मंगलवार, 27 मई 2014

कहां चूक हुई राष्ट्रीय सुरक्षा नीति में

आजादी के 67 सालों के दौरान 1962 की शर्मनाक पराजय, 1971 में पाक पर निर्णायक जीत, कारगिल घुसपैठ, मुंबई पर आतंकी हमला, अनेक घुसपैठों और आंतरिक सुरक्षा चुनौतियों के बावजूद सत्ताधीश वायदों क्रियान्वयन के बीच उदासीन ही रहे। यदि कोई सोचता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा नीति के क्रियान्यवन के लिए ढांचा तैयार करने के लिए पर्याप्त समय है तो निराशा ही हाथ लगेगी। इस अहम मुद्दे पर हम डांवांडोल अलग-थलग ही रहे हैं। इस मुद्दे पर असंगत बात ये है कि नीति-नियंता राष्ट्रीय सुरक्षा और राष्ट्रीय प्रतिरक्षा के निहितार्थ समझने में विफल रहे हैं।

राष्ट्रीय सुरक्षा एक विस्तृत विचार है। यह मांग करती है कि राजनीतिक समझ, आर्थिक सुरक्षा, सहज कठोर शक्ति, केंद्रित विकास, मानवीय विकास, प्राकृतिक संसाधन और जनता का सामंजस्य सहयोग हो। इसके विपरीत राष्ट्रीय प्रतिरक्षा का सीमित दायरा है। प्रतिरक्षा में हमारी संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता, आतंरिक संकट से जूझने, मानवीय प्राकृतिक आपदाओं से निबटने, राजनीतिक इच्छाशक्ति की सहक्रियाशीलता, बहुआयामी अंतर्राष्ट्रीय दायित्व तथा राष्ट्र के सर्वोच्च हितों की पूर्ति हेतु किये जाने वाला हस्तक्षेप शामिल होता है।

सही मायनों में सुरक्षा और प्रतिरक्षा आपस में परिवर्तनशील नहीं हैं। सुरक्षा को प्रतिरक्षा में शामिल किया गया है। संयुक्त रूप से ये राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए है और दोनों का सहअस्तित्व होना चाहिए। कौटिल्य ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक अर्थशास्त्र में राष्ट्रीय सुरक्षा की चुनौतियों के बाबत दो हजार साल पहले चेता दिया था। उसमें इस बात पर बल दिया गया था कि राष्ट्रीय सुरक्षा की चुनौती के मुकाबले के लिए विशेषज्ञता और ताकत बढ़ाने की जरूरत है। उन्होंने ऐसे चार खतरों के बारे में आगाह किया : बाहरी खतरा बाहरी ताकतों द्वारा, बाहरी खतरा आंतरिक ताकतों द्वारा पैदा करना, आंतरिक खतरा बाह्य ताकतों द्वारा तथा आतंरिक खतरा आंतरिक ताकतों द्वारा बढ़ावा देने की चुनौती। आज हम तमाम ऐसी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं लेकिन विस्तृत राष्ट्रीय सुरक्षा नीति को अंजाम नहीं दिया गया। यदि कोई कोशिश हुई भी तो आधे-अधूरे प्रयास ही हुए। देश ने ऐसी तमाम आपदाओं का सामना किया लेकिन हमने कोई सबक नहीं सीखा और ही भविष्य में इनके प्रभावों को कम करने के लिए प्रयास ही हुए।

कौटिल्य के दर्शन के अनुरूप हमें सुरक्षा की चुनौतियों को पहचानना चाहिए। बाह्य खतरों की बात करें तो पाक अफगानिस्तान आतंक के प्रमाणित केंद्र हैं जो जम्मू-कश्मीर में हमें टीस दे रहे हैं। चीन के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा का निर्धारण हो पाने से पिछले दिनों चिंताजनक घटनाक्रम हमने देखा। दक्षिण में श्रीलंका द्वारा तमिलों की अनदेखी से तमिलनाडु में गुस्सा है। यहां तक कि भूटान, नेपाल, बंगलादेश और म्यांमार तक भारत की अनदेखी करके बड़े पड़ोसी की भूमिका स्वीकार कर रहे हैं। मालदीव का घटनाक्रम हमारी चिंता का विषय है। आतंरिक सुरक्षा की चुनौती के रूप में माओवाद एक गंभीर खतरे के रूप में कई राज्यों को अपनी चपेट में ले चुका है। राज्यों के जलविवाद समस्या पैदा कर रहे हैं। भारत में आज भूमि, पानी, विस्थापन और ऊर्जा के वितरण बंटवारे के तमाम स्रोत चिंता का विषय बने हुए हैं। इन सभी चुनौतियों से कौटिल्य दर्शन से निपटा जा सकता है लेकिन अपरिपक्व राजनेताओं द्वारा इसके निदान के गंभीर प्रयास नहीं हो रहे हैं।

गैर परंपरागत खतरों के रूप में छह चुनौतियां हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बनी हुई हैं। पेयजल, स्वास्थ्य, महामारियों की आशंका, ऊर्जा संकट, रोजगारपरक शिक्षा के अभाव में बढ़ती बेरोजगारी, पर्यावरण क्षरण, कारगर तकनीक का अभाव एक बड़ी चुनौती है। उत्पादन हमारे सकल घरेलू उत्पाद का 16 फीसदी रह गया है। अपार श्रम शक्ति के बावजूद सेवा क्षेत्र में गिरावट है। हमें श्रम आधरित विदेशी मुद्रा अर्जन के बजाय ज्ञान आधारित मुद्रा के अर्जन पर ध्यान देना चाहिए।

ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा नीति के नदारद होने के संकेत क्या हैं? क्या उसमें इन मुद्दों को रखा गया है? अगर नीति है तो कहां है? इसे कौन बनाएगा? कौन अनुपालन करेगा? इसके अनुपालन के लिए क्या साधन चाहिए और कौन उपलब्ध कराएगा? यदि देश की कार्यपालिका ऐसा कर रही तो आम आदमी को इसे जानने का हक है? यदि नहीं तो क्यों?

यदि मान भी लें ऐसी कोशिश हुई। लेकिन सवाल उठता है कि विभिन्न सरकारों के दौरान तमाम कमेटियों ने, विभिन्न मुद्दों पर जो रिपोर्ट दी, उन्हें ठंडे बस्ते में क्यों डाला गया? ये रिपोर्टें देश के ज्वलंत विषयों जल बंटवारे, रक्षा, रक्षा उत्पाद, स्वास्थ्य, श्रम, पर्यावरण, शोध विकास पर केंद्रित थीं।

सवाल ये भी है कि इनके क्रियान्वयन की प्राथमिकता क्या है? इसकी जवाबदेही किसकी है? नियमानुसार रक्षा सचिव की, लेकिन वास्तविकता सभी जानते हैं। क्यों हम तमाम सुरक्षा उपकरण आयात कर रहे हैं? वैज्ञानिक सलाहकारों द्वारा 2002 में की गई सिफारिश कि 70 फीसदी रक्षा उपकरण स्वदेशी होंगे, का अनुपालन क्यों नहीं हुआ? कुछ बाधाएं इनके क्रियान्वयन को रोकती हैं। जब भी खरीद की कोशिश होती है, बोली गंवाने वाला अनियमितताओं की बात कहकर प्रक्रिया को ध्वस्त कर देता है।

प्रश्न यह भी है कि कौन राष्ट्रीय तकनीक आधार की देखरेख करेगा? हम मानव संसाधन विकास, अनुसंधान, सेहत, कृषि उन्नति के मामले में कहां खड़े हंै? जाहिर सी बात है कि उत्तरदायित्व के अभाव में हम प्रभावकारी और ताकतवर राष्ट्र की जमीन तैयार नहीं कर पाए। सवाल ये भी है कि सरकार- दर-सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे गंभीर मुद्दे की अनदेखी क्यों करती रही हैं?

सही मायनों में इस उदासीनता के लिए कुछ मौजूदा स्थिति, कुछ अवास्तविक, कुछ व्यक्तित्व, कुछ दुराग्रह, अनुभव की कमी तथा शीर्ष नेतृत्व की लचर कार्यशैली जिम्मेदार रही है। यह समस्या इसलिए भी बढ़ी क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय कार्य मानकोंं की अनदेखी, शीर्ष सलाहकारों की नेटवर्किंग में कमी, संबंधित मंत्रालयों के अंतरविरोध के चलते देश की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति प्राथमिकता नहीं बन पाई। दीर्घकालिक हितों को ध्यान में रख बिना सोचे-विचारे  उठाए कदमों के चलते निर्णायक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति को अंजाम दिया जा सका।

कैसी विडंबना है कि सवा अरब के देश, जिसमें बड़ा भाग युवाओं, रचनात्मक प्रतिभाओं और ऊर्जावान श्रमशक्ति का है, वहां कारगर नीतियों के अभाव में बेतहाशा बेरोजगारी है। अपार जल संपदा के बावजूद पेयजल संकट है, उसका संवर्धन नहीं हो पा रहा है। कृषि की बदहाली से किसानों की आत्महत्या का सिलसिला जारी है। सेहत, महिला बच्चों के कल्याण, स्वस्थ परिस्थितियों, पर्यावरण के मानकों के हिसाब से हमारी गिनती निचले देशों के रूप में होती है। संपदा अर्जन की तमाम नई तकनीकों के बावजूद हमारे सकल घरेलू उत्पाद में गिरावट रही है।

ले.जन. एस.एस.मेहता, लेखक सेवानिवृत्त वेस्टर्न आर्मी कमांडर हैं और डी. जी. सीआईआई राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के सदस्य के रूप में सेवाएं दे चुके हैं।

इससे हमारी दुनिया में जो छवि बनी है, उसका खमियाजा पूरे देश ने भुगता है। दंडयोग्य इटली के मरीनों को जाने दिया गया, अमेरिका में भारतीय राजनयिक की अपमानजनक तलाशी, पूर्व राष्ट्रपति की अभद्र तलाशी, गैरकानूनी धन जुटाने वालों के खाते उजागर हुए, मछुआरों की गिरफ्तारी, भारतीय कैदियों की पीटकर हत्या, भारतीय सैनिकों के सिर काटकर ले जाना इसकी परिणति है। भारतीय सीमा का अतिक्रमण, प्रवासियों की घुसपैठ तथा अमीर-गरीब की खाई ने स्थितियों को विकृत किया है।


क्या लोकतंात्रिक ढंग से चुनी गई संवैधानिक सरकार का दायित्व नहीं है कि अपने नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करे? इस देश का आधार नागरिकों के अंतहीन कष्टों का सिलसिला कैसे थमेगा? नया जनादेेश पाने वाली सरकार को चाहिए कि एक विस्तृत, विशिष्ट और कारगर योजना का प्रारूप तैयार करके इन तमाम गंभीर समस्याओं का समाधान करे। विभाजक बहसों और आरोप-प्रत्यारोपों का दौर खत्म हो चुका है। देश के नागरिक सार्थक जवाब चाहते हैं और इसे अब लंबे समय तक भाग्य के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।

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