रविवार, 22 दिसंबर 2013

संप्रभुता की शर्त

भ्रष्टाचार, हिंसा और सिद्धांतहीन राजनीतिक जोड़-तोड़ की बुरी खबरों के बीच भारत के पहले स्वनिर्मित हल्के लड़ाकू विमान तेजस को वायुसेना की ओर से इनिशियल ऑपरेशन क्लियरेंस (आईओसी) मिल जाना सचमुच एक दिल खुश कर देने वाली खबर है। पिछले तीस वर्षों से हमारे वैज्ञानिक, तकनीकीविद और कई कुशल कारीगर जिस सपने को साकार करने में जुटे हुए थे, वह सेना की तरफ से मिली इस हरी झंडी के बाद पूरा हो गया है।

इस सपने के सच होने में लगे तीन दशक और 17 हजार करोड़ से भी ज्यादा रुपये कुछ लोगों को बहुत ज्यादा लग सकते हैं। जिन गड़बड़ियों के चलते यह मामला इतना लंबा खिंचा, उनकी तह में जाना जरूरी है, ताकि भविष्य की रक्षा परियोजनाओं में इनसे बचा जा सके। लेकिन इसे आधार बनाकर अगर कोई यह तर्क देता है कि इतने पैसे लगाकर तो हम लगे हाथों किसी भी देश से जहाज मंगवा सकते थे, वह या तो सुरक्षा मामलों से बिल्कुल अनजान है, या फिर जाने-अनजाने ताकतवर विदेशी स्वार्थों की सेवा में जुटा हुआ है।

इक्कीसवीं सदी में बाहर से खरीदे हुए हथियारों के बल पर राष्ट्रीय सुरक्षा की बात सोचना सपने में दिखे खजाने के बल पर खुद को अमीर समझने जैसा है। लड़ाई में अमेरिका जैसे कुछ देशों से खरीदे हुए हथियार आप उनसे इजाजत लिए बगैर इस्तेमाल ही नहीं कर सकते। इस दौरान इन हथियारों का छोटा सा भी पुर्जा बेकार हो जाने पर इन्हें चुपचाप खड़ा कर देना होता है, क्योंकि इनकी मरम्मत इन्हें बेचने वाला देश ही कर सकता है, और मरम्मत की नौबत आम तौर पर लड़ाई के बाद ही आती है। लड़ाई लंबी खिंचने पर इनका गोला-बारूद भी कम पड़ जाता है और ये दिखावटी सामान बनकर रह जाते हैं। इसलिए लड़ाई की दाल-रोटी समझी जाने वाली चीजों, मसलन लड़ाकू विमानों, टैंकों, युद्धपोतों, इनके गोला-बारूद और तीन-चार सौ किलोमीटर तक मार करने वाली मिसाइलों के बारे में पूर्ण आत्मनिर्भरता आज राष्ट्रीय संप्रभुता की बुनियादी शर्त बन गई है।


हमारे यहां कभी कोई तो कभी कोई बहाना बनाकर इस कठिन रास्ते से दूर रहने वकालत की जाती रही है। नतीजा यह है कि भारत के डिफेंस सेक्टर को आज दुनिया भर के हथियार दलालों के बीच सबसे कमाऊ बिजनस के लिए जाना जाता है। तालियां बजाने की आदत हमने अपनी लंबी दूरी की मिसाइलों और परमाणु परीक्षणों को लेकर डाल ली है, लेकिन ये लड़ने से ज्यादा दिखाने के हथियार हैं। रक्षा क्षेत्र में हमारी आत्मनिर्भरता की सबसे बड़ी मिसालें आज सेना द्वारा स्वीकृत अर्जुन टैंक, तेजस विमान और पृथ्वी, त्रिशूल, नाग आदि छोटी-मंझोली दूरी की मिसाइलें हैं। लेकिन हमारी असली उपलब्धि यह होगी कि हम लगातार इन्हें विकसित करते रहें और इन्हें संसार के फ्रंटलाइन वेपन्स की श्रेणी में बनाए रखें। इसके बजाय अगर एक मॉडल बनाकर उसे बाबूगिरी के हवाले छोड़ देने का चिरपरिचित रास्ता अपनाया गया तो हमें समय और धन का वैसा ही नुकसान उठाना पड़ेगा, जैसा ऊपर बताए गए लगभग सभी स्वीकृत हथियारों के मामले में उठाना पड़ा है।  

महंगाई का दंश

आम लोग रोजाना जो अनुभव करते हैं, आंकड़ों ने भी उसकी पुष्टि की है। नवंबर में महंगाई पिछले चौदह महीनों के रिकार्ड स्तर पर पहुंच गई। थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई की दर अक्तूबर में सात फीसद थी, इसके अगले महीने यह आधा फीसद और बढ़ गई। पर यह थोक कीमतों पर आधारित आंकड़ा है। उपभोक्ताओं का वास्ता खुदरा कीमतों से पड़ता है, और पिछले दिनों उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के हिसाब से आए आंकड़े बताते हैं कि खुदरा महंगाई की दर करीब ग्यारह फीसद है। यह भी गौरतलब है कि सबसे ज्यादा बढ़ोतरी खाने-पीने की चीजों के दामों में हुई है। खाद्य महंगाई बीस फीसद सालाना की दर से बढ़ी है। जबकि सब्जियों के दाम साल भर में दुगुने हो गए हैं। यह आम धारणा है कि हाल के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जबर्दस्त शिकस्त के पीछे महंगाई एक प्रमुख वजह रही। कांग्रेस के तमाम नेता भी इसे स्वीकार करते हैं। गरीब लोग पाते हैं कि उनका जीना दूभर हो गया है, वहीं मध्यवर्ग के भी बड़े हिस्से के लिए अपना घरेलू बजट बनाना मुश्किल हो गया है।

यूपीए सरकार यह बहाना नहीं गढ़ सकती कि महंगाई का यह दौर तात्कालिक असामान्य परिस्थिति की देन है। जबकि इस साल अच्छे मानसून के चलते कृषि ने साढ़े चार फीसद की शानदार बढ़ोतरी दर्ज है। फिर खाद्य पदार्थों की कीमतें बेलगाम बने रहने की क्या वजह है? मूल्य नियंत्रण की कोई ठोस योजना तो दूर, ऐसा लगता है कि सरकार और नीति नियामकों के पास समस्या का कोई विश्वसनीय आकलन तक नहीं है। घबराहट में सारी जिम्मेदारी रिजर्व बैंक पर डाल दी जाती है, मानो मौद्रिक कवायद ही महंगाई से निजात दिला देगी। पर कई बार लगातार रेपो दरों में बढ़ोतरी करने का भी कोई अपेक्षित परिणाम नहीं आ पाया है। एक बार फिर यह कयास लगाया जा रहा है कि इसी हफ्ते रिजर्व बैंक अपनी नई मौद्रिक समीक्षा में रेपो दरों में बढ़ोतरी कर सकता है। पर मौद्रिक नीति के ही सहारे महंगाई पर काबू पाने की उम्मीद पालने के बजाय सरकार को दूसरे विकल्प आजमाने चाहिए। यह मांग बार-बार उठती रही है कि अनाज को वायदा बाजार के दायरे से बाहर रखा जाए। पर हर बार इसे अनसुना कर दिया गया। खुद कृषिमंत्री शरद पवार संसद में यह स्वीकार कर चुके हैं कि हर साल हजारों करोड़ रुपए की सब्जियां और फल सड़ जाते हैं। इसी तरह उचित रखरखाव के अभाव में काफी मात्रा में अनाज के भी बर्बाद हो जाने की खबर अमूमन हर साल आती है।

बरसों से ढांचागत सुविधाओं के विस्तार के तमाम दावों के बावजूद खाद्य सामग्री का भंडारण-प्रबंध दुरुस्त करने और आपूर्ति के तौर-तरीके सुधारने पर ध्यान नहीं दिया गया। कई बार बफर स्टॉक में जरूरत से ज्यादा अनाज रख कर सरकार खुद महंगाई को हवा देती है। थोक और खुदरा कीमतों के बीच के फर्क को तर्कसंगत कैसे बनाया जाए इस बारे में कभी सोचा नहीं जाता। रही-सही कसर जमाखोरों और कालाबाजारियों की करतूतें पूरी कर देती हैं। उन पर लगाम कसने का जिम्मा केंद्र का ही नहीं, राज्य सरकारों का भी है। पर वे सारा दोष केंद्र पर मढ़ कर अपना पल्ला झाड़ लेती हैं। यह उम्मीद की जा रही है कि कुछ दिनों में मौसमी वजहों से महंगाई में थोड़ी कमी आ सकती है। पर इस तरह की फौरी राहत की आस देखने के बजाय यूपीए सरकार को कुछ स्थायी कदम उठाने के बारे में सोचना चाहिए, इसलिए कि यह थोड़े दिनों की परिघटना नहीं है। पिछले नौ साल में यानी यूपीए सरकार के पूरे कार्यकाल में खाद्य महंगाई दस फीसद रही है, जबकि उससे पहले के दशक में यह दर पांच फीसद थी।

  

शनिवार, 21 दिसंबर 2013

चीन की इन हरकतों को क्या नाम दें

प्रधानमंत्री की बीजिंग यात्रा और नो वॉर करार के बाद से यह वातावरण बनाने की कोशिश हो रही थी कि अब चीन अपने परम्परागत ढर्रे को छोड़कर भारत के साथ स्थायी मित्रता निभाने की मनोदशा का निर्माण कर रहा है। पिछले महीने जब चीन के दक्षिण-पश्चिमी प्रांत सिचुआन में दस दिन तक भारत-चीन ने आतंकवाद के खिलाफ  'हैंड इन हैंड-2013' नामक संयुक्त युध्दाभ्यास किया तो इस विचार की पुष्टि भी हो गई। लेकिन चीन चाहे अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति की यात्रा का विरोध कर या फिर चीनी सैनिकों के माध्यम से भारतीय क्षेत्र में घुसकर, जो हरकतें करता है वह किसी भी लिहाज से मित्रता का परिचय तो नहीं देती। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या भारत सरकार चीन की इन हरकतों को मैत्री के प्रतीकों के रूप में ही देखती है?

चीन का भारत के साथ विचित्र सा रिश्ता है, जो मित्रता का नकाब पहनकर शत्रुतापूर्ण रवैया अपनाता है। हालांकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बीजिंग यात्रा के समय यह संदेश दिया गया था कि भारत को चाहिए कि इतिहास को भुलाकर वर्तमान परिदृश्य और उसकी जरूरतों के अनुसार सम्बंधों का निर्माण करे। लेकिन मित्रता का तात्पर्य यह तो नहीं होता कि भारत चीन के लिए स्वस्थ व्यापारिक वातावरण तैयार करे ताकि चीनी अर्थव्यवस्था गति पकड़े रहे (उल्लेखनीय है द्विपक्षीय व्यापार में चीन का पलड़ा भारत के मुकाबले बहुत भारी रहता है)। या फिर इसका तात्पर्य यह भी होना चाहिए कि चीन भारत की भावनाओं को समझे और उसके सामरिक हितों को नुकसान पहुंचाने की कोशिशें बंद कर दे? प्रधानमंत्री की बीजिंग के दौरान जब भारत और चीन के बीच ग्रेट हाल ऑफ दी पीपुल में सीमा रक्षा सहयोग समझौता (बीडीसीए) हुआ, तो लगा था कि अब दोनों देशों के बीच स्थितियां सामान्य रहेंगी। लेकिन ऐसा सोचना शायद गलत था क्योंकि चीन तभी तक भारत के साथ सामान्य व्यवहार करता है जब तक उसके या तो भारत के साथ सामान्य हित हों अथवा भारत किसी ऐसे देश से दूरी बनाए रहे जिससे चीन के साथ तनातनी है या तनातनी की सम्भावनाएं हैं। चीन सम्बंधों का सामान्यीकरण नहीं कर सकता, इसकी मिसाल कुछ दिन बाद ही देखने को भी मिल गई।

बीजिंग में हुए समझौते के कुछ दिन बाद राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जब अरुणाचल प्रदेश के दो दिवसीय यात्रा पर गए तो चीन की सरकारी समाचार एजेंसी शिन्हुआ ने चीन के विदेश मंत्रालय के उस बयान का उल्लेख किया जिसमें भारत को सीमा मुद्दे को जटिल बनाने से परहेज करने की बात कही गई थी। यही नहीं, इस क्षेत्र पर चीन के दावे को दोहराया है। रिपोर्ट में कहा गया है, 'तथाकथित अरुणाचल प्रदेश यादातर चीन के तिब्बत के तीन क्षेत्रों मोंयुल, लोयुल और लोअर त्सायुल अभी भारत के अवैध कब्जे में है। ये तीनों इलाके अवैध मैकमोहन रेखा व चीन और भारत की प्रचलित सीमा रेखा के बीच में है और ये हमेशा से चीन के भू-भाग रहे हैं।' चीन ने विराम पर यहीं पर नहीं लगाया बल्कि इससे कहीं आगे बढ़कर एक हरकत यह की कि उसकी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के सैनिकों ने लद्दाख के चुमार स्थित भारतीय क्षेत्र में काफी अंदर तक घुस कर पांच भारतीय नागरिकों को पकड़कर अपनी सीमा में ले गए। हालांकि आर्मी हेडक्वार्टर ने इस मामले को यादा नहीं उछालना चाहा क्योंकि वक्त रहते इसे सुलझा लिया गया था। लेकिन सूत्रों की मानें तो चीन की तरफ से नरमी तभी दिखाई गई जब स्थानीय भारतीय सेना के अधिकारियों ने इस मसले पर फ्लैग मीटिंग बुलाई और पीएलए को साफ चेतावनी दी कि अगर नागरिक लौटाए न गए तो इस मसले को ऊंचे स्तर पर उठाया जाएगा। इस मामले में रक्षा मंत्री एंटनी का कहना है कि नई सीमा संधि यह गारंटी नहीं देती कि एलएसी इलाके में भविष्य में विवाद की कोई घटना नहीं होगी। चुमार इलाका लेह से 300 किलोमीटर दूर है। इस इलाके में अक्सर दोनों देशों के जवानों के बीच विवाद होते रहे हैं। इस बयान से एक बात स्पष्ट होती है कि चीन अपनी गलतियों पर परदा डालने में भले ही पीछे रहे, लेकिन भारत उसकी गलतियों पर परदा डालने का काम उससे कहीं बेहतर तरीके से सम्पन्न करता है।

भारतीय नेतृत्व प्राय: यह बात करता है कि हमें इतिहास को भूलकर आगे बढ़ना चाहिए। लेकिन इतिहास वास्तव में प्रगति में बाधक होता है? या फिर यह माना जाए इतिहास उन विसंगतियों से सावधान करने का काम करता है जो जिनकी बड़ी कीमत हम अतीत में चुका आए हैं? यह विचित्र स्थिति है कि आज हमें इतिहास के जिन संस्मरणों को भूल जाना चाहिए, उनके नाम पर हमारे देश में लोग, समाज, बुध्दिजीवी और राजनीतिज्ञ संघर्षरत हैं, लेकिन जिन्हें याद रखना चाहिए उन्हें भूल जाना हमारी फितरत सी बनती जा रही है। दूसरा विकल्प चीन के साथ सम्बंधों को व्यक्त करता है। यही कारण है कि बीजिंग में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनके समकक्ष चीनी प्रधानमंत्री ली केकियांग की मौजूदगी में जो समझौते हुए थे, वे कितने रणनीतिक थे और उनसे भारत को कौन से लाभ होने वाले हैं, इस पर विमर्श नहीं हुआ। दूसरी बात यह है कि चीन ने अब तक जिन विषयों पर भारत से कोई वादा किया है, उस पर उसने कितनी प्रतिबध्दता दिखायी है? चीन भारत के पड़ोसियों के साथ गठबंधन कर भारत को लगातार कमजोर करने की कोशिश कर रहा है, इसे बंद करने की उसने कोई गारण्टी भी नहीं दी है। वैसे इसमें पूरा दोष चीन को ही नहीं दिया जा सकता है, भारत का राजनीतिक नेतृत्व भी यही चाहता है। यदि ऐसा न होता तो 14 नवम्बर, 1962 को भारतीय संसद ने चीन पर जो सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया था जिसमें यह संकल्प लिया गया था भारत-चीन युध्द के दौरान चीन द्वारा हड़पे गए भारतीय जमीन की एक-एक इंच वापस लिए जाने का संकल्प था, उस पर कोई नतीजा तो निकला होता। लेकिन क्या हुआ? जमीन लेना तो दूर जमीन को वापस लेने सम्बंधी बात को भी दृढ़तापूर्वक नहीं उठाया गया।

अब तक भारत अब एक राष्ट्र से यादा बाजार बन चुका है और राजनेता व्यापारी इसलिए उन्हें यह चिंता अधिक रहती है कि सस्ते आयातों से महंगाई दूर की जा सकती है इसलिए यदि उसके साथ भुगतान संतुलन की समस्या भी बढ़ती है तो कोई बात नहीं। वह घुसपैठ करता है, यह भी स्वीकार्य है। चीन की रेड आर्मी भारत की सीमाओं में घुस आती है, कुछ समय तक रुकती है और भूमि के कुछ हिस्से पर कब्जा कर वापस चली जाती है, इसके बाद भारतीय नेतृत्व अपनी अवाम को यह बताने में सम्पूर्ण ऊर्जा व्यय करता है कि 'वास्तविक नियंत्रण रेखा' अब तक अस्पष्ट है इसलिए चीनी सेना अनजाने में प्रवेश कर जाती है। चीन स्वदेश निर्मित 1100 मेगावॉट न्यूक्लियर रिएक्टर्स की शृंखला 'एसीपी 1000' को पाकिस्तान को देने जा रहा है। सभी जानते हैं कि पाकिस्तान अपने असैन्य कार्यम को सैन्य कार्यम से अलग रखने को लेकर प्रतिबध्द नहीं है, फिर भी चीन उसे परमाणु रिएक्टर दे रहा है, तो इसका मतलब यह हुआ कि चीन लगातार भारत की सुरक्षा के समक्ष संकट खड़ा कर रहा है। वह पाकिस्तान के ग्वादर, श्रीलंका के हम्बनटोटा, मालद्वीव के मारओं, म्यांमार के सित्तवे, बंगलादेश के चटगांव, थाईलैण्ड के क्रानहर, कम्बोडिया के रेएम और सिहनौक्ल्लिे बंदरगाह तथा दक्षिण चीन समुद्र में नौसैनिक अड्डे को 'स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स' में गूंथकर भारत को सामरिक-रणनीतिक तौर पर घेरने की कोशिश कर रहा है। लेकिन हमारी चिंताएं चीन की इन हरकतों को लेकर बहुत कम हैं।


बहरहाल चीन भारत के प्रति उन जगहों और समयों में मित्रता का प्रदर्शन कर सकता है जहां उसके आर्थिक लाभ हों, उसकी कमोडिटी भारतीय बाजारों में अपने पांव पसारने में कामयाब हो, या फिर भारत उसके प्रतिद्वंद्वियों से दूरी बनाए रहे। लेकिन जैसे ही ये स्थितियां बदलती हैं चीन कोई न कोई ऐसी हरकत अवश्य करता है जो मित्रता की परिभाषा पर खरी नहीं उतरती। इसके अतिरिक्त भी वह समय-समय पर भारत को अपने महाशक्ति होने का एहसास दिलाने की रणनीति पर काम करता रहता है। यह तय करना भारतीय राजनय का कार्य है कि वह इन चीनी हरकतों को किस फ्रेम में फिट करना चाहता है।

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

आरक्षण का राग

जाटों को आरक्षण पर केंद्र की हरी झंडी मिलने के बाद कई तरह ही चर्चाएं चल सकती हैं, श्रेय लेने की होड़ के साथ अन्य वर्गो की तल्ख प्रतिक्रिया हो सकती है पर तय है कि यह तोहफा हरियाणा व केंद्र सरकार के लिए बड़ी चुनौती भी साबित होगा। प्रदेश सरकार को सामाजिक और प्रशासनिक दोनों मोर्चो पर अपनी दक्षता दिखानी होगी। कारण स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा कुल आरक्षण की सीमा तय किए जाने के बाद जैसे-जैसे आरक्षण पाने वाली जातियों की संख्या बढ़ रही है, उसी सीमा में सभी को नियोजित करना बेहद कठिन हो रहा है। नई जाति को सूची में शामिल करने का सीधा अर्थ है कि अन्य की हिस्सेदारी घटानी पड़ेगी। लोकतंत्र में किसी जाति या समुदाय को नाराज करने का जोखिम कोई सरकार नहीं लेना चाहती। प्रदेश सरकार ने लगातार दबाव के आगे झुकते हुए जाट समेत पांच जातियों को पिछड़े वर्ग में शामिल करने की घोषणा की थी पर समस्या यहीं खत्म नहीं हो गई , उनकी अगली मांग केंद्र में आरक्षण की थी। इसके लिए धरने, प्रदर्शन के साथ रास्ता जाम, दिल्ली को घेरने की रणनीति बनी , लिहाजा राज्य सरकार भी भारी दबाव में थी। चुनावी फिजां में केंद्र ने एकाएक फैसला कर राज्य सरकार को चिंता से उबार लिया है। जाट नेताओं की आरंभिक प्रतिक्रिया से महसूस हो रहा है कि अधिसूचना जारी होने के बाद ही वे विश्वास करेंगे। स्वाभाविक तौर पर उनका अगला कदम सरकार पर आरक्षण आंदोलन के दौरान बनाए गए मुकदमे वापस लेने के लिए दबाव बनाने का रहेगा। सरकार का अहम दायित्व यह भी रहेगा कि सभी आरक्षित जातियों को उचित व निष्पक्ष रूप से अवसर मिले और किसी जाति विशेष पर खास मेहरबानी का आक्षेप न लगे। केंद्र के फैसले में कुछ उतावलापन इसलिए दिखाई दिया क्योंकि जाटों के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ेपन के आंकड़े जुटाने के लिए गठित आयोग की रिपोर्ट तक का इंतजार नहीं किया गया, आशंका है कि भविष्य में मामला कहीं अदालतों में न उलझ जाए। सरकार को अब दोहरी भूमिका निभाने के लिए तैयार रहना होगा। वह जाटों की हितैषी तो नजर आए पर अन्य के प्रति उदासीन भी न दिखे। वास्तविक पिछड़ा वर्ग की मांगों पर भी सहानुभूतिपूर्वक विचार होना चाहिए क्योंकि उसका मानना है कि उसे हाशिये पर धकेलने की कोशिश की जा रही है। चुनावी वर्ष की संवेदनशीलता को समझते हुए सरकार को व्यावहारिक चुनौतियों का सामना करने को तैयार रहना चाहिए।

स्थिर मुद्रा

अपनी मौद्रिक नीति की तिमाही समीक्षा में ब्याज दरों को स्थिर रख कर रिजर्व बैंक ने सचमुच उद्योग जगत को हैरान कर दिया। थोक मूल्य आधारित महंगाई की दर पिछले चौदह महीनों के सबसे ऊंचे स्तर तक पहुंच चुकी है। ऐसे में कयास लगाए जा रहे थे कि रिजर्व बैंक अपनी ब्याज दरों में चौथाई फीसद तक की बढ़ोतरी कर सकता है। मगर रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने तर्क दिया कि पिछले कुछ समय से सब्जियों आदि की कीमतों में कमी आने से महंगाई की दर में गिरावट दर्ज हो सकती है। मगर साथ ही उन्होंने आगाह किया कि अगर महंगाई पर लगाम नहीं लगी तो आने वाले दिनों में बैंक दरों में बढ़ोतरी का फैसला किया जा सकता है। फिलहाल रिजर्व बैंक के इस कदम से उपभोक्ता को कर्जों पर अतिरिक्त बोझ नहीं उठाना पड़ेगा। बैंक दरों में बढ़ोतरी की वजह से बैंकिंग क्षेत्र को स्वाभाविक रूप से अपनी ब्याज दरें बढ़ानी पड़ती हैं, जिसका भार उद्योग समूहों और आखिरकार उपभोक्ता को वहन करना पड़ता है। ब्याज दरें बढ़ाने के पीछे तर्क है कि इससे लोगों की अनावश्यक खरीदारी और खर्च पर अंकुश लगता है। इस तरह महंगाई को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। मगर इसका दूसरा पहलू यह भी है कि कर्ज लेकर कारोबार करने वाले उद्योगों की उत्पादन लागत बढ़ती है, इस तरह महंगाई भी बढ़ती है। फिर बाजार में पैसे की तरलता घटने से उत्पादन की दर पर असर पड़ता है, जिससे अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी होती है। इसके अलावा नौकरीपेशा लोगों को बढ़ी दर से गृह, वाहन आदि ऋण चुकाना पड़ता है, जो एक तरह से उस पर महंगाई की मार ही साबित होता है।

फिलहाल, सामान्य उपभोक्ता, उद्योग जगत और बैंकों को राहत देकर रिजर्व बैंक ने उम्मीद जताई है कि अर्थव्यवस्था की रफ्तार कम नहीं होगी। उसने आर्थिक विकास दर का लक्ष्य पहले जैसा ही पांच से छह फीसद तक रखा है। साथ ही उसने सरकार को सुझाव दिया है कि वह रुकी हुई परियोजनाओं में तेजी लाने का प्रयास करे। परियोजनाएं चलती रहती हैं तो उससे अर्थव्यवस्था को भी गति मिलती है। इस लिहाज से रिजर्व बैंक का ताजा फैसला विकास दर और महंगाई के बीच संतुलन बनाए रखने की मंशा से किया गया है। स्वाभाविक ही इसका सभी उद्योग समूहों ने स्वागत किया और शेयर बाजार के सेंसेक्स में अचानक उछाल दर्ज हुआ। महंगाई बढ़ने की वजह केवल बाजार में पैसे का प्रवाह नहीं है। खाने-पीने की वस्तुओं के दाम बढ़ने का कारण कृषि उत्पाद के विपणन आदि से जुड़ी नीतियों में कई गंभीर खामियां हैं। सामान्य आदमी को सबसे अधिक परेशानी रोजमर्रा की उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें बढ़ने की वजह से उठानी पड़ती है। इसलिए भंडारण की उचित व्यवस्था करने, कालाबाजारी रोकने और वायदा कारोबार को नियंत्रित करने जैसे पहलुओं पर विशेष ध्यान देने की जरूरत लंबे समय से रेखांकित की जाती रही है। मगर इस दिशा में उल्लेखनीय प्रगति नहीं हो पाई है। इस बात का जवाब अभी तक नहीं तलाशा जा सका है कि किसान को मिलने वाली कीमत और बाजार में पहुंचने के बाद हो चुकी कीमत के बीच भारी अंतर के पीछे क्या कारण है। रिजर्व बैंक ने सिर्फ सब्जियों की कीमत में कमी आने से महंगाई पर काबू पाए जा सकने की उम्मीद जताई है, अगर दूसरी उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों को भी तार्किक स्तर तक लाने के उपाय तलाशे जाएं तो महंगाई शायद इतनी भयावह न रहे। इस तरह बैंक दरों में बढ़ोतरी के बजाय कटौती का फैसला भी किया जा सकता है।

  

गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

कृषि विपणन का भविष्‍य

एक अनोखी पहल करते हुए, राष्‍ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक फॉर एग्रीकल्‍चर एण्‍ड रूरल डेवलपमेंट (नाबार्ड) ने जिंसों के वायदा विपणन बाजार और डेरीवेटिव्स के बारे में किसानों के लिए मदुरई जिले में एक दिन का एक जागरूकता कार्यक्रम शुरू किया। 50 से ज्‍यादा किसान इस कार्यक्रम में शामिल हुए। 

वायदा बाजार :
वायदा बाजार एक खास प्रकार का अनौपचारिक वित्‍तीय बाजार है, जिसमें तय सौदों की बाद में डिलीवरी दी जाती है। यह ऐसा बाजार है जहां जिंसों, सिक्‍कों के ऐसे सौदे किये जाते हैं, जिनकी सुपुर्दगी बाद में करनी होती है, लेकिन पैसे वही दिये जाते हैं, जो संविदा की तारीख को तय हुए थे। जिंसों और सिक्‍कों के बाजार में इस प्रकार की खरीद-फरोख्त क़ीमतों में भारी उतार-चढ़ाव से बचाव के लिए की जाती है।

संक्षिप्‍त इतिहास :
जिंसों में वायदा सौदों का इतिहास लगभग एक सदी से ज्‍यादा पुराना है। ऐसा पहला संगठित बाजार 1875 में खुला था और इसका नाम रखा गया था बॉम्‍बे कॉटन ट्रेड एसोसिएशन। इसमें कपास के डिराइवेटिव संविदा पर सौदे होते थे। बाद में इसी तर्ज पर तिलहनों और अनाज की खरीद-बिक्री भी की जाने लगी।

भारत में वायदा बाजार में तब तेजी से परिवर्तन हुए, जब दूसरे विश्‍व युद्ध का समय आया। इसके परिणामस्‍वरूप दूसरा विश्‍व युद्ध शुरू होने से पहले बड़ी संख्‍या में वायदा बाजार खुल गये, जिनमें कपास, मूंगफली, मूंगफली का तेल, कच्‍चा पटसन, पटसन से तैयार चीजें, अरंडी के बीज, गेहूं, चावल, चीनी, सोने-चाँदी जैसी मूल्‍यवान धातुओं के सौदे देशभर में होने लगे।

युद्ध संसाधन जुटाने की कोशिशों की पृष्‍ठभूमि में प्रमुख जिंसों में सप्‍लाई की स्थिति बहुत नाजुक हो गई, जिससे दूसरे विश्‍व युद्ध के दौरान वायदा सौदों पर भारतीय रक्षा अधिनियम के अंतर्गत रोक लगा दी गई। स्‍वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1950 के दशक के उत्‍तरार्ध तथा 1960 के पूर्वार्ध में जिंसों में वायदा सौदे फिर शुरू हो गए और इससे जिंस बाजार झूम उठे। लेकिन 1960 से शुरू दशक के मध्‍यम में अधिकांश जिंसों में सौदों पर पा‍बंदी लगा दी गई और वायदा सौदे प्रतिबंधित कर दिये गये। इस प्रकार से सिर्फ दो जिंसों- कालीमिर्च और हल्‍दी में वायदा सौदे जारी रहे।

सम-सामयिक परिदृश्‍य :
वर्तमान में वायदा लेन-देन के लिए राष्‍ट्रीय स्‍तर के पांच केन्‍द्र चल रहे हैं। इनमें 113 जिंसों की वायदा खरीद-बिक्री होती है। इसके अलावा 16 ऐसे केन्‍द्र हैं, जो विनिर्दिष्‍ट किस्‍म के हैं और जहां पर वायदा बाजार कमीशन द्वारा अनुमोदित जिंसों में ही सौदे होते हैं। इसके लिए वायदा संविदा (विनियमन) अधिनियम, 1952 बना हुआ है।

किसानों और अन्‍य हितधारकों को लाभ :
किसान और इन जिंसों की पैदावार करने वाले वायदा बाजार से मूल्‍य संबंधी संकेत ग्रह करते हैं, भले ही वे वायदा सौदों में सीधे शामिल न होते हों। वायदा बाजारों के चलते जिंसों में फसली चढ़ाव-उतार कम होता है, जिससे किसानों को फसल कटने के समय फायदा होता है और वे अपनी जिंसों का बेहतर मूल्‍य पाते हैं। इससे किसान को खेती के संचालन को अग्रिम रूप से नियोजित करने में भी मदद मिलती है तथा वो यह तय कर पाता है कि उसे पहले से मिल चुकी जानकारी के आधार पर कौन सी फसल उगानी है। इससे उसे भविष्‍य में कीमतों में आने वाले रुझानों और अनेक जिंसों में पहले से मांग और पूर्ति का अंदाजा हो जाता है।

वायदा बाजारों से जिंसों की पैदावार करने वालों और बड़े उपभोक्‍ताओं को मूल्‍यों के चलते होने वाले जोखिम से निपटने का एक तंत्र मिल जाता है और जिंसों को उपजाने वालों को भविष्‍य में अच्‍छी कीमत मिलने के आसार बन जाते हैं। उत्‍पादक इससे अपनी कच्‍चे माल और तैयार माल की जरूरतें नियोजित कर लेते हैं और जोखिम से बचाव कर लेते हैं। इसके परिणामस्‍वरूप बाजार में अधिक स्‍पर्धा आती है और उत्‍पादक यूनिटों की सक्षमता सुनिश्चित होती है।
   
वायदा बाजार कमीशन:
वायदा बाजार आयोग (एफएमसी), का मुख्‍यालय मुंबई में है। यह एक विनियामक प्राधिकरण है जिसका निरीक्षण वित्‍त मंत्रालय करता है। यह एक संवैधानिक संस्‍था है और इसकी स्‍थापना 1953 में वायदा संविदा विनियामक अधिनियम-1952 के अंतर्गत की गई थी।

इस अधिनियम में व्‍यवस्‍था है कि आयोग में कम से कम दो और अधिकाधिक चार सदस्‍य होंगे, जिनकी नियुक्ति केन्‍द्र सरकार करेगी। इस समय इस आयोग में तीन सदस्‍य हैं, जिसमें से श्री रमेश अभिषेक, आई.ए.एस. अध्‍यक्ष हैं। आयोग के अन्‍य सदस्‍यों के नाम हैं- डॉ. एम. मतिशेखरन, आई.ई.एस. और श्री नागेन्‍द्रा पारख।

मदुरई शिविर :
मदुरई में किसानों के लिए प्रशिक्षण शिविर का उद्घाटन करते हुए नाबार्ड के सहायक महाप्रबन्‍धक, श्री आर. शंकर नारायण ने उन अनेक गतिशील कारकों को स्‍पष्‍ट किया, जिनसे खेती की जिंसों के संदर्भ में मूल्‍य अन्‍वेषण के दौरान वास्‍ता पड़ता है और किसान के लिए यह जरूरी हो जाता है कि वह परिदृश्‍य के अनुकूल बने। अब जबकि वैश्‍वीकरण का जमाना है और भौगोलिक सीमाएं लुप्‍त हो रही हैं, दुनियाभर में डिराइवेटिव मार्किट विश्‍व अर्थव्‍यवस्‍था में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं और भारत भी इसका अपवाद नहीं है। उन्‍होंने आगे कहा कि अगर किसानों के अपने परिश्रम का सर्वश्रेष्‍ठ मूल्‍य प्राप्‍त करना है, तो उन्‍हें उपजाने वालों के संगठन के रूप में संगठित होना होगा तथा अपने आपको जरूरी जानकारी से लैस करना होगा। इस बात को ध्‍यान में रखते हुए नाबार्ड बरसों से एक ग्रामीण किसान क्‍लब की बात करता रहा है, जो बैंकों की मार्फत संगठित किया जाए और जिसमें संबंधित गांवों के प्रगतिशील किसान शामिल हों। श्री शंकर नारायण ने उपज को इकट्ठा करके सीधे विपणन की जरूरत पर भी जोर दिया और कहा कि इससे जिंस का मूल्‍य बढ़ जाता है।
मदुरई विपणन समिति के सचिव तवासी मुत्‍तु ने किसानों से अनुरोध किया कि वे ताजा तरीन प्रौद्योगिकी अपनाएं और बाजार में एकीकृत समूह के रूप में प्रवेश करें। उन्‍हें सरकार द्वारा जुटाई जा रही भंडारण सुविधाओं का भी इस्‍तेमाल करना चाहिए और उन कर्ज देने वालों से दूर रहना चाहिए जो फसल को नुकसानदेह शर्तों पर गिरवी रख लेते हैं। इस प्रकार की जिंसें विनियमित बाजारों में इकट्ठी कर ली जाती हैं।

एमसीएक्‍स चेन्‍नई के क्षेत्रीय प्रमुख एस. सेंथिलवेलन ने जिंसों के वायदा बाजार के काम करने के बारे में विशेषज्ञों की तरह जानकारी दी और बताया कि किस प्रकार से यह एक पेचीदा विषय है। उन्‍होंने कहा कि किसी को वायदा बाजारों के बारे में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए, क्‍योंकि ये बाजार वायदा बाजार कमीशन की देखरेख में काम करते हैं। उन्‍होंने कहा कि जो किसान पहले ही अपनी उपज इकठ्ठा करने में शामिल हैं और जिन्‍हें नाबार्ड से मार्गदर्शन मिल रहा है, उन्‍हें अपनी खेती की फसलों को वायदा बाजार के लिए विस्‍तारित करने को तैयार रहना चाहिए।


इस प्रशिक्षण कार्यक्रम की एक रोचक बात यह रही कि किसानों को खरीद-बिक्री, मार्जिन, मध्यस्थता, सुपुर्दगी, विकल्‍प मांगना, विकल्‍प देना आदि जैसे विषयों के बारे में बारीकियां समझाई गईं और इसके लिए जिंस बाजार में होने वाले ऑनलाइन खरीद-बिक्री का एक नमूना पेश किया गया।

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक 2011

लोकसभा द्वारा लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक 2011को 18 दिसंबर 2013 को पारित कर दिया गया. इसके पहले राज्यसभा ने कुछ संसोधनों के साथ लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक 2011को 17 दिसंबर 2013 को ध्वनिमत से पारित किया था.
इस विधेयक की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं-
केन्द्र में लोकपाल और राज्य स्तर पर लोकायुक्त का प्रावधान.
लोकपाल में एक अध्यक्ष और अधिकतम आठ सदस्य होंगे, जिनमें से 50 प्रतिशत न्यायिक सदस्य होंगे.
लोकपाल के 50 प्रतिशत सदस्य अनुसूचित जाति /जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यकों और महिलाओं में से होंगे.

लोकपाल के गठन से सम्बंधित चयन समिति
लोकपाल के अध्यक्ष और सदस्यों का चयन एक चयन समिति द्वारा किया जाएगा, जिसके सदस्य होंगे-
प्रधानमंत्री.
लोकसभा अध्यक्ष.
लोकसभा में विपक्ष के नेता.
भारत के प्रधान न्यायाधीश या उनके द्वारा नामित उच्चतम न्यायालय का वर्तमान न्यायाधीश.
चयन समिति के पहले चार सदस्यों द्वारा की गई सिफारिशों के आधार पर भारत के राष्ट्रपति द्वारा नामित प्रख्यात विधिवेत्ता.

ये लोग लोकपाल में नहीं हो सकते
सांसद या विधायक
भ्रष्टाचार का दोषी
45 साल से कम उम्र का व्यक्ति

पदमुक्ति के बाद
लोकपाल कार्यालय में नियुक्ति खत्म होने के बाद अध्यक्ष और सदस्यों पर निम्नलिखित प्रकार के प्रतिबंध लगाए जाते हैं.
इनकी अध्यक्ष या सदस्य के रूप में पुनर्नियुक्ति नहीं हो सकती.
इन्हें कोई कूटनीतिक जिम्मेदारी नहीं दी जा सकती और केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासक के रूप में नियुक्ति नहीं हो सकती.
इन्हें ऐसी कोई भी जिम्मेदारी या नियुक्ति नहीं दी जा सकती जिसके लिए राष्ट्रपति को अपने हस्ताक्षर और मुहर से वारंट जारी करना पड़े.
पद छोड़ने के पांच वर्ष बाद तक ये राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, संसद के किसी सदन, किसी राज्य विधानसभा या निगम या पंचायत के रूप में चुनाव नहीं लड़ सकते.

अधिकार क्षेत्र
प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाया गया है.
सभी श्रेणियों के सरकारी कर्मचारी लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में आएंगे.
विदेशी अनुदान नियमन अधिनियम (एफसीआरए) के संदर्भ में विदेशी स्रोत से 10 लाख रूपए वार्षिक से अधिक का अनुदान प्राप्त करने वाले सभी संगठन लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में होंगे.

लोकपाल के अधिकार
ईमानदार और सच्चे सरकारी कर्मचारियों को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान की गई है
सीबीआई सहित किसी भी जांच एजेंसी को लोकपाल द्वारा भेजे गए मामलों की निगरानी करने और निर्देश देने का लोकपाल को अधिकार होगा
प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक उच्च अधिकारप्राप्त समिति सीबीआई के निदेशक के चयन की सिफारिश करेगी
अभियोजन निदेशक की अध्यक्षता में अभियोजन निदेशालय होगा, जो पूरी तरह से निदेशक के अधीन होगा
सीबीआई के अभियोजन निदेशक की नियुक्ति केन्द्रीय सतर्कता आयोग की सिफारिश पर की जाएगी.
लोकपाल द्वारा सीबीआई को सौंपे गए मामलों की जांच कर रहे अधिकारियों का तबादला लोकपाल की मंजूरी से होगा.
विधेयक में भ्रष्टाचार के जरिए अर्जित संपत्ति की कुर्की करने और उसे जब्त करने के प्रावधान शामिल किए गए हैं, चाहे अभियोजन की प्रक्रिया अभी चल रही हो.
विधेयक में प्रारंभिक पूछताछ, जांच और मुकदमें के लिए स्पष्ट समय-सीमा निर्धारित की गई है और इसके लिए विधेयक में विशेष न्यायालयों के गठन का भी प्रावधान है.

अधिनियम के लागू होने के 365 दिनों के अंदर राज्य विधानसभाओं द्वारा कानून के माध्यम से लोकायुक्तों की नियुक्ति की जानी अनिवार्य होगी.

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

विधि और न्याय

समलिंगी संबंधों के मसले पर कुछ धार्मिक और सांस्कृतिक संगठनों की ओर से दायर याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले को संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार भले विधिसम्मत माना जाए, लेकिन बदलते सामाजिक मूल्यों के लिहाज से इसे प्रगतिशील न्याय के रूप में नहीं देखा जाएगा। अदालत ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को सही ठहराया है, जिसके तहत प्रकृति की व्यवस्थाके विरुद्ध स्थापित किए गए शारीरिक संबंधों को अपराध माना गया है। स्वाभाविक रूप से इससे संबंधों के मामले में जनतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले एक बड़े वर्ग में निराशा फैली है और इसे मानवाधिकारों का हनन करने वाले फैसले के तौर पर देखा जा रहा है। लेकिन न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी के नेतृत्व वाली पीठ ने यह कहते हुए इसकी जिम्मेदारी केंद्र सरकार के पाले में डाल दी है कि  कानून बनाना और बदलना संसद का काम है। निश्चित रूप से अदालत की यह सीमा है कि उसे संविधान में दर्ज कानून और उसकी व्यवस्था के तहत अपना फैसला देना होता है। मगर ऐसे न जाने कितने मौके आए हैं जब न्यायालय ने अपने विवेक से कानूनों की प्रासंगिकता पर विचार किया और मानवाधिकारों के अनुकूल उनकी व्याख्या की है। जहां तक धारा 377 का सवाल है, इस कानून का आमतौर पर समलिंगी वयस्कों को अपमानित और प्रताड़ित करने के एक हथियार के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाता रहा है। इसके अलावा, समाज में ऐसे संबंध रखने वालों को आमतौर पर हेय दृष्टि से देखा जाता है। इस तरह की कई विपरीत स्थितियों के बरक्स ही समलिंगी संबंधों को सहज चुनाव का मामला मानने वालों ने सन 2001 में जनहित याचिका दायर कर अदालत से समलैंगिकता को दंडनीय न मानने और ऐसे लोगों को इज्जत के साथ जीने का अधिकार देने की गुजारिश की थी।

यों, इसी संविधान के अनुच्छेद  चौदह और इक्कीस में समानता को जिस तरह मौलिक अधिकार का दर्जा दिया गया है, उसमें यह एक विरोधाभास ही है कि किसी व्यक्ति को उसके शारीरिक संबंधों के चुनाव के आधार पर भेदभाव का शिकार होना पड़े। शायद इसी आधार पर तब दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एपी शाह और एस मुरलीधर ने समलैंगिकता को प्रतिबंधित करने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा 377 की सावधानी से व्याख्या की और करीब चार साल पहले ऐसे संबंधों को अपराध न मानने की व्यवस्था दी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ताजा फैसले में दिल्ली उच्च न्यायालय के उस निर्णय को किनारे कर दिया है। सवाल है कि खुद संविधान ने लोगों को जो मौलिक अधिकार दिए हैं, उन्हें क्या केवल नैतिकता के अलग-अलग मानदंडों का हवाला देकर खारिज किया जा सकता है। यह कानून 1861 में औपनिवेशिक काल में तैयार किए गए भारतीय दंड संहिता का हिस्सा है, जिसे आज बिल्कुल प्रासंगिक नहीं माना जा सकता। एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक समाज में समलिंगी संबंधों पर कानून, संसद या किसी को भी आपत्ति क्यों होनी चाहिए और इसे अपराध के रूप में देखा जाना कहां तक सही है। कुछ कट्टर धार्मिक समूहों और पारंपरिक सोच वाले लोगों को छोड़ दें तो आधुनिक और उदार तरीके से समाज को देखने-समझने वाले लोग लैंगिकता को दो लोगों की आपसी समझ और रजामंदी का मामला मानते हैं। ऐसे में धारा 377 अगर किसी व्यक्ति के निजी चुनाव या जीवनशैली को आपराधिक ठहराता है तो संसद के सामने उसकी व्यावहारिकता पर विचार करने का विकल्प खुला है। अंग्रेजी राज में बनाए गए नियम-कायदे आज भी उतने ही सही हों, जरूरी नहीं।

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