बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

सीरिया में अमन की आशा

विश्व के जिन देशों की स्थिति बहुत चिंताजनक बनी हुई है उनमें सीरिया का स्थान पहली पंक्ति में है। हाल के वर्षों में इस देश में जितनी तबाही हुई है, वैसी बहुत कम देखी गई है। इस देश के विभिन्न समुदायों के लोग आपसी भाईचारे से रहते आए हैं, पर हाल के समय में यहां गृह युध्द ने देश को बर्बादी की कगार पर पहुंचा दिया है।

इस समय सबसे बड़ी जरूरत यहां अमन-शांति स्थापित करने की है। इसके लिए एक बड़ी उम्मीद के रूप में सामने आई थी जेनेवा में हाल की शांति र्वात्ता। दुनिया के अमनपसंद लोगों की निगाहें इस र्वात्ता पर लगी थीं पर इस शांति वार्ता से न तो स्थाई शांति की कोई राह निकली है व न पीड़ितों को राहत पंहुचाने की।

वैसे तमाम चिंताजनक स्थितियों के बीच हाल के समय में दो बातें उम्मीद जमाने वाली भी हुई हैं। पहली तो यह है कि अमेरिका या नाटो के संभावित हमले का खतरा फिलहाल टल गया है। एक समय इस हमले की संभावना बहुत बढ़ गई थी और इसकी तैयारी भी हो चुकी थी। इसे अमनपसंद प्रयासों की सफलता ही माना जाएगा कि यह हमला टल सका। अब ऐसे हमले की संभावना कम है।
इससे जुड़ी हुई दूसरी आशाजनक बात यह हुई है कि अमेरिका व पश्चिमी देशों में अब यह समझ नीति निर्धारण करने वालों तक भी पंहुच रही है कि सीरिया के विद्रोहियों में ऐसे कट्टरपंथी तत्त्व अधिक शक्तिशाली हैं जो अल कायदा जैसी सोच से जुड़े हुए हैं और जो अमेरिका व उसके पश्चिमी मित्रों को भी क्षति पंहुचा सकते हैं। ऐसे समाचार भी आए हैं कि अमेरिका के जो नागरिक इन कट्टरपंथियों के साथ लड़ने के लिए आए थे उनका ही उपयोग अमेरिका के विरुध्द ये लड़ाकू कर सकते हैं। इस तरह के समाचार मिलने पर अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों में सीरिया के विद्रोहियों को सहायता देने के औचित्य पर पुनर्विचार करना जरूरी हो गया है।

अब तो सीरिया में ऐसी स्थिति स्पष्ट होती जा रही है कि सरकार से लड़ने वाले जो विद्रोही हैं वे स्वयं दो गुटों में विभाजित हो रहे हैं। वैसे तो विद्रोही दल बहुत से है पर मुख्य सोच के आधार पर इनको दो गुटों में बांटा जा सकता है। पहला गुट वह है जो बेहद कट्टरपंथी सोच का है, जो अल कायदा जैसी सोच का है व जिसे सऊदी अरब या उसके सहयोगियों से अधिक सहायता मिली है। दूसरे गुट में कट्टरता अधिक नहीं है व इसे तुर्की से अधिक तकनीकी रही है (हालांकि अब तुर्की भी कुछ पीछे हटता नजर आ रहा है)।

पश्चिमी देशों ने पहले इस अंतर को समझे बिना सीरिया में राष्ट्रपति बशर-अल-असद की सरकार का विरोध करने वाले सब विद्रोहियों को साझे रूप से सहायता दी पर इस सहायता का अधिक लाभ उन कट्टरपंथी तत्वों ने उठाया जो इन विद्रोहियों में पहले से अधिक शक्तिशाली थे। जब इन कट्टरपंथी तत्वों के हाथ में पश्चिमी देशों की सहायता से प्राप्त अधिक विध्वंसक हथियार पंहुचने लगे तो इन विद्रोहियों ने अन्य गुटों को किनारे कर अपनी शक्ति बढ़ा ली। इस स्थिति में पश्चिमी देशों को भी अपनी आत्मघाती नीति पर पुनर्विचार करना पड़ा। फि र भी सऊदी अरब से इस तरह के प्रयास निरंतर किए जा रहे हैं कि अमेरिका व फ्रांस जैसे देश सीरिया की सरकार के प्रति फिर से अधिक आमक हो जाएं जबकि रूस असद के सबसे महत्वपूर्ण मित्र की भूमिका निभा रहा है। एक बात पूरी तरह स्पष्ट है कि सबसे कट्टरपंथी लड़ाकुओं की सहायता न तो सीरिया के हित में है और व विश्व स्तर पर अमन-शांति के हित में है। ऐसे लड़ाकू ताकतवर हुए तो इसके पड़ौसी देश इराक की भी क्षति ही होगी। अत: इन कट्टरपंथी विद्रोहियों को बाहरी सहायता पर तुरंत रोक लगनी चाहिए।

इस समय सबसे बड़ी जरूरत यह है कि सीरिया में गृहयुध्द के कारण जो लाखों लोगों का जीवन तबाह हुआ है उन्हें तुरंत राहत पंहुचाने के अनुकूल स्थितियां उत्पन्न की जाएं। अनुमान है कि जबसे गृहयुध्द जैसी स्थितियां सीरिया में बनी हैं यहां लगभग एक लाख लोग मारे गए हैं और लगभ सत्तर लाख विस्थापित हुए हैं। देश में अधिकांश लोगों के लिए खाद्य व स्कूली शिक्षा भी उपलब्ध नहीं हो पा रही है। अत: सीरिया के लोगों को राहत देने के लिए वहां अमन-शांति का माहौल बनाना बहुत जरूरी है।


अत: राष्ट्रपति असद को महत्वपूर्ण सुधारों की घोषणा करनी चाहिए जिससे सभी असंतुष्ट नागरिकों को अपनी समस्याओं के लिए समुचित लोकतांत्रिक अवसर मिले। साथ में सभी विद्रोही गुटों को शान्ति समझौते के लिए आगे आनी चाहिए। जो ऐसा नहीं करते हैं उनकी विदेशीबाहरी सहायता पर कड़ाई से रोक लगनी चाहिए।

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

ईरान के साथ समझौता जरूरी

ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर जब तेहरान और अन्य प्रमुख देशों के बीच अंतरिम समझौते पर दस्तखत हुए तो अपेक्षाएं बहुत बढ़ गई थीं। हालांकि, पिछले हफ्ते ये अपेक्षाएं धुंधलाती नजर आईं। पहले तो ईरानी अधिकारियों ने कड़े बयान दिए। फिर इजरायल के प्रधानमंत्री ने लगभग हर मुमकिन समझौते के लिए अपना विरोध दोहरा दिया। इतना ही नहीं अमेरिका के कई प्रभावशाली सीनेटरों ने ईरान पर नए प्रतिबंध लगाने की धमकी दी है, किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि तेहरान के साथ कोई अंतिम समझौता मुमकिन ही नहीं है। हां, इसका यह मतलब जरूर है कि तेहरान और पश्चिमी देश, दोनों को इस बारे में रचनात्मक रूप से सोच-विचार शुरू कर देना चाहिए कि दोनों के बीच मौजूद खाई को कैसे पाटा जाए और कैसे उनके सामने अपने देश में खड़ी अड़चन का सामना किया जाए।


ईरान के जिन बयानों ने इतना ध्यान आकर्षित किया है वे विदेश मंत्री और राष्ट्रपति दोनों की ओर से आए हैं। विदेश मंत्री जाविद जरीफ ने सीएनएन के जिम शूटो को जो बताया वह उसके बिल्कुल विपरीत था, जिसका दावा वाशिंगटन बार-बार कर रहा था। उन्होंने कहा, 'ईरान किसी चीज को ध्वस्त करने पर सहमत नहीं हुआ है।' बाद में मुझे सीएनएन पर ही दिए इंटरव्यू में राष्ट्रपति हसन रोहानी ने भी साफ किया कि ईरान उसका कोई भी मौजूदा सेंट्रीफ्यूज (यूरेनियम संवद्र्धन में उपयोगी उपकरण) नष्ट नहीं करेगा। उन्होंने मुझे भी संकेत दिया कि ईरान अराक स्थित भारी पानी के रिएक्टर को बंद नहीं करेगा।


पश्चिमी देशों के साथ ईरान के विवाद का एक बिंदु यह भी है, क्योंकि पश्चिम को लगता है कि वहां  बम बनाने लायक प्यूटोनियम का उत्पादन संभव है। किसी स्वीकार्य समझौते को लेकर ईरान और अमेरिका के बीच दृष्टिकोण में मूलभूत फर्क है। रोहानी के इंटरव्यू और ईरानी अधिकारियों के साथ मेरी बातचीत से मुझे ईरानी दृष्टिकोण का अंदाज लगा है। ईरान दुनिया को इस बात का आश्वासन और सबूत भी देगा कि उसका परमाणु कार्यक्रम सैनिक नहीं, नागरिक उद्देश्यों के लिए है। इसका मतलब यह है कि ईरान इसकी सारी परमाणु सुविधाओं के गहन निरीक्षण की इजाजत देगा जैसी अब तक कभी दी नहीं गई। यह प्रक्रिया तो शुरू हो भी चुकी है। अंतरिम समझौते में ईरान के सेंट्रीफ्यूज बनाने वाले कारखानों, खदानों और मिलों के अंतरराष्ट्रीय निरीक्षण की बात कही गई है। पिछले हफ्ते, एक दशक में पहली बार अंतरराष्ट्रीय निरीक्षकों ने ईरानी खदानों में प्रवेश किया।


किंतु ईरानी अधिकारी अपने परमाणु कार्यक्रम पर कोई भी पाबंदी स्वीकार न करने पर डटे हुए हैं। वे प्राय: इस बात पर जोर देते हैं कि ईरान के साथ परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत करने वाले किसी अन्य देश की तरह व्यवहार किया जाए। उनके कहने का मतलब  यह है कि उन्हें बिजली उत्पादन के लिए यूरेनियम संवद्र्धन का पूरा हक है। वास्तविकता तो यह है कि परमाणु अप्रसार संधि यूरेनियम संवद्र्धन के बारे में विशेष रूप से कुछ नहीं कहती। परमाणु बिजलीघरों वाले कई देश यूरेनियम संवद्र्धन नहीं करते जबकि कुछ अन्य देश ऐसा करते हैं। इसलिए ईरान के इस दावे का तार्किक आधार है कि यूरेनियम संवद्र्धन अब तक तो स्वीकार्य गतिविधि रही है। संधि में एक ही मानदंड लगाया गया है कि सारा परमाण्विक उत्पादन 'शांतिपूर्ण उद्देश्यों' के लिए होना चाहिए।


अंतिम समझौते के बारे में अमेरिकी दृष्टिकोण बिलकुल अलग है, जो इस अवधारणा से निकला है कि ईरान को यह भरोसा पैदा करने के लिए विशेष कदम उठाने चाहिए कि उसका परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण कार्यों के लिए है। इसके तहत ईरान को यूरेनियम की छोटी प्रतीकात्मक मात्रा को 5 फीसदी स्तर (इससे परमाणु शस्त्र बनाने लायक यूरेनियम बनाने में काफी वक्त लगेगा) तक संवद्र्धित करने की अनुमति होगी। इसके अलावा ईरान को इसके हजारों मौजूदा सेंट्रीफ्यूज नष्ट करने होंगे और भारी पानी वाला इसका रिएक्टर बंद करना होगा। दरअसल, वाशिंगटन की मंशा नागरिक कार्यक्रम को सैन्य कार्यक्रम में बदलने का वक्त (लीड टाइम) बढ़ाना है।


दोनों पक्षों को अपनी आधारभूत चिंताओं पर गहराई से विचार करना होगा। ईरानी अधिकारियों को यह समझना होगा उनके देश के साथ अलग व्यवहार किया जा रहा है पर उसकी वजह अच्छी है। ईरान ऐसा कार्यक्रम चला रहा है, जो संदेहास्पद है। बहुत थोड़ी बिजली पैदा करने के लिए बहुत ज्यादा निवेश किया गया है। फिर उसने पूर्व में अपने कार्यक्रम को लेकर दुनिया को धोखा भी दिया है। दूसरी ओर वाशिंगटन को यह समझना होगा कि परमाणु ठिकानों के निरीक्षण पर अपेक्षा से ज्यादा रियायत मिलेगी, लेकिन ईरान के मौजूदा कार्यक्रम को वापस लेने पर बहुत कम रियायतें मिलने की उम्मीद है। यदि यह छह से नौ माह का लीड टाइम सुनिश्चित करा सके तो यह महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी, क्योंकि यदि तेहरान परमाणु निरीक्षकों को निकाल बाहर करे तो स्थिति एक पल में बदल जाएगी और वाशिंगटन को प्रतिक्रिया की कार्रवाई के लिए छह माह की जरूरत नहीं होगी।


ऐसे रचनात्मक समझौते हैं, जो दोनों पक्षों के अंतर को मिटा सकते हैं। जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी के कॉलिन कार्ल और जोसेफ सरीनसीओनी इन्हीं मुद्दों पर काम करते हैं। उन्होंने ध्यान दिलाया कि सेंट्रीफ्यूज को नष्ट किए बिना बंद किया जा सकता है। वास्तविकता तो यह है कि ईरान में 19,800 से ज्यादा सेंट्रीफ्यूज स्थापित हैं, लेकिन आधे से भी कम कार्यरत हैं। सहमति के ऐसे बिंदुओं का पहले ही पता लगा लिया गया है। ईरान ने हमेशा कहा है कि वह मौजूदा 20 फीसदी संशोधित यूरेनियम को देश से बाहर नहीं भेजेगा, किंतु अंतरिम समझौते में वह इसे निष्क्रिय करने पर सहमत हुआ है। इसी तरह ईरान अपने भारी पानी के रिएक्टर को हल्के जल के संयंत्र में बदलकर इसे जारी रख सकता है।



रोहानी और जरीफ से मिलने के बाद मुझे यकीन हो गया कि वे मध्यमार्गी हैं और ईरान को दुनिया के साथ जोडऩा चाहते हैं। (मसलन, रोहानी ने मुझे संकेत दिया कि अगले कुछ महीनों में ग्रीन मूवमेंट के नेताओं को रिहा कर दिया जाएगा)। हालांकि मुझे यह भी यकीन है कि कई घरेलू विरोधियों के कारण वे दबाव में काम कर रहे हैं। यही बात ओबामा प्रशासन के बारे में भी कही जा सकती है। बेहतर होगा कि दोनों पक्ष जिनेवा में कुछ न कुछ हल निकलने की उम्मीद रखने की बजाय अंतिम समझौते के लिए अपने यहां जमीन तैयार करें। यदि ऐसा हुआ तो जो भी समझौता होगा वह उनके अपने देशों में भी स्वीकार्य होगा।

जीडीपी के संशोधित अनुमान एवं संभावनाएं

केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन कार्यालय द्वारा 31 जनवरी को  सकल घरेलू उत्पादन जीडीपी के वित्तीय साल 2012-13 के लिए प्रथम  संशोधित  अनुमान, साल 2011-12 के लिए द्वितीय संशोधित अनुमान तथा 2010-11 के लिए तृतीय संशोधित  अनुमान के आंकड़े जारी कर दिए गए। प्रथम संशोधित अनुमान के अनुसार वित्तीय साल 2012-13 में मई 2013 में जारी प्राविधिक अनुमानों के विपरीत जीडीपी वृध्दि दर 5.0 प्रतिशत की बजाय 4.5 प्रतिशत रहने वाली है। 2012-13 में कृषि, खननविनिर्माण तथा सेवा क्षेत्र में  उत्पादन लक्ष्य से कम होने के कारण वृध्दि दर धीमी होने से रही है। फसलोत्पादनमछलीपालन, खनन आदि में वृध्दि दर निर्धारित लक्ष्य 1.6 प्रतिशत के स्थान पर 1.0 प्रतिशत, विनिर्माण, बिजली और गैस उत्पादन क्षेत्र में निर्धारित लक्ष्य 2.4 प्रतिशत के स्थान पर वृध्दि दर मात्र 1.2 प्रतिशत रही है । इस प्रकार 2004-05 की साधन लागत की कीमतों पर सकल घरेलू उत्पाद जीडीपी जो 2011-12 में 52.5 लाख करोड़ रुपए थी, वह 4.5 प्रतिशत की वृध्दि दर्ज करके 54.8 लाख करोड़ हो सकी। यह  जीडीपी वृध्दि दर 2002-03  के बाद सबसे नीची मानी जा रही  है ।
     
केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन के जहां पर 2012-13 के संशोधित अनुमानों में जीडीपी वृध्दि दर कमी की गई है, वहीं पर 2011-12 साल के संशोधित अनुमानों में  जीडीपी वृध्दि दर में 6.2 प्रतिशत की बजाय 6.7 प्रतिशत की वृध्दि दर रही है। 2010-11 में जीडीपी वृध्दि दर का अनुमान 9.3 प्रतिशत लगाया गया था, अन्तिम अनुमानों के अनुसार यह 8.9 प्रतिशत रही है । जहां तक चालू साल 2013-14 का सवाल है इसके पहले 9 महीनों में को सेक्टर का कार्यसंपादन बहुत धीमा रहा है ।  आठ बुनियादी उद्योगों जिनमें कोयला, पेट्रोलियम रिफाइनरी, इस्पात और सीमेंट आदि सरीखे उद्योग शामिल हैं, इनकी  वृध्दि दर 2.5 प्रतिशत रही है। उल्लेखनीय है कि इन उद्योगो का औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में 38 प्रतिशत योगदान है । दिसम्बर 2013 माह में प्राकृतिक गैस, पेट्रोलियम रिफायनरी तथा कोला उत्पादन में कमी आई है । कहने का मतलब यह है कि संशोधित  अनुमानों में 2013-14 में भी कमी होने की संभावना है ।

2013-14 के आर्थिक सर्वेक्षण में वित्तीय साल 2012-13 के जीडीपी के प्रथम अनुमान, 2011-12 के द्वितीय अनुमान तथा 2010-11 के तृतीय अनुमान के आंकड़े प्रकाशित किए जाएंगे। इस प्रकार तीन-तीन संशोधित अनुमानों के जारी होने के कारण अगले तीन साल तक जीडीपी, राष्ट्रीय आय व प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े बदलते रहेंगे । साल 2012-13 की अर्थव्यवस्था के बारे में वास्तविक स्थिति के आंकड़े 2015-16 के प्रकाशनों में ही उपलब्ध हो पाएंगे । इस प्रकार राष्ट्रीय आय, जीडीपी व विकास दर के चालू साल के आंकड़े  वास्तविक उत्पदन के लेखा न होकर केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन के अनुमान होते हैं ।

विश्व बैंक के अनुसार  2014 व आगे आनेवाले सालों में वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं में मजबूती  आएगी । वैश्विक जीडीपी वृध्दि दर 2013 की 2.4 प्रतिशत से बढ़कर 2014 में 3.2 प्रतिशत तथा 2015 में 3.5 प्रतिशत हो जाने की संभावना है। विश्व बैंक के अनुसार भारत की 2014-15 में जीडीपी विकास दर 6.0 प्रतिशत से अधिक रहेगी तथा भारत की 12वीं पंचवर्षीय योजना के अतिम साल  2016-17 में 7.1 प्रतिशत पहुंच जाने का अनुमान है । क्रेडिट रेटिंग एजेंसी क्रिसिल के अनुसार भारत की जीडीपी वृध्दि दर 2013-14 में 4.8 प्रतिशत तथा 2014-15 में 6.0 प्रतिशत से अधिक रहने का अनुमान है । अन्य अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के भी इसी प्रकार के अनुमान हैं। केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन कार्यालय द्वारा 2013-14 के जीडीपी अनमान के आंकड़े 7 फ रवरी को जारी किए जाने की संभावना है ।

विश्व बैक द्वारा भारत की 2014-15 में जीडीपी 6.0 प्रतिशत की वृध्दि का अनमान वैश्विक वित्तीय कारको को ही ध्यान में रखकर लिया गया है । इसमें भारत में लोकसभा चुनावों के बाद की राजनैतिक-आर्थिक स्थितियों को ध्यान में नही रखा गया है । लोकसभा चुनाव में तीन राजनैतिक सम्भावनाएं हैं- पहला- कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए गठबंधन की सरकार, दूसरा- नरेन्द्रमोदी के नेतृत्व एनडीए गठबंधन की सरकार तथा तीसरा- क्षेत्रीय दलों का तीसरा मोर्चा। देशी विदेशी कार्पोरेट उद्योग व निवेशकों की पहली पसन्द कांग्रेस पार्टी है जो प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को और अधिक विस्तार करने का इरादा रखती है। कार्पोरेट जगत की दूसरी पसन्द भाजपा है । यद्यपि  भाजपा मल्टीब्रांड खुदरा बाजार, बीमा आदि में प्रत्यक्ष निवेश की विरोधी है तथा कांग्रेस के समान उदार नही है, किन्तु नरेन्द्र मोदी के त्वरित फै सले लेने व उनके विकास के नजरिये के कारण वे भारतीय  कारर्पोरेट जगत में व्यक्तिगत रूप में लोकप्रिय हैं । 27जनवरी  तक जितने भी चुनावी सर्वेक्षण हुए हैं, उनके अनुसार कांग्रेस नीत गठबंधन के तीसरे स्थान तथा भाजपा के दूसरे स्थान पर रहने की संभावनाएं बताई गई हैं । यदि क्षेत्रीय दलों का तीसरा मोर्चा सत्तारूढ़  होता है तो राजनैतिक अस्थिरता बनी रहेगी तथा उस सरकार से दीर्घकालीन विकासोन्मुखी नीतियों  तथा फैसलों की किसी को भी अपेक्षा नहीं है ।


इसी परिपेक्ष्य में भारतीय रिजर्व बैंक का 2014-15 में भारत की जीडीपी विकास दर 5.5 प्रतिशत का अनुमान अधिक वास्तविक दिखाई देता है।  हाल में हुए कुछ चुनावी सर्वेक्षणों के अनुसार लोकसभा चुनाव में उत्तरप्रदेश तथा बिहार में भाजपा को लोकसभा की सबसे अधिक सीटें मिल सकती हैं तथा उसके सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने की संभावनाएं हैं । यदि लोकसभा चुनाव के मतदान तक यही प्रवृत्ति बनी रही एवं वह सबसे बड़ी पाटी  के रूप में उभरी तो  भाजपा को तेलगू देशम सरीखे क्षेत्रीय दलों के रूप में सहयोगी मिल सकते हैं तथा वह सत्तारूढ़ हो सकती है । ऐसी स्थिति में भारतीय अर्थव्यवस्था के संबंध में विश्व बैंक के अनुमान सही हो सकते हैं ।

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

धारा 377 पर आए फैसले पर कौन खुश है?

सर्वोच्च न्यायालय के ताजे निर्णय- जिसके अन्तर्गत उसने समलैंगिकता के अपराधीकरण पर फिर एक बार अपनी मुहर लगा दी है- ने शान्ति एवं न्याय के चाहने वालों को भले ही चिन्तित कर दिया हो मगर हम देख रहे हैं कि धर्म के स्वयंभू कर्णधार एवं नैतिकता के रक्षकों को तो उसने नया बल प्रदान किया है। अभी पिछले माह की बात है जब उनके चन्द नुमाइन्दों ने प्रेस सम्मेलन करके धारा 377 को लेकर आए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय- जिसके अन्तर्गत उसने समलैंगिकता हाईकोर्ट के 2009 के निर्णय को पलट दिया था- को लेकर खुशी का इजहार किया था और उसके प्रति अपना समर्थन प्रदान किया था। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को उन्होंने 'मुल्क की पूरब की परम्पराओं, नैतिक मूल्यों और धार्मिक शिक्षाओं के अनुरूप बताया था' तथा कहा था कि वह पश्चिमी संस्कृति के आक्रमण, पारिवारिक प्रणाली के विघटन और सामाजिक ताने-बाने के बिखराव को लेकर पैदा संदेहों को खारिज करता है। मालूम हो कि 2009 के दिल्ली हाईकोर्ट के निर्णय- जिसने समलैंगिकता को अपराध के दायरे से मुक्त किया था और संविधान की धारा 377 को चुनौती दी थी- उसके बारे में उन्हें सख्त एतराज था।

चाहे  इस मसले पर आयोजित प्रेस सम्मेलन हों या अन्य कार्रवाइयां हों, 'विभिन्न धर्मों के इन पुण्यजनोंके बीच नज आ रहा यह मेलजोल सभी के सामने है। ऐसे मौके कम ही आते हैं जब वे सभी अपने मुरीदों के वास्तविक भौतिक सरोकारों को लेकर एकत्रित होने के लिए इस कदर तत्पर दिखते हों या जब आस्था की अपनी-अपनी समझदारी के तहत उनके अनुगामी 'हम' और 'वे' में बंटे हुए सड़कों पर नफरत का लावा फैलाने में मुब्तिला दिखते हों, तब उन्हें रोकने के लिए इकट्ठा दौड़ जाते हों।

निश्चित ही उन सभी की चिन्ता यह नहीं थी समलैंगिक सम्बन्धों में 'पश्चिमी' कहा जानेवाला कुछ नहीं है और अन्य प्राचीन समाजों की तरह, यहां भी उसके प्रति कभी उस कदर आक्रामक रुख कभी नहीं रहा है। रूथ वनिता अपने एक आलेख में पूर्व औपनिवेशिक भारतीय साहित्य और कला से ऐसे कई उदाहरण पेश करती हैं जो इस पर रौशनी डालते दिखते हैं। दरअसल समलैंगिकता के खिलाफ  कानून - जिन पर विक्टोरियाई नैतिकता की छाप थी - पश्चिमी जगत से आयातित थे, जो यहां की न्यायप्रणाली का भी हिस्सा बना दिए गए। ब्रिटिशकाल में ही यहां पर धारा 377 का प्रवेश हुआ क्योंकि उन्हें इस बात की अत्यधिक चिन्ता थी कि उनकी सेना एवं बेटियां पूरब के अवगुणों का शिकार बनेंगी। यह अलग बात है कि खुद ब्रिटिशों ने लगभग पचास साल पहले अपनी कानून की किताबों से इस घृणास्पद प्रावधान को हटा दिया है। आज सहमति रखनेवाले वयस्कों के बीच यौन सम्बन्ध समूचे यूरोप और अमेरिका में कहीं भी अपराध नहीं है।

यह अलग बात है कि आज, भारत ऐसे देशों के साथ एक विचित्र सी प्रतियोगिता में शामिल हुआ है, जिन्होंने राय द्वारा प्रायोजित होमोफोबिया अर्थात् समलैंगिकों के प्रति नफरत की नीतियों को अपनाना कबूल किया है। नागरिकों के बीच किसी भी आधार पर भेदभाव न करने के संविधान के बुनियादी सिध्दांत की हिमायत करने के बजाय आला अदालत के फैसले ने ही समलैंगिकता के अपराधीकरण का रास्ता खोल दिया है। यहां यह जानना समीचीन होगा कि भारत आज 'होमोफोबिक' अर्थात् समलैंगिकता से नफरत करनेवाले मुल्कों के उस उदितमान क्लब का हिस्सा है जिसमें रूस, नाइजीरिया और युगांडा जैसे देश शामिल हैं। हालांकि रूस के समलैंगिकताविरोधी नए कानून जो ''समलैंगिकता के प्रचार'' पर पाबन्दी लगाता है के बारे में बहुत लोग जानते हैं, इसी सन्दर्भ में रूस में सोची में आयोजित ओलम्पिक खेलों में  'गे एथलीट' अर्थात् समलैंगिक एथलीटों की सुरक्षा को लेकर चिन्ता प्रकट की जा रही है। दूसरी तरफ नाइजीरिया और युगांडा जैसे मुल्कों के घटनाक्रम पर बहुत कम लोगों की निगाह गई है। बीते माह 13 जनवरी को नाइजीरिया के राष्ट्रपति गुडलक जोनाथन ने एक अध्यादेश पर दस्तखत किए जिसके अन्तर्गत समलैंगिक यौनाचार को अपराध घोषित किया गया, जिसके प्रावधान भारत की धारा 377 से अधिक दमनकारी हैं। वैसे युगांडा का कानून इन सबमें सबसे अधिक दमनकारी दिखता है जहां समलैंगिकता के 'अपराध' के लिए आप को उम्रकैद की सजा भी सुनाई जा सकती है, जिस बिल को दिसम्बर माह में मंजूरी दी गई। युगांडा में दो साल पहले समलैंगिक अधिकारों के लिए सक्रिय कार्यकर्ता पासिकली काशूसबे की बर्बर ढंग से हत्या की गई थी, जिसमें शामिल होने के आरोप ऐसे ही अतिवादी समूहों पर लगे थे जो समलैंगिकता का विरोध करते हैं। 

वैसे इन 'पुण्यजनों' को यह अधिकार है कि वह पाप किसे कहते हैं या नहीं कहते हैं इस पर अपनी राय बना लें, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें इस बात का बहुत कम एहसास है कि जनतंत्रा में सजाएं महज अपराध के लिए दी जाती हैं, पापों के लिए नहीं। इस तरह कोई धर्मतंत्र या ऐसा मुल्क जहां विशिष्ट धर्म की राय के संचालन में अधिक भूमिका दिखती है, वह किसी को सजा-ए-मौत सुना सकता है, महज इसलिए कि उस व्यक्ति ने अपने आप को नास्तिक घोषित किया, मगर जहां तक एक धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र का सवाल है तो वह अलग ढंग से संचालित होता है। लाजिमी था कि अपने सीमित विश्व नजरिये के चलते इन धर्ममार्तण्डों के लिए इस बात को समझना भी मुश्किल जान पड़ा था कि वर्ष 2009 के हाईकोर्ट के फैसले ने - जिसने समलैंगिकता के अपराधीकरण को खारिज किया था- किस तरह हमारी आजादी को विस्तारित करने के लिए संवैधानिक नैतिकता की समझ को पुनर्जीवित करने की कोशिश की थी और उसे सार्वजनिक नैतिकता के बरक्स पेश किया था जो समाज के वर्चस्वशाली दृष्टिकोण की वाहक होती है।

अपने समुदायों के इन 'पुण्यजनों' का इस कदर एकत्रित होने का यह प्रसंग, एक ऐसे कदम के खिलाफ जिससे मानवीय स्वतंत्रता की सीमाएं बढ़ने की सम्भावना हो, हमारे अपने अतीत के एक ऐसे ही अन्य प्रसंग की याद ताजा करता है। लगभग अस्सी साल पहले की बात है जब भारत अभी भी औपनिवेशिक जुए के नीचे था। भले ही सन्दर्भ अलग हों और मुद्दा अलग हो, मगर जिस तरह 'धार्मिक शिक्षाओं', 'परम्परा और संस्कृति' और 'विशाल बहुमत की राय' की बात की जा रही है, उसी किस्म की बात पहले भी चली थी।

वह एक ऐसा दौर था जब शारदा एक्ट लाने की- जिसके अन्तर्गत चौदह साल से कम उम्र की लड़की शादी पर पाबन्दी लगाने की- बात चल रही थी, जिसने तमाम धार्मिक प्रवृत्तियों के संगठनों एवं व्यक्तियों को उद्वेलित किया था। राष्ट्रवादियों का एक हिस्सा भी 'बाहरी' लोगों द्वारा लोगों के आन्तरिक मामलों में की जा रही दखलंदाजी को लेकर आन्दोलित था। वैसे बहुत कम लोग आज जानते होंगे कि इस कानून को लाने के लिए एक तरह से प्रेरणा का काम फुलमोनी नामक एक बालिका वधु की दुखद मौत ने किया था, जिसकी उससे कई गुना बड़े उम्र के व्यक्ति से शादी कर दी गई थी।  इस अधिनियम का विरोध करने के लिए हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के तमाम 'पुनितजनों' की अगुआई में जगह-जगह आन्दोलन चले थे, जिन्होंने यह ऐलान किया था कि वह 'उनके सबसे मूल्यवान अधिकारों' पर किसी तरह का आक्रमण होने नहीं देंगे, उनकी यह भी घोषणा थी कि वह औपनिवेशिक सरकार को उनकी 'महान संस्कृति और परम्परा' में दखलंदाजी नहीं करने देंगे। उन दिनों इनका संघर्ष किस तरह चला था इसे समझने के लिए जवाहरलाल नेहरू के एक आलेख के एक हिस्से को उध्दृत किया जा सकता है जो 'माडर्न रिव्यू' के दिसम्बर 1935 के अंक में प्रकाशित हुआ था, जिसमें यह बताया गया था कि पुरोहित एवं मौलवी तबके के नुमाइन्दे क्या कर रहे थे:'कुछ साल पहले की बात है जब मैं बनारस गया था... हम लोगों ने देखा कि ब्राह्मण कंधे से कंधा मिला कर मौलवियों के साथ जुलूस निकाल रहे हैं ... और 'हिन्दू-मुस्लिम एकता की जय' कहते हुए नारे लगा रहे हैं। यह देखना काफी सुखद था। मगर यह सब किसके लिए था?... पता चला कि यह दोनों धर्मों के रूढ़िवादियों का साझा विरोध प्रदर्शन है शारदा एक्ट का विरोध करने के लिए।
वह आगे लिखते हैं, हमें देख कर जुलूस में शामिल कईयों ने आपत्तिजनक नारे लगाए।...उसी वक्त, जुलूस टाउन हॉल पहुंचा और किसी वजह से पथराव शुरू हुआ। एक तेजतर्रार युवा ने कुछ पटाखे निकाले और फोड़े, जिनका रूढ़िवादियों की कतारों पर जबरदस्त असर हुआ। यह सोचते हुए कि पुलिस और सेना ने गोलीबारी शुरू की है, वह तुरन्त बिखर गए और तेजी से वहां से निकल गए। चन्द पटाखे उस पूरे जुलूस को बिखेरने के लिए काफी थे।...' (सोशल एण्ड रिलीजियस रिफार्म, अमिया पी सेन, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, पेज 118)

नेहरू आगे बताते हैं कि किस तरह ब्रिटिश सरकार इस मुद्दे पर पीछे हटी और किस तरह छिटपुट नारेबाजी इस बिल को समाप्त करने और शारदा एक्ट को दफनाने के लिए काफी साबित हुई और किस तरह 'बाल विवाह वैसे ही जारी रहे और एक तरफ जब शारदा एक्ट को तार-तार किया जा रहा था तब किस तरह सरकार एवं मैजिस्टे्रटों ने अपना मुंह मोड़ लिया।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि समय अब बदला है। अंग्रेजों की यहां से विदाई हो चुकी है और साठ साल पहले हम गणतंत्र में प्रवेश कर चुके हैं। लेकिन लगता है कि उसी किस्म की घड़ी हमारा इन्तजार कर रही है।

साठ साल का वक्त गुजर गया जब हम लोगों ने यह संकल्प लिया कि लिंग, जाति, नस्ल, धर्म, राष्ट्रीयता आदि किसी भी श्रेणी के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा। मगर अब धीरे-धीरे हमें एहसास हो रहा है कि हमारी उदात्त इच्छाओं और जमीनी हकीकत में गहरा अन्तराल है। अगर कल या उसके पहले या उसके पहले के पहले  दलित, स्त्रियां, धार्मिक अल्पसंख्यक निशाने पर थे, आज लगता है कि निशाने पर यौन अल्पसंख्यक हैं। क्या हम लोकतंत्र की उस विडम्बना को लांघ सकेंगे जिसमें हर किस्म के अल्पसंख्यक बहुसंख्यकवाद के संजाल में उलझे दिखते हैं, आज हमारे सामने सबसे अहम् सवाल यही दिखता है।

मीडिया का एजेंडा...

न्यूज चैनल्स इन दिनों रोज ही लोकसभा के चुनाव करवा रहे हैं। रोज-रोज चुनाव सर्वे कराना, आकलन पेश करना, यह क्यों हो रहा है। इसके पीछे कारण क्या है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया यूं ही सेत-मेत में तो यह कर नहीं रहा होगा और न ही ऐसा करना उसके शौक में शामिल है। टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए भी ऐसा नहीं किया जा रहा है। एकाध चैनल सर्वे कराता तो बात कुछ अलग होती। यहां तो सारे न्यूज् चैनल्स एक ही तरह का काम रोज कर रहे हैं। ऐसा भी नहीं लगता कि ''लोग चलें, मोहि हुम्मस लागे'' की तर्ज पर एक-दो न्यूज् चैनल ने सर्वे प्रसारित किया हो तो बाकी भी उसके साथ चल पडे। सब चल रहे हैं तो अपन भी चल पडें, ऐसा नहीं सोच रहे हैं न्यूज् चैनल्स। दरअसल इसके पीछे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बड़ा छिपा एजेंडा है। सोचने की बात है कि पांच विधानसभा के चुनाव परिणाम आने के बाद कुछ दिनों तक न्यूज् चैनल्स आम आदमी पार्टी की दुदुंभी बजा रहे थे। अरविन्द केजरीवाल को प्रधानमंत्री की दौड़ में दूसरे नंबर पर ला दिया था और राहुल गांधी को इस दौड़ में काफी पीछे कर दिया था। न्यूज् चैनल्स ने कहना शुरु किया कि नरेन्द्र मोदी के मार्ग में केजरीवाल चट्टान बनकर खडे हो गए हैं। श्री मोदी को इस चट्टान को तोड़ना होगा अन्यथा श्री मोदी की इच्छा पूरी नहीं हो सकती। ऐसा प्रचार कि भारतीय जनता पार्टी के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं। सोच में पड़ गई पार्टी कि कहीं किया धरा सब गुड-ग़ोबर न हो जाए। सोचा था क्या, क्या हो गया- यह न हो जाए। लेकिन जनवरी के मध्य से ही (8 दिसम्बर, 2013 को चुनाव परिणाम आए) न्यूज् चैनल्स के स्वर बदले। अचानक कई न्यूज् चैनल्स ने 2014 लोकसभा चुनाव के लिए सर्वे करा दिया और रोज ही सर्वे कराने लगे। एक चैनल ने तो घोषणा ही कर दी कि कांग्रेस की ऐतिहासिक हार निश्चित है। राहुल गांधी प्रधानमंत्री की दौड़ में कहीं नहीं ठहरते। कांग्रेस की लुटिया तो डूबेगी ही।


विचार करने की बात यह है कि कुछ न्यूज् चैनल्स ऐसा क्यों करने लगे। आम आदमी पार्टी को पीछे ढकेल कर नरेन्द्र मोदी को पुन: सामने लाने के पीछे कारण क्या है और इसके लिए रोज-रोज सर्वे कराके उसका परिणाम दिखाने के पीछे मकसद क्या है। मीडिया जानता है कि किसी बात को, किसी धारणा को बार-बार बताया जाए तो लोगों के दिमाग में वह घर कर लेती है और लोग उसे सत्य मानकर उसके अनुरूप आचरण करने लगते हैं। समाज की मानसिकता बनाने में मीडिया की प्रमुख भूमिका होती है। युगों से यह होता आ रहा है। बार-बार यह बताया गया कि स्त्री को पुरुष के अधीन होना चाहिए तो स्त्रियों तक को ऐसा मानने विवश होना पड़ा कि स्त्री को पुरुष के अधीन होना चाहिए। ''अवगुन आठ सदा उर बसहिं...'' इस कथन को स्त्रियां भी सत्य मानने विवश की गईं। कहानियां गढी ग़ईं, कहावते बनाई गईं और लगातार समाज में प्रचार कर यह स्थापित कर दिया गया कि स्त्रियां दोयम दर्जे की होती हैं- ''तिरिया जनम झन देहु विधाता...।'' यह स्त्रियों ने दु:ख के साथ गाया। लेकिन प्रचार ने समाज में स्त्रियों की गौण स्थिति स्थापित कर दी। इसी तरह लगातार प्रचार ने यह भी स्थापित किया कि चार वर्ण विधि ने बनाए हैं। हिन्दू समाज में चार वर्ण होते हैं- हर वर्ण का काम निर्धारित है अत: अपना कर्म हर वर्ण को करना चाहिए, दूसरे वर्ण के कार्य में प्रवेश न करें- सब अपने-अपने धर्म का पालन करें। युगों से मीडिया ने कमजोर को यह महसूसकराने का काम किया कि कमजोर केवल कमजोर रहने ही पैदा हुआ है- यही विधि का विधान है। अज्ञानता में रखने और अंधविश्वास को सत्य मानने का भी काम मीडिया ने प्रचारित किया और कुछ लोग इसके वश में आज भी हैं। कहने का अर्थ यह कि किसी धारणा को पुष्ट करने मीडिया निरंतर एक ही तरह का प्रचार करते रहा है। व्यवस्था के साथ समझौता कर, समाज को उस खास व्यवस्था के पक्ष में करने का काम मीडिया करते रहा है और इसका लाभ वह उस ''व्यवस्था'' से उठाता रहा है, ''व्यवस्था'' का संरक्षण उसे मिलते रहा है। वर्तमान मीडिया  उस मीडिया का उत्तराधिकारी है। प्रचार उसे विरासत में मिली है।  मीडिया के इस चरित्र के खिलाफ भक्तिकाल में आवाज बुलंद की गई। आज इलेक्ट्रानिक मीडिया या कहें न्यूज् चैनल्स जो कर रहे हैं उसके पीछे यह कारण है कि मीडिया इस व्यवस्था का हित साध रहे हैं इसलिए लगातार प्राय: रोज ही चुनाव सर्वे पेश कर देश की जनता का ''मन'' एक खास की ओर मोड़ना चाहते हैं। दरअसल मीडिया आज की व्यवस्था का गुलाम है, उसके आदेश पर ही चलेगा और उसके आदेश पर ही चलने में उसका लाभ है- इसी से वह मनवांछित लाभ कमाता है। शासन प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार, महंगाई आदि पर चर्चा करने का आशय व्यवस्था-विरोधी होना नहीं होता। आमूलचूल व्यवस्था परिवर्तन की बात यह मीडिया नहीं करता। यह मीडिया वही कहता है जो इसके नियंता चाहते हैं। जो पार्टी इस व्यवस्था की मदद नहीं कर सकती अथवा जिस पार्टी की ताकत पर व्यवस्था को संदेह पैदा होने लगे उस पार्टी को बदलने में व्यवस्था क्षणभर की देरी बरदाश्त नहीं कर सकती। इस व्यवस्था को लगने लगा कि अब कांग्रेस उसके काम की नहीं रही अत: भाजपा पर दांव खेला जाए। इसलिए उसने आम आदमी पार्टी के बढ़ते प्रभाव को कम दिखाने और पुन: भाजपा को ताकतवर हो जाने का लगातार प्रचार अपने ''मीडिया'' के द्वारा कराना शुरू किया। रोज-रोज का सर्वे जनता का मन गढ़ने के उद्देश्य से किया जा रहा है। इलेक्ट्रानिक मीडिया का इतना भारी विस्फोटक रूप सामने है कि जनता के मन को मोड़ना पूर्व की अपेक्षा आसान हो गया है। पहले तो यात्राएं करनी पड़ती थीं, बरसात में कहीं आ-जा नहीं सकते थे, अब तो बारहो मास चौबीसों घंटे इस इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए सारे रास्ते आसान हो गए हैं-काहे की बरसात और काहे की ठंड। यह इलेक्ट्रानिक मीडिया तुरंत पहुंचकर तुरंत असर कर रहा है- गणेशजी ने दूध पिया... और यह खबर तुरंत समाज तक पहुंच गई और करोड़ों लोग गणेशजी को दूध पिलाने लगे। रावण का शव और परशुराम का फरसा दिखाने वाले भी न्यूज् चैनल्स रहे हैं, इसी तरह रोज ही सर्वे कर यह मीडिया एक मानस गढ़ रहा है। प्रचार का भयानक विस्फोट आदमी या कहें समाज के विवेक को कुंद कर देता है। इस मीडिया पर नियंत्रण की जरूरत नहीं। जरूरत है जन-मीडिया की और समाज को जनतांत्रिकता में शिक्षित करने की। मीडिया भोलेपन से कहता है कि जो घट रहा है वह हम दिखा रहे हैं। ऐसा है नहीं। दरअसल मीडिया चाहता है कि ऐसा हो, उस तरह की मानसिकता बनाता है और फिर वैसा होने लगता है।  

शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

चुनावी खर्च

खबर है कि निर्वाचन आयोग चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाने पर विचार कर रहा है। फिलहाल लोकसभा उम्मीदवार के लिए चुनावी खर्च की सीमा चालीस लाख और विधानसभा उम्मीदवार के लिए सोलह लाख रुपए है। इस हदबंदी को बढ़ाने की मांग काफी समय से होती रही है। राजनीतिक दल कहते आए हैं कि यह सीमा अव्यावहारिक है। चुनाव खर्च वास्तव में निर्धारित सीमा से बहुत ज्यादा होता है। इस विरोधाभास का नतीजा यह होता है कि उम्मीदवारों को अपने चुनावी खर्च का गलत ब्योरा देने के मजबूर होना पड़ता है। अपवादस्वरूप ही कोई दल या उम्मीदवार व्यय का सही विवरण देता होगा। इसलिए मौजूदा व्यय-सीमा बढ़ाई जानी चाहिए। समय-समय पर यह सीमा बढ़ाई भी गई है। मसलन, 2009 में लोकसभा प्रत्याशी के लिए खर्च की हदबंदी पच्चीस लाख रुपए थी। वर्ष 2011 में निर्वाचन आयोग वे इसे बढ़ा कर चालीस लाख रुपए कर दिया। अब अगले आम चुनाव से पहले एक बार फिर इस सीमा को बढ़ाने पर विचार हो रहा है। तमाम चीजों की लागत बढ़ने के मद्देनजर चुनावी खर्च की अधिकतम सीमा बढ़नी चाहिए। मगर सवाल है कि आयोग के प्रस्ताव के मुताबिक तीस से पचास फीसद की बढ़ोतरी कर दी जाती है, तो क्या पार्टियां उसे व्यावहारिक मान लेंगी? क्या उस हदबंदी का पालन होगा?

लोकसभा में भाजपा के उपनेता गोपीनाथ मुंडे ने पिछले साल सार्वजनिक रूप से यह कहा था कि 2009 के चुनाव में उन्होंने आठ करोड़ रुपए खर्च किए थे। इस पर आयोग ने उन्हें नोटिस जारी किया। मगर फिर क्या हुआ, पता नहीं। दरअसल, मुंडे ने जो कहा वह चुनाव की असलियत जानने वालों के लिए कोई हैरत की बात नहीं थी। मुख्य मुकाबले में रहने वाले तमाम उम्मीदवारों का खर्च निर्धारित सीमा से कई गुना ज्यादा होता है। अगर वे सही हिसाब दें तो जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123(6) के उल्लंघन के दोषी माने जाएंगे। इसलिए कोई सही हिसाब नहीं देता। पर मुद्दा सिर्फ उम्मीदवार का नहीं, पार्टियों के खर्च का भी है। राजनीतिक दलों के खर्च की कोई सीमा तय नहीं है। इसका फायदा उठा कर बहुत सारा चुनावी खर्च पार्टियों के खाते में दिखाया जाता है। अलबत्ता पार्टियों को अपने आय-व्यय का ब्योरा देना पड़ता है। पर उनके लिए अपनी आय का स्रोत बताने की कोई बाध्यता नहीं है। केंद्रीय सूचना आयोग ने कुछ महीने पहले राजनीतिक  दलों को भी सूचनाधिकार अधिनियम के दायरे में लाने का फैसला सुनाया था। पर एक-दो दलों को छोड़ कर बाकी सबने उसे अनावश्यक हस्तक्षेप करार दिया और अपनी संसदीय शक्ति के सहारे उस फैसले को नाकाम कर दिया। फिर, चुनावी आचार संहिता चुनाव की घोषणा होने के बाद लागू होती है। मगर पार्टियां और संभावित उम्मीदवार उसके पहले से चुनावी तैयारियों में जुट जाते हैं इसके मद्देनजर खर्च भी शुरू हो जाता है।


आगामी आम चुनाव के लिए अभी से विज्ञापनों और दूसरे माध्यमों से प्रचार शुरू हो गया है। इस सब पर खर्च की मर्यादा कैसे बांधी जाएगी? जब चुनाव नजदीक न हों, तब भी पार्टियों के संचालन पर काफी खर्च होता है। यह सब आता कहां से है? यों राजनीतिक दल यह दावा करते रहे हैं कि सारा खर्च वे अपने सदस्यों और समर्थकों से मिले चंदों से उठाते हैं। पर जानकारों से यह हकीकत छिपी नहीं है कि पार्टियों को बहुत सारा पैसा उद्योग घरानों से मिलता है। हमारी राजनीति के संचालन में काले धन की कितनी भूमिका है इस बारे में अलग-अलग अनुमान हैं। कई देशों में पार्टियों के लिए अपनी समस्त आय का स्रोत बताना कानूनन अनिवार्य है। हमारे देश में भी ऐसा प्रावधान होना चाहिए। सिर्फ उम्मीदवार के चुनावी खर्च की सीमा बढ़ाने से पारदर्शिता नहीं आ पाएगी।

महंगाई की फिक्र

रिजर्व बैंक ने एक बार फिर रेपो दरों में इजाफा कर दिया है। अलबत्ता सीआरआर यानी नकद आरक्षित अनुपात को रिजर्व बैंक ने इस बार भी यथावत रखा है। तीसरी तिमाही समीक्षा के साथ आई मौद्रिक नीति ने कमोबेश सभी को थोड़ा चौंकाया है। उद्योग जगत ने तो इस पर खुल कर निराशा भी जाहिर की है। जब भी रेपो दर बढ़ाई जाती है तो उसके पीछे महंगाई पर काबू पाने की चिंता होती है। हैरत की बात यह है कि दिसंबर में यह तर्क अधिक लागू होता था, क्योंकि नवंबर में महंगाई दर पिछले चौदह महीनों में सबसे ज्यादा थी। मगर दिसंबर में, जब रेपो दरों में बढ़ोतरी को अवश्यंभावी माना जा रहा था, रिजर्व बैंक ने उन्हें यथावत रखा। अब जबकि पिछले दिनों महंगाई में कुछ नरमी के आंकड़े आ चुके थे, यह उम्मीद की जा रही थी कि इस बार रिजर्व बैंक ब्याज दरों में कमी करेगा, या कम से कम उनमें कोई इजाफा नहीं करेगा। मगर इस बार भी रिजर्व बैंक ने सबको हैरत में डाल दिया।

चौथाई फीसद की बढ़ोतरी के साथ रेपो दर आठ फीसद और रिवर्स रेपो दर सात फीसद हो गई है। लिहाजा, यह अंदेशा जताया जा रहा है कि इस बढ़ोतरी से मकान, वाहन आदि के लिए बैंकों से मिलने वाले कर्ज महंगे हो जाएंगे, लोगों को बैंक-ऋणों पर मासिक किस्त पहले से ज्यादा चुकानी होगी। पर रिजर्व बैंक ने यह आश्वासन दिया है कि नीतिगत दरों में और सख्ती की संभावना नहीं है। रेपो दरों में ताजा बढ़ोतरी को लेकर भले अचरज जताया गया हो, पर यह इतने आश्चर्य की बात नहीं है। अगले आम चुनाव में तीन महीने ही रह गए हैं। ऐसे में महंगाई को लेकर केंद्र सरकार की फिक्र का असर रिजर्व बैंक पर भी रहा होगा। नवंबर में खुदरा महंगाई करीब ग्यारह फीसद थी। दिसंबर में थोड़ी कमी दर्ज होने के बावजूद यह साढ़े नौ फीसद और दस फीसद के बीच थी, जो कि चिंताजनक स्तर ही कहा जाएगा। दूसरे, पिछले महीने जो कमी दर्ज हुई वह मौसमी भी साबित हो सकती है, क्योंकि यह मुख्य रूप से सब्जियों के दामों में आए उतार के कारण थी। जबकि अन्य उपभोक्ता मदों में राहत का कोई रुझान नहीं दिखा है। दूसरे, रिजर्व बैंक ने अपने आकलन में पाया है कि थोक महंगाई सूचकांक के गैर-खाद्य मदों में मांग का दबाव बना हुआ है। इसलिए नीतिगत दरों में चौथाई फीसद की बढ़ोतरी से निवेश और बाजार को लेकर ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं है। पर यह आकलन सही है तो फिर मौजूदा वित्तवर्ष में विकास दर के पांच फीसद से नीचे रहने के रिजर्व बैंक के अनुमान से उसकी संगति कैसे बैठती है?

रिजर्व बैंक का मानना है कि इस साल के अंत तक महंगाई दर औसतन आठ फीसद रहेगी। यानी खुद उसके अनुमान के मुताबिक उस पर महंगाई की फिक्र करने का दबाव बना रहेगा। फिर, उसने यह भी कहा है कि आगे से केवल उपभोक्ता मूल्य सूचकांक यानी खुदरा बाजार की कीमतों को ही मौद्रिक समीक्षा का आधार बनाया जाएगा। यह निर्णय स्वागत-योग्य है, क्योंकि आम लोगों का वास्ता खुदरा बाजार से ही होता है, थोक बाजार से नहीं। पर ऐसे में मौद्रिक नीति की समीक्षा पर महंगाई की चिंता का दबाव पहले से कहीं अधिक होगा। यह स्थिति मुद्रास्फीति नियंत्रण और विकास दर में से किसे प्राथमिकता दी जाए, हमेशा बनी रहने वाली इस दुविधा से रिजर्व बैंक को छुटकारा नहीं दिला सकेगी। पर असल बात यह है कि मौद्रिक कवायद की अपनी सीमाएं हैं। चाहे महंगाई पर काबू पाना हो या निवेश के लिए उपयुक्त माहौल बनाना, इसकी ज्यादा उम्मीद सरकार से की जानी चाहिए।

  

पार्टियों में सबसे बड़ा भ्रष्टाचार

सूचना के अधिकार का मतलब है- सरकार के सच को जानने का अधिकार! यह अधिकार 2005 के पहले तक सांसदों, विधायकों और पार्षदों तक सीमित था। वे सदन में खड़े होकर प्रश्नोत्तर काल में सरकार को आड़े हाथों ले सकते थे, लेकिन जनता बिलकुल निहत्थी थी। यदि किसी आम आदमी को सरकार के किसी विभाग से कोई जानकारी चाहिए होती थी तो वह नहीं मिल सकती थी यानी सरकार केवल सांसदों और विधायकों के प्रति ही जवाबदेह थी। जनता के प्रति नहीं। उस जनता के प्रति नहीं, जो इन सांसदों और विधायकों को चुनकर भेजती है। अर्थात सरकार उसके असली मालिक को जवाब देने के लिए बाध्य नहीं थी, लेकिन 2005 के  सूचना का अधिकार कानून में यही नई बाध्यता कायम कर दी गई है कि  उसे जनता को जवाब देना होगा।

सूचना के अधिकार के अंतर्गत अब कोई भी नागरिक सरकारी काम-काज के बारे में जानकारी मांग सकता है। वह एक अर्जी लिखे, 10 रुपए शुल्क भरे और 30 दिन के अंदर जवाब पाए। इस अधिकार का कुछ लोग दुरुपयोग भी करते हैं, लेकिन इसने शासन-तंत्र के कान खड़े कर दिए हैं। अब मंत्री और नौकरशाह किसी मामले पर जब भी कोई फैसला करते हैं तो वे अतिरिक्त सावधानी बरतते हैं। उन्हें डर लगा रहता है कि सूचना के अधिकार के तहत अगर उनकी कारगुजारियां, सारी बातें जनता के सामने आ गईं तो क्या होगा?

भ्रष्टाचार तो अब भी जारी है, पक्षपातपूर्ण और गलत फैसले अब भी होते हैं, लेकिन अब उनको ढंकने का विशेष इंतजाम होता है। सबसे पहले तो इस कानून के अंदर ही छोड़ी गई गलियों में से रास्ते निकाल लिए जाते हैं। कभी गोपनीयता का, कभी राष्ट्रीय सुरक्षा का और कभी निजता का बहाना बना लिया जाता है और सूचनाओं पर कंबल ढांक दिया जाता है। इसके अलावा अभी भारत की जनता भी इतनी जागरूक नहीं हुई है कि वह बारीकियों में उतरकर सरकार को उसकी करतूतों का आईना दिखा सके। इसके बावजूद सत्तारूढ़ दल और सरकार के नेता सूचना के अधिकार को भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी उपलब्धि बताते हुए नहीं अघाते।

यदि सचमुच लोकतंत्र का अर्थ जनता के लिए, जनता द्वारा जनता की सरकार है तो फिर जनता को यह अधिकार क्यों नहीं मिलता कि वह सिर्फ सरकार ही नहीं, राजनीतिक दलों की भी निगरानी करे। सरकारें तो अपने दलों की सेविकाएं होती हैं। सरकार में बैठे नेतागण अपने पार्टी-नेताओं के इशारों पर नाचते हैं। सरकारों के असली मालिक तो उनके राजनीतिक दल होते हैं। क्या हमारे देश के प्रधानमंत्रियों और मुख्यमंत्रियों का चुनाव आम मतदाता करते हैं। वे तो चुने जाते हैं, नामजद किए जाते हैं, उनकी पार्टियों के द्वारा, उनकी पार्टी के अध्यक्षों के द्वारा! इसीलिए वे जो भी अच्छा या बुरा काम करते हैं, वह जाता है, पार्टी के खाते में! पार्टी ही चुनाव हारती और जीतती है।

सरकार के मंत्री और नौकरशाह भी भ्रष्टाचार करते हैं, पार्टी की खातिर ही! पार्टी को चलाने के लिए करोड़ों-अरबों की जरूरत होती है और चुनाव लडऩे के लिए अरबों-खरबों की। यह जरूरत कौन पूरी करता है? यह पैसा कहां से आता है, कैसे आता है? यह सरकार से आता है। चोर-दरवाजों से आता है। जब मंत्रिगण रंगे हाथों पकड़े जाते हैं तो वे पार्टी-कोष का छाता तान लेते हैं। जब उन्हें हटाने की हवा बहने लगती है तो वे पार्टी-अध्यक्ष से जाकर अपनी 'पार्टी-सेवाकी दुहाई देने लगते हैं।

वे भ्रष्टाचार करते हैं, खुद के लिए भी, लेकिन उसकी सफाई देते वक्त वे पार्टी-कार्यकर्ताओं की मांग पूरी करने का दम भरते हैं। पार्टी के लिए कोष इकट्ठा करने के नाम पर बेहिसाब रिश्वतें ली जाती हैं। रिश्वत देने वालों को अंधाधुंध फायदे दिए जाते हैं। रिश्वत देने वाले लोग रिश्वत लेने वाले मंत्रियों से कहीं अधिक घाघ होते हैं। वे एक देते हैं तो बदले में दस ले लेते हैं। इसीलिए सरकार में बेलगाम भ्रष्टाचार होता रहता है। सरकारी भ्रष्टाचार की जड़ पार्टी-भ्रष्टाचार में पलती है। पार्टी-भ्रष्टाचार सरकारी भ्रष्टाचार की अम्मा है। पार्टी-भ्रष्टाचार इसलिए दबा रहता है कि उसका कोई सही हिसाब-किताब नहीं रखा जाता। पैसे आने पर किसी को रसीद नहीं दी जाती और पैसा बांटने पर किसी से कोई पावती लिखाई नहीं जाती। सब काम जबानी होता है। जो काम लिखित में होता है, वह हाथी के दिखाने के दांत होते हैं। आयकर विभाग को कोई पार्टी दो हजार करोड़, कोई एक हजार करोड़ और कोई दो-तीन सौ करोड़ रु. की आमदनी दिखा देती है। ये दिखाने के दांत हैं और जो खाने के असली दांत हैं, जरा उनके बारे में सोचिए। वे कितने लाखों-करोड़ के होंगे? लाखों-करोड़ों नहीं, अरबों-खरबों के!

अरबों-खरबों का यह भ्रष्टाचार क्यों ढंका-दबा रह जाता है? क्योंकि हमारे ज्यादातर राजनीतिक दल प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बन गए हैं। हमारी पार्टियों का असली रूप क्या है? कोई मां-बेटा पार्टी है, कोई बाप-बेटा पार्टी है, कोई पति-पत्नी पार्टी है, कोई साला-जीजा पार्टी है, कोई बाप-बेटी पार्टी है। ये पार्टी-मालिक अपने-अपने भ्रष्टाचारों पर कुंडली मारे बैठे रहते हैं। ये टिकिट बांटने में पैसे बटोरते हैं। पैसे का यह लालच पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र को भी चकनाचूर कर देता है। न तो पार्टी पदाधिकारियों का चुनाव विधिवत होता है न उम्मीदवारों का। वे ही उम्मीदवार प्राथमिकता पाते हैं, जो मंत्री बनने पर पैसों के पेड़ बन सकें ये उम्मीदवार चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित खर्चे की सीमा का सरासर उल्लंघन करते हैं। उस सीमा से 100-100 गुना ज्यादा खर्च करते हैं और फिर सरकार में आने पर उसी खर्च को वे ब्याज समेत वसूलते हैं। सरकारी भ्रष्टाचार की जड़ यही है।

इसीलिए सूचना का अधिकार राजनीतिक पार्टियों पर सबसे पहले लागू होना चाहिए था। राजनीतिक पार्टियां सरकारों के मुकाबले कहीं अधिक सार्वजनिक होती हैं। सरकारी सच जानने से भी ज्यादा जरूरी है, देश का राजनीतिक सच जानना। यदि राजनीति शुद्ध हो जाए, यदि पार्टियों में आर्थिक शुचिता आ जाए तो सरकार को शुद्ध रखना ज्यादा सरल होगा, लेकिन असली प्रश्न यह है कि क्या हमारे नेतागण शुद्ध सरकार चाहते हैं? यदि चाहते होते तो राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के बाहर रखने पर ये सारे मौसेरे भाई एक क्यों हो गए? कोई दल तो बोलता कि हम अपना सब सच सार्वजनिक करने को तैयार हैं? सारी पार्टियां अपना पेट छिपाए क्यों बैठी हैं? पार्टी-सच, सरकारी-सच से कहीं अधिक गंभीर होता है।

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