रविवार, 12 जनवरी 2014

बंगलादेश: भारतीय कूटनीतिकी अग्निपरीक्षा

बंगलादेश में आम चुनाव हो गए, लेकिन चुनाव नतीजों पर भारी सवाल खड़े हो गए हैं।  5 जनवरी को हुए चुनाव की वैधता पर मुख्य विपक्षी पार्टी  बंगलादेश नेशनल पार्टी (बीएनपी) के बहिष्कार ने सवालिया निशान लगा दिया है। सत्ताधारी पार्टी, अवामी लीग में नतीजे आने के बाद जश्न का माहौल है। अवामी लीग  के  नेता और प्रधानमंत्री शेख हसीना ने कहा  है कि विपक्ष की मांगें नाजायज् ा थीं और तथाकथित मांगों के बहाने संविधान के हिसाब से चुनाव करवाने की सरकार की कोशिश में डाला गया अड़ंगा बेमतलब है। बहरहाल सत्ताधारी पार्टी, अवामी लीग ने  जातीय संसद (कौमी असेम्बली ) की 300 में से 232  सीटें जीत ली हैं और अब शेख हसीना के पास भारी बहुमत है, लेकिन विपक्ष की नेता खालिदा जिया इस जीत को मान्यता देने को तैयार नहीं हैं।  इस बीच अमरीका ने भी  सुझाव दे दिया है कि दोबारा चुनाव कराया जाना चाहिए। दक्षिण एशिया में अमेरिका की ताकत को देखते हुए यह माना जा सकता है कि प्रधानमंत्री शेख हसीना को दोबारा चुनाव करवाना पड़ सकता है।  बंगलादेश के चुनाव आयोग के शुरुआती आंकड़ों के अनुसार 5 जनवरी को हुए मतदान में करीब 40 प्रतिशत लोगों ने वोट डाला है। जाहिर है कि  चुनाव के बहिष्कार की खालिदा जिया की लाइन का खासा असर पड़ा है।  खालिदा जिया को शेख हसीना का विरोध करने के लिए जमाते इस्लामी का सहयोग मिल रहा है।

शेख हसीना भी बंगलादेश नेशनल पार्टी और उसकी नेता खालिदा जिया को कोई रियायत देने के लिए तैयार नहीं हैं।  उन्होंने चुनाव के अगले दिन बिलकुल साफकर दिया कि मुख्य विपक्षी पार्टी जमाते इस्लामी के हाथों खेल रही है। जब उनसे पूछा गया कि क्या वे मौजूदा राजनीतिक हालात में विपक्ष से बातचीत करने के बारे में सोच रही हैं तो उन्होंने साफ कह दिया कि जब तक विपक्ष हिंसा का रास्ता नहीं छोड़ देता तब तक किसी तरह की बात नहीं की जायेगी।  उन्होंने कहा कि आज  लोकतंत्र के दामन पर बेगुनाह लोगों के खून के दाग लगा दिए गए हैं। हमारे लोकतंत्र पर उन लोगों के आंसू का कर्ज है जिन्होंने 2013 में राजनीतिक हिंसा का सामना किया और अपनी जान गंवाई। आज राष्ट्र की चेतना पर राजनीतिक लाभ के लिए  हिंसा का सहारा लेने वालों  ने भारी हमला किया है और  उनको बातचीत का मौका तब तक नहीं दिया जाएगा जब तक वे हिंसा का रास्ता छोड़ न दें।  शेख हसीना ने पत्रकारों को बताया कि उन्होंने सेना  को हुक्म दे दिया है कि चुनाव के बाद भी जो आतंकवादी हिंसा जारी है उसको ठीक करने के लिए  सख्ती का  तरीका भी अपनाया जा सकता है।

विपक्ष की नेता खालिदा जिया भी शुरू में अपने रुख में किसी तरह का  बदलाव करने को तैयार नहीं थीं। उन्होंने  कहा था कि यह चुनाव पूरी तरह से फर्जी है, उनके आह्वान पर पूरे देश ने चुनाव का बहिष्कार किया है और मतदान का प्रतिशत किसी भी हालत में 10 प्रतिशत से यादा नहीं है।  उन्होंने कहा कि सरकार की तरफ से जो 40 प्रतिशत मतदान की बात की जा रही है, वह  भी फर्जी है। लेकिन शेख हसीना की सरकार की तरफ से मिल रहे सख्ती के संकेतों के बाद बीएनपी की नेता खालिदा जिया का रवैया भी बदला है।  हालांकि वे चुनाव को अभी भी फर्जी बता रही हैं और सरकार पर हर तरह की बेईमानी करने के आरोप लगा रही  हैं लेकिन अब उनकी बोली बदली हुई है और कह रही हैं  कि वे सरकार से बातचीत करने के सुझाव पर विचार कर सकती हैं लेकिन उनकी शर्त  है  कि उनकी पार्टी के उन नेताओं को रिहा कर दिया जाए जिनको राजनीतिक कारणों से जेलों में बंद कर दिया गया है। देश में 5 जनवरी को हुए  आम चुनाव के पहले बड़े  पैमाने पर राजनीतिक नेताओं की धरपकड़ हुई थी।  खालिदा जिया का कहना है कि अगर सरकार बातचीत करना चाहती है तो उन नेताओं को छोड़ना पडेग़ा। उन्होंने कहा कि जो नेता अभी जेलों में बंद नहीं हैं, वे भी डर के मारे कहीं छिपे हुए हैं। जाहिर है कि बातचीत  करने  के लिए सरकार को बातचीत का माहौल बनाना  पडेग़ा। खालिदा जिया को चुनाव के एक हफ्ते पहले से ही उनके घर में नजरबंद कर दिया गया था और किसी को भी उनसे मिलने की अनुमति नहीं दी गई थी, लेकिन चुनाव के बाद अमेरिकी अखबार 'न्यूयार्क टाइम्स' के संवाददाता को मिलने दिया गया।  उसके साथ हुई बातचीत में खालिदा जिया ने कहा कि वे जमाते इस्लामी से भी दोस्ताना सम्बन्ध खत्म करने पर विचार कर सकती हैं। उन्होंने संवाददाता को बताया कि  जमात के साथ उनका कोई परमानेंट सम्बन्ध नहीं है। उनसे पूछा गया कि क्या जरूरत पड़ने पर वे जमाते इस्लामी के साथ संबंधों को खत्म भी कर सकती हैं  तो बीएनपी की अध्यक्ष ने कहा कि अभी तुरंत तो खत्म नहीं कर सकती, लेकिन जब वक्त आयेगा तो विचार किया जा सकता है। यानी राजनीतिक सुविधा अगर आकर्षक लगी तो खालिदा जिया जमाते इस्लामी वालों को औकात बता सकती हैं।

उधर अमेरिका और ब्रिटेन ने चुनाव नतीजों को नाकाफी बताकर माहौल में असमंजस की स्थिति पैदा कर दिया है। 1996 का उदाहरण दिया जा रहा  है जब सत्ताधारी पार्टी बंगलादेश नेशनल पार्टी थी और खालिदा जिया प्रधानमंत्री थीं।  शेख हसीना की अवामी लीग ने चुनाव के बहिष्कार का आह्वान किया था।  बहुत कम लोग वोट डालने आये थे। लेकिन दुनिया भर के नेताओं के दबाव के बाद खालिदा जिया ने चार महीने बाद ही दोबारा चुनाव करवा दिया था।  अमेरिकाब्रिटेन और खालिदा जिया इस बार भी वही उम्मीद कर रहे हैं  कि शायद 1996 की तरह इस बार भी शेख हसीना पर दबाव डालकर दोबारा चुनाव करवाया जा सकता है।  लगता है कि शेख हसीना भी  इस संभावना पर विचार कर रही हैं क्योंकि उन्होंने भी मीडिया के जरिए  मुख्य विपक्षी पार्टी को सुझाव दे दिया  है कि बातचीत के बिना कोई रास्ता नहीं निकाला जा सकता। उधर खालिदा जिया और उनके साथी यह कहकर चुनाव का बहिष्कार कर रहे हैं कि अवामी लीग सरकार को इस्तीफा देकर कार्यवाहक सरकार की निगरानी में चुनाव कराने चाहिए था। सत्ताधारी पार्टी विपक्ष की इस मांग को ये कहते हुए सिरे से खारिज कर चुकी हैं कि चुनाव एक संवैधानिक जरूरत है और समय से चुनाव होना जरूरी है  क्योंकि जब 24 जनवरी को संसद का कार्यकाल खत्म हो रहा है तो उसके 90 दिन के पहले चुनाव की प्रक्रिया शुरु की जा सकती है।  लेकिन सत्ता की उम्मीद लगाए बैठी बंगलादेश नेशनल पार्टी की अध्यक्ष खालिदा जिया कुछ भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। वे एक तरह से जमाते इस्लामी की आवाज में बात कर रही है। सबको  मालूम है कि 1971 में जमाते इस्लामी की भूमिका  बंगलादेश की स्थापना  के विरोध में थी।  सबको यह भी मालूम है कि जब जनरल याहया खान ने 1971 में बंगलादेश के  मुक्ति संग्राम को कुचल देने के लिए ढाका में जनरल टिक्का खान को तैनात किया था तो  बलात्कार की सारी घटनाएं इसी जमाते इस्लामी के रजाकारों की मिलीभगत से हुई थीं।  इसलिए जमाते इस्लामी की ख्याति एक खूंखार आतंकी संगठन के रूप में बंगलादेश में मानी जाती है और इसी कारण से सरकार ने उस पर पाबंदी लगा रखी है, लेकिन खालिदा जिया, पता नहीं किस मजबूरी के चलते जमात का साथ पकडे हुए हैं। इसी जमाते इस्लामी की मदद से उन्होंने 2013 में कई बार हड़ताल करवाई, हिंसा हुई और 85 दिन तक बंद रखवाया। खालिदा जिया के उत्साह का कारण शायद यह है कि कुछ नगरों में हुए मेयर पद के चुनाव में खालिदा जिया की पार्टी ने सत्ताधारी पार्टी को बुरी तरह से हरा दिया था। इसीलिए वे चुनाव के पहले एक ऐसी सरकार के अधीन चुनाव संपन्न करवाना चाहती थीं जो शुध्द रूप से टेक्नोक्रेट लोगों की सरकार हो उसमें कोई राजनीतिक व्यक्ति न हो, लेकिन शेखहसीना ने इस बात को यह कह कर खारिज कर दिया कि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। लेकिन खालिदा जिया एक नहीं मानीं।  29 दिसंबर, 2013 को उन्होंने एक जुलूस निकाला और उसे मार्च आफ डेमोक्रेसी नाम दिया। उस दौरान बहुत हिंसा हुई। चुनाव के ऐन पहले 4 जनवरी के दिन कई बूथों में आग लगा दी गई।  सड़कों पर ब्लाकेड लगा दिए  गए। और ऐसे हालात पैदा कर दिए गए कि सरकार को बहुत सारे  राजनीतिक नेताओं को जेल में डालना पड़ा।


अब तो  खालिदा जिया बातचीत के लिए तैयार नजर आती हैं लेकिन हड़ताल और आन्दोलन के दौरान वे विजेता की तरह चलती थीं।  बंगलादेश के मुक्तिसंग्राम में भारत के योगदान से कोई नहीं इंकार करता, लेकिन बेगम खालिदा जिया भारतीय नेताओं की कोई बात सुनने को तैयार नहीं थीं।  राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जब बंगलादेश की यात्रा पर गए थे और खालिदा जिया से मुलाकात का कार्यक्रम बन चुका था।  उसके बावजूद उन्होंने मना कर दिया। जमाते इस्लामी वाले प्रधानमंत्री शेख  हसीना  को भारत की कठपुतली साबित करने पर आमादा रहते हैं और उनको सिक्किम के पूर्व मुख्यमंत्री काजी लेंदुप दोरजी की तरह का बताते हैं। आन्दोलन के दौर में खालिदा जिया ने भी कई बार शेख हसीना को काजी लेंदुप दोरजी जैसा कहा जबकि उनको मालूम है कि ऐसा नहीं है। लेकिन अब लगता है कि उनको अहसास हो गया है कि यादा बढ़-चढ़ कर बात करने से कुछ नहीं होने वाला था और शायद इसीलिये न्यूयार्क टाइम्स को दिए गए इंटरव्यू में उन्होंने स्वीकार किया कि जमाते इस्लामी से रिश्ता स्थायी नहीं है और दोबारा चुनाव पर भी बात हो सकती है।  जहां तक शेख हसीना की बात है वे तो बातचीत का आमंत्रण पहले ही दे चुकी हैं। बस उनकी एक शर्त है कि हिंसा का रास्ता छोड़ना पडेग़ा।

शनिवार, 11 जनवरी 2014

सार्वजनिक संसाधनों की निजी लूट

लोकपाल विधेयक के अंतिम रूप से स्वीकार किए जाने से पहले राज्यसभा में हुई बहस में सीपीआई (एम) की ओर से, प्रस्तावित विधेयक में एक ठोस संशोधन पेश किया गया था। संशोधन का आशय यह था कि ऐसी निजी कंपनियों को तथा खासतौर पर ऐसी निजी-सार्वजनिक साझेदारी (पीपीपी) परियोजनाओं लोकपाल द्वारा छानबीन के दायरे में लाया जाए, जो सार्वजनिक संसाधनों का उपयोग करती हैं या सरकार से जिनका वित्तीय लेन-देन का रिश्ता बनता है। हालांकि, प्रस्ताव पर मतदान के समय पर राज्यसभा में वामपंथी पार्टियों के कुल 11 सदस्य उपस्थित थे, उक्त संशोधन प्रस्ताव के पक्ष में 19 वोट पड़े थे। दूसरे शब्दों में वामपंथी सांसदों के अलावा कुछ अन्य सदाकांक्षी सांसदों ने भी, इस संशोधन का समर्थन किया था। बहरहाल, कांग्रेस-नीत यूपीए और भाजपा-नीत एनडीए ने मिलकर इसके खिलाफ वोट डाला और प्रचंड बहुमत से यह संशोधन प्रस्ताव गिर गया। आखिर, ये दोनों ही कतारबंदियां ऐसी निजी कंपनियों पर अंकुश लगाने के खिलाफ हैं, जिनके सार्वजनिक संसाधनों या ऐसे राजस्व के दुरुपयोग या उसमें गड़बड़ी करने के मौके हो सकते हैं, जो राजस्व वैध तरीके से सरकारी खजाने में जाना चाहिए।

इस संदर्भ में दिल्ली हाईकोर्ट का हाल का फैसला, जो निजी दूरसंचार कंपनियों को नियंत्रक तथा लेखा परीक्षक (सीएजी) द्वारा ऑडिट के दायरे में लाता है, वाकई बहुत ही महत्वपूर्ण है। हाईकोर्ट के फैसले में 2-जी स्पैक्ट्रम के मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का हवाला दिया गया है और इस पर चर्चा की गई है कि किसी भी निजी सत्ता द्वारा सार्वजनिक संसाधनों के उपयोग पर नियंत्रण रखा जाना जरूरी है। न्यायमूर्ति नंदरजोग तथा वीके राव की दिल्ली हाईकोर्ट की पीठ ने इस निर्णय के लिए 'रेस काम्यूनेस' की अवधारणा का सहारा लिया है, जो यह कहती है कि प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण, एक न्यासी के रूप में शासन के हाथों में रहता है और शासन की यह जिम्मेदारी बनती है कि अगर ये संसाधन निजी हाथों में दिए जाते हैं, तो इन पर समुचित नियमन सुनिश्चित करें। इसलिए, दिल्ली हाईकोर्ट ने फैसला दिया है कि सीएजी अपना ऑडिट, पांच निजी दूरसंचार कंपनियों की राजस्व प्राप्तियों के ऑडिट तक सीमित रखेगी, जिनका सरकार के साथ राजस्व साझीदारी समझौता है। इस समझौते के तहत ये कंपनियां, सरकारी खजाने को सालाना 20,000 करोड़ रुपए से ज्यादा देती हैं। सीएजी का ऑडिट इसकी जांच करेगा कि क्या मौजूदा समझौते के तहत सरकार का राजस्व हिस्सा उतना ही बनता है, जितना उक्त निजी दूरसंचार कंपनियां दर्शा रही हैं।

जाहिर है कि ऐसा लेखा परीक्षण पूरी तरह से जायज है। सार्वजनिक संसाधनों का इस्तेमाल करने वाली निजी फर्मों का ऑडिट करने का सीएजी का अधिकार, जैसा कि सीपीआई (एम) ने लोकपाल विधेयक पर चर्चा के क्रम में संसद में रेखांकित भी किया था, किसी भी तरह से न तो किसी निजी फर्म के काम-काज में हस्तक्षेप माना जा सकता है और न संविधान की धारा-149 का उल्लंघन, जो सीएजी द्वारा निजी फर्मों के ऑडिट को रोकता हो। इसकी सीधी सी वजह यह है कि निजी दूरसंचार कंपनियां, सालाना लाइसेंस फीस के अलावा स्पैक्ट्रम उपयोग शुल्क के रूप में 1 से 8 फीसद तक सरकारी खजाने में देती हैं। ऐसे में इस तरह का ऑडिट यह तो सुनिश्चित करेगा ही कि सरकार को निजी दूरसंचार कंपनियों से अपने हिस्से का पूरा राजस्व मिले, इसके अलावा सरकार को तथा जनता को यह भी जानने को मौका मिलेगा कि कहीं दूरसंचार कंपनियां अपनी राजस्व-प्राप्ति ही तो घटाकर नहीं दिखा रही हैं, जिससे इसमें से सरकारी खजाने में जाने वाला हिस्सा भी घट जाएगा।

इस संदर्भ में हाईकोर्ट ने खेद के साथ यह दर्ज किया है कि किस तरह ''बड़ी कार्पोरेशनें'' बच निकलने की लड़ाई लड़ती हैं। अदालत ने दर्ज किया है कि, ''नियमन के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में, नियामकों और नियमितों के बीच, जो परिपालन से पूरी तरह से बच निकलने या सिर्फ 'रचनाशील' परिपालन करके दिखाने पर आमादा रहते हैं, लगातार शह और मात की लड़ाई लड़ी जा रही होती है।'' हाई कोर्ट का फैसला आगे कहता है कि, ''हमारी तो यही कामना है कि बड़ी कार्पोरेट सत्ताएं इस बात को समझें कि शह-मात की यह लड़ाई, विकारग्रस्तता ही पैदा करती हैभांति-भांति के अयाचित परिणाम पैदा करती है, जो खुद नियमन के लक्ष्य को ही विफल कर देते हैं।''

हाईकोर्ट के इस निर्णय का एक और पक्ष, जो निजी कंपनियों से संबंध रखता है, ''हरेक कांट्रैक्ट के अधिशेष (फिडूशियरी) सिद्धांत पर, उसके जोर का है। हाईकोर्ट ने याद दिलाया है कि किसी भी कांट्रैक्ट में, ''निहितार्थत: सद्भावना तथा ईमानदारी की शर्त लगी होती है क्याकि हरेक कांट्रैक्ट में सभी पक्ष, एक-दूसरे पर भरोसा जताते हैं, कि उनमें से हरेक पक्ष ऐसा कुछ भी करने से बचेगा जिससे, किसी दूसरे पक्ष के उस कांट्रैक्ट के फल हासिल करने के अधिकार पर चोट पहुंचती है या वह नष्ट होता हो।''

सहज ज्ञान तो यही कहता है कि इस तर्क पर, जो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों पर आधारित है, किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए। इसके बावजूद, दूरसंचार उद्योग के निकायों ने सीएजी के प्रस्तावित ऑडिट पर आपत्तियां दर्ज कराई थीं, जिन्हें मान्य न्यायालय ने बलपूर्वक ठुकरा दिया है। मीडिया की रिपोर्टों के अनुसार, अदालत के उक्त निर्णय के बाद भी फिक्की के अध्यक्ष ने यही दावा किया है कि, ''निजी कंपनियों के खातों में सीएजी के दखलंदाजी करने की कोई गुंजाइश नहीं है।''

इसी प्रकार की आपत्तियां दिल्ली हाईकोर्ट के उस निर्णय पर आई हैं, जिसमें देश की राजधानी में बिजली की तीन निजी वितरण कंपनियों के ऑडिट का आदेश दिया गया है। इनमें से दो कंपनियों, बीएसईएस राजधानी और बीएसईएस यमुना में, जो राजधानी की 75 फीसद आबादी को बिजली की आपूर्ति करती हैं, रिलायंस इन्फ्रास्ट्रक्चर की 51 फीसद हिस्सा पूंजी है। इसी प्रकार, शेष राजधानीवासियों के लिए बिजली की आपूर्ति करने वाली टाटा पावर डल्ही डिस्ट्रीब्यूशन लि. में, टाटा पॉवर का 51 फीसद हिस्सा है। इन तीनों बिजली आपूर्ति कंपनियों में से हरेक में शेष 49 फीसद हिस्सा पूंजी, अपनी होल्डिंग फर्म डल्ही पॉवर कंपनी लि. के जरिए, दिल्ली सरकार के हाथ में है।

सीएजी से इन तीनों बिजली आपूत कंपनियों का ऑडिट कराए जाने की पुकार तीन साल पुरानी है। 2011 की फरवरी में इसके लिए एक याचिका दायर की गई थी। बहरहाल, इस याचिका में सीएजी से ऑडिट की मांग तो की ही गई थी, इसके साथ ही यह मांग भी की गई थी निजी बिजली आपूर्ति कंपनियों द्वारा रिकार्डों की हेरा-फेरी तथा फर्जीवाड़े के आरोपों की भी सीबीआई से या ऐसी ही किसी अन्य एजेंसी से जांच कराई जाए। इसके बाद, 2012 के मार्च के महीने में तत्कालीन दिल्ली सरकार ने बीएसईएस ग्रुप की कंपनियों का सीएजी से ऑडिट कराने का अनुमोदन भी कर दिया था। बहरहाल, दिल्ली की नयी सरकार ने अब तीनों बिजली वितरण कंपनियों के सीएजी ऑडिट के आदेश दे दिए हैं। उधर, 2011 की याचिका पर दिल्ली हाईकोर्ट में अंतिम जिरह 22 जनवरी को होने जा रही है।

चूंकि इन कंपनियों में 49 फीसद हिस्सा दिल्ली सरकार का है या सार्वजनिक खजाने का है, यह पूरी तरह से उपयुक्त ही है कि इन कंपनियों के खातों की लेखा जांच सीएजी द्वारा की जाए। इसके बावजूद, इसका जोर-शोर से विरोध किया जा रहा है। वास्तव में कार्पोरेट जगत के कुछ प्रवक्ताओं ने तो इस आशय की धमकियां भी दी हैं कि देश में पहले ही आम आर्थिक मंदी के हालात हैं और ऐसे में निजी कंपनियों के खातों के सीएजी द्वारा ऑडिट जैसे कदम अर्थव्यवस्था को और नीचे धंसा देंगे!


यह प्रकारांतर इसी बात की मांग करना है कि हमारी अर्थव्यवस्था में दरबारी पूंजीवाद का जो बोलबाला चल रहा है, जो अवैध तरीकों से भी मुनाफे अधिकतम करने की इजाजत देता है, उस पर किसी भी तरह का अंकुश ही नहीं लगाया जाना चाहिए। जरा 2008 के विश्व वित्तीय संकट के फूटने के फौरन बाद की मीडिया की रिपोर्टों को याद करें, जब इसके खूब चर्चे हुए थे कि किस तरह अमेरिका की भीमकाय ऑटोमोबाइल कंपनियों के मुखिया, अमेरिकी राष्ट्रपति से बेल आउट पैकेज की मांग करने के लिए, निजी जैटों में सवार होकर वाशिंगटन पहुंचे थे! आज भारत में, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का लाखों करोड़ रुपया बट्टे-खाते में डाला जा रहा है, फिर भी कार्पोरेट खिलाड़ी निजी जैट विमानों में दुनिया भर में सैर-सपाटे करते फिरते हैं। कब तक हमारा देश इस दरबारी पूंजीवाद को बर्दाश्त करेगा, जो सार्वजनिक हित की कीमत पर, निजी कमाइयों की इजाजत देता है? हम तो यही उम्मीद करते हैं कि हाल के महत्वपूर्ण घटनाक्रम के बाद, ज्यादा समझ-बूझ से काम लिया जाएगा और कांग्रेस तथा भाजपा, दोनों को संसद में इसके लिए मजबूर किया जा सकेगा कि इस तरह के दरबारी पूंजीवाद को संरक्षण देना बंद करें और देश व जनता दोनों के हित में, लोकपाल कानून में सीपीआई (एम) द्वारा रखे गए संशोधन को मंजूर करें। इस रास्ते पर चलकर ही यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि सार्वजनिक संसाधनों का हमारी जनता की जिंदगी बेहतर बनाने के लिए उपयोग हो न कि उन्हें निजी लूट के लिए खुला छोड़ दिया जाए।

शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

छेड़छाड़ पीड़ितों को मनोवैज्ञानिक मदद देने हेतु स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग द्वारा दिशा-निर्देश जारी

स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग (डीआरएच) ने छेड़छाड़ पीड़ितों को मनोवैज्ञानिक मदद देने के लिए दिशानिर्देश 8 जनवरी 2014 को जारी किए. इन दिशानिर्देशों का उद्देश्य जुल्म के शिकार लोगों को उनकी समस्या से उबारना है.

दिशानिर्देश जारी किए जाने के कारण

  • छेड़छाड के शिकार लोग अक्सर परिवार, दोस्तों और समाज की दूसरी संस्थाओं के सहयोग के अभाव के कारण मानसिक पीड़ा से ग्रस्त होते हैं.
  • पीड़ितों को उनके कानूनी और चिकित्सकीय विकल्प के बारे में कम पता होता है.
  • आमदनी की कमी, न्यायपालिका, अस्पतालों और अदालतों का कथित असंवेदनशील रवैया उनकी तकलीफ को और बढ़ा देता है.
  • न्याय मिलने में होने वाली देरी उन्हें अपनी समस्या दूसरों को बताने और इंसाफ की तलाश से दूर ले जाती है.


दिशानिर्देश के मुख्य प्रावधान 

  • परामर्शदाताओं के लिए अब यह अनिवार्य कर दिया गया है वे पीड़ित को न्यायलय या अन्य कार्यवाही में पूछे जाने वाले संभावित प्रश्नों के बारे में पहले ही बता दें.
  • पीड़ित को चिकित्सकीय परीक्षण, प्रक्रिया के महत्व के बारे में बताया जाना चाहिए.
  • डॉक्टरों/ नर्सों/ सलाहकारों को पीड़ित को उसके केस और मौजूद विकल्पों के बारे स्पष्ट और सटीक जानकारी देनी चाहिए.
  • पीड़ित द्वारा विकल्प के चुने जाने के बाद भी, सलाहकारों/ डॉक्टरों को अपना रवैया सहयोगात्मक और गैरअनुमानित ही रखना चाहिए.

राष्ट्रीय युवा नीति 2014 का लक्ष्य

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने राष्ट्रीय युवा नीति 2003 के स्थान पर राष्ट्रीय युवा नीति 2014 के शुभारंभ की मंजूरी 9 2014 को प्रदान की.मंत्रिमंडल की बैठक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई.
राष्ट्रीय युवा नीति 2014 का लक्ष्य युवाओं की पूर्ण क्षमता हासिल करने के लिए उन्हें सशक्त बनाने और उसके जरिए देश को राष्ट्रों के बीच सही जगह हासिल करने में समर्थ बनाना है.
इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए नीति में पांच भली-भांति परिभाषित उद्देश्यों और प्राथमिकता वाले 11 क्षेत्रों की पहचान की गई है. इसमें प्रत्येक प्राथमिक क्षेत्र में नीति के लिए भी सुझाव दिया गया है.
प्राथमिक क्षेत्रों में शिक्षा, कौशल विकास और रोजगार, उद्यमिता, स्वास्थ्य एवं स्वस्थ जीवनशैली, खेल, सामाजिक मूल्यों का संवर्द्धन, समुदाय से जोड़ना, रानीति एवं शासन में भागीदारी, युवाओं को संलग्न करना, समावेश और सामाजिक न्याय शामिल हैं.
यह नीति 15 से 29 वर्ष के आयु वर्ग के सभी युवाओं की जरूरतें पूरी करेगी जो 2011 की जनगणना के अनुसार कुल आबादी का 27.5 प्रतिशत हैं.
भारत दुनिया में सबसे अधिक युवा आबादी वाला देश है और भविष्य में देश के विकास और उत्थान में इसका उसे भारी लाभ मिलेगा. इसी मकसद से नई परिस्थितियों को देखते हुए राष्ट्रीय युवा नीति-2014 लाई गई है.


बच्चों के प्रति उदासीन समाज

बच्चों का शारीरिक व मानसिक शोषण हर समाज की सबसे पहली चिंता होना चाहिए। बच्चे यूं ही किसी देश का भविष्य नहींकहे जाते। वे अपने जीवन की प्रारंभिक अवस्था में जिस तरह की परिस्थितियों से गुजरते हैं, उसी से उनके भावी जिंदगी की रूपरेखा तय होती है। संवेदनशील माहौल में पला-बढ़ा बच्चा बड़ा होकर अपने आसपास की दुनिया के प्रति संवेदनशील रहेगा, और जो बच्चा क्रूर, निर्मम, हिंसक, आपराधिक माहौल का सामना करेगा, उससे भविष्य में एक सभ्य, जिम्मेदार, संवेदनशील नागरिक बनने की उम्मीद नहींकी जा सकती। संयुक्त राष्ट्र संघ में बच्चों के कल्याण व उनके अधिकारों की रक्षा की विस्तृत व्यवस्था है, दुनिया के लगभग सभी देशों में बाल अधिकारों के लिए नियम-कानून बनाए गए हैं और जिन देशों में गृहयुध्द, बाहरी हमलों, आतंकवाद, प्राकृतिक आपदाओं के कारण बच्चे विपरीत परिस्थितियों में जीवन बिताने को मजबूर हैं, और सरकार उसका संज्ञान नहींलेती है, तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय उसकी आलोचना करता है और दबाव डालता है कि वह बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करे। भारत में न गृहयुध्द छिड़ा हुआ है, न बाहरी हमला हुआ है और उत्तराखंड जैसे एकाध स्थान को छोड़कर कहींभारी प्राकृतिक आपदा भी पिछले एक वर्ष में नहींआयी है। फिर भी बच्चों का शोषण इस देश में जारी है और बालअधिकार कागजों में सिमट कर रह गया है। बहुत हुआ तो किसी सभा-संगोषठी में इस पर चर्चा हो जाती है, लेकिन वे बातें कार्यरूप में परिणत नहींहोती। केंद्र से लेकर राज्य सरकारों में महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय बना हुआ है, कमीशन फार प्रोटेक्शन आफ चाइल्ड राइट एक्ट 2005 की धारा 17 के मुताबिक बाल अधिकार आयोग की स्थापना का कानून भी बना है, लेकिन इसका पालन करने की सुध किसी को नहींहै। पिछले साल ही सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में उन 19 राज्यों को निर्देश जारी किए थे, जिनमें बाल अधिकार आयोग नहींगठित किए गए हैं। लेकिन साल भर बाद भी इस स्थिति में कोई सुधार नहींहुआ है। कानूनन हर राज्य में एक आयोग गठित होना चाहिए जो अपने क्षेत्र में बाल अधिकारों की रक्षा व उनके विकास के लिए कार्य करे। इस आयोग में एक अध्यक्ष व छह सदस्य होने चाहिए, जो बालकल्याण के कार्यों से जुड़े हुए हों, छह सदस्यों में कम से कम एक महिला सदस्य का होना आवश्यक है। यह आयोग प्रतिवर्ष अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपे और अगर जरूरत हो तो विशेष सिफारिशें भी करे। दंगा, आतंकवाद, प्राकृतिक आपदा, घरेलू हिंसा, एड्स जैसी घातक बीमारी, दर्व्यवहार, शारीरिक शोषण, वेश्यावृत्ति आदि के कारण बच्चों का जो शोषण हो रहा है, उसे रोकने के लिए कानूनों का पालन हो रहा है या नहीं, यह देखना आयोग का काम है। बच्चों की रक्षा के लिए कुछ सुझाव भी वह सरकार को दे सकता है। वंचित समुदाय के बच्चों को विशेष देखभाल व सुरक्षा मिले यह देखना भी आयोग के जिम्मे है। बाल अधिकारों के क्षेत्र में शोध कार्य करवाना, विभिन्न माध्यमों से समाज में जागरूकता फैलाना व बाल संरक्षण गृहों का समय-समय पर निरीक्षण करना आयोग की जिम्मेदारी है। कुल मिलाकर वर्ग, जाति, संप्रदाय से परे हर बच्चे को उसका अधिकार मिले, परिस्थितियां कैसी भी हों, उनके दुष्प्रभाव से बच्चे बचे रहें, स्वस्थ-सुखद माहौल में उनकी परवरिश हो, ऐसी व्यवस्था कानून में की गई है और इसका पालन करवाने की जिम्मेदारी बाल अधिकार आयोग पर है। लेकिन भारत के अधिकतर राज्यों में बाल अधिकार आयोग कागज पर गठित होने से आगे नहींबढ़ पाए हैं।


 उत्तरप्रदेश, अरूणाचल प्रदेश, चंडीगढ़, त्रिपुरा, पांडीचेरी, अंडमान व निकोबार, लक्षद्वीप, दादरा नगर हवेली एवं दमन-दीव में बाल अधिकार आयोग का गठन होना बाकी है। आंध्रप्रदेश, नागालैंड व मेघालय में आयोग गठित कर लिए गए, लेकिन उसमेंसदस्य नियुक्त नहींकिए। छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा व तमिलनाडु में आयोग के अध्यक्ष नियुक्त हो गए, किंतु सदस्य नियुक्त नहींकिए गए हैं। वहींगुजरात, हिमाचल प्रदेश, केरल में सदस्य बना दिए गए हैं, लेकिन अध्यक्ष नहींनियुक्त हुए हैं। आयोग क्यों नहींगठित हुए, सदस्यों का चयन क्यों नहींकिया गया, अध्यक्ष क्यों नहींबनाए गए, इसे लेकर हर किसी के पास अपने तर्क व कारण हैं। इस वजह से विषम परिस्थितियों में जी रहे बच्चों के बर्बाद होते जीवन की जिम्मेदारी लेने के लिए शायद ही किसी के पास शब्द हों। दरअसल बच्चे किसी वोटबैंक में नहींआते, जो राजनैतिक दल उन्हें लेकर हंगामा खड़ा करें। वे कभी किसी राजनैतिक दल के घोषणापत्र का हिस्सा नहींबनते। मुफ्त लैपटाप या साइकिल निकट भविष्य के वोटरों को ही दिया जाता है। बच्चे सुर्खियों में भी तभी आते हैं, जब उनकी कोई खास उपलब्धि होती है या बालदिवस जैसा कोई विशेष अवसर हो। कुल मिलाकर बच्चों के प्रति अत्यंत संवेदनहीन, उदासीन समाज में हम जीते हैं और सुखद भविष्य की कामना करते हैं। क्या ऐसे फल की उम्मीद हमें करनी चाहिए, जिसका बीजारोपण ही नहींकिया गया हो।

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

बिजली संकट की असली वजह

देश में बिजली की खपत जाड़े और गर्मी में अचानक हर साल बढ़ जाती है। इसकी वजह से ग्रिड भी फेल हो जाते हैं। पिछले जाड़े में ग्रिड फेल होने से सारा उत्तर भारत गहरे अंधकार में डूब गया था जिससे रेल परिचालन में ही नहीं बल्कि रोजमर्रा की जिंदगी में भी अवरोध उत्पन्न हो गया था। इससे बचने के लिए सरकार ने अभी तक क्या कोई उपाय किये हैं? गौरतलब है, ग्रिड पर अधिक बोझ पडऩे पर अमूमन ऐसी समस्या आया करती है। लेकिन सवाल महज ग्रिड फेल होने कम उत्पादन का ही नहीं है। सवाल, वितरण और चोरी का भी है। बिजली के असमान वितरण और चोरी के कारण आमतौर पर घरों में बहुत कम वोल्टेज की बिजली रहती है। आने वाले वक्त में जब ठंड अधिक पड़ेगी तब यह समस्या और भी विकट हो जाएगी। इससे अनेक इलाकों में बिजली उपगृहों को बिजली की अनचाही कटौती के लिए मजबूर होना पड़ता है।

विशेषज्ञों का मानना है कि इस समस्या से निपटने के लिए जहां बिजली का उत्पादन बढ़ाने की जरूरत है वहीं पर इसका वितरण सही ढंग से करने और चोरी रोकने की भी जरूरत है। गौरतलब है, देश में हर साल हजारों मेगावाट बिजली की चोरी होती है। यह चोरी आम आदमी तो करता ही है, कारखानों और अन्य प्राइवेट संस्थानों में बड़े पैमाने पर की जाती है। यदि केवल बिजली की चोरी ही रोक दी जाए तो देश के हर गांव और शहर में जरूरत के मुताबिक बिजली पहुंचाई जा सकती है। अभी देश में 1.14 लाख मेगावाट बिजली का उत्पादन होता है। लेकिन यह देशभर की जरूरत से लगभग आधा है। ऊर्जा मंत्रालय के मुताबिक 2 लाख मेगावाट देश की पूरी आबादी के लिए बिजली चाहिए। अभी जो बिजली पैदा होती है उसमें 66 फीसदी बिजली थर्मल पावर से, 19 फीसदी हाइड्रो पावर से, 12 फीसदी सौर ऊर्जा से और 03 फीसदी बिजली अन्य स्रोतों से पैदा होती है।

गांवों में बिजली की समस्या सबसे ज्यादा है। आजादी के 65 वर्षों के बाद भी महज 82 फीसदी गांवों में ही बिजली पहुंचाई जा सकी है। एक आंकड़े के मुताबिक 31 मार्च, 2008 तक 4,88, 435 गांवों में ही बिजली पहुंचाई जा सकी थी। 1,25,000 गांव आज भी अंधेरे में रहने के लिए अभिशप्त हैं। यानी लगभग 30 करोड़ आबादी अभी भी बिजली से वंचित है। जहां तक खपत की बात है महज 96 यूनिट प्रति व्यक्ति हर साल बिजली की खपत गांव में होती है और 288 यूनिट प्रति व्यक्ति हर साल शहरों में । जबकि दुनिया के सबसे बड़ी आबादी वाले देश चीन में बिजली की खपत सालाना प्रति व्यक्ति 1247 यूनिट है।

केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय के मुताबिक बीते एक दशक से विद्युत उत्पादन में 5.5 प्रतिशत की सालाना बढ़ोतरी हो रही है, लेकिन यह जरूरत के मुताबिक बहुत कम है। सोचा जाना चाहिए कि जब एक दशक से 5.5 प्रतिशत की दर से बिजली के उत्पादन में बढ़ोतरी होने के बावजूद बिजली की किल्लत देशभर में एक चिंता का विषय बना हुई है, यदि इस बढ़ोतरी का समुचित उपयोग किया जाता तो देश में बिजली की ऐसी समस्या न दिखाई देती जैसे की आज है। विशेषज्ञों का मानना है कि जब तक बिजली की चोरी पर पूरी तरह से अंकुश नहीं लग जाता है तब तक बिजली के बढ़े उत्पादन का फायदा आमजन को नहीं मिल सकता है। शहरों में बिजली की खपत गांवों की अपेक्षा कई गुना ज्यादा है। वहीं पर बिजली की चोरी भी गांवों की अपेक्षा शहरों में सैकड़ों गुना ज्यादा होती है। इसलिए बिजली की चोरी को रोकने के लिए शहरों पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है।

यूपीए सरकार ने 2012 तक बिजली के उत्पादन में 78,500 मेगावॉट इजाफा करने की बात कही थी लेकिन आज की तारीख तक सिर्फ 52 हजार मेगावॉट और बिजली बनाने का ही इंतजाम हो पाया। पिछले अक्तूबर, 2012 में प्रधानमंत्री डॉ$ मनमोहन सिंह ने घोषणा की थी कि 2017 तक हर घर में बिजली पहुंचा दी जाएगी। उन्होंने बताया था कि राष्ट्रीय कार्य योजना के तहत जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय सौर मिशन के तहत 2022 तक ग्रिड से जुड़े 20,000 मेगावॉट बिजली पैदा करने का लक्ष्य रखा गया है।

देश में 60 प्रतिशत बिजली का उत्पादन जीवाश्म कोयले के जरिए होता है। लेकिन कोयले का घटता उत्पादन और बढ़ती मांग के मद्देनजर आने वाले वक्त में बिजली का संकट और भी गहराने की संभावना है। इसलिए आने वाले वक्त में बिजली के दाम प्रति यूनिट और भी बढ़ेंगे। एटमी बिजलीघरों का प्रयोग अभी परीक्षण के दौर में है। इससे पर्यावरण को ही नहीं, इंसान के लिए भी एक बड़ा खतरा माना जा रहा है। थोड़े से रिसाव से लाखों लोगों की जान पलक झपकते जा सकती है। ऐसे में आने वाले वक्त में न्यूक्लियर पावर से बिजली का उत्पादन कितना हो पाएगा, कह पाना जरा मुश्किल है। फिर ले-देकर एक ही रास्ता बचता है कि बिजली की चोरी रोकी जाए और सौर ऊर्जा से बिजली उत्पादन पर अधिक जोर दिया जाय।


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