गुरुवार, 9 जनवरी 2014

मत घबराइए बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पलायन से

यूपीए सरकार का विदेशी निवेश का मोह टूट नहीं रहा है।  देश की अर्थव्यवस्था ठंडी पड़ी हुई है। पहला कारण भ्रष्टाचार है। इससे उद्यमियों की लागत यादा आती है और सस्ते आयातित माल के आगे वे टिक नहीं पाते हैं।  दूसरा कारण बुनियादी संरचना में निवेश का अभाव है। सरकारी राजस्व का उपयोग मनरेगा और खाद्य सुरक्षा के माध्यम से गरीब को राहत पहुंचाने के लिए किया जा रहा है। हाईवे, भूमिगत जल के भरण तथा बिजली के ट्रांसफार्मरों में निवेश में कटौती की गई है। तीसरा कारण ऊंची ब्याज दर है।  खर्चों को पोषित करने के लिए सरकार भारी मात्रा में बाजार से ऋण ले रही है जिसके कारण ब्याज दर ऊंची है।

इन समस्याओं को हल करने पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। बल्कि इन्हें पर्दे के पीछे छुपाकर विदेशी निवेश हासिल करके ग्रोथ हासिल करने का प्रयास किया जा रहा है जैसे ऊबड़-खाबड़ मैदान क्रिकेट न खेल सकने का हल नया बैट खरीद कर खोजा जाय। इस दिशा में वाणिय मंत्री आनन्द शर्मा ने हाल में कहा ''सरकार द्वारा एफडीआई पॉलिसी को सरल बनाकर प्रयास किया जा रहा है कि भारत विदेशी निवेश आकर्षित करने का शीर्ष केन्द्र बना रहे।'' सरकार ने खुदरा में टेस्का के निवेश प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। ल्ेकिन दूसरी तरफ स्टील बनाने वाली पोस्को तथा आरसेलर मित्तल कम्पनियों ने भारत में निवेश करने के अपने प्लान रद्द कर दिए हैं। इसके बाद तेल उत्पादन करने वाली बीएचपी बिल्लीटन ने तेल की खोज करने के अपने प्लान रद्द कर दिए हैं। रिटेल कम्पनी वालमार्ट भी भारत में निवेश करने को हिचकिचा रही है।

समय बतायेगा कि सरकार के विदेशी निवेश आकर्षित करने के ये प्रयास सफल होंगे या नहीं। लेकिन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की इस हिचकिचाहट से भयभीत होने की जरूरत नहीं है। संभव है कि यह हमारे लिए लाभप्रद हो।

एनआइटी रूड़केला के प्रो. नारायण सेठी ने पाया है कि विदेशी निवेश का भारत के आर्थिक विकास पर प्रभाव नकारात्मक है जबकि बंगलादेश में सकारात्मक है यद्यपि दोनों ही प्रभाव गहरे नहीं हैं। कोलकाता यूनिवर्सिटी की सर्वप्रिया राय ने पाया कि भारत में विदेशी निवेश और आर्थिक विकास दर साथ-साथ चलते हैं। परन्तु उन्होंने यह भी पाया कि आर्थिक विकास तीव्र होने से विदेशी निवेश यादा मात्रा में आता है। यानि आर्थिक विकास का लाभ उठाने के लिए विदेशी कम्पनियां प्रवेश करती हैं। विदेशी कम्पनियों के आने से आर्थिक विकास दर नहीं बढ़ती है। कारक घरेलू आर्थिक विकास है। विदेशी निवेश उसका परिणाम है। दूसरे देशों में भी विदेशी निवेश और आर्थिक विकास का परस्पर एक- दूसरे के सम्बन्ध के ठोस परिणाम नहीं मिलते हैं।

विदेशी निवेश के दूसरे कथित सुप्रभावों के विषय में भी मैं आश्वस्त नहीं हूं। पहला सुप्रभाव तकनीक का बताया जाता है। नि:सन्देह विदेशी कम्पनियों के आने से भारतीय माल की क्वालिटी में इम्प्रूव्हमेंट हुआ है जैसे मारुति कार के आने से कारों की गुणवत्ता सुधरी है। परन्तु ऐसा सुधार घरेलू प्रतिस्पर्धा से भी आ सकता था। ज्ञात हो कि सरकार ने कई दशक तक टाटा को कार उत्पादन का लाइसेंस नहीं दिया था। दूसरे उद्यमियों को कार उत्पादन का लाइसेंस दे देते तो प्रतिस्पर्धा गरमाती और गुणवत्ता में सुधार हो जाता। अत: तकनीकी सुधार विदेशी निवेश के कारण ही हो रहा है, ऐसा नहीं कहा जा सकता है।  विदेशी निवेश का पूंजी पर प्रभाव भी संदिग्ध है। जानकार बताते हैं कि भारत में आ रहे विदेशी निवेश का एक बड़ा हिस्सा घरेलू पूंजी के राउंड-ट्रिपिंग के कारण है। देश से काला धन बाहर भेजकर उसे विदेशी निवेश के रूप में देश में वापस लाया जा रहा है। स्विस बैंकों में भारतीयों की जमा राशि के विशाल होने के संकेत उपलब्ध हैं। जितनी मात्रा में हमें विदेशी पूंजी मिल रही है उससे यादा मात्रा में हमारी पूंजी बाहर जा रही है। अत: अपनी पूंजी की जरूरत को घरेलू पूंजी के पलायन को रोककर एवं स्विस बैंकों से पूंजी को वापस लाकर पूरा किया जा सकता है। हमारी अर्थव्यवस्था फूटे घड़े की तरह है। इसमें भारी मात्रा में पानी रिस रहा है। तुलना में कम पानी भरा जा रहा है। फिर भी हमारा ध्यान विदेशी निवेश के माध्यम से आ रहे इस थोड़े से पानी की ओर है। इन सभी कारणों से मैं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पलायन को अच्छा मानता हूं और आशा करता हूं कि भारत सरकार का ध्यान घरेलू पूंजी की ओर मुड़ेगा।

पास्को, आरसेलर, मित्तल तथा वालमार्ट का पलायन घरेलू जनता के विरोध के कारण हुआ है। इन बड़ी कम्पनियों द्वारा लागू किये जाने वाला पूंजी-सघन उत्पादन देश की जरूरतों के अनुरूप नहीं है। अमीर देशों में पूंजी अधिक और श्रमिकों की संख्या कम है। उनके लिए वालमार्ट की कम्प्यूटरीकृत वितरण प्रणाली सुलभ है। भारत में परिस्थिति बिल्कुल भिन्न है। हमारे नागरिकों के लिए खेती और नुक्कड़ की किराने की दुकानें जीवनदायिनी हैं। बड़ी कम्पनियों के प्रवेश से बेदखल हुए लोगों के पास जीविकोपार्जन का दूसरा विकल्प नहीं रहता है। वालमार्ट के द्वारा 30 प्रतिशत माल की खरीद देश में करने को स्वीकार नहीं करना बताता है कि इस कम्पनी का घरेलू उद्यमों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। अत: विदेशी निवेश केवल उन्हीं चुनिन्दा क्षेत्रों में आकर्षित करना चाहिए जिन क्षेत्रों में विदेशी कम्पनियां विशेष तकनीकें लेकर आती हैं। विदेशी निवेश के प्रस्तावों को तकनीकों के आडिट के बाद ही स्वीकृति देनी चाहिए।

बात बचती है चीन की। सही है कि चीन ने विदेशी निवेश को बड़े पैमाने पर आकर्षित किया है। विकास दर भी हमसे यादा है। परन्तु चीन में उद्यमिता की परम्परा कम्युनिस्ट शासन के दौरान कम हो चुकी थी। उनके लिए विदेशी निवेश को आमंत्रित करना जरूरी था। दूसरे, चीन की तीव्र विकास दर का मूल कारण ऊंची घरेलू बचत दर है। भारत की तरह चीन में विदेशी निवेश का प्रभाव वास्तव में नकारात्मक हो सकता है। परन्तु ऊंची घरेलू बचत दर के साये में यह नकारात्मक प्रभाव छिप जा रहा है।


भ्रष्टाचार, बुनियादी संरचना की खस्ताहाल हालत तथा ऊंचे ब्याज दरों की समस्याओं का सामना करने के स्थान पर विदेशी निवेश के माध्यम से सरकार इस कुशासन पर पर्दा डालने का प्रयास कर रही है। अपने घर को ठीक करने के अलावा विकास का दूसरा कोई उपाय नहीं है। कई अध्ययनों के संकेत मिलते हैं कि जिन देशों में घरेलू देशों की गवर्नेन्स की संस्थायें पुख्ता हैं उन देशों में विदेशी निवेशों का सुप्रभाव देखा जाता है। इससे पुष्टि होती है कि विदेशी निवेश अनावश्यक है। यदि हमारी गवर्नेन्स सुचारू है तो हम अपनी पूंजी का उपयोग करके अपने बलबूते पर आर्थिक विकास हासिल कर सकते हैं। तब हमें विदेशी निवेश की जरूरत नहीं है। इसके विपरीत यदि घरेलू गवर्नेन्स कमजोर है तो विदेशी निवेश का प्रभाव नकारात्मक हो जाता है। ऐसे में भी हमें विदेशी निवेश की जरूरत नहीं है। अत: बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पलायन से सबक लेते हुए हमें घरेलू समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए। टेस्को जैसे विदेशी निवेश की दो चार स्वीकृतियों को देने से संतोष नहीं करना चाहिए।

डॉ. भरत झुनझुनवाला

बुधवार, 8 जनवरी 2014

समुद्री घेराबंदी में जुटा चीन

पिछले दिनों चीन के पहले विमानवाहक पोत द लिआओनिंगने दक्षिण चीन सागर में विभिन्न प्रकार के परीक्षणों एवं प्रशिक्षण कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक पूरा किया। इस उपलब्धि के हासिल होने में विशेष बात यह रही कि दक्षिण चीन सागर में चल रहे सीमा विवाद के कारण तनावपूर्ण परिस्थितियों के बावजूद यह परीक्षण पूरा हुआ है। चीन की सरकारी संवाद समिति शिन्हुआ के अनुसार लिआओनिंग की युद्ध प्रणाली का विस्तार से परीक्षण किया गया और 37 दिवसीय परीक्षण अवधि के दौरान युद्ध अभ्यास भी कराया गया। 37 दिनों तक चले इस परीक्षण अभियान और युद्धाभ्यास में विमानवाहक पोत की युद्ध क्षमता, ऊर्जा, शक्ति प्रणाली तथा समुद्र में उसकी गति की क्षमता का भी परीक्षण किया गया। लिआओनिंग के इन परीक्षणों में लड़ाकू विमानों, नौसनिक पोतों और पनडुब्बियों ने भाग लिया।

ऐसा करके चीन ने हिन्द महासागर व प्रशान्त महासागर में अपनी नौसैनिक शक्ति दिखाई थी। चीन ने यह प्रदर्शन तब किया जब चीन और आसियान समूह के कई देशों के बीच दक्षिण चीन सागर के द्वीप समूहों को लेकर विवाद बढ़ चुका है। तब चीन के सैन्य अधिकारियों ने कहा था कि इसका इस्तेमाल अनुसंधान प्रयोग और प्रशिक्षण के लिए किया जाएगा। इस पोत से चीन की नौसेना में एक नया आयाम जुड़ गया जो हिन्द महासागर में भारत सहित अन्य देशों के लिए एक बड़ी चुनौती बनने में सहायक सिद्ध होगा। अगस्त, 2011 में सम्पन्न पोत के पहले पांच दिनों के परीक्षणों के बाद इसमें और उपकरण जोडऩे के उद्देश्य से इसे गोदी में लाया गया था। यह कार्य पूरा हो जाने के बाद इसे पुन: परीक्षण के लिए लिआओनिंग प्रांत के दालियान बन्दरगाह से पानी में उतारा गया। इस पोत पर लड़ाकू विमानों के उतरने के लिए इसके डैक के परीक्षण और इसकी हथियार प्रणाली की जांच के लिए 29 नवंबर, 2011 को इसे प्रशान्त महासागर में उतारा गया। दूसरे दौर के इन परीक्षणों में विमानवाहक पोत के आयुध राडार, हथियार प्रणाली और विमान उतरने में इस्तेमाल किए जाने वाले डैक का परीक्षण किया गया। भारत को सुरक्षा चुनौतियां प्रस्तुत करने वाले चीन ने 25 नवंबर, 2012 को अपने पहले विमानवाहक पोत द लिआओनिंगपर पहली पीढ़ी के बहुउद्देश्यीय लड़ाकू जेट विमान जे-15 को उतारने में सफलता हासिल की। ये लड़ाकू विमान चीन की नौसेना को 25 सितंबर, 2012 को सौंपे गए थे और तभी से पोत पर इनके उड़ान परीक्षण जारी थे। चीन में निर्मित जे-15 लड़ाकू विमान हवा से हवा तथा हवा से जमीन पर मार करने वाली मिसाइलों को ले जाने में सक्षम हैं। नई उपकरण प्रणालियों से सुसज्जित 300 मीटर लम्बा यह पोत चीन निर्मित 33 जे-15 विमानों व हेलीकाप्टरों को ले जाने में सक्षम है। इस पोत पर 2000 नाविकों के दल को तैनात किया जा सकता है।

चीन ने इस विमानवाहक पोत को यूक्रेन से खरीदा है। यह पहले सोवियत नौसेना का युद्धपोत हुआ करता था। इसे सोवियत नौसेना के लिए 1980 के दशक में बनाया गया था। तब इसका नाम वारयाग था। सन् 1991 में जब सोवियत संघ का विघटन हुआ तब यह यूक्रेन के शिपयार्ड में खड़ा था और इसमें जंग लग रही थी। जब कुछ सोवियत युद्धपोतों को कबाड़ के तौर पर तोड़ा जा रहा था तो चीन की एक कम्पनी ने इसे खरीद लिया। तब उसने यह कहा था कि वह इसे मकाओ में तैरता हुआ कसीनो बनाना चाहती है। बाद में इसे दालियान शिपयार्ड में तैयार किया गया। आने वाले दिनों में चीन ऐसे छह विमानवाहक पोत तैनात करने की योजना में है।

इस समय चीन के पास एक विमानवाहक पोत, 25 विध्वंसक पोत, 47 जलपोत, 63 पनडुब्बियां, 332 तटवर्ती निगरानी जहाज, 2012 नौ सैनिक बेड़े एवं आठ नौ सैनिक अड्डे हैं। चीन की तुलना में भारत के पास एक विमानवाहक पोत, आठ विध्वंसक, 12 जलपोत, 15 पनडुब्बियां, 31 तटवर्ती निगरानी जहाज, 324 नौ सैनिक बेड़े एवं सात नौसैनिक अड्डे हैं।  अभी तक सुरक्षा परिषद के प्रमुख पांच देशों में चीन ही अकेला ऐसा देश था जिसके पास विमान वाहक पोत नहीं था जबकि अमेरिका, रूस, भारत, जापान व दक्षिण कोरिया के पास यह ताकत थी। चीनी नौसेना में अभी बेइहाई, डोगहाई व ननहाई नामक तीन बेड़े हैं। इन सभी के अपने सपोर्ट अड्डे, छोटे बेड़े, समुद्री गैरिसन कमान्ड, विमान डिवीजन व समुद्री ब्रिगेड हैं। अब चीन ने प्रशांत महासागर के साथ-साथ हिन्द महासागर में भी अपनी गतिविधियां बढ़ा दी हैं।

हिन्द महासागर में अपनी ताकत बढ़ाने के लिए चीन ने म्यांमार को अपना दोस्त बनाकर उससे सैन्य संबंध बढ़ाए। चीन म्यांमार को परमाणु व मिसाइल क्षेत्र में सहयोग प्रदान कर रहा है। चीन ने म्यांमार के द्वीपों पर नौसैनिक सुविधाएं बढ़ा रखी हैं जिससे हिन्द महासागर में भारतीय नौसेना की गतिविधियों पर नजर रखी जा सके। म्यांमार के हांगई द्वीप पर राडार व सोनार जैसी संचार सुविधाओं को स्थापित किया जाना चीन की ही देन है। म्यांमार के क्याकप्यू में भी चीन बन्दरगाह बना रहा है और थिलावा बन्दरगाह पर भी चीन का आवागमन है।

मालदीव व मारीशस के साथ चीन के बेहतर सम्बन्ध बन चुके हैं। मालदीव ने चीन को मराओ द्वीप लीज पर दे रखा है। चीन इसका उपयोग निगरानी अड्डे के रूप में कर रहा है। इसके अलावा चीन बंगलादेश के चटगांव बन्दरगाह का विस्तार कर रहा है। चीनी युद्धपोतों का आवागमन यहां पर होता रहता है। श्रीलंका के हम्बन टोटा में बन्दरगाह बना रहा है। पूरा निर्माण होने के बाद यहां पर चीन का आधिपत्य 85 फीसदी होगा। यहां से मात्र 10 नॉटिकल मील की दूरी पर दुनिया का सबसे व्यस्ततम जल मार्ग है जहां से लगभग 200 जहाज प्रतिदिन गुजरते है। चटगांव व हम्बन टोटा भारत के समुद्री तटों के अति निकट पड़ते हैं। अंडमान निकोबार द्वीप समूह से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कोको द्वीप पर चीन अपनी ताकत बढ़ाकर आधुनिक नौसैनिक सुविधाएं स्थापित कर चुका है। चीन जिबूती, ओमान व यमन जैसे देशों के बन्दरगाहों का इस्तेमाल अपने लिये करने हेतु ताकत बढ़ा चुका है।

  

मंगलवार, 7 जनवरी 2014

खारे समुद्र में मीठे पानी का भंडार

हो सकता है एक दिन हमें मीठे पानी के लिए समुद्र में कुएं खोदने पड़ें। वैज्ञानिकों ने ऑस्ट्रेलिया, चीन, उत्तरी अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका के तटों के पास समुद्र के नीचे स्वच्छ जल के भंडारों का पता लगाया है। ये इतने बड़े हैं कि इनसे दुनिया को जल संकट से निजात दिलाने में मदद मिल सकती है। नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया में समुद्री तल के नीचे कई किलोमीटर तक फैले क्षेत्र में करीब पांच लाख घन किलोमीटर पानी मौजूद है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह पानी कम लवणता का है और इससे दुनिया के समुद्री तटों पर बसे शहरों को जल आपूर्ति की जा सकती है। ऑस्ट्रेलिया की फलाइंडर्स युनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ एनवायरनमेंट के वैज्ञानिक डॉ. विंसेंट पोस्ट का मानना है कि इस पानी की मात्रा पिछली एक सदी के दौरान जमीन से निकाले गए पानी से सौ गुना ज्यादा है।

समुद्र में इस पानी की खोज एक बड़ी खबर है क्योंकि इससे कई दशकों तक दुनिया के कुछ इलाकों में पानी की मांग को पूरा किया जा सकता है। समुद के नीचे स्वच्छ जल की मौजूदगी की बारे में भूजल वैज्ञानिकों को पहले से कुछ जानकारी थी, लेकिन उनका खयाल था कि इस तरह के जलाशय दुर्लभ हैं और कुछ खास स्थितियों में ही पाए जाते हैं। नई रिसर्च से पता चलता है कि समुदी तल के नीचे इस तरह के जलाशय बड़ी मात्रा में मौजूद हैं। समझा जाता है कि इन जलाशयों का निर्माण हजारों वर्षों के दौरान हुआ है। शुरू-शुरू में औसत समुदी स्तर आज की तुलना में बहुत नीचे था और समुदी तट दूर तक फैले हुए थे। बारिश का पानी जमीन में समा जाता था। समुद्री तटों की यह जमीन अब समुद्र के नीचे है। ऐसा पूरी दुनिया में हुआ है। करीब 20,000 वर्ष पहले जब ध्रुवीय टोपियां पिघलनी शुरू हुईं तो समुद्र का जल स्तर भी बढ़ने लगा। तब ये इलाके समुद्र में डूब गए थे। आश्चर्यजनक बात यह है कि समुद्र के खारे पानी का इन जलाशयों पर कोई असर नहीं हुआ है क्योंकि ये जलाशय मिट्टी की कई परतों से ढके हुए हैं।

डॉ.पोस्ट का कहना है कि इन समुद्री जलाशयों का स्वरूप भूजल के सामान्य भंडारों जैसा ही है, जिन पर दुनिया की बहुत कुछ आपूर्ति निर्भर है। समुद्री जलाशयों के पानी की लवणता बहुत कम है और उसे साफ पानी में बदला जा सकता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या हम इस पानी का उपयोग कर सकते हैं और क्या यह आर्थिक रूप से किफायती होगा? इस पानी को निकालने के दो तरीके हो सकते हैं। या तो हम समुद्र में खुदाई करें या फिर मुख्य भूमि से खुदाई करें। समुद में खुदाई करना बहुत महंगा पड़ सकता है। इसके लिए पहले जलाशय के स्रोत का आकलन करना पड़ेगा और समुद्र के लवण रहित पानी जैसे दूसरे जल स्रोतों की तुलना में उसकी लागत और पर्यावरण प्रभावों का अध्ययन करना पड़ेगा। डॉ.पोस्ट का मानना है कि समुद्र के खारे पानी को लवण रहित करने की सामान्य प्रक्रिया की तुलना में इस पानी को स्वच्छ जल में बदलने पर कम ऊर्जा खर्च होगी।

दुनिया में स्वच्छ जल की आपूर्ति के लिए बहुत दबाव है। तटों के आसपास नए जल स्रोत मिलने से हमारे सामने जल संकट से निपटने के नए विकल्प मिल सकते हैं लेकिन जिन देशों के पास समुद्र में स्वच्छ जल के भंडार मौजूद हैं उन्हें अपने समुद्री तल का प्रबंध बहुत ही सावधानी से करना पड़ेगा। मसलन जहां कम लवणता वाला पानी मौजूद है वहां हमें यह ध्यान में रखना पड़ेगा कि यह पानी किसी भी तरह से प्रदूषित नहीं हो पाए। वैज्ञानिकों ने चेताया है कि इन जलाशयों का प्राकृतिक नवीकरण संभव नहीं है। एक बार खत्म होने पर इनकी भरपाई नहीं हो पाएगी। समुद्री स्तर में बहुत ज्यादा गिरावट आने के बाद ही इन जलाशयों की भरपाई हो सकती है और बहुत लबे समय तक ऐसा होने वाला नहीं है।

- मुकुल व्यास

-साभारः नवभारत टाइम्स

भारत में जैविक खेती की संभावनाएं

भारत के अर्थशास्त्रियों  की अग्रणी संस्था इंडियन इकोनामिक एसोसिएशन का 96वां वार्षिक सम्मेलन 27 से 29 दिसम्बर को तमिलनाडु में मीनाक्षी विश्वविद्यालय में सम्पन्न हुआ। वैसे तो सम्मेलन में 12वीं पंचवर्षीय योजना एवं उसके बाद विकास संभावनाएं, भारतीय अर्थव्यवस्था में असंगठित गैर-कृषि क्षेत्र, क्षेत्रीय कृषि विकास तथा डॉ. भीमराव अंबेडकर के आर्थिक विचारो पर चर्चा की गईकिन्तु सम्मेलन के अध्यक्ष डॉ. एल.के. मोहनराव ने अपना अध्यक्षीय उद्बोधन जैविक खेती पर दिया। चूंकि जैविक खेती कृषि विज्ञान का विषय हैइसलिए परम्परागत आर्थिक सम्मेलनों एवं सेमीनारों में जैविक खेती सरीखे विषय चर्चा नहीं की जाती है। इस प्रकार  डॉ. एल.के. मोहनराव का अध्यक्षीय उद्बोधन लीक से हटकर था। उन्होंने बताया कि भारत सहित विश्व के अन्य देशों में प्रयोगों एवं खेती करनेवाले किसानों के अनुभव से सिध्द हो चुका है कि जैविक खाद के उपयोग से भूमि की जलधारण क्षमता बढ़ती है तथा मिट्टी की उर्वरकता बढ़ती है, इससे फसलों की उत्पादकता बढ़ती है तथा किसानों को उत्पादन लागत कम आती है तथा आमदनी बढ़ती है।  पर्यावरण की दृष्टि से भी जैविक खेती बहुत उपयोगी है। डॉ. मोहनराव राव ने समय की मांग को देखते हुए राष्ट्र के व्यापक हित में जैविक खेती को बढ़ावा देने का सुझाव दिया। 

डॉ. एल.के. मोहनराव ने  अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में जैविक खेती से संबंधित अनेक पहलुओं को विस्तार से छूने का प्रयास किया किन्तु उनके उद्बोधन से अनेक बातों का खुलासा नहीं हो सका। चूंकि अध्यक्षीय उद्बोधन सम्मेलन के उद्धाटन सत्र में होता है, इसलिए उस पर चर्चा एवं सवाल-जवाब नहीं हो पाता है।  इस कारण जैविक खेती से संबंधित अनेक सवाल अनुत्तरित ही रहे तथा जिज्ञासाओं का समाधान नहीं हो पाया। लाख टके का एक सवाल तो यही है कि  सरकार की वर्तमान जैविक खेती को  बढ़ावा देनेवाली नीति तथा इसके फायदों के  प्रचार प्रसार के बावजूद भारत के कुल फसली क्षेत्रफल के मात्र  8  प्रतिशत क्षेत्रफल पर ही जैविक खेती क्यों कर सिमटी हुई है।  भारत में जैविक खेती का क्षेत्रफल न केवल आस्ट्रेलिया व अर्जेटीना, बल्कि सयुंक्त राय अमरीका से भी पीछे है। यहां पर भारत में जैविक खेती लोकप्रिय न हो पाने के प्रमुख कारणों एवं आगे की संभावनाओं पर चर्चा करेंगे। 
    
सामान्यतया जैविक खाद के प्रयोग से की जानेवाली खेती को जैविक खेती कहा जाता है । वृहत् अर्थों में जैविक खेतीखेती की वह  विधि है जो जैविक खाद, फसल चक्र परिवर्तन तथा उन गैर-रासायनिक उपायों पर आधारित है, जो भूमि की उर्वरा  शक्ति को बनाए रखने के साथ ही पर्यावरण को प्रदूषित नहीं करती है।  इस प्रकार जैविक खेती के अंतर्गत एग्रो-इकोसिस्टम का प्रबंधन शामिल होता है । भारत में पुरातनकाल से जैविक  खेती की जाती रही है, किन्तु विश्व के अन्य देशों में पिछले 20 सालों से इसका प्रचलन बढ़ा है। पश्चिमी देशों में किसानों से अधिक वहां के उपभोक्ताओं का जैविक खेती की उपज से लगाव है। वहां के लोग  जैविक खेती द्वारा पैदा किए गए खाद्यान्न, सब्जी एवं फल का इतना अधिक क्रेज है  कि वे अधिक कीमत देकर उसको खरीदना व उपभोग करना चाहते हैं। 

भारत में जैविक खेती अपनानेवालों में व्यापार व उद्योग में सफलता प्राप्त करके खेती करनेवाले व्यवसायी अग्रणी हैं। इनके अलावा जैविक खेती अपनानेवालों में आदिवासी किसानों की तादाद भी बहुत बड़ी है। किन्तु 1960 के दशक से संश्लेषित  उर्वरकों का उच्च मात्रा में उपयोग करके उच्च पैदावार लेनेवाले किसान जैविक खेती अपनाने में फिसड्डी साबित  हुए  हैं।  दरअसल यह उनकी गलती नहीं है। भारत में 60 के दशक में हुई हरित क्रान्ति में  उच्च पैदावार वाले बीजों के साथ रासायनिक उर्वरकों का उच्च मात्रा में उपयोग का बहुत बड़ा योगदान माना जाता है। उन दिनों रासायनिक उर्वरकों का इतना अधिक प्रचार हुआ कि भारत के परम्परागत किसान भी  रासायनिक उर्वरकों का एन 60:पी30: के 10 की मानक मात्रा में उपयोग करके  प्रगतिशील किसान कहलाने लगे थे।  पिछले 20 साल में सरकार की नीति में बदलाव आया है। अब जैविक खेती करने वाले किसानों को प्रगतिशील किसान माना जाता है, किन्तु रासायनिक खेती के आदी हो चुके किसानों के लिए उसको छोड़कर जैविक खेती अपनाना कठिन हो रहा है। यह बात लगभग वैसी ही है जैसे कि मांसाहारी भोजन  के  फायदों का प्रचार प्रसार करके लोगों को मांसाहारी भोजन का आदी बनाया जाय तथा 30 साल बाद कहा जाय कि शाकाहारी भोजन सेहत व पर्यावरण के लिए फायदेमन्द है।  मांसाहारी भोजन का स्वाद चख लेने वालों के लिए उसका छोड़ना कठिन होता है, यही बात रासायनिक खेती से जैविक खेती के संबंध में लागू होती है।

भारत एवं विश्व के अन्य देशों के किसानों के अनुभव रहे हैं कि रासायनिक खेती को तत्काल छोड़कर जैविक खेती अपनाने वाले किसानों को पहले तीन साल तक आर्थिक रूप से घाटा हुआ था, चौथे साल ब्रेक-ईवन  बिन्दु आता है तथा पांचवें साल से लाभ मिलना प्रारम्भ होता है । व्यवहार में बहुत से किसान पहले साल ही घाटा झेलने के बाद पुन: रासायनिक खेती प्रारम्भ कर देते हैं। भारत में 70 प्रतिशत छोटी जोत वाले सीमित साधन वाले किसान हैं। अब तो इन किसानों के पास पशुओं की संख्या भी तेजी से कम होती जा रही है। जैविक खेती के लिए उन्हें जैविक खाद खरीदना होना होता  है। वैसे तो  जैविक खाद निर्माताओं की संख्या की दृष्टि से देखें तो भारत में साढ़े पांच लाख जैविक खाद निर्माता हैं, जो विश्व के जैविक खाद निर्माताओं के एक तिहाई हैं।  किन्तु भारत के  99 प्रतिशत खाद उत्पादक असंगठित लघु क्षेत्र के हैं तथा इनमें से अधिकांश  बिना प्रमाणीकरण करवाए  जैविक खाद की आपूर्ति करते हैं। जैविक खेती अपनाने वाले किसानों की शिकायत रहती है कि उन्हें उक्त  खाद से दावा की हुई उपज की आधा उपज भी प्राप्त नहीं होती तथा  भारी घाटा होता है।  रासायनिक खेती छोड़कर बाजार से जैविक खाद खरीदकर जैविक खेती अपनाने वाले इन छोटे किसानों के कटु अनुभव को देखकर आसपास के ग्रामों के अन्य किसान जैविक खेती करने का इरादा त्याग देते हैं। जैविक खेती न अपनाए जाने का यह एक बड़ा कारण है।


भारत में जैविक खेती की संभावनाएं तभी उजवल हो सकती हैं जब सरकार जैविक खेती करने वालों को प्रमाणीकृत खाद स्वयं के  संस्थानों से सब्सिडी पर उपलब्ध करवाए तथा चार साल के लिए आमदनी की गारंटी का बीमा की व्यवस्था करके  प्रारम्भिक सालों में होनेवाले घाटे की क्षतिपूर्ति करे। सरकार को पशुपालन को बढ़ावा देना चाहिए जिससे किसान जैविक खाद के लिए पूरी तरह बाजार पर आश्रित न रहे।

सोमवार, 6 जनवरी 2014

भारत और जापान में रक्षा वार्ता

जापान के रक्षा मंत्री इतसुनोरी ऑनडेरा 5-8 जनवरी 2014 के दौरान भारत यात्रा पर हैं। नवम्‍बर 2011 में भारत-जापान रक्षा मंत्रियों की बैठक के दौरान यह यात्रा निर्धारित हुई थी। दोनों देशों के रक्षा मंत्रियों के बीच आज बैठक हुई।

दोनों मंत्रियों ने क्षेत्रीय और वैश्विक सुरक्षा चुनौतियों पर अपने विचार रखें। इसके अलावा भारत-जापान के बीच द्विपक्षीय रक्षा सहयोग और आदान-प्रदान पर चर्चा हुई। उन्‍होंने क्षेत्र में शांति, स्‍थायित्‍व और समृद्धि के लिए भी चर्चा की। जापान के रक्षा मं‍त्री ने दिसम्‍बर 2013 से लागू जापान की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति और राष्‍ट्रीय रक्षा कार्यक्रम के दिशा निर्देशों के बारे में जानकारी दी। रक्षा मंत्री श्री ए के एंटनी ने इस  जानकारी के लिए उन्‍हें धन्‍यवाद दिया।

दोनों मंत्रियों ने भारत-जापान द्विपक्षीय रक्षा सहयोग और विभिन्‍न क्षेत्रों में अलग-अलग स्‍तरों पर किए गए आदान-प्रदान तथा 2011 में रक्षा मंत्रियों की बैठक के दौरान निर्धारित तीसरी रक्षा नीति वार्ता में प्रगति की सराहना की। इसके अतिरिक्‍त दूसरी टू प्‍लस टू वार्ता तथा जापान मेरीटाइम सेल्‍फ डिफेंस फोर्स और भारतीय नौसेना के बीच 19-22 दिसम्‍बर 2013 के दौरान दूसरे द्विपक्षीय प्रशिक्षण कार्यक्रम की प्रशंसा की।

दोनों मंत्रियों ने उच्‍च स्‍तर और कार्यकारी स्तर पर नियमित बातचीत की आवश्यकता और आदान-प्रदान, सेवाओं और शै‍क्षणिक अनुसंधान के लेन-देन के लिए अतिरिक्‍त प्रयासों तथा आपसी विश्‍वास मजबूत करने  एवं आपसी समझ बढाने की आवश्‍कता पर अपने विचार व्‍यक्‍त किए। उन्‍होंने भारत-जापान के बीच सुरक्षा वार्ता और सहयोग (समुद्री सुरक्षा के क्षेत्र में सहयोग भी शामिल) तथा रणनीतिक और वैश्विक सहयोग को मजबूत करने का फैसला भी लिया।

बैठक के दौरान दोनों मंत्रियों ने रक्षा सहयोग बढाने और आदान-प्रदान अपने विचार रखे जिन प्रमुख क्षेत्रों में सहयोग पर चर्चा हुई उनका विवरण दिया गया है।

·         नियमित रूप से वार्षिक आधार पर उच्‍च स्‍तरीय यात्रा आयोजित की जाएंगी। इसके तहत 2014 में भारत के रक्षा मंत्री जापान की यात्रा करेंगे।
·         दिल्‍ली में 2014 में तीसरी टू प्‍लस टू वार्ता और चौथी रक्षा नीति बातचीत (रक्षा स्‍तर के प्रशासनिक उप मंत्री अथवा सचिव स्‍तर) आयोजित की जाएगी।
·         संयुक्‍त राष्‍ट्र के शांति मिशन कार्यक्रमों को सेवाएं बढाना जापान के शांति मिशन कार्यक्रमों को प्रशिक्षण और अनुसंधान केंद्र, संयुक्‍त स्‍टाफ कॉलेज (जे पी सी), जापान की ग्राउंड सेल्‍फ डिफेंस फोर्स के केंद्रीय तैयारी बल और भारतीय सेना के संयुक्‍त राष्‍ट्र शांति मिशन केंद्र के बीच आदान-प्रदान बढाने का निर्णय भी लिया गया।
·         जापान मेरीटाइम सेल्‍फ डिफेंस फोर्स और भारतीय नौसेना के बीच नियमित रूप से द्विपक्षीय अभ्‍यास आयोजित करना। भारतीय नौसेना 2014 में संयुक्‍त अभ्‍यास के लिए जापान का दौरा करेगी। 
·         मानवतावादी सहायता पर विशेषज्ञ सेवाओं का आदान-प्रदान \ भारतीय सेना और जापान की ग्राउंड सेल्‍फ डिफेंस फोर्स के बीच त्रासदी के समय राहत सेवाएं और आतंकवाद के विरोध में सहयोग।
·         जापान की वायुसेना और भारतीय वायुसेना के बीच अधिकारियों, पेशेवर लेन-देन के तहत टैस्‍ट पायलटों एवं उड़ानों की सुरक्षा एवं परिवहन जहाजों के बेडों के पेशेवरों  का आदान-प्रदान तथा कर्मचारियों के बीच बातचीत की संभावनाओं पर विचार करना।


जापान के रक्षा मंत्री श्री ऑनडेरा ने यात्रा के दौरान भव्‍य स्‍वागत के लिए भारतीय रक्षा मंत्री को धन्‍यवाद दिया।

शनिवार, 4 जनवरी 2014

सुशासन से सुधरेगा इकोनॉमी का हाल

पिछले तीन वर्षों से हमारी अर्थव्यवस्था संकट में है। विकास दर लगातार गिर रही है, महंगाई बढ़ती जा रही है और रुपया टूट रहा है। इन सभी समस्याओं की जड़ में कुशासन ही दिखाई देता है। महंगाई बढ़ने का कारण है सरकार द्वारा अपने राजस्व का लीकेज किया जाना। जैसे सरकार का राजस्व एक करोड़ रुपया हो और उसमें 20 लाख रुपये का रिसाव करके अफसरों और नेताओं ने सोना खरीद लिया हो। अब सरकार के पास वेतन आदि देने के लिए रकम नहीं बची। ये खर्चे पूरे करने के लिए सरकार ने बाजार से कर्ज लिए।
कर्ज लेना आसान बनाने के लिए रिजर्व बैंक ने नोट छापे ताकि मुद्रा बाजार में रकम की उपलब्धता बढ़ जाए और सरकार आसानी से कर्ज उठा सके। एक करोड़ के नोट पहले ही प्रचलन में थे, अब 20 लाख के नोट और चक्कर काटने लगे। नए छापे गए नोटों की भूमिका खरीददार जैसी होती है। लिहाजा आलू, सीमेंट, कपड़ा आदि सभी वस्तुओं के दाम बढ़ने लगे, जैसे मंडी में आलू की सप्लाई पूर्ववत हो और खरीददार ज्यादा आ जाएं तो दाम बढ़ जाते हैं। इस प्रकार लीकेज के कारण ज्यादा नोट छापने पड़े और महंगाई बढ़ती गई।
कुशासन के मायने
ग्रोथ रेट गिरने का कारण भी रिसाव है। ग्रोथ रेट बढ़ाने के लिए व्यक्ति को खपत कम और निवेश ज्यादा करना पड़ता है। जैसे दुकानदार 2000 रुपया कमाए और 1000 निवेश करे तो ग्रो करता है। इसके विपरीत वह इतनी ही कमाई पर 3000 रुपया कर्ज लेकर उसे खर्च कर डाले तो फिसलने लगता है। पिछले दशक में सरकार ने कर्ज माफी, मनरेगा और राइट टु फूड के माध्यम से ऐसे ही खर्चों को पोषित किया है, जबकि हाईवे और रिसर्च में निवेश घटाया है। इससे गरीब को राहत मिली है लेकिन ग्रोथ दबाव में आ गई है और बेरोजगारी बढ़ी है। लोगों को रोजगार देने के बजाय अनाज बांट कर उनका वोट खरीदना कुशासन ही है।
रुपये के टूटने का कारण भी कुशासन है। हमारे उद्यमियों को भारी मात्रा में घूस देनी पड़ती है, अतः माल महंगा हो जाता है। वे माल का निर्यात नहीं कर पाते हैं, जबकि दूसरे देशों में लागत कम आती है और उनका माल सस्ता पड़ता है। निर्यात कम होने के कारण हमें डॉलर कम मात्रा में मिलते हैं। आयात ज्यादा होने के कारण डॉलर की डिमांड ज्यादा होती है। सप्लाई और डिमांड के असन्तुलन के कारण डॉलर महंगा और रुपया सस्ता हो जाता है। इस प्रकार हमारी सभी समस्याओं की जड़ में भ्रष्टाचार और कुशासन ही नजर आता है।
गवर्नेंस का ग्लोबलाइजेशन हो चुका है। पहले हम भ्रष्टाचार को अपनी सरहद के अंदर पाल-पोस लेते थे। भ्रष्टाचार के कारण भारत में मोबाइल फोन 5,000 रुपये में मिले जबकि दूसरे देशों में वह 4,000 रुपये में मिले तो व्यवस्था गड़बड़ाती नहीं थी। लेकिन अभी दूसरे सुशासित देशों में बना सस्ता माल हमारे घरेलू बाजार में हमारे ही माल को चलन से बाहर कर रहा है और हमारी अर्थव्यवस्था चौपट हो रही है।
ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में जो देश सुशासित होगा वही जीतेगा। ऐसे में हमारे पास अपनी शासन प्रणाली को ग्लोबल स्टैंडर्ड पर सुधारने के अलावा कोई चारा नहीं है। जैसे स्विमिंग पूल में ढकेल दिए जाने के बाद तैरने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता, उसी प्रकार ग्लोबलाइजेशन में ढकेले जाने के बाद सुशासन का कोई विकल्प नहीं बचा है। इस परिप्रेक्ष्य में हाल के चुनावों में नरेंद्र मोदी और 'आप' की सफलता से आशा बंधती है। अतः मैं 2014 को लेकर आशान्वित हूं। इन दोनों में से एक की सरकार बनने से रिसाव कम होगा और अर्थव्यवस्था चल निकलेगी।
वैश्विक परिस्थितियों का भी 2014 पर प्रभाव पड़ेगा। मुद्दा अमेरिका की चाल का है। हमारी तरह अमेरिकी सरकार के भी खर्च ज्यादा और रेवेन्यू कम है। सरकार द्वारा ऋण लेकर दिए जा रहे स्टिम्युलस के बल पर अमेरिकी अर्थव्यवस्था में ग्रोथ दिख रही है, जैसे बीमार को ग्लूकोज चढ़ाने पर कुछ समय के लिए वह उठ खड़ा होता है। लेकिन इस तरह मरीज को ज्यादा दिन स्वस्थ नहीं रखा जा सकता।
बढ़ते कर्ज के दूरगामी दुष्प्रभाव को देखते हुये अमेरिका के केंद्रीय बैंक ने स्टिम्युलस की मात्रा घटाने का निर्णय लिया है। प्रश्न है कि इस झटके को अमेरिकी अर्थव्यवस्था झेल पाएगी या नहीं? कई विश्लेषक मौजूदा ग्रोथ को टिकाऊ मान रहे हैं। ऐसा हुआ तो हमारे माल की मांग बढ़ेगी और हमारे निर्यात सुदृढ़ होंगे। परंतु स्टिम्युलस घटाने का हमारे लिए दुष्प्रभाव यह होगा कि अमेरिका में ब्याज दर बढ़ेगी और निवेशक भारत से पैसा निकालकर अमेरिका में निवेश करना चाहेंगे।
अमेरिका से क्या डरना दूसरे शब्दों में कहें तो अमेरिका में स्टिम्युलस कम होने से हमारे निर्यात बढ़ेंगे लेकिन विदेशी निवेश घटेगा। इसका उलटा, यानी निर्यात का घटना और निवेश का बढ़ना हम 2009 के बाद से देखते आ रहे हैं। अतः मेरे आकलन में स्टिम्युलस की टेपरिंग हमारे लिए अप्रासंगिक है। निष्कर्ष यह कि 2014 की एक मात्र चुनौती सुशासन की है। सुशासन स्थापित होगा तो हमारी अर्थव्यवस्था स्वतः चल निकलेगी। अन्यथा हम इसी तरह अपनी घरेलू नाकामी का ठीकरा वैश्विक कारणों पर फोड़ते रहेंगे।

- भरत झुनझुनवाला


बढ़ती जनसंख्या के लाभ

चीन की सरकार द्वारा कर्मियों के लिए रिटायरमेंट एज बढ़ाने पर विचार किया जा रहा है। वर्तमान में सामान्य महिला कर्मी 50 वर्ष की आयु पर, महिला सिविल सर्वेन्ट 55 वर्ष पर तथा पुरुष 60 वर्ष की आयु पर रिटायर करते हैं। प्रस्ताव है कि श्रमिकों की रिटायरमेंट एज बढ़ाकर 65 वर्ष कर दिया जाए।

चीन ने सत्तर के दशक में एक संतान की पालिसी अपनाई थी। एक से अधिक संतान उत्पन्न करने पर भारी फाइन लगाया जाता था और फाइन न देने की स्थिति में जबरन गर्भपात करा दिया जाता था। एक संतान पालिसी का चीन को लाभ मिला है। 1950 से 1980 के बीच चीन के लोगों ने अधिक संख्या में संतान उत्पन्न की थी। माओ जेडांग ने लोगों को अधिक संख्या में संतान पैदा करने को प्रेरित किया था। 1990 के लगभग ये संतान कार्य करने लायक हो गई। परन्तु ये लोग कम संख्या मे संतान उत्पन्न कर रहे थे चूंकि एक संतान की पालिसी लागू कर दी गई थी। इनकी ऊर्जा संतानोत्पत्ति के स्थान पर धनोपार्जन करने में लग गई। इस कारण 1990 से 2010 के बीच चीन को आर्थिक विकास दर 10 प्रतिशत की अप्रत्याशित दर पर रही।

2010 के बाद परिस्थिति ने पलटा खाया। 1950 से 1980 के बीच भारी संख्या में जो संतान उत्पन्न हुई थी, वे अब वृध्दि होने लगीं। परन्तु 1980 के बाद संतान कम उत्पन्न होने के कारण 2010 के बाद कार्यक्षेत्र में प्रवेश करने वाले वयस्कों की संख्या घटने लगी। उत्पादन में पूर्व में हो रही वृध्दि में ठहराव आ गया चूंकि उत्पादन करने वाले लोगों की संख्या घटने लगी। साथ-साथ वृध्दों की सम्हाल का बोझ बढ़ता गया जबकि उस बोझ को वहन करने वाले लोगों की संख्या घटने लगी। वर्तमान में चीन मे वृध्दों की संख्या की तुलना में पांच गुणा कार्यरत वयस्क है। अनुमान है कि इस दशक के अंत तक कार्यरत वयस्कों की संख्या केवल दो गुणा रह जाएगी। कई ऐसे परिवार होंगे जिसमें एक कार्यरत व्यक्ति को दो पेरेंट्स और चार ग्रेन्डपेरेन्ट्स की सम्हाल करनी होगी। देश के नागरिकों की ऊर्जा उत्पादन के स्थान पर वृध्दों की देखभाल में लगने लगी। कई विश्लेषकों का आकलन है कि 2010 के बाद चीन की विकास दर में आ रही गिरावट का कारण कार्यरत वयस्कों की यह घटती जनसंख्या है। अनुमान है कि वर्किंग एडल्ट्स की संख्या वर्तमान में 98 करोड़ से घटकर 2050 में 71 करोड़ रह जायेगी। इसमें प्रतिवर्ष लगभग लगभग 4 करोड़ की कमी होगी। श्रमिकों की संख्या कम होने से वेतन बढ़ेंगे, उत्पादन लागत बढ़ेगी और चीन वैश्विक प्रतिस्पर्धा में पीछे पड़ेगा।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि जनसंख्या नियंत्रण का लाभ अल्पकालिक होता है। संतान कम उत्पन्न होने पर कुछ दशक तक संतानोत्पत्ति का बोझ घटता है और विकास दर बढ़ती है। परन्तु कुछ समय बाद कार्यरत श्रमिकों की संख्या में गिरावट आती है और उत्पादन घटता है। साथ-साथ वृध्दों का बोझ बढ़ता है और आर्थिक विकास दर घटती है।

ऐसा ही परिणाम दूसरे देशों के अनुभव से सत्यापित होता है। यूनिवर्सिटी ऑफ मेरीलेंड के प्रोफेसर जुलियन साइमन बताते हैं कि हांगकांग, सिंगापुर, हालैंड एवं जापान जैसे जनसंख्या-सघन देशों की आर्थिक विकास दर अधिक है जबकि जनसंख्या न्यून अफ्रीका में विकास दर धीमी है। सिंगापुर के प्रधानमंत्री के अनुसार देश की जनता को अधिक संख्या में संतान उत्पन्न करने को प्रेरित करना देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। इस आशय से उनकी सरकार ने फर्टिलिटी ट्रीटमेंट, हाउजिंग अलाउन्स तथा मैटर्निटी लीव में सुविधाएं बढ़ाई हैं। दक्षिणी कोरिया ने दूसरे देशों से इमिग्रेशन को प्रोत्साहन दिया है। इमिग्रेन्ट्स की संख्या वर्तमान में आबादी का 2.8 प्रतिशत से बढ़ कर 2030 तक 6 प्रतिशत हो जाने का अनुमान है। इंग्लैड के सांसद केविन रुड ने कहा है कि द्वितीय विश्व युध्द के बाद यदि इमिग्रेशन को प्रोत्साहन दिया होता तो इंग्लैड की विकास दर न्यून रहती।

उपरोक्त तर्क के विरुध्द संयुक्त राष्ट्र पापुलेशन फंड का कहना है कि जनसंख्या अधिक होने से बच्चों को शिक्षा उपलब्ध नहीं हो पाती है और उनकी उत्पादन करने की क्षमता का विकास नहीं होता है। मेरी समझ से यह तर्क सही नहीं है। शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए जनसंख्या घटाने के स्थान पर दूसरी अनावश्यक खपत पर नियंत्रण किया जा सकता है। जैसे राजा साहब के महल में स्कूल चलाया जा सकता है। यह भी याद रखना चाहिए कि अर्थव्यवस्था में शिक्षित लोगों की संख्या की जरूरत तकनीकों द्वारा निर्धारित हो जाती है। टै्रक्टर चलाने के लिए पांच ड्राइवर नहीं चाहिये होते हैं। ड्राइवर का एमए होना जरूरी नहीं होता है। देश में शिक्षित बेरोजगारों की बढ़ती संख्या इस बात का प्रमाण है कि शिक्षा मात्र से उत्पादन में वृध्दि नहीं होती है। संयुक्त राष्ट्र का दूसरा तर्क है कि बढ़ती जनसंख्या से जीवन स्तर गिरता है। मैं इससे सहमत नही हूं। बढ़ती जनसंख्या यदि उत्पादन में रत रहे तो जीवन स्तर में सुधार होता है। अत: समस्या लोगों को रोजगार दिलाने की है न कि जनसंख्या की अधिकता की।

जनसंख्या के आर्थिक विकास पर उपरोक्त सकारात्मक प्रभाव को देखते हुए चीन की सरकार दो कदमों पर विचार कर रही है। पहला प्रस्ताव है कि श्रमिकों की रिटायरमेंट एज बढ़ाकर 65 वर्ष कर दिया जाये। इससे जनसंख्या कम होते हुये भी कार्यरत श्रमिकों की संख्या के गिरावट में कुछ ठहराव आयेगा। दूसरा प्रस्ताव है कि एक संतान पालिसी में कुछ ढील दी जाए। इस प्रस्ताव को कार्यान्वित किया जा चुका है। अब तक केवल वे दम्पति दूसरी संतान उत्पन्न कर सकते थे जिनमें पति और पत्नि दोनों ही अपने पेरेन्ट्स के अकेली संतान थे। अब इसमें छूट दी गई है। वे दम्पति भी दूसरी संतान पैदा कर सकेंगे जिनमें पति अथवा पत्नि में कोई एक अपने पेरेन्ट्स की अकेली संतान थी। यह सही दिशा में कदम है। लेकिन बहुत आगे जाने की जरूरत है। चीन समेत भारत को समझना चाहिए कि जनसंख्या सीमित करने से आर्थिक विकास मंद पड़ेगा। जरूरत ऐसी आर्थिक नीतियों को लागू करने की है जिससे लोगों को रोजगार मिले और वे उत्पादन कर सकें।
 

जनसंख्या सीमित करने के पक्ष में एक तर्क पर्यावरण का है। बिजली, पानी, अनाज आदि को मुहैया कराने की धरती की सीमा है। इस समस्या का दो समाधान हो सकता है। एक यह कि जनसंख्या सीमित कर दी जाए। यह उपाय कारगर नहीं होगा चूंकि वर्तमान जनसंख्या की बढ़ती खपत का बोझ बढ़ता जायेगा। दूसरा उपाय है कि हम कम खपत में उन्नत जीवन स्थापित करने का प्रयास करें जैसे तुलसीदास और सूफी संतों ने बिना एयरकंडीशनर के उत्कृष्ट रचनाएं रची थीं। मनुष्य का अंतिम मूल्यांकन खपत के स्थान पर चेतना के विकास से करें तो समस्या का समाधान हो सकता है। तब जनसंख्या अधिक, खपत कम और चेतना उन्नत का टिकाऊ संयोग स्थापित हो सकता है। पर्यावरण पर बढ़ते बोझ को सादा जीवन अपना कर मैनेज करना चाहिए न कि जनसंख्या में कटौती करके। अपने देश के अनेक विद्वान बढ़ती जनसंख्या को अभिशाप मानते हैं। चीन के अनुभव को देखते हुए हमें पुनर्विचार करना चाहिए।

मंगल मिशन के बाद अब जीएसएलवी

मंगल मिशन की सफलता के बाद भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) अब अंतरिक्ष कार्यक्रम में एक और छलांग लगाएगा। इसरो द्वारा निर्मित भू स्थैतिक उपग्रह प्रक्षेपण यान (जीएसएलवी) की आठवीं उड़ान पांच जनवरी को होगी। भारत के लिए यह मिशन बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि अंतरिक्ष वैज्ञानिक लंबे समय से इस पर कार्य कर रहे हैं। अब तक सात उड़ानें जीएसएलवी की हो चुकी हैं लेकिन उनमें से दो ही पूरी तरह से सफल रही हैं। इसलिए यह उड़ान बेहद महत्वपूर्ण मानी जा रही है। यदि यह सफल रहती है तो भारत भारी उपग्रह प्रक्षेपण की सुविधा और क्षमता वाले चंद देशों में शुमार हो जाएगा। यह क्षमता अमरीकारूस और यूरोप जैसे देशों के पास ही है। इसलिए पूरे देश की नजर जीएसएलवी की उड़ान पर टिकी है।

जीएसएवी  की डी-5 उड़ान में इसरो ने कई छोटे-बड़े बदलाव किए हैं। पिछले अभियानों में सामने आई सभी कमियों को दूर किया है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें देश में निर्मित क्रायोजनिक इंजन का इस्तेमाल किया गया है। क्रायोजनिक इंजन बनाने का कार्य लंबे समय से भारत कर रहा है। यह तकनीक रूस से हासिल की गई थी। एक बार पहले भी क्रायोजनिक इंजन का इस्तेमाल जीएसएलवी में किया गया था, लेकिन वह उड़ान विफल रही थी। इसलिए यह उड़ान यह भी बताएगी कि क्रायोजनिक इंजन सफल रहता है या नहीं।

दरअसलक्रायोजनिक इंजन एक जटिल प्रणाली है। मोटे तौर पर बता दें कि भू स्थैतिक कक्षा में भारी उपग्रहों को ले जाने के लिए प्रक्षेपण वाहनों को लंबी उड़ान भरनी होती है। इसलिए इसमें तीन चरणों के इंजन होते हैं। पहले ठोस इंजन कार्य करता है। उसके बाद तरल एवं तीसरे एवं अंतिम चरण में क्रायोजनिक इंजन कार्य करता है। क्रायोजनिक इंजन में तरल आक्सीजन एवं हाइड्रोजन होती है। लेकिन इन्हें बहुत कम तापमान पर तरल बनाया जाता है। आक्सीजन को-183 डिग्री एवं हाइड्रोजन को -253 डिग्री पर तरल बनाया जाता है जिससे ये बेहद हल्की हो जाती हैं और अंतरिक्ष में प्रभावी तरीके से इंजन को संचालित करती हैं। दशकों से भारत इन इंजनों को बनाने में लगा है।

दूसरे रॉकेट के आकार-प्रकार में भी बदलाव किए गए हैं। मकसद यह कि जिन कारणों से पिछले अभियान विफल हुए हैंउनकी पुनरावृत्ति नहीं हो। इस प्रक्षेपण वाहन के जरिये एक भारी भरकम उपग्रह जीसैट-14 को भी भेजा जा रहा है, जो अत्याधुनिक संचार उपग्रह है। जीसैट मूलत 1982 किग्रा वजन का संचार उपग्रह  है। इस उपग्रह से देश में संचारप्रसारण के साथ-साथ टेलीएजुकेशन एवं टेलीमेडिसिन सेवाओं के लिए अतिरिक्त ट्रांसपोंडर हासिल हो पाएंगे। यह इसरो का 23वां संचार उपग्रह होगा। इसके स्थापित होने के बाद अंतरिक्ष में भारत के नौ सक्रिय संचार उपग्रह हो जाएंगे। इसमें लगे केयू एवं सी बैंड ट्रांसपोंडर देश के समस्त क्षेत्र में कवरेज प्रदान करेंगे। जीसैट श्रंखला के उपग्रह 20010304 तथा 07 में भी छोड़े गए थे।

जीएसएलवी की सफलता के लिए जरूरी है कि इसकी कम से कम तीन उड़ानें सफल हों। इसलिए इस बार इसरो के वैज्ञानिकों ने कदम-कदम पर सतर्कता बरती है। दो बार इसकी उड़ान को स्थगित किया गया। पहले यह 19 अगस्त को होनी थी, लेकिन इंजन में कुछ लीकेज पाया गया। फिर 28 दिसंबर का दिन तय किया गया लेकिन कुछ कमियों के चलते इसे अब पांच जनवरी को प्रक्षेपित किया जाएगा।

इसरो के चेयरमैन एस. राधाकृष्णन ने उम्मीद जताई है कि इसरो मंगल मिशन की भांति इस मिशन में भी कामयाब होगा। उन्होंने कहा कि कई मायनों में यह मिशन महत्वपूर्ण है। भारत भारी उपग्रहों के प्रक्षेपण की क्षमता हासिल करेगा। जीएसएलवी डी-5 में देश में ही निर्मित क्रायोजनिक इंजन इस्तेमाल किया गया है। इस इंजन निर्माण की सफलता भी भारत के लिए बड़ी उपलब्धि है। तीसरेइसे श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र के जिस लांचिग पैड से छोड़ा जाएगावह नव निर्मित है। वहां पहले एक ही लांचिंग पैड था, लेकिन अब एक और बना दिया गया है। इसलिए जीएसएलवी यह उड़ान नए साल में भारत को तीन मोर्चों पर सफल बनाएगी। यह रॉकेट अपने साथ एक बड़ा संचार उपग्रह जीसैट-14 भी ले जाएगा।

-जीएसएलवी के जरिये दो हजार या इससे अधिक टन के उपग्रहों को भू स्थैतिक कक्षा में स्थापित किया जाएगा। संचार एवं प्रसारण में इस्तेमाल आने वाले उपग्रहों को भू स्थैतिक कक्षा में स्थापित करना होगा। अभी तक भारी उपग्रह प्रक्षेपित करने की क्षमता भारत के पास नहीं थी। उसे दूसरे देशों की मदद लेनी पड़ती है। इसकी सफलता से भारत न सिर्फ अपनी जरूरत के लिए भारी उपग्रह प्रक्षेपित करेगा, बल्कि दूसरे देशों को भी अपनी सेवाएं देकर राजस्व अर्जित कर सकता है। अभी इसरो दूसरे देशों के छोटे उपग्रह प्रक्षेपित करता है। हल्के उपग्रहों को ध्रुवीय कक्षा में स्थापित करने के लिए भारत का अपना सफल लांच व्हीकल पीएसएलवी है।  लेकिन यह एक हजार किग्रा से ज्यादा वजन नहीं ले जा सकता।

कब-कब हुई जीएसएलवी की सात उड़ानें

  • 18 अप्रैल 2001 को पहली उड़ान भरी। इसमें 1560 किग्रा का जीसैट-1 उपग्रह भेजा गया था। लेकिन जीएसएलवी ने भू स्थैतिक कक्षा से पहले ही जीसैट-1 को छोड़ दिया था, क्योंकि उसमें आगे बढ़ने के लिए ईंधन नहीं बचा था। मिशन विफल रहा।
  • 8 मई 2003 को दूसरी उड़ान सफल रही। 1825 क्रिग्रा के जीसैट को सफलतापूर्वक कक्षा में स्थापित किया।
  • 20 सितंबर 2004 को जीएसएलवी की तीसरी विकासात्मक उड़ान भी सफल रही। 1990 किग्रा के एजुसैट को कक्षा में स्थापित किया।
  • 10 जुलाई 2006 को जीएसएलवी ने चौथी उड़ान भरी। यह अपने साथ 2168 किग्रा के उपग्रह इंसेट 4सी को लेकर उड़ा, लेकिन कुछ ही मिनटों में आई तकनीकी खराबी के बाद बंगाल की खाड़ी में जा गिरा।
  • दो सितंबर 2007 को जीएसएलवी की पांचवीं उड़ान हुई। यह 2160 किग्रा के इनसेट 4 सीआर को लेकर गया। उड़ान आशिंक रूप से विफल रही। उपग्रह को कक्षा में सही तरीके से स्थापित नहीं कर पाया। हालांकि बाद में इसे ठीक कर लिया गया और उपग्रह कार्य कर रहा है।
  • 15 अप्रैल 2010 को जीएसएलवी की छठीं उड़ान विफल रही। इसमें क्रायोजनिक इंजन लगाया गया था जो ठीक से कार्य नहीं कर पाया और कक्षा में पहुंचने से पहले उड़ान फेल हो गई। इसमें 2220 किग्रा का जीसैट-4 भी था।
  • 25 दिसंबर 2010 को जीएसएलवी की सातवीं उड़ान भी फेल हो गई। इसमें 2130 किग्रा का जीसैट-5पी था। दूसरे चरण का तरल इंजन कार्य नहीं कर पाया।

कुल पेज दृश्य