प्राथमिक
शिक्षा का माध्यम
क्या हो इस
बाबत अभी हाल
ही में सर्वोच्च
न्यायालय का एक
महत्वपूर्ण फैसला आया है।
फैसले में स्पष्ट
तौर पर स्कूली
शिक्षा के माध्यम
को तय करने
का अधिकार स्कूलों
को देते हुए
कहा गया है
कि राज्य सरकारें
इसमें हस्तक्षेप नहीं
कर सकती हैं।
साथ ही न्यायालय
ने यह भी
कहा कि आज
के समय में
अंग्रेजी की महत्ता
की अनदेखी नहीं
की जा सकती
है। मातृभाषा में
शिक्षा प्राप्त करने के
बाद रोजगार के
लिए दर दर
की ठोकरें खाने
से अच्छा है
कि उस भाषा
में शिक्षा प्रदान
की जाए जो
आगे चलकर छात्रों
को रोजगार प्रदान
कराने में सहायता
प्रदान करे।
चीफ
जस्टीस आरएम लोढ़ा
की अध्यक्षता वाली
पांच सदस्यीय संविधान
पीठ ने स्पष्ट
कहा है कि
राज्य सरकारें भाषाई
अल्पसंख्यक शिक्षक संस्थानों में
क्षेत्रीय भाषाओं को थोप
नहीं सकतीं। विदित
हो कि यह
फैसला 90 के दशक
में कर्नाटक सरकार
द्वारा पहली से
चौथी कक्षा तक
शिक्षा के माध्यम
को मातृभाषा कन्नड़
में प्रदान करने
को अनिवार्य बनाने
को चुनौती देने
वाली याचिका के
संदर्भ में था।
कर्नाटक में स्कूलों
की मान्यता प्राप्त
करने के लिए
मातृभाषा में शिक्षा
एक अनिवार्य शर्त
बना दी गई
थी। इसके साथ
ही उन स्कूलों
की मान्यता रद्द
करने की बात
कही गई थी
जो ऐसा नहीं
करते हैं।
कर्नाटक
सरकार के इस
फैसले के कारण
कई प्रकार की
व्यवहारिक समस्याएं पैदा होने
लगी जैसे कि
अन्य भाषा भाषी
घरों के बच्चों
अथवा बाहरी राज्यों
से आए लोगों
के बच्चों को
शिक्षा हासिल करने में
परेशानी होने लगी।
इसके अतिरिक्त चौथी
कक्षा के बाद
शिक्षा का माध्यम
एकदम से बदलकर
अंग्रेजी हो जाने
के कारण छात्रों
की ग्राह्य क्षमता
पर अनावश्यक दबाव
पड़ने लगता था।
सीबीएससी व अन्य
बोर्ड के निजी
स्कूलों में पढ़ने
वाले उनके समकक्षों
की शिक्षा का
माध्यम अंग्रेजी होने से
भेदभाव की सी
भी स्थिति होने
लगी।
सुप्रीम
कोर्ट के इस
एक फैसले से
सारी समस्याएं एक
झटके में दूर
हो गईं। साथ
ही सुप्रीम कोर्ट
की टिप्पणी, "छात्रों
पर उनकी मातृभाषा
थोपना गलत है।
बच्चे किस माध्यम
में पढ़ेंगे, यह
फैसला अभिभावकों पर
छोड़ दिया जाए
व इसमें राज्य
दखलअंदाजी ना करे"
का भी स्वागत
किया जाना चाहिए।
वैश्वीकरण
और सूचना क्रांति
के दौर में
जबकि अंग्रेजी वैश्विक
भाषा बन चुकी
है, मातृभाषा में
शिक्षा प्रदान करने की
अनिवार्यता कहीं से
भी स्वीकार्य नहीं
है। अगर हमें
आधुनिक विश्व के साथ
कदम से कदम
मिलाकर चलना है
तो अंग्रेजी का
विरोध छोड़ना होगा।
यदि हमें तरक्की
हासिल करनी है
तो यह अंग्रेजी
को दरकिनार करने
से नहीं होगा।
लेकिन बदकिस्मती से
देश का एक
बड़ा वर्ग अंग्रेजी
को विदेशी भाषा
बताते हुए इसके
प्रति पूर्वाग्रह से
ग्रसित है। वे
अपनी भाषा को
लेकर प्रायः भावुक
रहते हैं और
उसे अपनी जातीय
अस्मिता से जोड़कर
देखते हैं। हालांकि
वे ये भी
जानते हैं कि
आज के समय
मातृभाषा का अध्ययन
भावनात्मक संतोष तो दे
सकता है, पर
रोजी-रोजगार नहीं
दिला सकता, लेकिन
सीधे सीधे इस
बात को स्वीकार
करने का साहस
उनमें नहीं। उनका
यही संशय अक्सर
कुछ राजनीतिक दलों
के घोषणापत्रों और
सरकारी फैसलों में दिखता
रहता है।
इस
मामले में चीन
और जापान का
उदाहरण लिया जा
सकता है। पूर्व
में दोनों देश
अपनी भाषा को
लेकर कुछ ज्यादा
जज्बाती थे हालांकि
अब उन्हें अंग्रेजी
की महत्ता समझ
में आ गई
है। चीन में
अंग्रेजी सीखने वालों की
बढ़ती तादात इसका
ज्वलंत उदाहरण हैं। समय
आ गया है
कि अब भारत
में भी मातृभाषा
और विदेशी भाषा
का भेदभाव समाप्त
कर सस्ती व
गुणवत्तापूर्ण अंग्रेजी शिक्षा सस्ती
और सर्वसुलभ बनाई
जाए।
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