पूंजीवाद
विकास की मुक्त
व्यापार व उदारवादी
अवधारणा के पैरोकार
निगमीकृत विकास से इतने
अभिभूत हैं कि
घटते रोजगार अवसर
व बढ़ती आर्थिक
विषमताओं जैसी असाधारण
घटनाएं भी उनका
ध्यान आकर्षित नहीं
कर पा रही
हैं। सकल घरेलू
विकास की ऊंची
दर के दावों
से मदहोश नवउदारवाद
के समर्थक वास्तव
में विकास दर
में उछाल को
ऐसे रोमांचक ढंग
से विकास के
रूप में पेश
कर रहे हैं
कि इस कथित
विकास की वास्तविकता
से अनभिज्ञ कोई
भी सामान्य ज्ञान
रखने वाला आमजन
इस वृद्धि को
विकास मानकर अनायास
ही इससे अभिभूत
हो उठता है।
विकास के इस
नये मॉडल से
आज भारतीय समाज
के बहुमत हिस्से
की सामाजिक सुरक्षा
व रोजगार संकट
में है।
दरअसल
निगमीकृत विकास पर आधारित
सकल घरेलू उत्पाद
के दावे जितने
चमत्कारिक दिखाई देते हैं
उनकी वास्तविकता उतनी
ही चौंकाने वाली
है। वास्तव में
वर्तमान समय में
सकल घरेलू उत्पाद
में वृद्धि को
अर्थव्यवस्था के विकास
के तौर पर
पेश किया जा
रहा है, जबकि
सकल घरेलू विकास
वस्तुओं और सेवाओं
के उत्पादन के
आकलन को दर्शाने
वाला मापदण्ड भर
है और किसी
अर्थव्यवस्था का विकास
एक सापेक्ष अवधारणा
है जिसमें सेवाओं
और वस्तुओं के
उत्पादन के तरीकों
से लेकर राष्ट्रीय
आय और लोगों
के जीवन स्तर
तक को संकलित
किया जाता है।
आज जब उदारवाद
के पैरोकार बेहद
उदारता से भारतीय
अर्थव्यवस्था की तेज
वृद्धि के गुणगान
में व्यस्त हैं
तो बढ़ती आर्थिक
विषमता और चौड़ी
होती सामाजिक असमानता
की खाई इस
रोजगारनाशक विकास पर एक
बड़ा प्रश्नचिन्ह अवश्य
खड़ा करती है।
सकल
घरेलू उत्पाद के
बढऩे से राष्ट्रीय
आय में बढ़ोतरी
तो होती है,
परन्तु वास्तविक प्रश्न उस
आय के सृजन
की व्यवस्था का
है। विकास के
वर्तमान मॉडल के
आलोचक पूंजीवाद की
वर्तमान अवस्था को क्रोनी
अथवा याराना पूंजीवाद
के रूप में
परिभाषित कर रहे
हैं, परंतु वास्तविकता
यह है कि
पूंजीवादी व्यवस्था में राज्य
और पूंजीवाद के
बीच दोस्ती का
यह स्थायी भाव
सदैव विद्यमान रहता
है। यह याराना
कम अथवा अधिक
हो सकता है
परंतु यह याराना,
पूंजी और राजसत्ता
के बीच कभी
भी खत्म नहीं
होता है। वर्तमान
समय में यह
दोस्ती अपने उच्चतम
स्तर पर पहुंचकर
ऐसी अवस्था में
पहुंच गई है
कि अब पूंजीवाद
निरंकुश होकर अनुत्पादक
होने की स्थिति
में पंहुच चुका
है और अपने
लाभ के लिए
वह सट्टेबाजी का
सहारा ले रहा
है। ऐसी स्थिति
में पूंजीवाद की
वर्तमान अवस्था को क्रोनी
नहीं केसिनो कैपिटलिज्म
अथवा सट्टा पूंजीवाद
कहा जाना चाहिए।
क्रोनी पूंजीवाद की अवस्था
में राजसत्ता और
पूंजीवाद के बीच
याराना तो रहता
ही है परन्तु
उसमें उत्पादकता बनी
रहती है, क्रोनी
कैपिटलिज्म का उत्पादन
विरोधी होना उसकी
चारित्रिक विशेषता नहीं। वहीं
केसिनो कैपिटलिज्म अपने लाभ
के लिए गैरउत्पादक
गतिविधियों का सहारा
लेता है और
उत्पादकता विरोधी होकर उत्पादकता
से घबराना उसकी
चारित्रिक विशेषता होती है।
मुनाफे
की तलाश में
सट्टेबाजी का यह
भाव विश्वव्यापी है
और मुनाफे की
तलाश में मुक्त
वित्त पूंजी की
आवारगी और सकल
घरेलू उत्पाद की
ऊंची वृद्धि दर
की इस कदमताल
के साक्षी नब्बे
के दशक में
लेटिन अमेरिका और
एशियाई टाईगर भी रहे
हैं। यह आवारा
पूँजी स्थापित उद्योगों
के लाभ को
हड़पने अथवा दुनिया
में सट्टेबाजी से
मुनाफा कमाने के लिए
ही भटकती रहती
है। भारतीय अर्थव्यवस्था
के संदर्भों में
भी इसकी प्रवृति
को आसानी से
देखा जा सकता
है। यदि हम
चीनी उद्योग को
एक नमूने के
तौर पर लें
तो विकास के
नाम पर पूँजी
के इस छल
को समझ सकते
हैं। 2009-10 में चीनी
उद्योग के मुनाफे
में एक बम्पर
उछाल देखने में
आया और यह
उछाल कोई उत्पादन
में बढ़ोतरी या
लागत में कटौती
से पैदा हुआ
नहीं वरन चीनी
के दामों में
आए कई गुना
उछाल के कारण
था। स्टॉक एक्सचेंज
में सूचीबद्ध 33 चीनी कम्पनियों
ने दिसम्बर माह
में खत्म तिमाही
में अपना मुनाफा
2900 गुना बढ़ा कर
901 करोड़ कर लिया
जो कि पिछले
साल 2008 की इसी
तिमाही में महज
30 करोड़ था। विशेषज्ञों
के अनुसार यदि
गैरसूचीबद्ध निगमों और सहकारी
निगमों का मुनाफा
भी इसमें शामिल
कर लिया जाए
तो यह इससे
दोगुना हो जाएगा।
2008 की तीसरी तिमाही में
घाटा दिखाने वाली
चीनी मिलों का
मुनाफा 2009 का अन्त
आते-आते चीनी
के बढ़े दामों
के कारण जबरदस्त
ढंग से फूट
पड़ा। बलरामपुर का
लाभ जहां 51.29 से
बढ़कर 76.55 करोड़ पर पंहुच
गया वहीं त्रिवेणी
इंजीनियरिंग 23.98 से 72.94 करोड़ पंहुचा
और बजाज, हिन्दुस्तान,
सिम्भावली और मवाना
चीनी मिल जैसी
दर्जन भर कंपनियां
जो पिछले साल
घाटा दिखा रही
थी जबरदस्त मुनाफे
में आ गई।
ऊपर उल्लेखित 33 चीनी
निगमों का टर्नओवर
भी 76 प्रतिशत से
अधिक का उछाल
दर्ज करते हुए
6443 करोड़ के आंकड़े
तक पहुंच गया।
जाहिर है चीनी
उद्योग में मुनाफे
के इस ज्वालामुखी
के फट पडऩे
का असर सकल
घरेलू उत्पाद की
वृद्धि दर में
भी प्रकट हुआ।
परन्तु उत्पादन के बढऩे
से इस सकल
घरेलू उत्पाद का
अधिक संबंध नहीं,
बल्कि विडम्बना यह
है कि सकल
घरेलू उत्पाद की
बढ़ोतरी कई बार
उत्पादन में बढ़त
को अपने लिए
अहितकर समझती है।
उत्पादन
के विकास से
शेयर बाजार का
यह विरोधी संबंध
ही वर्तमान विकास
की वास्तविकता को
जाहिर करता है।
कीमतें बढऩे से
तथाकथित विकास का यह
रुझान केवल चीनी
उद्योग में नहीं
वरन् दूसरे क्षेत्रों
में भी दिखाई
देता है। सकल
घरेलू उत्पाद में
वृद्धि की कमोबेश
यही स्थिति देश
के खुदरा बाजार
में भी दिखाई
देती है। भारतीय
खुदरा व्यापार में
2004-05 के 35000 करोड़ के मुकाबले
2010 में 109000 करोड़ तक की
बढ़ोतरी का अनुमान
था और यह
बढ़ोतरी खुदरा व्यापार में
किसी क्रान्तिकारी परिवर्तन
से नहीं कीमतों
में भारी बढ़ोतरी
से है और
कीमतें इस निगमीकृत
विकास के स्वामियों
के पक्ष में
किए गए अनिवार्य
वस्तु अधिनियम और
वायदा कारोबार में
बदलावों से है।
दरअसल
सकल घरेलू उत्पाद
में बढ़ोतरी से
लेकर अर्थव्यवस्था का
सम्पूर्ण विकास तक पूँजी
स्वामियों का छलपूर्ण
खेल भर है
और स्वाभाविक है
कि यदि यह
कुछ व्यक्तियों का
खेल है तो
इसका लाभ भी
कुछ सीमित हाथों
और तबकों तक
रहेगा। देश के
विकास का रोडमेप
तैयार करने वाले
मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था
के पैरोकार लगातार
सांख्यिकीय आंकड़ों के द्वारा
दावा करते हैं
कि विकास का
वर्तमान उदारवादी रास्ता ही
दुनिया के विकास
का एकमात्र रास्ता
है। अपने दावों
को सिद्ध करने
के लिए वह
लगातार गरीबी घटने की
घोषणाएं भी करते
रहते हैं परन्तु
उन्हीं द्वारा बनाए गए
आयोग और कमेटियां
समय- समय पर
उनके आंकड़ों की
इस बाजीगरी को
झुठलाते रहते हैं।
सरकार द्वारा गठित
अर्जुन सेनगुप्ता आयोग ने
इसी प्रकार के
छद्म दावों की
हवा निकालते हुए
देश के सामने
यह तथ्य पेश
किए कि हमारी
आबादी का 79 प्रतिशत
बीस रुपये रोज
से भी कम
पर गुजारा करता
है। दरअसल
इस मुक्त बाजार
अर्थव्यवस्था को बाजार
अर्थव्यवस्था कहना ही
एक बड़ा धोखा
है क्योंकि यह
किसी बाजार व्यवस्था
के बुनियादी सिद्धान्तों
को ही धत्ता
बताती है। इस
बाजार अर्थव्यवस्था में
निजी स्वामित्व तो
है परन्तु प्रतिस्पर्धा
नदारद है, जो
कि किसी भी
बाजार के बाजार
होने की बुनियादी
आवश्यकता है। दरअसल
यह एक एकाधिकारी
व्यवस्था है और
यह व्यवस्था बाजार
की मांग की
पूरी नहीं करती
वरन् अपने उत्पादों
के अनुरूप उपभोक्ता
को गुमराह करते
हुए नियंत्रित संचार
माध्यमों के द्वारा
मांग का निमार्ण
करती है। इस
बाजार के केन्द्र
में उपभोक्ता नहीं
हैं जो कि
किसी भी बाजार
का आधार होता
है, इस बाजार
के केन्द्र में
वित्त पूँजी के
स्वामी और कम
लागत अथवा बिना
लागत से कमाया
उनका लाभ ही
है। स्वाभाविक है
कि ऐसी स्थिति
में लाभ कम
उत्पादक, गैरउत्पादक एवं एक
वर्ग विशेष तक
सीमित होगा और
यह विकास अन्तोगत्वा
इस सीमित वर्ग
की आवश्यकताओं की
पूर्ति ही करेगा।
इस सीमित विकास
को हम जहां
तहां वर्गीय रूप
से केन्द्रीकृत विकास
के रूप में
पाते हैं। आज
देश के 18 लाख
परिवार ऐसे हैं
जिनकी वार्षिक आमदनी
45 लाख रुपये या उससे
अधिक है। 35 औद्योगिक
घरानों के पास
देश के 80 करोड़
मजदूर किसानों की
कुल सम्पदा से
भी अधिक सम्पति
है। जिससे विकास का यह
केन्द्रीकरण केवल भौगोलिक
स्तरों पर नहीं,
पूरे देश में
सामाजिक स्तरों पर भी
दिखाई देती है।
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