शनिवार, 24 मई 2014

कड़वे सच से सामना

डब्ल्यूएचओ की ताजा रिपोर्ट ने एक बार फिर यह कड़वा सच याद दिला दिया है कि भारत की तकरीबन 50 फीसदी आबादी आज भी खुले में शौच के लिए मजबूर है। रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया में ऐसे लोगों की कुल संख्या 100 करोड़ है जिनमें से 60 करोड़ भारत में रहते हैं। बेशक हाल के दिनों में देश में इस मसले पर जागरूकता फैलाने की कोशिशें बढ़ी हैं। इससे पहले भी सरकार की प्राथमिकता में यह मुद्दा लगातार बना रहा। पिछले 20 वर्षों में इस पर 1250 अरब रुपये से ज्यादा खर्च किए जा चुके हैं। बावजूद इसके, हालात आज भी ऐसे नहीं हो सके कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत शर्मिंदगी से बच सके।

पहले तो दुनिया हमें एक गरीब देश के रूप में देखती थी। इस वजह से गरीबी, भुखमरी और कुपोषण की इंतिहा दर्शाने वाली स्थितियों को भी खास आश्चर्य की बात नहीं माना जाता था। मगर, पिछले दो दशकों के विकास के बाद अब भारत संपन्न और शक्तिशाली देशों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होता है और वैश्विक समस्याओं को सुलझाने की प्रक्रिया में बराबर की हिस्सेदारी करता है। स्वाभाविक है कि जिन मोर्चों पर उसकी नाकामी को पहले सहानुभूति के साथ लिया जाता था, उन्हीं नाकामियों को अब पचाना किसी के लिए भी मुश्किल हो गया है। पिछले करीब 20 वर्षों में दुनिया के स्तर पर खुले में शौच जाने वाले लोगों की संख्या में 21 फीसदी की उल्लेखनीय कमी आई है।


1990 में यह संख्या 130 करोड़ थी जो 2012 में घट कर 100 करोड़ पर गई। आंकड़ों के लिहाज से देखें तो एशियाई देशों की उपलब्धि भी कम नहीं दिखती। 1990 में यहां की 65 फीसदी आबादी खुले में शौच के लिए जाती थी। 2012 तक यह 38 फीसदी हो गई। मगर, भारत के संदर्भ में 60 करोड़ की संख्या अब भी नीति-निर्माताओं को मुंह चिढ़ा रही है। हमें समझना होगा कि यह मुद्दा तरक्की का उतना नहीं है, जितना विकास के फायदों के नीचे तक पहुंचने का। देश ने पिछले दो दशकों में विकास के जो भी कीर्तिमान बनाए हों, उनका असर निचली पांत में खड़े परिवारों तक इस रूप में नहीं पहुंचा कि उनकी आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक स्थितियों में आमूल बदलाव हो। जब तक यह बदलाव नहीं होता तब तक महज भाषणों और विज्ञापनों से लोगों की सोच और उनका व्यवहार एक हद से ज्यादा नहीं बदला जा सकता।

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