शनिवार, 6 जुलाई 2013

भ्रष्टाचार से मुकाबला कैसे

 कैंसर जैसे रोग से अचानक एक दिन में नहीं लड़ा जा सकता. यदि ऐसे किसी रोग ने किसी व्यक्ति को जकड लिया है तो उसके लिए जो सबसी पहली आवश्यकता है वह यह कि हम यह बात समझें और एहसास करें कि उस व्यक्ति को कैंसर है तथा इसका ईलाज भी अब बीमारी की गंभीरता को देखते हुए ही किया जाएगा. यदि हम ऐसा नहीं मानते हैं और उतावलेपन में किसी भी प्रकार के ईलाज की तरफ बढ़ जाते हैं तो उसके परिणाम और भी भयावह होंगे.

कुछ यही स्थिति आज हमारे देश में भ्रष्टाचार की भी है. कहना मुश्किल है कि इस बीमारी की जड़ें ऊपर से हैं या नीचे से. यदि चोटी के कुछ लोग टू जी स्पेक्ट्रम और कॉमनवेल्थ खेलों जैसे घोटालों में फंसे दिख रहे हैं तो हममे से शेष लोग अपने रोजमर्रा के छोटे-छोटे जगहों पर इस खेल को खेल रहे हैं. अतः आप या तो अपना टिकट कन्फर्म नहीं होने की दशा में ट्रेन के टीटी को पैसे दे रहे हैं या एक सिपाही के रूप में बिना कागज़ पकडे गए आदमी से पैसे ले रहे हैं. आप या तो अपनी बेटी का इंजिनीयरिंग में एडमिशन कराने के लिए पैसे दे रहे हैं या फिर एक अच्छे स्कूल के प्रिंसिपल के तौर पर डोनेशन के पैसे ले रहे हैं. ऐसे हज़ारों-लाखों उदाहरण हमें अपने ही चरों तरफ मिल जायेंगे जहां यह खेल छोटे-छोटे रूपों में नित प्रति खेला जा रहा है. यह भी साफ़ है कि इन खेलों के लिए कहीं से कोई संचार मंत्री या टेलिकॉम सचिव या बड़ा उद्यमी नहीं आया रहा है, यह सब तो हम अपनी मर्जी से कर रहे हैं. ऐसे में यदि कोई आ कर कह देता है कि मेरे पास इस बीमारी का शर्तिया इलाज है और वह इलाज लोकपाल है तो हम यही समझते है कि कैंसर के इलाज के लिए बेबी टॉनिक सामने ला कर रख दिया गया है.

हमारी निगाह में लोकपाल जैसी किसी एक संस्था के आ जाने मात्र से भ्रष्टाचार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला है. भ्रष्टाचार एक भयानक समस्या है और अत्यंत दुरूह. इसे इसकी पूर्णता में समझना और तदनुरूप हर प्रकार से इसे दूर करने के लिए बहु-आयामी प्रयास करने की जरूरत है, ना कि एक जादुई चिराग को ले आने के भ्रम को फैलाने की. कोई एक संस्था अकेले दम पर भ्रष्टाचार के दानव का अंत कर ही नहीं सकती. अंत तो बहुत दूर की बात है, ऐसी संस्थाएं अकेले दम इस भ्रष्टाचार को ठीक से छु तक नहीं सकेंगी.

तो फिर भ्रष्टाचार का इलाज क्या है? हम यहाँ कुछ संभव उपाय प्रस्तुत कर रहे हैं जिनके पालन से भ्रष्टाचार से कुछ हद तक छुटकारा मिल सकता है. पर हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि ये उपाय अपने आप में पूरे नहीं हैं और ना ही सम्पूर्ण हैं. इनके अलावा कई सारे उपाय संभव हैं और आप सभी लोग अपनी ओर से ये उपाय सोच सकते हैं तथा इस सूची में शामिल कर सकते हैं. तभी जा कर भ्रष्टाचार से कोई प्रभावी मुकाबला करने की बात सोची जा सकती है.

·         सबसे पहली बात यह कि भ्रष्टाचार का एक दिन में इलाज संभव ही नहीं है. यह बात छोटी और सीधी जरूर लगती है पर इसके गंभीर मायने हैं. इसका सबसे पहला मतलब तो यही है कि हम इसे दूर करने के लिए किसी भी उलटे-सीधे उपाय के चक्कर में नहीं पड़ जाएँ. दूसरी बात यह कि हम अल्प अवधि में भ्रष्टाचार के दूर नहीं होने से अकारण परेशान नहीं हों. एक दिन में शर्तिया इलाज की बातें अक्सर ऐसा नहीं होने पर गलत इशारा कर देती हैं और लोगों में दुगुना हतोत्साह भर देती हैं. हमें ऐसी किसी भी स्थिति से पूरी तरह बचना होगा

·         हमें यह समझना होगा कि हमारे देश में भ्रष्टाचार किसी क़ानून की कमी या किसी प्रक्रिया की कमी के कारण नहीं है और ना ही हमारे पास संस्थाओं की कमी है. जहां तक निष्पक्ष संस्थाओं की बात है, सामाजिक-राजनैतिक सन्दर्भों में किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में पूर्णतया निष्पक्ष संस्थाएं कागज़ पर अधिक होती हैं, व्यवहार में बहुत कम. सभी जानते हैं कि कई सारी उच्च संवैधानिक पदों की नियुक्ति सिद्धान्ततया राजनैतिक हस्तक्षेप से पूर्णतया विलग मानी जाती है पर सच्चाई यही है कि अक्सर इन स्थानों पर भी अलग-अलग किस्म के प्रभावों की बात कही-सुनी जाती है. सिविल सेवा के अधिकारी तो एक अलग परीक्षा से चयनित हो कर आते हैं और अपने कैरियर में इस कदर सुरक्षित होते हैं कि कोई भी राजनैतिक शक्ति उनका अकारण बाल बांका नहीं कर सकती पर वे कई बार अपनी पहल पर, अपने लालच के लिए, अपनी ओर से कोशिश कर के राजनेताओं से सांठ-गाँठ करते दिख जाते हैं. अतः यह कहना कि लोकपाल पूर्णतया निष्पक्ष ढंग से चुना जा सकता है और निष्पक्ष बना रहेगा अथवा उस संस्था के कर्मचारी/अधिकारी ऐसा ही आचरण करते रहेंगे, काफी हद तक बेमानी होगा

·         भ्रष्टाचार से मुक्ति पाने के लिए क़ानून के साथ-साथ लोक-जागरण और लोगों को इस ओर चैतन्य करना नितांत आवश्यक होगा. यह काम कैसे होगा? यह एक बहुत ही दुष्कर और सतत प्रक्रिया होगी जिसमे हर उस व्यक्ति को आगे आना होगा जो भ्रष्टाचार के इस दंश का मुकाबला कर रहा है. इन सभी जागरूक व्यक्तियों को अपने आस-पास अपनी पूरी क्षमता के अनुरूप अधिक से अधिक संख्या में लोगों को इस ओर उद्धत करना होगा, उन्हें समझाना होगा और भ्रष्टाचार से होने वाली हानियों से विस्तार में अवगत कराना होगा.

·         भ्रष्टाचार की समस्या और इससे निदान को हमारी शिक्षा व्यवस्था का अनिवार्य अंग बनाना होगा. इस तरह से कक्षा एक से ही हमारी शिक्षा प्रणाली में एथिक्स और मोरल वैल्यू को महत्वपूर्ण स्थान देते हुए उस पर विषद चर्चा करना आवश्यक होगा. एथिक्स और मोरल वैल्यू के अतिरिक्त खास कर भ्रष्टाचार और उससे निदान को भी पाठ्यक्रम में उचित स्थान दिया जाना चाहिए. हम जानते हैं कि बचपन में यह सब पढ़ा देने से ही हर व्यक्ति इनका पालन नहीं करने लगता पर सच्चाई यह भी है कि बचपन में पढ़ाई-सिखाई गयी बातें आदमी के जेहन पर सबसे अधिक असर करती हैं.

·         भ्रष्टाचार करने पर पकडे जाने पर तत्काल दंड दिये जाने की बहुत जरूरत है. यह दंड तीन तरह के हो सकते हैं. इनमे पहला तरीका है सामाजिक दंड. समाज में इस बात का भरपूर प्रचार होना चाहिए कि जो भी व्यक्ति भ्रष्टाचार में लिप्त है वह एक प्रकार से सामाजिक भ्रष्टाचार के योग्य है. इसके लिए समाचार पत्रों और मीडिया को आगे आना होगा और भ्रष्टाचार सम्बंधित प्रत्येक खबर को उसके सामाजिक आयाम के साथ प्रदर्शित करना होगा. हमारी निगाह में न्यायिक दंड के साथ सामाजिक दंड का भी अपना विशेष स्थान होता है. इसके लिए भी अन्य लोगों के अतिरिक्त सामाजिक संगठनों और सामाजिक रूप से जागरूक व्यक्तियों को आने आते हुए अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी

·         भ्रष्टाचार करने वाले व्यक्ति को आधिकारिक/प्रशासनिक दंड दिया जाना. जहां किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध कोई भी शिकायत आई, उसपर तुरंत जांच हो और जांच के निष्कर्षों के अनुरूप कार्यवाही हो. जरूरी यह है कि यह कार्यवाही यथाशीघ्र हो ताकि सम्बंधित अधिकारी पर भी इसका सम्यक प्रभाव पड़े और दूसरों के लिए भी वह एक मिसाल बने. इसके विपरीत यदि यह व्यक्ति सालों जांच झेलता रहता है और अंत में जांच में निर्दोष हो जाता है तो इसका हर किसी पर गलत प्रभाव पड़ता है. इस हेतु नितांत आवश्यक है कि प्रत्येक प्रशासनिक कार्यवाही के पूरा होने लिए अनिवार्यरूप से निश्चित समयावधि नियत कर दी जाए और प्रत्येक दशा में वह जांच उस समयावधि में ही पूरी हो. ऐसा नहीं होने पर जांचकर्ता अधिकारी दोषी ठहराए जाएँ और उन पर अलग से विभागीय कार्यवाही हो. यदि ऐसे नियम बना दिये जाएँ तो उनका पालन शुरू भी हो जाएगा और इससे ऐसे सभी मामलों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ेगा.

·         एक अन्य विषय जिस पर हमें विशेष ध्यान देने की जरूरत है वह यह कि हमारे सारे वित्तीय लेन-देन, हमारी समस्त वित्तीय कार्यवाहियां, सभी तरह के आर्थिक और औद्योगिक उत्पादन और सभी सेवाएं इस तरह से हों कि उनका बकायेदे हिसाब और रिकॉर्ड हो. इसका अर्थ यह हुआ कि जो भी खरीद-फरोख्त हों, जो भी सामान बेचे और ख़रीदे जाएँ अथवा जो भी सेवा प्रदान की जाएँ या उपयोग की जाएँ, वे सभी कम्प्यूटरीकृत हों और उनका डाटाबेस तैयार किया जाए और उन्हें सुरक्षित रखा जाए. यह कोई आसान काम नहीं है और ना ही एक दिन में होने वाला काम है पर ऐसा भी नहीं है कि यदि गंभीरता से यह कार्य किया जाए तो इसके अपेक्षित परिणाम नहीं निकलेंगे. जैसे ही हमें इस दिशा में पर्याप्त सफलता मिलनी शुरू हो जायेगी, उसके साथ ही आर्थिक व्यवस्था में काले धन का प्रवाह उसी अनुपात में स्वतः ही कम होना शुरू हो जाएगा. अतः हमें ई-गवर्नेंस के मूल सिद्धांतों का समुचित प्रयोग करते हुए हर दशा में वित्तीय और आर्थिक आदान-प्रदान का कम्प्यूटरीकरण और डाटाबेस का कार्य हर कीमत पर प्रारम्भ कर देना चाहिए.

·         अगली बात बेनामी संपत्ति अधिनियम का समुचित प्रयोग करने से सम्बंधित है. यह एक बहुत ही प्रभावी अधिनयम है जिसका हमारे देश में दुर्भाग्यवश उस हद तक प्रयोग नहीं हो पा रहा है जितनी इसमें संभावनाएं हैं. इसका कारण यह है कि तमाम लोग अपनी भ्रष्टाचार से अर्जित संपत्ति कई बार बेनामी संपत्ति के रूप में रखते हैं. अतः यदि एक सिरे से तमाम बड़ी संपत्तियों के विषय में सर्वे शुरू की जाए और उनके स्वामित्व के विषय में प्रथमद्रष्टया बाह्य तौर पर भी जांच शुरू कर दी जाए तो कई सारे अत्यंत लाभप्रद परिणाम मिलेंगे. इसका कारण यह है कि कई सारे लोगों की सम्पत्तियां तो ऐसे नामों से होंगी जो वास्तव में अस्तित्व में ही नहीं रहे होंगे अथवा जिनके सम्बन्ध में एक बार में ही स्पष्ट हो जाएगा कि वे इस संपत्ति के मालिक हो ही नहीं सकते. इस तरह के सर्वे कोई बहुत मुश्किल काम भी नहीं हैं और यदि सरकार मन से चाह ले तो बड़ी संपत्तियों का सर्वेक्षण निश्चित तौर पर कराया जा सकता है और ऐसा होना भी चाहिए.

·         इसके अलावा यही स्थिति न्यायिक मामलों में भी हो. न्यायिक प्रक्रिया में विलम्ब हमारे देश में एक भारी समस्या के रूप में विद्यमान है और चूँकि हर प्रकरण अंत में घूम कर न्यायालय में आ ही जाता है, अतः यहाँ हुए विलम्ब से पूरी प्रक्रिया बुरी तरह प्रभावित होती है. अतः हमें इस पर बहुत अधिक ध्यान देना होगा. सबसे जरूरी आवश्यकता जो आज हो गयी है, वह है शीघ्र न्याय की. न्याय में देरी हुई नहीं कि एक प्रकार से अनाचार और अत्याचार शुरू हो गया- दोषी व्यक्ति के प्रति भी, निर्दोष के प्रति भी और शेष समाज के लिए भी. यदि साक्ष्य नहीं मिल रहे हैं तो भी और यदि साक्ष्य मिल रहे हैं तो भी, उपलब्ध साक्ष्यों और गवाहियों के आधार पर न्यायालयों को शीघ्र निर्णय लेने ही होंगे. इसमें किसी प्रकार के विलम्ब की कत्तई गुंजाइश ही नहीं है. हम मानते है कि इसके लिए तत्काल क़ानून बना कर प्रत्येक मामले के लिए न्याय और निर्णय देने की समयावधि नियत करनी ही होगी. हमारी निगाह में यह इस पूरी प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण भाग है. यदि मान भी लिया जाए कि इससे कुछ प्रकरणों में अभियुक्तों को लाभ मिल जाएगा या दोषी दण्डित नहीं होंगे तब भी यह अकारण मामले को सालों खींचे जाने से बहुत बेहतर है. इस दिशा में भारत सरकार द्वारा प्रस्तावित राईट टू जस्टिस एक्ट बहुत महत्वपूर्ण है और हमें इसका हर तरह से स्वागत करना चाहिए

·         साथ ही हमें दहेज और जाति प्रथा जैसी गंभीर सामाजिक बुराइयों के प्रति भी चैतन्य रहना होगा. हमने जिन दो बुराईयों की बात यहाँ रखी है वे भी कहीं ना कहीं से भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं. जाति प्रथा के कारण लोग सीमित परिधि में शादी व्याह करने को बाध्य हैं. इसका नतीजा यह है कि दहेज के दर निरंतर बढते जा रहे हैं. हमने कई लोगों को तो मात्र बेटियों की शादी के लिए आजन्म भ्रष्ट आचरण में लिप्त और परेशान होते देखा है जो इन तमाम कोशिशों के बाद भी अपनी लड़की के लिए अच्छा वर नहीं ढूंढ पाते. यहीं यह बात भी साबित होती है कि केवल क़ानून बना देने से सामाजिक बुराईयों का अंत नहीं हो जाता. दहेज अधिनियम के बने तो जाने कितने साल हो गए हैं, क्या इसका कोई भी असर दहेज के लेन- देन पर पड़ा है? अतः कानून वही बनें जो व्यावहारिक हों और जिनका अनुपालन संभव हो.


यदि हम इन सभी उपायों को गंभीरता से, तन्मयता से, लगन और ईमानदारी से तथा असीम धैर्य से करेंगे तभी हमें भ्रष्टाचार को रोंक सकने में सहायता और सफलता मिल सकेगी. अन्यथा तो केवल हल्ला-गुल्ला और नौटंकी ही चलती रहेगी जिसका कोई खास लाभ नहीं हो सकेगा.

आतंकवाद के आर्थिक आयाम

यद्यपि आतंकवाद की परिघटना इतिहास में अनेक शताब्दियों से हो रही है फिर भी इसका विस्तार हाल के दशकों में हुआ है। उसकी बारंबारता भी बढ़ी है। आज शायद ही कोई देश उससे अछूता है। हमारे अपने यहां पंजाब में 1980 के दशक की आतंकी गतिविधियों श्रीलंका की गतिविधियों के भारत पर पड़े प्रभावों और भारतीय संसद मुम्बई और दिल्ली उच्च न्यायालय पर हुए हमलों को आज तक लोग नहीं भुला पाए हैं।
प्रश्न है कि आतंकवाद क्यों पनपता है। इस पर विचार करने के पूर्व हमें दोशब्दों 'कारक' और 'कारण' के बीच फर्क करना होगा। तर्कशास्त्र के अनुसार कारक किसी घटना को त्वरित या प्रोत्साहित करते हैं मगर उसे जन्म नहीं देते। उनकी भूमिका केवल सहायक की होती है। उदाहरण के लिए मलेरिया या डेंगू खास प्रकार के मच्छर के काटने से होता है मौसम के ठंड या गर्म होने से नहीं यद्यपि मौसम की प्रतिकूल स्थिति उसे बढ़ावा देती है। इस प्रकार वह कारक है।
यदि हम इस अंतर को ध्यान में रखकर आतंकवाद की परिघटना पर विचार करें तो हम इस नतीजे पर पहुंचेंगे कि गरीबी की भूमिका आतंकवाद के लिए कारक की हो सकती है। वह उसका कारण सर्वथा नहीं होती इस बात को प्रख्यात अमेरिकी अर्थशास्त्री एलन बी. क्रुगर ने लंदन स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स में वर्ष 2006 में लिओनेल रॉबिन्स व्याख्यान के क्रम में रेखांकित किया। उसके व्याख्यान प्रिस्टन यूनिवर्सिटी प्रेस से 2007 में पुस्तक के रूप में 'व्हाट मेक्स ए टेर्रोरिस्ट : इकॉनमिक्स एंड द रुट्स ऑफ टेरोरिम' शीर्षक से प्रकाशित हुए। क्रुगर एक प्रख्यात अर्थशास्त्री ही नहीं है बल्कि अमेरिकी प्रशासन के आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष भी हैं।
क्रुगर ने अपने पहले व्याख्यान के आरंभ में ही यह प्रश् उठाया कि कोई व्यक्ति आतंकवादी क्यों बन जाता है और वह आदमी अपनी जान को दांव पर लगाकर दूसरे लोगों, देशों और समुदायों तथा उनकी संपत्ति पर क्यों हमला करता है। कुछ लोग आर्थिक गरीबी और शिक्षा की कमी को आतंकवाद की जड मानते हैं। हमारे अपने यहां नक्सली, आतंकवाद और विशेषकर छ.ग. में हुई हाल की घटनाओं के संदर्भ में गरीबी, अशिक्षा, वन संपदा की लूट आदि को उनके लिए जिम्मेदार बतलाया गया है। ध्यान से देखें तो वे मूल कारण नहीं, बल्कि कारक हो सकते हैं जो आतंकी प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं। दूसरे शब्दों में, वे उसके जनक नहीं हैं। वे कारक हैं, कारण नहीं।  यदि गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा और शोषण कारण होते तो उन्होंने पहले आतंकी गतिविधियों को क्यों जन्म नहीं दिया जब वे उग्रतर रूपों में देखे गए। उदाहरण के तौर पर, 1770 में बंगाल, बिहार और ओडिसा में भयंकर अकाल पड़ा जिसमें लगभग एक तिहाई जनसंख्या मौत के घाट उतर गई। कुछ दंगे-फसादों को छोड़ दें तो कंपनी शासन के खिलाफ कोई आतंकी गतिविधियां नहीं देखी गईं। वर्ष 1943 में अविभाजित बंगाल में अकाल पड़ा जिसमें करीब 35 लाख लोगों की मौत हुई फिर भी आतंकवाद कहीं नहीं दिखा।
इसी प्रकार विधर्मियों, विदेशियों और विजातीय लोगों के प्रति घृणा और द्वेष यदा-कदा हिंसक प्रवृत्तियों को जन्म दे सकते हैं। परंतु वे शायद ही आतंकवाद को संगठित रूप से लाते हैं। क्रुगर के अनुसार, बेरोजगार या मजदूरी की निम्न दरों पर कार्यरत लोगोें के लिए आतंकी गतिविधियों में शामिल होना कोई भारी घाटे का सौदा नहीं होता फिर भी देखा गया है कि वे बड़े पैमाने पर आतंकवाद की ओर उन्मुख नहीं होते। दुनिया की आधी जनसंख्या वर्ष 2005 में दो डालर से भी कम दैनिक आय पर जीवन बसर कर रही थी। दुनिया भर में एक अरब लोग अधिक से अधिक प्राथमिक शिक्षा पा सके थे। निरक्षरों की संख्या साढ़े 78 करोड़ थी। यदि गरीबी और शिक्षा का अभाव आतंकवाद के मूल में होते तो विश्व में आतंकियों की भरमार होती और उनसे निपट पाना सबसे शक्तिशाली शासन के लिए भी संभव नहीं होता।
अनुसंधान बतलाते हैं कि अधिकतर आतंकी आर्थिक दृष्टि से वंचित नहीं होते। वस्तुत: वे अपने सैध्दांतिक प्रतिबध्दताओं के कारण आतंकवाद की ओर उन्मुख होते हैं। नागरिक अधिकारों का अभाव तथा जनतंत्र की दुर्बलता अनेक लोगों को अपनी जायज मांगों के लिए संघर्ष में हिंसक तरीकों को अपनाने के लिए बाध्य करती है। क्रुगर ने पाया है कि आतंकी अपेक्षाकृत शिक्षित और आर्थिक दृष्टि से बेहतर परिवारों से होते हैं। स्पष्टतया, अशिक्षा, उच्च शिशु मृत्यु दर और प्रति व्यक्ति निम् आय स्तर लोगों को आतंकवाद का रास्ता अपनाने के लिए प्रेरित नहीं करते। देखा गया है कि नागरिक अधिकारों, राजनीतिक स्वतंत्रता और प्रेस की आजादी का दमन, लोगों विशेषकर जागरूक व्यक्तियों को आतंकवाद की ओर ढकेलता है।
आतंकवादी जिन गतिविधियों को अपनाते हैं उनका मूल उद्देश्य भय का वातावरण पैदा करना होता है, जिससे सामान्य आर्थिक गतिविधियां बाधित हों और उत्पादन और वितरण की व्यवस्था में खलल पड़े। लोग उत्पादन स्थलों और बाजार से भागें। कहना न होगा कि इससे जनमत प्रभावित होगा और सरकार की क्षमता पर प्रश्नचन्ह लग सकते हैं। विदेशी निवेश और व्यापार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है जिससे बेरोजगारी एवं गरीबी बढ़ सकती है। सरकार अपनी अक्षमता जाहिर कर सकती है या दमनकारी नीतियां अपना सकती है। दोनों ही स्थितियों में आतंकवादी नेतृत्व फायदा उठाने की कोशिश कर सकता है। क्रुगर ने रेखांकित किया है कि आतंकवाद एक कार्यनीति मात्र है। उसके पास कोई दूरगामी कार्यक्रम नहीं होता। इसलिए अन्य क्रांतिकारी आंदोलनों की तरह वह टिकाऊ नहीं होता और न ही उसका जनाधार बहुत समय तक बना रहता है।
जनधारित क्रांतिकारी आंदोलनों की कोशिश हमेशा अपने साथ जनता के जुड़ाव को मजबूत बनाना और विस्तृत करना होता है, जबकि आतंकवादियों का नजरिया संकीर्ण होता है। हिंसक गतिविधियों को बढ़ावा देने के पहले यह नहीं सोचते कि उनसे उनका जनाधार बढ़ेगा या घटेगा और आम आदमियों को जानमाल का क्या नुकसान होगा। छत्तीसगढ़ में हाल ही में हुई हिंसक आक्रमणों को ही लें। उनसे कतई अच्छा संदेश देश की जनता में नहीं गया है यद्यपि कुछ दिनों तक सनसनी फैली और प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में गरमागरम बहस हुई। आतंकवादियों के पक्ष में शायद ही कोई दूरगामी टिकाऊ प्रभाव हुआ है।
यहां आतंकवादी हिंसा और सांप्रदायिक जातीय और राष्ट्रीयता पर आधारित हिंसा में फर्क करना आवश्यक है।  हमारे अपने ही देश में हिन्दू-मुसलमान और हिन्दू-ईसाई दंगे हुए हैं। ये दंगे क्षणिक उन्माद के ही परिणाम रहे हैं। कुछ अरसे के बाद अधिकतर लोग उन्हें भुला देते हैं। इनके विपरीत आतंकवादी हिंसक घटनाओं के पीछे संगठन और योजनाएं रहती हैं। कब, कहां और कैसे इन हिंसक घटनाओं को अंजाम दिया जाय, इसको लेकर काफी माथापच्ची होती है।
अध्ययन बतलाते हैं कि अधिकतर आतंकवादी संगठनों को संचालित करने वाले लोग समाज के प्रबुध्द परिवारों से आते हैं तथा उन्हें खाने-पीने की कोई चिंता नहीं होती। वे वैचारिक कारणों से इन संगठनों से जुड़ते हैं। कम पढ़े-लिखे और निम्न आर्थिक वर्गों से आने वाले उनके निर्देशन में काम करते हैं। इनमें से कई रॉबिन हुड आतंकवाद के विचारों से अनुप्राणित होते हैं। धनवानों से लूट कर गरीबों के बीच बांटने में उन्हें आनन्द आता है।
यह भी पाया गया है कि जब संगठन का आकार एक सीमा के आगे चला जाता है तब निचले स्तर पर जुड़ने वाले आर्थिक प्राप्तियों में कहीं अधिक दिलचस्पी रखने लगते हैं। इसी कारण हमारे यहां रंगदारी की बात अक्सर सुनी जाती है। कई पेशेवर अपराधी भी जुड़ने की कोशिश करते हैं क्योंकि उन्हें एक खास तरह की प्रतिष्ठा मिल जाय। यह भी देखा गया है कि एक सीमा के बाद संगठन का विस्तार होने पर दो तरह के लोगों के बीच बंटवारा हो जाता है। एक तरफ प्रतिबध्द लोग होते हैं तो दूसरी ओर स्वार्थी या धनलोलुप आ जाते हैं। इस विभाजन पर नियंत्रण नहीं किया तो बिखराव होना अवश्यंभावी हो जाता है।
आतंकवादी संगठनों में दक्ष और प्रशिक्षित लोगों की बड़ी मांग होती है जो शस्त्रास्त्रों की अच्छी जानकारी रखते हों और कार्रवाइयाें का सही-सही नियोजन कर सकें। कहना न होगा कि नियोजित कार्रवाइयों के नाकामयाब होने पर जन-धन की भारी हानि हो सकती है। आगे के लिए संसाधनों को जुटा पाना कठिन होता है कि नियोजित कार्रवाइयां पूर्णतया गोपनीय रहें। साथ ही उनको अंजाम देने वालों की पहचान आम लोग और सरकारी तंत्र नहीं जान पाए। इतना ही नहीं, घटना के बाद उससे जुड़े लोग बिना कोई निशान छोड़े लापता हो जाएं।
आए दिन कार्रवाइयों को अंजाम देने के पहले ही सरकारी तंत्र को जानकारी मिल जाती है या ऐसी अंदरूनी गड़बड़ी आ जाती है और संगठन में बिखराव होने लगता है। इसके अलावा घटनाओं या कार्रवाइयों को उनके मुकाम तक पहुंचाने के लिए प्रतिबध्द कार्यकर्ता चाहिए जिन्हें गोपनीय ढंग से पूर्णतया प्रशिक्षित किया जा सके। परस्पर शक-सुबहा न पैदा हो और विश्वास बना रहे। यह सब काफी मुश्किल है जिससे आतंकवादी संगठन या आंदोलन टिकाऊ नहीं होते।
क्रुगर का मानना है कि अनेक विकासशील देशों के नेता गरीबी, अशिक्षा, पिछड़ापन आदि को आतंकवाद का मूल कारण बतलाकर अपना हित साधना चाहते हैं। वे विदेशी निवेश, सहायता और दानशीलता की भावना को दुहकर अपनी तिजोरी भरना चाहते हैं। साथ ही अपनी नाकामियों को छिपाने की कोशिश करते हैं।

क्रुगर ने रेखांकित किया है कि आतंकवाद अस्थायी रूप से आर्थिक गतिविधियों में खलल डालकर सनसनी फैला सकता है। लोग कुछ समय के लिए भयभीत हो सकते हैं परंतु दीर्घकालीन असर नहीं होता। मुंबई को ही लें। वहां से न मजदूर भागे हैं और न कारोबारी। सब कुछ ठीक-ठाक हो गया है। निश्चित रूप से काफी क्षति हुई और थोड़े समय के लिए भय का वातावरण रहा। सुरक्षा को लेकर खर्च भी बढ़ा। जनसंचार माध्यमों द्वारा प्रसारित सनसनीखेज खबरों में लोगों की दिलचस्पी भी कुछ समय बाद घट गई।

India’s National Security Management needs Urgent Reform

The Ministry of Defence (MoD) appears to have rejected the proposal of the Naresh Chandra Committee on Defence Reforms to appoint a permanent Chairman of the Chiefs of Staff Committee (CoSC). This is a retrograde step as the proposal itself is a watered down version of the original recommendation of the Group of Ministers (GoM) of 2001 to appoint a Chief of Defence Staff (CDS).
For many decades, defence planning in India has been marked by knee jerk reactions to emerging situations and haphazard single-Service growth. The absence of a clearly enunciated national security strategy, poor civil-military relations, the lack of firm commitment of funds for modernisation beyond the current financial year and sub-optimal inter-service prioritisation, have handicapped defence planning. Consequently, the defence planning process has failed to produce the most effective force structure and force mix based on carefully drawn up long-term priorities. With projected expenditure of US$ 100 billion on military modernisation over the next 10 years, it is now being realised that force structures must be configured on a tri-Service, long-term basis to meet future threats and challenges.
In 1999, the Kargil Review Committee headed by the late Mr. K Subrahmanyam had been asked to “…review the events leading up to the Pakistani aggression in the Kargil District of Ladakh in Jammu & Kashmir; and, to recommend such measures as are considered necessary to safeguard national security against such armed intrusions." Though it had been given a very narrow and limited charter, the committee looked holistically at the threats and challenges and examined the loopholes in the management of national security. The committee was of the view that the “political, bureaucratic, military and intelligence establishments appear to have developed a vested interest in the status quo.'' It made far reaching recommendations on the development of India’s nuclear deterrence, higher defence organisations, intelligence reforms, border management, the defence budget, the use of air power, counter-insurgency operations, integrated manpower policy, defence research and development, and media relations. The committee’s report was tabled in Parliament on February 23, 2000.
The Cabinet Committee on Security appointed a GoM to study the Kargil Review Committee report and recommend measures for implementation. The GoM was headed by the then Home Minister L K Advani and, in turn, set up four task forces on intelligence reforms, internal security, border management and defence management to undertake in-depth analysis of various facets of the management of national security.
The GoM recommended sweeping reforms to the existing national security management system. On May 11, 2001, the CCS accepted all its recommendations, including one for the establishment of the post of the Chief of Defence Staff (CDS) – which has still not been implemented. The CCS approved the following key measures:
·         Headquarters Integrated Defence Staff (IDS) was established with representation from all the Services. The DG DPS was merged in it.
·         The post of Chief of Defence Staff (CDS), whose tasks include inter-Services prioritisation of defence plans and improvement in jointmanship among the three Services, was approved. However, a CDS is yet to be appointed.
·         A tri-Service Andaman and Nicobar Command and a Strategic Forces Command were established.
·         The tri-Service Defence Intelligence Agency (DIA) was established under the COSC for strategic threat assessments.
·         Speedy decision making, enhanced transparency and accountability were sought to be brought into defence acquisitions. Approval of the Defence Procurement Procedure (DPP 2002) was formally announced.
·         The DPP constituted the Defence Acquisition Council (DAC) and the Defence Technology Board, both headed by the Defence Minister.
·         Implementation of the decisions of the DAC was assigned to the Defence Procurement Board (DPB).
·         The National Technical Research Organisation (NTRO) was set up.
·         The CCS also issued a directive that India’s borders with different countries be managed by a single agency – “one border, one force” and nominated the CRPF as India’s primary force for counter-insurgency operations.
Decision making is gradually becoming more streamlined. The new Defence Planning Guidelines have laid down three inter-linked stages in the planning process:
·         15 years Long Term Integrated Perspective Plan (LTIPP), to be drawn up by HQ IDS in consultation with the Services HQ and approved by the DAC.
·         Five Years Defence Plans for the Services (current plan: 2007-12), including 5-years Services Capital Acquisition Plan (SCAP), to be drawn up by HQ IDS in consultation with the Services HQ and approved by the DAC.
·         Annual Acquisition Plan (AAP), to be drawn up by HQ IDS approved by the DPB. Budgetary allocations for ensuing the financial year (ending March) are made on the basis of the AAP.
Ten years later, many lacunae still remain in the management of national security. The lack of inter-ministerial and inter-departmental coordination on issues like border management and centre-state disagreements over the handling of internal security are particularly alarming. In order to review the progress of implementation of the proposals approved by the CCS in 2001, the government appointed a Task Force on National Security led by Mr. Naresh Chandra, former Cabinet Secretary. The task force has submitted its report, which has been sent for inter-ministerial consultations.
Conclusion
A fluid strategic environment, rapid advances in defence technology, the need for judicious allocation of scarce budgetary resources, long lead times required for creating futuristic forces and the requirement of synergising plans for defence and development, make long-term defence planning a demanding exercise. The lack of a cohesive national security strategy and defence policy has resulted in inadequate political direction regarding politico-military objectives and military strategy. Consequently, defence planning in India had till recently been marked by ad hoc decision making to tide over immediate national security challenges and long-term planning was neglected. This is now being gradually corrected and new measures have been instituted to improve long-term planning.
It is now being increasingly realised that a Defence Plan must be prepared on the basis of a 15-year perspective plan. The first five years of the plan should be very firm (Definitive Plan), the second five years may be relatively less firm but should be clear in direction (Indicative Plan), and the last five years should be tentative (Vision Plan). A reasonably firm allocation of financial resources for the first five years and an indicative allocation for the subsequent period is a pre-requisite.

Perspective planning is gradually becoming tri-Service in approach. It is now undertaken in HQ IDS, where military, technical and R&D experts take an integrated view of future threats and challenges based on a forecast of the future battlefield milieu, evaluation of strategic options and analysis of potential technological and industrial capabilities. Issues like intelligence, surveillance and reconnaissance, air defence, electronic warfare and amphibious operations, which are common to all the Services, are now getting adequate attention. However, unless a CDS is appointed to guide integrated operational planning, it will continue to be mostly single-Service oriented in its conceptual framework. 

राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्‍यादेश से संबंधि‍त

Q. अध्यादेश के अनुसार, टीपीडीएस के अंतर्गत केवल 67 प्रतिशत जनसंख्या को इसको लाभ मिलेगा. इसका लाभ सभी लोगों को क्यों नहीं दिया जा सकता ?
Ans. अध्‍यादेश में प्रस्तावित पात्रता हाल ही में हुए खाद्यान्नों के उत्पादन और इसकी सरकारी खऱीद पर आधारित है। वर्ष 2007-08 से 2011-12 तक औसतन प्रतिवर्ष लगभग 60.24 मिलियन टन खाद्यान्न की सरकारी खरीद की गई है। इसकी तुलना में टीपीडीएस के अंतर्गत हर व्यक्ति को प्रति माह 5 किलो खाद्यान्न प्रदान करने के लिए 72.6 मिलियन टन खाद्यान्न की आवश्यकता होगी। इसके अलावा ओडब्ल्यूएस के लिए भी अतिरिक्त आवश्यकता है। खाद्यान्नों के वर्तमान उत्पादन और सरकारी खऱीद को ध्यान में रखते हुए खाद्यान्नों की इस मांग को पूरा कर पाना संभव नहीं होगा।
      
Q. गरीबी रेखा से नीचे वाले परिवारों को 5 किलो अनाज देने से उनको वर्तमान में टीपीडीएस के अंतर्गत मिलने वाले अनाज में कटौती होगी. इससे उनको नुकसान नहीं होगा?
Ans. वर्तमान में टीपीडीएस के अंतर्गत गरीबी रेखा से नीचे के 6.52 करोड़ परिवारों को अनाज दिया जाता है, जिसमें 2.50 करोड़ परिवार अंत्‍योदय अन्न योजना (एएवाई) भी शामिल है। इसके लिए भारत के महापंजीयक के 1999-2000 के लिए जनसंख्या के अनुमानों और योजना आयोग के वर्ष 1993-94 के आधार  पर निर्धन लोगों के 36 प्रतिशत होने को आधार माना गया है। शेष परिवारों को गरीबी रेखा से ऊपर (एपीएल) के अंतर्गत अनाज दिया जाता है। एएवाई और बीपीएल परिवारों को प्रति माह 35 किलो अनाज दिया जाता है। एपीएल परिवारों को अनाज इसकी उपलब्‍धता के आधार पर दिया जाता है। केंद्रीय वितरण मूल्य (सीआईपी) गेहूं/चावल प्रति किलो एएवाई को रूपए 2/3, बीपीएल परिवारों को 4.15/5.65 रूपए और एपीएल परिवारों को 6.10/8.30 रूपए की दर से दिया जाता है।

यहां यह उल्लेखनीय है कि वर्तमान में कुल प्रस्तावित परिवारों में से एक-चौथाई को ही 35 किलो प्रति परिवार के आधार पर नियत खाद्यान्न दिया जा रहा है। वहीं एनएफएसबी में अखिल भारतीय स्तर पर कुल जनसंख्या के 67 फीसदी हिस्से को 5 किलो खाद्यान्न देने का प्रस्ताव किया गया है। इसमें एएवाई परिवारों को, जो निर्धन में निधर्नतम हैं, को 35 किलो प्रति परिवार प्रति माह खाद्यान्न सुनिश्चित किया गया है। इसके साथ ही टीपीडीएस में अध्यादेश के तहत सभी परिवारों को वर्तमान के एएवाई मूल्यों के समान गेंहूं 3 रूपए और  चावल 2 रूपए की दर से दिया जाएगा। परिणाम स्वरूप वर्तमान में बीपीएल श्रेणी में आने वाले परिवार जिन्हें खाद्यान्न की मात्रा कम मिलेगी, उन्हें सब्सिडी दरों पर अनाज मिलने का फायदा मिलेगा।

Q. सभी को खाद्यान्न देने की योजना को केवल अनाजों तक ही सीमित क्यों रखा गया है और इसमें दालों और खाद्य तेलों आदि को शामिल क्यों नहीं किया गया है?
 Ans. दालों और खाद्य तेलों की घरेलू मांगों को पूरा करने के लिए हम मुख्यत: आयात पर निर्भर हैं। इसके साथ ही दालों और तिलहन की खऱीद के लिए आधारभूत ढांचा और संचालन प्रक्रिया भी मजबूत नहीं है। घरेलू स्तर पर इसकी उपलब्‍धता के सुनिश्चित न होने और खऱीद प्रकिया के कमजोर होने के कारण इनकी कानूनी रूप से आपूर्ति कर पाना संभव नहीं होगा। हांलाकि सरकार सस्ती दरों पर लक्षित लोगों को दाल और खाद्य तेल देने की योजना को चला रही हैसाथ ही साथ दालों और तिलहन की खरीद को बढाने के प्रयास भी किए जा रहे हैं।

Q. ऐसा प्रतीत होता है कि अध्‍यादेश में केवल खाद्यान्नों की आवश्यकता पूरी करने पर ध्यान केद्रिंत किया है और इसमें पोषकता पर कम ध्यान दिया है। इसलिए इसे खाद्य सुरक्षा प्रदान के लिए व्‍यापक हल कैसे कहा जा सकता है?
Ans. कुपोषण एक गंभीर समस्या है जिसका पूरा देश सामना कर रहा है। लेकिन यह कहना गलत होगा कि अध्‍यादेश में इसे पूरी तरह से नकारा गया है। इसमें गर्भवती महिलाओं और बच्चों के बीच कुपोषण की समस्या पर ध्यान केंद्रित करना जरूरी है जो हमारी इस समस्या के समाधान की रणनीति‍ का केंद्रबिंदु होगा।
 महिलाओं और बच्चों को पोषण प्रदान करने पर विधेयक में खास ध्यान दिया गया है। गर्भवती महिलाओं और दूध पिलाने वाली माताओं को निर्धारित पोषकता मानकों के तहत पौष्टिक भोजन का अधिकार देने के साथ-साथ कम से कम 6000 रूपए के मातृत्व लाभ भी मिलेंगे।
6 माह से 6 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों को घर में भोजन ले जाने या निर्धारित पोषकता मानकों के तहत गर्म पका हुआ भोजन पाने का अधिकार होगा। इसी आयु वर्ग के कुपोषण के शिकार बच्चों के लिए उच्च पोषकता मानक निर्धारित किए गए हैं। निचली और उच्च प्राथमिक कक्षाओं के बच्चों को निर्धारित पोषकता मानकों के तहत विद्यालयों में पोषक आहार दिया जाएगा।

Q.    क्या सरकार के पास विधेयक के नियमों के अंतर्गत पर्याप्त खाद्यान्न है?
Ans. प्रति वर्ष अन्य लाभकारी योजनाओं के लिए खाद्यान्न की कुल मि‍लाकर 612.3 लाख टन खाद्यान्न की आवश्यकता होगी। खाद्यान्नों की खऱीद (गेंहू और चावल) जिसमें कुल मात्रा और उत्पादन का प्रतिशत शामिल है उसमें हाल के हाल के वर्षों में प्रगति हुई है। औसतन खाद्यान्न की वार्षिक खऱीद जो वर्ष 2000-2001 से 2006-07 के दौरान कुल औसतन वार्षिक उत्पादन के 24.30 प्रतिशत के आधार पर 382.2 लाख टन थी वो वर्ष 2011-12 के दौरान औसतन वार्षिक उत्पादन 33.24 प्रतिशत होकर 602.4 लाख टन पर पहुंच गई । इसलिए वर्तमान में खाद्यान्नों के उत्पादन और इसकी खरीद के आधार पर आवश्यकता पूरी की जा सकेगी। यहां तक कि वर्ष 2012-13 के दौरान खाद्यान्न के उत्पादन में हल्की कमी होने के अनुमान के बावजूद विधेयक की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सकेगा।

Q.   ऐसा कहा जा रहा है कि इस विधेयक से किसानों, विशेष तौर पर छोटे और मझौले किसानों की खेती करने में कम रूचि कम होगी, क्योंकि उन्हें अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सस्ती दरों पर अनाज का आश्वासन दिया जाएगा। इस संबध में आपका क्या कहना है?
 Ans. खाद्यान्नों का उत्पादन किसानों के लिए आजीविका का एक माध्यम है जिसके लिए उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य की पंहुच हर वर्ष बढ़ रही है और विधेयक के लागू होने के फलस्वरूप आवश्यकता बढने के कारण ज्यादा से ज्यादा किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य के दायरे में आएंगे। इसलिए किसानों को हतोत्साहित करने के बजाय विधेयक किसानों को अधिक उत्पादन के लिए प्रोत्साहित करेगा।
इसके अतिरिक्त सस्ती दरों पर खाद्यान्न मिलने से छोटे किसानों की सीमित आमदनी पर बोझ कम होगा और वो बचाई हुई रकम को अन्य आवश्यकताओं पर खर्च कर अपने जीवनस्तर में सुधार कर सकेंगे।  

Q. राज्य खाद्य सुरक्षा विधेयक के कारण उन पर पड़ने वाले वित्तीय बोझ को लेकर शिकायत कर रहे हैं? केंद्र सरकार इस बारे में राज्य सरकारों को अपने साथ कैसे जोडे़गी, क्योंकि राज्यों को ही इस विधेयक को लागू करना है?
Ans. विधेयक का मुख्य वित्तीय प्रभाव खाद्य सब्सिडी पर पडेगा। प्रस्तावित क्षेत्र और पात्रता के अधिकार पर सालाना 612.3 लाख टन खाद्या्न्न की आवश्यकता होने और वर्ष 2013-14 आधार पर खाद्य सब्सिडी की लागत 1,24,747 करोड़ रूपए होने का अनुमान है। वर्तमान की टीडीपीएस और अन्य कल्याणकारी योजनाओं के लिए खाद्य सब्सिडी से तुलना करने पर सालाना 23,800 करोड़ रूपए अधिक की आवश्यकता होगी। इस अतिरिक्त आवश्यकता को केंद्रीय सरकार पूर्ण रूप से वहन करेगी।
राज्यों ने खुद पर पडने वाले बोझ विशेष तौर पर शिकायतें दूर करने की प्रणाली, खाद्यान्नों की ढुलाई पर होने वाले व्यय और उचित मूल्य की दुकानों के डीलरों को दी जाने वाली अतिरिक्त राशि आदि मुद्दों पर अपनी शंकायें व्यक्त की है। ये शंकायें दिसंबर 2011 में लोकसभा में पेश किए गए मूल विधेयक के प्रावधानों पर आधारित हैं। हांलाकि स्थायी समिति की सिफारिशों  और राज्य सरकारों के विचारों को ध्यान में रखने के बाद विधेयक में अब केंद्र सरकार दवारा राज्यों को एक राज्य के भीतर खाद्यान्न की ढुलाई में होने वाले व्यय में सहायता देने, इसको संभालने और एफपीएस डीलरों को दिए जाने वाली अतिरिक्त राशि के संबध में नियमों के अनुसार देने के नियम निर्धारित किए गए हैं। इसके अतिरिक्त शिकायतें दूर करने के संबध में विधेयक में इस बारे में अलग से प्रणाली बनाने या वर्तमान में लागू प्रणाली को जारी करने के विकल्प राज्य सरकारों को दिए गए हैं।

Q.  एक केंद्रीय कानून में, राज्यों के उपर खाद्य सुरक्षा भत्ता देने की जिम्मेदारी डालना कितना जायज है?
Ans. यह कहना गलत है कि यह जिम्मेदारी सिर्फ राज्य सरकारों पर डाली गई है। इस संबध में राज्यों पर जिम्मेदारी केवल केंद्र सरकार द्वारा दिए गए खाद्यान्न या भोजन का वितरण ना कर पाने की स्थिति में ही होगी।
विधेयक के खंड 22 के अंतर्गत केंद्रीय भाग से राज्यों को खाद्यान्न की कम आपूर्ति होने पर केंद्र सरकार विधेयक के प्रावधानों के पूरा करने के लिए राज्य सरकारों को आर्थिक सहायता देगी। हांलाकि खंड 8 के तहत लाभार्थि‍यों को खाद्य सुरक्षा भत्ता देने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की होगी, क्योंकि खाद्यान्न और भोजन के वितरण की जिम्मेदारी उनकी है।

Q.   इस विधेयक को राज्य सरकारों द्ववारा कब लागू किया जाएगा?
Ans.विधेयक को कार्यान्वित करने से पहले कुछ प्रारंभिक कार्य किया जाना आवश्यक है। उदाहरण के लिए नियमावली के तहत टीडीपीएस के अंतर्गत प्रत्येक राज्य और संघ शासित प्रदेशों में घरों की वास्तविक पहचान की जानी है। इसलिए राज्य सरकारों को इनकी पहचान के लिए उचित मानक बनाने और उसके बाद पहचान का वास्तविक कार्य करने की आवश्यकता है। विधेयक के तहत लाभार्थी घरों की पहचान पूरी होने के बाद ही खाद्यन्न का आवंटन और वितरण किया जा सकता है। इसलिए विधेयक में पहचान के कार्य के प्रारंभ होने के बाद इसे 180 दिनों में पूरा किए जाने का प्रावधान किया गया है। यह अवधि हर राज्य में अलग-अलग हो सकती है और यदि कोई राज्य इसे पहले लागू करना चाहता है तो उसे इसके लिए प्रोत्साहित किया जाएगा।
विधेयक को जारी करने के लिए इसमें वर्तमान में राज्य में लागू योजना और दिशानिर्देश आदि के जारी रहने के अस्थायी प्रावधान किए गए हैं।   

Q. कोई भी विधेयक तभी सफल हो सकता है जब इसमें शिकायतें दूर करने के लिए स्वतंत्र शिकायत निवारण दूर करने की व्यवस्था हो। विधेयक में इस संबध में क्या प्रावधान किए गए हैं।
Ans. विधेयक में शिकायतें दूर करने के लिए जिला और राज्य स्तर पर एक प्रभावी और स्वतंत्र शिकायत निवारण प्रणाली का प्रावधान किया गया है। इसमें हर जिले के लिए पात्रता लागू करने और शिकायतें की जांच करने और दूर करने के लिए जिला शिकायत निवारण अधिकारी शामिल है। इसके अतिरिक्त पात्रता के उल्लंघन होने संबधी शिकायत प्राप्त होने या स्वंय से जांच करने के लिए राज्य खाद्य आयोग की स्थापना करने का भी प्रावधान है। आयोग डीजीआरओ के आदेशों के विरूद्ध सुनवाई करेगा और उसे दंड लगाने की शक्ति भी दी जाएगी। कोई भी शिकायतकर्ता इनका रूख कर सकता है।

Q. घरों की पहचान किए जाने का कार्य राज्यों से कराने का प्रावधान है। हर राज्य अलग अलग मानदंड अपनाएगा और इससे एक राज्य में सामाजिक-आर्थिक स्थिति के आधार पर लाभ पाने वाले परिवार को दूसरे राज्य में इसका लाभ नहीं मिलेगा, इसे कैसे रोका जाएगा
Ans. लोकसभा में दिसंबर 2011 में विधेयक को प्रस्तुत करते समय पहचान के लिए दिशा-निर्देश राज्य सरकारों द्वारा निर्धारित करने का प्रावधान किया गया था। राज्य सरकारों ने इस संबध में विचार-विमर्श के दौरान पहचान के मानदंड निर्धारित करने में अधिक भूमिका होने संबधी विचार प्रस्तुत किया था। इस संबध में स्थायी समिति ने भी राज्य सरकारों से परामर्श के बाद मानदंड निर्धारित करने की सिफारिश की थी। इन विचारों और सिफारिशों पर ध्यानपूर्वक विचार किया। सामाजिक-आर्थिक कारणों के संबध में अलग-अलग राज्यों में अंतर होने के कारण इस संबध में केंद्र सरकार द्वारा मानदंड बनाए के उचित न होने और इसकी आलोचना होने की शंका थी। इसके साथ ही मानदंड के मुददे पर राज्य सरकारो के साथ आमसहमति बनाना भी कठिन था। इसलिए पहचान का कार्य अब राज्य सरकारों पर छोड़ दिया है जो उसके लिए खुद के मानदंड बनाएंगे।

  

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्यादेश के मुख्य बिंदु

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्‍यादेश एक ऐतिहासिक पहल है जिसके जरिए जनता को पोषण खाद्य और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित की जा रही है। इसके जरिए लोगों को काफी मात्रा में अनाज वाजिब दरों पर पाने का अधिकार मिलेगा। खाद्य सुरक्षा विधेयक का खास जोर गरीब से गरीब व्‍यक्ति, महिलाओं और बच्‍चों की जरूरतें पूरी करने पर होगा। अगर लोगों को अनाज नहीं मिल पाया तो उन्‍हें खाद्य सुरक्षा भत्‍ता दिया जायेगा। इस विधेयक में शिकायत निवारण तंत्र की भी व्‍यवस्‍था है। अगर कोई जन सेवक या अधिकृत व्‍यक्ति इसका अनुपालन नहीं करेगा तो उसके खिलाफ शिकायत की सुनवाई हो सकेगी। इस विधेयक की अन्‍य खास बातें निम्‍नलिखित हैं-

दो तिहाई आबादी को मिलेगा ऊंची सब्सिडी वाला अनाज

देश की 70 प्रतिशत ग्रामीण आबादी और 50 प्रतिशत शहरी जनसंख्‍या को हर महीने बहुत ऊंची सब्सिडी वाली दरों पर यानी तीन रूपये, दो रूपये, एक रूपये प्रति किलो चावल, गेहूं और मोटा अनाज पाने का अधिकार होगा। इससे हमारी 1.2 अरब आबादी के दो तिहाई भाग को लक्षित सार्वजनिक वितरण व्‍यवस्‍था (टीपीडीएस) के अंतर्गत सब्सिडी वाला अनाज पाने का हक मिलेगा।

अति गरीब को 35 किलो प्रति परिवार मिलता रहेगा अनाज

समाज के अति गरीब वर्ग के हर परिवार को हर महीने अंत्‍योदय अन्‍न योजना के अंतर्गत तीन रूपये, दो रूपये, एक रूपये की दरों पर सब्सिडी वाले अनाज की आपूर्ति जारी रहेगी। यह भी प्रस्‍ताव है कि राज्‍यों/केंद्र शासित प्रदेशों को मौजूदा दर पर अनाज की आपूर्ति होती रहेगी और इसे तभी कम किया जायेगा, जब पिछले तीन वर्षों तक उनकी औसत उठान इससे कम हो।

पात्र परिवारों की पहचान करेंगी राज्‍य सरकारें

अखिल भारतीय स्‍तर की शहरी आबादी के 50 प्रतिशत और ग्रामीण जनसंख्‍या के 75 प्रतिशत को इस योजना के अंतर्गत लाभान्वित करने का फैसला केंद्र सरकार द्वारा किया जायेगा। इस मामले में पात्र परिवारों की पहचान की जिम्‍मेदारी राज्‍यों/केंद्र शासित प्रदशों पर छोड़ दी गई है जो इसके लिए अगर चाहें तो सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना के आँकड़ों के आधार पर मापदंड बना सकते हैं।

महिलाओं और बच्‍चों को विशेष रूप से पोषण संबंधी सहायता

इस विधेयक में महिलाओं और बच्‍चों के पोषण संबंधी समर्थन  पर खासतौर पर जोर दिया जा रहा है। गर्भवती महिलाओं और दूध पिलाने वाली माताएं निर्धारित पोषण संबंधी मापदंडों के अनुरूप पोषक भेाजन पाने की हकदार होंगी। उन्‍हें कम से कम 6 हजार रुपये मातृत्‍व लाभ‍ भी मिलेगा। 6 महीने से 14 वर्ष तक की आयु वर्ग तक के बच्‍चे घर पर राशन पाने अथवा पोषण संबंधी मापदंडों के आधार पर गर्म पका भोजन पाने के हकदार होंगे।

अनाज की आपूर्ति न होने पर खाद्य सुरक्षा भत्‍ता

केंद्र सरकार राज्‍यों/संघ शासित प्रदेशों को निधियां प्रदान करेंगी जिसे वे अनाज की आपूर्ति कम होने पर इस्‍तेमाल कर सकेंगे। अगर अनाज की आपूर्ति बिल्‍कुल नहीं की जाती तो ये व्‍यक्ति भोजन पाने के हकदार होंगे और संबंधित राज्‍य/संघ शासित सरकार को उन्‍हें ऐसा खाद्य सुरक्षा भत्‍ता देना होगा जैसा कि केंद्र सरकार लाभार्थियों के लिए निर्धारित करे।  

खाद्यान्‍नों की राज्‍य से बाहर ढुलाई और रख-रखाव के लिए राज्‍यों को सहायता

अतिरिक्‍त वित्‍तीय बोझ के संबंध में राज्‍यों की चिंता को दूर करने के लिए केंद्र सरकार खाद्यान्‍नों की राज्‍य से बाहर ढुलाई और रख-रखाव तथा उचित दर दुकानदारों के  मुनाफे के बारे में राज्‍यों को सहायता उपलब्‍ध कराएगी। जिसके लिए मानक विकसित किये जाएंगे। इससे खाद्यान्‍नों की समय पर ढुलाई और प्रभावी रख-रखाव सुनिश्चित हो जाएगा।

खाद्यान्‍नों की घर-घर तक आपूर्ति के लिए सुधार

इस विधेयक में खाद्यान्‍नों की घर-घर तक आपूर्ति, कंप्‍यूटरीकरण सहित सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) का अनुप्रयोग, लाभार्थियों की विशिष्‍ट पहचान के लिए 'आधार' का लाभ खाद्य सुरक्षा अधिनियम के प्रभावी कार्यान्‍वयन के लिए टीपीडीएस आदि के अधीन उपभोक्‍ता वस्‍तुओं की विविधता को सार्वजनिक वित्‍तरण प्रणाली में सुधार लाने के प्रावधान शामिल हैं।

महिला सशक्तिकरण-सबसे बुजर्ग महिला घर की मुखिया होगी

18 साल या अधिक की महिला राशन कार्ड जारी करने के लिए घर की मुखिया होगी। अगर ऐसा नहीं है तो सबसे बड़ा पुरूष सदस्‍य घर का मुखिया होगा।

जिला स्‍तर पर शिकायत निवारण तंत्र

राज्‍य और जिला स्‍तर पर शिकायत निवारण तंत्र स्थापित होगा जिसमें नियत अधिकारी तैनात किए जाएंगे। राज्‍यों को नए निवारण तंत्र की स्‍थापना पर होने वाले व्‍यय को बचाने के लिए अगर वे चाहें तो जिला शिकायत निवारण अधिकारी (डीजीआरओ), राज्‍य खाद्य आयोग के लिए वर्तमान तंत्र को प्रयोग करने की अनुमति होगी। निवारण तंत्र में कॉल सेंटर, हेल्‍प- लाइन आदि भी शामिल किये जा सकते हैं।

पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए सामाजिक लेखा परीक्षा और सतर्कता समितियां

पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली से संबंधित रिकॉर्ड सार्वजनिक करने के लिए सामाजिक लेखा परीक्षा और सतर्कता समितियां स्‍थापित करने के प्रावधान भी किये गये हैं।

अनुपालन न करने पर जुर्माना

जिला शिकायत निवारण अधिकारी द्वारा सिफारिश की गई राहत का अनुपालन करने में असफल रहने के दोषी पाये जाने पर जनसेवक या नियत अधिकारी पर जुर्माना लगाने का भी इस विधेयक में प्रावधान है।

व्‍यय


प्रस्‍तावित पात्रता के अनुसार 2013-14 के लिए कुल अनुमानित वार्षिक खाद्यान्‍न आवश्‍यकता 612.3 लाख टन है और इसकी लागत लगभग 1,24,724 करोड़ रूपये होगी।

नौवहन को समर्पित भारत का उपग्रह आईआरएनएसएस-1ए

अपना उपग्रह आईआरएनएसएस-1ए प्रक्षेपित करने के बाद भारत उन देशों के चुनिंदा समूह में शामिल हो गया है, जिनके पास अपनी विकसित नौवहन व्‍यवस्‍था है। पहले नौवहन को समर्पित भारत के उपग्रह आईआरएनएसएस-1ए को भारत के अंतरिक्ष  संगठन इसरो ने विकसित किया है। इसे 1 जुलाई, 2013 को कक्षा में स्‍थापित कर दिया गया है। इस श्रृंखला के सात उपग्रह छोड़ें जाने है जिनमें से यह पहला है।

भारतीय क्षेत्रीय नौवहन उपग्रह व्‍यवस्‍था (आईआरएनएसएस) पर एक विहंगम दृष्टि
भारतीय क्षेत्रीय नौवहन उपग्रह व्‍यवस्‍था एक स्‍वतंत्र क्षेत्रीय नौवहन व्‍यवस्‍था है जिसका विकास भारत कर रहा है। इसका डिजाइन इस प्रकार से बनाया गया है कि वह भारत में इसे इस्‍तेमाल करने वालों को सही सूचना और एकदम सटीक पोजीशन की जानकारी देता है। इसका क्षेत्र सीमा से 1500 किलोमीटर तक है जिसे प्राइमरी सर्विस एरिया कहा जाता है। विस्‍तारित सर्विस एरिया, प्राइमरी सर्विस एरिया तथा 30 डिग्री अक्षांश दक्षिण से, 50 डिग्री उत्‍तर तक और 30 डिग्री देशांतर पूर्व से 130 डिग्री पूर्व तक के चर्तुभुज से घिरे क्षेत्र के मध्‍य पड़ेगा।

आईआरएनएसएस से दो तरह की सेवाएं मिल सकेंगी। पहली है स्‍टैंडर्ड पोजीशनिंग सर्वि‍स (एसपीएस) जो सभी को उपलब्‍ध होगी। दूसरी सेवा रेस्टिक्‍टिेड सर्विस (आरएस) होगी जो सिर्फ प्राधिकृत
उपभोक्‍ताओं को मिल सकेगी। उम्‍मीद की जाती  है कि आईआरएनएसएस प्राइमरी सर्विस एरिया में 20 मीटर के अंदर बेहतर पोजिशनिंग एक्‍यूरेसी दे सकेगा।

आईआरएनएसएस में दो खंड होंगे। पहला है अंतरिक्ष और दूसरा भू-खंड। आईआरएनएसएस के अंतरिक्ष खंड में सात उपग्रह होंगे इनमें से 3 भू-स्‍थानिक कक्षा में तथा चार जियोसिंक्रोनस कक्षा में झुके होंगे। इस तरह से आईआरएनएसएस के उपग्रह धरती की सतह से 36,000 किलोमीटर ऊँचाई पर पृ‍थ्‍वी का चक्‍कर लगायेंगे।
आईआरएनएसएस का भू-खंड नौवहन  पैरामीटर जनरेंशन और ट्रांसमिशन, सेटलाइट कंट्रोल के लिए जिम्‍मेदार होगा। यह कंट्रोल इंटेग्रिटी मॉनीटरिंग से लेकर टाइम कीपिंग तक होगा।

आईआरएनएसएस का इस्‍तेमाल जमीन, समुद्र और अंतरिक्ष में नौवहन तथा आपदा प्रबंधन और वाहन की ट्रेकिंग (पता लगाने) मोबाइल फोनों के एकीकरण, सही वक्‍त बताने, नक्‍शा बनाने, यात्रियों द्वारा नौवहन में मदद लेने और ड्राइवरों द्वारा विजुअल तथा वॉइस नेविगेशन के लिए किया जा सकेगा। इसके जरिए किसी वाहन पर जा रहे लोगों पर नजर रखी जा सकती है जो उत्‍तराखंड जैसी आपदा की स्थिति में बहुत उपयोगी हो सकता है। यहां तक कि रेलवे इसके जरिए अपने माल डिब्‍बों का पता सकता है। भारत के अलावा यह आसपास के 1500 किलोमीटर तक के इलाके में उपयोगी हो सकता है।

आईआरएनएसएस-1
यह उपग्रह इसरो के 11के सेटेलाइट बस पर आधारित है और इसमें दो सौर पैनल लगे होते हैं। इसमें लगे अल्‍ट्रा ट्रिपल जंक्‍शन सोलर सेल कुल मिलाकर 1660 वॉट बिजली तैयार करते हैं। इसमें 90 एम्‍पीयर प्रति घंटे की क्षमता वाली एक लीथियमन बैटरी लगी होती है जो फिर से चार्ज की जा सकती है। रास्‍ता बताने के लिए सूरज सितारे और जीरोस्‍कोप लगे होते हैं। इस उपग्रह में लगी ऐटमिक घडि़यों को चलाने के लिए जरूरी कई तरह की थर्मल कंट्रोल स्‍कीमें लगाई गई हैं।

आईआरएनएसएस-1ए में कई प्रकार की नियंत्रण प्रणालियां लगाई गई हैं जिनमें लिक्‍विड अपोगी मोटर और 12 थ्रस्‍टर्स प्रमुख है। ये ऊँचाई और संचालन नियंत्रित करते हैं। वृत्‍ताकार जियोसिंक्रोनस कक्षा में स्‍थापित कर दिये जाने के बाद यह उपग्रह विषुवत रेखा से 29 डिग्री पूर्व अक्षांश के झुकाव पर स्‍थापित रहता है। इस उपग्रह की मिशन लाइफ 10 वर्ष बताई गई है।

आईआरएनएसएस-1ए का निर्माण इसरो सेटेलाइट सेंटर बंगलौर में‍ किया गया। इसके निर्माण में  वीएसएससी, एलपीएसयू, आईआईएसयू और इलेक्‍ट्रो-ऑप्टिक सिस्‍टमस की प्रयोगशाला ने योगदान किया। इस उपग्रह का पेलोड स्‍पेस एप्‍लीकेशंस सेंटर, अहमदाबाद ने विकसित किया।

पेलोड
आईआरएनएसएस-1ए में दो प्रकार का पेलोड होता है। नेविगेशन पेलोड और रेंजिंग पेलोड। नेविगेशनल पेलोड से इस्‍तेमाल करने वालों को नेविगेशन सर्विस सिगनल भेजे जाते है। यह पेलोड  1.5 बैंड (1176.45 मेगाहर्ट्ज) और एस बैंड (2492.028 मेगाहर्ट्ज) पर काम कर रहा है। इस उपग्रह पर एक रूबिडियम ऐटमिक घड़ी रखी गई है जो इस उपग्रह के नेवीगेशन पेलोड का हिस्‍सा है।

इस उपग्रह के रेंजिंग पेलोड में एक सी बैंड ट्रांसपोंडर है जो उपग्रह की दूरी बताता है। इसका काम लेजर रेंजिंग के लिए कॉर्नर क्‍यूब रेट्रो रिफलेक्‍टर्स ले जाना भी है।

     

गुरुवार, 4 जुलाई 2013

संयुक्त राष्ट्र की वैश्विक नवाचार सूची 2013 रिपोर्ट

संयुक्त राष्ट्र महासचिव श्री बान की मून ने जिनेवा में पहली जुलाई को संयुक्त राष्ट्र की वैश्विक नवाचार सूची 2013 रिपोर्ट को प्रस्तुत किया । इस वर्ष की रिपोर्ट में नवाचार में स्थानीय परिस्थितियों के महत्व पर जोर दिया गया है, जिन्हें विश्व स्तर पर इतने दिनों तक नजरअंदाज किया गया ।
इस रिपोर्ट से यह बात स्पष्ट हुई है कि स्थानीय परिस्थितियों का नवाचार में बहुत महत्व है और एक स्थान के सफल प्रयोगों को स्थानीय परिस्थितियों का ध्यान रखे बिना, दूसरी जगहों पर दोहराया नहीं जा सकता ।

इस रिपोर्ट में एक अध्याय राष्ट्रीय नवाचार परिषद के नवाचार समूहों के ऊपर है । इन समूहों के प्रयासों की अध्यक्षता प्रधानमंत्री के सलाहकार श्री सैम पित्रोदा द्वारा की गई । नवाचार समूहों का यह प्रयास राष्ट्रीय नवाचार परिषद ने वर्ष 2011 में इस उद्देश्य से शुरू किया था कि सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) वैश्विक प्रतिस्पर्धा का मुकाबला करने के साथ-साथ भारत में उद्यम को सशक्त करेगा । इस प्रयास के बारे में श्री सैम पित्रोदा का कहना था कि प्रौद्योगिकी,प्रतिभा, संसाधन, योग्यता इत्यादि की कमी के कारण हमारे सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पिछड़ जाते हैं ।

इन चुनौतियों का सामना करने के लिए राष्ट्रीय नवाचार परिषद ने एक विशिष्ट योजना आरंभ की । स्थानीय उद्योग के संघ से जुड़कर नवाचार समूहों के केंद्र गठित किए जिससे कि स्थानीय स्तर पर नवाचार का माहौल बना । सभी साझेदारों से मिलकर नवाचार समूहों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए राष्ट्रीय नवाचार परिषद से तालमेल बैठाया गया ।

राष्ट्रीय नवाचार परिषद ने प्रायोगिक स्तर पर 7 सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम समूहों की शुरुआत की है । इनमें वाहनों के कलपुर्जों के लिए फरीदाबाद, हरियाणा; आयुर्वेद के लिए त्रिशूर, केरल; बांस समूह के लिए अगरतला, त्रिपुरा; जैव प्रौद्योगिकी और औषधि समूह के लिए अहमदाबाद, गुजरात;पीतल की वस्तुओं के लिए मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश; खाद्य प्रसंस्करण समूह के लिए कृष्णागिरी,तमिलनाडु और फर्नीचर समूह के लिए एर्णाकुलम, केरल शामिल हैं । राष्ट्रीय नवाचार परिषद ने39 विभिन्न संस्थानों के साथ मिलकर नवाचार की क्षमताओं को सुदृढ़ बनाया । इससे कुल मिलाकर 10 नए उत्पादों को विकसित किया गया, 12 प्रक्रियाओं को बेहतर बनाया गया और उद्यमियों की मदद के लिए 2 केंद्रों की स्थापना की गई ।

वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद इस प्रयास में एक प्रमुख भागीदार है और अपनी प्रयोगशालाओं में चल रहे शोध के आधार पर सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम समूहों की सहायता करता है । सीएसआईआर-800 कार्यक्रम के माध्यम से अब तक अपनी प्रयोगशालाओं में विकसित प्रौद्योगिकियों को एमएसएमई समूहों को उपलब्ध कराने के लिए तत्पर है । इन प्रयासों की सफलता को देखते हुए राष्ट्रीय नवाचार परिषद सार्वजनिक तथा निजी संस्थानों से नए साझीदारों की तलाश में है ताकि देशभर में इस मॉडल को दोहराया जा सके ।


PSLV-C22 Successfully Launches IRNSS-1A, India’s First Navigation Satellite

 ISRO’s Polar Satellite Launch Vehicle, PSLV-C22, successfully launched IRNSS-1A, the first satellite in the Indian Regional Navigation Satellite System (IRNSS), in the early morning hours of today (July 2, 2013) from Satish Dhawan Space Centre, Sriharikota. This is the twenty third consecutively successful mission of PSLV. The ‘XL’ configuration of PSLV was used for the mission. Previously, the same configuration of the vehicle was used thrice to launch Chandrayaan-1, GSAT-12 and RISAT-1 satellites.
At the completion of the countdown, PSLV-C22 lifted off from the First Launch Pad at 23:41 hrs IST yesterday (July 1, 2013) with the ignition of the first stage and four strap-on motors of the launch vehicle. The important flight events, namely, stage and strap-on ignitions, heat-shield separation, stage and strap-on separations and satellite injection took place exactly as planned. After a flight of 20 minutes 17 seconds, the IRNSS-1A Satellite, weighing 1425 kg, was injected to the intended elliptical orbit of 282.46 km X 20,625.37 km.
After injection, the solar panels of IRNSS-1A were deployed automatically. ISRO’s Master Control Facility (at Hassan, Karnataka) assumed the control of the satellite. In the coming days, five orbit maneuvers will be conducted from Master Control Facility to position the satellite in its Geosynchronous Circular Orbit at 55 deg East longitude.
IRNSS-1A is the first of the seven satellites constituting the space segment of the Indian Regional Navigation Satellite System. IRNSS is an independent regional navigation satellite system designed to provide position information in the Indian region and 1500 km around the Indian mainland. IRNSS would provide two types of services, namely, Standard Positioning Services (SPS) – provided to all users – and Restricted Services (RS) provided only to authorised users.
A number of ground stations responsible for the generation and transmission of navigation parameters, satellite control, satellite ranging and monitoring, etc., have been established in as many as 15 locations across the country.
The entire IRNSS constellation of seven satellites is planned to be completed by 2015-16.



बुधवार, 3 जुलाई 2013

Classification of Plant Tissue Culture Technique


I) Embryo Culture:

For embryo culture, embryos are excised from immature seeds, usually under a ‘hood’, which provides a clean aseptic and sterile area. Sometimes, the immature seeds are surface sterilized and soaked in water for few hours, before the embryos are excised. The excised embryos are directly transferred to a culture dish or culture tube containing synthetic nutrient medium.

Entire operation is carried out in the ‘laminar flow cabinet’ and the culture plates or culture tubes with excised embryos are transferred to a culture room maintained at a suitable temperature, photoperiod and humidity. The frequency of excised embryos that gives rise to seedlings generally varies greatly and medium may even have to be modified made for making Interspecific and Intergeneric crosses within the tribe Triticeae of the grass family. The hybrids raised through culture have been utilized for i) Phylogenetic studies and genome analysis. ii) Transfer of useful agronomic traits from wild genera to the cultivated crops and iii) to raise synthetic crops like triticale by producing amphiploids from the hybrids.

Embryo culture has also been used for haploid production through distant hybridization followed by elimination of chromosomes of one of the parent in the hybrid embryos cultured as above. A popular example includes hybridization of barley and wheat with Hordeum bulbosum leading to the production of haploid barley and haploid wheat respectively. Haploid wheat plants have also been successfully obtained through culture of hybrid embryos from wheat X maize crosses.

Application of Embryo Culture:

i) Recovery of distant hybrids.
ii) Recovery of haploid plants from Interspecific crosses.
iii) Propagation of orchids.
iv) Shortening the breeding cycle
v) Overcoming dormancy.

In addition ovule and ovary can also be cultured.

II) Meristem Culture:

In attempts to recovery pathogen free plants through tissue culture techniques, horticulturists and pathologists have designated the explants used for initiating cultures as ‘shoot –tip’, tip, meristem and meristem tip. The portion of the shoot lying distal to the youngest leaf primerdium and measuring up about 100 µm in diameter and 250 µm length is called the apical meristem. The apical meristem together with one to three young leaf primordia measuring 100-500 µm constitute the shoot apex. In most published works explants of larger size (100-1000 µm long) have been cultured to raise virus- free –plant. The explants of such a size should be infact referred to as shoot-tips. However, for purpose of virus or disease elimination the chances are better if cultures are initiated with shoot tip of smaller size comprising mostly meristematic cells. Therefore, the term ‘meristem’ or meristem-tip’ culture is preferred for in vitro culture of small shoot tips.

The in vitro techniques used for culturing meristem tips are essentially the same as those used for aseptic culture of plant tissues. Meristem tips can be isolated from apices of the stems, tuber sprouts , leaf axils , sprouted bunds o cuttings or germinated seeds.

Application of Meristem Culture:

i) Vegetative propagation
ii) Recovery of virus free stock.
iii) Germplasm exchange
iv) Germplasm conservation

III) Anther or Pollen Culture:

Angiosperms are diploid the only haploid stage in their life cycle being represented by pollen grains. From immature pollen grains we can sometimes raise cultures that are haploid. These haploid plants have single completes set of chromosomes. Their phenotype remains unmasked by gene dominance effects. In china, several improved varieties of plants have been grown from pollen cultures.

When pollen grains of angiosperm are cultured, they undergo repeated divisions. In Datura innoxia the pollen grains from cultured anther can form callus when grown on a media supplemented with yeast extract or casein hydrolysate. Similarly, when isolated anthers are grown on media containing coconut milk or kinetin, they form torpedo- shaped embryoids which in due course grow into small haploid plantlets. The usual approach in anther culture is that anthers of appropriate development stage are excised and cultured so that embryogenesis occurs. Alternatively pollen grains may be removed form the anther, and the isolated pollen is then cultured in liquid medium. Cultured anthers may take upto two months to develop into plantlets.

Application:

Pollen culture or anther culture is useful for production of haploid plants. Similarly, haploid plants are useful in plant breeding in variety of ways as follows:

i) Releasing new varieties through F1 double haploid system.
ii) Selection of mutants resistant to diseases.
iii) Developing asexual lines of trees or perennial species.
iv) Transfer of desired alien gene.
v) Establishment of haploid and diploid cell lines of pollen plant.

IV) Tissue and Cell Culture:

Single cells can be isolated either from cultured tissues or from intact plant organs, the former being more convenient than the latter. When isolated from culture tissues, the latter is obtained by culturing an organised tissue into callus. The callus may be separated from explant and transferred to fresh medium to get more tissue. Pieces of undifferentiated calli are transferred to liquid medium, which is continuously agitated to obtain a suspension culture. Agitation of pieces break them into smaller clumps and single cells, and also maintains uniform distribution of cells clumps in the medium. It also allows gases exchange.

Suspension cultures with single cells can also be obtained from impact plant organs either mechanically or enzymatically. Suspension cultures can be maintained in either of the following two forms i) Batch culture: are initiated as single cells in 100-250 ml flasks and are propagated by transferring regularly small aliquots of suspension to a fresh medium. ii) Continuous culture: are maintained in steady state for long periods by draining out the used medium and adding fresh medium, in this process either the cells separated from the drained medium are added back to suspension culture or addition of medium is accompanied by the harvest of an equal volume of suspension culture.

Application of Cell Culture:

i) Mutant selection
ii) Production of secondary metabolites or biochemical production.
iii) Biotransformation
iv) Clonal propagation
v) Somaclonal variations


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