सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

धारा 377 पर आए फैसले पर कौन खुश है?

सर्वोच्च न्यायालय के ताजे निर्णय- जिसके अन्तर्गत उसने समलैंगिकता के अपराधीकरण पर फिर एक बार अपनी मुहर लगा दी है- ने शान्ति एवं न्याय के चाहने वालों को भले ही चिन्तित कर दिया हो मगर हम देख रहे हैं कि धर्म के स्वयंभू कर्णधार एवं नैतिकता के रक्षकों को तो उसने नया बल प्रदान किया है। अभी पिछले माह की बात है जब उनके चन्द नुमाइन्दों ने प्रेस सम्मेलन करके धारा 377 को लेकर आए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय- जिसके अन्तर्गत उसने समलैंगिकता हाईकोर्ट के 2009 के निर्णय को पलट दिया था- को लेकर खुशी का इजहार किया था और उसके प्रति अपना समर्थन प्रदान किया था। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को उन्होंने 'मुल्क की पूरब की परम्पराओं, नैतिक मूल्यों और धार्मिक शिक्षाओं के अनुरूप बताया था' तथा कहा था कि वह पश्चिमी संस्कृति के आक्रमण, पारिवारिक प्रणाली के विघटन और सामाजिक ताने-बाने के बिखराव को लेकर पैदा संदेहों को खारिज करता है। मालूम हो कि 2009 के दिल्ली हाईकोर्ट के निर्णय- जिसने समलैंगिकता को अपराध के दायरे से मुक्त किया था और संविधान की धारा 377 को चुनौती दी थी- उसके बारे में उन्हें सख्त एतराज था।

चाहे  इस मसले पर आयोजित प्रेस सम्मेलन हों या अन्य कार्रवाइयां हों, 'विभिन्न धर्मों के इन पुण्यजनोंके बीच नज आ रहा यह मेलजोल सभी के सामने है। ऐसे मौके कम ही आते हैं जब वे सभी अपने मुरीदों के वास्तविक भौतिक सरोकारों को लेकर एकत्रित होने के लिए इस कदर तत्पर दिखते हों या जब आस्था की अपनी-अपनी समझदारी के तहत उनके अनुगामी 'हम' और 'वे' में बंटे हुए सड़कों पर नफरत का लावा फैलाने में मुब्तिला दिखते हों, तब उन्हें रोकने के लिए इकट्ठा दौड़ जाते हों।

निश्चित ही उन सभी की चिन्ता यह नहीं थी समलैंगिक सम्बन्धों में 'पश्चिमी' कहा जानेवाला कुछ नहीं है और अन्य प्राचीन समाजों की तरह, यहां भी उसके प्रति कभी उस कदर आक्रामक रुख कभी नहीं रहा है। रूथ वनिता अपने एक आलेख में पूर्व औपनिवेशिक भारतीय साहित्य और कला से ऐसे कई उदाहरण पेश करती हैं जो इस पर रौशनी डालते दिखते हैं। दरअसल समलैंगिकता के खिलाफ  कानून - जिन पर विक्टोरियाई नैतिकता की छाप थी - पश्चिमी जगत से आयातित थे, जो यहां की न्यायप्रणाली का भी हिस्सा बना दिए गए। ब्रिटिशकाल में ही यहां पर धारा 377 का प्रवेश हुआ क्योंकि उन्हें इस बात की अत्यधिक चिन्ता थी कि उनकी सेना एवं बेटियां पूरब के अवगुणों का शिकार बनेंगी। यह अलग बात है कि खुद ब्रिटिशों ने लगभग पचास साल पहले अपनी कानून की किताबों से इस घृणास्पद प्रावधान को हटा दिया है। आज सहमति रखनेवाले वयस्कों के बीच यौन सम्बन्ध समूचे यूरोप और अमेरिका में कहीं भी अपराध नहीं है।

यह अलग बात है कि आज, भारत ऐसे देशों के साथ एक विचित्र सी प्रतियोगिता में शामिल हुआ है, जिन्होंने राय द्वारा प्रायोजित होमोफोबिया अर्थात् समलैंगिकों के प्रति नफरत की नीतियों को अपनाना कबूल किया है। नागरिकों के बीच किसी भी आधार पर भेदभाव न करने के संविधान के बुनियादी सिध्दांत की हिमायत करने के बजाय आला अदालत के फैसले ने ही समलैंगिकता के अपराधीकरण का रास्ता खोल दिया है। यहां यह जानना समीचीन होगा कि भारत आज 'होमोफोबिक' अर्थात् समलैंगिकता से नफरत करनेवाले मुल्कों के उस उदितमान क्लब का हिस्सा है जिसमें रूस, नाइजीरिया और युगांडा जैसे देश शामिल हैं। हालांकि रूस के समलैंगिकताविरोधी नए कानून जो ''समलैंगिकता के प्रचार'' पर पाबन्दी लगाता है के बारे में बहुत लोग जानते हैं, इसी सन्दर्भ में रूस में सोची में आयोजित ओलम्पिक खेलों में  'गे एथलीट' अर्थात् समलैंगिक एथलीटों की सुरक्षा को लेकर चिन्ता प्रकट की जा रही है। दूसरी तरफ नाइजीरिया और युगांडा जैसे मुल्कों के घटनाक्रम पर बहुत कम लोगों की निगाह गई है। बीते माह 13 जनवरी को नाइजीरिया के राष्ट्रपति गुडलक जोनाथन ने एक अध्यादेश पर दस्तखत किए जिसके अन्तर्गत समलैंगिक यौनाचार को अपराध घोषित किया गया, जिसके प्रावधान भारत की धारा 377 से अधिक दमनकारी हैं। वैसे युगांडा का कानून इन सबमें सबसे अधिक दमनकारी दिखता है जहां समलैंगिकता के 'अपराध' के लिए आप को उम्रकैद की सजा भी सुनाई जा सकती है, जिस बिल को दिसम्बर माह में मंजूरी दी गई। युगांडा में दो साल पहले समलैंगिक अधिकारों के लिए सक्रिय कार्यकर्ता पासिकली काशूसबे की बर्बर ढंग से हत्या की गई थी, जिसमें शामिल होने के आरोप ऐसे ही अतिवादी समूहों पर लगे थे जो समलैंगिकता का विरोध करते हैं। 

वैसे इन 'पुण्यजनों' को यह अधिकार है कि वह पाप किसे कहते हैं या नहीं कहते हैं इस पर अपनी राय बना लें, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें इस बात का बहुत कम एहसास है कि जनतंत्रा में सजाएं महज अपराध के लिए दी जाती हैं, पापों के लिए नहीं। इस तरह कोई धर्मतंत्र या ऐसा मुल्क जहां विशिष्ट धर्म की राय के संचालन में अधिक भूमिका दिखती है, वह किसी को सजा-ए-मौत सुना सकता है, महज इसलिए कि उस व्यक्ति ने अपने आप को नास्तिक घोषित किया, मगर जहां तक एक धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र का सवाल है तो वह अलग ढंग से संचालित होता है। लाजिमी था कि अपने सीमित विश्व नजरिये के चलते इन धर्ममार्तण्डों के लिए इस बात को समझना भी मुश्किल जान पड़ा था कि वर्ष 2009 के हाईकोर्ट के फैसले ने - जिसने समलैंगिकता के अपराधीकरण को खारिज किया था- किस तरह हमारी आजादी को विस्तारित करने के लिए संवैधानिक नैतिकता की समझ को पुनर्जीवित करने की कोशिश की थी और उसे सार्वजनिक नैतिकता के बरक्स पेश किया था जो समाज के वर्चस्वशाली दृष्टिकोण की वाहक होती है।

अपने समुदायों के इन 'पुण्यजनों' का इस कदर एकत्रित होने का यह प्रसंग, एक ऐसे कदम के खिलाफ जिससे मानवीय स्वतंत्रता की सीमाएं बढ़ने की सम्भावना हो, हमारे अपने अतीत के एक ऐसे ही अन्य प्रसंग की याद ताजा करता है। लगभग अस्सी साल पहले की बात है जब भारत अभी भी औपनिवेशिक जुए के नीचे था। भले ही सन्दर्भ अलग हों और मुद्दा अलग हो, मगर जिस तरह 'धार्मिक शिक्षाओं', 'परम्परा और संस्कृति' और 'विशाल बहुमत की राय' की बात की जा रही है, उसी किस्म की बात पहले भी चली थी।

वह एक ऐसा दौर था जब शारदा एक्ट लाने की- जिसके अन्तर्गत चौदह साल से कम उम्र की लड़की शादी पर पाबन्दी लगाने की- बात चल रही थी, जिसने तमाम धार्मिक प्रवृत्तियों के संगठनों एवं व्यक्तियों को उद्वेलित किया था। राष्ट्रवादियों का एक हिस्सा भी 'बाहरी' लोगों द्वारा लोगों के आन्तरिक मामलों में की जा रही दखलंदाजी को लेकर आन्दोलित था। वैसे बहुत कम लोग आज जानते होंगे कि इस कानून को लाने के लिए एक तरह से प्रेरणा का काम फुलमोनी नामक एक बालिका वधु की दुखद मौत ने किया था, जिसकी उससे कई गुना बड़े उम्र के व्यक्ति से शादी कर दी गई थी।  इस अधिनियम का विरोध करने के लिए हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के तमाम 'पुनितजनों' की अगुआई में जगह-जगह आन्दोलन चले थे, जिन्होंने यह ऐलान किया था कि वह 'उनके सबसे मूल्यवान अधिकारों' पर किसी तरह का आक्रमण होने नहीं देंगे, उनकी यह भी घोषणा थी कि वह औपनिवेशिक सरकार को उनकी 'महान संस्कृति और परम्परा' में दखलंदाजी नहीं करने देंगे। उन दिनों इनका संघर्ष किस तरह चला था इसे समझने के लिए जवाहरलाल नेहरू के एक आलेख के एक हिस्से को उध्दृत किया जा सकता है जो 'माडर्न रिव्यू' के दिसम्बर 1935 के अंक में प्रकाशित हुआ था, जिसमें यह बताया गया था कि पुरोहित एवं मौलवी तबके के नुमाइन्दे क्या कर रहे थे:'कुछ साल पहले की बात है जब मैं बनारस गया था... हम लोगों ने देखा कि ब्राह्मण कंधे से कंधा मिला कर मौलवियों के साथ जुलूस निकाल रहे हैं ... और 'हिन्दू-मुस्लिम एकता की जय' कहते हुए नारे लगा रहे हैं। यह देखना काफी सुखद था। मगर यह सब किसके लिए था?... पता चला कि यह दोनों धर्मों के रूढ़िवादियों का साझा विरोध प्रदर्शन है शारदा एक्ट का विरोध करने के लिए।
वह आगे लिखते हैं, हमें देख कर जुलूस में शामिल कईयों ने आपत्तिजनक नारे लगाए।...उसी वक्त, जुलूस टाउन हॉल पहुंचा और किसी वजह से पथराव शुरू हुआ। एक तेजतर्रार युवा ने कुछ पटाखे निकाले और फोड़े, जिनका रूढ़िवादियों की कतारों पर जबरदस्त असर हुआ। यह सोचते हुए कि पुलिस और सेना ने गोलीबारी शुरू की है, वह तुरन्त बिखर गए और तेजी से वहां से निकल गए। चन्द पटाखे उस पूरे जुलूस को बिखेरने के लिए काफी थे।...' (सोशल एण्ड रिलीजियस रिफार्म, अमिया पी सेन, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, पेज 118)

नेहरू आगे बताते हैं कि किस तरह ब्रिटिश सरकार इस मुद्दे पर पीछे हटी और किस तरह छिटपुट नारेबाजी इस बिल को समाप्त करने और शारदा एक्ट को दफनाने के लिए काफी साबित हुई और किस तरह 'बाल विवाह वैसे ही जारी रहे और एक तरफ जब शारदा एक्ट को तार-तार किया जा रहा था तब किस तरह सरकार एवं मैजिस्टे्रटों ने अपना मुंह मोड़ लिया।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि समय अब बदला है। अंग्रेजों की यहां से विदाई हो चुकी है और साठ साल पहले हम गणतंत्र में प्रवेश कर चुके हैं। लेकिन लगता है कि उसी किस्म की घड़ी हमारा इन्तजार कर रही है।

साठ साल का वक्त गुजर गया जब हम लोगों ने यह संकल्प लिया कि लिंग, जाति, नस्ल, धर्म, राष्ट्रीयता आदि किसी भी श्रेणी के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा। मगर अब धीरे-धीरे हमें एहसास हो रहा है कि हमारी उदात्त इच्छाओं और जमीनी हकीकत में गहरा अन्तराल है। अगर कल या उसके पहले या उसके पहले के पहले  दलित, स्त्रियां, धार्मिक अल्पसंख्यक निशाने पर थे, आज लगता है कि निशाने पर यौन अल्पसंख्यक हैं। क्या हम लोकतंत्र की उस विडम्बना को लांघ सकेंगे जिसमें हर किस्म के अल्पसंख्यक बहुसंख्यकवाद के संजाल में उलझे दिखते हैं, आज हमारे सामने सबसे अहम् सवाल यही दिखता है।

मीडिया का एजेंडा...

न्यूज चैनल्स इन दिनों रोज ही लोकसभा के चुनाव करवा रहे हैं। रोज-रोज चुनाव सर्वे कराना, आकलन पेश करना, यह क्यों हो रहा है। इसके पीछे कारण क्या है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया यूं ही सेत-मेत में तो यह कर नहीं रहा होगा और न ही ऐसा करना उसके शौक में शामिल है। टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए भी ऐसा नहीं किया जा रहा है। एकाध चैनल सर्वे कराता तो बात कुछ अलग होती। यहां तो सारे न्यूज् चैनल्स एक ही तरह का काम रोज कर रहे हैं। ऐसा भी नहीं लगता कि ''लोग चलें, मोहि हुम्मस लागे'' की तर्ज पर एक-दो न्यूज् चैनल ने सर्वे प्रसारित किया हो तो बाकी भी उसके साथ चल पडे। सब चल रहे हैं तो अपन भी चल पडें, ऐसा नहीं सोच रहे हैं न्यूज् चैनल्स। दरअसल इसके पीछे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बड़ा छिपा एजेंडा है। सोचने की बात है कि पांच विधानसभा के चुनाव परिणाम आने के बाद कुछ दिनों तक न्यूज् चैनल्स आम आदमी पार्टी की दुदुंभी बजा रहे थे। अरविन्द केजरीवाल को प्रधानमंत्री की दौड़ में दूसरे नंबर पर ला दिया था और राहुल गांधी को इस दौड़ में काफी पीछे कर दिया था। न्यूज् चैनल्स ने कहना शुरु किया कि नरेन्द्र मोदी के मार्ग में केजरीवाल चट्टान बनकर खडे हो गए हैं। श्री मोदी को इस चट्टान को तोड़ना होगा अन्यथा श्री मोदी की इच्छा पूरी नहीं हो सकती। ऐसा प्रचार कि भारतीय जनता पार्टी के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं। सोच में पड़ गई पार्टी कि कहीं किया धरा सब गुड-ग़ोबर न हो जाए। सोचा था क्या, क्या हो गया- यह न हो जाए। लेकिन जनवरी के मध्य से ही (8 दिसम्बर, 2013 को चुनाव परिणाम आए) न्यूज् चैनल्स के स्वर बदले। अचानक कई न्यूज् चैनल्स ने 2014 लोकसभा चुनाव के लिए सर्वे करा दिया और रोज ही सर्वे कराने लगे। एक चैनल ने तो घोषणा ही कर दी कि कांग्रेस की ऐतिहासिक हार निश्चित है। राहुल गांधी प्रधानमंत्री की दौड़ में कहीं नहीं ठहरते। कांग्रेस की लुटिया तो डूबेगी ही।


विचार करने की बात यह है कि कुछ न्यूज् चैनल्स ऐसा क्यों करने लगे। आम आदमी पार्टी को पीछे ढकेल कर नरेन्द्र मोदी को पुन: सामने लाने के पीछे कारण क्या है और इसके लिए रोज-रोज सर्वे कराके उसका परिणाम दिखाने के पीछे मकसद क्या है। मीडिया जानता है कि किसी बात को, किसी धारणा को बार-बार बताया जाए तो लोगों के दिमाग में वह घर कर लेती है और लोग उसे सत्य मानकर उसके अनुरूप आचरण करने लगते हैं। समाज की मानसिकता बनाने में मीडिया की प्रमुख भूमिका होती है। युगों से यह होता आ रहा है। बार-बार यह बताया गया कि स्त्री को पुरुष के अधीन होना चाहिए तो स्त्रियों तक को ऐसा मानने विवश होना पड़ा कि स्त्री को पुरुष के अधीन होना चाहिए। ''अवगुन आठ सदा उर बसहिं...'' इस कथन को स्त्रियां भी सत्य मानने विवश की गईं। कहानियां गढी ग़ईं, कहावते बनाई गईं और लगातार समाज में प्रचार कर यह स्थापित कर दिया गया कि स्त्रियां दोयम दर्जे की होती हैं- ''तिरिया जनम झन देहु विधाता...।'' यह स्त्रियों ने दु:ख के साथ गाया। लेकिन प्रचार ने समाज में स्त्रियों की गौण स्थिति स्थापित कर दी। इसी तरह लगातार प्रचार ने यह भी स्थापित किया कि चार वर्ण विधि ने बनाए हैं। हिन्दू समाज में चार वर्ण होते हैं- हर वर्ण का काम निर्धारित है अत: अपना कर्म हर वर्ण को करना चाहिए, दूसरे वर्ण के कार्य में प्रवेश न करें- सब अपने-अपने धर्म का पालन करें। युगों से मीडिया ने कमजोर को यह महसूसकराने का काम किया कि कमजोर केवल कमजोर रहने ही पैदा हुआ है- यही विधि का विधान है। अज्ञानता में रखने और अंधविश्वास को सत्य मानने का भी काम मीडिया ने प्रचारित किया और कुछ लोग इसके वश में आज भी हैं। कहने का अर्थ यह कि किसी धारणा को पुष्ट करने मीडिया निरंतर एक ही तरह का प्रचार करते रहा है। व्यवस्था के साथ समझौता कर, समाज को उस खास व्यवस्था के पक्ष में करने का काम मीडिया करते रहा है और इसका लाभ वह उस ''व्यवस्था'' से उठाता रहा है, ''व्यवस्था'' का संरक्षण उसे मिलते रहा है। वर्तमान मीडिया  उस मीडिया का उत्तराधिकारी है। प्रचार उसे विरासत में मिली है।  मीडिया के इस चरित्र के खिलाफ भक्तिकाल में आवाज बुलंद की गई। आज इलेक्ट्रानिक मीडिया या कहें न्यूज् चैनल्स जो कर रहे हैं उसके पीछे यह कारण है कि मीडिया इस व्यवस्था का हित साध रहे हैं इसलिए लगातार प्राय: रोज ही चुनाव सर्वे पेश कर देश की जनता का ''मन'' एक खास की ओर मोड़ना चाहते हैं। दरअसल मीडिया आज की व्यवस्था का गुलाम है, उसके आदेश पर ही चलेगा और उसके आदेश पर ही चलने में उसका लाभ है- इसी से वह मनवांछित लाभ कमाता है। शासन प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार, महंगाई आदि पर चर्चा करने का आशय व्यवस्था-विरोधी होना नहीं होता। आमूलचूल व्यवस्था परिवर्तन की बात यह मीडिया नहीं करता। यह मीडिया वही कहता है जो इसके नियंता चाहते हैं। जो पार्टी इस व्यवस्था की मदद नहीं कर सकती अथवा जिस पार्टी की ताकत पर व्यवस्था को संदेह पैदा होने लगे उस पार्टी को बदलने में व्यवस्था क्षणभर की देरी बरदाश्त नहीं कर सकती। इस व्यवस्था को लगने लगा कि अब कांग्रेस उसके काम की नहीं रही अत: भाजपा पर दांव खेला जाए। इसलिए उसने आम आदमी पार्टी के बढ़ते प्रभाव को कम दिखाने और पुन: भाजपा को ताकतवर हो जाने का लगातार प्रचार अपने ''मीडिया'' के द्वारा कराना शुरू किया। रोज-रोज का सर्वे जनता का मन गढ़ने के उद्देश्य से किया जा रहा है। इलेक्ट्रानिक मीडिया का इतना भारी विस्फोटक रूप सामने है कि जनता के मन को मोड़ना पूर्व की अपेक्षा आसान हो गया है। पहले तो यात्राएं करनी पड़ती थीं, बरसात में कहीं आ-जा नहीं सकते थे, अब तो बारहो मास चौबीसों घंटे इस इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए सारे रास्ते आसान हो गए हैं-काहे की बरसात और काहे की ठंड। यह इलेक्ट्रानिक मीडिया तुरंत पहुंचकर तुरंत असर कर रहा है- गणेशजी ने दूध पिया... और यह खबर तुरंत समाज तक पहुंच गई और करोड़ों लोग गणेशजी को दूध पिलाने लगे। रावण का शव और परशुराम का फरसा दिखाने वाले भी न्यूज् चैनल्स रहे हैं, इसी तरह रोज ही सर्वे कर यह मीडिया एक मानस गढ़ रहा है। प्रचार का भयानक विस्फोट आदमी या कहें समाज के विवेक को कुंद कर देता है। इस मीडिया पर नियंत्रण की जरूरत नहीं। जरूरत है जन-मीडिया की और समाज को जनतांत्रिकता में शिक्षित करने की। मीडिया भोलेपन से कहता है कि जो घट रहा है वह हम दिखा रहे हैं। ऐसा है नहीं। दरअसल मीडिया चाहता है कि ऐसा हो, उस तरह की मानसिकता बनाता है और फिर वैसा होने लगता है।  

शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

चुनावी खर्च

खबर है कि निर्वाचन आयोग चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाने पर विचार कर रहा है। फिलहाल लोकसभा उम्मीदवार के लिए चुनावी खर्च की सीमा चालीस लाख और विधानसभा उम्मीदवार के लिए सोलह लाख रुपए है। इस हदबंदी को बढ़ाने की मांग काफी समय से होती रही है। राजनीतिक दल कहते आए हैं कि यह सीमा अव्यावहारिक है। चुनाव खर्च वास्तव में निर्धारित सीमा से बहुत ज्यादा होता है। इस विरोधाभास का नतीजा यह होता है कि उम्मीदवारों को अपने चुनावी खर्च का गलत ब्योरा देने के मजबूर होना पड़ता है। अपवादस्वरूप ही कोई दल या उम्मीदवार व्यय का सही विवरण देता होगा। इसलिए मौजूदा व्यय-सीमा बढ़ाई जानी चाहिए। समय-समय पर यह सीमा बढ़ाई भी गई है। मसलन, 2009 में लोकसभा प्रत्याशी के लिए खर्च की हदबंदी पच्चीस लाख रुपए थी। वर्ष 2011 में निर्वाचन आयोग वे इसे बढ़ा कर चालीस लाख रुपए कर दिया। अब अगले आम चुनाव से पहले एक बार फिर इस सीमा को बढ़ाने पर विचार हो रहा है। तमाम चीजों की लागत बढ़ने के मद्देनजर चुनावी खर्च की अधिकतम सीमा बढ़नी चाहिए। मगर सवाल है कि आयोग के प्रस्ताव के मुताबिक तीस से पचास फीसद की बढ़ोतरी कर दी जाती है, तो क्या पार्टियां उसे व्यावहारिक मान लेंगी? क्या उस हदबंदी का पालन होगा?

लोकसभा में भाजपा के उपनेता गोपीनाथ मुंडे ने पिछले साल सार्वजनिक रूप से यह कहा था कि 2009 के चुनाव में उन्होंने आठ करोड़ रुपए खर्च किए थे। इस पर आयोग ने उन्हें नोटिस जारी किया। मगर फिर क्या हुआ, पता नहीं। दरअसल, मुंडे ने जो कहा वह चुनाव की असलियत जानने वालों के लिए कोई हैरत की बात नहीं थी। मुख्य मुकाबले में रहने वाले तमाम उम्मीदवारों का खर्च निर्धारित सीमा से कई गुना ज्यादा होता है। अगर वे सही हिसाब दें तो जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123(6) के उल्लंघन के दोषी माने जाएंगे। इसलिए कोई सही हिसाब नहीं देता। पर मुद्दा सिर्फ उम्मीदवार का नहीं, पार्टियों के खर्च का भी है। राजनीतिक दलों के खर्च की कोई सीमा तय नहीं है। इसका फायदा उठा कर बहुत सारा चुनावी खर्च पार्टियों के खाते में दिखाया जाता है। अलबत्ता पार्टियों को अपने आय-व्यय का ब्योरा देना पड़ता है। पर उनके लिए अपनी आय का स्रोत बताने की कोई बाध्यता नहीं है। केंद्रीय सूचना आयोग ने कुछ महीने पहले राजनीतिक  दलों को भी सूचनाधिकार अधिनियम के दायरे में लाने का फैसला सुनाया था। पर एक-दो दलों को छोड़ कर बाकी सबने उसे अनावश्यक हस्तक्षेप करार दिया और अपनी संसदीय शक्ति के सहारे उस फैसले को नाकाम कर दिया। फिर, चुनावी आचार संहिता चुनाव की घोषणा होने के बाद लागू होती है। मगर पार्टियां और संभावित उम्मीदवार उसके पहले से चुनावी तैयारियों में जुट जाते हैं इसके मद्देनजर खर्च भी शुरू हो जाता है।


आगामी आम चुनाव के लिए अभी से विज्ञापनों और दूसरे माध्यमों से प्रचार शुरू हो गया है। इस सब पर खर्च की मर्यादा कैसे बांधी जाएगी? जब चुनाव नजदीक न हों, तब भी पार्टियों के संचालन पर काफी खर्च होता है। यह सब आता कहां से है? यों राजनीतिक दल यह दावा करते रहे हैं कि सारा खर्च वे अपने सदस्यों और समर्थकों से मिले चंदों से उठाते हैं। पर जानकारों से यह हकीकत छिपी नहीं है कि पार्टियों को बहुत सारा पैसा उद्योग घरानों से मिलता है। हमारी राजनीति के संचालन में काले धन की कितनी भूमिका है इस बारे में अलग-अलग अनुमान हैं। कई देशों में पार्टियों के लिए अपनी समस्त आय का स्रोत बताना कानूनन अनिवार्य है। हमारे देश में भी ऐसा प्रावधान होना चाहिए। सिर्फ उम्मीदवार के चुनावी खर्च की सीमा बढ़ाने से पारदर्शिता नहीं आ पाएगी।

महंगाई की फिक्र

रिजर्व बैंक ने एक बार फिर रेपो दरों में इजाफा कर दिया है। अलबत्ता सीआरआर यानी नकद आरक्षित अनुपात को रिजर्व बैंक ने इस बार भी यथावत रखा है। तीसरी तिमाही समीक्षा के साथ आई मौद्रिक नीति ने कमोबेश सभी को थोड़ा चौंकाया है। उद्योग जगत ने तो इस पर खुल कर निराशा भी जाहिर की है। जब भी रेपो दर बढ़ाई जाती है तो उसके पीछे महंगाई पर काबू पाने की चिंता होती है। हैरत की बात यह है कि दिसंबर में यह तर्क अधिक लागू होता था, क्योंकि नवंबर में महंगाई दर पिछले चौदह महीनों में सबसे ज्यादा थी। मगर दिसंबर में, जब रेपो दरों में बढ़ोतरी को अवश्यंभावी माना जा रहा था, रिजर्व बैंक ने उन्हें यथावत रखा। अब जबकि पिछले दिनों महंगाई में कुछ नरमी के आंकड़े आ चुके थे, यह उम्मीद की जा रही थी कि इस बार रिजर्व बैंक ब्याज दरों में कमी करेगा, या कम से कम उनमें कोई इजाफा नहीं करेगा। मगर इस बार भी रिजर्व बैंक ने सबको हैरत में डाल दिया।

चौथाई फीसद की बढ़ोतरी के साथ रेपो दर आठ फीसद और रिवर्स रेपो दर सात फीसद हो गई है। लिहाजा, यह अंदेशा जताया जा रहा है कि इस बढ़ोतरी से मकान, वाहन आदि के लिए बैंकों से मिलने वाले कर्ज महंगे हो जाएंगे, लोगों को बैंक-ऋणों पर मासिक किस्त पहले से ज्यादा चुकानी होगी। पर रिजर्व बैंक ने यह आश्वासन दिया है कि नीतिगत दरों में और सख्ती की संभावना नहीं है। रेपो दरों में ताजा बढ़ोतरी को लेकर भले अचरज जताया गया हो, पर यह इतने आश्चर्य की बात नहीं है। अगले आम चुनाव में तीन महीने ही रह गए हैं। ऐसे में महंगाई को लेकर केंद्र सरकार की फिक्र का असर रिजर्व बैंक पर भी रहा होगा। नवंबर में खुदरा महंगाई करीब ग्यारह फीसद थी। दिसंबर में थोड़ी कमी दर्ज होने के बावजूद यह साढ़े नौ फीसद और दस फीसद के बीच थी, जो कि चिंताजनक स्तर ही कहा जाएगा। दूसरे, पिछले महीने जो कमी दर्ज हुई वह मौसमी भी साबित हो सकती है, क्योंकि यह मुख्य रूप से सब्जियों के दामों में आए उतार के कारण थी। जबकि अन्य उपभोक्ता मदों में राहत का कोई रुझान नहीं दिखा है। दूसरे, रिजर्व बैंक ने अपने आकलन में पाया है कि थोक महंगाई सूचकांक के गैर-खाद्य मदों में मांग का दबाव बना हुआ है। इसलिए नीतिगत दरों में चौथाई फीसद की बढ़ोतरी से निवेश और बाजार को लेकर ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं है। पर यह आकलन सही है तो फिर मौजूदा वित्तवर्ष में विकास दर के पांच फीसद से नीचे रहने के रिजर्व बैंक के अनुमान से उसकी संगति कैसे बैठती है?

रिजर्व बैंक का मानना है कि इस साल के अंत तक महंगाई दर औसतन आठ फीसद रहेगी। यानी खुद उसके अनुमान के मुताबिक उस पर महंगाई की फिक्र करने का दबाव बना रहेगा। फिर, उसने यह भी कहा है कि आगे से केवल उपभोक्ता मूल्य सूचकांक यानी खुदरा बाजार की कीमतों को ही मौद्रिक समीक्षा का आधार बनाया जाएगा। यह निर्णय स्वागत-योग्य है, क्योंकि आम लोगों का वास्ता खुदरा बाजार से ही होता है, थोक बाजार से नहीं। पर ऐसे में मौद्रिक नीति की समीक्षा पर महंगाई की चिंता का दबाव पहले से कहीं अधिक होगा। यह स्थिति मुद्रास्फीति नियंत्रण और विकास दर में से किसे प्राथमिकता दी जाए, हमेशा बनी रहने वाली इस दुविधा से रिजर्व बैंक को छुटकारा नहीं दिला सकेगी। पर असल बात यह है कि मौद्रिक कवायद की अपनी सीमाएं हैं। चाहे महंगाई पर काबू पाना हो या निवेश के लिए उपयुक्त माहौल बनाना, इसकी ज्यादा उम्मीद सरकार से की जानी चाहिए।

  

पार्टियों में सबसे बड़ा भ्रष्टाचार

सूचना के अधिकार का मतलब है- सरकार के सच को जानने का अधिकार! यह अधिकार 2005 के पहले तक सांसदों, विधायकों और पार्षदों तक सीमित था। वे सदन में खड़े होकर प्रश्नोत्तर काल में सरकार को आड़े हाथों ले सकते थे, लेकिन जनता बिलकुल निहत्थी थी। यदि किसी आम आदमी को सरकार के किसी विभाग से कोई जानकारी चाहिए होती थी तो वह नहीं मिल सकती थी यानी सरकार केवल सांसदों और विधायकों के प्रति ही जवाबदेह थी। जनता के प्रति नहीं। उस जनता के प्रति नहीं, जो इन सांसदों और विधायकों को चुनकर भेजती है। अर्थात सरकार उसके असली मालिक को जवाब देने के लिए बाध्य नहीं थी, लेकिन 2005 के  सूचना का अधिकार कानून में यही नई बाध्यता कायम कर दी गई है कि  उसे जनता को जवाब देना होगा।

सूचना के अधिकार के अंतर्गत अब कोई भी नागरिक सरकारी काम-काज के बारे में जानकारी मांग सकता है। वह एक अर्जी लिखे, 10 रुपए शुल्क भरे और 30 दिन के अंदर जवाब पाए। इस अधिकार का कुछ लोग दुरुपयोग भी करते हैं, लेकिन इसने शासन-तंत्र के कान खड़े कर दिए हैं। अब मंत्री और नौकरशाह किसी मामले पर जब भी कोई फैसला करते हैं तो वे अतिरिक्त सावधानी बरतते हैं। उन्हें डर लगा रहता है कि सूचना के अधिकार के तहत अगर उनकी कारगुजारियां, सारी बातें जनता के सामने आ गईं तो क्या होगा?

भ्रष्टाचार तो अब भी जारी है, पक्षपातपूर्ण और गलत फैसले अब भी होते हैं, लेकिन अब उनको ढंकने का विशेष इंतजाम होता है। सबसे पहले तो इस कानून के अंदर ही छोड़ी गई गलियों में से रास्ते निकाल लिए जाते हैं। कभी गोपनीयता का, कभी राष्ट्रीय सुरक्षा का और कभी निजता का बहाना बना लिया जाता है और सूचनाओं पर कंबल ढांक दिया जाता है। इसके अलावा अभी भारत की जनता भी इतनी जागरूक नहीं हुई है कि वह बारीकियों में उतरकर सरकार को उसकी करतूतों का आईना दिखा सके। इसके बावजूद सत्तारूढ़ दल और सरकार के नेता सूचना के अधिकार को भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी उपलब्धि बताते हुए नहीं अघाते।

यदि सचमुच लोकतंत्र का अर्थ जनता के लिए, जनता द्वारा जनता की सरकार है तो फिर जनता को यह अधिकार क्यों नहीं मिलता कि वह सिर्फ सरकार ही नहीं, राजनीतिक दलों की भी निगरानी करे। सरकारें तो अपने दलों की सेविकाएं होती हैं। सरकार में बैठे नेतागण अपने पार्टी-नेताओं के इशारों पर नाचते हैं। सरकारों के असली मालिक तो उनके राजनीतिक दल होते हैं। क्या हमारे देश के प्रधानमंत्रियों और मुख्यमंत्रियों का चुनाव आम मतदाता करते हैं। वे तो चुने जाते हैं, नामजद किए जाते हैं, उनकी पार्टियों के द्वारा, उनकी पार्टी के अध्यक्षों के द्वारा! इसीलिए वे जो भी अच्छा या बुरा काम करते हैं, वह जाता है, पार्टी के खाते में! पार्टी ही चुनाव हारती और जीतती है।

सरकार के मंत्री और नौकरशाह भी भ्रष्टाचार करते हैं, पार्टी की खातिर ही! पार्टी को चलाने के लिए करोड़ों-अरबों की जरूरत होती है और चुनाव लडऩे के लिए अरबों-खरबों की। यह जरूरत कौन पूरी करता है? यह पैसा कहां से आता है, कैसे आता है? यह सरकार से आता है। चोर-दरवाजों से आता है। जब मंत्रिगण रंगे हाथों पकड़े जाते हैं तो वे पार्टी-कोष का छाता तान लेते हैं। जब उन्हें हटाने की हवा बहने लगती है तो वे पार्टी-अध्यक्ष से जाकर अपनी 'पार्टी-सेवाकी दुहाई देने लगते हैं।

वे भ्रष्टाचार करते हैं, खुद के लिए भी, लेकिन उसकी सफाई देते वक्त वे पार्टी-कार्यकर्ताओं की मांग पूरी करने का दम भरते हैं। पार्टी के लिए कोष इकट्ठा करने के नाम पर बेहिसाब रिश्वतें ली जाती हैं। रिश्वत देने वालों को अंधाधुंध फायदे दिए जाते हैं। रिश्वत देने वाले लोग रिश्वत लेने वाले मंत्रियों से कहीं अधिक घाघ होते हैं। वे एक देते हैं तो बदले में दस ले लेते हैं। इसीलिए सरकार में बेलगाम भ्रष्टाचार होता रहता है। सरकारी भ्रष्टाचार की जड़ पार्टी-भ्रष्टाचार में पलती है। पार्टी-भ्रष्टाचार सरकारी भ्रष्टाचार की अम्मा है। पार्टी-भ्रष्टाचार इसलिए दबा रहता है कि उसका कोई सही हिसाब-किताब नहीं रखा जाता। पैसे आने पर किसी को रसीद नहीं दी जाती और पैसा बांटने पर किसी से कोई पावती लिखाई नहीं जाती। सब काम जबानी होता है। जो काम लिखित में होता है, वह हाथी के दिखाने के दांत होते हैं। आयकर विभाग को कोई पार्टी दो हजार करोड़, कोई एक हजार करोड़ और कोई दो-तीन सौ करोड़ रु. की आमदनी दिखा देती है। ये दिखाने के दांत हैं और जो खाने के असली दांत हैं, जरा उनके बारे में सोचिए। वे कितने लाखों-करोड़ के होंगे? लाखों-करोड़ों नहीं, अरबों-खरबों के!

अरबों-खरबों का यह भ्रष्टाचार क्यों ढंका-दबा रह जाता है? क्योंकि हमारे ज्यादातर राजनीतिक दल प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बन गए हैं। हमारी पार्टियों का असली रूप क्या है? कोई मां-बेटा पार्टी है, कोई बाप-बेटा पार्टी है, कोई पति-पत्नी पार्टी है, कोई साला-जीजा पार्टी है, कोई बाप-बेटी पार्टी है। ये पार्टी-मालिक अपने-अपने भ्रष्टाचारों पर कुंडली मारे बैठे रहते हैं। ये टिकिट बांटने में पैसे बटोरते हैं। पैसे का यह लालच पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र को भी चकनाचूर कर देता है। न तो पार्टी पदाधिकारियों का चुनाव विधिवत होता है न उम्मीदवारों का। वे ही उम्मीदवार प्राथमिकता पाते हैं, जो मंत्री बनने पर पैसों के पेड़ बन सकें ये उम्मीदवार चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित खर्चे की सीमा का सरासर उल्लंघन करते हैं। उस सीमा से 100-100 गुना ज्यादा खर्च करते हैं और फिर सरकार में आने पर उसी खर्च को वे ब्याज समेत वसूलते हैं। सरकारी भ्रष्टाचार की जड़ यही है।

इसीलिए सूचना का अधिकार राजनीतिक पार्टियों पर सबसे पहले लागू होना चाहिए था। राजनीतिक पार्टियां सरकारों के मुकाबले कहीं अधिक सार्वजनिक होती हैं। सरकारी सच जानने से भी ज्यादा जरूरी है, देश का राजनीतिक सच जानना। यदि राजनीति शुद्ध हो जाए, यदि पार्टियों में आर्थिक शुचिता आ जाए तो सरकार को शुद्ध रखना ज्यादा सरल होगा, लेकिन असली प्रश्न यह है कि क्या हमारे नेतागण शुद्ध सरकार चाहते हैं? यदि चाहते होते तो राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के बाहर रखने पर ये सारे मौसेरे भाई एक क्यों हो गए? कोई दल तो बोलता कि हम अपना सब सच सार्वजनिक करने को तैयार हैं? सारी पार्टियां अपना पेट छिपाए क्यों बैठी हैं? पार्टी-सच, सरकारी-सच से कहीं अधिक गंभीर होता है।

चिंता विश्व शांति की या इजराइली सुरक्षा की

गत वर्ष 24 नवम्बर को जब 'ई3 , 3' (ईयू के तीन देश-ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी तथा अमेरिका, रूस और चीन) तथा ईरान' 'रेसीप्रोकल मीजर्स' खोजने में सफल हुए थे  लेकिन तब इत्मीनान नहीं हो पाया था कि ईरान अपना यूरेनियम एनरिचमेंट कार्यक्रम वास्तव में बंद कर देगा। लेकिन इसकी उम्मीद थी क्योंकि यह मालूम था कि ईरान और अधिक समय तक अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों का सामना या तो कर नहीं पाएगा या फिर उसे भारी नुकसान उठाना पड़ेगा।  हालांकि उस समय यह प्रश्न भी उठा था कि आखिर पश्चिमी विश्व ने जिस तरह से ईरान के सम्भावित बम को दुनिया के सामने सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश करने की कयावद की, वैसी कवायद पाकिस्तान के बम को लेकर क्यों नहीं की गई? यही प्रश्न अभी मौजूद है जब  ईरान ने अपने यूरेनियम एनरिचमेंट कार्यक्रम को बंद करने की प्रक्रिया पर अमल (20 जनवरी 2014 से) करना शुरू कर दिया है। तो क्या इस तरह के कार्यक्रमों पर दुनिया के शक्तिशाली शासकों और उनकी चेरी बनी वैश्विक संस्थाओं को दोहरा मापदण्ड अपनाना चाहिए? यह भी सोचना होगा कि क्या यूरेनियम एनरिचमेंट प्रक्रिया से जुड़े अन्य देश तेहरान के साथ हुए समझौते के बाद ऐसा करने भौमिकीय कार्यक्रमों को बंद कर देंगे? यदि नहीं, तो फिर अकेले ईरान को लेकर इतनी हाय-तौबा क्यों मचाई गई? एक सवाल यह भी है कि क्या इस समझौते के बाद ईरान को  'एक्सिस ऑफ एविल' से मुक्त कर दिया जाएगा और वह पश्चिमी शक्तियों के साथ बातचीत के विहारों में मुक्त रूप से विचरण कर सकेगा?

नवम्बर में जो पी5+1 के साथ ईरान ने जिस अंतरिम समझौते को स्वीकार किया था, उस पर 20 जनवरी से अमल आरम्भ हो गया। समझौते के अनुसार ईरान 5 प्रतिशत से अधिक यूरेनियम एनरिच नहीं करेगा, 20 प्रतिशत एनरिच्ड यूरेनियम का पूरा हिस्सा समाप्त करेगा, मीडियम एनरिच्ड स्टॉकपाइल्स को न्यूट्रलाइज करेगा, ईराक के हैवी वाटर प्लांट को आगे विकसित करने से रोकेगा, और सेंट्रीफ्यूज नहीं लगाएगा, उसका 3.5 प्रतिशत एनरिच्ड यूरेनियम छह महीने बाद भी इतना ही रहेगा तथा आईएईए के निरीक्षकों की मॉनीटरिंग बढ़ायी जाएगी जिसमें नांताज और फ रादो न्यूक्लियर साइट्स की प्रतिदिन निगरानी भी शामिल होगी। इसके बदले में  'पी5+1' देश आंशिक रूप से प्रतिबंधों में ढील देने के साथ-साथ उसके तेल के वर्तमान स्तरों तक खरीद की अनुमति देंगे, अर्ध्दकीमती धातुओं और एयरलाइंस पर लगे प्रतिबंधों को निलम्बित करेंगे और प्रतिबध्दता का अनुपालन करने पर उसे 4.2 डॉलर फॉरेक्स रिजर्व प्राप्त करने की अनुमति देंगे।

ईरान के न्यूक्यिलयर प्रोग्राम को बंद कराने के लिए अमेरिका और उसके सहयोगियों की तरफ से जो प्रयास हुए क्या उनके केन्द्र में विश्व शांति थी या फिर इजराइली सुरक्षादरअसल ईरान को परमाणु हथियार बनाने से रोकने की वर्तमान कोशिशें दो महत्वपूर्ण बिंदुओं की ओर आकर्षित करती हैं।  प्रथम-ईरान की परमाण्विक महत्वाकांक्षाओं का अंत करने के लिए अमेरिका और इसके पश्चिमी सहयोगी देशों के प्रयासों में दिखती प्रतिबध्दता। पर खास बात यह है कि इन देशों के इस दिशा में प्रयास अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) के नवंबर 2011 के उस आकलन के बाद तेज हुए, जिसमें कहा गया था कि ईरान वास्तव में परमाणु हथियार बना रहा है और इसकी प्रक्रिया उस खतरनाक स्थिति तक पहुंच चुकी है, जहां से इसे रोका नहीं जा सकेगा। इस आकलन के बाद अमेरिका और उसके सहयोगियों को लग रहा था कि ईरान के खिलाफ कड़े कदम उठाने में विफल रहने पर इजराइल आक्रामक सैन्य कार्रवाई की ओर बढ़ सकता है। द्वितीय बिंदु इस धारणा के इर्द-गिर्द घूमता है कि ईरान की परमाणु क्षमता अकेले इजराइल के लिए ही खतरा नहीं बनती बल्कि वह अमेरिका के लिए भी खतरा साबित होती। इसके तत्काल बाद दिसंबर में यहूदी धर्म सुधार संघ के एक कार्यक्रम में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने स्पष्ट भी किया था कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम इजराइल ही नहीं, अमेरिका और पूरी दुनिया की सुरक्षा के लिए खतरा है। इसी क्रम में ओबामा ने दिसम्बर 2011 में ही एक बार फिर अपने वक्तव्य में कहा था कि उनकी पहली प्राथमिकता में केवल अमेरिकी सुरक्षा नहीं, बल्कि इजराइल की सुरक्षा भी है और वे ईरान से उत्पन्न खतरे को हल करने की कोशिशों को आगे बढ़ाते रहेंगे। क्या उस वक्त ओबामा के वक्तव्यों में इस तरह के शब्द अनायास ही आए थे या वास्तव में ये वे रणनीतिक शब्द थे चुनाव बड़ी ही सावधानी से किया गया थाये शब्द बता रहे थे कि अमेरिका जल्द ही ईरान पर अपनी नीति में कुछ बदलाव लाने वाला है।

यहां पर एक बात और महत्वपूर्ण है, वह यह कि ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षाओं को लेकर अमेरिकी नीतियों पर जारी बहस में पिछले एक दशक से यादा समय से यह सवाल बार-बार उठाया जा रहा है कि यह किसका मुद्दा है? अर्थात इजराइल का या फिर अमेरिका का? इस संदर्भ में इजराइल के पूर्व प्रधानमंत्री एरियल शेरॉन की वह सलाह बेहद महत्वपूर्ण है जिससे वे अपने सहयोगियों को बचने के लिए कहा करते थे।  वे उनसे कहते थे कि ईरान के मसले पर वे कोई उकसाने वाला बयान न दें क्योंकि ऐसी स्थिति में दुनिया ईरान के परमाणु कार्यक्रम को अकेले इजराइल की समस्या मान लेगी। इसलिए उनकी रणनीति अमेरिका पर यह दबाव बनाए रखने की होती थी कि वह अपने देश की चिंता करने से पहले इजराइल के हितों की चिंता करे। लेकिन अमेरिका के ही कुछ राजनीति विज्ञानी विशेषकर जॉन मियर शेमर और स्टीफन वाल्ट ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है कि ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षाओं से अमेरिका के अस्तित्व को कोई खतरा नहीं है। यदि रूस, चीन और यहां तक कि दक्षिण कोरिया के भी नाभिकीय क्षमतायुक्त होने के बावजूद अमेरिका शांति से रह सकता है, तो ईरान के नाभिकीय क्षमता युक्त होने के बाद क्यों नहीं? यही कारण है कि इजराइल के अमेरिका समर्थकों को ईरान का विरोध करने के लिए अमेरिकी राजनेताओं पर लगातार दबाव बनाना पड़ रहा है। लेकिन एक बात तो है कि अमेरिका अपने  ऊपर आते संकट को देखे बगैर ईरान के साथ दबाव और समझौते की नीति बिल्कुल न अपनाता। इसलिए यह संभव हो सकता है कि ईरान की नाभिकीय क्षमता दोनों के लिए खतरा हो।  यदि ऐसा नहीं है तो फिर यह मानना पड़ेगा कि इजराइल के हित अमेरिकी हितों के पूरक हैं इसलिए इजराइल के सामने आने वाला संकट दरअसल अमेरिका पर आने वाला संकट सिध्द होता, इसलिए अमेरिका को इस दिशा में प्रतिबध्दता के साथ कदम उठाना पड़ा।

लेकिन इसी अमेरिका ने दक्षिण एशिया में ऐसी ही शांति के लिए पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने का प्रयास नहीं किया, बल्कि उसे सम्पन्न होने दिया या फिर अप्रत्यक्ष रूप से उसे बढ़ावा दिया, क्योंजिस दौरान ईरान को जिस आधार पर एक्सिस ऑफ  एविल में शामिल किया जा रहा था उसी दौरान उसी आधार का नकारते हुए पाकिस्तान को क्लीन चिट दी जा रही थी जबकि वह परमाणु हथियार सम्पन्न भी था और आतंकवाद का एपीसेंटर भी। ईरान के मामले में तर्र्क  दिया गया कि ईरानी उन्मादी होते हैं। अगर उन्हें इजराइल का सिर मिले तो वे राष्ट्रीय हत्या करने से भी नहीं हिचकेंगे। लेकिन क्या पाकिस्तानी वास्तव में इतने शांत हैं कि कभी भी किसी को नुकसान पहुंचाए ही न? अगर ईरान अपना परमाणु बम हिजबुल्ला और हमास को सौंप सकता है तो पाकिस्तान भी अलकायदा और तालिबान, लश्कर-ए-तैयबा या मदहे शहाबा जैसे आतंकी संगठनों के साथ ऐसा ही कर सकता है। अब तक की सूचनाओं के अनुसार पाकिस्तान पहले से ही अपने परमाणु कार्यक्रम को तेज किए हुए है। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम भारत के मुकाबले कहीं अधिक तेजी से बढ़ रहा है। कई सूत्रों के अनुसार इस समय 70-90 अथवा 100 नाभिकीय हथियार हैं जिन्हें वह लगातार बढ़ाने की कोशिश में है। सीआईए के 'वीपन्स ऑफ मास डिस्ट्रक्शन' तथा 'एनर्जी डिपार्टमेंट' के डायरेक्टर ऑफ  इंटेलिजेंस के मुताबिक पाकिस्तान अगले दस वर्ष में 50 से 100 नाभिकीय बमों संबंधी अनुमानों की अपेक्षा कम से कम दो गुना न्यूक्लियर हथियार बना लेगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि 'पी 5' का एक सदस्य चीन लगातार पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम में शामिल है। अमेरिकी परमाणु वैज्ञानिकों थॉमस रीड और डैनी स्टिलमैन की पुस्तक 'न्यूक्लियर एक्सप्रेस' बताती है कि चीन ने 26 मई 1990 को अपने लोपनोर परीक्षण स्थल पर पाकिस्तान के लिए परमाणु परीक्षण किया था। लेकिन क्या उस कोई प्रतिबंध लगाया गया था?

बहरहाल ईरान का हौवा समाप्त होने के बाद देखना यह है कि दुनिया शांति की दिशा में कितने कदम आगे बढ़ पाती है?

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