शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

राष्‍ट्रीय मतदाता दिवस 2014

25 जनवरी का दिन राष्‍ट्रीय मतदाता दिवस (एनवीडी) के रूप में मनाया जाता है। यह वही दिन है जब हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने देश के नागरिकों को भारत का चुनाव आयोगप्रदान किया था और इस आयोग को चुनाव पर निगरानी रखने, निर्देश देने तथा नियंत्रण रखने का दायित्‍व सौंपा गया है। यह आयोग भारतीयों को स्‍वतंत्र, निष्‍पक्ष तथा विश्‍वसनीय चुनाव कराने के लिए प्रतिबद्ध है।  किन्‍तु लोकतंत्र को सार्थक बनाने के लिए निर्वाचन की प्रक्रिया में लोगों की अधिकतम भागीदारी परम आवश्‍यक है।

चुनाव के संचालन में चुनाव सूची में दर्ज प्रत्‍येक भारतीय का यह दायित्‍व है कि वह सुरक्षित रूप से मतदान करें। इसके अलावा चुनावों में नागरिकों का भाग लेना सुनिश्चित करना लोकतंत्र की शक्ति का सूचक है। राष्‍ट्रीय मतदाता दिवस की परिकल्‍पना के पीछे यही भावना रही है कि मतदाता, विशेषकर नये पात्र मतदाताओं के पंजीकरण की संख्‍या में बढ़ोतरी हो, जिससे मतदाता की वयस्कता को संपूर्ण आयाम मिल सके। राष्‍ट्रीय मतदान दिवस लोगों के बीच जाने को लेकर केन्द्रित है और उन कारणों का अध्‍ययन करने के लिए लालायित हैं कि इस प्रक्रिया से लोग क्‍यों छूट जाते हैं और इस भाव को समझाने में मदद  करना कि जब तक प्रत्‍येक भारतीय मतदान प्रक्रिया में भाग नहीं लेता, हमारा लोकतंत्र अधूरा कहा जाएगा। इस दिन को हम चुनाव प्रक्रिया में प्रभावी सहभागिता के संबंध में लोगों को जागृत करने के लिए भी उपयोग में लाते हैं। इस दिन नये मतदाताओं द्वारा ली जाने वाली शपथ हमारे स्‍वयं के प्रति, राष्‍ट्र के प्रति तथा लोकतंत्र के प्रति हमारे विश्‍वास को सम्‍पुष्‍ट करती है।

अब तक भारत का चुनाव आयोग लोकसभा के 15 आम चुनाव तथा अनेक बार राज्‍य विधानसभाओं के आम चुनाव संपन्‍न करा चुका है, इससे शांति-पूर्ण व्‍यवस्थित तथा सत्‍ता का प्रजातांत्रिक हस्‍तांतरण सुनिश्चित हो पाया है। इस सूची में राज्‍यसभा तथा राज्‍य विधान परिषदों के शीर्षस्‍थ संवैधानिक पदों पर चुनाव भी शामिल हैं। स्‍वतंत्र, निष्‍पक्ष और पारदर्शी चुनाव कराने के अपने प्रयासों में आयोग ने अपनी विश्‍वसनीयता को पूरी ताकत के साथ कायम रखा है और साथ ही सुनिश्चित किया है कि प्रत्‍येक पात्र भारतीय का वोट मायने रखता है। अब इस वर्ष अगले लोकसभा चुनाव कराने की नई चुनौती चुनाव आयोग के सामने हैं, जहां युवा, शिक्षित, तकनीकी ज्ञान से ओतप्रोत नेतृत्‍व एवं युवा मतदाताओं से अनुसमर्थित नये राजनीतिक मोर्चों का अभ्‍युदय हुआ है। 2011 की जनगणना के अनुसार इस बार 149.36 मिलियन मतदाता प्रथम बार वोट पाने का अधिकार लिए हुए हैं। इसका यह अर्थ हुआ कि 725 मिलियन वोटरों के 20 प्रतिशत से ज्‍यादा वोटर 2014 में मतदान के पात्र होंगे। पहली बार वोटरों की कुल संख्‍या मई 2014 तक करीब 160 मिलियन (2011 में हुई जनगणना) हो जाएगी। विश्‍वभर में चुनाव प्रबंधन की व्‍यापक प्रक्रिया को देखते हुए चुनाव आयोग कतिपय वर्गों के बीच मतदान के प्रति उदासीनता के निराशाजनक वर्तमान स्‍तर के प्रति देश के नागरिकों, विशेषकर युवाओं से यह अपेक्षा करता है कि वे अपनी अधिकाधिक सहभागिता सुनिश्चित करें। विशेषकर, आयोग ने यह पाया है कि वर्ष दर वर्ष चुनाव सूची में नये वोटरों (आयु 18 प्‍लस) के नाम लुप्‍त पाये जा रहे हैं। कुछ मामलों में तो इनके पंजीकरण का स्‍तर 20 से 25 प्रतिशत तक के निम्‍न स्‍तर पर हैं।

इस समस्‍या से प्रभावी तौर से निपटने के लिए आयोग ने देश के 8.5 लाख मतदान केन्‍द्र के हर क्षेत्र में प्रत्‍येक वर्ष 1 जनवरी को 18 साल की आयु प्राप्‍त करने वाले सभी पात्र मतदाताओं की पहचान करने की एक सशक्‍त पहल की है। पंजीकरण के अलावा नये मतदाताओं को एक शपथ भी दिलाई जाती है। जो इस प्रकार से है :- हम, भारत के नागरिकों का लोकतंत्र में अप्रतिम विश्‍वास है। मैं अपने देश की लोकतांत्रिक परम्पराओं और चुनाव के स्‍वतंत्र, निष्‍पक्ष और शांतिपूर्ण गरिमा को बनाये रखने की शपथ लेता हूं और प्रत्‍येक चुनाव में धर्म, रंग, जाति, समुदाय, भाषा या किसी प्रकार के प्रलोभन से प्रभावित हुए बिना भय के मतदान करूंगा।इसके अलावा नये मतदाताओं को उनके ईपीआईसी के साथ समारोह के दौरान एक बिल्‍ला दिया जाता है, जिस पर नारा लिखा होता है:- मुझे मतदाता होने का गर्व है- मैं मतदान के लिए तैयार हूं। यह प्रक्रिया युवाओं को नागरिकता, सशक्तिकरण, प्रतिष्‍ठा और भागीदारी का आत्मबोध कराएगी और जब मौका आएगा तो उन्‍हें मताधिकार का प्रयोग करने के लिए भी प्रेरित करेगी।

राष्‍ट्रीय मतदाता दिवस का उद्देश्‍य देश भर में विशेष अभियान के जरिए नये पात्र मतदाता (18+) तक पहुंचना और उनका नाम मतदाता सूची में दर्ज कराना भी है। आयोग समय-समय पर सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य निर्वाचन अधिकारियों को निर्देश देता रहता है कि 18 वर्ष की आयु को प्राप्त करने वाले प्रत्येक युवा का नाम मतदाता सूची में शामिल किया जाए। आयोग विशेष रूप से इस तथ्य पर जोर देता रहा है कि देश की अधिक से अधिक महिलाओं को अपना नाम पंजीकृत कराने की आवश्यकता है। महिलाओं की पर्याप्त अनुपात में सहभागिता के बगैर भारत का लोकतंत्र अधूरा रह जाएगा।

हम राष्ट्रीय मतदाता दिवस के माध्यम से अपनी मतदाता सूची के व्यापक अंतर को कुछ हद तक पाटने में समर्थ हुए हैं और नए पात्र मतदाताओं का पंजीकरण कराया गया है। यह सब हमारे प्रशंसनीय प्रयासों तथा बूथ स्तर अधिकारी से लेकर मुख्य चुनाव अधिकारी के सतत कड़े परिश्रम और एसवीईईपी अभियान से सम्पन्न हो पाया है, जो व्यवस्थित वोटर शिक्षा व निर्वाचन सहभागिता का परिचायक है। भारत के चुनाव आयोग ने हमारे एसवीईईपी के अंतर्गत शुरू किए गए विभिन्न अभियानों, जानकारी के प्रचार-प्रसार, मतदाताओं को प्रोत्साहित करने एवं उनकी सहभागिता सुनिश्चित करके अनेक उपाय किए हैं। युवाओं के प्रेरणा स्रोत अर्थात भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ ए. पी. जे. अब्दुल कलाम भारतीय क्रिकेट टीम के श्री एम. एस. धोनी और विराट कोहली, ओलंपिक मेडल विजेता कुमारी साइना नेहवाल, कुमारी एम. सी. मारी की पात्र वोटरों को अपना पंजीकरण कराने की अपील को इस अभियान में उपयोग में लाया गया है।


बालिका - भविष्‍य का आभूषण

भारत का इतिहास सफल महिलाओं के उदाहरणों से भरा पड़ा है जिन्‍होंने जीवन के विभिन्‍न क्षेत्रों में ऊंचाइयों को छुआ है। लेकिन विडंबना यह है कि अनेक सांस्‍कृतिक वजहों से बालिकाओं को आज भी अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

इस बात को समझते हुए भारत सरकार ने समय-समय पर अनेक योजनाओं को लागू किया। लेकिन अभी भी काफी कुछ किए जाने की जरूरत है। इस तरह की एक पहल यूपीए सरकार ने 2008 में की जिसके तहत हर वर्ष 24 जनवरी का दिन राष्‍ट्रीय बालिका दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन 1966 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री का पद संभाला था।

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की आबादी का करीब 15 करोड़ 80 लाख बच्‍चे 0-6 वर्ष की आयु के हैं तो फिर सिर्फ राष्‍ट्रीय बालिका दिवस ही क्‍यों मनाया जाता है? इसका कारण स्‍पष्‍ट है: बालिकाएं भारतीय समाज का सबसे नाज़ुक हिस्‍सा है।

2011 की जनगणना से पता चलता है कि सामाजिक संकेतकों, जैसे साक्षरता में सुधार हुआ है और कुल लिंग अनुपात 933 से बढ़कर 940 हो गया है। लेकिन आयु वर्ग के हिसाब से जनगणना से पता लगता है कि 0-6 वर्ष के आयु वर्ग में 1000 लड़कों के पीछे लड़कियों के अनुपात में गिरावट आई है यानी बच्‍चों का लिंग अनुपात जो 2001 में 927 था वह 2011 में 914 हो गया।

नवीनतम जनगणना से स्‍पष्‍ट है कि 22 राज्‍यों और 5 संघ शासित क्षेत्रों में बच्‍चों के लिंग अनुपात में गिरावट आई है। 5 वर्ष से कम उम्र के बच्‍चों में पोषण की कमी के बारे में  राष्‍ट्रीय परिवार स्‍वास्‍थ्‍य सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार 43 प्रतिशत लड़कियां कुपोषित है।

राष्‍ट्रीय बालिका दिवस : उद्देश्‍य

सरकार अन्‍य हितधारकों के साथ यह प्रयास करती है कि बालिकाएं जीवित रहें और पुरूष प्रधान समाज में गरिमा और सम्‍मान से जिएं।
  • जागरूकता बढ़ाने और बालिकाओं को नए अवसरों की पेशकश
  • लड़कियों के सामने आने वाली सभी असमानताओं को समाप्‍त करना
  • यह सुनिश्‍चित करना की प्रत्‍येक बालिका को उचित सम्‍मान, मानवाधिकार और भारतीय समाज में मूल्‍य मिले
  • बालिकाओं पर लगे सामाजिक कलंक से मुकाबला करने और बच्‍चों के लिंग अनुपात को खत्‍म करने के विरूद्ध काम करना
  • बालिकाओं की भूमिका और उनके महत्‍व के बारे में जागरूकता बढ़ाना
  • बलिकाओं के स्‍वास्‍थ्‍य, शिक्षा, पोषण आदि से जुड़े मुद्दों का निपटारा
  • लिंग समानता को बढ़ावा देना

राष्‍ट्रीय बालिका दिवस समारोह से क्‍या हासिल होगा?

इसका उद्देश्‍य वर्तमान मानसिकता को खत्‍म करके यह सुनिश्‍चित करना है कि लड़की के जन्‍म से पहले ही उसे बोझ न समझा जाए और वह हिंसा अथवा भ्रूण हत्‍या का शिकार न बने।

विधायी उपाय

इन चुनौतियों से निपटने के लिए सरकार 3पर जोर दे रही है जिनमें एडवोकेसी यानी रक्षा, जागरूकता और सकारात्‍मक कार्य शामिल है। कुछ महत्‍वपूर्ण विधायी उपाय जो अब तक किए गए है उनमें शामिल है:

  • गर्भावस्‍था के दौरान लिंग का पता लगाने पर रोक और बालिकाओं को पारितोषिक देने के लिए नीतियां और कार्यक्रम
  • बाल-विवाह पर रोक
  • सभी गर्भवती महिलाओं की प्रसव-पूर्व देखभाल में सुधार
  • ‘‘बालिका बचाव योजना’’ शुरू करना
  • 14 वर्ष की उम्र तक लड़के और लड़कियां दोनों के लिए नि:शुल्‍क और अनिवार्य प्राइमरी स्‍कूल शिक्षा
  • महिलाओं के लिए स्‍थानीय निकायों में एक-तिहाई सीट आरक्षित करना
  • स्‍कूली बच्‍चों को वर्दी, दोपहर का भोजन और शिक्षण सामग्री दी जाती है और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की लड़कियों के लिए उच्‍च शिक्षा की योजनाएं
  • बालवाड़ी और पालना-घर
  • पिछड़े इलाकों की लड़कियों की सहूलियत के लिए ओपन लर्निंग प्रणाली स्‍थापित
  • विभिन्‍न राज्‍यों में स्‍व-सहायता समूह ग्रामीण इलाकों में लड़कियों की मदद के लिए ताकि उन्‍हें बेहतर जीवन-यापन के अवसर मिल सके


अन्‍य सकारात्‍मक कार्य

महिला और बाल विकास मंत्रालय ने धनलक्ष्‍मी नाम की एक योजना लागू की है ताकि टीकाकरण, जन्‍म पंजीकरण, स्‍कूल में दाखिला और आठवी कक्षा तक देखभाल जैसी मूलभूत जरूरतों को पूरा करने के लिए लड़की के परिवार को नकद धनराशि हस्‍तांतरित की जा सके।
केन्‍द्र प्रायोजित एक अन्‍य महत्‍वपूर्ण योजना 2010-11 में शुरू की गई। 11-18 वर्ष की किशोर लड़कियों का सर्वांगीण विकास करने के उद्देश्‍य से राजीव गांधी अधिकारिता योजना-सबला शुरू की गई और इसे सभी राज्‍यों/संघ शासित क्षेत्रों के 205 जिलों में लागू किया जा रहा है।
केन्‍द्र प्रायोजित समन्वित बाल विकास सेवा योजना के अंतर्गत 2006-07 में किशोरी शक्ति योजनालागू की गई, जिसका उद्देश्‍य किशोर लड़कियों को पोषण, स्‍वास्‍थ्‍य और परिवार की देखभाल, जीवन कौशल और स्‍कूल जाने का अधिकार प्रदान करना है। इसे देश के 6,118 खण्‍डों में लागू किया गया है।

वित्‍तीय अधिकार प्रदान करना

2014 में राष्‍ट्रीय बालिका दिवस के अवसर पर भारतीय डाक ने प्रत्‍येक बालिका के नाम पर नया बचत खाता खोलने का एक विशेष अभियान शुरू किया है। ये अभियान 24 जनवरी से शुरू होकर 28 जनवरी तक चलेगा। इसका उद्देश्‍य बालिकाओं को लघु बचत खाता खोलने के लिए प्रेरित करके उनका भविष्‍य सुरक्षित करना है।

यह सुविधा उत्‍तरी कर्नाटक क्षेत्र के सभी गांवों के 4,480 डाकघरों में उपलब्‍ध होगी, इस योजना के अंतर्गत प्रत्‍येक खाते में चार प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से ब्‍याज दिया जाएगा और जमाकर्ता अनगिनत लेन-देन कर सकता है। अधिकारी सभी स्‍कूलों में जाकर प्रत्‍येक बालिका को अपने नाम से एक बचत खाता खोलने में मदद करेंगे।

यौन उत्‍पीड़न से बचाव

समन्वित बाल संरक्षण योजना 2009-10 में लागू की गई और चाइल्‍डलाइन सेवाभारत में लड़कियों की सुरक्षा का मुद्दा देख रही है। 2005 में महिला और बाल विकास मंत्रालय ने यह पता लगाने के लिए एक अध्‍ययन किया कि भारत में किस हद तक बच्‍चों का उत्‍पीड़न होता है। उसके परिणामस्‍वरूप संसद ने मई 2012 में एक विशेष कानून यौन अपराधों से बच्‍चों की रक्षा अधिनियम 2012पारित किया।

बच्‍चों के लिए बजट

यूपीए सरकार ने 2008-09 के केन्‍द्रीय बजट में बच्‍चों के लिए बजट की व्‍यवस्‍था शुरू की, जिसे बच्‍चों के कल्‍याण की योजनाओं के लिए प्रदान किया गया। शुरू में इसमें महिला और बाल विकास मंत्रालय, मानव संसाधन विकास, स्‍वास्‍थ्‍य और परिवार कल्‍याण, श्रम और रोजगार, सामाजिक न्‍याय और अधिकारिता, आदिवासी मामले, अल्‍पसंख्‍यक मामले, युवा मामले और खेल आदि मंत्रालयों की बच्‍चों से जुड़ी विशेष के साथ अनुदान मांगोंको शामिल किया गया। इस समय बच्‍चों के लिए बजट में परमाणु ऊर्जा, औद्योगिक नीति, डाक, दूरसंचार तथा सूचना और प्रसारण आदि के केन्‍द्रीय मंत्रालयों/विभागों की 18अनुदान मांगोंको शामिल किया गया है और आरंभिक बजट में पर्याप्‍त वृद्धि की गई है। इससे बालिकाओं को बेहतर अवसर दिए जा सकेंगे।

राष्‍ट्रीय बाल नीति प्रस्‍ताव को मंजूरी

बच्‍चों के सामने उत्‍पन्‍न चुनौतियों से निपटने के लिए अधिकारों पर आधारित दृष्टिकोण की अपनी प्रतिबद्धता पर अमल करते हुए सरकार ने बच्‍चों के लिए राष्‍ट्रीय नीति, 2013 के बारे में प्रस्‍ताव को स्‍वीकार किया। इसमें बच्‍चों सहित सभी हितधारकों के साथ पांच वर्ष में एक बार सलाह मशविरा करके इस नीति की व्‍यापक समीक्षा करने की व्‍यवस्‍था है। महिला और बाल विकास मंत्रालय समीक्षा की प्रक्रिया को आगे बढ़ाएगा।

निष्‍कर्ष

भारत में बालिकाओं को संरक्षण देने का काम हर वर्ष राष्‍ट्रीय बालिका दिवस मनाने तक ही सीमित नहीं होना चाहिए बल्कि मजबूत विधायी उपायों के साथ सरकार और अन्‍य हितधारक-समुदाय, सिविल सोसायटी, औद्योगिक घराने, पड़ोसी और माता-पिता को लड़कियों के सुरक्षित जीवन के लिए एक मजबूत और अहम भूमिका निभानी चाहिए, ताकि बेहतर समाज, बेहतर भविष्‍य और बेहतर भारत का निर्माण हो सके।
(पसूका)


गुरुवार, 23 जनवरी 2014

स्ट्रीट वेंडिंग बिल 2012

देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले रेहड़ी पटरी व्यवसायी और फेरीवाले समाज में हमेशा से हाशिए पर रहे हैं। शासन और प्रशासन द्वारा हमेशा से उन्हें शहर की समस्या में ईजाफा करने वाले और लॉ एंड आर्डर के लिए खतरा माना जाता रहा है। हालांकि सेंटर फॉर सिविल सोसायटी (सीसीएस), नासवी व सेवा जैसे गैर सरकारी संगठन देशव्यापी अभियान चलाकर छोटे दुकानदारों और फेरीवालों की समस्याओं को दूर करने के लिए उचित संवैधानिक उपाय की लंबे समय से मांग करते रहे हैं। इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाते हुए पिछले दिनों लोकसभा से प्रोटेक्शन ऑफ लाइवलीहुड एंड रेग्युलेशन ऑफ स्ट्रीट वेंडिंग बिल 2012 पारित किया गया।

दरअसल, शहरी गरीबी में एक बड़ी आबादी उन छोटे दुकानदारों और फेरीवालों की है जो तमाम सरकारी कल्याणकारी सुविधाओं से वंचित हैं। अनौपचारिक क्षेत्र में होने के कारण इनकी मांग भी प्रायः दबी रह जाती है। इस बिल को लाने के पहले कई विवाद भी उठे। केंद्र सरकार ने इसे राज्य सूची का विषय बताकर राज्यों के ऊपर जिम्मेदारी थोपने का प्रयास किया। केंद्र सरकार का तर्क था कि स्ट्रीट वेंडर संबंधी नीतियां शहरी नीति के अंतर्गत हैं जो कि राज्य सूची में आता है इसलिए केवल राज्य ही इस पर कानून बना सकते हैं। जबकि यह महज स्ट्रीट वेंडरो से संबंधित नीति ही नहीं, बल्कि शहरी गरीबों का जीवन स्तर भी इससे प्रत्यक्ष तौर पर जुड़ा हुआ है।

बहरहाल स्ट्रीट वेंडरो की वैधानिकता, सुरक्षा, जीवनस्तर में सुधार, सामाजिक एवं आर्थिक लाभ केंद्रीत स्ट्रीट वेंडर बिल से एक नई उम्मीद अवश्य जगी है। वर्तमान बिल में कई ऐसे प्रावधान किए गए हैं जो इनकी विभिन्न समस्याओं का समाधान करने में सक्षम है। इस बिल में प्रावधान है कि प्रत्येक शहर में एक टाउन वेंडिंग कमिटि होगी जो म्युनिसिपल कमिश्नर या मुख्य कार्यपालक के अधीन होगी। यही कमेटी स्ट्रीट वेंडिंग से जुड़े सभी मुद्दों पर निर्णय लेगी। इस कमेटी में 40 प्रतिशत चुने गए सदस्य होंगे जिसमें से एक तिहाई सीट महिलाओं के लिए आरक्षित होगी। कमेटी को सभी स्ट्रीट वेंडरों के लिए पहचान पत्र जारी करना होगा। इसके पूर्व उनकी संख्या और निर्धारित क्षेत्र या जोन सुनिश्चित करने हेतु एक सर्वे कराया जाएगा। इसमें उनके लिए भिन्न-भिन्न जोन तय करने का भी प्रावधान है। प्रत्येक जोन में उसकी आबादी का केवल 2.5 प्रतिशत वेंडर ही होंगे। यदि उनकी संख्या इससे अधिक होती है तो उन्हें दूसरे जोन में स्थानांतरित किया जाएगा। बिल में स्पष्ट प्रावधान है कि वेंडरो की जो भी संपत्ति होगी उससे उन्हें वंचित नहीं किया जा सकेगा और न ही उनके किसी सामान को क्षति पहुंचाई जाएगी।

अबतक होता यही रहा है कि स्ट्रीट वेंडरों की दुकानों को शहरी अतिक्रमण से मुक्त कराने या सौंदर्यीकरण के नाम पर उजाड़ दिया जाता है। उनकी दुकानों और सामानों को काफी क्षति पहुंचाई जाती है, किंतु अब इस नए बिल के प्रावधान में ऐसे कृत्यों पर अंकुश लगा दिया गया है। नए प्रावधानों के मुताबिक अब यदि किसी जोन में उसकी कुल आबादी के 2.5 प्रतिशत से अधिक वेंडर होंगे तो उन वेंडरों को 30 दिन पूर्व नोटिस दी जानी जरूरी होगी, तभी उन्हें दूसरे जोन में स्थानांतरित किया जा सकेगा। नोटिस की समयावधि के बावजूद भी यदि कोई वेंडर उस जोन को खाली नहीं करता है तब उस पर 250 रूपए प्रतिदिन के हिसाब से जुर्माना और अंततः बलपूर्वक हटाया जा सकेगा अथवा उनके सामानों को जब्त किया जा सकेगा। इसकी एक सूची वेंडर को सौंपनी होगी तथा उचित जुर्माने के साथ उन जब्त सामानों को वापस लौटाया जा सकेगा। बिल में स्ट्रीट वेंडरों की सामाजिक-आर्थिक दशा सुधारने की दिशा में भी महत्वपूर्ण प्रावधान किए गए हैं। इस कानून के अमल में आने के बाद इनकी गैरकानूनी स्थिति भी समाप्त हो जाएगी जिस वजह से वे कई तरह की सरकारी लाभ और योजनाओं से वंचित रह जाते थे। इसी वजह से वे संस्थागत कर्ज सुविधा का लाभ भी नहीं ले पाते थे तथा कई तरह के सरकारी विभागों और कर्मियों को अवैध किराया या घूस देना पड़ता था।

गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा नीजि स्तर पर कराए गए सर्वे में पाया गया था कि स्ट्रीट वेंडरों द्वारा उनके गैरकानूनी दर्जे के कारण गलत लोगों को काफी मात्रा में घूस या अवैध राशि देनी पड़ती थी। इस अध्ययन में यह अंदाजा लगाया गया कि घूस की यह रकम करीब 400 करोड़ प्रति वर्ष थी। इन 15 वर्षों में यह रकम निश्चित रूप से और भी बढ़ चुकी होगी। यदि रेहड़ी पटरी वाले नियमित होते और सरकार उनसे कर वसूलती तो इतनी बड़ी राशि से सरकार स्ट्रीट वेंडरों की दशा सुधारने या बुनियादी ढांचे के विकास पर करती तो स्थिति कुछ और ही होती।

पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम और टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान द्वारा 15 शहरों में किए गए एक अन्य अध्ययन से यह बात सामने आई कि स्ट्रीट वेंडरों को बैंक कर्ज देने से इसलिए मना कर देते थे कि वे वैधानिक दायरे में नहीं आते थे। बैंकों द्वारा कर्ज नहीं मिलने के कारण वे सूदखोरों और महाजनों से 300 से 800 प्रतिशत तक के वार्षिक ब्याज दर पर कर्ज प्राप्त करते थे। इसका दुष्प्रभाव यह होता था कि वे आजीवन कर्ज के जाल में उलझकर रह जाते थे। वर्तमान बिल उन्हें वैधानिक दर्जा देता है जिससे उन्हें संस्थागत वित्तीय सेवाओं को हासिल करने में काफी सहूलियत होगी। वे कम ब्याज दरों पर सरकारी स्कीमों के जरिये बैंको से कर्ज भी प्राप्त कर सकेंगे।

श्रम मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक कुल श्रम बल का करीब 93 प्रतिशत हिस्सा इसी क्षेत्र में लगा है। इसका एक बड़ा हिस्सा स्ट्रीट वेंडरों या फेरीवालों के रूप में है। एक तरफ संगठित यानी औपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों का जीवनस्तर ऊंचा और आमदनी अधिक है वहीं इन श्रमिकों को दो जून की रोटी के लिए भी अपेक्षाकृत कड़ी मेहनत करनी होती है। इन श्रमिकों को वैसी सरकारी सुविधाओं का लाभ भी नहीं मिल पाता जो संगठित क्षेत्र के श्रमिकों को प्राप्त है। आज असंगठित श्रमिकों का देश के जीडीपी में योगदान करीब 65 प्रतिशत है, जबकि कुल बचत में इनका योगदान मात्र 45 प्रतिशत है। स्ट्रीट वेंडर भी असंगठित क्षेत्र के श्रमिक हैं, जिनका देश की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष योगदान है। इनके द्वारा बेचे जाने वाले अधिकांश सामान लघु, मध्यम उद्योगों में तैयार होते हैं। इस प्रकार ये इन लघु और मध्यम उद्योगों का पोषण करते हैं, जिसमें कई लोगों को संगठित रोजगार मिला हुआ है।


  

कारोबार की सरहद

एक दूसरे के पड़ोसी होते हुए भी भारत और पाकिस्तान के बीच कारोबार काफी सिमटा रहा है। कुछ समय पहले तक दक्षिण एशिया में श्रीलंका भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार था, अवामी लीग सरकार के कार्यकाल में अब बांग्लादेश उससे थोड़ा आगे निकल गया है। पाकिस्तान इन दोनों से पीछे है। इसकी वजह भारत से उसके रिश्तों में आते रहे उतार-चढ़ाव के अलावा कारोबार के लिए ढांचागत सुविधाओं की कमी भी है। दोनों के बीच बहुत सारा व्यापारिक लेन-देन तीसरे देश के जरिए होता रहा है, जो कि दोनों के हित में नहीं है। देर से ही सही, अब आपसी व्यापार की संभावनाएं बढ़ाने की कोशिश चल रही है। इस सिलसिले में सोलह महीने बाद दोनों तरफ के वाणिज्यमंत्रियों की बातचीत हुई और कई अहम फैसले किए गए। वाणिज्यमंत्री आनंद शर्मा और पाकिस्तान के व्यापारमंत्री खुर्रम दस्तगीर खान की बैठक के बाद घोषणा की गई कि वाघा सीमा बारहो महीने चौबीसो घंटे कारोबार के लिए खुली रहेगी। कंटेनर के जरिए भी सामान की निर्बाध आवाजाही हो सकेगी।

दोनों देशों ने एनडीएमए यानी भेदभाव-रहित बाजार प्रवेश कार्यक्रम अपनाने का निर्णय किया है। अगर पाकिस्तान ने मोस्ट फेवर्ड नेशन यानी कारोबार के लिहाज से सर्वाधिक तरजीही मुल्क का दर्जा भारत को दे दिया होता, तो शायद ऐसे किसी कार्यक्रम की जरूरत न पड़ती। लेकिन सैद्धांतिक तौर पर रजामंदी जताने के बाद पाकिस्तान पीछे हट गया। दरअसल, पाकिस्तान को यह डर सताता रहा है कि भारत के बड़ी अर्थव्यवस्था होने के कारण आयात-निर्यात को अधिक खुला करने से उसे नुकसान उठाना पड़ सकता है। सैद्धांतिक सहमति को लागू न करने के पीछे शायद घरेलू राजनीति का भी कुछ दबाव रहा हो।

बहरहाल, खान ने भरोसा दिलाया है कि एनडीएमए से भी वे मकसद हासिल किए जा सकते हैं जो व्यापार के लिए सबसे पसंदीदा मुल्क की अवधारणा में निहित हैं। आपसी व्यापार बढ़ाने के लिए दोनों देश अपने यहां एक दूसरे के बैंकों की शाखाएं खोलने की इजाजत देने को तैयार हैं। दोनों तरफ के केंद्रीय बैंकों को तय करना है कि किस-किस बैंक को इस तरह की अनुमति दी जाए। इसके अलावा सीमा शुल्क और कई दूसरी प्रक्रियाओं से संबंधित महकमों को भी आपसी व्यापार की सुविधाएं बढ़ाने की तैयारी में जुटना होगा। वीजा नियमों को खासकर कारोबारियों के लिए और उदार बनाने पर भी दोनों देशों ने सहमति जताई है।

पाकिस्तान से कारोबार बढ़ाने की दिशा में यूपीए सरकार का यह आखिरी बड़ा प्रयास होगा। इसलिए उम्मीद है कि अगले महीने के अंत तक इसे अमली जामा पहना दिया जाएगा, क्योंकि उसके बाद कभी भी चुनावी आचार संहिता लागू हो सकती है। वाजपेयी सरकार के समय ही सर क्रीक का विवाद निपटाने की दिशा में काफी प्रगति हो गई थी। पर खुद भाजपा की गुजरात सरकार का रवैया इस मामले में सकारात्मक नहीं रहा है। अगर सर क्रीक से जुड़े मतभेद सुलझा लिए जाएं तो जहां दोनों तरफ के मछुआरों के लिए सहूलियत होगी, वहीं आपसी कारोबार की संभावनाओं को भी और बल मिलेगा। इस सिलसिले में दोनों देशों के बीच समुद्री आर्थिक सहयोग समझौता होना चाहिए, जिसका सुझाव हाल में दोनों तरफ के मछुआरा संगठनों और शांति के लिए प्रयासरत समूहों ने दिया है।


- साभारः जनसत्ता

बुधवार, 22 जनवरी 2014

मध्य-पूर्व में संघर्ष की वजह अमेरिका

पिछले कुछ माह में मध्य-पूर्व दुनिया का और भी हिंसक क्षेत्र हो गया है। इराक में सीरिया के बाद सबसे खूनी गृहयुद्ध चल रहा है। इन भयावह घटनाओं को होते देख अमेरिका में कई लोगों को यकीन हो गया है कि यह वाशिंगटन की विफलता का नतीजा है। इस क्षेत्र के प्रति ओबामा प्रशासन के निष्क्रिय रवैये के कारण ही वहां अस्थिरता को बढऩे का मौका मिला। अब अगर इस क्षेत्र को किसी चीज की जरूरत है तो वह अमेरिका का और अधिक हस्तक्षेप ही है। उसका दखल ही क्षेत्र का माहौल बदल सकता है।

मध्यपूर्व उसी तरह के सांप्रदायिक संघर्ष में फंस गया है जैसा यूरोप में कैथोलिक और प्रोटेस्टंट के बीच सुधारवादी युग में देखा गया था। इन तनावों की जड़ें इतिहास और राजनीति में हैं और ये आसानी से दूर नहीं होंगे। तीन तथ्य हैं जिनके कारण हालात ऐसे हो गए हैं। एक तो मध्य-पूर्व के देशों की संरचना। आधुनिक मध्य-पूर्व का निर्माण प्रथम विश्व युद्ध के अंत में औपनिवेशिक शक्तियों ने किया था। ब्रितानियों व फ्रांसीसियों ने जिन राष्ट्रों का निर्माण किया वे ऐेसे हताश समूह थे, जिन्हें एक राष्ट्र के रूप में शासित होने का कोई अनुभव नहीं था। फिर इन राष्ट्रों के निर्माण के पहले कोई व्यवस्थित सोच-विचार भी नहीं किया गया।

मसलन, ऑटोमन साम्राज्य के तीन प्रांतों को लेकर इराक को एक राष्ट्र का रूप दिया गया, जबकि तीनों प्रांतों में ऐसी कोई समानता नहीं थी कि वे एक राष्ट्र का रूप ले सकें। औपनिवेशिक शक्तियों ने प्राय: अल्पसंख्यक गुटों से शासक चुने। (यह धूर्ततापूर्ण रणनीति थी, क्योंकि एक अल्पसंख्यक सत्ता को शासन करने के लिए हमेशा ही बाहर से मदद की जरूरत बनी रहेगी। इस तरह सुनिश्चित किया गया कि मध्य-पूर्व के शासक उन पर निर्भर रहें।)

1930 और 1940 के दौरान जब फ्रांसीसियों को सीरिया में राष्ट्रवादी विद्रोह का सामना करना पड़ा तो उन्होंने तब प्रताडि़त किए जा रहे अल्पसंख्यक अलावाइट समुदाय के लोगों की भारी भर्ती की। इतनी कि सेना और खासतौर पर अफसरशाही में इस समुदाय का प्रभुत्व हो गया। दूसरा तथ्य था बढ़ता इस्लामी कट्टरतावाद। अब कट्टरता बढऩे की भी अपनी वजहें हैं। एक वजह तो सऊदी अरब का उदय तथा वहां से खालिस वहाबी विचारों का बाहर के मुल्कों में प्रसार रही। फिर ईरानी क्रांति और क्षेत्र  के धर्मनिरपेक्ष गणराज्यों का सैन्य तानाशाही में तब्दील होने से पश्चिमीकरण की साख का घटना दूसरा कारण था।

उदाहरण के रूप में क्षेत्र के सबसे महत्वपूर्ण देश गमाल अब्देल नासेर के मिस्र को लिया जा सकता है। वह कट्टरपंथी नहीं था बल्कि अपनी धर्मनिरपेक्ष मानसिकता पर जोर देता था। किंतु वक्त के साथ जैसे-जैसे ये सत्ताएं नाकाम होती गईं, वे उन कबीलों के निकट आती गईं जो उनके प्रति वफादार थे। सद्दाम हुसैन के जिस इराक में ज्यादा धार्मिक आग्रह नहीं था वह 1990 के आते-आते अत्यधिक कट्टरपंथी हो गया।


आमतौर पर नई सांप्रदायिकता  प्रभुत्व की तत्कालीन शैली को और मजबूत करती गई। जब आप मध्य-पूर्व में जाएं तो आपको प्राय: यह सुनने को मिलता है कि यहां शिया-सुन्नी का मतभेद पूरी तरह बनावटी है और पुराने दिनों में दोनों समुदायों के लोग सौहार्दपूर्ण वातावरण में रहते आए थे। ऐसी टिप्पणियां लगभग हमेशा ही सुन्नियों की ओर से ही सुनने को मिलती हैं, जो मानकर चलते हैं कि सत्ता के गलियारों में बहुत कम नजर आने वाले उनके शिया बंधु अपनी अधीनस्थ हैसियत से पूरी तरह संतुष्ट हैं।


तीसरा कारण वाशिंगटन से गहराई तक जुड़ा है-  इराक पर हमला। यदि मध्य पूर्व में पिछले कुछ दशकों के दौरान सांप्रदायिक संघर्ष को तेज करने का कोई एक कारण है तो वह है इराक में सद्दाम हुसैन की सत्ता उलटने, वहां सारे सुन्नी केंद्रों को ध्वस्त करने और फिर इराक को शिया धार्मिक पार्टियों को सौंपने का तब के अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश का फैसला है। उन दिनों वाशिंगटन पर मध्य-पूर्व को रूपांतरित करने का भूत सवार था और उसने इसके सांप्रदायिक अंजामों पर जरा भी ध्यान नहीं दिया कि वह किस चीज का सूत्रपात करने जा रहा है। मैं इराक के मौजूदा प्रधानमंत्री नौरी अल-मलिकी से 2005 में मिला था जब वे इस पद पर नहीं थे।

तब मैंने उनका वर्णन इन शब्दों में किया था : 'ऐसे कट्टरपंथी शिया नेता जो अपने धार्मिक विचारों पर जरा भी झुकने को तैयार नहीं हैं और सुन्नियों को तो वे सिर्फ सजा ही देना चाहते हैं। वे मुझे ऐसे व्यक्ति कतई नहीं लगे जो राष्ट्रीय सुलह-सफाई चाहते हों।' यह भी साफ ही था कि लगभग दो दशकों तक सीरिया और ईरान में निर्वासित जीवन बिताने के कारण वे इन दोनों सत्ताओं के नजदीक थे। इन दोनों देशों के शासकों ने मलिकी व उनके सहयोगियों को शरण दी थी। जाहिर है सत्ता चलाने उनके तरीकों पर दोनों सत्ताओं का असर तो पड़ेगा बुश प्रशासन के अधिकारियों ने इन चिंताओं को एक सिरे से  खारिज कर दिया और मुझे कहा कि मलिकी का भरोसा लोकतंत्र और बहुलतावाद में है।

इन नीतियों के नतीजे अब साफ नजर आ रहे हैं। शिया शासक वाशिंगटन के आशीर्वाद से सुन्नियों के दमन में लग गए। इसके कारण देश में खून-खराबा बढ़ गया है और अस्थिरता का पुराना दौर लौट आया है। 20 लाख से ज्यादा इराकी, जिनमें ज्यादातर सुन्नी और ईसाई धर्म के लोग शामिल हैं, देश से पलायन कर गए और इसकी उम्मीद न के बराबर हैं कि वे कभी लौटेंगे भी। इराक में अब भी सत्ता अपने पास होने का भ्रम पाले सुन्नी अल्पसंख्यकों ने पलटकर संघर्ष शुरू कर दिया है। अब वे और भी अधिक कट्टरपंथी व अतिवादी हो गए हैं। इन सारे कबीलों के पड़ोसी सीरिया के सुन्नी कबीलों से खून के रिश्ते हैं और जब इन सीरियाई सुन्नी कबीलों ने इराक के गृह युद्ध को देखा तो वे भी अतिवादी बन गए।


अब जबकि हिंसा और भड़क गई है तो बुश प्रशासन के जमाने के अफसरों की टोली कहने लगी यदि अमेरिका इराक में थोड़ा और सक्रिय होता, उसके कुछ हजार सैनिक वहां होते, सुन्नी उग्रवादियों से लड़ते और मलिकी को मजबूत समर्थन देते तो स्थिति कुछ और ही होती। उन्हें अब भी समझ में नहीं आ रहा है कि उनका यह दृष्टिकोण ही समस्या की वजह है। इस नजरिये से मध्य-पूर्व के संघर्ष के गहरे चरित्र को लेकर नासमझी तो जाहिर होती ही है, यह भी पता चलता है कि वाशिंगटन यह देख ही नहीं पा रहा है कि किसी एक का पक्ष लेने से स्थिति काफी बिगड़ गई है। धर्म और राजनीति के जटिल संघर्ष में अमेरिकी हस्तक्षेप का एक और दौर संघर्ष की अग्नि को और भड़का देगा।

फरीद जकारिया
टाइम मैगजीन के एडिटर एट लार्ज

  

काला धन एक परिचर्चा

भ्रष्टाचार देश की जड़ों को खोखला कर रहा है। भ्रष्टाचार के अनेक रूप हैं लेकिन काला धन इसका सबसे भयावह चेहरा है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए चुनौती है। एक अंतरराष्ट्रीय संस्था ग्लोबल फाइनेंशियल इंटेग्रिटीके अनुसार भारत के लोगों का लगभग 20 लाख 85 हजार करोड़ रूपए विदेशी बैंकों में जमा है। देश में काले धन की समानांतर व्यवस्था चल रही है। चूंकि इस धन पर टैक्स प्राप्त नहीं होता है इसलिए सरकार अप्रत्यक्ष कर में बढ़ोतरी करती है, जिसके चलते नागरिकों पर महंगाई समेत तमाम तरह के बोझ पड़ते हैं।

अपनी कमाई के बारे में वास्तविक विवरण न देकर तथा कर की चोरी कर जो धन अर्जित किया जाता है, वह काला धन कहा जाता है। विदेशी बैंकों में यह धन जमा करने वाले लोगों में देश के बड़े-बड़े नेता, प्रशासनिक अधिकारी और उद्योगपति शामिल हैं। विदेशी बैंकों में भारत का कितना काला धन जमा है, इस बात के अभी तक कोई अधिकारिक आंकड़े सरकार के पास मौजूद नहीं हैं लेकिन स्विटजरलैंड के स्विस बैंक में खाता खोलने के लिए न्यूनतम जमा राशि 50 करोड़ रुपये बताई जाती है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जमाधन की राशि कितनी विशाल होगी। स्विस राजदूत ने माना है कि भारत से काफी पैसा स्विस बैंकों में आ रहा है। कुछ महीनों पहले स्विस बैंक एसोसिएशन ने भी यह कहा था कि गोपनीय खातों में भारत के लोगों की 1,456 अरब डॉलर की राशि जमा है।

स्विटजरलैंड में बैंकों के खातों संबंधी कानून बेहद कड़े हैं और लोगों को पूरी गोपनीयता दी जाती है। इन कानूनों के तहत बैंक और बैंककर्मी किसी भी खातें की जानकारी खाताधारक के सिवा किसी और को नहीं दे सकते। यहां तक की स्विटजरलैंड की सरकार भी इन खातों की जानकारी हासिल नहीं कर सकती। यही नहीं स्विस बैंकों में विदेशी लोगों के लिए खाता खोलना भी बेहद आसान है। खाता खोलने की एकमात्र जरूरत सिर्फ यह है कि आपकी उम्र 18 वर्ष से अधिक होनी चाहिए। यही नहीं खाता खोलने के लिए स्विटजरलैंड पहुंचने की भी कोई जरूरत नहीं है ईमेल और फैक्स पर जानकारी देकर भी खाता खुलवाया जा सकता है।


काले धन का इस्तेमाल आतंकवाद को बढ़ावा देने में किया जा रहा है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने भी इस ओर इशारा किया है कि विदेशों में जमा काला धन ही आतंकियों को वित्तीय मदद के रूप में भारत में आता है।

भारत का राजनीतिक परिदृश्य

भारत का राजनीतिक परिदृश्य हालांकि खंडित एवं जीर्ण-शीर्ण है, लेकिन वह एक आकार ले रहा है। स्वयंसेवी संगठनों, जिन्हें उपहास के तौर पर झोलावाला कहा जाता है, द्वारा गठित आम आदमी पार्टी (आप) ने इस परिदृश्य को बदला है। इस पार्टी ने कांग्रेस और भाजपा के विकल्प की जरूरत को पूरा किया है। कांग्रेस और भाजपा तो दो अलग-अलग पुरानी बोतलों में एक ही शराब हैं।

आप के उदय से रायों में पकड़ रखने वाली क्षेत्रीय पार्टियों को सबसे यादा नुकसान हुआ है। भाषा, क्षेत्र या धर्म के नाम पर उनकी अपील का असर कम हुआ है। दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप की जीत से चुनावों में जाति, पंथ या इनके जैसे दूसरे आधारों के नाम पर गोलबंदी करने वाली पार्टियों की ताकत कम हुई है। कांग्रेस और भाजपा, दोनों ने स्वीकार किया है कि जिस तरह से 'आप' पार्टी आगे बढ़ी है, उससे उन्हें सीखना होगा। ऐसे में इन दोनों को खुद को बदलना चाहिए था। फिर भी वे यथास्थिति के गढ़ बने हुए हैं। आप जब तक लोगों की आकांक्षाओं के साथ तालमेल बनाए रखती है, तब तक इसका कोई मायने नहीं कि इस पार्टी में मार्क्सवादी शामिल हैं या नक्सलवादी। अंतत: अब जल्द इस बात की परीक्षा होगी कि आप किस तरह गरीबी दूर करती है, जिसने आजादी के 67 वर्षों बाद भी देश की आबादी को तबाह कर रखा है।

एक बात निश्चित है कि वाम पार्टियां निर्मोही तरीके से कुचल दी गई हैं। निस्संदेह रूप से यह एक नुकसान है लेकिन कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट पार्टियां इसके लिए खुद दोषी हैं, क्योंकि जमीन से अब उनका कोई ताल्लुकात नहीं रह गया है। प्रगति और समान अवसर के सवाल को सिर्फ  नारों या नाटकों में सीमित नहीं किया जा सकता। गरीबों की भलाई के लिए 'आप' समय सीमा के अंदर पूरा करने का एजेंडा लेकर आई है। पश्चिम बंगाल में अपने 35 साल के शासन में कम्युनिस्ट जब लोगों के जीवन में सुधार नहीं ला सके तो उन्होंने साबित कर दिया कि उनका मार्क्सवाद प्रगति का परत मात्रा है। इसका परत उधेड़ने पर पता चलता है कि वह इसी व्यवस्था का ही अंश है। उन्होंने गरीबों को अपनी आवाज नहीं उठाने दी। जो काम वे दशकों के शासन में नहीं कर सके, आप ने इसे करीब 12 महीने में कर दिखाने का वादा किया है।

दोनों मुख्य पार्टियां-कांग्रेस और भाजपा मंदिरों के महंत की तरह हैं। उन्होंने कुछ सीखा नहीं है, भूले कुछ नहीं हैं। अपनी नीतियों को सुधरने के बजाय, 'आप' को वे बेतुका चीज या ऐसा गुब्बारा मान रहे हैं जो इस साल अप्रैल में होने वाले लोकसभा चुनाव तक फट जाएगा। लेकिन वे गलतफहमी में हैं, क्योंकि 'आप' ने लोगों के मन की उड़ान पर अपनी पकड़ बना ली है और यह आग की तरह फैल चुकी है। जो लाखों  लोग 'आप' में शामिल हुए हैं, वह इसे दिखा रहा है।

प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की हवा जिस तरह खत्म हो गई है वह इस बात का संकेत दे रहा है कि भीड़ पर उनकी पकड़ अब पहले जैसी नहीं रह गई है। हालांकि मीडिया अभी भी उन्हें उभारने में लगा हुआ है। यही कारण है कि आरएसएस ने भाजपा से 'आप' को रोकने को कहा है, न कि कांग्रेस को, जो वर्षों से उसकी विरोधी रही है। दिल्ली का शासन चलाने के क्रम में आप जो कुछ भी निर्णय ले रही है, उस पर नेताओं के हमले से यह बात पुष्ट होती है कि कांग्रेस खिसक कर तीसरे नंबर पर पहुंच चुकी है। बताया जा रहा है कि कांग्रेस इस नतीजे पर पहुंच चुकी है कि मोदी को रोकने के लिए वह गैर आधिकारिक तौर पर आप का समर्थन करेगी। इसका यह भी मायने है कि कांग्रेस महसूस कर चुकी है कि वह सत्ता में वापस नहीं आ पाएगी। वास्तव में वह केंद्र में 'आप' की सरकार बनवाने के लिए अपने समर्थन के साथ-साथ क्षेत्रीय दलों का समर्थन जुटाने का प्रयास कर सकती है। मोदी को सत्ता से बाहर रखने के लिए कांग्रेस कोई कोशिश बाकी नहीं छोड़ेगी।

राजनीतिक परिदृश्य का सबसे परेशान करने वाला पहलू भ्रष्टाचार है। कांग्रेस एवं भाजपा, खासकर भाजपा, को दागी नेताओं का समर्थन लेने में कोई हिचक नहीं है। कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के खिलाफ कार्रवाई करने से इंकार कर दिया है। जबकि उन पर एक वैसे कंपनी को मदद करने का आरोप है जिसका बहुत अधिक शेयर उनके रिश्तेदारों के पास है। मोदी यूं तो सार्वजनिक जीवन में शुचिता की बात कर रहे हैं लेकिन अदालत द्वारा दोषी करार दिए गए व्यक्ति को अपने मंत्रिमंडल में रखे हुए हैं। सजा मिलते ही बिहार के लालू प्रसाद और कांग्रेस के रशीद मसूद की संसद की सदस्यता खत्म हो गई। तो फिर गुजरात के मोदी सरकार में भाजपा एक सजायाफ्ता को पनाह क्यों दिए हुए है?

परेशान करने वाली दूसरी बात व्यक्तिवाद का उभार है। भारत का लोकतंत्र अध्यक्षीय प्रणाली में बदलने लगा है। इसके लिए मोदी सबसे अधिक दोषी हैं, क्योंकि उन्होंने मजबूत व्यक्तित्व और मजबूत सरकार का नारा दिया है। बारह साल पहले अपनी ही प्रजा का कत्लेआम कराने वाला शासक संविधान द्वारा प्रदत्त असहमति के अधिकार के लिए घातक होगा। यह कोई आश्चर्य वाली बात नहीं, लेकिन दुख:द है कि अहमदाबाद में पुलिस ने मोदी के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से इंकार कर दिया। मोदी पर एक लड़की को अपनी निगरानी में रखने का जो आरोप है वह कई सवाल खड़ा करता है। सच्चाई का पता लगाने के लिए एफआईआर जरूरी होता है। केंद्र द्वारा गठित आयोग सच्चाई का पता लगा सकता है। लेकिन स्थानीय पुलिस के रवैये से पता चलता है कि राय का सरकारीतंत्र मदद करने को तैयार नहीं है।

मोदी की चाल को देखते हुए 2014 के चुनाव को कांग्रेस को व्यक्तित्व की लड़ाई नहीं, बल्कि मुद्दों की लड़ाई में तब्दील करना चाहिए था। लेकिन कांग्रेस राहुल गांधी को प्रोजेक्ट कर गलत कर रही है। ऐसा लग रहा है संघर्ष इन्हीं दोनों के बीच है। राहुल गांधी अक्सर महत्वपूर्ण नीतिगत मामलों पर बोल रहे हैं और सरकारी निर्णयों को उलटवा रहे हैं। एक उदाहरण राजनीतिज्ञों को सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले से बचाने के लिए अध्यादेश जारी करने का है, जिस फैसले के अनुसार सजा सुनाए जाने के बाद विधायकी या संसद सदस्यता खत्म हो जाने का फैसला दिया गया था। दूसरा उदाहरण महाराष्ट्र के आवास घोटाले का है। आदर्श हाउसिंग रिपोर्ट को महाराष्ट्र की कांग्रेसनीत सरकार खारिज कर चुकी थी, लेकिन राहुल गांधी ने इस आंशिक रूप से वापस कराया। इसके बावजूद राजनीतिज्ञ बेखौफ घूम रहे हैं। गाज सिर्फ नौकरशाहों पर गिर रही है।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को समझना चाहिए कि आप सरकार उनकी कोई अपनी व्यक्तिगत मंडली नहीं है। आश्चर्य की बात है कि उन्होंने अपने पास 16 विभागों को रख लिया है। गांधीवादी जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से उपजी जनता पार्टी यादा दिनों तक नहीं चल सकी थी। लेकिन उसने एक काम जरूर किया कि अब देश में दुबारा आपातकाल नहीं थोपा जा सकता। लोकतंत्र की जड़ें काफी मजबूत हैं। अगर आप व्यवस्था को ठीक करती है और सुनिश्चत करती है कि वह इसी रास्ते पर रहेगी तो यह सरकार बहुत दिनों तक नहीं चले तो भी 'आप' का बहुत बड़ा योगदान होगा।


कुलदीप नैय्यर

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