रविवार, 15 दिसंबर 2013

बाली का समझौता

बाली में विश्व व्यापार संगठन की मंत्रिस्तरीय बैठक में वैश्विक व्यापार को बढ़ावा देने संबंधी अपनी तरह कापहला विश्व समझौता वैश्विक व्यापार की दृष्टि से एक बड़ी उपलब्धि है। इस समझौते से व्यापार प्रक्रिया को सरल बनाने के साथ-साथ गरीब देशों के सामान बेचने की प्रयिा को और आसान बनाया गया है। विश्लेषकों का कहना है कि इस समझौते से विश्व अर्थ व्यवस्था को करीब दस खरब डॉलर की उछाल मिल सकेगी। लेकिन इस उपलब्धि को हासिल करने के लिए विकासशील देशों के निर्णय लेने की स्वायत्तता, उनके हितों को किस तरह दांव पर लगाया गया है, यह भी समझने की जरूरत है। जब सम्मेलन में विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद बढ़ा तो एक वक्त ऐसा लगा कि इस बार भी सम्मेलन बिना किसी नतीजे पर पहुंचे खत्म हो जाएगा। दरअसल भारत की ओर से पुरजोर मांग की गई कि सब्सिडी वाले अनाज को भी नए खाद्य सुरक्षा कानून में शामिल किया जाए। खाद्य सुरक्षा सिर्फ भारत के लिए नहीं, दुनिया के करीब चार अरब लोगों के अस्तित्व के लिए आवश्यक है। विकासशील देशों की न सिर्फ आबादी यादा है, बल्कि महंगे अनाज का आयात भी यहां की सरकारों के लिए संभव नहीं। यही कारण है कि इस मांग में भारत के साथ आवाज उठाने वाले दक्षिण अमरीका, अफ्रीका व एशिया के 33 देश यानी जी-33 शामिल रहे। अमरीका और यूरोपीय संघ इस मांग का विरोध कर रहे थे। उनका कहना है कि ये कार्यक्रम डब्ल्यूटीओ के नियमों को तोड़ने वाले हैं। मतभेदों के बाद अब बीच का रास्ता निकालते हुए कहा गया कि इस मुद्दे पर चार साल के भीतर कोई हल खोज लिया जाएगा। दरअसल कृषि सब्सिडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य की सीमा तय करने की कोशिश लंबे समय से विकसित देश करते रहे हैं। इस बार जी-33 के विरोध के बीच जो मध्यम मार्ग निकाला गया है वह कृषि समझौते में शांति अनुच्छेद है। इसके तहत इंतजाम किया गया है कि ग्यारहवें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन तक कृषि सब्सिडी संबंधी प्रावधान लागू नहीं किया जाएगा।


डब्ल्यूटीओ का मंत्रिस्तरीय सम्मेलन हर दो साल पर होता है। यानी अगले चार साल तक कोई भी देश कथित शांति-अनुच्छेद को डब्ल्यूटीओ के विवाद निपटारा प्राधिकरण में चुनौती नहीं दे सकेगा। लेकिन उसके बाद क्या होगा, यह कोई नहींजानता। फिलहाल भारत के वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा इस करार पर संतुष्टि जतला रहे हैं। किंतु यह सोचने वाली बात है कि जिस खाद्य सुरक्षा कानून को यूपीए सरकार ने बड़े जोर-शोर से पेश किया, उसमें डब्ल्यूटीओ के दखल की गुंजाइश को वह किस तरह रोकेगी। चार साल बाद ही सही लेकिन हमारे देश में कृषि सब्सिडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करने में डब्ल्यूटीओ की बड़ी भूमिका रहेगी, तो हमारी नीति निर्धारण की संप्रभुता का क्या होगा। रही बात वैश्विक व्यापार की, तो इससे इन्कार नहींकिया जा सकता कि भूमंडलीकरण और मुक्त व्यापार के इस दौर में सभी देशों के आर्थिक हित एक-दूसरे से किसी न किसी तरह जुड़े हुए हैं। एक की मंदी से दूसरे का प्रभावित होना स्वाभाविक है। इसलिए डब्ल्यूटीओ की चिंता वैश्विक मंदी से उबरने की है, यही कारण है कि मतभेदों को दूर करते हुए अंतरराष्ट्रीय व्यापार में बढ़ोत्तरी के लिए समझौते के प्रयास हुए और उसमें सफलता भी मिली। समझौते पर खुशी जाहिर करते हुए डब्ल्यूटीओ के महानिदेशक रॉबर्टो एजेवेदो ने कहा कि हम दुनिया को विश्व व्यापार संगठन के मंच पर एकजुट करने में सफल रहे हैं; संगठन के इतिहास में पहली बार बड़ी कामयाबी हासिल की गई है। विगत 12 वर्षों से संगठन में किसी न किसी तरह का गतिरोध बना हुआ था, उस लिहाज से एजेवेदो का दावा काफी हद तक सही है। पर सवाल यह है कि आखिर विकासशील देशों के हितों को हाशिए पर धकेल कर कब तक ऐसी कामयाबी का जश्न मनाया जाता रहेगा।

महिलाओं के सशक्तिकरण में मददगार होगा महिला बैंक

समाज के कमजोर वर्ग की महिलाओं को कम ब्याज दर पर कर्ज देकर उन्हें आर्थिक तौर पर स्वावलंबी बनाने के उद्देश्य से सरकार ने देश में महिला बैंक शुरू करने का फैसला किया है। हाल ही में इस बैंक की पहली शाखा का महाराष्ट्र के मुंबई में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उद्धाटन किया। इस मौके पर प्रधानमंत्री के साथ यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी और वित्त मंत्री पी. चिदंबरम भी मौजूद थे। एक हजार करोड़ रुपए के शुरूआती कोष के साथ शुरू किया गया यह बैंक, पूर्णतया महिलाओं द्वारा और महिलाओं के लिए संचालित बैंक है। बैंक, महिला सशक्तिकरण के साथ सभी प्रकार की सेवाएं प्रदान करेगा। हाल-फिलहाल इसकी सात शाखाएं गुवाहाटी, कोलकाता, चेन्नई, मुंबई, अहमदाबाद, बैंगलोर और लखनऊ में शुरू की गई हैं। निकट भविष्य में सरकार का इरादा इस बैंक की शाखाएं पश्चिम भारत, उत्तर भारत और दक्षिण भारत सहित सभी जगह खोलने की है। साल 2014, मार्च के अंत तक बैंक की शाखाओं की संख्या 25 होगी। महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण की दिशा में एक अहम् कदम है, जिसका कि हमें स्वागत करना चाहिए। वित्त और बैंकिंग सुविधा की पहुंच से न केवल महिलाओं को सशक्त बनाने में मदद मिलेगी, बल्कि विकास के सामाजिक आधार को भी व्यापकता हासिल होगी।

गौरतलब है कि वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने इस साल के अपने बजट भाषण में भारतीय महिला बैंक शुरू करने की घोषणा की थी, जो अब जाकर पूरी हो गई है। बहरहाल महिला बैंक के निदेशक मंडल में आठ महिला सदस्यों को शामिल किया गया है। देश में सार्वजनिक क्षेत्र का यह पहला बैंक होगा, जिसके निदेशक मंडल के अध्यक्ष समेत सभी सदस्य महिलाएं हैं। निदेशक मंडल में जहां एक बड़े उद्योग समूह गोदरेज की तान्या दुबाश शामिल हैं, तो वहीं राजस्थान के एक गांव की सरपंच छवि राजावत भी। यानी निदेशक मंडल में सभी वर्ग की महिलाओं का प्रतिनिधित्व है। बैंक सिर्फ महिलाओं के लिए अकेले नहीं होगा, बल्कि इसमें सभी को सुविधाएं मिलेंगी।  इन बैंकों में सबका स्वागत है लेकिन इनका मुख्य फोकस  महिलाओं पर ही होगा।  इनमें महिलाएं काम करेंगी और उपभोक्ता भी यादा से यादा महिलाएं ही होंगी। बैंक का मुख्य उद्देश्य महिलाओं का सशक्तिकरण करना है। जहां तक कर्ज का सवाल है, इन बैंकों में यादा से यादा कर्ज महिलाओं को ही दिया जाएगा। यानी कर्ज के मामले में महिलाओं को वरीयता दी जाएगी। महिलाओं को अपनी मनपसंद घरेलू कामों के साथ-साथ छोटे-मोटे कारोबार के लिए भी कर्ज मिलेगा। महिला शिक्षा के लिए इस बैंक में अधिक से अधिक दस लाख रुपए लोन की सुविधा दी गई है। जिसमें भी उन्हें चार लाख के लोन पर कोई ब्याज नहीं देना होगा, जबकि उससे ऊपर की राशि पर उन्हें सिर्फ पांच फीसदी ब्याज देना होगा।

बैंक की एक और अहम् खासियत, इसमें हर वर्ग की महिलाओं को खाता खोलने की सहूलियत होना है। पढ़ी-लिखी महिलाएं तो किसी भी बैंक में खाता खोल सकती हैं, लेकिन सबसे यादा परेशानी ग्रामीण और अनपढ़ महिलाओं को होती है। लोन और कर्ज लेने की तो बात ही छोड़ दो, खाता खोलने से लेकर उसके संचालन तक में उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। यही वजह है कि सरकार ने इस तरह के बैंक की परिकल्पना की जिसमें महिलाओं को अपना काम करने में आसानी हो। वे चाहे पैसा जमा करवाएं या लोन लें, उनका काम आसानी से हो जाए। महिला बैंक का मुख्य जोर निम्न और मध्यम वर्ग की महिलाओं की आर्थिक क्षमता को बढ़ाना है, जिससे उनकी समाज में यादा से यादा आर्थिक भागीदारी बढ़े। बैंक इन महिलाओं की छोटी सी छोटी जरूरतों को पूरा करने में मदद करेगा। डे-केयर सेंटर से लेकर संगठित कैटरिंग सर्विस तक के लिए उन्हें कर्ज देगा, जिससे वे खुद अपने पैरों पर खड़ी हो सकें।

 हम अपने रोजमर्रा के जीवन में देखते रहते हैं कि महिलाओं को घर, कार्यस्थल हर जगह पर भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। उनके सशक्तिकरण की तो बात ही छोड़ दो, आर्थिक मामलों में आज भी महिलाएं अपने फैसले खुद नहीं कर पातीं, उन्हें इन फैसलों में अपने परिवार या मित्रों को शामिल करना पड़ता है। यदि कोई महिला खुद आगे बढ़कर अपना फैसला करे, तो उसे पेशेवर सलाह नहीं मिल पाती। भारतीय महिला बैंक यह सब काम करेगा। बैंक महिलाओं को उचित निवेश की सलाह देने के साथ-साथ उन्हें अच्छी व भरोसेमंद सेवाएं भी देगा। यही नहीं, महिला स्वयं सहायता समूहों के लिए भी उचित ऋण मुहैया कराएगा। महिला बैंक अपनी महिला ग्राहकों के लिए बिजनेस एंड डेवलपमेंट करस्पोंडेंट सुविधा भी शुरू करेगा। यह विकास अधिकारी, महिलाओं को आर्थिक मामलों और बैंकों में लेन-देन के लिए प्रशिक्षित करेंगे। जिसमें आर्थिक विकास और सशक्तिकरण के तहत उन्हें ऋण देने और अन्य गतिविधियों के बारे में प्रशिक्षिण शामिल है।


कुल मिलाकर महिलाओं के सशक्तिकरण में महिला बैंक हर तरह से मददगार साबित होगा। जब हर महिला तक वित्त और बैंकिंग सुविधा पहुंचगी, तो उनका आर्थिक सशक्तिकरण भी होगा। आर्थिक सशक्तिकरण से ही महिलाओं की तस्वीर और तकदीर बदलेगी। महिलाओं का आर्थिक सशक्तिकरण होगा,तो देश का भी सशक्तिकरण होगा। महिला बैंक, वृहद लैंगिक न्याय सुनिश्चित करने में एक उत्प्रेरक का काम करेगा। बावजूद इसके देश में महिलाओं के सशक्तिकरण और उनकी आर्थिक सुरक्षा के लिए अभी भी और प्रयास की जरूरत है। भारतीय समाज में सबसे बड़ी चुनौती महिलाओं के साथ होने वाले लैंगिक भेदभाव की है। यह भेदभाव उसे हर क्षेत्र में भुगतना पड़ता है। लैंगिक भेदभाव को प्रभावी ढंग से समाप्त करने और लोगों को लैंगिक रूप से संवेदनशील बनाने के लिए सरकार और समाज दोनों को समन्वित प्रयास करने होंगे, तभी जाकर महिलाओं की स्थिति में सुधार आएगा। एक बात और, ग्रामीण इलाकों में महिलाओं को बैंक तक लाने के लिए, उन्हें इस बारे में सबसे पहले साक्षर करना होगा। महिलाएं शिक्षित होंगी, तभी महिला बैंक का सही फायदा उठा पाएंगी।

जनशक्ति अपने उफान पर

जनभावनाओं के प्रति संवेदनहीन नेताओ को छोड़कर कांग्रेस के अंदर किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि 4 हिंदी प्रदेशों के चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन बेहतर होगा। दिल्ली और राजस्थान को लेकर भी वे मुगालते में नहीं थे। दिल्ली में तो कांग्रेस की स्थिति सबसे यादा खराब रही। 15 साल से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठी शीला दीक्षित को भी करारी हार का सामना करना पड़ा और वह लगभग 26 हजार मतों से चुनाव हार गईं। आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने उन्हें बुरी तरह हराया।

इसमे संदेह नहीं कि दिल्ली का शीला दीक्षित के कार्यकाल में काफी विकास हुआ। अन्य रायों की राजधानियों को राष्ट्रीय राजधानी से विकास के मामले में डाह हुआ करता था और यही दिल्ली का गर्व था। दिल्ली की सड़कें चौड़ी हुई हैं। अनके फ्लाई ओवर बने हैं। अंडर ब्रिज और ओवर ब्रिज बनाए गए। दर्जनों बड़े बडे मॉल अस्तित्व में आ गए। वातानुकूलित मेट्रो भी दिल्ली के पास है। इसके पास एक विशाल हवाई अड्डा भी है। सच कहा जाय तो शीला दीक्षित ने दिल्ली को एक शहरीकृत गांव से बदलकर एक माडर्न अंतरराष्ट्रीय ख्याति वाला महानगर बना दिया।अपनी उपलब्धियों की कहानी लोगों को बताने के लिए शीला दीक्षित ने करोड़ों रुपये विज्ञापनों पर भी खर्च किए। लेकिन उसके बावजूद कांग्रेस की अब तक की सबसे बड़ी हार दिल्ली में हुई। दिल्ली के चुनावी इतिहास में इतने के वोट कांग्रेस को कभी नहीं मिले थे।

अन्य कांग्रेसी नेताओं की तरह शीला दीक्षित भी इस बात को भूल गई थीं कि विकास को हम सीमेंट कंक्रीट के रूप में नहीं माप सकते। लोग सड़क और फ्लाइओवर नहीं खाते हैं। आम आदमी के लिए खाना, कपड़ा और मकान सबसे यादा मायने रखते हैं। और बढ़ती महंगाई लोगों का जीना मुहाल कर रही है। दिल्ली के अधिकांश लोग ऐसे मुहल्लों में रह रहे हैं, जहां सफाई का घोर अभाव है। बिजली महंगी होती जा रही है और पीने के पानी का अभाव है। गंदगी के कारण बीमारियों ने दिल्ली को अपना बसेरा बना रखा है। सरकार दफ्तरों में भ्रष्टाचार बढ़ रहे हैं और सड़कों पर अपराध। यही कारण है कि शीला दीक्षित और उनकी पार्टी को दिल्ली के लोगों ने करारा झटका दिया। आम आदमी पार्टी का चुनाव चिन्ह झाड़ू था। यह चुनाव चिन्ह बहुत ही हिट रहा। कहा जाय तो यह सुपर हिट रहा। झाड़ू ने लोगों के गुस्से को बिम्बित किया। झाड़ू भ्रष्टाचार को बुहारने का प्रतीक बन गया। आम आदमी पार्टी के इस झाड़ू ने कांग्रेस का तो सफाया किया ही, अन्य पार्टियों को भी इससे डरना चाहिए। क्षेत्रीय पार्टियों को इस झाड़ू से तो और भी यादा डरना चाहिए, क्योंकि वे सभी की सभी जातिवादी, सांप्रदायिक और क्षेत्रीय राजनीति कर अस्तित्व में बनी हुई है और लोगों का उनसे शायद मोह भंग होने लगा है। उन्हें अब यह सपष्ट हो जाना चाहिए कि देश का एक आम आदमी क्या चाहता है।


चुनाव परिणाम ने यह भी साबित कर दिया है कि लोग खाद्य सुरक्षा कानून जैसे बेहूदा कानूनों के द्वारा बेवकूफ नहीं बनाए जा सकते। बिना खाद्य उत्पादन की सुरक्षा को सुनिश्चित किए हुए केन्द्र सरकार ने एक ऐसे खाद्य सुरक्षा कानून को बना डाला है, जिसे अमल में लाया ही नहीं जा सकता। एक तरफ  केन्द्र सरकार अनाज उत्पादन को अपनी नीतियों से महंगा करती जा रही है और दूसरी तरफ  वह एक रुपये किलो गेहूं और दो रुपये किलो चावल बेचने की बात कर रही है। उसकी अपनी नीतियों में ही अंतर्विरोध है। वह खाद पर से सब्सिडी हटा रही है और बिजली को भी महंगा किया जा रहा है। इससे अनाज का उत्पादन लागत महंगी हो जाएगी। सरकार किसानों को दिया जाने वाले समर्थन मूल्य को भी बढ़ाना नहीं चाहती, लेकिन वह चाहती है कि लोगों को अनाज सस्ता मिले। यही कारण है कि खाद्य सुरक्षा कानून को दिल्ली की जनता ने भी गंभीरता से नही लिया, जबकि कांग्रेस को इस कानून से बहुत उम्मीद थी और राजीव गांधी के जन्म दिवस पर पिछले 20 अगस्त को इसे जोर शोर से लागू किया गया। खाद्य सुरक्षा कानून लागू करते समय कांग्रेस यह भूल गई कि अनाज से लोगों का पेट भरता है, न कि कानून से। लोगों को खाद्य चाहिए था, लेकिन सरकार ने उन्हें खाद्य के बदले खाद्य कानून दे डाला, जिसे आम जनता ने अपमान जनक माना।

सोमवार, 9 दिसंबर 2013

नई राजनीति का उदय

दिल्ली ने बदलाव के लिए मतदान किया है। चार राज्यों के नतीजे सामने आने के बाद कम से दिल्ली के मामले में यही बात आम तौर पर कही जाएगी और यह सही भी है। लेकिन सवाल यह है कि दिल्ली में किस तरह के बदलाव के लिए वोट दिया गया है। हां, दिल्ली ने यह बदलाव तो किया कि अब यहां सत्ताधारी दल कांग्रेस नहीं, बल्कि भाजपा होगी, लेकिन जो असली बदलाव हुआ है वह आम आदमी पार्टी द्वारा जीती गई सीटों की संख्या में देखा जाना चाहिए। तमाम एजेंसियों और समाचार संगठनों द्वारा किए गए चुनाव पूर्व और चुनाव बाद सर्वेक्षणों में आम आदमी पार्टी की सफलता की बात कही गई थी, लेकिन बहुत अधिक अनुमान आम आदमी पार्टी के 10-15 सीटों से अधिक स्थान हासिल करने के नहीं थे। यह सही है कि आम आदमी पार्टी ने अपने खुद के सर्वे में पार्टी को 47 सीटें मिलने की बात कही थी, लेकिन इसे भी बहुत लोगों ने उपहास का विषय बनाया। अब जब आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में उम्मीद से दोगुनी सीटें जीत ली हैं तो यह साफ हो गया है कि इस राज्य में किस तरह का बदलाव हुआ है और इस बदलाव का क्या मतलब है तथा देश की राजनीति में इसका क्या असर हो सकता है। बहस अब इसी मसले पर होनी चाहिए।

आप का उदय एक अर्थ में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का प्रतिफल है। इसे राजनीतिक शासन प्रणाली पर सिविल सोसाइटी के असर के परीक्षण के तौर पर भी देखा जा सकता है। स्थापित राजनीतिक दल एक लंबे अर्से से इस तरह के सभी आंदोलनों को राजनीतिक मैदान में उतरने और जनादेश हासिल करने की चुनौती देते रहे हैं। ऐसे आंदोलनों से अपेक्षा की जाती थी कि उन्हें राजनीति में उतरने के बाद ही राजनीतिक दलों के कामकाज पर टिप्पणी करने का अधिकार है। आप के प्रवेश ने कम से कम अभी के लिए इस पुरानी दलील को तोड़ दिया है।

तीन पहलू हैं जो इस चुनाव को खास और भारत के चुनावी इतिहास में मील का पत्थर बनाते हैं। एक तो स्पष्ट रूप से आप का राजनीति में चौंका देने वाला प्रवेश है और दूसरा पहलू है मतदान प्रतिशत में उल्लेखनीय वृद्धि। मतदान में अभूतपूर्व वृद्धि चुनाव वाले सभी पांच राज्यों में हुई। एक पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त के अनुसार पिछले 21 चुनावों से ऐसा ही हो रहा है। दिल्ली में मतदान प्रतिशत 2008 के 56.7 प्रतिशत से बढ़कर 2013 में 66 प्रतिशत हो गया। तीसरा पहलू नोटा की उपस्थिति है। जनता को यह अधिकार सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से मिला, जिसके आधार पर वह चुनाव में उतरने वाले सभी प्रत्याशियों को खारिज कर सकती है।

चुनाव में लगातार बढ़ रहे मतदान प्रतिशत के अनेक कारण हैं, जिनमें मतदाता सूची की साफ-सफाई और मतदाताओं को जागरूक करने के लिए चलाए जाने वाले आक्त्रामक अभियानों की प्रमुख भूमिका है। इन सभी का दिल्ली में भी खासा असर हुआ। मतदान प्रतिशत में बढ़ोतरी में एक पहलू यह अंतर्निहित है कि लोगों में राजनीतिक और चुनावी जागरूकता बढ़ रही है। पिछले अनेक वषरें से यह सिलसिला धीरे-धीरे ही सही, लेकिन लगातार चल रहा है। इस तरह की जागरूकता बढ़ने के पीछे आधारभूत कारण वर्तमान राजनीतिक वर्ग के खिलाफ लोगों में गुस्सा बढ़ना भी है। समय-समय पर चुने गए प्रतिनिधि यह कहते आए हैं कि यदि वह एक बार जीत गए तो अगले चुनाव होने तक वे कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हैं। इस गुस्से के लिए सत्ता में रही सभी राजनीतिक पार्टियां जिम्मेदार हैं। इसका जो प्राथमिक कारण है वह यही कि सभी राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र का पूर्ण अभाव है। इन पार्टियों में उम्मीदवारों को टिकट इनाम के तौर पर दिया जाता है और मतदाताओं द्वारा उन्हें चुने जाने के पहले ही पार्टी जीता हुआ मान लेती है। मतदाताओं के प्रति वफादारी के अभाव के कारण ही लोगों में राजनेताओं के प्रति गुस्सा पैदा होता है। सरकारों के लगातार कुशासन के उदाहरण के कारण मतदाताओं और नागरिकों में निराशा पैदा होती है। यही कारण है कि विभिन्न राज्यों में समय-समय पर बदलाव की तीव्र इच्छा देखी जा सकती है। मीडिया रपटों से पता चलता है कि नोटा यानी नापसंदगी के अधिकार का प्रयोग अभी 0.6 फीसद से 10 फीसद के आसपास है। यह आंकड़े बहुत आश्वासन नहीं देते। ऐसा इसलिए है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने अभी तक यह नहीं निर्धारित किया है कि यदि नापसंदगी के पक्ष में अत्यधिक मतदान होता है तो क्या किया जाएगा अथवा होगा? चुनाव आयोग ने भी सुप्रीम कोर्ट के आदेश को अक्षरश: मानने का निर्णय किया है, न कि उसकी मूल भावना को। आगामी चुनावों में नापसंदगी के बटन का पूरा प्रभाव देखने को मिलेगा और इस बात की पूरी संभावना है कि नापसंदगी के बटन का विकल्प होने के कारण आगे मतदान प्रतिशत में और अधिक इजाफा हो।


इस चुनाव में संभवत: सबसे महत्वपूर्ण पहलू आम आदमी पार्टी का विकल्प के रूप में उभरना है। अब सबसे अधिक अहम सवाल यह है कि यह पार्टी आने वाले समय में खुद को किस रूप में उभारती है। यह कसौटी दिल्ली में चुने गए उसके उम्मीदवारों के व्यवहार से ही आरंभ हो जाएगी। उसे यह याद रखना होगा कि दिल्ली वासी चाहे जो सोचते और महसूस करते हों, लेकिन दिल्ली देश नहीं है और जब तक वह उन अपेक्षाओं को नहीं पूरा कर पाएगी जो उसने जगा दी हैं तब तक उस पर वैसे ही व्यवहार से गुजरने का खतरा मंडराता रहेगा जो इस चुनाव में स्थापित दलों के साथ हुआ। दिल्ली भले ही पूरा देश न हो, लेकिन यह एक लंबे समय से भारत के लिए शक्ति का प्राथमिक केंद्र रहा है। लिहाजा दिल्ली की घटनाओं में देश की समूची राजनीतिक-सामाजिक प्रक्त्रिया पर असर डालने की क्षमता होती है। इस परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि दिल्ली के चुनाव नतीजे देश में नई राजनीति की शुरुआत हो सकते हैं। अगर यही रुझान पूरे अन्य विधानसभा चुनावों और आम चुनाव में भी जारी रहता है तो दिल्ली के इन चुनावों को देश के राजनीतिक और चुनावी इतिहास में लंबे समय तक याद रखा जाएगा।


नेपाल की राह

नई संविधान सभा के लिए नेपाल में हुए चुनाव के आरंभिक परिणाम कुछ दिन पहले ही आ गए थे। अब पूरे नतीजे आ गए हैं। प्रत्यक्ष और आनुपातिक, दोनों की मिश्रित प्रणाली के तहत हुए इन चुनावों के नतीजे माओवादियों से नेपाली जनता के मोहभंग को साफ तौर पर दर्शाते हैं। सुशील कोइराला के नेतृत्व वाली नेपाली कांग्रेस छह सौ एक सदस्यों की संविधान सभा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है। अलबत्ता वह बहुमत से काफी दूर है। उसे एक सौ छियानबे सीटें ही मिल पार्इं, जबकि बहुमत की शर्त कम से कम तीन सौ एक सीटों के साथ पूरी होती है। झालानाथ खनल की अगुआई वाली सीपीएन-यूएमएल को एक सौ पचहत्तर सीटों के साथ दूसरा स्थान मिला है। जबकि पिछली संविधान सभा में सबसे बड़ी पार्टी रही प्रचंड की यूसीपीएन (माओवादी) इस बार तीसरे स्थान पर खिसक गई, उसे केवल अस्सी सीटें मिल पार्इं। प्रचंड दो जगह उम्मीदवार थे और एक सीट पर उन्हें शिकस्त खानी पड़ी। अपने इस लचर प्रदर्शन को माओवादियों ने चुनाव में धांधली का परिणाम कहा है। लेकिन यह गौरतलब है कि प्रारंभिक नतीजे आने से पहले हेराफेरी के आरोप नहीं लगाए गए थे।

सच तो यह है कि इस बार के चुनाव में मतपत्रों की छानबीन से लेकर मतदान तक कहीं ज्यादा सतर्कता बरती गई। भारत और यूरोपीय संघ समेत अंतरराष्ट्रीय समुदाय की निगरानी भी थी। दरअसल, माओवादियों की यह हालत उनकी नाकामियों की देन है। संविधान-निर्माण के वादे के प्रति उन्होंने गंभीरता नहीं दिखाई। उनके नेतृत्व पर विलासितापूर्ण जीवन शैली से लेकर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे। पार्टी के भीतर अंदरूनी झगड़े भी उभरते रहे। अपनी विफलताओं को छिपाने के लिए वे कभी भारत और कभी चीन के हस्तक्षेप का विवाद खड़ा करते रहे। इस तरह उन्होंने नेपाली जनता को निराश किया और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की सहानुभूति भी गंवा बैठे।

चुनाव नतीजे को संदिग्ध बताने के बजाय उन्हें इसे सहजता से स्वीकार करना चाहिए। साथ ही नई संविधान सभा को सहयोग भी। इससे उन्हें अपना खोया हुआ आधार पाने की उम्मीद बनी रहेगी। पिछली संविधान सभा की जो किरकिरी हुई वह किसी से छिपी नहीं है। पांच साल काम करने के बावजूद वह देश के लिए नया संविधान बनाने के वादे को पूरा नहीं कर सकी। सरकार चलाने में भी कई बार राजनीतिक संकट पैदा हुआ। आखिरकार राजनीतिक गतिरोध दूर करने के मकसद से नए चुनाव कराने पड़े। पर सबसे अहम सवाल यही है कि क्या बरसों से चला आ रहा गतिरोध दूर हो पाएगा और क्या नई संविधान सभा अपना मकसद पूरा कर पाएगी।


गणराज्य घोषित किए जा चुके नेपाल के लोकतांत्रिक ढांचे और राज्य-व्यवस्था की शक्तियों के बंटवारे को लेकर प्रमुख राजनीतिक दलों के बीच गंभीर मतभेद रहे हैं। माओवादी विभिन्न समुदायों के विशिष्ट अधिकार सुनिश्चित कर ग्यारह राज्य बनाने की वकालत करते आए हैं, जबकि नेपाली कांग्रेस और यूएमएल सात राज्यों के पक्ष में रही हैं। विवाद का एक और खास मुद््दा राष्ट्रपति बनाम प्रधानमंत्री के अधिकारों को लेकर रहा है। प्रचंड राष्ट्रपति को अधिक से अधिक अधिकार देकर एक तरह से राष्ट्रपति प्रणाली की तरफदारी करते रहे हैं, जबकि नेपाली कांग्रेस और यूएमएल चाहती हैं कि राष्ट्रपति का पद महज आलंकारिक हो। कई छोटे दलों ने चुनाव का बहिष्कार किया था और कई दलों ने आनुपातिक प्रणाली के तहत पहली बार विधायिका में जगह बनाई है। इसके अलावा, अस्मिता आधारित खींचतान भी नेपाल के राजनीतिक शक्ति संतुलन को पेचीदा बना देती है। ऐसे में आम राय बनाने के संजीदा प्रयासों के बिना जनादेश के तकाजे को पूरा नहीं किया जा सकता।

रविवार, 8 दिसंबर 2013

डब्लूटीओ में भोजन का अधिकार

इंडोनेशिया के बाली द्वीप में चल रही डब्लूटीओ बैठक को भारत जैसे कृषि प्रधान देशों के लिए वाटरलू बताया जाता रहा है। वाटरलू, यानी वह जगह जहां दुनिया जीतने का सपना लेकर निकले नेपोलियन बोनापार्त को आखिरी शिकस्त मिली थी और उसका सपना हमेशा-हमेशा के लिए टूट गया था।

ताकतवर देशों का शुरू से यह दबाव रहा है कि भारत समेत दुनिया का कोई भी देश अपनी कुल खेतिहर उपज के दस फीसदी से ज्यादा रकम अपने किसानों को सब्सिडी के रूप में न दे, क्योंकि ऐसा करने पर बाजार में अनावश्यक विकृति पैदा होती है। यह शर्त बेहद टेढ़ी है, क्योंकि सब्सिडी के विभिन्न रूपों पर नजर रखना तो दूर, अलग-अलग समाजों में कुल खेतिहर उपज की कीमत तय करना भी समुद्र की लहरें गिनने जैसा काम है। इस संबंध में अमेरिका और यूरोप के मानक अगर भारत और चीन जैसे देशों में ज्यों के त्यों लागू कर दिए गए तो न सिर्फ इन देशों के किसान दिवालिया हो जाएंगे, बल्कि अनाज खरीद कर खाने वाली यहां की बहुत बड़ी आबादी भूखों मरने लगेगी।

ताकतवर देशों को सबसे ज्यादा नाराजगी भारत में कुछ समय पहले लागू भोजन के अधिकार को लेकर है। उनके मुताबिक न्यूनतम समर्थन मूल्य के जरिए भारत सरकार पहले ही 10 फीसदी से कम सब्सिडी वाली शर्त का उल्लंघन करती आ रही है, अब किसानों से महंगी दर पर खरीदे गए इस अनाज को बहुत ही सस्ती कीमत पर जरूरतमंद आबादी को मुहैया कराकर वह विश्व बाजार में दोहरी विरूपता पैदा कर रही है। बाली में, और इससे पहले जिनेवा में भी इस मुद्दे पर भारत का डटकर खड़े होना बिल्कुल उचित है, और इसके चलते अगर डब्लूटीओ टूटता है तो उसे बेहिचक टूट जाने दिया जाना चाहिए।

बीच की व्यवस्था के रूप में विकसित देशों की तरफ से चार साल की एक खिड़की प्रस्तावित की गई थी- कि इस अवधि में भारत अपने किसानों को ज्यादा सब्सिडी देता है तो दे, उसके खिलाफ कोई दंडात्मक कार्रवाई डब्लूटीओ की तरफ से नहीं की जाएगी। यह खुद में एक वाहियात बात है। भारतीय संसद से पारित हो जाने के बाद भोजन का अधिकार देश के सभी नागरिकों के लिए तब तक अक्षुण्ण रहेगा, जब तक संसद में एक और प्रस्ताव लाकर इसे सिरे से खारिज नहीं कर दिया जाता। ऐसे में किसी बाहरी दबाव में आकर इस पर एक निश्चित अवधि की तलवार भला कैसे लटकाई जा सकती है?


विश्व व्यापार संगठन खुद में कोई साम्राज्यवादी इंतजाम नहीं है। इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इससे कई क्षेत्रों में भारतीय निर्यात को अभूतपूर्व फायदा हुआ है। लेकिन कम क्षेत्रफल, अधिक आबादी और धीमे औद्योगीकरण के चलते भारत की कुछ विशिष्ट समस्याएं हैं, जिन्हें डब्लूटीओ तो क्या, संसार की कोई भी व्यवस्था दरकिनार नहीं कर सकती। विकसित देश अगर यह समझने की कोशिश ही नहीं करेंगे कि यहां किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य और गरीब आबादी को सस्ता राशन दिए जाने का क्या औचित्य है, तो भारत के आम लोगों की नजर में डब्लूटीओ की एक जोर-जबर्दस्ती वाली छवि ही बनेगी।  

एक युगांत

दक्षिण अफ्रीका ने अपना सबसे महान सपूत खो दिया। लेकिन नेलसन मंडेला न केवल अपने देश के लिए बल्कि दुनिया भर के लिए अन्याय-विरोध के असाधारण प्रतीक थे, और इस रूप में उनकी प्रेरक स्मृति हमेशा बनी रहेगी। अत्यंत सम्मानित विश्व-नेताओं में और भी कईनाम लिए जा सकते हैं, पर उन सभी को इतिहास-निर्माता या युग प्रवर्तक नहीं कहा जा सकता। मंडेला का अनूठापन यह था कि वे एक बड़े मुक्ति-नायक थे और शायद महात्मा गांधी के बाद सत्याग्रही शक्ति के सबसे बड़े स्तंभ। बीसवीं सदी के महान जननायकों में से एक। लिहाजा, उनके निधन से दक्षिण अफ्रीका के साथ-साथ बाकी दुनिया ने भी बहुत कुछ खोया है। उनके  जाने से पैदा हुई रिक्तता तब और चुभने लगती है जब हमारा ध्यान इस ओर जाता है कि आज की दुनिया किस तरह के राजनेताओं से संचालित हो रही है। मंडेला का नायकत्व कुछ दिनों की उथल-पुथल से नहीं बना, यह रंगभेद के खिलाफ उनके लंबे संघर्ष की उपज था। उनके खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा चला। सभाओं और दौरों पर रोक सहित कई पाबंदियां झेलनी पड़ीं। उन्हें सत्ताईस साल जेल में बिताने पड़े। पर उनके जीवट और अथक संघर्ष ने आखिरकार रंगभेदी शासन को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।

मंडेला 1994 में राष्ट्रपति चुने गए और दक्षिण अफ्रीका ने नस्लवाद से मुक्ति पाई। पर जैसा कि उन्होंने बार-बार कहा, इसे वे केवल अपनी नहीं, सामूहिक प्रयासों की कामयाबी मानते थे। दरअसल, दक्षिण अफ्रीका में गोरों की रंगभेदी हुकूमत के खिलाफ चला संघर्ष तर्कसंगत परिणति तक पहुंचा तो इसके पीछे मंडेला की अटूट हिम्मत के साथ-साथ अश्वेत समाज को एकजुट करने और जोड़े रखने की उनकी क्षमता भी थी। रंगभेदी आंदोलन का मंच बनी एएनसी यानी अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस की स्थापना 1912 में ही हो गई थी। मंडेला इसके साथ तीस साल बाद जुड़े। पर जैसे भारत में कांग्रेस गांधीजी का हाथ थामने के बाद ही जन-जन तक पहुंच सकी थी, वैसे ही एएनसी भी जनांदोलन की वाहक मंडेला के जुड़ने के बाद ही बन पाई। दशकों चले जनांदोलन में एक दौर ऐसा भी था जब प्रतिबंधों और निषेधाज्ञाओं की काट में एएनसी ने उग्र तरीके अपनाए और मंडेला को ही इसकी कमान सौंपी गई। पर उस दौर में भी यह खयाल रखा गया कि खून-खराबा न हो। मंडेला और उनके साथियों के खिलाफ चली न्यायिक कार्यवाही के रिकार्ड से भी इसकी पुष्टि होती है। अरसे तक तमाम दमन झेलने के बाद भी मंडेला में अपने विरोधियों के प्रति कड़वाहट नहीं थी, जिसका सबसे उल्लेखनीय प्रमाण वह सच्चाई और सामंजस्य आयोगथा, जो उनके राष्ट्रपति बनने के बाद गठित किया गया।


मंडेला की अगुआई में एएनसी के रंगभेद विरोधी आंदोलन को दुनिया भर से अपार समर्थन मिला और भारत सहित अनेक देशों ने दक्षिण अफ्रीका से राजनयिक संबंध मुल्तवी रखा। एक समय ब्रिटेन, अमेरिका की निगाह में मंडेला आतंकवादी थे। पर खुद अमेरिका और यूरोप के नागरिक समाजों में एएनसी और मंडेला के प्रति सहानुभूति और उनकी रिहाई की मांग बढ़ती गई और पश्चिमी सरकारों को अपना नजरिया बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा। राष्ट्रपति चुने जाने से एक साल पहले मंडेला शांति के नोबेल से विभूषित किए गए। इसके अलावा उन्हें मिले अंतरराष्ट्रीय सम्मानों की लंबी फेहरिस्त है। दुनिया की अनेक भाषाओं में उनकी जीवनियां लिखी गर्इं, उन पर बहुत-सी किताबें आर्इं। बहुत सारे देशों में सड़क, पार्क, संस्थान आदि के नामकरण मंडेला के नाम पर किए गए। दुनिया भर में लगाव और सम्मान की ऐसी मिसालें गिनी-चुनी ही मिलेंगी। एएनसी के स्वतंत्रता-घोषणापत्र में मंडेला ने लिखा, कोई भी सरकार राज करने के अधिकार का तब तक दावा नहीं कर सकती, जब तक वह सभी लोगों की इच्छा पर आधारित न हो। उनके इस संदेश को याद रखा जाना चाहिए।

शनिवार, 7 दिसंबर 2013

अनुच्छेद 370: किसका लाभ, किसकी हानि

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को मिले विशेष दर्जे को हमें दो पहलुओं से देखना होगा। इसका ऐतिहासिक पक्ष और फिर मौजूदा स्थिति। आजादी के ठीक पहले देश का 60 फीसदी हिस्सा ब्रिटिश इंडिया में था और 40 फीसदी हिस्सा रियासतों में बंटा हुआ था। आबादी के लिहाज से 30 करोड़ लोग ब्रिटिश इंडिया में रहते थे और शेष 10 फीसदी रियासतों में। कुल 552 रियासतें थीं, जिनमें जम्मू-कश्मीर, हैदराबाद और जूनागढ़ बड़ी रियासतें थीं। सरदार वल्लभभाई पटेल ने दूरदर्शी नीतियां अपनाकर इंस्ट्रुमेंट ऑफ एक्सेशन के तहत रियासतों के वृहत्तर भारत में विलय की प्रक्रिया शुरू कर दी। उन्होंने ब्रिटिश इंडिया के अंतिम वॉयसराय लॉर्ड माउंटबेटन को साफ कहा था, 'मैं अपनी टोकरी में भारत के सभी सेबों को रख लूंगा।' हालांकि जम्मू-कश्मीर में स्थिति ऐसी बनी कि यह पूरा सेब टोकरी में नहीं आ पाया।

हम जानते हैं कि जम्मू-कश्मीर रियासत के तत्कालीन शासक हरीसिंह भारत में विलय के लिए राजी नहीं थे। जब पाकिस्तान ने अपने सैनिकों के साथ कबायलियों का हमला करवाया तब हरीसिंह विलय-पत्र पर हस्ताक्षर के लिए राजी हुए। वह भी तब जब कबायली श्रीनगर की दहलीज पर आ पहुंचे थे। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का कश्मीरी नेता शेख अब्दुल्ला से बड़ा लगाव था। वे चाहते थे कि इस राज्य की बागडोर अब्दुल्ला के हाथों में हो।

भारतीय सेना जब कबायलियों को ठिकाने लगा रही थी तो इतिहास गवाह है कि नेहरू ने एक बहुत बड़ी भूल कर दी। उन्होंने एकतरफा युद्धविराम घोषित कर दिया और कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र में ले गए। यही भूल इस राज्य को लेकर मौजूदा विवाद की जननी है। जब संविधान सभा की बैठक में इसकी चर्चा चली तो नेहरू ने कहा कि चूंकि कश्मीर के मामले का अंतरराष्ट्रीयकरण हो चुका है, यदि हमने इस पर भारतीय गणराज्य की ताकत का इस्तेमाल किया तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमारी स्थिति कमजोर होगी। देश में तो नेहरू निर्विवाद नेता थे ही। इसके बाद उनकी मानसिकता हमेशा अंतरराष्ट्रीय नेता बनने की रही।

नेहरू के इसी रवैये के कारण मूल अनुच्छेद बदलकर मौजूदा 370 बना। आज जब भाजपा इस मुद्दे पर बहस का आह्वान कर रही है तो कांग्रेस, नेशनल कॉन्फ्रेंस और कथित धर्मनिरपेक्षवादी नेता कह रहे हैं कि इस विषय पर कोई बहस नहीं होनी चाहिए।

हालांकि तब संविधान सभा की बैठक में सबने एक स्वर से जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने का विरोध किया था। संविधान सभा में उत्तरप्रदेश से एक सदस्य थे मौलाना हसरत मोहानी। उन्होंने सवाल उठाया कि क्या कारण है कि जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा दिया जा रहा है। डॉ. भीमराव आंबेडकर भी इसके विरोधी थे। जब नेहरू ने उन्हें शेख अब्दुल्ला को समझाने के लिए भेजा तो आंबेडकर ने अब्दुल्ला से कहा, 'आप कह रहे हैं भारत जम्मू-कश्मीर की रक्षा करे, उसका विकास करे। भारत के नागरिकों को भारत में जो भी अधिकार हैं वे इस राज्य के लोगों को मिलें और जम्मू-कश्मीर में भारतीयों को कोई अधिकार नहीं हो। भारत के विधि मंत्री के रूप में मैं देश को धोखा नहीं दे सकता।

नेहरू ने जम्मू-कश्मीर को व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। संविधान सभा में सारे विरोध के बावजूद सबको समझा दिया गया और राज्य को अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्जा दे दिया गया। हालांकि इसका शीर्षक है 'जम्मू-कश्मीर के संबंध में अस्थायी प्रावधान। सवाल उठता है कि कोई अस्थायी प्रावधान कब तक रहना चाहिए? नेहरू ने 27 नवंबर 1963 को इस अनुच्छेद के बारे में संसद में बोलते हुए कहा था, 'यह अनुच्छेद घिसते-घिसते, घिस जाएगा। यानी कुछ समय बाद इसकी उपयोगिता स्वत: खत्म हो जाएगी और यह अप्रासंगिक हो जाएगा। हमारा मानना है कि 65 साल बहुत होते हैं। यह तो पहले ही दिन से अप्रासंगिक था। इसे लागू करने की जरूरत ही नहीं थी। इसे तो देश पर थोपा गया है।

इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझने के बाद अब हम मौजूदा बहस पर आते हैं। भाजपा नेता नरेंद्र मोदी ने जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे पर बहस का आह्वान करते हुए सवाल उठाए हैं: क्या जम्मू-कश्मीर का विकास पूरे भारत के विकास के साथ चल रहा है? इससे वहां के लोगों को फायदा हुआ है या नुकसान? उन्होंने तो अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं की लोकतांत्रिक कार्यशैली को ही आगे बढ़ाया है। वे तो लोगों के विचार जानने की कोशिश कर रहे हैं जिससे कि फैसला लेने में जन भावनाओं का ध्यान रखा जा सके। इसमें यह बात कहां आती है कि भारतीय जनता पार्टी ने अनुच्छेद 370 के मुद्दे पर अपना रुख नरम कर दिया है।

हम आज भी जम्मू-कश्मीर को शेष भारत से अलग करने वाला यह प्रावधान हटाने के पक्ष में हैं, क्योंकि संविधान में ही इसे अस्थायी प्रावधान बताया गया है। हमने कहा है कि हम लोकतांत्रिक पद्धति से चर्चा करके नतीजा निकालेंगे, कोई बात थोपेंगे नहीं। आजादी के तत्काल बाद भारत कमजोर देश था। वह इस स्थिति में नहीं था कि इस मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय दबाव झेल पाता। हम पूछना चाहते हैं कि आजादी के इतने वर्षों बाद क्या आज भी भारत मूक और कमजोर देश ही बना हुआ है? इन सब बातों पर राष्ट्रीय बहस की जरूरत है।

नेहरू ने इस मामले में एकपक्षीय निर्णय लिया था। अब यह अनुच्छेद हटाने के लिए बहस हो और उसमें जम्मू-कश्मीर की भी भागीदारी हो। आज जम्मू की आबादी कश्मीर घाटी की तुलना में 30 फीसदी ज्यादा है, लेकिन विधानसभा में कश्मीर घाटी का प्रतिनिधित्व ज्यादा है। यह असंतुलन दूर होना चाहिए।

अल्पसंख्यकवाद की राजनीति करने वाले लोगों को इस मुद्दे पर बहस और चर्चा नहीं चाहिए। प्रजातांत्रिक पद्धति की पहली जरूरत बहस है। अधिनायकवाद और फासीवाद में बहस की गुंजाइश नहीं होती। हमारी दृढ़ मान्यता है कि जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाला संविधान का अस्थायी अनुच्छेद 370 हटना चाहिए, लेकिन हम अपनी इच्छा देश पर नहीं थोपेंगें। एक स्वस्थ लोकतंत्र में किसी भी जरूरी विषय पर आप जनभावनाओं को दरकिनार नहीं कर सकते।

भारतीय जनता पार्टी के लिए इस विषय पर कोई अन्य रुख अपनाने के बारे में सोचना ही संभव नहीं है। आखिर पार्टी के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपने प्राणों की आहुति कश्मीर के लिए ही दी। संभवत: वे चाहते थे कि इसी बहाने इस विषय पर राष्ट्रव्यापी चर्चा हो और आंदोलन छेड़ा जाए। तब भारतीय जनसंघ (भाजपा का पूर्व स्वरूप) इतना मजबूत नहीं था, लेकिन आज भाजपा की जड़ें पूरे देश में फैली हैं और हम इस विषय पर देश-व्यापी आंदोलन छेडऩे की स्थिति में हैं। हालांकि आंदोलन से पहले हम इस विषय पर देशवासियों की भावनाएं जानना चाहते हैं। इसीलिए यह बहस जरूरी है।


साभारः दैनिक भास्कर

कुल पेज दृश्य