आज
से 147 वर्ष पूर्व
कार्ल मार्क्स की अमर
कृति ''दास कैपिटल
का पहला खण्ड
जर्मन भाषा में
छपा। मूल
जर्मन में इसकी
मात्र एक हजार
प्रतियां ही पांच
वर्षों के दौरान
बिक सकीं। इसका
अंग्रेजी अनुवाद आने में
दो दशक लगे
तब जाकर इसकी
बिक्री बढ़ी। सितम्बर 1847 से
निरंतर छपने वाली
साप्ताहिक पत्रिका ''दी इकॉनामिस्ट में मार्क्स की मृत्यु
के काफी दिनों
बाद 1907 में इसका
जिक्र देखने को
मिला।
मार्क्स के जीवनकाल में
''दास कैपिटल का सिर्फ
पहला खण्ड ही
छपा। उनकी मृत्यु
के बाद उनके
सहयोगी फ्रेडरिक एंगेल्स ने
इसके तीन अन्य
खण्डों (यदि हम
''थियरिज ऑफ सरप्लस
वैल्यू को
भी इसमें शामिल
कर लें तो)
का संपादन कर
प्रकाशित किया।
मार्क्स ने सामंतवाद से
पूंजीवाद की ओर
संक्रमण की प्रक्रिया
का विस्तार से
जिक्र किया है।
इसमें आदिम संचय
की प्रक्रिया पर
विशेष रूप से
प्रकाश डाला है।
गांवों से शहरों
की ओर पलायन
कर रहे मजदूरों
के ऊपर ध्यान
दिया जिनके पास
कोई निजी संपत्ति
न थी केवल
उनके पास मेहनत
करने की क्षमता
थी। पूंजीपतियों ने
अपने कल-कारखानों
में उन्हें काम
पर लगाया और
उनके द्वारा उत्पन्न
मूल्यों का अधिकांश
हड़प लिया। चूंकि
मजदूरों के लिए
अपना पेट पालना
भी मुश्किल हो
गया था। इसलिए
उन्हें अपने छोटे
बच्चों और पत्नियों
को भी काम
पर लगाने के
लिए विवश होना
पड़ा। यह सब
उनके सहयोगी एंगेल्स
की उस पुस्तक
में देख सकते
हैं जो उन्होंने
इंग्लैण्ड में मजदूर
वर्ग की स्थिति
पर लिखी थी।
अब
जरा हाल की
एक घटना को
देखें। फ्रांस के अर्थशास्त्री
टॉमस पिकेट्टी महज
43 वर्ष की आयु
में एक पुस्तक
लिखी है जिसका
शीर्षक है- ''कैपिटल इन
द ट्वेंटी-फस्र्ट
सेंचुरी जिसका प्रकाशन पिछले
साल हुआ और
अभी-अभी मार्च
के महीने में
उसका अंग्रेजी अनुवाद
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से
आया है और
अनुवाद आर्थर गोल्ड हैम्मर
ने किया है।
पश्चिमी विश्व में बढ़ती
आर्थिक विषमता के ऊपर
इसे बेजोड़ पुस्तक
की संज्ञा दी
गई है। कहना
न होगा कि
पिकेट्टी ने माक्र्स
के अध्ययन को
आगे बढ़ाया है।
यह पुस्तक 696 पृष्ठों
की है। अमेरिका
में आज इसने
धूम मचा रखी
है और किसी
भी उपन्यास से
वह अधिक बिक
रही है।
पुस्तक
में आर्थिक विषमता
में निरंतर हो
रही वृद्धि को
रेखांकित कर उसे
आज की सबसे
ज्वलंत समस्या कहा गया
है। वर्षों तक
अमेरिकी कहते रहे
हैं कि यह
यूरोपीय समस्या है जहां
धनवानों और निर्धनों
के बीच खाई
निरंतर बढ़ती जा रही
है। अमेरिका में
बाहर से आनेवाले
भी धनवान बनने
का ''अमेरिकी सपना
देख सकते हैं
और उनके ऊपर
बढऩे में कोई
रुकावट नहीं आती।
कभी साईमन कुज्नेत्स
ने ''कुज्नेत्स वक्र
के जरिए यह
बतलाने की कोशिश
की थी कि
औद्योगिकीकरण के आरंभ
में आर्थिक विषमता
बढ़ती है किन्तु
आगे चलकर वह
तेजी से घटने
लगती है। वर्ष
1971 में कुज्नेत्स को नोबेल
पुरस्कार से सम्मानित
किया गया था।
इस प्रक्रिया को
घंटे के आकार
में दिखलाया गया
था। कहा गया
कि गांवों से
लगातार मजदूरों के शहर
आने पर मजदूरों
की कोई कमी
नहीं होती इसलिए
पूंजीपति उन्हें कम से
कम मजदूरी देते
हैं और उनकी
मोल भाव करने
की ताकत काफी
कम होती है।
मगर कालक्रम में
एक ओर जहां
रोजगार के अवसर
बढ़ते हैं वहीं
गांवों से शहर
का रूख करने
वाले मजदूरों की
संख्या घटती है
इसलिए उनकी मोल-भाव की
ताकत बढ़ती है
परिणामस्वरूप राष्ट्रीय आय का
वितरण पहले की
अपेक्षा विषमता को घटाता
है। कुज्नेत्स वक्र
'घंटे, या अंग्रेजी
अक्षर 'यू को
उलटने से प्राप्त
होता है। पिकेट्टी
ने कुज्नेत्स वक्र
को खारिज किया
है। उनके अनुसार
वस्तुत: राष्ट्रीय आय का
वितरण अंग्रेजी अक्षर
'यू को सीधा
रखने से प्राप्त
होता है। आय
के वितरण की
विषमता निरंतर बढ़ती जाती
है। पिकेट्टी ने
आंकड़ों को जमा
कर बतलाया है
कि 1970 के दशक
के बाद आय
के वितरण में
आई विषमता फिर
बढऩे लगी। 1980 के
दशक के बाद
अमेरिका, जापान और यूरोप
ही नहीं, बल्कि
अन्यत्र भी आय
के वितरण में
विषमता में वृद्धि
होने लगी है।
स्पष्टतया पिकेट्टी ने कुज्नेत्स
वक्र को नकार
दिया। उन्होंने आंकड़ों
के आधार पर
बतलाया कि आय
के वितरण की
विषमता को 'यू
के जरिए दिखलाया
जा सकता है।
आरंभ में कुछ
समय आय के
वितरण में आई
विषमता जरूर घटती
दिखती है मगर
कुछ समय बाद
बढऩे लगती है
और निरंतर बढ़ती
ही जाती है।
पिकेट्टी
का मानना है
कि पूंजीवाद के
दौर में विषमता
घटने को लेकर
कोई दावा नहीं
किया जा सकता।
केंस द्वारा कल्याणकारी
राज्य को बढ़ावा
देने प्रथम
और द्वितीय विश्वयुद्ध
और श्रमिक आंदोलन
के मजबूत होने
के परिणामस्वरूप ही
1914 से 1974 के बीच
लगा कि विषमता
कम हो
रही है। किन्तु
इसके बाद नवउदारवाद
का रास्ता पकडऩे
के बाद विषमता
तेजी से बढऩे
लगी और वह
लगातार बढ़ती ही जा
रही है। श्रम
सुधार के नाम
पर मजदूर संगठनों
की ताकत को
घटाने का काम
किया जा रहा
है।
पिकेट्टी
ने रेखांकित किया
है कि पूंजी
को प्राप्त होने
वाला प्रतिफल सामान्यतया
आर्थिक संवृद्धि की दर
से अधिक होता
है। इसी कारण
कालक्रम में धनवानों
या पूंजीपतियों की
संपत्ति बढ़ती जाती है
जिससे समाज में
आर्थिक विषमता में निरंतर
वृद्धि होती जाती
है।
पिकेट्टी
का सुझाव है
कि संपत्ति के
ऊपर सारी दुनिया
में भूमंडलीय टैक्स
का प्रावधान है।
जिससे विश्व भर
मेें व्याप्त विषमता
को कम किया
जा सके। उनका
दावा है कि
विषमता में वृद्धि
के कारण समाज
में अस्थिरता पैदा
होती है। कतिपय
लोग मानते हैं
कि संपदा के
पुनर्वितरण के कारण
आर्थिक संवृद्धि बुरी तरह
प्रभावित होगी मगर
पिकेट्टी इस बात
को नहीं मानते
हैं।
अपनी
इस बड़ी पुस्तक
में पिकेट्टी ने
तीन बातों पर
विशेष जोर दिया
है। पहली, पिछले
तीन सौ सालों
के दौरान यूरोप
और अमेरिका से
जुड़ कर संबंधी
आंकड़ों के आधार
पर समाज में
व्याप्त आर्थिक विषमता को
मापने की कोशिश
की है। उन्होंने
रेखांकित किया है
कि 1914 से लेकर
1970 तक का काल
कई कारणों से
अपवाद रहा। हमने
उन कारणों का
जिक्र पहले किया
है जिस वजह
से आर्थिक विषमता
में तेजी से
वृद्धि नहीं हुई।
मगर विरासत में
प्राप्त हुई संपदा
ने विषमता को
बढ़ाने में भारी योगदान
किया। 1950 के दशक
के दौरान फ्रांस
में विरासत में
लोगों को सफल
घरेलू उत्पाद का
पांच प्रतिशत से
भी कम प्राप्त
हुआ जब कि
1970 के दशक में
15 प्रतिशत सकल घरेलू
उत्पाद विरासत के रूप
में प्राप्त हुआ।
दूसरी
बात जो ध्यान
देने की है,
वह है पिकेट्टी
ने पूंजीवाद संबंधी
एक सिद्धांत प्रस्तुत
किया है जो
विषमता से जुड़े
कारणों को स्पष्ट
करता है। उन्होंने
स्पष्ट शब्दों में कहा
है कि संपदा
के वितरण में
व्याप्त विषमता समाज के
लिए काफी घातक
सिद्ध होगी। उन्होंने
चेतावनी दी है
कि हमने नवउदारवाद
का जो रास्ता
अपनाया है वह
घातक सिद्ध होगा।
''दी इकॉनमिस्ट (3 मई)
के अनुसार, ''उनका प्रमुख
दावा है कि
मुक्त बाजार व्यवस्था
की स्वाभाविक प्रकृति
संपदा के केन्द्रीकरण
को बढ़ावा देने
की ओर होती
है क्योंकि संपत्ति
और निवेश पर
मिलने वाला प्रतिफल
आर्थिक संवृद्धि की दर
से ऊंचा होता
है। दो विश्वयुद्धों,
महामंदी और ऊंचे
करों ने बीसवीं
सदी में संपदा
के ऊपर मिलने
वाला प्रतिफल कम
कर दिया जबकि
उत्पादकता और जनसंख्या
में तेज वृद्धि
ने आर्थिक संवृद्धि
को प्रोत्साहित किया।
आगे चलकर जनसंख्या
में बूढ़ों की
संख्या बढऩे से
आर्थिक संवृद्धि की दर
धीमी हो सकती
है जिससे पूंजी
के ऊपर मिलने
वाला प्रतिफल बढ़
सकता है। इस
निष्कर्ष पर वे
पिछले जमाने के
आंकड़ों के आधार
पर पहुंचे हंै।
पिकेट्टी ने जिस
तीसरी बात को
रेखांकित किया है
वह है पूंजी
पर आरोही भूमंडलीय
कर लगाने का
सुझाव। इसका जिक्र
हम पहले कर
चुके हैं। कई
लोग इस सुझाव
को अव्यवहारिक कह
कर खारिज करने
लगे हैं। पुस्तक
की समीक्षा करते
हुए नोबेल पुरस्कार
से सम्मानित पॉल
क्रुगमैन ने ''द
न्यूयार्क रिव्यू ऑफ बुक्स
(8 मई) में यह
प्रश्न प्रस्तुत किया है
कि हम एक
नए सुनहरे युग
में क्यों पहुंच
गए हैं। याद रहे
कि पहला सुनहरा
युग अमेरिका में
1960 के दशक में
शुरू होकर प्रथम
विश्वयुद्ध तक चलता
रहा। उस समय
नवोदित पूंजीपति वर्ग जिसे
''रॉबर बैरन्स कहा जाता
उन्होंने अमेरिका को बेहिचक
लूटा। कु्रगमैन
का मानना है
कि तत्काल लगता
है कि पुराना
दौर वापस आ
रहा है क्योंकि
एक प्रतिशत जनसंख्या
की ही हर
जगह चलती है।
पिकेट्टी और उनके
सहयोगियों ने उन
सांख्यिकीय तकनीकों को प्रस्तुत
किया है जिनके
आधार पर हम
सुदूर अतीत से
लेकर अब तक
आय और संपदा
के संकेंद्रण का
अनुमान लगा सकते
हैं। कतिपय अर्थशास्त्री
इसको लेकर खफा
हैं। उदाहरण के
लिए शिकागो विश्वविद्यालय
के नोबेल पुरस्कार
से सम्मानित प्रो.
रॉबर्ट लुकास ने आय
और संपदा के
बढ़ते संकेंद्रण को
इंगित करने की
बात को घातक
माना है। वे
चाहते हैं कि
इस ओर ध्यान
न दिया जाय।
कु्रगमैन
मानते हैं कि
पिकेट्टी ने सचमुच
एक उत्कृष्ट पुस्तक
लिखी है। इस
पुस्तक का नजरिया
काफी विस्तृत है।
वे बाल्जाक और
जेन ऑस्टेन की
औपन्यासिक कृतियों का भी
जिक्र करते हैं।
बाल्जाक की पुस्तक
''ओल्ड गोरियो और
''सीजर बिरोत्यु तथा
ऑसेन की कृति
''मैन्सफिल पार्क का
विशेष रूप से
उल्लेख करते हैं।
वर्ष
1980 के बाद आर्थिक
संवृद्धि का प्रतिफल
समाज के ऊपरी
पायदानों पर बैठे
मुठ्ठी भर लोगों
को मिला है
जबकि निचले पायदानों
पर बैठे लोगों
की स्थिति बिगड़ी
है। कारपोरेट सेक्टर
के मुनाफों में
अतिमंदी का दौर
शुरू होने के
बाद तेजी से
बढ़ोतरी हुई है।
पूंजी पर मिलने
वाला प्रतिफल श्रमिकों
को मिलने वाली
आय की तुलना
में कई गुना
वृद्धि हुई है।
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