शनिवार, 5 अक्टूबर 2013

कैसे थमेगी स्त्री विरोधी हिंसा

लैंगिक असमानता के जंगल में भेड़ियों का यौनिक हिंसा का खेल थमना नहीं जानता। तो भी एक अभिभावक की हैसियत से कोई नहीं चाहेगा कि उसकी बेटी का ऐसे दरिंदों से वास्ता पड़े।

स्त्री के विरुद्ध होने वाली घृणित यौनिक हिंसा की ये पराकाष्ठाएं किसी भी अभिभावक को वितृष्णा और असहायता से भर देंगी। मगर आसाराम पर लगे आरोप या मुंबई में फोटो-पत्रकार के साथ सामूहिक बलात्कार जैसे घटनाक्रम केवल कमजोर कानून-व्यवस्था और पाखंडी धार्मिकता के संदर्भों में ही नहीं देखे जाने चाहिए। दरअसल, अभिभावकों की अपनी दोषपूर्ण भूमिका भी इनके लिए कम जिम्मेवार नहीं है।

स्त्री-सुरक्षा के संदर्भ में सबसे पहले तो हमें यह समझना चाहिए कि पुरुषत्ववादी कानून-व्यवस्था को राखी बांधते रहने से लड़कियां सुरक्षित नहीं हो जाती हैं। कठोरतम कानून, बढ़ती पुलिस, कड़े से कड़ा दंड, जूडो-कराटे, महिला आयोग उन्हें हिंसा से नहीं बचा सकते। अगर सही मायने में लड़कियों को सुरक्षित करना है तो उन्हें जबानऔर विवेकदेना होगा। इन पर परिवारों में अभिभावकों द्वारा ही, लैंगिक स्वाधीनता को कुचल कर, सबसे प्रभावी रूप से लगाम कसी जाती है।

अपने साढ़े तीन दशक के पुलिस जीवन में मुझे सैकड़ों अभिभावक अपनी बेटियों के घर से बिना उन्हें खबर किए किसी युवक के साथ जाने की शिकायत के साथ मिले होंगे। उनके नजरिए से उनकी बेटियों को धोखे से अगवा कर लिया गया था। पर वे यह समझने और समझाने में असमर्थ होते थे कि जीवन के इतने बड़े निर्णय में उनकी बेटियों ने उन्हें शरीक क्यों नहीं किया। बेटियों को चुपरहना सिखा कर वे उनसे इतने अलग-थलग पड़ चुके थे! ये वही बेटियां हैं, जो बचपन में पैर में कांटा चुभ जाए तो मां-बाप से सारा दिन उसका बयान करने से नहीं थकती थीं। ऐसा क्यों होता है कि स्कूल में अध्यापक लड़की का महीनों यौन-शोषण करता है और घर वालों को तभी पता चलता है जब वह गर्भवती हो जाए। क्या इस घातक संवादहीनता के लिए अभिभावक दोषी नहीं? घर का वातावरण जो लड़की को चुपरहना सिखाता है, दोषी नहीं?

पहली गलत नजर, पहला गलत शब्द, पहली गलत हरकत, और क्या लड़की को गुस्से और विरोध से फट नहीं पड़ना चाहिए? कहीं भी, कभी भी, किसी भी संदर्भ में, किसी के भी संसर्ग में, कितने अभिभावक यह सिखाते हैं। बोल कर बदमाशियों को तुरंत नंगा किया जा सकता है। आज की सामाजिक चेतना की बनावट भी ऐसी है कि अगर बदमाशी सार्वजनिक हो जाए तो पीड़ित के पक्ष में राज्य और तमाम तबके भी खड़े होते हैं। लड़की का बोलनाही आज की परिस्थिति में उसका सबसे कारगर हथियार है। लेकिन परिवारों में लड़की को चुपरहना ही सिखाया जाता है। उसे तमाम महत्त्वपूर्ण विषयों पर बातचीत में शामिल नहीं किया जाता और विशेषकर यौनिक विषयों पर तो बिल्कुल भी नहीं। लिहाजा, दुराचार के चक्रव्यूह में फंसने पर अभिमन्यु की तरह परास्त होना ही उसकी नियति हो जाती है। आसाराम प्रसंग की पीड़ित लड़की इसी प्रक्रिया का शब्दश: उदाहरण है।

हर बड़ाआदर के योग्य नहीं होता। हर दुस्साहस प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता। यहां विवेक की भूमिका आती है। विवेक भी बातचीत और विमर्श से ही आता है। हर वह परिस्थिति, हर वह आयाम, हर वह खतरा, हर वह उपाय, जो घरेलू और बाहरी दुनिया में लड़की की सुरक्षा से संबंध रखता है, पूरी तरह उसकी सुरक्षा प्रोफाइल का हिस्सा बनाया जाना चाहिए।

सामाजिक वास्तविकताएं, उनके प्रति हमारे उदासीन रहने से बदलने नहीं जा रहीं। यौनिक हिंसा का शैतान जब स्त्री के सामने खड़ा हो जाता है तो उस पल न कानून-व्यवस्था और न राखी-व्यवस्था लड़की के किसी काम की रह जाती हैं। इस शैतान से सामना ही न हो, इससे उसे उसका विवेक ही बचा सकता है। मुंबई प्रकरण का यह एक महत्त्वपूर्ण सबक है। परिवार के अलावा सामुदायिक पहल, कार्यस्थल और मीडिया इस विवेकको मजबूत करने के अनिवार्य प्लेटफार्म बनने चाहिए।

यह अवसर राज्य, नागरिक समाज, मीडिया के लिए इन जैसे प्रकरणों में निहित चुनौतियों का उत्तर देने का भी होना चाहिए। यौनिक ही नहीं, लैंगिक चुनौतियों का भी। जाहिर है कि महज पुरुषत्ववादी या सजावटी उपायों से स्त्रियां सुरक्षित होने नहीं जा रहीं। न्यायमूर्ति वर्मा समिति की सिफारिशों और उनसे निकले विधायी प्रावधानों ने यौनिक हिंसा के सारे मसले को केवल कानून-व्यवस्था के मर्दानेचश्मे से देख कर, कड़े कानून और कठोर दंड जैसे उपायों से नियंत्रित करने का प्रयास किया। पर इन उपायों से स्त्रियों में सुरक्षा की भावना नहीं पनप सकी। दरअसल, इन कदमों से संबंधित सरकारी-गैरसरकारी क्षेत्रों में भी समस्या के निराकरण को लेकर शायद ही विश्वास बना हो।

अब स्त्री-सुरक्षा के सजावटी उपायों की जमकर छीछालेदर की जानी चाहिए। ये उपाय स्त्री-सुरक्षा का एक भ्रमजाल बुनते हैं। महिला आयोगों, महिला पुलिस थानों, महिला बसों-ट्रेनों, महिला बैंकों-डाकघरों, महिला शिक्षण संस्थानों आदि का स्त्री-सुरक्षा के संदर्भ में उतना ही योगदान हो सकता है जितना भैयादूज, राखी, करवा चौथ जैसे त्योहारों का बच गया है। इनकी उपयोगिता मात्र भावनात्मक रस्म-अदायगी की रह गई है। क्या हमें सजावटी उपायों का महिमा-मंडन बंद नहीं करना चाहिए?

यौन हिंसा के उपरोक्त प्रकरणों से दो जीवंत सवाल निकल कर सामने आते हैं। एक प्रभावशाली व्यक्ति के कुकृत्य उजागर होने के बावजूद उसे सामाजिक वैधानिकता क्यों मिलती रहती है? कौन-सी प्रवृत्तियां और लोग हैं, जो बेशर्मी से बेपरदा हो चुके भेड़ियों को भी संदेह का लाभ या सम्मान का लबादा देने में जुटे रहते हैं? मुंबई प्रकरण (इससे पहले सोलह दिसंबर का दिल्ली प्रकरण भी) में शामिल गुनहगारों की पाशविकता की जड़ें कहां हैं? उनके लिए एक अनजान और असुरक्षित लड़की पर हैवानियत का प्रहार करना इतना सहज क्यों रहा? गांवों-कस्बों से औचक काम-धंधे के सिलसिले में आने वालों के लिए मुंबई-दिल्ली जैसे महानगरों के सांस्कृतिक परिवेश से परिचय के क्या आयाम होने चाहिए?

पहली नजर में दोनों प्रश्न असंबद्ध नजर आ सकते हैं। पर दोनों के पीछे एक ही लैंगिक मनोवृत्ति की भूमिका को देख पाना मुश्किल नहीं है। दिल्ली, मुंबई के हैवान अपने गांवों, कस्बों में भी वही सब कर रहे होते हैं, जो करते वे अब पकड़े गए हैं। वे इतने दुर्लभ लोग भी नहीं; उनके जैसे बहुतेरे अपने-अपने स्तर पर स्त्री-उत्पीड़न के सहजखेल में लगे होंगे। गांवों, कस्बों में ये बातें प्राय: दबी रह जाती हैं। यहां तक कि महानगरों में भी ज्यादातर मामले सामने नहीं आ पाते; विशेषकर अगर पीड़ित किसी झुग्गी या चाल की रिहायशी हो तो उसे चुप कराना और भी आसान होता है। पैसे का प्रलोभन, गुंडा-शक्ति का प्रभाव, लंबी-खर्चीली-थकाऊ कानूनी प्रक्रिया, प्राय: इस काम को हैवानों के पक्ष में संपन्न कर जाती हैं।

रसूख वाले आरोपियों की लंबे समय तक चलती रहने वाली वैधानिकता के पीछे भी इन्हीं कारणों का सम्मिलित हाथ होता है। उनके शिकार प्राय: उनके अपने भक्त ही हुआ करते हैं, जिनका मानसिक अनुकूलन अन्यथा गुरु की कृपासे अभिभूत बने रहने का होता है। लिहाजा, उन्हें दबा पाना और आसान हो जाता है। इसमें समान रूप से अभिभूत अन्य भक्तों का समूह भी भूमिका अदा करता है। ऊपर से उन भक्त-समूहों को चुनावी या समाजी भेड़ों के रूप में देखने वाले निहित स्वार्थों के स्वर भी इसमें शामिल हो जाते हैं। आसाराम के मामले में धीमी कानूनी कार्रवाई पर राजनीतिक दलों, सामाजिक संगठनों और मीडिया समूहों की दबी-जुबानी इन्हीं प्रभावों का परिणाम है।

भारतीय समाज में स्त्री के विरुद्ध हिंसा को लेकर हलचल की कमी नहीं है। जरूरत है इसे सही और प्रभावी दिशा देने की। यह समझ बननी ही चाहिए कि पुरुष पर निर्भरता के रास्ते स्त्री को सुरक्षित नहीं बनाया जा सकता। स्त्री विरोधी हिंसा से मुक्ति का रास्ता स्त्री की स्वाधीनता से होकर ही जाएगा। लैंगिक स्वाधीनता के मुख्य तत्त्व होंगे: संपत्ति और अवसरों में समानता; घर-समाज-कार्यस्थल पर निर्णय प्रक्रियाओं में स्त्री की बराबर की भागीदारी; सार्वभौमिक यौन-शिक्षा की अनिवार्यता; कानून-व्यवस्था में लगे तमाम राजकर्मियों, विशेषकर पुलिस और न्यायिक अधिकारियों का हर रूप में (व्यक्तिगत, सामाजिक, पेशेवर) स्त्री के प्रति संवेदनशील होने की पूर्व-शर्त; महानगरीय जीवन में गांवों-कस्बों से किसी भी स्तर पर औचक प्रवेश करने वालों के लिए अनिवार्य परिचय कार्यशाला’, और एक ऐसी कानूनी प्रक्रिया जिसमें पीड़ित को न्याय के दरवाजों (थाना, कचहरी, क्षतिपूर्ति आदि) पर धक्के न खाने पड़ें, बल्कि न्याय के ये आयाम स्वयं पीड़ित के दरवाजे पर चल कर आएं और समयबद्धता की जवाबदेही से बंधे हों।

दरअसल, अपराध न्याय-व्यवस्था की एजेंसियों की पेशेवर कार्यकुशलता के दम पर इसे संभव नहीं किया जा सकता। लैंगिक सोच के स्तर पर वहां भी आसारामी तर्क हावी हो जाते हैं। मुंबई पुलिस आयुक्त ने एक टीवी बहस में मुंबई बलात्कार कांड की पीड़ित लड़की की यौनिक असुरक्षा के लिए उसकी लैंगिक स्वाधीनता को जिम्मेदार ठहराया। उनकी नजर में लड़की का पुरुष-मित्र के साथ होना ही उस पर हुई यौनिक हिंसा का कारण है। प्रतिप्रश्न बनता है कि अगर लड़की अपने भाई, पिता या सहकर्मी के साथ होती तो क्या शिकार होने से बच जाती? आसाराम ने दिल्ली में सोलह दिसंबर के बलात्कार कांड की शिकार बनी लड़की की इसलिए भर्त्सना की थी कि उसने बलात्कारियों के हाथ में राखी बांध कर उन्हें भाई क्यों नहीं बना लिया। आसाराम का यह तर्क और लैंगिक स्वाधीनता को कोसता पुलिस आयुक्त का तर्क एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

इसीलिए सबसे बढ़ कर, राज्य के लिए नीति और योजना के स्तरों पर लैंगिक समानता का सिद्धांत लागू करना अनिवार्य हो, और परिवार और समाज भी स्त्री की यौनिक पवित्रता की मरीचिका का पीछा करना छोड़ उसके सशक्तीकरण पर स्वयं को केंद्रित करें। अनुभवी प्रतिबद्ध समाजकर्मियों का- पेशेवर न्यायविदों-नौकरशाहों-राजनेताओं का नहीं- एक अधिकारप्राप्त स्वायत्त प्राधिकरण इस जटिल और बहुस्तरीय सामाजिक, कानूनी, विधायी, प्रशासनिक प्रक्रिया की निगरानी और मार्गदर्शन करे।


जनसत्ता

शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2013

भारत आईसीएओ परिषद में दोबारा निर्वाचित

भारत को काउंसिल ऑफ इंटरनेशनल सिविल आर्गनाइजेशन (आईसीएओ) के लिए दोबारा चुन लिया गया है। उसका चयन अंतर्राष्‍ट्रीय सिविल एयर नेवीगेशन के लिए सुविधाओं का प्रावधान करने में सबसे अधिक योगदान देने के लिए किया गया है। मांट्रियल में 1 अक्‍तूबर को आईसीएओ की असेम्‍बली के 38वें अधिवेशन में इसके लिए चुनाव सम्‍पन्‍न हुआ। 36 सदस्‍यों की परिषद संगठन का शासी निकाय है और इसे तीन वर्ष के लिए चुना जाता है। चुनाव प्रक्रिया को तीन भागों में बांटा गया, जिसमें निम्‍नलिखित देशों को चुना गया:

भाग 1 –(हवाई परिवहन में प्रमुख महत्‍व वाले देश)- आस्‍ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा, चीन, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, रुसी संघ, ब्रिटेन और अमरीका। सभी को दोबारा चुना गया है।

भाग 2- (ऐसे देश जो अंतर्राष्‍ट्रीय सिविल एयर नेवीगेशन के लिए सुविधाओं का प्रावधान करने में सबसे अधिक योगदान देते हैं)- अर्जेंटीना, मिस्र, भारत, मैक्सिको, नाइजीरिया, नॉर्वे, पुर्तगाल, सउदी अरब, सिंगापुर, दक्षिण अफ्रीका, स्‍पेन और वेनेजुएला। केवल नॉर्वे, पुर्तगाल और वेनेजुएला को छोड़कर सभी अन्‍य को दोबारा चुना गया है।

भाग 3- (ऐसे देश जो भौगोलिक प्रतिनिधित्‍व सुनिश्चित करते हैं) बोलिविया, बर्किना फासो, कैमरुन, चिली, डोमिनिकन रिपब्लिक, केन्‍या, लीबिया, मलेशिया, निकारागुआ, पोलैंड, कोरिया गणराज्‍य, संयुक्‍त अरब अमीरात और तंजानिया संयुक्‍त गणराज्‍य। बोलिविया, चिली, डोमिनिकन रिपब्लिक, केन्‍या, लीबिया, निकारागुआ, पोलैंड और तंजानिया संयुक्‍त गणराज्‍य को पहली बार चुना गया है।

संयुक्‍त राष्‍ट्र की एक विशेष एजेंसी आर्इसीएसओ का गठन 1944 में विश्‍व में अंतर्राष्‍ट्रीय नागर विमानन के सुरक्षित और व्‍यवस्थित विकास को बढ़ावा देने के लिए किया गया था। इसने विमानन सुरक्षा, कार्य क्षमता, क्षमता और पर्यावरण संरक्षण के लिए आवश्‍यक मानक स्‍थापित किए। यह संगठन 191 सदस्‍य देशों के बीच नागर विमानन के क्षेत्र में सहयोग का मंच है।


जवाब देने का अधिकार

जुलाई में अपराधियों को विधायी सदनों में प्रवेश करने से प्रतिबंधित करने का निर्णय सुनाने वाले सुप्रीम कोर्ट ने असंवेदनशील राजनीतिक वर्ग को एक और तगड़ा झटका दिया है। इस बार उसने लंबे इंतजार के बाद मतदाताओं को एक ऐसा अधिकार दे दिया जिसकी मदद से वे राजनीतिक दलों की मनमानी का मुंहतोड़ जवाब दे सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने मतदाताओं को चुनाव में उतरने वाले सभी प्रत्याशियों को खारिज करने का विकल्प देकर चुनाव सुधार की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम उठाया है। इस फैसले के बाद अब मतदाताओं को इनमें से कोई नहींबटन दबाने का विकल्प मिलेगा। अपने आदेश में शीर्ष अदालत ने सभी प्रत्याशियों को खारिज करने के अधिकार को सभी मतदाताओं का मौलिक अधिकार बताया है। उम्मीद की जाती है कि पूरे तंत्र को साफ-सुथरा बनाने का सपना पूरा करने में इस फैसले से बड़ी मदद मिलेगी।

मील का पत्थर नजर आने वाले इस फैसले का समय इससे बेहतर नहीं हो सकता था। चुनाव में बेहतर प्रत्याशियों को चुनने की तेज होती मांग के बावजूद ऐसा कहीं से प्रतीत नहीं हो रहा था कि राजनीतिक दल सार्वजननिक जीवन में साफ-स्वच्छ छवि वाले लोगों को लाने के प्रति गंभीर हैं। यथार्थ यह है कि राजनीतिक दलों द्वारा टिकट वितरण के समय जो एकमात्र पैमाना देखा जाता है वह है किसी प्रत्याशी के जीतने की संभावना। इसका मतलब है कि जो लोग किसी चुनाव क्षेत्र में धनबल और बाहुबल की ताकत से जीतने की संभावना रखते हैं उन्हें टिकट मिलने के अवसर अधिक होंगे। वैसे तो सभी राजनीतिक दलों को यह दोष अपने सिर लेना होगा कि उन्होंने आम तौर पर ऐसे प्रत्याशियों का चयन किया जिन्हें जनता पसंद नहीं करती है, लेकिन केंद्र में सत्ताधारी गठबंधन संप्रग को इस संदर्भ में सबसे अधिक गैर-जिम्मेदाराना तरीके से बर्ताव करने के लिए कहीं अधिक दोष दिया जाएगा।

सुप्रीम कोर्ट ने पिछली जुलाई में जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 के सेक्शन 8 (4) को रद्द कर दिया था, जिसके तहत सांसदों और विधायकों को निचली अदालत में दोषी करार दिए जाने के बावजूद ऊंची अदालत में अपील किए जाने के आधार पर विधायी सदस्य बने रहने का अधिकार दिया गया था। हालांकि अदालत ने आरोप पत्र दायर होने के आधार पर राजनेताओं को चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित नहीं किया। अपने निर्णय में अदालत ने साफ कहा है कि ऐसे लोग जिन्हें दोषी करार दिए जाने के बाद दो साल कैद की सजा सुनाई गई है, उन्हें चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित किया जाए। ऐसे लोगों को ऊंची अदालत में अपील दायर होने के आधार पर छूट नहीं दी जाएगी। अदालत ने जेल में बंद लोगों को भी चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित किया है, क्योंकि ऐसे लोगों को मत देने का अधिकार नहीं होता।

सरकार ने दोषी जनप्रतिनिधियों को अयोग्य होने से बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को बेअसर बनाने के लिए दो संशोधन विधेयकों को मंजूरी दी। इसमें कहा गया है कि दागी सदस्य भी संसद अथवा राज्य विधायिका की कार्यवाही में लगातार भाग ले सकते हैं, लेकिन वह न तो मतदान में हिस्सा ले सकते हैं और न ही वेतन अथवा भत्ते लेने के हकदार होंगे। इसी तरह दूसरे संशोधन में कहा गया है कि गिरफ्तार होने के बावजूद भी किसी सांसद अथवा विधायक का मताधिकार नहीं छीना जा सकता है। इस आधार पर उसका चुनाव लड़ने का अधिकार भी बरकरार रहेगा। अपराधी-राजनेताओं की श्रेणी में आ खड़े होने वाले अपने मित्रों और सहयोगियों को बचाने की हड़बड़ी में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इतना भी इंतजार नहीं किया कि संसदीय समिति अपना काम पूरा कर ले। लिहाजा उसने सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को बेअसर साबित करने के लिए अध्यादेश का सहारा लेने का फैसला कर डाला-वह भी तब जब देश के कुछ शीर्ष कानूनी और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञों ने स्पष्ट रूप से यह विचार व्यक्त किया था कि गंभीर अपराध के दोषी पाए जाने वाले नेताओं को विधायी सदनों का सदस्य बनने से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। इस तरह के सभी सुझावों को खारिज करते हुए अध्यादेश ले आया गया। शुक्रवार को चुनाव में कोई नहींका विकल्प देकर सुप्रीम कोर्ट ने इस संवेदनहीनता को मुंहतोड़ जवाब दिया है। अदालत का यह आदेश हाल में एसोसिएशन आफ डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआर) और नेशनल इलेक्शन वाच की ओर से सामने लाए गए बहुमूल्य शोध आंकड़ों के संदर्भ में विशेष महत्व रखता है। इन संगठनों के मुताबिक लगभग तीस प्रतिशत मौजूदा सांसदों और विधायकों ने अपने शपथपत्रों में यह जानकारी दी है कि उनके खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। इन आंकड़ों के बाद दुनिया का कोई भी देश अपनी राजनीति के स्तर पर शर्मिदगी महसूस करेगा, लेकिन भारत की बात अलग है। जब देश के तीस प्रतिशत जनप्रतिनिधि आपराधिक मामलों से घिरे हों तो यह बिल्कुल सही है कि मतदाताओं के पास सभी प्रत्याशियों को खारिज करने का अधिकार हो और सुप्रीम कोर्ट ने अपने ताजा आदेश से यही हक लोगों को दिया है।

निर्वाचन आयोग को अब इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों में इनमें से कोई नहींका बटन जोड़ना होगा और उम्मीद है कि वह नवंबर में कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में ही यह व्यवस्था करने में कामयाब रहेगा। निर्वाचन आयोग पहले ही ईवीएम के साथ मतदान की पर्ची देने के प्रस्ताव पर गंभीरतापूर्वक काम कर रहा है, जिससे इस आशंका को पूरी तरह समाप्त किया जा सके कि ईवीएम में छेड़छाड़ करके चुनाव नतीजों को प्रभावित किया जा सकता है।



ए. सूर्यप्रकाश (दैनिक जागरण)


चुनाव सुधारों की दिशा में..

दागी नेताओं को अयोग्य ठहराने और नकारात्मक मतदान को वैधता देने वाले सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला, एक अरसे से लंबित चुनाव सुधार की जरूरत को बल प्रदान करने वाले हैं। इन फैसलों पर देश में व्यापक सकारात्मक प्रतिक्रिया का आना, संकेत है कि चुनाव सुधार के पक्ष में जनमत तैयार हो रहा है। सुधार को लेकर चुनाव आयोग पहले से ही कोशिशें करता रहा है, लेकिन एक स्वस्थ लोकतंत्र में बदलाव और सुधार की जो प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए वैसा कुछ फिलहाल नहीं दिख रहा। जो समाधान लोकतंत्र के सर्वोच्च निकाय संसद से निकलना चाहिए वो न्यायालय से निकल रहा है।

यह विडंबना ही है कि लोकतंत्र की बेहतरी के लिए जनता को अपने जनप्रतिनिधियों से नाउम्मीदी ही हाथ लगी है। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले और जनदबाव को देखते हुए अब यह स्पष्ट है कि चुनाव सुधार को राजनीतिक दलों को जितना टालना था टाल लिया। इसे और अधिक रोकना अब संभव नहीं। किसी लोकतंत्र को परिवक्व होने में करीब छह दशक बहुत कम नहीं होते और न ही बहुत ज्यादा, लेकिन इतने सालों बाद भी पारदर्शी चुनाव के बुनियादी सिद्धांतों का अमल में न आ पाना वस्तुत: संसदीय प्रणाली की असफलता ही कही जाएगी। विगत 12 वर्षो से नकारात्मक मतदान का अधिकार देने की मांग हो रही थी। राइट टु रिजेक्ट को लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं की तरफ से सरकार पर दबाव डाला जाता रहा है। भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम की अगुआई करने वाले अन्ना हजारे पहले ही इसे मुद्दा बनाने की घोषणा कर चुके हैं। हालांकि समग्र चुनाव सुधार के बिना ये तदर्थ उपाय पहले जैसे ही नाकाफी साबित होंगे।

ऐसा नहीं है कि यह कोई नई बहस है। नब्बे के दशक से इसे लेकर आम जनता के नजरिये में बदलाव आया है और अब जनता सरकार से जवाबदेही चाहती है। सत्तर के दशक से ही चुनाव सुधार की जरूरत महसूस होने लगी थी। चुनाव आयोग ने 1970 में पहली बार सरकार को चुनाव सुधार का अपना प्रस्ताव भेजा। आयोग ने दूसरा और तीसरा प्रस्ताव 1977 और 1982 में भेजा था। इसके अलावा कुछ राजनीतिक दलों ने भी सरकार को समय-समय पर इस संबंध में प्रस्ताव दिए थे। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने इस संबंध में एक कमेटी भी गठित की थी, लेकिन ये सारे प्रस्ताव सिर्फ सुझाव तक सीमित रह गए और चुनाव आयोग की पहलकदमी पर कुछ सुधार की कोशिशें भी हुईं। 1990 में पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी समिति की रिपोर्ट आई। 1992 में तत्कालीन चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने गोस्वामी समिति की रिपोर्ट लागू करने के लिए नरसिम्हा सरकार को पत्र भी लिखा, लेकिन इन प्रस्तावों और आयोग के पत्रचारों पर किसी ठोस पहलकदमी का समय कभी नहीं आया। जब भी दबाव बढ़ा, सरकार ने कुछ तात्कालिक संशोधनों को पारित कर अपना पिंड छुड़ा लिया। इस लंबे अंतराल में सरकारों ने चुनाव सुधार के कार्यक्रम को तब तक स्थगित रखा, जब तक उन्हें तसल्ली नहीं हो गई कि इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ने जा रहा। इसी कड़ी में 1989 में जनप्रतिनिधित्व कानून-1951 में संशोधन कर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम के इस्तेमाल का रास्ता साफ हुआ। अस्सी के दशक में ही मतदान की उम्र 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई और दलबदल कानून को कठोर बनाया गया।

नब्बे के दशक में मतदान के लिए फोटो पहचान पत्र अनिवार्य कर दिया गया। यह भी तब हो पाया जब तत्कालीन चुनाव आयुक्त टीएन शेषन अड़ गए और कई राज्यों में पहचान पत्र बनने तक चुनावों को टाल दिया। साथ ही सरकार ने सुधार के उलट कुछ ऐसे संशोधन भी किए जो चुनावी पारदर्शिता और राजनीतिक भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाले थे। उदाहरण के लिए जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 17(1) में सरकार ने संशोधन कर सगे-संबंधियों, परिचितों और कार्यकर्ताओं द्वारा चुनाव प्रचार में किए गए खर्च को प्रत्याशी के खाते से अलग कर दिया। सभी जानते हैं कि निर्धारित होने के बावजूद आज प्रत्येक प्रत्याशी का चुनावी खर्च कल्पनातीत है। चुनाव सुधार को लेकर संजीदगी का पुट पूर्व चुनाव आयुक्त टीएन शेषन के कार्यकाल के दौरान आया। मसलन, चुनाव के दौरान कड़ी आचार संहिता लागू करना, उम्मीदवारों की संपत्ति का लेखा-जोखा, चुनावी खर्च और प्रचार की निगरानी आदि। 1989 में ही चुनाव आयोग ने सरकार को सुझाया कि दागी नेताओं को चुनाव लड़ने से अयोग्य करार दिया जाए। 2001 में नकारात्मक मतदान के अधिकार का प्रस्ताव भी दिया, लेकिन सरकार की तरफ से कोई जवाब नहीं आया। 2004 में तत्कालीन चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति ने सुझाव दिया कि प्रत्याशियों को खारिज करने का विकल्प इवीएम में शामिल हो। बावजूद इसके जब कोई समाधान नहीं दिखा तो भ्रष्टाचार विरोधी अभियान चलाने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं ने दबाव बढ़ाना शुरू किया और पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर दी जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने ताजा फैसला सुनाया। चुनाव नियमावली (1961) की धारा 49(ओ) के तहत मतदाता नकारात्मक वोटिंग पहले भी कर सकते थे, लेकिन तब मतदान की निजता गुप्त नहीं होती थी। चुनाव सुधार को लेकर अब तक की सभी सरकारों का नजरिया उदासीन रहा है।

जब गोस्वामी समिति की रिपोर्ट आई तो केंद्र में मोर्चा सरकार खुद संकट में थी। नरसिम्हा राव सरकार ने भी इसकी सुध नहीं ली। 1993 में वोहरा समिति और फिर 1999 में न्यायमूर्ति बी.जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाली समिति की सिफारिशें आईं। राजग सरकार ने इन्हें ठंडे बस्ते में ही रहने देने में भलाई समझी। 2001 में संविधान समीक्षा के लिए गठित आयोग ने भी संशोधन का सुझाव दिया था। 2004 में चुनाव आयोग ने नए सिरे से विस्तृत प्रस्ताव भेजा, लेकिन संप्रग सरकार के दोनों कार्यकाल दौरान मनमोहन सरकार मौन रही। अब जब न्यायालय का हस्तक्षेप हुआ है तो सरकार चेती है, लेकिन सरकार ने एक सही कदम को उलटने की कोशिश की जिस पर अब लीपापोती की कोशिश हो रही है। नकारात्मक मतदान पर अदालती फैसले से आने वाले समय में जो संवैधानिक दिक्कतें पेश होने वाली हैं, उसका समाधान संसद में नया विधेयक लाकर ही किया जा सकता है। यदि किसी चुनाव क्षेत्र विशेष में सामूहिक नकारात्मक मतदान पड़े तो चुनाव रद होना चाहिए या नहीं, इसका फैसला कैसे होगा, क्योंकि अदालती आदेश में इसका उल्लेख नहीं है। इसी तरह दागी नेताओं को अयोग्य ठहराने वाले प्रस्ताव पर अदालती फैसला आने के बावजूद इसे उलटने के लिए अध्यादेश लाया गया, हालांकि इसे अब वापस ले लिया गया। अब जबकि भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरे देश की एक आवाज है और इससे निपटने के उपाय करने का दबाव बढ़ रहा है तो चुनाव सुधार अवश्यंभावी हो गया है।




 संदीप राउजी(Azadi Me)

गुरुवार, 3 अक्टूबर 2013

आर्थिक विकास के साथ खाद्य सुरक्षा

हमारी अर्थव्यवस्था बीते तीन माह से दबाव में है। रुपया लुढ़क रहा है और महंगाई चढ़ रही है। साथ-साथ आम आदमी भी असन्तुष्ट दिखता है। अर्थव्यवस्था के हाल जो भी हों, आम आदमी को राहत देने में विलम्ब नहीं किया जा सकता है। इस दृष्टि से खाद्य सुरक्षा कानून का स्वागत किया जाना चाहिये। परन्तु आम आदमी को दी गई राहत टिकाउ तब ही होगी जब साथ-साथ अर्थव्यवस्था आगे बढ़ती रहे। वर्तमान खाद्य सुरक्षा कानून में समस्या है कि अर्थव्यवस्था पर बोझ बढ़ेगा और सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के साथ आम आदमी भी तबाह हो सकता है।
नेक काम को हाथ में लेने के पहले उसे निर्वाह करने का सामर्थ्य जुटाना चाहिये। घाटे में चल रही दुकान का मालिक लंगर लगाने चले तो वह एक बार शायद सफल हो भी जाए परन्तु उसकी दुकान खाली हो जायेगी और आगे वह न तो दूकान चला पायेगा और न ही लंगर लगा पायेगा। ऐसी ही हालत हमारी सरकार की है। सरकार के पास खाद्य सुरक्षा कानून को लागू करने का सामर्थ्य नहीं है। अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां भारत के प्रति पहले ही नकारात्मक हैं। भारत की रेटिंग जंक के ऊपर है। यदि रेटिंग में गिरावट आई तो भारत जंक श्रेणी में आ जायेगा। ऐसे में भारत से विदेशी पूंजी का और तेजी से पलायन होगा।
यूपीए और एनडीए द्वारा लागू किये गये विकास के माडल में बड़ी कम्पनियों को छूट दी जाती है। ये कम्पनियां आटोमेटिक मशीनों से सस्ता माल बनातीं हैं। कुटीर उद्योग चौपट हो जाते हैं। बेरोजगारी बढ़ती है। फिर इन्हीं बड़ी कम्पनियों पर टैक्स लगाकर आम आदमी को बेरोजगारी से राहत दी जाती है। अर्थव्यवस्था में जो प्रगति होती है उसका एक बड़ा हिस्सा प्रगति के दुष्प्रभावों को काटने में व्यय हो जाता है। यही कारण है कि हमारी अर्थव्यवस्था दबाव में है। इस दबाव के बावजूद सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून को लागू करने का निर्णय लिया है जिससे सरकार पर वित्तीय बोझ बढ़ेगा। इस कारण नई संस्थाओं ने चालू वर्ष की अनुमानित विकास दर को घटाकर 4.5 प्रतिशत के लगभग कर दिया है।
इस समस्या का सर्वश्रेष्ठ समाधान है कि पूंजी सघन उद्योगों पर टैक्स बढ़ाया जाए। जैसे चीनी का उत्पादन बड़ी मिलों में आटोमेटिक मशीनों से किया जाता है। खांडसारी उद्योग तुलना में श्रम सघन होता है। ऐसे में चीनी मिलों पर टैक्स बढ़ाना चाहिये। ऐसा करने से खांडसारी उद्योग चल निकलेगा और रोजगार स्वत: उत्पन्न होने लगेंगे। सरकार को टैक्स मिलेगा और जनता को रोजगार। नून लगे न फिटकरी रंग भी चोखा आये। इस सुझााव में समस्या डबलूटीओ की है। चीनी मिल पर टैक्स लगाने से भारत में च्ीनी का दाम बढ़ जायेगा। दूसरे देशों से सस्ती चीनी आयात करना लाभप्रद हो जायेगा। समाधान है कि आयातों पर इम्पोर्ट डयूटी में समुचित वृध्दि कर दी जाए। इसके लिए जरूरी हो तो डब्लूटीओ से बाहर आने के लिये भी तैयार रहना चाहिये। तथापि इस प्रस्ताव को लागू करना कठिन लगता है चूंकि विकास के मौलिक माडल में परिवर्तन करना कठिन होगा।
दूसरा समाधान है कि वर्तमान खर्चों में फेरबदल करके उनकी गुणवत्ता में सुधार किया जाए। वर्तमान में गरीबों को राहत देने के लिए केन्द्र सरकार के द्वारा चार बड़े कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं : कृषि समर्थन मूल्य, स्वास्थ और शिक्षा, मनरेगा और फर्टिलाइजर सब्सिडी। फसलों को समर्थन मूल्य इस आशय से दिया जाता है कि मूल्य गिरने के कारण किसान घाटा न खाए। स्वास्थ्य एवं शिक्षा कार्यक्रमों का उद्देश्य ग्रामीण इलाकों में इन सुविधाओं को मुहैया कराना है। मनरेगा का उद्देश्य गरीब को वर्ष में 100 दिन का रोजगार न्यूनतम वेतन पर दिया जाता है। फर्टिलाइजर सब्सिडी का उद्देश्य है कि किसान की लागत कम आए और वह घाटा न खाए। वर्ष 2011-12 इन कार्यमों पर केन्द्र सरकार द्वारा कुल 292 हजार करोड़ रुपये खर्च किए गए। वर्ष 2013-14 में इन कार्यमों पर 362 करोड़ खर्च होने का मेरा अनुमान है।
इन कार्यमों का उद्देश्य गरीब को राहत पहुंचाना है। परन्तु इनमें गरीब का हिस्सा कम ही है। फूड कार्पोरेशन को दी जा रही सब्सिडी मुख्यत: कार्पोरेशन के कर्मियों और बड़े किसानों को ही पहुंचती है। स्वास्थ और शिक्षा पर किए जा रहे खर्च सरकारी टीचरों और डाक्टरों को पोषित करती है। नरेगा में सरपंच और विभाग का हिस्सा 25 से 75 प्रतिशत तक बताया जा रहा है। फर्टिलाइजर सब्सीडी अकुशल उत्पादकों तथा बड़े किसानों को जा रही है।
हमें ऐसा उपाय करना चाहिये कि गरीब के नाम पर किए जा रहे खर्च वास्तव में गरीब को पहुंचे। सुझाव है कि इन चारों कार्यक्रमों को पूरी तरह बन्द कर दिया जाए। इससे केन्द्र सरकार को 362 हजार करोड़ रुपये प्रति वर्ष की बचत होगी। इस रकम को बीपीएल कार्ड धारकों को सीधे दे दिया जाए। 80 करोड़ गरीबों में प्रत्येक को 4500 रुपये प्रति वर्ष मिल जायेंगे। पांच व्यक्तियों का परिवार मानों तो 22,500 प्रति वर्ष या लगभग 2,000 रुपये प्रति माह मिल जायेंगे। विशेष यह कि मनरेगा के दिखावटी कार्यों को करने में उसके जो 100 दिन व्यर्थ हो जाते हैं वे बच जायेंगे। इन 100 दिनों में 125 रुपये की दिहाड़ी से उसे 12500 रुपये अतिरिक्त मिल जायेंगे। इसे जोड़ लें तो प्रत्येक परिवार को 3000 रुपये प्रति माह मिल सकते हैं। इसके लिये केन्द्र सरकार को एक रुपया भी अतिरिक्त नहीं खर्चा करना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त राय सरकारों द्वारा लगभग 360 हजार करोड़ इन मदों पर खर्च किये जा रहे हैं। इस रकम को जोड़ लें तो प्रत्येक बीपीएल परिवार को 5,000 रुपये प्रति माह दिये जा सकते हैं। यह विशाल राशि वर्तमान में गरीब के नाम पर सरकारी कर्मियों, अकुशल उत्पादकों, बड़े किसानों और अमीरों को दी जा रही है। इसे गरीब तक पहुंचा दें तो समस्या हल हो जायेगी। इस रकम से परिवार अपने भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा की व्यवस्था कर सकता है।
सरकार ने जो उपाय लागू कर रखा है वह तीसरे स्तर का निकृष्ट है। इससे बड़ी कम्पनियों द्वारा छोटे लोगों के रोजगार छीने जाते हैं। जैसे हथकरघा देश में समाप्तप्राय हो चला है। इसमें जनकल्याण के नाम पर किए गए खर्च के मुख्य लाभार्थी सरकारी कर्मी और नेता होते हैं जिन्हें रिसाव का बड़ा अवसर मिल जाता है। लेकिन यह माडल टिकाउ नहीं है जैसा कि हाल की घटनाओं से दिखता है।

विपक्ष को चाहिए कि आम आदमी को राहत पहुंचाने का नया कार्यम पेश करे। फूड कार्पोरेशन, स्वास्थ्य एवं शिक्षा, मनरेगा तथा फर्टिलाइजर सब्सिडी कार्यक्रमों को बंद करके इस रकम को सीधे गरीब को देने की मांग करनी चाहिए। ऐसा करने से बाजार को सरकार के बढ़ते खर्च का भय जाता रहेगा। सरकार को खर्च पोषित करने के लिए भारी मात्रा में अतिरिक्त ऋण नहीं लेने पड़ेंगे। सरकार का वित्तीय घाटा नियंत्रण में आयेगा। सरकार को देश के उद्यमियों पर अतिरिक्त टैक्स नहीं लगाना पड़ेगा। उद्यमियों को राहत मिलेगी। उत्पादन बढ़ेगा। सरकार को टैक्स यादा मिलेगा और रुपया संभल जायेगा। जनता भी खुशहाल होगी।  

देशबन्धु

सातवें वेतन आयोग का एजेंडा

सरकार ने केंद्रीय कर्मियों के वेतन बढ़ाने को सातवें वेतन आयोग को गठित करने का निर्णय लिया है। पिछले वेतन आयोग ने 'जरूरत' के आधार पर वेतन वृद्धि की संस्तुति की थी। तीन व्यक्तियों के परिवार के निर्वाह के लिए जितने वेतन की जरूरत हो उतना सरकारी कर्मियों को दिया था। प्रारंभिक स्तर पर सरकारी कर्मियों को आज लगभग 13,300 रुपये वेतन और 10,000 रुपये अन्य सुविधाओं जैसे एचआरए, मेडिकल, प्रोविडेंड फंड, पेंशन आदि यानी लगभग 23,000 रुपये प्रति माह मिलते हैं। यह सरकार द्वारा दिए जाने वाले वेतन की बात है। आइआइएम बेंगलूर के प्रो. वैद्यनाथन के अनुसार सरकारी कर्मियों को वेतन से चार गुणा अधिक आय भ्रष्टाचार से होती है। इसे जोड़ लिया जाए तो सरकारी कर्मियों की औसत आय 90,000 रुपये प्रति माह है। सरकारी कर्मियों के अनुसार यह रकम तीन लोगों के परिवार के लिए पर्याप्त नहीं है। इसमें वृद्धि के लिए आयोग का गठन किया गया है।

देश के लगभग 60 करोड़ वयस्कों में तीन करोड़ सरकारी अथवा संगठित प्राइवेट सेक्टर में कार्यरत हैं। शेष 57 करोड़ असंगठित क्षेत्र में जीवनयापन कर रहे हैं। मेरे अनुमान से इनकी औसत मासिक आय लगभग 8,000 रुपये होगी। यदि 90,000 रुपये में सरकारी कर्मियों की जरूरतें पूरी नहीं हो रही हैं तो इन 57 करोड़ नागरिकों की जरूरत 8,000 रुपये में पूरी कैसे हो रही हैं। इससे प्रमाणित होता है कि सरकारी कर्मियों को वर्तमान में जरूरत पूर्ति के लिए पर्याप्त वेतन मिल रहा है। इसमें वृद्धि का औचित्य नहीं है।

केंद्रीय सरकारी कर्मियों के कॉन्फेडरेशन के अधिकारियों का कहना है कि सरकारी कर्मचारियों को निजी क्षेत्र और सार्वजनिक इकाइयों के बराबर वेतन दिया जाना चाहिए। यह तर्क सही नहीं है। निजी क्षेत्र के कर्मियों की गुणवत्ता बाजार के द्वारा आंकी जाती है। सरकारी कर्मियों का ऐसा कोई आकलन नहीं होता है। सरकारी प्रतिष्ठानों का मूल उद्देश्य होता है जनता की सेवा करना न कि लाभ कमाना। अत: सरकारी कर्मियों के वेतन जनता की आय के बराबर होने चाहिए। मैंने गणना की तो पाया कि 2005 से 2010 के बीच सामान्य श्रमिक के शुद्ध वेतन में महंगाई काटने के बाद 14 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इनकी तुलना में देश के नागरिक की औसत आय में 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। नागरिकों की औसत आय में गरीब तथा अमीर दोनों सम्मिलित होते हैं। अमीरों की आय में तीव्र वृद्धि होने से नागरिक की औसत आय में ज्यादा वृद्धि हुई है। इसी अवधि में केंद्रीय कर्मियों के औसत वेतन में वृद्धि के आंकड़े मुझे उपलब्ध नहीं हैं, परंतु सार्वजनिक इकाइयों के कर्मियों के वेतन में इसी अवधि में 63 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। सरकारी कर्मियों के वेतन में भी इतनी ही वृद्धि हुई होगी। अत: असंगठित कर्मियों के वेतन में 14 प्रतिशत और सरकारी कर्मियों के वेतन में 63 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इस पर भी कर्मियों की जरूरतें पूरी नहीं हो रही हैं। उन्हें और चाहिए।

पांचवें और छठे आयोग से अपेक्षा की गई थी कि सरकारी कर्मियों की जवाबदेही और कार्यकुशलता में सुधार के लिए सुझाव दिए जाएंगे। पांचवें वेतन आयोग ने सुझाव दिया था कि दस वषरें में सरकारी कर्मियों की संख्या में 30 प्रतिशत की कटौती करनी चाहिए। जबकि 20 वषरें में मात्र 10 प्रतिशत की कटौती हो पाई है। दूसरी संस्तुति की गई थी कि समूह '' अधिकारियों के कार्य का मूल्यांकन बाहरी संस्थाओं द्वारा कराया जाना चाहिए। मेरी जानकारी में इसे लागू नहीं किया गया है। छठे वेतन आयोग ने इस दिशा में वेतन के अतिरिक्त कार्य कुशलता का इंसेन्टिव देने मात्र का सुझाव दिया था, लेकिन मेरा अनुभव बताता है कि सरकारी विभागों की कार्य कुशलता में गिरावट ही आई है। तात्पर्य यह कि पिछले वेतन आयोगों द्वारा जो कारगर संस्तुतियां की गई थीं उन्हें सरकार ने लागू नहीं किया है।

देश संकट में है और आम आदमी असंतुष्ट है। जरूरत इस समय सरकारी कर्मियों के भ्रष्टाचार पर रोक लगाने और उनकी कार्यकुशलता में इजाफा लाने की है न कि वेतन बढ़ाने की। पहला सुझाव है कि समूह '' और समूह 'बी' के सरकारी कर्मी से संबद्ध जनता का गुप्त सर्वे डाक द्वारा कराया जाए। किसी समय मैं एक एनजीओ का मूल्यांकन कर रहा था। मैंने इसके सदस्यों को पत्र लिखकर उनका आकलन मांगा। उत्तार से स्पष्ट हुआ कि एनजीओ के अधिकारी सदस्यों से वार्ता ही नहीं करते थे। इस प्रकार का गुप्त सर्वे कराना चाहिए। दूसरा सुझाव है कि समूह '' कर्मियों का किसी स्वतंत्र बाहरी संस्था से मूल्यांकन कराना चाहिए। एनजीओ सेक्टर में सामान्यतया हर पांच या दस वर्ष के बाद किसी स्वतंत्र व्यक्ति या एजेंसी से रिव्यू कराया जाता है। इसे सरकारी कर्मियों पर लागू करना चाहिए। अर्थशास्त्र में कौटिल्य लिखते हैं कि परिवारों की संख्या, उत्पादन का स्तर और सरकार द्वारा वसूले गए टैक्स का स्वतंत्र मूल्यांकन करने में गृहस्थों की नियुक्ति करनी चाहिए। इस सिद्धांत को लागू करना चाहिए। तीसरा सुझाव है कि सरकारी कर्मियों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए एक स्वतंत्र खुफिया संस्थान स्थापित करना चाहिए जो भारत के चीफ जस्टिस अथवा लोकपाल के अधीन और सरकार के दायरे से बाहर हो। कौटिल्य लिखते हैं कि जासूसों के माध्यम से सरकारी अधिकारियों को घूस देने की पेशकश की जानी चाहिए और उन्हें पकड़ना चाहिए। इस संस्था द्वारा यह कार्य कराना चाहिए।


वर्तमान में सरकारी कर्मियों की औसत आय सामान्य श्रमिक की आय से दस गुणा अधिक है। इसमें वृद्धि का कोई औचित्य नहीं है। अत: सातवें वेतन आयोग को वेतन संबंधी संस्तुति देने को नहीं कहना चाहिए। केवल भ्रष्टाचार नियंत्रण और कार्य कुशलता सुधारने के सुझाव देने को कहना चाहिए।


डॉ. भरत झुनझुनवाला,

कुल पेज दृश्य