बुधवार, 20 नवंबर 2013

भारतीय वन प्रबंधन संस्‍थान

शिक्षा से अपेक्षा की जाती है कि वह नागरिकों को अपने चारों तरफ हो रही घटनाओं से अवगत कराए और उनकी जानकारी अद्यतन रखे, ताकि सामाजिक मुद्दों से निपटने में उनमें आत्‍मविश्‍वास पैदा हो सकें। इस संदर्भ में वैज्ञानिक शिक्षा का काफी महत्‍व है कि वह लोगों में वैज्ञानिक सोच पैदा करती है। विज्ञान में उच्‍च शिक्षा के क्षेत्र में अन्‍य संभावनाओं के अन्‍वेषण की जरूरत है। शिक्षा की वह शाखाएं जो कई विषयों से संबंधित है, जैसे प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन, पर्यावरण प्रबंधन, जलवायु प्रबंधन, कृषि प्रबंधन, विपणन प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में बाहरी जगत से जुड़ी शिक्षाओं को शामिल किये जाने और उनका विश्‍लेषण करने की जरूरत है।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य :
पिछले पांच दशकों में शिक्षा की विभिन्‍न शाखाओं से लोगों की काफी उम्‍मीदें बढ़ी है और शिक्षा की पद्धति तथा पाठ्यक्रम में बदलाव की मांग की गई है। शिक्षा से जुड़े संस्‍थान इन बदलावों एवं जरूरतों को इनमें शामिल करने का प्रयास करते रहे है, ताकि वे समय के साथ प्रासंगिक हो और लोगों की उम्‍मीदों को पूरा कर सकें। उद्योग जगत, कोरपोरेट जगत, संसाधन प्रबंधन से जुड़ी सभी शाखाओं में छात्रों से अपेक्षा की गई है कि वे पर्यावरण संबंधी मुद्दों, सतत् विकास, कार्बन डाई ऑक्‍साइड के उर्त्‍सजन पर रोक एवं पर्यावरण बदलाव से जुड़े मुद्दों की विशेष जानकारी रखें। इसी तरह की उम्‍मीदें तकनीकी क्षेत्र में प्रगति एवं कम्‍प्‍यूटर तथा संचार के क्षेत्र में होने वाली प्रगति का बड़ा कारण है। इस तरह की प्रगति एवं खोजों ने चीजों को बहुत आसान एवं प्रतिस्‍पर्धी बना दिया है, लेकिन अब समाज की जरूरतें और भी बढ़ गई हैं और इनकी मांग जोर पकड़ने लगी है।

हाल ही में आई आपदाएं :
मानव जिस तरीके से प्रकृति से छेड़छाड़ करके प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहा है। उन्‍होंने किसी न किसी तरीके से जता दिया है कि यह अधिक शोषण है और इस तरह की गतिविधियां ज्‍यादा नहीं चल सकती हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से अगर हम देखें, तो पाएंगे कि संसाधनों के अंधाधुंध दोहन को देखते हुए विभिन्‍न प्रकार की आपदाओं, जैव विविधता को नुकसान, जल संकट, अकाल एवं सूखा, बाढ़ एवं अन्‍य आपदाओं की घोषणा पहले ही कर दी गई थी। हाल ही में उत्‍तराखंड और ओडिशा में जो प्राकृतिक आपदाएं आयी हैं, वे सभी इसी बात की पुष्टि करती है और उन सभी के कारक उन्‍हीं आपदाओं में छिपे हुए हैं।

इस तरह के प्रत्‍यक्ष गंभीर परिणामों और घटनाओं ने मानव जाति को यह बताने की कोशिश की है कि वह प्रकृति के दायरे में रहकर ही अपनी गतिविधियां जारी रखें और अपने लोभ तथा लालच को छोड़कर कुदरत के साथ तारतम्‍य बैठाने की कोशिश करें। इस संदर्भ में देश में उच्‍च शिक्षा के क्षेत्र में अब यह जरूरी हो गया है कि हम अपने पाठ्यक्रम में इस तरह के बदलावों को शामिल करें, ताकि युवाओं का ज्ञान एवं चीजों तथा उनके बारें में उनकी सोचने की क्षमताओं में बढ़ोतरी हो सकें।
केन्‍द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के तहत कार्य कर रहे भारतीय वन प्रबंधन संस्‍थान ने समकालीन जरूरतों से सामंजस्‍य स्‍थापित किया है और अपने पाठ्यक्रम में विभिन्‍न विषयों जैसे प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन, पर्यावरण बदलाव और लोगों पर उसके पड़ने वाले प्रभावों, पारिस्थिातिकी से जुड़ी गतिविधियां, प्राकृतिक संसाधनों जैसे जल, वन एवं भूमि की आर्थिक कीमत को पहचानने जैसे मुद्दों को समाहित किया है। वन प्रबंधन में स्‍नातकोत्‍तर डिप्‍लोमा, फैलो इन प्रोग्राम मैनेजमेंट, प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन में एम फिल जैसे विभिन्‍न विषयों को शामिल किया गया है, जिससे छात्रों में लोगों से जुड़ी बुनियादी जरूरतों की विश्‍लेषण क्षमता का विकास होता है। इन सभी पाठ्यक्रमों में पढ़े गये विषयों से छात्रों को अपने क्षेत्र कार्यों के दौरान चीजों से रूबरू होने का अवसर मिलता है और ग्राम स्‍तर पर होने वाली घटनाओं को वे वास्‍तविक नजरिये से देखते है, जिससे उनकी सोचने और निर्णय लेने की व्‍यावहारिक क्षमता का विकास होता है। देश में कई प्रबंधन संस्‍थान हर साल विभिन्‍न प्रबंधन संबंधी विषयों में स्‍नातकोत्‍तर पेशेवर तैयार कर रहे है। लेकिन भारतीय वन प्रबंधन संस्‍थान की यह खूबी है कि वह ऐसे युवा स्‍नातकोत्‍तर छात्र तैयार करता है, जिन्‍हें पर्यावरण पर मानवीय गतिविधियों के पड़ने वाले प्रभावों के आंकलन, संसाधनों के बारे में जानकारी और उनकी कीमत का ज्ञान, पारिस्थिातिकी से जुड़ी सेवाओं का मूल्‍यांकन, सामाजिक प्रभाव आंकलन क्षमता के क्षेत्र में विशेष ज्ञान होता है।


देश में सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक क्षेत्र में हो रहे बदलावों  और हाल ही में कंपनी कानून में किये गये कॉरपोरेट सामाजिक ‍जिम्‍मेदारी से जुड़े विषय पर संशोधन के मद्देनजर ऐसे युवा छात्रों की मांग कई गुना बढ़ने की उम्‍मीद है। भविष्‍य में ऐसी स्थिति आएगी, जब ऐसे युवा विशेषज्ञ छात्रों की समाज में काफी मांग होगी। भारतीय वन प्रबंधन संस्‍थान इस जरूरत से वाकिफ है और वह अपने यहां पढ़ रहे छात्रों की क्षमताओं में और बढ़ोतरी पर गंभीरता से विचार कर रहा है। इसी के मद्देनजर उनके प्रशिक्षण एवं क्षेत्र कार्य के दौरान लोगों से अंतक्रिया की क्षमता का विकास करने पर विशेष ध्‍यान दिया जा रहा है।

सोमवार, 18 नवंबर 2013

लोकतंत्र का गिरता स्तर

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के प्रचार अभियान में नेताओं के बीच एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने की होड़ जिस तरह बढ़ती जा रही है उससे भारतीय लोकतंत्र की मान-मर्यादा को आघात ही लग रहा है। सूचना क्रांति के इस युग में अब नेताओं की कोई भी टिप्पणी जनता की निगाह से छिप नहीं सकती। बावजूद इसके वे किसी तरह का संयम दिखाने के लिए तैयार नहीं दिखते। नेताओं के चुनावी भाषण एक-दूसरे को चुनौती देने, तरह-तरह के आरोप लगाने और व्यक्तिगत आक्षेप करने तक सीमित रह गए हैं। नीतियों और मुद्दों की चर्चा तो बहुत दूर की बात हो गई है। चूंकि चुनाव के समय जनता का एक बड़ा वर्ग नेताओं के इस तरह के बयानों के प्रति रुचि प्रदर्शित करता है इसलिए मीडिया भी उन्हें महत्व देने से परहेज नहीं करता। वैसे भी जनता को यह जानने का अधिकार है कि उसके प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले नेताओं के तौर-तरीके क्या हैं? अपने देश में फिलहाल ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिससे जनता को प्रत्याशी की उन क्षमताओं के बारे में पता लगे जो किसी योग्य जन प्रतिनिधि या फिर शासन का संचालन करने वाले शख्स में होनी चाहिए।

पिछले सप्ताह निर्वाचन आयोग ने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को उनके एक बयान के लिए चेतावनी दी तो भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी भी अपने कई चुनावी भाषणों के लिए कांग्रेस के निशाने पर आ गए। मोदी ने कांग्रेस के चुनाव चिन्ह का जिक्र खूनी पंजे के रूप में किया। वह राहुल गांधी के लिए शहजादे शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं, जो कांग्रेस को रास नहीं आ रहा। एक रैली में वह यह भी बोल गए कि कांग्रेस सीबीआइ और इंडियन मुजाहिदीन की मदद से चुनाव लड़ रही है। कांग्रेस में भी ऐसे नेताओं की कमी नहीं जो अपने तीखे और बेतुके बयानों को लेकर चर्चा में बने रहते हैं। हाल ही में सोनिया गांधी ने भाजपा नेताओं को केवल कुर्सी का सपना देखने वाला करार दिया। हालांकि खुद कांग्रेस भी ऐसा ही सपना देख रही है। सपा के नरेश अग्रवाल यह टिप्पणी कर अमर्यादित बयानबाजी करने वाले नेताओं की जमात में सबसे आगे हो गए कि एक चाय बेचने वाला देश के बारे में नहीं सोच सकता। उनका यह बयान उनकी सामंती सोच को ही दर्शाता है और जनता के ऐसे वर्ग को अपमानित करता है, जो ऐसे लोगों को अपना आदर्श मानते हैं जो साधारण परिवेश से निकल कर कामयाबी के शिखर छूते हैं।

एक समय था जब नेता एक-दूसरे के प्रति शालीन भाषा का इस्तेमाल करते थे। वे इसका ख्याल रखते थे कि राजनीतिक बयानबाजी व्यक्तिगत आक्षेप के स्तर पर न आने पाए। उनकी ओर से ऐसी टिप्पणियों से बचा जाता था जो राजनीतिक माहौल में कटुता और वैमनस्य पैदा कर सकती थीं। दुर्भाग्य से आज वह लक्ष्मण रेखा मिटा दी गई है और इसका परिणाम यह हुआ है कि राजनीतिक दलों के बीच कटुता उस स्तर तक जा पहुंची है जब उनके लिए किसी भी मसले पर सहमति कायम करना मुश्किल हो गया है। संप्रग सरकार के कार्यकाल पर ही नजर डालें तो यह स्पष्ट है कि भाजपा और कांग्रेस के बीच बनी दूरी के चलते राष्ट्रीय महत्व के अनेक मसलों पर आगे नहीं बढ़ा जा सका। भाजपा और कांग्रेस के बीच राजनीतिक विरोध स्वाभाविक है, लेकिन यह निराशाजनक है कि व्यक्तिगत आक्षेपों के कारण यह विरोध कटुता में तब्दील हो गया। कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा ने एक रचनात्मक विपक्ष की भूमिका अदा नहीं की और विरोध के नाम पर विरोध करने के उसके रवैये ने संप्रग सरकार को सही तरह काम नहीं करने दिया। इसके विपरीत भाजपा कांग्रेस पर अहंकारी रवैया प्रदर्शित करने का आरोप लगाती रही है। पता नहीं किसका पक्ष सही है, लेकिन जो कुछ स्पष्ट है वह यह कि हमारे देश की राजनीति का स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है। मुश्किल यह है कि गिरावट का दौर थमता नहीं दिख रहा। राजनीतिक दल विरोधियों को नीचा दिखाने के लिए गड़े मुर्दे उखाड़ने और उनके जरिये सनसनीखेज आरोप लगाने का काम कर रहे हैं। हाल के दिनों में कई नेताओं के खिलाफ ऐसे आरोप उछाले गए हैं जिनका इस्तेमाल पहले भी किया जा चुका है। ऐसे माहौल में यह आवश्यक हो गया है कि राजनीतिक दल इस पर विचार करें कि बयानबाजी का स्तर कैसे सुधारा जाए? केवल चुनाव के समय ही नहीं, बल्कि सामान्य अवसरों पर भी राजनेताओं के लिए अपने भाषणों में संयम और शालीनता का परिचय देना आवश्यक है। इसमें संदेह नहीं कि चुनाव के समय नेताओं के बीच गर्मागर्मी बढ़ जाती है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे अपने भाषणों में मर्यादा की दीवार ही गिरा दें।

नेताओं की अमर्यादित बयानबाजी के संदर्भ में निर्वाचन आयोग की भूमिका सीमित ही नजर आती है। हाल में उसने नेताओं की कुछ आपत्तिाजनक टिप्पणियों का संज्ञान लिया है और राहुल का मामला विशेष रूप से उल्लेखनीय है, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि उसके हाथ बंधे हुए हैं। निर्वाचन आयोग ऐसे मामलों में अधिक से अधिक अपनी असहमति जताने, चेतावनी देने अथवा फटकार लगाने तक सीमित है। चुनाव आयोग के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं जिससे वह अमर्यादित बयानबाजी करने वाले नेताओं को सही मायने में सख्त संदेश दे सके।

चुनाव के दौरान नेताओं की कोई टिप्पणी अथवा भाषण का एक अंश ही मीडिया के समाचारों में आ पाता है। कई बार उसके आधार पर पूरा मामला अथवा संदर्भ समझना मुश्किल होता है। राजनेता अपनी विवादित टिप्पणी पर अक्सर यह शिकायत करते दिखाई देते हैं कि उनकी बात का संदर्भ कुछ और था और इसे सही तरह समझा नहीं गया। उनके लिए इस तरह के तकरें की आड़ लेना सुविधाजनक बहाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं। वे ऐसी किसी व्यवस्था के निर्माण पर विचार करने के लिए तैयार नहीं जिसमें चुनाव के समय नेताओं को टेलीविजन अथवा अन्य किसी माध्यम में एक-दूसरे से सीधी बहस करने का मौका मिलता। ऐसी किसी व्यवस्था से ही जनता को नेताओं अथवा राजनीतिक दल के संदर्भ में सब कुछ सही-सही जानने-समझने का अवसर मिल सकता है। चुनावी रैलियों में चुनिंदा लोग ही पहुंच पाते हैं और जो भीड़ जुटती है उसका एक बड़ा हिस्सा भाड़े पर लाए गए लोगों का होता है। ऐसे में आम जनता के पास मीडिया की खबरों के आधार पर ही किसी प्रत्याशी के संदर्भ में अपनी राय बनाने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं होता।

पता नहीं निर्वाचन आयोग अथवा राजनीतिक दल चुनाव प्रचार के तौर-तरीकों में बुनियादी बदलाव लाने, विशेष रूप से प्रत्याशियों को एक मंच पर एक-दूसरे से बहस करने का अवसर देने की व्यवस्था बनाने के लिए कब आगे आएंगे? जब तक इस तरह की व्यवस्था नहीं बनती है तब तक जनता के समक्ष प्रत्याशियों और पार्टी की नीतियों के बारे में स्पष्टता नहीं आएगी। भारत के लोकतंत्र को अगर और अधिक मजबूत करना है तो इस तरह की व्यवस्था का निर्माण जल्द से जल्द किया जाना चाहिए चाहे इसके लिए निर्वाचन आयोग को कोई नए प्रावधान ही क्यों न बनाने पड़ें। कई देशों में लोकतंत्र ने इसीलिए मजबूती हासिल की है, क्योंकि वहां राजनीति के प्रत्येक स्तर पर पारदर्शिता को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। अमेरिका जैसे देशों में चुनाव प्रणाली बड़ी हद तक प्रत्याशियों के बीच सीधी बहस पर आधारित है। दुर्भाग्य से भारत में राजनीतिक वर्ग इससे बचता नजर आ रहा है।


दैनिक जागरण 

रविवार, 17 नवंबर 2013

समस्याएं सिर्फ लड़कियों की ही नहीं

सभी पुरुषों को पीछे धकेलते हुए रानी झांसी ने कहा, कि मैं मरते दम तक अपनी झांसी नहीं दूंगी। रानी पद्मिनी, रानी दुर्गावती, अहिल्याबाई होल्कर, जीजा बाई भी माताएं थीं। कभी लड़कियां थीं- समस्याएं थीं। एक बार की बात है कि शिवाजी की पहली पत्नी सई के भाई बजाजी को आदिलशाह ने मुसलमान बना लिया तथा उसका विवाह एक मुस्लिम स्त्री से करा दिया। बाद में उस स्त्री की मृत्यु होने पर वे पुन: हिन्दू बनकर उन्हीं में मिलना चाहते थे। किन्तु उन्हें सब अन्य हिन्दू अपने में मिलाने को तैयार नहीं थे। तब उन्हें आश्वस्त करने के लिये शिवाजी ने अपनी माता जीजाबाई के इस उपदेश को, कि राजा प्रजा का पिता व पालक होता है, उसे अपना समधी बना लिया जिससे समस्या हल हो गई। लड़कियों को समाज हिम्मत देगा, तो वे भी समाज को ऊपर उठाने में अपना सहयोग देंगी।

क्या आप मानते हैं कि लड़कियों का नाम ही समस्याएं बनता जा रहा है? क्या आपने अपने घर में कहीं से थकी-मांदी लौटी हुई मां, बहन को सबके लिए खाना बनाने का बंदोबस्त करते नहीं देखा? क्या आपके घर में नई दुलहिन लाने के लिये अपनी मां को हर घड़ी चिंता व जद्दोजहद करते हुए नहीं देखा? आपकी नई नवेली दुलहिन के स्वागत में उसने क्या-क्या पकवान नहीं बनाये? क्या आपने अपने तेज तपते माथे पर उसके हाथों से रखी जा रही ठंडी पट्टियों का स्पर्श नहीं सराहा? क्या आपके हाथों को पकड़कर आपको बैठाने में उसने मदद नहीं की? क्या उसने अपने हाथों से आपके मुंह में भोजन या दवा का चम्मच नहीं बढ़ाया? यदि हां, तो आप उनकी समस्याओं को क्यों बढ़ा-चढ़ाकर देखते हैं? वे अपनी समस्याओं को खुद भी हल कर सकती हैं- बस जरा उनकी तरफदारी तो कीजिये।

दहेज की समस्या आज लड़कियों की बनाई हुई नहीं है। उनकी अशिक्षा की समस्या आज सामाजिक वातावरण की सौगात है। उनकी असुरक्षा आज समाज के विशृंखलित हो जाने का नतीजा है। शहर बड़े होते गये।  समाज में एक-दूसरे से अपरिचय बढ़ता गया। अमीर-गरीब के भेद बढ़ गए। पुरुषों के साथ कौन सा व्यवहार उचित है, उसके कुछ गुर लड़कियों को सिखाए ही नहीं गए।  यों तो सामान्यत: पुरुष, मौके का फायदा उठाने के मन्तव्य के होते हैं। परन्तु लड़की के चौंककर गुस्से से उनकी तरफ एक नजर देखने से ही वे उड़न छू हो जाते हैं। एक घटना इस प्रकार हैं एक बार मिस टी भोपाल से दिल्ली जा रही थीं। जब वे दिल्ली उतरीं तो अकेली ही आगे कुली लेने को बढ़ीं चूंकि उनकी अटैची भारी थी। उसी समय एक पुरुष ने भी उसी कुली को रोका जिस पर इनकी नजर थी। वह पुरुष बोला, यह कुली तो दोनों का सामान (एक-एक अटैची) उठा लेगा। चलिए इसी को दोनों ले लेते हैं। कुली भी राजी था। अब सामान रखवाने के बाद साथ चलते हुए वह पुरुष बोला- 'आप यहां कहां रुकेंगी?' मिस टी बोलीं 'फलाने गेस्ट हाउस में।' वह पुरुष बोला, 'मैं भी एक गेस्ट हाउस में रुक रहा हूं, आप मेरे साथ ही रुक जाइए।' इस पर मिस टी ने चौंककर उसकी तरफ देखा और कहा, 'आपका दिमाग खराब तो नहीं है?' उस पर उस पुरुष ने अपनी अटैची कुली से खुद ले ली और वहां से अर्न्तध्यान हो गया। मिस टी ने कान पकड़े कि कभी किसी के साथ कुली का साझा नहीं करेंगी। कॉलेज के दिनों में भी याद पड़ता था बस में पुरुष लोग पास खड़े होने की कोशिश करते थे। इस तरह कि क्षण में काफी सट जाएं और दिखाएं यों कि जैसे बस के सामान्य झटकों से पास खिसकते आ रहे हों। मिस टी कभी-कभी यह हिम्मत कर लेती थीं कि पलट कर कहें, मिस्टर आप सीधे खड़े होइये। उस मिस्टर ने कभी यह नहीं कहा, कि मैं तो सीधा ही खड़ा था। बल्कि उसने भीड़ में अपना मुंह घुमाने और छुपाने की ही कोशिश की। महिलाओं को यह पते की बात मालूम होनी चाहिए कि खोटी नीयत वाले का कोई पड़ोसी साथ नहीं देता, बशर्ते मिस खुद की चौंकन्नी और दबंग हों। कुछ कहने की हिम्मत रखें।

कुछ गुर यों पुस्तकों में सिखाए जाते हैं। अगर बस में या कार में कहीं किसी अनजान पुरुष के पास बैठें तो दोनों के बीच अपना पर्स रख दें। कोई निकट आने की कोशिश करें तो बता दें, मेरे हस्बैंड या भाई मुझे लेने बस स्टॉप पर ही आ जाते हैं। कोई सिरफिरा दिखे, तो शुरू से ही अपना नकारात्मक स्वर ऊंचा रखें। यदि कोई रास्ता न दें, तो अपने पर्स से उसका कंधा थपथपायें। भीड़ में घुसना हो, तो अपनी पीठ, हाथ या कंधा पहले आगे बढ़ायें। अव्वल तो भीड़ में घुसें ही नहीं। किसी पुरुष की ओर लंबे समय तक न देखें। अर्थपूर्ण नजरों से देखने से तो आप अपने लिये खतरे को न्योता दे रही हैं। किसी अंधेरी खाली गली में अकेले न जायें। एक बार मिस टी को रात के वक्त एक से दूसरी जगह जाने में अपरिहार्य रूप से देरी हो गई। उन्होंने तुरंत अपने मोबाईल पर 100 नम्बर घुमाया। पुलिस वहां पहुंच गई। उन्होंने अपनी समस्या बताकर मदद मांगी, जिसे पुलिस मना नहीं कर सकी और मिस टी अपने घर सकुशल पहुंच गई। एक बार उन्हें एक फर्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट में एक अकेले पुरुष के साथ का कूपा मिला। उन्होंने टीटी को बुलाकर उसे बदलवा लिया। यह और बात थी कि वह पुरुष रात के 10 बजे भी अपने मोबाईल पर फिजूल की अपनी मौज-मस्ती की बातें अपने दोस्तों को बता रहा था। शायद वह मिस टी को ही इम्प्रेस करने की कोशिश कर रहा था।

मैं यह सभी पुरुषों को नहीं सुना रही, सभी एक जैसे इस प्रकार के नहीं होते। परन्तु अधिकतर को ही। एक बार तो हद हो गई। मिस टी एक बड़े अनाचार, अत्याचार और क्रूरतापूर्ण वाकये की जांच कर रही थी। उस समय वहां के एक ऊंचे पदाधिकारी ने कहा, कि इन औरतों को अकेले बसों में भरकर अपनी मांगें मनवाने के लिये पहाड़ों से नीचे ही नहीं आना चाहिए था। रात के अंधेरे में ये इधर-उधर अकेली दौड़ती मिलेंगी, तब तो हर पुरुष इन्हें पकड़कर सतायेगा ही। मिस टी ने सोचा, हाय री किस्मत। कहां गई शूरवीरों की पहचान, जो स्त्री की लल्जा को बचाने के लिए दौड़े आए थे? स्वर्ग से वस्त्र की निर्झरिणी बहा रहे थे? एक ये हैं- सब के सब कौरव हैं क्या? स्त्री ने क्या नहीं किया? सभी पुरुषों को पीछे धकेलते हुए रानी झांसी ने कहा, कि मैं मरते दम तक अपनी झांसी नहीं दूंगी। रानी पद्मिनी, रानी दुर्गावती, अहिल्याबाई होल्कर, जीजा बाई भी माताएं थीं। कभी लड़कियां थीं- समस्याएं थीं। एक बार की बात है कि शिवाजी की पहली पत्नी सई के भाई बजाजी को आदिलशाह ने मुसलमान बना लिया तथा उसका विवाह एक मुस्लिम स्त्री से करा दिया। बाद में उस स्त्री की मृत्यु होने पर वे पुन: हिन्दू बनकर उन्हीं में मिलना चाहते थे। किन्तु उन्हें सब अन्य हिन्दू अपने में मिलाने को तैयार नहीं थे। तब उन्हें आश्वस्त करने के लिये शिवाजी ने अपनी माता जीजाबाई के इस उपदेश को, कि राजा प्रजा का पिता व पालक होता है, उसे अपना समधी बना लिया जिससे समस्या हल हो गई। लड़कियों को समाज हिम्मत देगा, तो वे भी समाज को ऊपर उठाने में अपना सहयोग देंगी।


बहुत कम लोग जानते हैं कि आर्य समाज के गौरवशाली व्यक्तित्व के स्वामी श्रध्दानंद के जीवन में एक सकारात्मक मोड़ उनकी पत्नी, शिवरानी के मधुर समर्पण और सविनय आचरण सहित सही बात के प्रति आग्रह के फलस्वरूप आया। असल में पहले ये एक बिगड़े रईस थे। उनके पिता जालंधर के नगर कोतवाल थे और स्वामी श्रध्दानंदजी जिनका नाम तब मुंशीराम था, अपना जीवन ऐय्याशी में बिताते थे। एक बार की बात है कि वे रात को कुछ यादा ही पीकर लौटे और उन्होंने उल्टी की, फिर उन्हें मानों होश ही नहीं रहा। जब होश आया तब उन्होंने पाया कि वे एक साफ बिस्तर पर लेटे हैं और उनकी पत्नी अपने मुलायम हाथों से अपनी बच्चे जैसे अंगुलियों से उनका माथा सहला रही हैं और उनकी तबियत पूछ रही है। उनकी तबियत ठीक नहीं थी तो पत्नी ने भी भोजन नहीं किया था। सबेरे उन्हें अपने व्यवहार पर बड़ी ग्लानि हुई। तब से उनका आचरण बदल गया। अंत में तो उन्होंने सन्यास ही ले लिया और अनेक लोगों के प्रेरणा पुरुष बने।

देशबन्धु

पाकिस्तान में उग्र होते तालिबानी आतंकवादी

एक पुरानी कहावत है कि यदि कोई किसी दूसरे के लिये गङ्ढा खोदता है तो देर या सबेर स्वयं उसमें गिर पड़ता है और अपने लिए मुसीबतों को आमंत्रित कर लेता है। पाकिस्तान में आज बहुत कुछ ऐसा ही हो रहा है। दूसरों को तंग करने के लिये और आतंक फैलाने के लिये पाकिस्तान ने तालिबान को जन्म दिया और उसे हर तरह से लड़ाई की ट्रेनिंग दी तथा आधुनिकतम खतरनाक हथियार मुहैया कराए। आज यह सब कुछ पाकिस्तान की सरकार और पाकिस्तान की जनता के विरुध्द इस्तेमाल हो रहा है।

पाकिस्तान में तालिबानी संगठन को 'तहरीके तालिबान' कहते हैं जिसे संक्षेप में 'टीटीपी' के नाम से भी पुकारा जाता है। 'टीटीपी' के सरगना 'हकीमुल्ला महसूद' को अमेरिकी ड्रोन से चलाए गए मिसाइल के द्वारा गत एक नवम्बर को मार गिराया गया। उस समय यह कुख्यात आतंकवादी उत्तरी वजीरिस्तान में अपने विशाल महल में आराम फरमा रहा था। इसके पहले इस संगठन के मुखिया बैतुल्ला महसूद को भी अमेरिकनों ने ड्रोन से हमला करके मार गिराया था। हकीमुल्ला महसूद की हत्या से पाकिस्तान में खलबली मच गई है। अमेरिका की गुप्तचर एजेंसी हकीमुल्ला महसूद की खोज सन् 2009 से ही कर रही थी। जब उसके नेतृत्व में आतंकवादियों ने पूर्वी अफगानिस्तान के एक सैनिक अड्डे पर हमला करके 7 अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी के कर्मचारियों को मार डाला था। महसूद ने सन् 2010 में अमेरिका के न्यूयार्क टाइम्स सक्वायर में कार में रखे बम द्वारा भयानक विस्फोट करना चाहा था परन्तु इसमें वह सफल नहीं हो पाया था ।

अमेरिकन गुप्तचर एजेंसी ने कई बार ड्रोन द्वारा हमला करके हकीमुल्ला महसूद की हत्या करना चाहा। परन्तु उसमें उसे सफलता नहीं मिली थी। इस बार उसे अचानक सफलता मिल गई और हकीमुल्ला महसूद का काम तमाम हो गया। इस खूंखार आतंकवादी के मारे जाने से पाकिस्तानी तालिबानी संगठन 'टीटीपी' के आतंकवादी अत्यन्त ही उग्र और हिंसक हो गये हैं। महसूद के समर्थकों ने पाकिस्तानी सरकार को खुली चेतावनी दे दी है कि अब वह नरसंहार के लिए तैयार रहे। 'टीटीपी' पाकिस्तान की सेना, पाकिस्तान की पुलिस पर आए दिन हमला करेगी। वह आत्मघाती आतंकियों द्वारा पाकिस्तान के सरकारी प्रतिष्ठानों को उड़ाएगी और सरकारी कर्मचारियों का बेरहमी से सफाया करेगी।

'टीटीपी' के कई मुखिया ने यह भी सार्वजनिक तौर से कहा है कि तालिबान के मामले में पाकिस्तानी सरकार दोगली नीति अपना रही है। एक तरफ वह कहती है कि वह अमेरिका से बार-बार अनुरोध कर रही है कि पाकिस्तान में ड्रोन हमले रोके जाएं क्योंकि इससे निर्दोष नागरिक मारे जाते हैं और दूसरी तरफ वह अमेरिकनों को गुपचुप तरीके से तालिबानों के ठिकानों पर ड्र्ोन हमले करने को उकसाती है। अब तालिबान पाकिस्तान सरकार के झूठे बयानों और झूठे वादों पर विश्वास करने को तैयार नहीं है। पाकिस्तान सरकार अब यह देखेगी कि 'टीटीपी' किस  प्रकार पाकिस्तान में खून की होली खेल रही है।

यह सच है कि अपने पिछले वाशिंगटन दौरे के दौरान नवाज शरीफ ने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से यह अनुरोध किया था कि पाकिस्तान में ड्रोन हमले रोके जाएं क्योंकि इसमें निर्दोष लोग मारे जाते हैं परन्तु बराक ओबामा ने ऐसा करने से मना कर दिया। उनका  कहना था कि पाकिस्तान में ड्रोन के हमले केवल आतंकवादियों का सफाया करने के लिए किए जाते हैं। यदि गलती से ये हमले कुछ निर्दोष नागरिकों पर भी हो जाते हैं तो उस पर पाकिस्तान की सरकार को ध्यान नहीं देना चाहिये। बराक ओबामा ने यह भी कहा कि पाकिस्तान की पूर्ववर्ती सरकार ने लिख कर अमेरिकी सरकार से यह अनुरोध किया था कि पाकिस्तान में ड्रोन हमले जारी रखे जाएं। क्योंकि आतंकवादियों के सफाए के लिए यह आवश्यक है। खबर है कि बराक ओबामा के कठोर रुख को देखकर नवाज शरीफ निरूत्तर हो गए। उन्होंने बराक ओबामा से यह भी अनुरोध किया कि अमेरिका काश्मीर के मामले में हस्तक्षेप करे। परन्तु बराक ओबामा ने कठोर शब्दों में कहा कि अमेरिका ऐसा कभी नहीं करेगा। अत: नवाज शरीफ बड़े बेआबरू होकर व्हाइट हाउस ने निकले।

पिछले कई महीनों से नवाज शरीफ की सरकार यह कोशिश कर रही थी कि पाकिस्तानी तालिबानो के साथ, दूसरे शब्दों में टीटीपी के साथ, एक सुलह वार्ता हो जिससे तालिबान पाकिस्तान में और अधिक उत्पात नहीं मचा सके। यह महज एक संयोग था कि जिस समय टीटीपी के साथ पाकिस्तान सरकार के प्रतिनिधियों की बातचीत होने वाली थी ठीक उसी समय टीटीपी के मुखिया हकीमुल्ला महसूद की हत्या अमेरिकनों ने ड्रोन से छोड़ी गई मिसाइल के द्वारा कर दी। इस घटना से पाकिस्तान सरकार कांप उठी। पाकिस्तान के आन्तरिक मामलों के मंत्री चौधरी निशार अली खां ने यहां तक कहा कि ऐसा करके अमेरिका ने पाकिस्तान में शांति स्थापना करने के सारे प्रयासों पर पानी फेर दिया। अब टीटीपी शायद ही सुलह वार्ता को राजी हो।

सन् 2003 से आतंकवादियों ने पाकिस्तान में 9000 सुरक्षा सैनिकों और 18000 आम नागरिकों की हत्या की है। टीटीपी का कहना है कि अब इस तरह की हत्याएं और तेजी से बढ़ेंगी। टीटीपी पाकिस्तान सरकार और अमेरिका दोनों से बदला लेना चाहती है।  नवाज शरीफ की मुश्किलें  कम नहीं होने वाली हैं। क्योंकि पाकिस्तान की आर्थिक हालत खस्ता है और देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए उसे अमेरिका से आर्थिक मदद लेनी ही होगी। उधर अमेरिका किसी भी हालत में ड्रोन हमलों को बन्द करने के लिये तैयार नहीं है।


इसमें कोई सन्देह नहीं कि आतंकवादियों को बढ़ावा पाकिस्तान की फौज ने यह सोचकर दिया था कि वह सीमा पार कर भारत में आतंक मचाएगा। पाकिस्तान में जिस तेजी से हालात बिगड़ते जा रहे हैं उसमें जनता का ध्यान बांटने के लिए पाकिस्तान की फौज तालिबानो को घुसपैठ कर भारत में झोंकने का प्रयास करेगी। इससे भारत की सिरदर्दी बहुत अधिक बढ़ जाएगी। अब भारत के सुरक्षा बलों को पहले से अधिक सतर्क रहना होगा जिससे पाकिस्तानी आतंकवादी भारत में घुसकर नरसंहार नहीं कर सकें।  

शनिवार, 16 नवंबर 2013

तालिबान से भयभीत पाकिस्तान

भारत के साथ लगातार खुराफात करने वाला पाकिस्तान आजकल काफी डरा हुआ दिख रहा है। हालांकि ऐसा किसी बाहरी ताकत द्वारा भय दिखाने की वजह से नहीं हुआ है बल्कि तालिबान के नये कमाण्डर की धमकियों से। कारण यह है कि तहरीक ए तालिबान अथवा पाकिस्तान तालिबान अपने पूर्व कमाण्डर हकीमुल्ला महसूद की ड्रोन हमले हुयी मृत्यु के लिए बहुत हद तक पाकिस्तान को भी गुनहगार मानता है। स्वाभाविक तौर पर इसके लिए पाकिस्तान दण्ड का भागीदार होगा। हालांकि यह दण्ड कैसा होगा या कितना प्रभावशाली होगा, यह अभी स्पष्ट नहीं है लेकिन पाकिस्तान को यह भय तो सता ही रहा है कि तालिबान पाकिस्तान के साथ कोई समझौता नहीं बल्कि उसे सबक सिखाने की जरूरत है। तो क्या पाकिस्तान उस स्थिति में पहुंच चुका है, जहां से उसके पतन का काउंटडाउन शुरू होना तय होता है?

मुल्ला फजलुल्लाह अथवा 'मुल्ला रेडियो' एक ऐसा नाम जिसे मनुष्य की श्रेणी में रखते यह अपने आपसे यह सवाल करने का मन करता है कि क्या यह सही है? पाकिस्तान तालिबान कमाण्डर हकीमुल्ला की ड्रोन हमलों में हुयी मौत के बाद इसी को तालिबान प्रमुख घोषित किया गया है। स्वात घाटी का यह एक ऐसा नाम है जो सम्भवत: क्रूरता की सभी सीमाएं पार कर चुका है। यह वही है जिसने स्वात घाटी में केवल मलाला को जान से मारने की कोशिश नहीं की है बल्कि शरिया को लागू करने के दौरान बहुत से लोगों के साथ क्रूर व्यवहार और बहुतों की क्रूर हत्याएं की हैं। यद्यपि हकीमुल्ला महसूद पाकिस्तान की नयी सरकार के साथ बातचीत चाहता था, लेकिन फजलुल्लाह खुले तौर पर इसका विरोधी रहा है। ऐसे व्यक्ति के तालिबान प्रमुख बनने के बाद इस बात की सम्भावनाएं बढ़ गयी हैं कि पाकिस्तान सरकार और पाकिस्तान तालिबान के मध्य टकराव और बढ़ेगा, अशांति और अधिक पनपेगी और यह भी सम्भव है कि अफ गानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं की वापसी के बाद न केवल अफगानिस्तान में बल्कि पाकिस्तान में भी कुछ समीकरण बदलें।

मुल्ला फजलुल्ला पाकिस्तान तालिबान का पहला प्रमुख है जिसका सम्बंध दक्षिणी वजीरिस्तान के महसूद कबीले से नहीं है। इसका सम्बंध स्वात घाटी से है और यही कारण है कि महसूद कबीले के कुछ लोग फजलुल्लाह के नाम से खुश नहीं हैं लेकिन वरिष्ठ सदस्यों के दबाव में उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया है। इससे पूर्व यह स्वात तालिबान प्रमुख के रूप में कई बार सूचनाओं में उपस्थिति हुआ है। मुल्ला फजलुल्लाह उर्फ रेडियो मुल्ला अथवा मुल्ला रेडियो, मूलत: एक प्रतिबंधित चरमपंथी आतंकी समूह और पाकस्तान तालिबान के सहयोगी तहरीक-ए-नफ़ ज-ए-शरीयत-ए-मोहम्मदी (टीएनएसएम) का नेता है जिसका उद्देश्य पाकिस्तान में शरीया को लागू कराना है। युसुफजाई जनजाति के पख्तून बाबुकरखेल कबीले में 1974 में जन्मा मुल्ला फजलुल्ला 12 जनवरी 2002 में टीएनएसएम का नेता तब बना जब राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने उसे प्रतिबंधित कर दिया था। इस प्रतिबंध के बाद दरअसल सूफ ी मुहम्मद (संस्थापक टीएनएसएम) की गिरफ्तारी हुयी और फजलुल्ला को नेतृत्व प्राप्त हो गया। यह संगठन ढीले-ढाले ढंग से अक्टूबर 2005 तक चलता रहा लेकिन इसी समय भूकम्प ने मुल्ला के लिए शक्ति ग्रहण करने का एक अवसर उपलब्ध करा दिया। स्वात घाटी में आए भूकम्प के बाद उत्पन्न अराजकता और भुखमरी ने फजलुल्ला के लिए बड़े पैमाने पर नये कैडर उपलब्ध करा दिए जिनकी भर्ती कर उसने स्वात घाटी में अपने प्रभाव के विस्तार का कार्य आरम्भ किया। 2007 में लाल मस्जिद पाकिस्तानी फ ौज की कार्रवाई ने उसे ताकत ग्रहण करने का दोबारा मौका दिया। इस बार फजलुल्ला की आर्मी और तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के बैतुल्ला महसूद के बीच एक गठबंधन निर्मित हो गया। अब फजलुल्ला और उसकी आर्मी महसूद से निर्देश प्राप्त करने लगी। मई से सितम्बर 2007 के दौरान स्वात में अस्थायी सीज फ ायर ने उसे एक और अवसर दिया और इस समय का प्रयोग उसने स्वात घाटी में अपनी राजनीतिक ताकत के निर्माण और उसे स्थायित्व देने के लिए किया। अक्टूबर 2007 के बाद फ जलुल्ला ने लगभग 4500 आतंकियों की मदद से स्वात घाटी के के 59 गांवों में शरिया लागू करने के लिए इस्लामी अदालतों की स्थापना कर 'समांतर सरकार' की स्थापना कर ली।

मुल्ला फजलुल्ला के नाम से स्वात घाटी में कई रेडियो प्रसारण हो चुके हैं। यहां तक कि तालिबान के अंदर भी उसे एक कट्टर चेहरे के रूप में देखा जाता है। वह 2004 में उस वक्त सुर्खियों में आया, जब उसने स्वात में अचानक एफ एम रेडियो स्टेशन स्थापित कर लिया। इस स्टेशन से पश्चिमी देशों के खिलाफ  आग उगलने का काम किया जाने लगा। वर्ष 2009 तक उसने आर्मी की बदौलत स्वात घाटी पर कब्जा कर लिया और वहां शरीया कानून लागू कर दिया। मुल्ला रेडियो पोलियो टीकाकरण का भी विरोध करता है और इसे ईसाई और यहूदी साजिश बताता है। इसके साथ ही वह महिलाओं की शिक्षा का कट्टर विरोध करता है। कुल मिलाकर मुल्ला फजलुल्ला न पाकिस्तान की शांति के लिए बेहतर है, न पाकिस्तान के लोकतंत्र के लिए और न ही पाकिस्तान के लोगों के अधिकारों के लिहाज से। अब तो तालिबान प्रवक्ता ने स्पष्ट रूप से कहा है कि पाकिस्तान सरकार के साथ शांति वार्ता तालिबान की सम्भवानाएं शून्य से भी कम हो गयी हैं। तहरीके तालिबान पाकिस्तान के शीर्ष नेता एहसानुल्ला एहसान ने न्यूज वीक पाकिस्तान को दिए गए साक्षात्कार में कहा, 'पिछले सप्ताह महसूद की हत्या से पख्तून संस्कृति का उल्लंघन हुआ है। इस घटना के बाद सरकार के साथ किसी तरह की कोई शांति वार्ता नहीं हो सकती। वार्ता की संभावना शून्य से भी कम हो गई है।' एहसान ने दावा किया कि शांति वार्ता की चाल तालिबान नेताओं को एक-एक कर मारने के लिए चली जा रही है। इसके साथ ही तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान की तरफ से पाकिस्तान सरकार को बदले की कार्रवाई की चेतावनी भी दी गयी है, खासतौर पर पंजाब को निशाना बनाने की। तालिबान की तरफ से कुछ मीडिया सूत्रों से कहा गया है कि उनके पास एक खास योजना है। हालांकि तालिबान की तरफ से कहा गया है कि वे नागरिकों को निशाना नहीं बनाएंगे। वे नवाज शरीफ के गढ़ पंजाब में सेना और सरकारी संस्थानों को लक्ष्य बनाकर बम धमाके और आत्मघाती हमले करेंगे।

अब पाकिस्तान सरकार की दुविधा यह है कि आखिर वह किस रास्ते का चुनाव करे। हालांकि ये उसके ही पैदा किए हुए रक्तबीज हैं जो आज उसी को मारने के लिए तैयार हो गये हैं। फजलुल्ला लम्बे समय तक अफगानिस्तान में रहा है और उसके अफगानिस्तान तालिबान के साथ बेहतर रिश्ते रहे हैं इसलिए इस बात की सम्भावना अधिक है कि पाकिस्तान तालिबान और अफगान तालिबान के साथ एक सशक्त गठबंधन तैयार हो। हालांकि पाकिस्तान तालिबान का मुल्ला उमर के नेतृत्व वाले अफगान तालिबान से सीधे जुड़ाव नहीं है, क्योंकि दोनों समूहों का ही इतिहास, रणनीतिक लक्ष्य और अभिरुचियां अलग-अलग है। लेकिन अब जो स्थितियां बनती दिख रही हैं उनमें नया गठबंधन सम्भव है और विशेषकर अमेरिकी सेना की वापसी के पश्चात तो अवश्य ही। दरअसल वजीरिस्तान और स्वात घाटी का कबीलाई संगठन बहुत ही मजबूत है और आजादी के बाद पाकिस्तान की सरकार इन क्षेत्रों में अभियान चलाने या चरमपंथ को खाद-पानी देती रही, लेकिन 911 की घटना के बाद अमेरिकी प्यादा बनकर उसने खैबर ट्राइबल एजेंसी की तीर घाटी को इसलिए निशाना बनाया था क्योंकि उसे मालूम था कि वहां पर बड़े पैमाने पर उबेक, चेचन और अरब आतंकवादी मौजूद हैं जो अल-कायदा का साथ दे रहे हैं। इसके बाद उत्तरी वजीरिस्तान की शावल घाटी और बाद में दक्षिणी वजीरिस्तान में अभियान चलाया गया। इस अभियान के बाद पाकिस्तान जनजातीय नेताओं का दुश्मन बन गया और यह दुश्मनी अब तक नहीं गयी।


बहरहाल मुल्ला फजलुल्ला पाकिस्तान की सरकार और पाकिस्तान की अवाम के लिए एक अभिशाप से कम नहीं है। अब इस बात की सम्भावना अधिक है कि वह अल-कायदा, अफगान तालिबान के बीच उस सम्बियोटिक रिलेशनशिप को ताकत देने का काम करेगा, जो पाकिस्तान, अफगानिस्तान और सम्भव है कि दक्षिण एशिया के अन्य देशों, विशेषकर भारत जैसे देश के लिए भी खतरनाक सिध्द हो। वास्तव में यदि तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान अलकायदा, शहीद ब्रिगेड, इस्लामी मूवमेंट ऑफ उबेकिस्तान (आईएमयू), हरकत-उल-जिहाद इस्लामी (हूजी), इलियास कश्मीरी, क़री सैफुल्ला अख्तर, जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-झांगवी, लश्कर-ए-तैयबा, सिपह-ए-सहाबा आदि के साथ रिश्तों को कोई आयाम देने में सफ ल हो गया तो पाकिस्तान को किश्तों में रोना पड़ेगा। 



देशबन्धु


शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

लोकतंत्र का सामंतवादी संचालन

चारा घोटाला मामले में जब न्यायपालिका ने लालू प्रसाद यादव को दोषी ठहराते हुए जेल भेज दिया तो यह उम्मीद जगी थी कि पार्टी का नेतृत्व नए हाथों में स्थानांतरित हो जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं होने से लोकतंत्र समर्थकों की यह उम्मीद भी खत्म हो गई। न्यायपालिका के फैसले के आलोक में राष्ट्रीय जनता दल ने अपने कार्यकारी सदस्यों की बैठक बुलाई। इस बैठक में यह निर्णय किया गया कि पार्टी का नेतृत्व अभी भी लालू प्रसाद यादव के हाथों में रहेगा। वह जेल की सलाखों के पीछे से ही पार्टी का संचालन करेंगे और दिन प्रतिदिन के कामों का संचालन उनकी पत्‍‌नी राबड़ी देवी करेंगी। फिर भी धीरे-धीरे माहौल में बदलाव आना शुरू हुआ है। लोकतंत्र समर्थक सिविल सोसाइटी के सदस्यों ने भ्रष्ट राजनेताओं के खिलाफ न्यायपालिका की पहल पर जवाबदेही की मांग का सवाल उठाया है, लेकिन यहां पहली और आखिरी बात यही है कि क्या इस सबसे राजनीतिक दलों के कार्य व्यवहार में कोई अंतर आया अथवा ऐसी किसी अपेक्षा की उम्मीद बंधी? आज भारत में राजनीति इस स्तर तक गिर चुकी है जिसमें राबड़ी देवी अथवा परिवार के किसी दूसरे सदस्य का वैकल्पिक नेता के तौर पर आगे आना कोई आश्चर्य की बात नहीं। आम जनता को इस तरह की बातों की पहले से अपेक्षा होती है, जिसका इस्तेमाल इस रूप में किया जाता है कि पार्टी के भीतर विरोध करने वाला कोई विपक्ष नहीं है और सभी एकमत हैं।

इस संदर्भ में एक दूसरा प्रश्न यह भी उभरता है कि जैसी स्थिति राजद में है, क्या वैसा ही कुछ अन्य दलों में भी है? इस प्रश्न का उत्तार बहुत सामान्य है कि अन्य राजनीतिक दलों में भी कुछ अपवादों को छोड़कर ठीक इसी तरह की स्थिति देखने को मिलती है। आखिर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में वास्तव में हो क्या रहा है? हमारे यहां की दलीय प्रणाली में आखिर लोकतंत्र जैसी कोई बात क्यों नहीं है? भारत में राजनीतिक पार्टियों का संचालन पूरी तरह से सामंती तरीके से किया जा रहा है। यह सही है कि भारत में सामंतवाद पूरी तरह से खत्म हो चुका है, लेकिन राजनीतिक दलों के भीतर सामंती तौर-तरीके अभी भी बने हुए हैं। तीसरे, क्या दोषी नेता की अनुपस्थिति में पार्टी में कोई और ऐसा नेता नहीं है जो नेतृत्व की बागडोर संभाल सके। करीब-करीब सभी दलों में पार्टी के शीर्ष नेता के कद के नेता मौजूद हैं, किंतु राजनीतिक दलों में सामंती आ‌र्ग्रह इतने गहरे हैं कि कोई भी खुद को नेता के रूप में प्रस्तावित नहीं करता। भारतीय दलतंत्र में इसे बगावत समझा जाता है। यह राजद के हालिया उदाहरण के अलावा कांग्रेस के लंबे इतिहास से स्पष्ट हो जाता है। इससे एक और सवाल खड़ा होता है, पहले या दूसरे दर्जे के तमाम नेता पार्टी के शीर्ष नेता के समक्ष इतने दब्बू या गुलामों की तरह व्यवहार क्यों करते हैं? अधिकांश दलों में यह संस्कृति देखी जा सकती है। इसका प्रमुख कारण पार्टियों में अंतर-दलीय लोकतंत्र का अभाव है। यह भारतीय लोकतंत्र का दुर्भाग्य है कि इसमें अंतर दलीय लोकतंत्र पनप ही नहीं सका।

यूरोप और अमेरिका में अंतर-दलीय लोकतंत्र सफलतापूर्वक चल रहा है। 17वीं सदी में ही लोकतंत्र का स्वाद चखने वाले इंग्लैंड में अंतर-दलीय लोकतंत्र की उपेक्षा का कोई स्थान नहीं है। अंतर-दलीय लोकतंत्र का अभाव एक किस्म का सामंतवादी प्रभाव है, जो इंग्लैंड में लोकतंत्र के उदय से पहले तक स्थापित था। क्या कोई भारत में यह कल्पना भी कर सकता है कि बेहद शक्तिशाली मार्गरेट थैचर को जॉन मेजर जैसा सामान्य सा नेता पार्टी के नेतृत्व के लिए चुनौती दे सकता है और बेदखल कर सकता है। अमेरिका में प्राइमरी चुनाव अंतर-दलीय लोकतंत्र का सर्वोत्ताम रूप पेश करते हैं। 2008 में डेमोक्रेटिकपार्टी में दो कट्टर विरोधी उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन और बराक ओबामा में प्राथमिक चुनाव के लिए तगड़ा संघर्ष हुआ। तब एक अनजान चेहरे बराक ओबामा ने कभी शक्तिशाली प्रथम महिला रहीं हिलेरी क्लिंटन को प्राइमरी चुनावों में मात देकर डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी हासिल की। पार्टी के शक्तिशाली नेता को चुनौती पेश करने के कारण किसी को भी दल से बाहर नहीं निकाला गया। न तो हिलेरी क्लिंटन ने ओबामा से मात खाने के बाद अपनी नई पार्टी बना ली और न ही हिलेरी और ओबामा में इसलिए दुश्मनी हो गई कि प्राइमरी चुनावों में दोनों एक-दूसरे के खिलाफ लड़े थे। इसके बजाय हिलेरी क्लिंटन ने राष्ट्रपति बराक ओबामा की यह पेशकश स्वीकार कर ली कि वह अमेरिका की विदेश मंत्री बन जाएं। यह इसलिए संभव हुआ, क्योंकि वहां पार्टी किसी एक व्यक्ति की बपौती नहीं है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को अमेरिका के इस अंतर-दलीय लोकतंत्र से सबक सीखना चाहिए।


क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि कांग्रेस पार्टी के भीतर सोनिया, राहुल गांधी को कोई इस प्रकार चुनौती दे सकता है जैसे बराक ओबामा ने हिलेरी क्लिंटन को दी थी। अगर किसी ने ऐसा करने का साहस दिखाया तो उसे अगले ही दिन पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा। क्षेत्रीय दलों की हालत तो और भी खस्ता है। इनमें नेताजी का फैसला ही अंतिम शब्द होता है। इन दलों में लोकतंत्र का पूरी तरह से हरण कर लिया गया है। इसीलिए इन दलों में परिवार के बाहर से दूसरी पीढ़ी के नेता को उभरने ही नहीं दिया जाता। किसी पार्टी को चलाने या फिर सरकार चलाने का अधिकार बस प्रथम परिवार को होता है। आगामी विधानसभा चुनावों में टिकट से वंचित रह गए असंतुष्ट उम्मीदवारों की नाखुशी का एक कारण राजनीतिक पार्टियों में इसी अंतर-दलीय लोकतंत्र का अभाव भी है। आज जब विश्व वैश्रि्वक गांव में तब्दील हो रहा है, भारत अपनी सवा अरब आबादी की आकांक्षाओं की पूर्ति और कल्याण की अनदेखी नहीं कर सकता। आजादी के 66 साल बाद देश का लोकतांत्रिक ढांचा अंतर-दलीय लोकतंत्र के अभाव से कमजोर हो रहा है। इस दिशा में सुधार तभी संभव लगते हैं जब सुप्रीम कोर्ट चुनाव सुधारों पर भी नए प्रावधान लाए। आज हर भारतीय की यही उम्मीद है।

ग्रामीण स्वास्थ्य की दशा सुधारने की कोशिश

केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने ग्रामीण स्वास्थ्य की दशा और दिशा सुधारने वाला एक अत्यंत महत्वपूर्ण फैसला लिया है। बुधवार को हुई मंत्रिमंडल की बैठक में सामुदायिक स्वास्थ्य में बीएससी पाठयक्रम को मंजूरी दी गई। यह पाठयक्रम सरकार की उस योजना को कारगर बनाने में सहायक सिध्द होगा, जिसके तहत वह ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्यकर्मियों का एक विशेष दल तैयार करना चाहती है। इस तरह के किसी फैसले की वर्षों से प्रतीक्षा थी। बल्कि यूं कहना ज्यादा सही होगा कि इस ओर अरसे से प्रयास जारी थे, लेकिन हर बार किसी न किसी कारण से अडंग़ा लगाया जाता रहा। केंद्र ने अभी जो फैसला लिया है, छत्तीसगढ़ की प्रथम सरकार ने भी ऐसा ही निर्णय लिया था, किंतु वह लंबे समय तक लागू न हो पाया। दरअसल इसका विरोध मुख्यत: चिकित्सकों की ओर से ही होता आया, जिनका यह मानना है कि ऐसा करने से इस व्यवसाय के लोगों के दो स्तर निर्मित होंगे और उससे दीर्घकालिक नुकसान होगा। इस देश की आम जनता जानती है कि इसमें असल में किसका नुकसान है और चिकित्सा क्षेत्र को मुनाफे का व्यवसाय बना देने वाले किस मानसिकता से कार्य करते हैं। इसे विडंबना कहें या विरोधाभास कि एक ओर देश में मेडीकल टूरिज्म को बढ़ावा दिया जा रहा है, अर्थात विदेशों से मरीजों को इलाज के लुभावने पैकेज देकर आमंत्रित किया जा रहा है और दूसरी ओर यहां की गरीब व मुख्य रूप से ग्रामीण जनता के लिए मूलभूत स्वास्थ्य सेवाओं का अकाल पड़ा हुआ है। लाखों रुपए देकर सात सितारा अस्पतालों में इलाज करवाने की सुविधा यहां है, जहां डाक्टरों व मरीजों के बीच व्यापारी व ग्राहक का रिश्ता बना हुआ है। उधर, ग्रामीण इलाकों में स्थिति इतनी बदतर है कि मरीज को जानवर की तरह दो बांसों के बीच लटकाकर पास के शहरी अस्पताल में लाया जाता है और इन अस्पतालों में गरीब मरीजों के साथ लगभग जानवरों जैसा ही व्यवहार भी होता है। कराहते, तड़पते मरीज गलियारों में पड़े रहते हैं, गर्भवती महिलाएं सड़क पर ही बच्चे को जन्म देती हैं, टीबी, मलेरिया, उल्टी-दस्त जैसी बीमारियां अब भी काल का कहर बनकर  टूटती हैं, यह सिलसिला वर्षों से चल रहा है, लेकिन इसे खत्म करने का कोई ठोस उपाय नहींकिया गया। जब-जब आम आदमियों तक स्वास्थ्य सुविधाएं आसानी से पहुंचाने की बात होती है, देश में डाक्टरों का एक बड़ा वर्ग या कह लें इनका संगठित गिरोह इसके खिलाफ मोर्चा खोल देता है। क्योंकि इसमें इन्हें अपना नुकसान नजर आता है। लाखों रुपए की चिकित्सा शिक्षा प्राप्त कर, उसका लाभ करोड़ों लोगों तक पहुंचाने की जगह वे करोड़ों रूपए कमाने की ख्वाहिश रखते हैं। इसलिए स्वास्थ्य सुविधाएं अब आकर्षक पैकेजों मेंउपलब्ध होने लगी है, जो केवल संपन्न तबके की पहुंच में है। गरीब आदमी आज भी सरकारी अस्पतालों में बीमारी की पीड़ा सहते हुए लंबी कतार में लग कर इलाज की प्रतीक्षा करने के लिए अभिशप्त हैं। देश के नीति नियंताओं तक इनकी कराहें नहींपहुंचती। अगर वे सुनना चाहें तो भी उनके निर्णय लेने में बाधाएं खड़ी की जाती हैं। अभी जो तीन वर्ष का पाठयक्रम है, इसी तरह का एक फैसला संसद की स्थायी समिति ने पहले लिया था जिसमें चिकित्सा स्नातकों को तीन साल ग्रामीण इलाकों में सेवाएं देना अनिवार्य किया गया था। किंतु यह भी फलीभूत नहीं हो पाया।


बहरहाल, सामुदायिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में इस तीन वर्षीय पाठयक्रम में सामुदायिक स्वास्थ्य अधिकारियों का एक ऐसा दल तैयार होगा, जो स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अधीन कार्य करेगा। इस पाठयक्रम के स्नातक ग्रामीण क्षेत्रों में तैनात होंगे और मूलभूत स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराएंगे। उदाहरण के लिए सामान्य प्रसूति, जच्चा-बच्चा की प्रारंभिक देखभाल, टीकाकरण, सर्दी-जुकाम, सामान्य बुखार, टीबी, मलेरिया आदि का प्रारंभिक इलाज इन सब को करने में सामुदायिक स्वास्थ्य के स्नातक सक्षम होंगे। इससे ग्रामीणों को प्रारंभिक इलाज प्राप्त होगा ही, झोलाछाप डाक्टरों, झाड़-फूंक करने वालों से मुक्ति भी मिलेगी।



देशबन्धु

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