter, while the cis configuration is noticeably kinked as can be seen from the three-dimensional representation shown above.
The trans fatty acid elaidic acid has different chemical and physical properties, owing to the slightly different bond configuration. It has a much higher melting point, 45 °C, than oleic acid, 13.4 °C, due to the ability of the trans molecules to pack more tightly, forming a solid that is more difficult to break apart. This notably means that it is a solid at human body temperatures.
In food production, the goal is not to simply change the configuration of double bonds while maintaining the same ratios of hydrogen to carbon. Instead, the goal is to decrease the number of double bonds and increase the amount of hydrogen in the fatty acid. This changes the consistency of the fatty acid and makes it less prone to rancidity (in which free radicals attack double bonds). Production of trans fatty acids is therefore an undesirable side effect of partial hydrogenation.
Catalytic partial hydrogenation necessarily produces trans-fats, because of the reaction mechanism. In the first reaction step, one hydrogen is added, with the other, coordinatively unsaturated, carbon being attached to the catalyst. The second step is the addition of hydrogen to the remaining carbon, producing a saturated fatty acid. The first step is reversible, such that the hydrogen is readsorbed on the catalyst and the double bond is re-formed. The intermediate with only one hydrogen added contains no double bond and can freely rotate. Thus, the double bond can re-form as either cis or trans, of which trans is favored, regardless the starting material. Complete hydrogenation also hydrogenates any produced trans fats to give saturated fats.
Trans fat levels may be measured. Measurement techniques include chromatography (by silver ion chromatography on thin layer chromatography plates, or small high-performance liquid chromatography columns of silica gel with bonded phenylsulfonic acid groups whose hydrogen atoms have been exchanged for silver ions). The role of silver lies in its ability to form complexes with unsaturated compounds. Gas chromatography and mid-infrared spectroscopy are other methods in use.

भारत के प्रमुख तकनीकी संस्थान एवं उनके मुख्यालय

वैज्ञानिक एवं तकनीकी संस्थान
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इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ ट्रॉपिकल मीटिरियोलॉजी
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बंगलुरू
रमन अनुसंधान संस्थान
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भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी
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भारतीय विज्ञान कांग्रेस संघ
कोलकाता
भारतीय राष्ट्रीय इंजीनियरी अकादमी
नई दिल्ली
भारतीय राष्ट्रीय महासागर और सूचना सेवा केन्द्र
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राष्ट्रीय अंटार्कटिक और महासागर शोध केन्द्र
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राष्ट्रीय जैविक विज्ञान केन्द्र
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राष्ट्रीय प्रतिरक्षीकरण संस्थान
नई दिल्ली
राष्ट्रीय कोशिका विज्ञान केन्द्र
पुणे
राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केन्द्र
मानेसर (हरियाणा)
राष्ट्रीय पौध जीनोम अनुसंधान केन्द्र
नई दिल्ली
राष्ट्रीय भूकम्प विज्ञान आँकड़ा केन्द्र
नई दिल्ली
राष्ट्रीय परीक्षण और अंशांकन प्रमाणन बोर्ड
नई दिल्ली
राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी
इलाहाबाद
सर्वेक्षण प्रशिक्षण संस्थान
हैदराबाद
बोस संस्थान
कोलकाता
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तिरुवनन्तपुरम
वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ़ हिमालयन जिओलॉजी
देहरादून
एस.एन. बोस राष्ट्रीय मूल विज्ञान केन्द्र
कोलकाता
बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट ऑफ़ पेलियोबोटनी
लखनऊ
टेक्नोलॉजी इम्फ़ार्मेशन फ़ोरकास्टिंग एण्ड असेसमेंट काउंसिल
नई दिल्ली
विज्ञान प्रसार
नई दिल्ली
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बंगलुरू
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हैदराबाद
भारतीय यूरेनियम निगम लिमिटेड
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भाभा एटोमिक रिसर्च सेन्टर
मुम्बई
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नई दिल्ली
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अहमदाबाद
हरीशचन्द्र अनुसंधान संस्थान
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कोलकाता
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मुम्बई
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सर्वेक्षण प्रशिक्षण संस्थान
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