रविवार, 9 फ़रवरी 2014

बांग्लादेश की भयावह तस्वीर

बांग्लादेश में चुनाव बाद की हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है। इस हिंसा के सबसे अधिक शिकार हिंदू हो रहे हैं। बांग्लादेश में पिछले माह आम चुनाव हुआ था। उसके बाद कट्टरपंथियों के हमले में ढाई सौ लोग हताहत हुए हैं। एक बांग्ला दैनिक के मुताबिक इस दौरान अल्पसंख्यकों के पांच सौ घरों में आग लगाई गई है। बांग्लादेश के हिंदू व बौद्धों की सबसे अधिक आबादी दौचंगा, मेहरपुर, जेसोर और डोनाइडाह जिलों में है और उन पर हमले भी वहीं हो रहे हैं। एक समाचार पत्र में प्रकाशित खबर का शीर्षक है-चंपातला में सिर्फ रुदन। इसमें बताया गया है कि चुनाव के बाद किस तरह जमात-ए-इस्लामी तथा बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के समर्थकों ने जेसोर जिले के चंपातला में हिंदू परिवारों पर अत्याचार किए और महिलाओं के साथ ज्यादती की। कालीगंज, टाला और कलरवा में प्राय: सभी हिंदुओं के घरों को आग लगा दी गई। 1बांग्लादेश के कट्टरपंथी इसलिए भी अल्पसंख्यकों से इस समय चिढ़े हैं, क्योंकि उनके चुनाव बहिष्कार के बावजूद अल्पसंख्यकों ने मतदान में हिस्सा लिया। बांग्लादेश में अल्पसंख्यक अवामी लीग के समर्थक माने जाते हैं, इसीलिए जमात-ए-इस्लामी तथा बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के कट्टरपंथियों के निशाने पर वे ही हैं। बांग्लादेश में हिंदू नागरिकों की आबादी आज सवा करोड़ है और उसमें 72 लाख वोटर हैं, जो तीन सौ में 22 से 25 प्रतिशत संसदीय सीटों पर अहम भूमिका अदा करते हैं और इन्हीं संसदीय क्षेत्रों में उन पर जुल्म ढाया जाता है। जिस तरह 2014 में उन पर जुल्म ढाया जा रहा है उसी तरह का जुल्म 1992 में भी किया गया था। तब बांग्लादेश में हिंदुओं के 28 हजार घरों, 2200 वाणिज्यिक उद्यमों और 3600 मंदिरों को क्षतिग्रस्त किया गया था। हिंदुओं पर अत्याचार रोकने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री खालिदा जिया ने कोई कोशिश नहीं की थी। 2001 के संसदीय चुनाव के दौरान भी अल्पसंख्यकों पर जमकर हमले हुए। हर बार की तरह इस बार भी कट्टरपंथियों के हमले से बचने के लिए हजारों बांग्लादेशी हिंदू भागकर पश्चिम बंगाल के उत्तारी 24 परगना, नदिया, दक्षिण दिनाजपुर में आश्रय लिए हुए हैं। उस पार से जो हिंदू इस पार आ गए वे कभी नहीं लौटे। बांग्लादेश के हिंदू शरणार्थी भी बंगाल और अन्यत्र आकर सम्मानपूर्वक रह लेते हैं, दिहाड़ी मजदूरी करते हैं, फेरी लगाते हैं, रिक्शा खींचते हैं और तरह-तरह के काम कर पैसा कमाकर जीवन काटते हैं, किंतु उस पार लौटने की सपने में भी नहीं सोचते। 1बांग्लादेश के लेखक सलाम आजाद ने अपनी किताब में जो आंकड़े दिए हैं वे भयावह तस्वीर पेश करते हैं। सलाम आजाद ने लिखा है कि कट्टरपंथी संगठनों के अत्याचार से तंग आकर 1974 से 1991 के बीच प्रतिदिन औसतन 475 लोग यानी हर साल एक लाख 73 हजार 375 हिंदू हमेशा के लिए बांग्लादेश छोड़ने को बाध्य हुए। यदि उनका पलायन नहीं हुआ होता तो आज बांग्लादेश में हिंदू नागरिकों की आबादी सवा तीन करोड़ होती। 1941 में पूर्वी पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी 28 प्रतिशत थी, जो 1951 में 22 प्रतिशत, 1961 में 18.5 प्रतिशत, 1974 में 13.5 प्रतिशत, 1981 में 12.13 प्रतिशत, 1991 में 11.6 प्रतिशत, 2001 में 9.6 प्रतिशत और 2011 में घटकर 8.2 प्रतिशत हो गई। सलाम आजाद ने लिखा है कि बांग्लादेश के हिंदुओं के पास तीन ही रास्ते हैं-या तो वे आत्महत्या कर लें या मतांतरण कर लें या पलायन कर जाएं। बांग्लादेश में शत्रु अर्पित संपत्तिकानून, देवोत्तार संपत्तिपर कब्जे ने अल्पसंख्यकों को कहीं का नहीं छोड़ा है। इसके अलावा उस पार हिंदुओं को भारत का समर्थक या एजेंट, काफिर कहकर प्रताड़ित किया जाता है। इसे बांग्लादेश से हिंदुओं को भगाने के जेहाद के रूप में भी देखा जा सकता है। जिस तरह वहां के कट्टरपंथी तत्व हिंदुओं और बौद्धों पर आक्त्रमण कर रहे हैं उसका मकसद देश को अल्पसंख्यकों से पूरी तरह खाली कराना है। पंथनिरपेक्षता के पैरोकार इस मामले पर क्यों खामोश हैं? क्या यह दुखद नहीं कि मौजूदा प्रधानमंत्री शेख हसीना भी वहां अल्पसंख्यकों की रक्षा नहीं कर पा रही हैं? जो लोग बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के विरोधी थे, जिन्होंने मुक्ति संग्राम लड़ने वाले तीस लाख लोगों को मार डाला, तीन लाख महिलाओं के साथ दुष्कर्म किया, तीन हजार भारतीय सैनिकों को मार डाला उसी जमाते इस्लामी के लोग साल भर से अराजकता फैलाने में जुटे हैं। जमाते इस्लामी के कट्टरपंथियों ने मुक्ति संग्राम के दौरान सौ से ज्यादा बुद्धिजीवियों को मार डाला था। यदि बांग्लादेश को आजादी मिलने में और हफ्ता भर की देरी होती तो बचे हुए बुद्धिजीवियों को भी उन्होंने मार दिया होता। 1अब जमाते इस्लामी के वही कट्टरपंथी बचे हुए हिंदुओं को खत्म कर देना चाहते हैं। वे बांग्लादेश को एक दूसरा पाकिस्तान बनाना चाहते हैं। अब सवाल यह है कि बांग्लादेश के हिंदू क्या करें? रास्ता कैसे निकलेगा? इसका जवाब यही है कि रास्ता तभी निकलेगा जब बांग्लादेश में सांप्रदायिक राजनीति को निषिद्ध किया जाए। राष्ट्र सबका है, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान। कहने की जरूरत नहीं कि आज सबसे बड़ी चिंता दुनिया में हर जगह बहुसंख्यक द्वारा अल्पसंख्यक का सांप्रदायिक उत्पीड़न है। कहीं भी सांप्रदायिक उत्पीड़न के शिकार निरीह लोग ही हैं। इस समय दुनिया कट्टरता के जिस खतरे से जूझ रही है उसका सामना यदि सही तरह नहीं किया गया तो स्थितियां और अधिक बिगड़ेंगी। अमेरिका जिस तरीके से कट्टरता को समाप्त करना चाहता है उससे सहमत नहीं हुआ जा सकता। उसके तरीके से भी निरीह लोग ही मारे जाते हैं। इराक और अफगानिस्तान में दुनिया इसे देख चुकी है।

शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

पूंजीवादी युग में कट्टरपंथ की वजह

जब दुनिया पूरी तरह से पूंजीवाद की उंगली पकड़कर बाजार की गलियों में चलने के लिए तैयार हुई थी तो यह उम्मीद जगाई गई थी कि दुनिया से धर्म, नस्ल या संस्कृति के पारम्परिक सरोकारों का स्थान पूंजीवादी उदारवाद ग्रहण कर लेगा और फिर वह उन रिक्तियों को भरने का कार्य करेगा जो इनके मध्य टकरावों का निर्माण करती हैं। महत्वपूर्ण बात तो यह है कि पूंजीवाद ने तो अपना प्रभाव पूरी तरह से जमा लिया और  बाजार कुछ इतनी खुली गलियाें का निर्माण कर लिया जिनके किनारों का तलाशना मुश्किल है। खास बात यह है कि बहुत हद तक धर्म भी बाजार के रंग में रंगा लेकिन उसकी परम्परागत प्रकृति बदलाव और कट्टरपंथी उभारों में कमी नहीं  आई परिणाम यह हुआ कि दुनिया आगे बढ़ने के क्रम में टकराव की ओर बढ़ती चली गई। सवाल यह उठता है कि ऐसा क्यों हुआ? बाजार स्वातंत्र्य तथा विज्ञान और तकनीक के इस आधुनिक युग में धर्म के नाम मानवता की हत्या में वृध्दि क्यों? क्या यह सभ्यताओं या फिर संस्कृतियों का टकराव है अथवा आधुनिक युग की विकृत होती मानसिकता का पर्याय? या फिर यह मान लें कि बाजारवाद पूंजीवाद के आगमन के बाद धार्मिक कट्टरपंथ उसके द्वारा आच्छादित नहीं हुआ, बल्कि उससे प्रेरित और उत्तेजित हुआ? लेकिन क्यों?

पिछले दिनों अमेरिका की एक रिसर्च इंस्टीटयूट पिउ रिसर्च सेंटर ने दुनिया के 198 देशों को अपनी एक स्टडी के माध्यम से बताया है कि उन देशों की संख्या, जिनमें धर्म की वजह से उच्च या अति उच्च लेवल का सामाजिक टकराव बढ़ा है, पिछले छह वर्षों (वर्ष 2007 से 2012) में शिखर पर पहुंच गई है। उल्लेखनीय है दुनिया में धार्मिक टकराव को लेकर पिउ रिसर्च सेंटर द्वारा जारी यह पांचवीं स्टडी रिपोर्ट हैं जिसमें उसने कुछ प्रमुख इंडेक्सेज को लेकर ये निष्कर्ष निकाले हैं।  इनमें एक है जीआरआई (गवर्नमेंट रिस्ट्रिक्शन इंडेक्स) और दूसरा है एसएचआई  (सोशल होस्टैलिटीज इंडेक्स)। इन स्केल्स के अनुसार दुनिया के 198 देशों में से 33 प्रतिशत देश और टेरिटोरीज वर्ष 2012 में उच्च स्तर के धार्मिक टकराव में शामिल थीं, जिनकी संख्या वर्ष 2011 में 29 प्रतिशत और मध्य 2007 में 20 प्रतिशत थी। विशेष बात तो यह है कि रिसर्च के अनुसार अमेरिका को छोड़कर दुनिया के प्रत्येक प्रमुख क्षेत्र में धार्मिक टकराव बढ़ा है। मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में इस तरह के टकराव में सबसे तेजी से वृध्दि हुई है जिसका कारण सम्भवत: वर्ष 2010-11 का अरब स्प्रिंग नाम का वह राजनीतिक विद्रोह है जिसने सत्ता परिवर्तन के लिए मार्ग भी प्रशस्त किया। लेकिन एशिया-पेसिफिक क्षेत्र का धार्मिक टकराव का बढ़ना और विशेषकर चीन का इस मामले में पहली बार 'हाई कैटेगरी' के स्तर पर पहुंचना, ध्यान देने योग्य बात है।

रिसर्च पर ध्यान दें तो पता चलेगा कि दुनिया भर में धार्मिक शत्रुता के एक जैसे उदाहरण सामने नहीं आए हैं, बल्कि उनकी प्रकृति भिन्न-भिन्न है। कहीं पर धार्मिक शत्रुता माइनारिटीज और मैजारिटीज के बीच टकराव के रूप में सामने आई है तो कहीं पर माइनारिटीज के साथ दर्ुव्यवहार के रूप में। कहीं पर यह अपने ही धर्म के अनुयाईयों के खिलाफ कोड ऑफ कंडक्ट का पालन कराने के लिए हमलावर होती दिखी है तो कहीं पर महिलाओं की यूनिफार्म को लेकर। कहीं पर यह शत्रुता एक धर्म द्वारा दूसरे धर्म के लोगों या उनकी संस्थाओं पर हमले के रूप में दिखी है तो कहीं पर साम्प्रदायिक दंगों के रूप में। इनसे जुड़े कुछ महत्वपूर्ण उदाहरणों के रूप में लीबिया और सीरिया में कॉप्टिक आर्थोडॉक्स ईसाईयों पर हमला; सोमालिया में कट्टरपंथी आतंकी संगठन अल-शबाब द्वारा अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों के लोगों को धार्मिक नियमों का पालने कराने (यह संगठन सिनेमा, संगीत, स्मोकिंग, दाढ़ी बनाने आदि को गैर-इस्लामी मानता है) के लिए हमला, अमेरिका में सिख गुरुद्वारे पर ईसाईयों का हमला; चीन में झिनझियांग में हान चीनियों द्वारा उइगर मुसलमानों पर हमला; तिब्बत में बौध्दों द्वारा 'हुइ मुसलामनों' पर हमला, म्यांमार में राखिन प्रांत में बौध्दों का रोहिंग्या मुसलमानों का हमला, पाकिस्तान में हिन्दुओं पर हमला... आदि को देखा जा सकता है। इस प्रकार के धार्मिक टकरावों में मैजारिटीज द्वारा माइनारिटीज के साथ किए गए दर्ुव्यवहारों में सबसे यादा वृध्दि हुई है ( 2011 के 38 प्रतिशत के मुकाबले 2012 में 47 प्रतिशत), दूसरे स्थान पर कोड ऑफ कंडक्ट का पालन कराने के लिए प्रयुक्त हिंसा है (2011 के 33 प्रतिशत के मुकाबले 2012 में 39 प्रतिशत) जबकि तीसरे स्थान पर महिलाओं के धार्मिक यूनिफार्म को लेकर (2011 के 25 प्रतिशत के मुकाबले 2012 में 32 प्रतिशत जबकि 2007 में यह संख्या 7 प्रतिशत थी) हुए हमले हैं। धार्मिक नियमों का पालन न करने पर डराना या हिंसा करने के मामले में भारत को भी इस रिपोर्ट में शामिल किया गया है। हालांकि रिसर्च स्टडी में बंगलादेश का नाम नहीं है, लेकिन इस समय बंगलादेश में भी हिंदुओं की स्थिति बेहद तकलीफदेह है। बीते 5 जनवरी को बंगलादेश में हुए जनरल इलेक्शन का बीएनपी और जमाते इस्लामी द्वारा किए बायकॉट आह्वान के बाद भी हिन्दुओं ने इलेक्शन में भाग लिया जिसकी भारी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी। खुद बंगलादेश के अखबारों ने लिखा है कि ठाकुरगांव, दिनाजपुर, रंगपुर, बोगरा, लालमोनिरहाट, गायबंधा, राजशाही, चटगांव और जेसोर जिलों में जितने बड़े पैमाने पर तथा जिस बेरहमी के साथ हिंदू परिवारों, उनके घर और ठिकानों पर हमले हुए हैं, उससे 1971 में पाकिस्तान समर्थक समूहों द्वारा दिखाई गई बर्बरता की यादें ताजा हो गई हैं। वास्तव में इस संदर्भ में पाकिस्तान से आने वाली खबरों को भी जोड़ कर देखें तो देश के बंटवारे के 66 वर्ष बाद पाकिस्तान और बंगलादेश में अल्पसंख्यकों की हालत को लेकर लाचारी का आलम नजर आता है। पाकिस्तान हिंदू काउंसिल नामक संस्था की रिपोटर्ें बताती हैं कि वहां हिंदू लड़कियों के अपहरण और जबरन विवाह तथा हिंदुओं के अंत्येष्टि स्थलों पर कब्जे की घटनाएं बेलगाम जारी हैं।

बहरहाल हमलों की प्रकृति को देखने से एक बात साफ पता चलती है कि यूरोप, अमेरिका और कुछ हद तक श्रीलंका में हमलों का स्वरूप संस्थागत अधिक रहा इसलिए वहां इस टकराव का कारण या तो आर्थिक है अथवा राजनीतिक। पाकिस्तान में हिंदुओं के खिलाफ हिंसा और म्यांमार में रोहिंग्याओं के खिलाफ हिंसा का कारण धार्मिक विद्वेष अधिक रहा जिसके लिए वहां के कट्टरपंथी समूहों के साथ-साथ राजनीतिक सरकारें कहीं अधिक दोषी हैं। इराक में शिया-सुन्नी टकराव और अल्जीरिया में मुस्लिम-ईसाई टकराव का पक्ष दूसरा है और वहां पर पूरी तरह  से नवउपनिवेशवाद और बहुत हद तक अमेरिकी हस्तक्षेप इसका इस धार्मिक टकराव का कारण है। लेकिन सोमालिया आदि में जो धार्मिक उत्पीड़न हो रहा है वहां पर दबे-कुचले और जीवन के मूलभूत संसाधनों से वंचित लोग इसका शिकार हो रहे हैं, जिसका मूल कारण देश में अक्षम गवर्नेंस की उपस्थिति या गवर्नेंस की अनुपस्थिति, पश्चिमी हस्तक्षेप, कट्टरपंथी समूहों का ताकतवर होना है।


कुल मिलाकर भले ही हम यह कह लें कि हम एक उदार दुनिया का निर्माण करने की ओर बढ़ रहे हैं, हम आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं या हम सभ्यता की एक घनी चादर का निर्माण करने में सफल हैं अथवा हमने उदार लोकतांत्रिक संस्थाओं का निर्माण करने में सफलता अर्जित की है जो धर्म के द्वारा नहीं बल्कि धर्म को नियंत्रित कर आधुनिक कानूनों द्वारा चलती हैं, लेकिन यह स्टडी इन दावों को पूरी तरह से खारिज करती दिख रही है। पूरी दुनिया में धार्मिक उन्माद या धर्म अथवा नस्लवादी हिंसा की लगातार होती वृध्दि के बावजूद क्या यह मान लिया जाए कि हम वास्तव में आधुनिक युग का एक हिस्सा हैं? सामान्य अवधारणाएं चाहे जिस रूप में व्यक्त हों लेकिन इसका एक पक्ष यह है कि जैसे-जैसे दुनिया असमान विकास की तरफ खिसकती जाएगी, वैसे-वैसे आर्थिक अक्षमता के उप-उत्पादों के रूप में धार्मिक, सांस्कृतिक अथवा नस्लीय टकरावों की संख्या बढ़ेगी। तब क्या यह कहा जा सकता है कि बाजारवादी पूंजीवाद जैसे-जैसे परिपक्व  होगा, वैसे-वैसे मध्यकालीन या औपनिवेशिककालीन प्रत्ययों की भूमिका नये किस्म के टकरावों में बढ़ती जाएगी

श्रीलंका: तमिल समस्या के वैश्विक निहितार्थ

श्रीलंका में तमिल समुदाय पर हो रहे अत्याचारों को रोकने के साथ ही साथ उनकी जमीनों, घरोंबस्तियों और गांवों  को  बचाने की रणनीति बनाने हेतु लंदन में ब्रिटिश संसद 'हाउस ऑफ कॉमन्स' के एक सभागार में 31 जनवरी को एक वैश्विक बैठक का आयोजन किया गया था। इस बैठक में ब्रिटेन के विभिन्न दलों के सांसदों के अतिरिक्त श्रीलंका, भारत, अमेरिका, जर्मनी, बंगलादेश आदि देशों के सैकड़ों नागरिक उपस्थित थे।  गौरतलब है कि सन् 2002 से प्रारंभ हुए युध्द के अंतिम दौर में ही तकरीबन 1,50,000 ऐसे लोग मारे गए थे, जिन्हें युध्द से प्रभावित होने से बचाने के लिए श्रीलंका सरकार द्वारा सुरक्षा क्षेत्र में रखा गया था। लेकिन बाद में बड़ी निर्ममता के साथ बमबारी कर उन्हें मार डाला गया। इतना ही नहीं इस दौरान विद्यालयों, घरों और अस्पतालों पर भी बमबारी की गई थी। गौरतलब है कि सन् 2006 में युध्दविराम लागू होने के पहले मृत व्यक्तियों की गिनती तो आज तक सामने आई ही नहीं है। इस प्रक्रिया में लाखों विस्थापित हो गए और आज वे भारत से लेकर जर्मनी तक तमाम देशों में बसे हुए हैं। इसके बावजूद इस घृणित अपराध की सजा भुगतने को शासक वर्ग तैयार नहीं है।

इराक युध्द से लेकर अफगानिस्तान युध्द तक सभी में वैश्विक ताकतें खुले रूप में शामिल थीं। ऐसे में वहां हुई हत्याओं के लिए जिम्मेदार ठहराने की हिम्मत किसी में भी नहीं थी। लेकिन श्रीलंका में हुए हत्याकांडों की आवाज दुनिया भर में रहने वाले तमिलों ने जोर-शोर से उठाई। संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव के साथ कार्य कर चुके ब्रुसे फेनेने ने श्रीलंका के सेनाप्रमुख एवं राष्ट्राध्यक्ष महेंद्र राजपक्षे को आरोपी बनाकर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। राजपक्षे के अमेरिकी व श्रीलंका दोनों देशों के नागरिक होने के नाते उन्हें अमेरिकी न्यायालय वर्ष 2007 में हुए जातीय नरसंहार के अपराध में दोषी ठहरा सकते थे। किन्तु सं.रा. संघ के राजनायिकों को दी जाने वाली छूट की आड़ में उन्हें सुरक्षा कवच पहना दिया गया।

श्रीलंका विवाद में यह तय हो गया कि इस सुंदर व समृध्द टापू देश को सिंहली समाज द्वारा केवल 'अपना' घोषित करना ही एक तरह से आतंक का पर्याय था। ऐसा ही दर्प भंडारनायके के शासन के दौरान सिंहली भाषा कानून की घोषणा के समय भी सामने आया था। लेकिन इस सबके पहले से भूमि के मुद्दे पर बहुसंख्यक सिंहली, तमिलों की विरोध करते आए थे। तमिल बहुसंख्यक क्षेत्रों व उत्तर श्रीलंका में भूमि सुधार के नाम पर हुए भूमि बंटवारे में वहां सिंहली परिवारों को बसाया गया। यह एक प्रकार की जबरदस्ती ही थी। भारत में जिस प्रकार अंग्रेजों ने सन् 1935 में भूमि की कानूनी बंदोबस्ती प्रारंभ की थी ठीक वैसे ही श्रीलंका में भी तोड़ो (फूट डालो) और राज करो की नीति अपनाई गई। इससे तमिल प्रदेश में जातीय समीकरण बदलने लगा और असंतोष भी बढ़ा। सन् 1951 में किसान संगठन ने शांतिपूर्ण आंदोलन कर तमिल चेतना जागृत की और अपनी सामाजिक व सांस्कृतिक विविधता का हवाला देते हुए अल्पसंख्यकों की रक्षा का मामला उठाया। लेकिन बावजूद इसके इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया गया। परिणाम यह हुआ कि सांख्यकीय स्थितियां बदलती गई। सन् 1901 से 2012 के दौरान जहां पूर्व में तमिलों की जनसंख्या में 537 प्रतिशत की वृध्दि हुई वहीं सिंहलियों की जनसंख्या में 3991 प्रतिशत की वृध्दि हुई। ऐसा ही त्रिकोनामाली व अन्य स्थानों पर भी हुआ है।

भारत के उत्तरपूर्व की स्थिति भी यहां से काफी समानता वाली है। हाल ही में महाराष्ट्र में भी प्रांतवाद एक मुद्दा बन गया है। जाहिर है कि ऐसे मामलों से जातीय संघर्ष में वृध्दि होती ही है। इस प्रक्रिया में भूमि व प्राकृतिक संसाधन ताकतवर वर्ग के हाथ में पहुंच जाते हैं। श्रीलंका में तीन दशकों तक चले युध्द ने हमें यही तो सिखाया है। दोनों पक्षों द्वारा सन् 2006 के युध्द विराम को तोड़े जाने को भारत जैसे बड़े पड़ोसी देश की मध्यस्थता भी नहीं रोक पाई। अपनी विफलता के बावजूद हमने युध्द का समर्थन नहीं किया, लेकिन राजपक्षे सरकार द्वारा श्रीलंका के संविधान में किए गए 13वें संशोधन की आड़ में 17 सदस्यीय समिति की सिफारिशों को जबरन अमल में लाने के कारण न केवल सत्ता का केंद्रीकरण हुआ, बल्कि तमिलों के स्वनिर्धारण की मांग को युध्द से कुचलने का मौका भी मिल गया। इस महाभयंकर हत्याकांड की तुलना किसी अन्य घटना से नहीं की जा सकती। वैसे भी इस फासिस्ट व नस्लवादी हिंसा की तुलना असंभव ही है। दुनिया भर में हो रही भर्त्सना व सं.रा. संघ के पूर्व अधिकारियों, तमिल समुदाय व तमिल राजनेताओं के बढ़ते आक्रोश के मद्देनजर भारतीय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह राष्ट्रमंडल सम्मेलन में भाग लेने श्रीलंका नहीं पहुंचे। यहां विदेशमंत्री ने भारत का प्रतिनिधित्व किया था। लेकिन इस सम्मेलन में युध्द अपराधों पर न तो कोई बात हुई और 1500 व्यक्तिगत मामलों (युध्द अपराध संबंधी) पर भी कोई कार्रवाई नहीं हो पाई। गौरतलब है श्रीलंका में अब 'भूमि' का मामला तूल पकड़ता जा रहा है। इसमें राय द्वारा भूमि हड़पना और तमिल समुदाय को जीविका से वंचित रखना एक नई चुनौती है और यह हिंसा का नया प्रकार है। युध्द के दौरान हजारों एकड़ जमीनें (10500 एकड़) सैनिक शिविर के नाम पर अधिग्रहित कर ली गई। इस दौरान सुदूर क्षेत्रों में तथाकथित कल्याणकारी गांव व केंद्र बनाए गए। जाफना में 6500 एकड़ निजी जमीन सैन्य शिविर हेतु ले ली गई। निजी पट्टों वाली इन जमीनों पर अब किसान नहीं, बल्कि सैनिक खेती करते हैं और उपज बेचकर कमाई करते हैं। इतना ही नहीं, खुली पड़ी जमीनों पर बिना अधिग्रहण कानून का पालन करे चीन व अन्य देशों की कंपनियों को पूंजी निवेश के नाम पर स्पेशल इकॉनामिक जोन (विशेष आर्थिक क्षेत्र) में लाने का न्यौता पिछले पांच वर्षों से लगातार दिया जा रहा है। राजनीति के इस सैन्यीकरण को कभी भी स्वीकार नहीं किया जा सकता।

इस प्रकार पूंजीवाद और नई आर्थिक नीति केंद्रित बाजारवाद, एक बार पुन: तमिल क्षेत्रों को लील रहा है। आज भी डेढ़ से दो लाख सैनिक उत्तरी तमिल प्रदेशों में जमे हुए हैं। यह स्थिति की गंभीरता व इसका एकपक्षीय होना दर्शाता है। इसी के समानांतर ताप विद्युतगृहों व मेगा सिटी जैसी अनेक योजनाएं तमिल बसाहटों और गांवों को खत्म करने की साजिश ही है। लंदन सम्मेलन में इस प्रकार की हिंसा की खुले तौर पर निंदा की गई। सैनिक शिविरों और सैन्यीकरण के अलावा विकास परियोजनाओं के नाम पर भूमि की बंदरबाट  श्रीलंका के तमिल क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि दक्षिण एशिया सहित दुनियाभर के देशों में आम हो गई है। किसान मजदूर, मछुआरे सभी इस विस्थापनवादी व विषमतावादी विकास मॉडल से हैरान हैं। भारत के तमिलनाडु में श्रीपेरेम्बदूर, शिरुमंगलम जैसे अनेक जिलों में 1500 से 2000 एकड़ तक जमीन बलपूर्वक अधिग्रहित कर वहां पर ब्रिटेन और यूरोप की कंपनियों को लाया जा रहा है। इसमें अंतरराष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों का हित भी जुड़ा रहता है। तमिल व सिंहली समुदाय दोनों ही आपसी संघर्ष में अंतत: घाटे में रहेंगे और महावेली जैसी बड़ी सिंचाई योजनाएं सिंहली व तमिलों में से किसी को भी बक्शेगी नहीं। अतएव श्रीलंका की तमिल जनता के प्रति शांति न्याय व जनतंत्र के दृष्टिगत ही व्यवहार किया जाना चाहिए।


तमिल नेशनल अलायंस के प्रतिनिधि मान रहे हैं, कि महज चुनावी राजनीति से इस स्थिति से निपटा नहीं जा सकता। इस हेतु विकेंद्रित शासन प्रणाली की आवश्यकता है। हम सबको अपने वंचित वर्ग को संभालना व बचाना होगा। किसी समुदाय को वहां की भूमि, प्रकृति व संस्कृति ही बचाती है। तमिलों को पूर्ण मताधिकार प्रदान किए जाने के साथ ही उनकी भूमि को भी बचाना ही होगा, तभी उनकी जीविका और जीवन चल सकता है। वैश्वीकरण, कंपनीकरण व उदारीकरण के इस मॉडल को स्थानीयता के आधार पर चुनौती देना होगी तथा वैकल्पिक विकास व पुनर्वास का कार्य भी साथ-साथ करना होगा। गौरतलब है कि पुनर्निमाण आज श्रीलंका की सबसे बड़ी चुनौती है। लंदन में हुई इस बैठक में विभिन्न राष्ट्रों, व्यवसायों, और पृष्ठभूमि से आए व्यक्ति इस बात पर एकमत थे कि इस चर्चा को मूर्तरूप देना अनिवार्य है।  

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

सामाजिक बदलाव के दस साल

हाल के वर्षों में दुनिया भर की युवा सोच को जितना फेसबुक ने बदला है, उतना शायद ही मीडिया के किसी और साधन ने। ज्वलंत मुद्दों पर टिप्पणी से लेकर देश-दुनिया पर फौरी प्रतिक्रियाओं के मंच के रूप में इस सोशल नेटवर्किंग साइट का जवाब नहीं है।

नवोन्मेषी अमेरिकी युवा मार्क जुकरबर्ग और उनके साथियों ने एक दशक पहले जिसकी शुरुआत हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के छात्रों को जोड़े रखने की वेबसाइट के तौर पर की थी, आज वह एक विशाल कंपनी है, जिसके 1.2 अरब से भी अधिक यूजर्स हैं।

जिस दौर में पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों के खत्म होने की बात की जाती है, उस दौर में फेसबुक ने लोगों को अपने दोस्तों से जुड़ने, बात करने और तस्वीरें साझा करने की सुविधा उपलब्ध कराई है। जिन परिचितों से हमारे संबंध सूत्र वर्षों पहले छिन्न हो चुके हैं, फेसबुक पर उनसे मुलाकात के दृष्टांत तो असंख्य हैं।

यही नहीं, फेसबुक ने अरब वसंत को संभव बनाया, तो अभिव्यक्ति पर रोक के बावजूद चीन की तिब्बत पर दादागीरी को सार्वजनिक कर सोशल मीडिया के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका साबित की! पिछले एक दशक में हुए तकनीकी बदलाव ने भी इसे लोकप्रिय बनाने में बड़ी मदद की है।

अमेरिका में वयस्कों की एक तिहाई आबादी फेसबुक पर ही खबरें देखती है, तो अपने यहां के फेसबुक यूजर्स द्वारा आगामी लोकसभा चुनाव में सौ से अधिक सीटों के नतीजों को प्रभावित करने की संभावना जताई जा रही है। चाहे पटना में लालू यादव के बेटे तेजस्वी का अपने फेसबुक फ्रैंड्स से मिलने का उदाहरण हो या हिंदी सिनेमा के इतिहास में पहली बार एक फिल्म का फेसबुक पर भी रिलीज होने की ताजा घटना, ये सब हमारे सार्वजनिक जीवन में इसकी बढ़ती पैठ के ही उदाहरण हैं।


इन सबके बावजूद फेसबुक आभासी दुनिया को ही प्रतिबिंबित करता है, वह हमारे असली जीवन का विकल्प नहीं बन सकता। जब दुनिया की करीब दो तिहाई आबादी कंप्यूटर और इंटरनेट से वंचित है, तब फेसबुक को हमारे सामाजिक जीवन का आईना मानने का तो सवाल ही नहीं है। फिर आने वाले दिनों में फेसबुक की लोकप्रियता घटने की बात भी कही जा रही है। इसके बावजूद फेसबुक के जरिये हमारे जीवन में आए बदलाव की अनदेखी करना मुश्किल है।

लोकतंत्र में सामंतवाद

भारत में वीवीआइपी की श्रेणी में केवल तीन पद हैं-राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री, परंतु वीआइपी की सूची बड़ी लंबी है। वीआइपी अपने लिए विशेषाधिकारों की मांग जोर-शोर से उठाते रहते हैं। सांसदों का वर्ग ऐसा है कि वे अपनी तनख्वाह तथा सुविधाएं स्वयं तय करते हैं। साथ-साथ अपने विशेषाधिकार भी स्वयं ही परिभाषित करते हैं। इस साल महात्मा गांधी की पुण्यतिथि के ठीक एक दिन पहले यह खबर आई कि नागरिक उड्डयन महानिदेशालय ने निजी एयरलाइनों को आदेश जारी किया है कि एयर इंडिया की तरह वे भी सांसदों की खातिरदारी करें। 10 दिसंबर, 2013 को उच्चतम न्यायालय ने निर्देश दिया कि केवल संवैधानिक पदों पर आसीन अधिकारियों को ही गाड़ी में लालबत्ती के इस्तेमाल की इजाजत होनी चाहिए। अदालत ने स्पष्ट किया कि आपातकालीन सेवाओं में इस्तेमाल होने वाली गाड़ियों में नीली बत्ती लगाई जा सकती है।

लोकतंत्र का अभ्युदय ही सामंतवाद के विद्रोह के रूप में हुआ। लोकतंत्र समता और समानता के सिद्धांत पर आधारित है, जो प्रजा को नागरिक बना देता है। जहां विकसित लोकतंत्रों में मंत्री और सांसद आम आदमी की तरह घूमते नजर आते हैं वहीं भारत में सामंती विशेषाधिकारों को पुनस्र्थापित करने की कोशिशें जारी हैं। हर राजनीतिक पार्टी और सरकार आम आदमी की बात करती है, किंतु आम जन तथा अभिजन के फर्क को बढ़ाने का काम भी लगातार चलता रहता है। बराबरी का सिद्धांत सबसे पहले 1776 के अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम में आया, क्योंकि वहां सामंतवाद का कोई इतिहास नहीं था। 1787 के अमेरिकी संविधान में समानता का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया, हालांकि अश्वेतों को उनका हक नहीं दिया गया। यह नस्ल के आधार पर भेदभाव जरूर था, लेकिन संवैधानिक स्तर पर समानता के सिद्धांत को स्वीकृति प्राप्त हुई। फ्रांसीसी क्त्रांति ने अभिजन और आमजन की दूरी को पाटने का काम किया। रूसो ने अपनी पुस्तक सोशल कांट्रेक्ट में आम इच्छा की बात कही, जिससे फ्रांसीसी क्त्रांति को प्रेरणा मिली। एडमंड बर्क ने इस क्त्रांति के विरुद्ध ब्रिटिश संसद में भाषण दिया और एक किताब भी लिख डाली कि सत्ता विशिष्ट लोगों के हाथ में बनी रहनी चाहिए। इसके जवाब में थॉमस पेन की चर्चित पुस्तक राइट्स ऑफ मैन (1791) प्रकाशित हुई। पेन ने फ्रांसीसी क्त्रांति का जोरदार समर्थन करते हुए लिखा कि यदि सरकार आम आदमी के हितों की रक्षा करने में नाकामयाब रहती है तो जनता को हक है उसके विरुद्ध आंदोलन करने। पेन के विरुद्ध ब्रिटेन में देशद्रोह का मुकदमा उनकी अनुपस्थिति में चला और उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई, किंतु फांसी दी नहीं जा सकी, क्योंकि वह फ्रांस में थे।

ब्रिटेन में वैसे तो लोकतंत्र का प्रारंभ 1688 की क्त्रांति से ही माना जाता है, परंतु वह सम्राट तथा संसद के बीच वर्चस्व की लड़ाई थी और संसद अभिजात्य वर्ग की ही प्रतिनिधि थी। पहले केवल कुलीनों को मताधिकार प्राप्त था। धीरे-धीरे अन्य वगरें को यह हक मिला। लेबर पार्टी के मजबूत होने पर वहां समाजवाद का भी अच्छा असर पड़ा। अंग्रेजों ने अपने यहां तो सामंती व्यवस्था काफी हद तक खत्म कर दी, लेकिन अपने उपनिवेशों में जबर्दस्त सामंतशाही की नींव डाली। इसलिए दिल्ली में वायसराय के लिए बनाया गया बंगला (जो अभी राष्ट्रपति भवन है) बकिंघम पैलेस से ज्यादा भव्य है। जिलों में कलेक्टरों और पुलिस अधीक्षकों की विशाल कोठियां भी उसी की प्रतीक हैं। इसकी एक वजह यह भी थी कि भारत आने वाले अंग्रेजों में अधिकतर स्कॉटलैंड के थे जो उतने विकसित और संपन्न नहीं थे। इसलिए उनमें सामंती प्रवृति कुछ ज्यादा ही थी।


स्वाधीनता संग्राम के नेता उदात्त मूल्यों को आत्मसात कर और बड़े त्यागकर आंदोलन में कूदे थे। बड़े-बड़े वकीलों ने अपनी लाखों की प्रैक्टिस को एक झटके में छोड़ दिया। महात्मा गांधी ने लंगोटी पहनकर स्वयं को आम लोगो से जोड़ा। मोतीलाल नेहरू जैसे बड़े वकील ने भी सादगी का रास्ता चुना। जो अपनी यात्रा के लिए ट्रेन का पूरा डब्बा आरक्षित कराते थे वह द्वितीय श्रेणी में चलने लगे। 1921 की एक घटना हैं। मोतीलाल ट्रेन से इलाहाबाद से कोलकाता जा रहे थे। वह द्वितीय श्रेणी में सफर कर रहे थे। उसी ट्रेन में जवाहरलाल नेहरू भी तृतीय श्रेणी में यात्रा कर रहे थे। गाड़ी जब पटना पहुंची तो जवाहरलाल नीचे उतरकर प्लेटफॉर्म पर टहलने लगे जहां उनकी मुलाकात राजेंद्र प्रसाद से हो गई। राजेंद्र बाबू भी कोलकाता जा रहे थे और उन्होंने तृतीय श्रेणी का टिकट ले रखा था। जवाहरलाल उन्हें अपने पिता से मिलवाने ले गए। मोतीलाल ने राजेंद्र प्रसाद से पूछा कि वह किस श्रेणी में यात्रा कर रहे हैं। जब राजेंद्र प्रसाद ने बताया कि वह तृतीय श्रेणी में हैं तो मोतीलाल नेहरू ने कहा कि वह खुद प्रथम श्रेणी से नीचे द्वितीय श्रेणी में आ गए हैं और राजेंद्र बाबू को सलाह दी कि वह थोड़ा ऊपर आ जाएं और द्वितीय श्रेणी में चलें। फिर उन्होंने बेटे जवाहरलाल के बारे में कहा कि इनकी उम्र अभी मौज करने की है, किंतु वह तृतीय श्रेणी में यात्रा कर रहे हैं। मोतीलाल की सलाह के बावजूद राजेंद्र प्रसाद ने तृतीय श्रेणी में ही यात्रा की। 1937 में जब पहली कांग्रेसी सरकार कई प्रांतों में बनी तो मंत्री ट्रेन के तीसरे क्लास में ही यात्रा करते थे। आजादी के बाद कई केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री बिना लंबे-चौड़े काफिले के चलते थे। उनमें आम आदमी का अक्स दिखाई देता था। इंद्रजीत गुप्त सांसद के रूप में वेस्टर्न कोर्ट के एक कमरे में रहते ही थे। 1996 में केंद्रीय गृहमंत्री बनने के बाद भी उन्होंने कोठी नहीं ली। वेस्टर्न कोर्ट में ही तीन-चार और कमरे लेकर उन्होंने काम चला लिया। आज यह समृद्ध परंपरा लोप हो गई है। अब सांसद ही नहीं, वह हर व्यक्ति जिसकी थोड़ी भी हैसियत है अपने को विशिष्ट मानकर आम आदमी से नफरत करता है।

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

निधि की विधि

कमरतोड़ महंगाई, आय के असमान वितरण तथा गिरती विकास दर ने देश के लगभग बीस करोड़ मध्यवर्ग को हिलाकर रख दिया है। बदहाल आर्थिक स्थिति के कारण इस तबके के मन में यह डर गहराता जा रहा है कि उसे देश के संपन्न तीन फीसदी लोग गरीबों की जमात में धकेलने पर आमादा हैं। शिक्षा और संपन्नता का स्वाद चख चुका महत्वाकांक्षी मध्यवर्ग इसी कारण बेचैन है। स्थापित राजनीतिक दलों और मौजूदा व्यवस्था से उसका भरोसा उठता जा रहा है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी का उदय इसी आक्रोश का परिणाम है। ताकत बढ़ाने के लिए यह वर्ग अपने साथ बहुसंख्यक गरीब तबके को जोडऩे की रणनीति बना रहा है। देश की आर्थिक परिस्थिति से नये राजनीतिक समीकरण उभर रहे हैं। सयाने लोग भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को कांग्रेस और मोदी को राहुल गांधी का विकल्प मानने को राजी नहीं हैं। केंद्र में सत्ता का सपना देख रही भाजपा से कांग्रेस की आर्थिक नीतियों का विकल्प पूछा जा रहा है। इस यक्ष-प्रश्न का उत्तर भाजपा या मोदी के पास नहीं है। जानकारों को पता है कि भाजपा तथा कांग्रेस की आर्थिक नीतियों में कोई मूल भेद नहीं है। दोनों पार्टियां आर्थिक उदारीकरण और बाजार आधारित अर्थव्यवस्था की पैरोकार हैं। उनमें लड़ाई कुर्सी पर कब्जे के लिए है, नीतियां बदलने के लिए नहीं।

बात आगे बढ़ाने से पहले देश की मौजूदा आर्थिक स्थिति का जायजा लिया जाना जरूरी है। योजना आयोग का दावा है कि पिछले सात साल में देश की 15.3 प्रतिशत आबादी को गरीबी और गुरबत से बाहर निकाला जा चुका है। सरकार दावा कर रही है कि आज देश में केवल 21.9 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से नीचे हैं। सरकारी मापदंड के अनुसार एक महीने में गांव में रहने वाले आदमी की आय यदि 816 रुपये और शहर में निवास करने वाले की एक हजार रुपये है तो वह संपन्न है। इस सरकारी झूठ की काट के लिए कुछ और आंकड़े देना जरूरी है। भारत सरकार के नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-3 (2005-06) के अनुसार देश में छह से 35 माह आयु वर्ग के 78.9 प्रतिशत बच्चे और 15 से 49 वर्ष आयु वर्ग की 56.2 फीसदी विवाहित महिलाएं एनीमिक (खून की कमी) से पीडि़त हैं। ताजा जनगणना (वर्ष 2011) के आंकड़े बताते हैं कि भारत के 53.1 प्रतिशत घरों में शौचालय नहीं है और जहां हैं वहां 47 फीसदी में पानी का कोई बंदोबस्त नहीं है। 71 प्रतिशत घरों की छतें कंक्रीट नहीं, मिट्टी-घास या टायल से बनी हैं। 52.5 प्रतिशत घरों की दीवारें ईंट नहीं, पत्थर-मिट्टी या घास से बनी हैं तथा 37.1 फीसदी घर केवल एक कमरे के हैं। आजादी के 67 साल बाद भी 70 प्रतिशत से ज्यादा घरों का चूल्हा लकड़ी, गोबर के उपलों या मिट्टी के तेल से जलता है। देश की आधी से ज्यादा आबादी आज भी खुले में नहाने को मजबूर है। ये सारे आंकड़े सरकार के कंगाली कम करने के दावे की पोल खोलते हैं। मामूली समझ रखने वाला व्यक्ति भी जानता है कि यदि कोई संपन्न होगा तो वह खुले में शौच नहीं जाएगा, आसमान के नीचे नहीं नहायेगा, कच्चे घर में नहीं रहेगा तथा खाना बनाने के लिए गैस के बजाय उपले या लकड़ी का इस्तेमाल नहीं करेगा। अपने बच्चों और बीवी की खून की कमी या कुपोषण जैसी जानलेवा कमजोरी तो कतई बर्दाश्त नहीं करेगा।

बाजार के इशारों पर नाच रही हमारी अर्थव्यवस्था की प्राथमिकता जलकल्याण नहीं, मुनाफा है। राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए राशन, बिजली, खाद, पानी, रोजगार आदि से जुड़ी जनकल्याणकारी योजनाओं में दी जा रही सबसिडी घटाने का सरकार पर भारी दबाव है। सीधे-सीधे सबसिडी कम करने से जन-आक्रोश पनपेगा, इसलिए आंकड़ों की बाजीगिरी कर गरीब आबादी को कम दिखाने की साजिश रजी जा रही है। गणित सीधा-सीधा हैजितने कम गरीब होंगे, सबसिडी का बोझ उतना ही कम हो जायेगा और सबसिडी जितनी कम होगी, राजकोषीय घाटा उतना ही घट जायेगा।

यह तो था आर्थिक मोर्चे का कड़वा सच। अब जरा न्याय व्यवस्था और उससे गरीब व मध्य वर्ग पर पड़ रही चोट का खाता खोला जाए। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार पिछले चालीस साल में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत दर्ज अपराधों में सजा मिलने की दर घटकर लगभग आधी रह गई है। ऐसे मामलों में 1972 में सजा मिलने का प्रतिशत 62.7 था जो सन् 2012 आते-आते गिरकर 38.8 फीसदी रह गया। हत्या, बलात्कार और डकैती जैसे जघन्य अपराधों के आरोपियों को सजा मिलने का औसत तो और भी कम है। हत्या के 35.6 फीसदी, डकैती के 28.5 फीसदी और बलात्कार के महज 24.5 फीसदी आरोपियों को अदालत दंड देती है। 1972 में थानों में दर्ज 30.9 प्रतिशत मामलों की जांच पूरी कर पुलिस ने अदालत में चार्जशीट दाखिल की, जबकि चार दशक बाद यह आंकड़ा गिरकर मात्र 13.4 प्रतिशत रह गया। अगर अदालत में किसी तरह मुकदमा शुरू हो जाये, तब भी फैसला आने में अकसर एक दशक लग जाता है। यदि निचली अदालत के निर्णय में उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय तक जाने और वहां फैसला आने के समय को जोड़ दिया जाये तो कई बार न्याय मिलने से पहले ही फरियादी की मौत हो जाती है। हम मामूली अपराध के आरोपियों को मिलने वाले दंड का जिक्र नहीं कर रहे हैं क्योंकि ऐसे केस तो आज पुलिस की जांच प्रक्रिया की प्राथमिकता में बहुत पिछड़ चुके हैं। न्याय प्रक्रिया में व्याप्त भ्रष्टाचार, वहां होने वाले भारी खर्चे और दशकों की देरी का हिसाब लगाएं तो यही लगता है कि कानून का दरवाजा खटखटाना अब गरीब और मध्य वर्ग के बूते से बाहर हो चुका है।


खस्ताहाल गरीब व मध्य वर्ग तथा न्याय प्रणाली की कछुआ चाल जानकर यही कहा जाएगा कि देश की मौजूदा परिस्थितियां विस्फोटक हैं। आम आदमी बेताबी से विकल्प खोज रहा है। बदलाव के लिए बड़े कदम उठाए जाने जरूरी हैं। पिछले दो दशकों में खुली अर्थव्यवस्था की डगर पर चलने के बाद गरीब और अमीर के बीच की खाई और चौड़ी हो गई है। चमचमाते हवाई अड्डे, लग्जरी मोटर गाडिय़ों, विशाल अट्टालिकाओं और मुठ्ठीभर अरबपतियों को देखकर देश की असलियत का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। गरीब और मध्य वर्ग के आक्रोश व पीड़ा का निदान शीघ्र खोजा जाना जरूरी है।

उद्योग क्षेत्र बदले तभी बदलेगी तस्वीर

देश का औद्योगिक परिदृश्य बेहद निराशाजनक है। नवंबर, 2013 के औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) के आंकड़े 2008-09 में आई वैश्विक मंदी जैसे चिंताजनक स्तर पर पहुंच गए हैं। ऐसे में, मौजूदा वित्त वर्ष के औद्योगिक उत्पादन में बहुत मजबूती की उम्मीद नहीं की जा सकती है। पिछले छह महीनों में खासकर महंगे उपभोक्ता सामान का उत्पादन घट जाने के चलते ही ऐसी स्थिति देखने को मिली है। अंतरराष्ट्रीय वित्त निगम द्वारा जारी नई विश्व कारोबारी परिदृश्य रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में कारोबार शुरू करने के लिए 12 प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है, जबकि दक्षिण एशियाई देशों में सात प्रक्रियाओं से और विभिन्न विकसित देशों में केवल पांच स्तरों से गुजरने के बाद कारोबार शुरू किया जा सकता है। विदेशी निवेशक यहां निवेश के लिए उत्सुक नहीं हैं। देश के अर्थशास्त्री और योजनाकार भी जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र की घटती हिस्सेदारी को लेकर खासे चिंतित हैं।

यदि औद्योगिक उत्पादन नहीं सुधरा, तो एजेंसियां हमारी क्रेडिट रेटिंग घटा सकती हैं। महंगाई दर को काबू करने के लिए ऊंची ब्याज दरों का जारी रहना, निवेश की कमी, बाहरी पूंजी प्रवाह की घटती दर और नीतिगत फैसलों के मोर्चे पर कमी की वजह से अर्थव्यवस्था की रफ्तार में कमी आई है। उभरते बाजार वाले अधिकांश देशों ने तीन साल पहले नौ फीसदी के स्थायी विकास वाले दौर में जबर्दस्त आर्थिक तरक्की का अनुभव किया है। भारत बढ़िया विकास दर के प्रदर्शन के बाद पांच फीसदी की दर पर लौट आया है, तो यकीनन विकास की इसकी विशिष्ट छवि को नुकसान पहुंचा है। देश के छोटे-बड़े उद्योग पूंजी की कमी और महंगे कर्ज के कारण परेशान हैं।

घरेलू मांग में कमी के कारण उत्पादन कार्य कठिनाई के दौर में है। उद्योगों की लागतें बढ़ गई हैं। बीमार औद्योगिक इकाइयों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। इसे देखते हुए हमें निवेशकों का विश्वास प्राप्त करना होगा। इसके अतिरिक्त, हमें राजस्व में सुधार लाने की भी आवश्यकता है। हमें ईंधन और उर्वरक के क्षेत्र में सब्सिडी को तार्किक बनाना होगा। इस बात पर ध्यान देना होगा कि सस्ते कर्ज से भारत का औद्योगिक और आर्थिक विकास नई गति प्राप्त कर सकता है। जिस तरह अमेरिकी और यूरोपीय बैंक सस्ती ब्याज दरों की बौछारें कर रहे हैं, वैसी अपेक्षाएं भारत के उद्योग-कारोबार जगत द्वारा भी की जा रही हैं। रिजर्व बैंक को ब्याज दर और बढ़ाने से बचना चाहिए। उद्योग जगत में यह संकेत जाना जरूरी है कि ब्याज दरों में कमी भले न आए, इसमें और वृद्धि न होगी और निकट भविष्य में इसमें कमी आएगी।

अब भी सरकार और रिजर्व बैंक अपने प्रयासों और योजनाओं से औद्योगिक उत्पादन और जीडीपी की विकास दर संबंधी निराशाओं को आशाओं में बदल सकते हैं। यहां आर्थिक विशेषज्ञों का यह मत भी उल्लेखनीय है कि लोकसभा चुनाव के बाद औद्योगिक एवं आर्थिक डगर पर देश लगभग उतनी ही तेजी से आगे बढ़ता हुआ दिखाई दे सकता है, जिस तरह 1991 के आर्थिक सुधारों और आम चुनावों के बाद देश औद्योगिक एवं आर्थिक डगर पर आगे बढ़ा था। 1991 की शुरुआत में चुनाव से पहले देश के औद्योगिक परिदृश्य पर जो चिंताजनक स्थिति थी, उसमें सुधार का एजेंडा बड़ा सवाल बन गया था। वैसे में चुनाव जीतकर आई नई सरकार ने औद्योगिक परिदृश्य को सुधारने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए थे। वर्ष 2014 में फिर वैसी ही स्थिति है, क्योंकि नई सरकार के कदम देश के उद्योगों एवं अर्थव्यवस्था के लिए निर्णायक साबित हो सकते हैं। लेकिन नई सरकार बनने तक 2014 की पहली छमाही बीत चुकी होगी। सरकार को विरासत में कमजोर अर्थव्यवस्था एवं चिंताजनक औद्योगिक परिदृश्य मिलेगा।


ऐसे में रणनीतिक प्रयासों से औद्योगिक उत्पादन में इजाफा करना होगा। बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के विकास के लिए निजी-सार्वजनिक भागीदारी योजना को आगे बढ़ाना होगा। खनिज संसाधनों से जुड़े लाभ को हासिल करने के लिए समुचित नीति और नियामक ढांचा तैयार करना होगा और औद्योगिक विकास दर बढ़ाने के लिए पूरी शक्ति लगानी होगी। यदि नई सरकार ऐसा कर पाई, तो नए वर्ष में देश की औद्योगिक एवं आर्थिक तस्वीर बेहतर रहेगी।

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

आप का लोकपाल

अरविंद केजरीवाल की सरकार ने दिल्ली लोकपाल विधेयक, 2014 को मंजूरी देकर अपने एक और अहम वादे की दिशा में कदम बढ़ा दिया है। पर इस कदम की राह में अनेक अड़चनें हैं। दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा न होने के कारण किसी भी कानून के मसविदे को विधानसभा में पेश करने से पहले केंद्र की मंजूरी लेना जरूरी होता है। जबकि दिल्ली सरकार इसे पहले विधानसभा में पारित कराना चाहती है। उसका कहना है कि कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो केंद्र या उपराज्यपाल की पूर्व अनुमति के लिए उसे बाध्य करता हो। कई मौकों पर पूर्ववर्ती सरकारों के औपचारिकता का पालन न करने की मिसालों को भी उसने आधार बनाया है। दरअसल, पहले विधेयक केंद्र के पास भेजने पर दिल्ली सरकार को यह अंदेशा रहा होगा कि प्रक्रियागत खामी का हवाला देकर या तो उसे लौटा दिया जाएगा, या वह केंद्र के पास ठंडे बस्ते में पड़ा रहेगा। केजरीवाल सरकार की योजना विधानसभा के विशेष सत्र में, हजारों लोगों की मौजूदगी के बीच, विधेयक पारित कराने की है। इस पर भी विधायी प्रक्रिया से संबंधित सवाल उठ सकते हैं। लेकिन यह साफ है कि केजरीवाल सरकार अपने इस कदम को जन-आकांक्षा की शक्ल देकर केंद्र पर दबाव बढ़ाना चाहती है।

बहरहाल, दिल्ली में लोकायुक्त संस्था का वजूद पहले से है, पर उसे सिर्फ कार्रवाई के लिए राष्ट्रपति से सिफारिश करने का अधिकार है। जबकि केजरीवाल सरकार का विधेयक तमाम लोकायुक्त कानूनों से अधिक सख्त है। इस तरह का लोकायुक्त कानून उत्तराखंड में भुवनचंद्र खंडूड़ी की सरकार ने बनाया था, जो लागू नहीं हो सका। दिल्ली का प्रस्तावित कानून कई मामलों में उससे भी कठोर है। मसलन, यह जरूरी नहीं होगा कि मुख्यमंत्री या किसी मंत्री के खिलाफ जांच दिल्ली के लोकपाल की पूर्ण पीठ ही करे, कोई भी सदस्य-लोकपाल जांच कर सकेगा। सभी के खिलाफ जांच की प्रक्रिया समान होगी।

लोकपाल की जांच के दायरे में मुख्यमंत्री और मंत्रियों के अलावा सभी अधिकारी और कर्मचारी आएंगे। अध्यक्ष सहित दिल्ली लोकपाल में ग्यारह सदस्य होंगे। लोकपाल की चयन समिति में मुख्यमंत्री और नेता-विपक्ष के तौर पर सिर्फ दो राजनीतिक होंगे, समिति के बाकी सदस्यों में कुछ कानून के विशेषज्ञ और कुछ सामाजिक क्षेत्र प्रतिष्ठित नाम होंगे। लोकपाल को जांच के साथ-साथ अभियोजन और कुछ तरह की दंडात्मक कार्रवाई का भी अधिकार होगा। जांच की प्रक्रिया छह महीने में पूरी कर ली जाएगी, और कोशिश होगी कि अगले छह माह में विशेष अदालत में अभियोजन की प्रक्रिया भी तर्कसंगत परिणति तक पहुंच जाए। दोषी पाए जाने पर छह महीने से दस साल तक की सजा होगी, अत्यंत विशेष मामलों में आजीवन कारावास भी हो सकता है।


लोकपाल को किसी भी अधिकारी या कर्मचारी को जांच के दौरान निलंबित रखने, नीचे के पद पर भेजने जैसे अधिकार होंगे। सभी अधिकारियों और कर्मचारियों को हर साल अपनी संपत्ति की घोषणा करनी होगी। निर्धारित तारीख तक ऐसा नहीं करने पर उनका वेतन रोका जा सकेगा। मगर उनके रिश्तेदारों पर भी संपत्ति की घोषणा का प्रावधान न औचित्यपूर्ण मालूम पड़ता है, न व्यावहारिक। विधेयक की एक और अहम बात यह है कि विसलब्लोअर यानी भ्रष्टाचार के मामलों में सचेतक की भूमिका निभाने वालों और गवाहों को सुरक्षा देने का प्रावधान रखा गया है। सिटिजन चार्टर भी इस विधेयक का हिस्सा है, यानी सभी विभागों को अपनी सेवाओं की समयबद्धता घोषित करनी होगी। यह विधेयक कानून की शक्ल ले पाए या नहीं, आम आदमी पार्टी की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का हथियार जरूर बन सकता है।

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