गुरुवार, 12 सितंबर 2013

राष्‍ट्रीय कौशल विकास योजना

केन्‍द्रीय वित्‍त मंत्री ने अपने बजट भाषण-2013 में राष्‍ट्रीय कौशल विकास योजना की घोषणा की थी। राष्‍ट्रीय कौशल प्रमाणन एवं नकद पुरस्‍कार योजना के तहत स्‍वीकृत प्रशिक्षण कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक पूरा करने पर युवाओं को नकद पुरस्‍कार उपलब्‍ध कराए जाते हैं। इस योजना का उद्देश्‍य युवाओं के लिए कौशल विकास को बढ़ावा देना है। इस योजना का क्रियान्‍वयन राष्‍ट्रीय कौशल विकास निगम (एनएसडीसी) द्वारा सार्वजनिक-निजी और सार्वजनिक- सार्वजनिक भागीदारी द्वारा किया जाना है।

उद्देश्‍य

हाल ही में, नई दिल्‍ली के विज्ञान भवन में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान वित्‍त मंत्री श्री पी. चिदम्‍बरम ने इस योजना के उद्देश्‍यों के बारे में जानकारी दी। उन्‍होंने कहा कि बड़ी संख्‍या में युवाओं को स्‍वेच्छा से कौशल विकास कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए प्रेरित करना चाहिए। मेरा प्रस्‍ताव है कि राष्‍ट्रीय कौशल विकास निगम प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों के लिए अध्‍ययन सूची और मानक तय करे। प्रशिक्षण के अंत में प्राधिकृत प्रमाणन निकाय द्वारा विद्यार्थी की परीक्षा ली जाएगी। परीक्षा उत्‍तीर्ण करने के पश्‍चात परीक्षार्थियों को प्रमाण-पत्र प्रदान किया जाएगा और प्रति परीक्षार्थी दस हजार रुपये नकद पुरस्‍कार के रूप में दिए जाएंगे। कौशल प्रशिक्षण प्राप्‍त युवा बड़े पैमाने पर रोजगार और उत्‍पादकता को बढ़ावा देंगे। ऐसा लगता है कि दस लाख युवाओं को प्रोत्‍साहित किया जा सकता है। मैं इस महत्‍वाकांक्षी योजना के लिए एक करोड़ रुपये की राशि का प्रस्‍ताव करता हूं। मैं आशा करता हूं कि यह योजना देश के सभी युवाओं में कौशल विकास बढ़ाने की शुरुआत करेगी ।
विशेष रूप से इस योजना के उद्देश्य हैं
·         प्रमाणन प्रक्रिया में मानकीकरण को प्रोत्साहित करना और कौशल के पंजीकरण की प्रक्रिया की पहल करना ।
·         वर्तमान श्रमशक्ति की उत्पादकता को बढ़ाना और देश की आवश्यकता के लिए प्रशिक्षण और प्रमाणन का संरेखण करना ।
·         रोजगार और युवाओं की उत्पादन क्षमता को बढ़ाने के लिए कौशल प्रमाणन के लिए नकद पुरस्कार प्रदान करना और कौशल प्रशिक्षण के लिए प्रलोभन देना ।

योजना की मुख्य विशेषताएं
योजना लागू किए जाने की तारीख के बाद एक वर्ष की अवधि में लगभग 10 लाख युवाओं को बाजार की आवश्यकता के अनुरूप कौशल प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद इस योजना में सफलतापूर्वक प्रशिक्षण प्राप्त युवाओं को नकद पुरस्कार दिया जाएगा । सभी प्रशिक्षण कार्यक्रम खास वृद्धि क्षेत्रों के लिए विशेष रूप से कौशल विकसित करने के अनुरूप होंगे । योजना के सभी उद्देश्यों के लिए आकलन और प्रशिक्षण संबंधी सभी निकाय अलग-अलग होंगे । योजना के उद्देश्यों की प्राप्ति और पारदर्शिता बनाए रखने के लिए एक दूसरे निकाय का हस्तक्षेप स्वीकार्य नहीं होगा । नकद पुरस्कारों के लिए धन वित्त मंत्रालय द्वारा मुहैया कराया जाएगा । आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के हितों के लिए उचित ध्यान दिया जाएगा ।

क्षेत्र और नौकरी में उनकी भूमिका
हालांकि यह योजना सभी क्षेत्रों की सभी नौकरियों के लिए होगी लेकिन शुरुआत में यह योजना केवल खास आर्थिक क्षेत्र की उच्च बाजार मांग वाली एक से चार स्तर के अंतर्गत आने वाली नौकरियों के लिए होगी । संदर्भ क्षेत्रों में इस प्रकार की भूमिकाओं के लिए क्षेत्र कौशल परिषद (एसएससीएस) द्वारा राष्ट्रीय व्यवसायिक मानक (एनओएस) और गुणवत्ता पैक (क्यूपी) तैयार किए जाएंगे । जो प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के लिए शुरुआती स्तर पर 80 प्रतिशत श्रम शक्ति तैयार करेंगे ।

प्रशिक्षण विषय वस्तु और योग्य प्रबंधक
एनओएसएस और क्यूपी से जुड़े पाठ्यक्रम कर रहे प्रशिक्षुओं तक ही इसका लाभ सुनिश्चित करने के लिए यह पाठ्यक्रम करवाने वाले संस्थानों की एक सूची को योजना के लिए मंजूरी दी जाएगी ।
सरकारी और निजी सभी संस्थान, जिन्हें पिछले दो साल के दौरान किसी भी राज्य सरकार या भारत सरकार के किसी भी मंत्रालय द्वारा किसी सरकारी द्वारा प्रायोजित योजना के लिए चयन किया गया हो या एनएसडीसी के सहयोगियों को इस योजना के तहत प्रशिक्षण दिलाने के लिए मंजूरी सूची में शामिल किया जाएगा ।

वे प्रशिक्षणदाता जिनको पहले से किसी सरकारी संस्थान या एनएसडीसी से मान्यता प्राप्त नहीं है उन्हें एनएसडीसी/एसएससी द्वारा तैयार मान्यता प्रदान करने वाले विभाग में पूर्व जांच प्रक्रिया से गुजरना होगा ।
एनएसडीसी के सहयोगियों और कौशल विकास जगत में सभी प्रशिक्षण प्रबंधकों की सूची एनएसडीसी की वेबसाइट www.nsdcindia.org पर उपलब्ध होंगी ।
प्रशिक्षण कार्यक्रमों की न्यूनतम अवधि 30 दिन होगी । यह सुनिश्चित किया जाएगा कि प्रशिक्षण समाप्त होने के पश्चात ही एसएससी ने मूल्यांकन की योजना बनाई है । अगर आवश्यकता हुई तो प्रशिक्षण की अवधि नौकरी प्रशिक्षण और इंटर्नशिप आदि में शामिल हो सकती है ।
भारत में एनएसडीसी निम्नलिखित क्षेत्रों के लिए सेवाएं उपलब्ध कराती है:

·         ऑटोमोबाइल/स्वालित पुर्जे

·         इलेक्ट्रॉनिक्स हार्डवेयर

·         कपड़ा और पोशाक

·         चमड़ा और चमड़े का सामान

·         रसायन और फार्मेसी

·         रत्न और आभूषण

·         निर्माण क्षेत्र

·         खाद्य प्रसंस्करण

·         हथकरघा और हस्तशिल्प

·         हार्डवेयर निर्माण और गृह सज्जा

·         आईटी और सॉफ्टवेयर

·         आईटीईएस और बीपीओ

·         पर्यटन, अतिथि सत्कार और यात्रा

·         परिवहन/कर्मचारियों और माल की व्यवस्था/गोदाम और पैकेजिंग

·         नियोजित खुदरा

·         रियल एस्टेट

·         मीडिया, मनोरंजन, प्रसारण, विषय-वस्तु रचना और एनिमेशन

·         स्वास्थ्य सेवाएं

·         बैंकिंग/बीमा और वित्त

·         शिक्षा/कौशल विकास

·         असंगठित क्षेत्र

मूल्यांकन और प्रमाणन

इस योजना के अंतर्गत प्रशिक्षण देने वाली कोई भी इकाई मूल्यांकन और प्रमाणन एजेंसी बनने के लिए स्वीकृत नहीं होगी ।

सभी मूल्यांकन एजेंसियों की पूर्व जांच होगी और उन्हें एसएससीएस द्वारा प्रमाणित किया जाएगा और उसके विवरण की ताजा जानकारी कौशल विकास प्रबंधन तंत्र के पास होगी । मूल्यांकन एजेंसियों द्वारा प्रत्येक मूल्यांकन के लिए उम्मीदवार से लिया जाने वाला शुल्क इस प्रकार होगा-
1. उत्पाद तैयार करने से संबंधित कार्यक्रमों के लिए अधिकतम 1500 रुपये
2. सभी दूसरे कार्यक्रमों के लिए अधिकतम 1000 रुपये

नकद पुरस्कार
बैंक तंत्र द्वारा उम्मीदवार/प्रशिक्षणदाता तक पूंजी का सीधा हस्तांतरण किया जाएगा। भारतीय बैंक समिति की सलाह से यह पुरस्कार राशि प्रत्येक जिले के केंद्रीय बैंक में भेजी जाएगी ।
प्रमाणन के लिए नकद पुरस्कार राशि इस प्रकार होगी

क्षेत्र
एनएसक्यूएफ स्तर 1 और 2
एनएसक्यूएफ स्तर 3 और 4
उत्पाद तैयार करने का कार्यक्रम
रुपये 10,000
रुपये 15,000
सेवा और दूसरे क्षेत्र
रुपये 7,500
रुपये 10,000

पुरस्कार राशि को प्रशिक्षण लागत में इस्तेमाल करने की सुविधा के लिए प्रशिक्षण दाता उम्मीदवार को कुल कार्यक्रम फीस की न्यूनतम 25 प्रतिशत राशि जमा कराने की सहमति देगा और शेष राशि प्रशिक्षण दाता को पुरस्कार राशि की रसीद मिलने के बाद उम्मीदवार प्रशिक्षण दाता को भुगतान करेगा ।

मूल्यांकन और अनुश्रवण

कौशल विकास प्रबंधन तंत्र डाटा केंद्रीय संग्रह अपने पास रखेगा जिसका सदुपयोग इस योजना पर निगरानी रख रहे भागीदार कर सकेंगे । प्रशिक्षण डाटा के केंद्रीय संग्रहण के रख रखाव के लिए सभी एजेंसियां जैसे एसएससीएस, प्रशिक्षण संस्थान और मूल्यांकन एजेंसियों की पहुंच इस तक होगी । एनएसडीसी के सहमतिपूर्ण मापदंड पर आधारित एनएसडीए द्वारा इस योजना का स्वतंत्र मूल्यांकन किया जाएगा ।

योजना का लाभ उठाने के लिए प्रक्रिया

उच्च मांग क्षेत्र के लिए पंजीकृत किसी भी कार्यक्रम में उम्मीदवार अपना नामांकन करा सकता है और किसी भी स्वीकृत प्रशिक्षण दाता के पास उम्मीदवार प्रशिक्षण कार्यक्रम पूरा कर सकता है ।
उम्मीदवार को प्रशिक्षण दाता को सूचित करना होगा कि वो इस योजना में भाग लेना चाहता है ।

शिकायत निवारण


इस योजना के लिए शिकायत प्रकोष्ठ बनाया गया है जिसमें एसएससीएस, एसएसडीसी और एनएसडीए के प्रतिनिधि शामिल किए जाएंगे । प्रथम स्तर पर निवारण संबंधी संचालन एसएससी की संचालन परिषद के पास जबकि दूसरे स्तर पर एनएसडीए के पास होगा ।

जल संरक्षण: समय की आवश्यकता

तेजी से हो रहे औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के साथ-साथ प्रति व्यक्ति को उपलब्ध पेयजल की लगातार गिरती मात्रा के कारण देश में उपलब्ध जल-संसाधन पर दबाव बढता ही जा रहा है। देश में विभिन्न प्रयोगों के लिए जल की आवश्यकता और उपलब्धता के आकलन के लिए बनी स्थायी उप-समिति की रिपोर्ट के अनुसार देश में विभिन्न भागों के लिए वर्ष 2025 तक 1093 बीसीएम और 2050 तक 1447 बीसीएम जल की आवश्य़कता होगी। पेयजल की उपलब्धता और इसकी मांग के बीच बढते अंतर से जल संरक्षण की आवश्यकता महसूस की जा सकती है। इसके साथ ही पानी का सभी रूपों में किफायती इस्‍तेमाल और इसके एक दुर्लभ संसाधन होने संबधी जागरूकता को बढाने की आवश्यकता है।

प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्‍धता तेजी से घटने के बीच सरकार ने वर्ष 2013 को जल   संरक्षण वर्ष घोषित किया। इसके अंतर्गत आम जनता विशेष रूप से बच्चों के बीच जागरूकता कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं।

जल संरक्षण राष्‍ट्रीय जल मिशन के प्रमुख उद्देश्‍यों में एक है और यह जलवायु परिवर्तन पर राष्‍ट्रीय कार्य योजना के अंतर्गत 8 राष्‍ट्रीय मिशनों में से एक है। इसके अंतर्गत एकीकृत जल संसाधन विकास और प्रबंधन के द्वारा राज्‍यों और राज्‍यों से बाहर भी संरक्षण, नुकसान को कम करना और सभी के बीच समान वितरण की परिकल्‍पना की गई है। जल संरक्षण की आवश्‍यकता न सिर्फ तेजी से खत्‍म हो रहे देश के पर्यावरण प्रणाली को बचाने के लिए है बल्कि निकट भविष्‍य में पीने और घरेलू उपयोग के लिए पानी की अपरिहार्य आपात कमी को दूर करने के लिए भी है।

·         जल एक सीमित संसाधन है और इसे बदला या दोहराया नहीं जा सकता है।

·         जल संसाधनों को नवीनीकरण किया जा सकता है लेकिन नवीनीकरण सिर्फ मात्रा का हो सकता है। प्रदूषण, मिलावट, जलवायु परिवर्तन, अस्‍थायी और मौसम अंतर पानी की गुणवत्‍ता को प्रभावित करते हैं और पुन: प्रयोग किये जाने वाले पानी की मात्रा को कम कर देते हैं।

·         पृथ्‍वी पर उपलब्‍ध कुल जल का 2.7 प्रतिशत जल ही स्‍वच्‍छ हैं।


·         भूमिगत जल का स्‍तर तेजी से घट रहा है।

·         शहरी क्षेत्रों में जल संसाधन अपना कर पानी की मांग को एक-तिहाई तक कम किया जा सकता है और इसके साथ भू-जल और धरातल पर उपलब्‍ध जल संसाधनों के प्रदूषित होने को कम किया जा सकता है।

जल संरक्षण के लिए कार्य योजना

धरातल पर उपलब्‍ध जल संसाधनों का संरक्षण

बारिश के दौरान छतों पर उपलब्‍ध पानी को संभावित भंडारण जगहों पर संरक्षित करने और इसका पूर्ण प्रयोग करने के प्रयास किये जाने चाहिए। नये भंडारण स्‍थान बनाने के साथ-साथ पुरानी टंकियों की मरम्‍मत और इन से रेत हटाने का काम किया जाना चाहिए। परंपरागत जल भंडारण तकनीकों और ढांचों पुन: प्रयोग में लाये जाने के प्रयासों को वरीयता की जानी चाहिए।

भू-जल संसाधनों का संरक्षण

भू-जल जल विज्ञान प्रणाली का एक महत्‍वपूर्ण भाग है। यह पहाड़ी क्षेत्रों में गर्मियों में और मैदानी क्षेत्रों में वर्षा समाप्‍त होने के समय में नदियों के प्रवाह में मदद करता है।

जल की गुणवत्‍ता

शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के कारण  देश के कुछ हिस्‍सों में तेजी से बढ़ रही जनसंख्‍या से भूमि के ऊपर और भू-जल संसाधनों की गुणवत्‍ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। जहां एक ओर पानी की मांग बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर प्रदूषण और मिलावट के कारण उपयोग किये जाने जल संसाधनों की गुणवत्‍ता तेजी से घट रही है। इसलिए वर्तमान में सतह पर उपलब्‍ध और भू-जल संसाधनों को प्रदूषण और मिलावट से बचाना जल संरक्षण का एक अहम भाग है।

जल संरक्षण के लिए कार्य-बिन्‍दू

जल संरक्षण के लिए महत्‍वपूर्ण भागों में पानी के नुकसान को कम करना और पानी का प्रयोग कुशलतापूर्वक करना शामिल है। विभिन्‍न क्षेत्रों में जल संरक्षण के लिए कार्य-बिन्‍दू नि‍म्‍नलिखित है:-


सिंचाई क्षेत्र

·         सिंचाई प्रणाली और पानी के उपयोग की कार्य क्षमता में सुधार:

·         सही और समयानुसार उपकरणों की मरम्‍मत

·         क्षतिग्रस्‍त और गाद से भरी नहरों की मरम्‍मत करना

·         जल बचाने वाली कम लागत की तकनीकों को अपनाना

·         वर्तमान में चल रही सिंचाई प्रणालियों का आधुनिकीकरण और पुनरुद्धार करना

·         पानी की उपलब्‍धता में परिवर्तन होने पर फसलों की बुवाई में फेरबदल करना

·         सिंचाई के लिए अधिक जल का उपयोग करने से होने वाले परिणामों से किसानों को प्रशिक्षित करना

·         रात में सिंचाई कर पानी के भाप बन कर उड़ने से होने वाले नुकसान को कम करना

·         भूमि का उपजाऊपन और कीड़ों पर प्राकृतिक रूप से नियंत्रण रखने के लिए फसलों को अदला-बदली कर बोना


·         नहरों के टुटने और उनकी मरम्‍मत करने के साथ-साथ अचानक हुई बारिश के बाद संबंधित क्षेत्रों में जल वितरण रोकने के लिए आधुनिक, प्रभावी और भरोसेमंद संचार प्रणाली की स्‍थापना करना

·         यह देखा गया है कि खेती में सड़ी गली घास के वैज्ञानिक प्रयोग से जमीन में नमी बनाये रखने को 50 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है, जिससे पैदावार में 75 प्रतिशत तक की वृद्धि हो सकती है।

घरेलू और नगर निगम क्षेत्र में जल संरक्षण के लिए महत्‍वपूर्ण कार्य बिन्‍दू निम्‍नलिखित है:-


·         पानी के वितरण के दौरान होने वाले नुकसान में कमी लाने के प्रयास करना

·         मांग के अनुरूप पानी का वितरण मीटरों के द्वारा प्रबंधित करना

·         वितरण प्रणाली को दीर्घकालिक और नुकसान को कम करने के लिए  आवश्‍यकता अनुसार शुल्‍क लगाना

·         बगीचे में पानी प्रयोग करने और शौचालय आदि में प्रयोग हो रहे पानी के दुबारा इस्‍तेमाल करने की संभावना का पता लगाना

औद्योगिक क्षेत्र

·         पानी का इस्‍तेमाल सावधानी पूर्वक करने के लिए नियम बनाना
·         पानी की आवश्‍यकता को कम करने के लिए औद्योगिक प्रणाली का आधुनिकीकरण करना
·         औद्योगिक आवश्‍यकताओं के‍ लिए पानी की जरूरत को उचित मूल्‍य द्वारा नियंत्रित करना ताकि जल संरक्षण को बढ़ावा दिया जा सके

जल संरक्षण के लिए नियामक प्रणाली

भू-जल एक ऐसा स्रोत है जिसका कोई मूल्‍य नहीं लगाया जा सकता। केवल भू-जल एकत्र करने के लिए बनाई गई प्रणाली ही एक मात्र निवेश होता है। कई क्षेत्रों में बिना रोकथाम के पानी निकालने से भू-जल के स्‍तर में गिरावट आती है। भू-जल के नियंत्रित प्रयोग के लिए इसका वितरण प्रबंधन करना बहुत महत्‍वपूर्ण है।

·         शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में पानी के मूल्‍य में राशनिंग करना। औद्योगिक क्षेत्रों के लिए भूमिगत जल के प्रयोग करने पर अधिक शुल्‍क लगाना
·         वर्षा जल के संचयन के लिए प्रोत्‍साहन देना

·         शहरी क्षेत्रों में वर्षा जल के संचयन को प्रोत्‍साहन देने के लिए भवन निर्माण संबंधी कानूनो में बदलाव करना ताकि इसे अनिवार्य रूप से लागू किया जा सके

जल संरक्षण एक महत्‍वपूर्ण चुनौती है। देश में जल संरक्षण के लिए कई प्रकार की प्रणाली उपलब्ध है। जहां एक ओर वैज्ञानिक इस क्षेत्र में नयी तकनीकों को विकसित कर रहे हैं वहीं इनके प्रयोग में कमी साफ देखी जा सकती है। इस अंतर को दूर करने की आवश्‍यकता है। सिंचाई, औद्योगिक और घरेलू जल वितरण प्रणालियों में संचालन और मरम्‍मत सही रूप से नहीं होने के कारण बड़ी मात्रा में जल का नुकसान होता है, इसलिए इन कमियों को दूर करने की आवश्‍यकता है।

जल संसाधानों का विकास करने के लिए परंपरागत तकनीकों का आधुनिक संसाधन तकनीकों के साथ विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग करने की आवश्‍यकता है।

जल संरक्षण करने के लिए सिंचाई, घरेलू और औद्योगिक क्षेत्र में इसके उपयोग कर्ताओं को जागरूक करने की आवश्‍यकता है। इस दिशा में विशेष ध्‍यान दिया जाए ताकि इस अभियान का लाभ बच्‍चों, गृहणियों एवं किसानों तक प्रभावी ढंग से पहुंच सके।


 (सूका)

बुधवार, 11 सितंबर 2013

Gupta Style Of Sculpture In India

The serenity and simplicity of Gupta sculpture made it renowned. The zenith of development was marked by this style of sculpture. This sculpture equated between the sullied sensuality of Kushan period and emblematic abstraction of the later period. The Gandhara and Mathura schools have some foreign influence on them. This influence is vanished from the Gupta art of sculpture and turned it entirely Indian in nature. The Gupta style of sculpture in India represents the talent of creativity that existed during the time of Gupta dynasty.
About Gupta Sculpture
When in 4th century AD, the Gupta Empire ushered in; a new era began in India. With the commencement of the Gupta period, India stepped into the classical sculptural form. The art technique enhanced in perfection, explicit types came into life, and standards of exquisiteness progressed with accuracy. No experimentation and no groping in the dark evolved. The remarkable images were formed with a brilliant and in-depth grasping of the important art standards. Also, an advanced sense of aestheticism and an excellent finishing by expert artists resulted in the fashioning of these images. In the subsequent ages, these images served as the ideal for the artists.
Legends of Gupta Sculpture
India has always held massive buildings. Luxurious paintings and architectures of these buildings have the capacity to make the beholder astonished. An idiom of its own was developed by the Gupta Empire for having erected monuments and sculptures. The characteristics of the sculptures of the Guptas were diligently followed by the artists of that era.
Among the legendary sculptures of the Gupta Empire, the name of the structural temples at Kanchipuram in the state of Tamil Nadu and The Elephanta cave temples near Mumbai, Maharashtra.
The sculptures from Vidisha and the nearby Udaygiri Caves in Madhya Pradesh are the first recorded sculptures in an early style of Gupta sculpture. They were built in the Mathura tradition in the second half of the 4th century.
Universal accomplishment was attained during the period of the Gupta Empire. This was a classical age. The course of the art was determined by the evaluation of form and taste. It was during this time when the religious architecture was very popular. No wonder, the Buddhist and Jain temples were constructed all through the Gupta dominion. Also, the more convoluted images of the Mahayana pantheon came into existence. Apart from them, the Ajanta cave frescoes were also there. Excellence of the brilliant craftsmanship is epitomized in the temples and sculpture of Gupta period. The temples that house sculptural elements such as the Yakshas and the Nagas were replaced as independent cult images except rare cases by the Gods and Goddesses of both the grand cults of theism.
Gupta Sculptural Style
The sculptures fashioned during the period of Guptas can be credited to hold the manifestation of comparatively consistent style. This style reached other parts of the country and stretched to other countries of South and Southeast Asia. In the later period, the art of north Indian kingdoms is found to have influenced by the Gupta style of sculpture in India.
To add to these, sculpture of Bhitaragaon Temple (Madhya Pradesh), the sculpture of Dasavatara Temple (Deogarh), and Vaishnavite Tigawa temple at Jabalpur (Madhya Pradesh) and others are some of the wonderful examples of Gupta sculptures. Rock cut caves have also won laurels to Gupta Empire. The sculpture at Elephanta Caves, the sculpture at Ellora Caves, and Ajanta Caves are worth a visit.
A good amount of these sculptures is found outside, built on prepared rock surfaces. The image of the four- armed Lord Vishnu standing with unadorned cylindrical crowns, footing stiff-legged in samapada, with one of them flanked by ayudhapurusas is one of the most distinguishing images. It personified weapons or symbols.
The Kumara Cave is the earliest of all the incalculable defenders of Hindu shrines, known as pratlharas in north, particularly in south, as being the largest and most astonishing. Thos cave holds the most imposing images.
Typically, the well-built thighs almost unbelievably contrasted with the delicate folds of the tab-ends of the belts and sashes for the Gupta style in early stages. The rock-cut temples of the post-Gupta period enjoy being equally important. Art and architecture of this time incorporated the Buddhist Structural buildings of Gupta Era, the Secular Architecture along with the Brahmanical Architecture.

Marvels of Gupta Sculpture
During the 5th century Snakes were an indispensable genre of sculpture. From the top of a departed pillar in Firozpur, at a distance of a few miles, some nagarajas and naginis have noticeably extensive serpent hoods. These images along with one more pair of the Sand Museum are built in good similarity to the Udayagiri style. Other than them, a special place was occupied by the terracotta in Gupta Era. Regarding other architectural wonders of the Gupta period sculpture of Shiva Temple (Bhumara), the sculpture of Parvati Temple (Nachana), and sculpture of Vishnu Temple (Tigawa) are noteworthy.

The Gupta style of sculpture in India did not just form to be the models of the rich art of India for the future but it acted as the ideal for the colonies of India that were situated in the Far East. Sculptures of Guptas are undoubtedly their enduring legacy that has been left for us to see and appreciate. In a nut shell, it can be said that Gupta sculpture style mirrored the moods of the age and was a wonder in itself.

मंगलवार, 10 सितंबर 2013

सामाजिक और आर्थिक विकास में साक्षरता की भूमिका

साक्षरता एक मानव अधिकार है, सशक्तिकरण का मार्ग है और समाज तथा व्‍यक्ति के विकास का साधन है। शिक्षा के अवसर साक्षरता पर निर्भर करते हैं। गरीबी उन्‍मूलन के लिए, बाल मृत्‍युदर को कम करने के लिए, जनसंख्‍या वृद्धि को नियंत्रण में रखने के लिए, स्‍त्री-पुरुष में समानता को बढ़ावा देने के लिए तथा सतत विकास, शांति और लोकतंत्र की सुनिश्चितता के लिए साक्षरता आवश्‍यक है।

1966 से 8 सितंबर का दिन अंतर्राष्‍ट्रीय साक्षरता दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसका उद्देश्‍य व्‍यक्तियों, समुदायों और समाजों में साक्षरता में महत्‍व का प्रचार करना है। इस वर्ष का अंतर्राष्‍ट्रीय दिवस ''21वीं शताब्‍दी के लिए साक्षरता'' को समर्पित है। इसका उद्देश्‍य सभी के लिए बुनियादी साक्षरता कौशलों की आवश्‍यकता तथा सभी को अधिक उन्‍नत साक्षरता कौशलों में प्रशिक्षण देना है, ताकि वे जीवन पर्यन्‍त शिक्षा ग्रहण कर सकें।

हमारी राष्‍ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षा की भूमिका और महत्‍व को दर्शाया गया है और वह आज भी प्रासंगिक है। इसमें कहा गया है कि शिक्षा सभी के लिए जरूरी है और हमारे चहुंमुखी विकास का मूल आधार है। शिक्षा से अर्थव्‍यवस्‍था के विभिन्‍न स्‍तरों के लिए मानव शक्ति को विकसित किया जाता है और यह एक ऐसा मंच है, जिससे अनुसंधान और विकास आगे बढ़ता है, जो राष्‍ट्र को स्वावलंबन की दिशा में ले जाता है। सारांश में शिक्षा, वर्तमान और भविष्‍य के लिए एक अद्वितीय निवेश है।

पिछले एक दशक में भारत में साक्षरता की दर काफी बढ़ी है। विशेष रूप से गांवों में नि:शुल्‍क शिक्षा लागू होने के बाद हिमाचल प्रदेश और राजस्‍थान में साक्षरता की दर काफी ज्‍यादा हो गई है। भारत जैसे देश में सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए साक्षरता मूल आधार है। 1947 में भारत में ब्रिटिश शासन की समाप्ति के समय साक्षरता दर केवल 12 प्रतिशत थी। उसके बाद के वर्षों में भारत में सामाजिक, आर्थिक और वैश्विक दृष्टि से बदलाव आया है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में साक्षरता दर 74.04 प्रतिशत पाई गई। हालांकि कि यह बहुत बड़ी उपलब्‍धि है, लेकिन यह चिंता की बात है कि अभी भी भारत में इतने ज्‍यादा लोग पढ़ना-लिखना नहीं जानते। जिन बच्‍चों को शिक्षा नहीं मिली है, विशेष रूप से ग्रामीण इलाक़ों में, उनकी संख्‍या बहुत ज्‍यादा है। हालांकि सरकार ने कानून बनाया है कि 14 वर्ष से कम उम्र के हर बच्‍चे को नि:शुल्‍क शिक्षा मिलनी चाहिए, फिर भी निरक्षरता की समस्‍या बनी हुई है।

अगर हम भारत में महिला साक्षरता की दर को देखें, तो यह पुरुष साक्षरता दर से कम बैठती है क्‍योंकि माता-पिता अपनी लड़कियों को स्‍कूल जाने की अनुमति नहीं देते, बल्कि छोटी उम्र में ही उनकी शादी कर दी जाती है। हालांकि बाल-विवाह की उम्र काफी कम कर दी गई है, लेकिन फिर भी बाल-विवाह होते है। जनगणना 2011 की साक्षरता दर के अनुसार आज महिलाओं में साक्षरता दर 65.46 प्रतिशत है और पुरुषों में साक्षरता दर 80 प्रतिशत से अधिक है। भारत में साक्षरता दर हमेशा चिंता का विषय रही है, लेकिन बड़ी संख्‍या में स्‍वयंसेवी संगठनों के प्रयासों और सरकार के विज्ञापनों, अभियानों और अन्‍य कार्यक्रमों से लोगों में साक्षरता के महत्‍व के बारे में जागरूकता पैदा की जा रही है। सरकार ने महिलाओं के समान अधिकारों के लिए भी कड़े नियम बनाएं है।
पिछले 10 वर्षों में भारत में साक्षरता दर में पर्याप्‍त वृद्धि हुई है। केरल भारत का एक मात्र राज्‍य है, जहां साक्षरता दर 100 प्रतिशत है। उसके बाद गोवा, त्रिपुरा, मिजोरम, हिमाचल प्रदेश, महाराष्‍ट्र और सिक्किम का स्‍थान आता है। भारत में सबसे कम साक्षरता दर बिहार में है। साक्षरता के महत्‍व को समझते हुए भारत सरकार के विद्यालय शिक्षा और साक्षरता विभाग ने कई उपाय किए हैं, जैसे प्रारंभिक स्‍तर पर सभी बच्‍चों को नि:शुल्‍क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करना, शिक्षा के राष्‍ट्रीय और समग्र स्‍वरूप को लागू करने के लिए राज्‍यों और केंद्र शासित प्रदेशों के साथ भागीदार बनना, गुणवत्‍तापूर्ण विद्यालय शिक्षा और साक्षरता की सहायता से संवैधानिक मूल्‍यों के प्रति समर्पित समाज का निर्माण करना, गुणवत्‍तापूर्ण माध्‍यमिक शिक्षा के लिए सभी को अवसर उपलब्‍ध कराना तथा पूर्णरूप से साक्षर समाज का निर्माण करना।
वर्ष 2010 में जब बच्‍चों के लिए नि:शुल्‍क और अनिवार्य शिक्षा का कानून 2009 लागू हुआ, तो यह देश के लिए एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी। सभी के लिए प्रारंभिक शिक्षा की दिशा में देश के प्रयासों को इस कानून के लागू होने से जबर्दस्त बढ़ावा मिला। इस कानून के उद्देश्‍यों को केंद्र सरकार के निम्‍नलिखित कार्यक्रमों के माध्‍यम से प्राप्‍त किया जा रहा है:
·         प्राथमिक स्‍तर पर सर्वशिक्षा अभियान और दोपहर का भोजन
·         माध्‍यमिक स्‍तर पर राष्‍ट्रीय माध्‍यमिक शिक्षा अभियान और मॉडल स्‍कूल
·         व्यावसायिक शिक्षा, छात्राओं के लिए होस्‍टल और विकलांगों के लिए समावेशी शिक्षा
·         प्रौढ़ शिक्षा के लिए साक्षर भारत कार्यक्रम
·         महिला शिक्षा के लिए महिला समाख्‍या
·         अल्‍पसंख्‍यक संस्‍थाओं का ढाँचागत विकास, अल्‍पसंख्‍यकों की शिक्षा के लिए मदरसों में गुणवत्‍तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने की योजना

एक अच्‍छी गुणवत्‍तापूर्ण बुनियादी शिक्षा से बच्‍चों में जीवन के लिए और आगे की शिक्षा प्राप्‍त करने के लिए साक्षरता कौशलों का विकास होता है, साक्षर माता-पिता द्वारा अपने बच्‍चों को स्‍कूल भेजे जाने की अधिक संभावना होती है, साक्षर व्‍यक्ति आगे की शिक्षा के अवसरों का लाभ उठाने के योग्‍य हो जाता है और साक्षर समाज चुनौतियों का सामना करने के लिए बेहतर ढंग से तैयार होता है।


सोमवार, 9 सितंबर 2013

Marble Sculptures Of India

Since ancient times, marble is the best choice to craft statues and sculptures. These sculptures are not just durable but stylish and elegant as well. In the world of art, sculptures made up of marble enjoy a unique place. Every state of the country has the art of stone sculpting in it. Most of the marble sculptures of India are dedicated to the religious purposes. A number of idols and statues of deities are crafted from marble. Also carvings of architecture are made out of marble. All the artwork of marble sculptures holds the excellence of the patterns and style of best craftsmanship and exhibits great quality.

Marble Sculptures of Ancient and Medieval India
The art of the mosaic inlay work was known to Indians even before the advent of the Mughals. Also, this art was widely prevalent in the country before Mughals started making use of this art. Temples of India house this art in form of partially or entirely carved marble patterns on walls and ceilings. From time to time, the frames of the doors and windows are also found carved in marble with floral patterns or other elaborate designs in temples. Dilwara Jain temples in Mount Abu, Rajasthan deserve a special mention here. These aesthetic temples are carved matchlessly in marble. It is noteworthy that the art work of these temples lay stress on enshrine of many Jain Tirthankaras. Constructed of a white marble from Arasoori Hill; these temples are regarded as an exceptional example of Jain temple architecture.

These temples include a total of five shrines. Four of them are architecturally momentous. All the shrines are constructed out of white marble. A number of petite shrines can be seen around the huge courtyard of temples. Attractive images of Tirthankaras are displayed in every shrine. A series of pillars carved gracefully accompany them and add sumptuousness to the opening of the courtyard. It is said that this art work was fashioned during 11th and 13th centuries AD. Later, several Hindu temples were made up of marble. Sacred symbols or sophisticated design ornament the interior part of these temples. Stupa of Sanchi constructed by Asoka is superbly popular. It has four gateways that were intricately carved in marble. There are two pillars carved beautifully. They wear the tiara of carved dwarfs, elephants and lions. It is from these lions that the national emblem of India came into being.

Marble Sculptures of Mughal India
From the annals of history, it is seen that the knack of stone sculpting in marble reached the pinnacle during the reign of the Mughals. Especially, the reign of Shah Jahan is renowned for the achievements regarding monumental architecture. Most significant change in architecture was initiated by Shah Jahan as he made use of marble in construction of monuments. Therefore, use of marble is commonly found in the palaces and temples of Rajasthan.

The structure of Red Fort in red stone was replaced by marble buildings like the Diwan-i-Khas, the Diwan-i-Am and the Moti Masjid. Also, the black marble pavilion at the Shalimar Gardens in Srinagar and a white marble palace in Ajmer were built.

Other than the carvings of marble, you will also appreciate the complexity of inlay work in marble done on scores of architectural monuments that Mughals constructed. These monuments included buildings within Red Fort of Agra and the most celebrated Taj Mahal.

The illustrious Taj Mahal is entirely made up of white marble. Its wonderfully white walls are engraved with beautiful and delicate ornamentations of inlay work of stone. This splendid work is also seen on the palaces and tombs of Mughals. Etmatuddaula tomb which is of Nur Jahan’s father was built by Nur Jahan in white marble between 1622 and 1628.


Marble sculptures of India offer an articulate quick look of noticeably eye-catching and versatile style of artistic craftsmanship and designs. The best marbles used for sculpting don’t have stains. But you can see some of natural stains in the sculpture, which are incorporated into the sculpture with great dexterity.

सिद्ध चिकित्सा पद्धति

सिद्ध चिकित्सा का विज्ञान

सिद्ध चिकित्सा के वैज्ञानिक आधार का लम्बा और विविध इतिहास है। परम्परा के अनुसार यह द्रविड़ संस्कृति द्वारा विकसित सबसे पुरानी परम्परागत उपचार विधि है। ताड़ के पत्तों पर लिखी पांडुलिपियों में बताया गया है कि भगवान शिव ने सबसे पहले अपनी पत्नी पार्वती को इसके बारे में बताया था। पार्वती ने यह ज्ञान अपने पुत्र मुरुग को दिया। उसने यह सारा ज्ञान अपने प्रमुख शिष्य अगस्त्य को दिया। अगस्त्य ऋषि ने 18 सिद्धों को इसके बारे में बताया और उन्होंने इस ज्ञान का लोगों में प्रचार किया।

सिद्ध शब्द हिन्दी के शब्द सिद्धि से बना है, जिसका मोटे तौर पर अर्थ है- विशेष योग्यता की प्राप्ति। सिद्धि को उन 8 अलौकिक शक्तियों की प्राप्ति के साथ भी जोड़ा जाता है, जो मानवीय प्रयासों के अंतिम लक्ष्य का एक हिस्सा हैं।

जिन लोगों ने उपरोक्त शक्तियों को प्राप्त किया, उन्हें सिद्ध कहा जाता है। प्राचीन काल में 18 महत्वपूर्ण सिद्ध थे, जिन्होंने सिद्ध चिकित्सा पद्धति को विकसित किया।

ऐतिहासिक रूप से माना जाता है कि प्रमुख सिद्ध 18 थे। अगस्त्य ऋषि को सिद्ध चिकित्सा का जनक माना जाता है। सिद्धों का सिद्धांत है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ आत्मा का विकास हो सकता है। इसलिए उन्होंने ऐसी विधियां और औषधियां विकसित कीं, जिनसे शरीर पुष्ट होता है और आत्मा को पुष्टि मिलती है।

सिद्ध पद्धति की पांडुलिपियों से पता चलता है कि 18 सिद्धों की शिक्षाओं से एक संयुक्त चिकित्सा पद्धति का विकास हुआ। आज सरकारी विश्वविद्यालयों के अंतर्गत मान्यता प्राप्त सिद्ध मेडिकल कॉलेज हैं, जहां सिद्ध चिकित्सा के बारे में पढ़ाया जाता है।

मूल सिद्धांत

सिद्ध चिकित्सा की औषधि का मतलब है परिपूर्ण औषधि। सिद्ध चिकित्सा शरीर के रोगी अवयवों को फिर से जीवंत और सक्रिय करने में कुशलता का दावा करती है। यह चिकित्सा मानव स्वास्थ्य के लिए आवश्यक तीन महत्वपूर्ण अंशों- वात, पित्त और कफ़ के अनुपात में भी उचित संतुलन बनाने का दावा करती है।

आमतौर पर सिद्ध चिकित्सा के मूल सिद्धांत अन्य भारतीय स्वास्थ्य विज्ञान - आयुर्वेद जैसे हैं। केवल मात्र अंतर यही है कि सिद्ध चिकित्सा, बाल अवस्था, प्रौढ़ अवस्था और वृद्ध अवस्था में क्रमशवात, पित्त और कफ़ की प्रमुखता को मान्यता देती है, जबकि आयुर्वेद में यह इसके पूरी तरह उलट है, यानी आयुर्वेद में बाल अवस्था में कफ़, वृद्ध अवस्था में वात और प्रौढ़ अवस्था में पित्त की प्रमुखता को माना जाता है।

राष्ट्रीय सिद्ध संस्थान

राष्ट्रीय सिद्ध संस्थान, सिद्ध चिकित्सा का प्रमुख संस्थान है, जो चेन्नई में तम्बरम में स्थित है। इस संस्थान का मुख्य उद्देश्य सिद्ध चिकित्सा प्रणाली के लिए अनुसंधान और उच्च अध्ययन की सुविधा उपलब्ध कराना तथा इस प्रणाली के लिए वैश्विक मान्यता प्राप्त करने में सहायता करना है। यह संस्थान उन सात शीर्ष राष्ट्र स्तरीय शिक्षा संस्थाओं में से एक है, जो भारतीय चिकित्सा पद्धतियों में उत्कृष्टता को बढ़ावा देती हैं। सिद्ध चिकित्सा में अनुसंधान की एकमात्र संस्था - केन्द्रीय सिद्ध अनुसंधान परिषद (सीसीआरएस) का राष्ट्रीय मुख्यालय भी यहां पर स्थित है।
2010 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इस संस्थान को संरक्षित स्मारक घोषित कर दिया, जिसके परिणाम स्वरूप वहां स्थित मौजूदा भवनों की मरम्मत या नवीकरण पर राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण ने प्रतिबंध लगा दिया।

केन्द्रीय आयुर्वेद और सिद्ध अनुसंधान परिषद (सीसीआरएएस), नई दिल्ली के अंतर्गत 1978 में स्थापित सिद्धावास अनुसंधान परिषद, 2010 तक रही। मार्च, 2010 में केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आयुष विभाग ने सिद्ध चिकित्सा में अनुसंधान के लिए केन्द्रीय सिद्ध अनुसंधान परिषद (सीसीआरएस) की स्थापना की, जिसके लिए तमिलनाडु और अन्य स्थानों के सिद्ध समुदाय ने काफी समय से दबाव डाल रहे थे। नई परिषद का मुख्यालय चेन्नई में बना और परिषद का अधिकृत रूप से गठन सितंबर, 2010 में हुआ।

विश्व सिद्ध दिवस
पहला विश्व सिद्ध दिवस 14 अप्रैल, 2009 को मनाया गया। इसका उद्घाटन तमिलनाडु के तत्कालीन राज्यपाल श्री सुरजीत सिंह बरनाला ने किया। आज के समय में सिद्ध चिकित्सा के महत्व और इसकी पर्यावरण हितैषी विशिष्टताओं को देखते हुए इस दिवस को हर साल बहुत ही उपयुक्त तरीके से मनाया जाता है। तीसरा सिद्ध दिवस केरल में त्रिवेंद्रम में मनाया गया, जबकि 2012 में विश्व सिद्ध दिवस को चेन्नई में ही मनाया गया।


शनिवार, 7 सितंबर 2013

Sand Sculptures Of India

Everyone enjoys building sand castles on the seaside. These castles vary from being simple and small to large and ornate. This creative leisure time activity is enjoyed by everyone. Today, this recreation has turned beautifully innovative and metaphorical. Sand sculptures of India are an addition to the sculpture variety in India. You can find these sculptures in any shape, form or size. These types of sculptures may consist of themes like that of human, a castle, mermaid, animal, plants or fantasy. They exhibit various messages such as congratulations, global warming, stop terrorism, religious expressions, beauty and the like.
Actually, the goal behind creating sand sculptures in India is to fashion sculptures that come out as an artistic example. These sculptures saw their origin in Orissa but in the present day and age they are known and appreciated in every nook and corner of India. Sometimes, the sand sculptures are also created with various colors and thus, they turn all the more alluring and likeable.
About Sand Sculptures in India
Art of sand sculpture is not very old in India. Therefore, there are no historical evidences found about the same. It is said that history of sand sculpture in India is shrouded in the myths of Orissa. The history is said to be as old as 14th century. It mentions about the poet Balram Das who is credited to shape religious sculptures out of sand. But it doesn’t have any historical proofs. As a matter of fact, the first records of sand sculptures in India were not found to be present for the next 500 years after the mentioned myth.
Artists of Sand Sculptures in India
With the introduction to sand sculpting in India, some sand sculpting artists of great merit also came to light. Such artists include renowned sculptors like Sudarshan Patnaik, Ranjan Kumar Ganguly and Tarani Prasad Misro.
Sudarshan Patnaik has created several superb sculptures like the one memorizing tsunami victims. He carved the structure in Puri, Orissa. His works are mostly based on current world issues, ranging from climate change to world peace. He also won international awards for india at the international Sand Festivals.
Ranjan Kumar Ganguly has also carved numerous beautiful sculptures with his magic fingers.
Tarani Prasad Misro is another sand sculpture who is so far said to have created sand sculptures on religious and current issues.
Sand Festivals
To encourage this art form, Sand festivals are organized in India. An important annual event in Goa is ‘Goa Sand Art Festival’ which is organized in association with Goa Tourism. This festival takes place at Candolim beach. It is organized in the month of December for three days in weekend just before Christmas. It presents different themes to emphasize a specific subject.

Today sand sculptures of India are celebrated worldwide. Many artists are engaged in sand sculpture creation these days. These sand sculptures are exhibited in huge sizes and in multifaceted structures as well. The art of sand sculpturing is not just beautiful and convey a message but also it is environment friendly and does not have any harmful affect on environment.

Will Maoists’ Anti-India Tirade Impact India-Nepal Ties?

Conflict does not end for all the time once it breaks up in a country. It happened so in Africa, Latin America, Asia and other parts of the world. Experience shows that conflict re-emerged in at least 40 per cent of the countries that at one or the other point of time were engulfed by conflict. Though unfortunate, certain ominous symptoms of another conflict have already appeared in Nepal that was triggered by violent conflict between 1996 and 2006 and in which more than 18,000 innocent people were killed and there was huge loss of property. What would happen to the Himalayan country and in its neighbourhood, particularly in India, if another violent conflict arises? Time has come to ponder over this.
The violent conflict in Nepal had started in 1996 after the then Prime Minister of Nepal Sher Bahadur Deuba failed to meet 40-point demands of the Communist Party of Nepal (Maoist). Like in 1996, the Communist Party of Nepal (Maoist) with its leader Mohan Baidya (alias Kiran) submitted 70-point demand to the leader of Unified Communist Party of Nepal –Maoist (UCPN-Maoist) and Prime Minister of Nepal, Baburam Bhattari, on September 10, 2012. However, the difference in the situation in 1996 and 2012 is that Baburam Bhattarai submitted the 40-point demand to the government of Nepal as a rebel leader of Maoists. But now Bhattarai is Prime Minister and the 70-point demand was submitted to him by none other than his own colleagues of CPN (Maoist) who split from the mother party UCPN (Maoist) on June 19, 2012.
Strikingly, many of the demands covered in 40-point demand in 1996 resemble the 70-point demand in 2012 and this is more so when it comes to opposing deals with India. In their bid to lend a nationalist fervor to their demands, the Maoists in 2012 as in 1996 tried to raise different issues like the scrapping of all the “unequal” treaties and other deals with India. Towards this end, emphasis was laid on scrapping the 1950 Treaty of Peace and Friendship with India, which is virtually a security pact between the two countries. Besides, abrogation of Arms Treaty of 1965, Mahakali Treaty of 1996 and Bilateral Investment Protection and Promotion Agreement of 2011 with India has also been demanded. Other issues that have been covered in the demand include stricter control of the Nepal-India border, scrapping of contracts given to the Indian contractors such as to GMR and others for the construction of Karnli and Arun III hydropower projects, preventing the movement of vehicles with Indian number plates, and banning Indian Hindi movies as well as Indian music in Nepal.
The Mohan Baidya led Maoist party even threatened to take resort to violent means if their 70-point demands were not met. As the Bhattarai-led government in Nepal did not do anything about the 70-point demands as it cannot be done, the CPN (Maoist) in the first phase of their struggle declared ban on the movement of vehicles with Indian number plates in Nepal. Cinema halls across the country have been threatened not to show Hindi movies and play Hindi music. Argument has been placed that some of these measures were essential to give opportunity to the Nepalese industries to grow, which many of the intellectuals have questioned.
Of course, the Prime Minister of Nepal, Baburam Bhattarai, has given instruction to the security agencies to deal with the miscreants if at all they tried to stop the vehicles with Indian number plates because that could create shortage of basic essential goods in Nepal, including petroleum products and food items. But in reality, the Maoist call seems to have been working as most of the vehicles with Indian number plates have stopped plying on the roads in Nepal out of fear of attack. Even buses that used to bring Indian tourists to Nepal have been affected. On top of that, the cinema halls do not want to take the risk of showing Hindi movies and playing Indian music.
In the meantime, Nepal’s other political parties like the Nepali Congress, the Communist Party of Nepal (Unified Marxist-Leninist) and the Madheshi parties have opposed the 70-point demand of the CPN (Maoist). There is certain news of retaliation across the border in India when effort was made to stop the vehicles with Nepalese number plates. In Nepal itself, many people are dissatisfied with the move of CPN (Maoist) as they have started facing shortage of petroleum products and other essential items. Even the cinema viewers who like the Hindi movies and Indian music are disappointed. Most of the Nepalese media have also opposed the Maoist demands.
Notwithstanding the opposition, the CPN (Maoist) cadres are not in a mood to retreat from their 70-point demands. Media report s confirm that the CPN (Maoist) have among their cadres those elements who could not be accommodated within the mother UCPN (Maoist) led by Pushpa Kamal Dahal (alias Prachand). At a time when the political situation in the country is fragile and the law and order situation is fragile, efforts are being made by the party to bring to its fold those Maoist fighters who were discharged from the Maoist cantonments in 2012. Of the 19,000 plus Maoist fighters, more than 16,000 have already been discharged from the cantonments as they opted for voluntary retirement scheme. Now effort is being made to bring those people into the fold of the party. Besides, those thousands of Maoist workers who were disqualified in the cantonments in the initial stage for being child soldiers or on other grounds are also being mobilized. Consequently, the Maoists’ spirit is emboldened and the cases of forced donation, bandh and other such activities have started growing.
However, it is beyond comprehension as to how the Maoists, who took shelter in India for years during the conflict period, are targeting India. It was through the Indian intervention that the Maoists and the seven political parties of Nepal entered into 12-point agreement in New Delhi in 2005, which ensured safe return of the Maoists in Nepal. In a way, the 12-point agreement paved the way for the second People’s Movement in Nepal in 2006 and the emergence of the Maoists as the single largest party in the Constituent Assembly in 2008. It was then only that the monarchical institution of 239-long years was abolished and the Maoists were able to head the government in 2008-2009.
It is also difficult to understand as to why several Maoists want to maintain closer relation with China when the Chinese government provided even lethal weapons to Nepal to crush the Maoists during the time King Gyanendra ruled the country in 2005.

It appears that the CPN (Maoist) might try to take Nepal on the path of conflict again to serve their motto of capturing power, though such a move might prove disastrous to Nepal. They might do so with the help of the old fighters who were heavily indoctrinated during the conflict period in Nepal. Yet the ground reality does not favour the Maoists. Perhaps, many of such cadres might not return to the jungle and work as guerillas as they did in the past because they have been so much accustomed to the life of the cities and towns now. They have neither genuine support from the common mass of the Nepalese population nor do they have any international backing as such. Even the decade-long conflict made the people so much wary that they cannot that easily be diverted. They are in no mood for any conflict as they are disgusted with the selfish nature of the leaders. But this does not give room for complacency. In case the conflict of even low intensity breaks, of which there is some probability, it might not only have an impact within Nepal but also it might affect India most as being the closest neighbour and also due to the fact that there is an open border between the two countries. Therefore, before the situation goes out of control, all the Nepalese and other international stakeholders including India should see to it that peace and stability in Nepal is not disturbed. Conflict anywhere is threat to peace everywhere.

शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

Buddhist Sculptures Of India

Buddhist sculptures of India can best be explained as marvelous illustrations of sacred sculpture and architecture. Buddhist sculpture developed in India at a period of about 255 BC, most especially, because of the hard work of the great Mauryan Emperor Asoka. He was so impressed by the Buddhist ideologies that he adopted Buddhism as the state religion. A number of notable sculptures of Buddhism were carved out on this land all because of his initiative. The newly evolved religion was all the more popularized with the help of these sculptures. Therefore, the history of Indian sculpture saw evolution of an entirely different idiom.

Buddhist Sculpture in India
Building up of chaityas, pillars and stupas were involved in the architecture of Buddhism. A very integral part of the Buddhist architecture was iconography. The sculpture of Buddhism was simpler as compared to the sculptures that emerged in later times in the country.

The aniconic representation of Gautama Buddha was one of the features of the Buddhist Indian sculpture. The buildings of the Buddhist pilgrimage centers exhibit the style which was developed by Asoka. It is of utmost importance to involve the sculpture of stupas while discussing about the Buddhist sculpture and architecture. One of the wonderful specimens of the Buddhist art and sculpture is the sculpture of Sanchi Stupa. The sculpture of Buddhist Caves and the architecture constitute another significant structure which emerged with the Buddhist spiritual principles. To add to these significant structures, sculpture of Vihara, the sculpture of chaityas, and sculpture of Ashokan Pillars are fairly momentous.

Gandhara School of Art
A very important time in Buddhist sculpture emerged with the emergence of the Gandhara School of art in India. This was the initial art school where the artists started imparting representative form of life of Buddha into Human Form. Such images were excavated at Peshawar, Afghanistan and the like. The art gained fame as it was the union of both Indian and Greek art. The main characteristic of the Gandhara Art is the standing and sitting Buddha.

Mathura School of Art
Spotted red sandstone as the material to make statues and images were used in this art form. Buddha’s early images (having attained enlightenment) and the Bodhisattva (the one who is seeking enlightenment) are blissful and plump figures. The formation of the images of Buddha was a noticeable feature of the Mathura School of Art but statues of Jain Tirthankaras and Brahmanical gods and goddesses are also made in this art school.

Reflection of Buddhist Concept on Buddhist Sculpture
The socio-cultural traditions of our country are mirrored by the Indian art and architecture which is many centuries old. An art form and sculpture of its own style is illustrated by the varied multi-cultured and multi-religious art works. It was in Buddhist religion of India that one of such enthralling art and sculpture has been accepted. The religion is about 2500 years old and the art of Buddhism targeted to have paintings and monuments that were erected to bring popularity to the conception of Buddhism. Even though, Lord Buddha was never embodied in a human form because his life was extremely eventful. As a result, the portrayal of Buddhism was for the most part based on six symbols. Elephant was for the birth of Buddha, footprints and lion for life of Buddha, vacant throne as mark of sovereignty, horse depicting the rejection of the worldly pleasures and Tree for enlightenment and last of all its Stupa.

Buddhist Art and Architecture in India
The people of India are greatly influenced by the Buddhist art and architecture. The meditation and yogic postures have unusual levels of significance. Buddhism portrays the mudras or postures, Enlightenment or nirvana, meditations and a number of ways to preach Buddhism. Tracing back to the time of 255 B.C., we find that the Mauryan King Ashoka was the first to introduce Buddhism as his state religion, as mentioned above. With the course of time, this religion stretched all over the country and started gaining popularity among the parts of south-east Asia. Asoka also has the credit to be the first one to introduce the art in this region. The Stupas that stand all through the country today were constructed by Asoka. He did so in order to venerate the teachings of Buddha. The institution of the immense sacred establishment was at Sanchi. At this place people began to expand the Stupas built by Asoka. It is noteworthy that the most attention- grabbing thing about this Stupa is that they are more often than not carved out of genuine rocks. The best spot to stopover is Ajanta and Ellora Caves. They are the most popular places among the vacationers from all over the planet.

Best of Buddhist Sculptures in India
The Gupta period during the reign of King Harshavardhana around 647 A.D was recorded to be amongst the best periods of the Buddhist Art and sculpture development. The images at Mathura and Sarnath are the Holy places where the accumulation of Deities such as Maitreya or the Future Buddha is found. He brought a radical change in Buddhism, as a faith. The quantity of images of Buddha crafted during these periods were quite substantial as per the traditions sustained at this time.


The Buddhist Art and architecture revolves just about stupas, Monolithic pillars, palaces, shrines, and actual rock cut chambers which is certainly very exclusive. Buddhist sculptures of India have added an interesting chapter to the Indian sculptures.

अनुसूचित जातियों के मैट्रिक पास छात्रों के लिए छात्रवृत्ति योजना-सक्षम करने के लिए शिक्षा

शिक्षा वह गोंद है जो समाज को एकजुट रखने और इसकी मिसाल बनाने में अहम भूमिका अदा करता है। शिक्षा ने भारतीय समाज को नया आकार देने में ऐसी प्रभावी भूमिका कभी नहीं निभाई जैसा कि आज के जमाने में निभा रहा है। शिक्षा ने महान मुक्तिदाता की भूमिका बड़ी बेहतरी के साथ निभाई है। यह अब सशक्तिकरण का एक महत्वपूर्ण साधन बन गया है। अनुसूचित जातियों के छात्रों में उच्च शिक्षा के प्रति बढ़ती भूख ने उन्हें समाज में बेहतरीन जगह दिलाई है, इससे उन्हें सामाजित गतिशीलता को नई दिशा में ले जाने की दृष्टि पैदा करने में भी मदद मिली है। जब तक शिक्षा अनुसूचित जातियों के घरों को रौशन नहीं करती है तबतक वे उन सामाजिक बाधाओं को कम या पूरी तरह खत्म करने में सफल नहीं हो सकते जिन्हें सामाजिक गतिशीलता की दिशा में रखा गया है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए सरकार ने अनुसूचित जातियों के छात्रों के शैक्षणिक विकास में बड़ी भूमिका अदा की।
सामाजिक भेद-भाव को मिटाने की दिशा में 1944 से ही काम कर रही अनुसूचित जातियों के मैट्रिक पास छात्रों के लिए छात्रवृत्ति योजना अभी लगभग 50 लाख छात्रों को शिक्षा हासिल करने मदद कर रही है। यह राष्ट्रीय स्तर की योजना है जो देश भर में मैट्रिक के बाद शिक्षा हासिल करने में लगे अनुसूचित जातियों के छात्रों को वित्तीय मदद मुहैया करा रही है। यह योजना अनुसूचित जातियों के छात्रों को अपना शैक्षिक स्तर बढ़ाने में महत्‍वपूर्ण मदद कर रही है और इस तरह उन्‍हें समाज की मुख्यधार का हिस्‍सा बनाने में भी अहम भूमिका निभा रही है। इसके लिए राज्‍य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को उनकी प्रतिबद्ध जिम्‍मेदारियों को देखते हुए केंद्र सरकार सौ फीसदी मदद मुहैया करा रही है। पूर्वोत्‍तर राज्‍यों को प्रतिबद्ध जिम्‍मेदारियों से मुक्‍त रखा गया है।
सामाजिक न्‍याय और आधिकारिता मंत्रालय की इस महत्‍वपूर्ण योजना के तहत अनुसूचित जातियों से जुड़े छात्रों को मान्‍य संस्‍थानों से मैट्रिक के बाद या माध्‍यमिक शिक्षा के बाद के पाठ्यक्रमों के लिए छात्रवृत्तियां दी जाती हैं। इस योजना में मेंटेनेंस इंजीनियर्स पाठ्यक्रम, निजी पायलट लाइसेंस पाठ्यक्रम, मिलिट्री कॉलेज में प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों और राष्‍ट्रीय एवं राज्‍य स्‍तर पर परीक्षा पूर्व प्रशिक्षण केंद्रों द्वारा चलाये जा रहे पाठ्यक्रमों को शामिल नहीं किया गया है। यहां यह बताना जरूरी है कि अनुसूचित जातियों के वे छात्र भी छात्रवृत्ति पाने के हकदार हैं, जो पत्राचार कार्यक्रमों के जरिए शिक्षा हासिल कर रहे हैं। उन छात्रों को भी मैट्रिक बाद अध्‍यापन के लिए छात्रवृत्ति दी जाएगी जिन्‍हें रोजगार मिल चुका है और जिनकी आय माता-पिता की वार्षिक आय के साथ मिलकर इस योजना के तहत लाभार्थी छात्र के लिए तय अधिकतम आय सीमा से अधिक नहीं हो।
इस योजना के तहत अनुसूचित जातियों के छात्रों को मिलने वाली आर्थिक मदद में अन्‍य भत्‍तों के अलावा रख-रखाव भत्‍ता, शैक्षिक संस्‍थानों द्वारा ली गई अनिवार्य शुल्‍क की अदायगी और पुस्‍तकालय सुविधा, शामिल हैं। इस योजना के तहत एक अप्रैल 2013 से छात्रवृत्ति अनुसूचित जातियों के उन्‍हीं छात्रों को मिलेगा जिनके माता-पिता/अभिभावकों की सभी स्रोतों से होने वाली वार्षिक आय दो लाख 50 लाख रूपये सालाना से अधिक नहीं हो।

पाठ्यक्रम की पूरी अवधि के दौरान नि:शक्‍त विद्यार्थियों के लिए अतिरिक्‍त भत्‍ता भी इस योजना का एक भाग है। पठन भत्‍ता के अलावा नेत्रहीन विद्यार्थियों के लिए पाठ्यक्रम के स्‍तर के अनुसार परिवहन भत्‍ता रक्षक भत्‍ता और मानसिक रूप से बीमार और मंदबुद्धि वाले छात्रों के लिए एक्‍स्‍ट्रा कोचिंग भत्‍ता दिये जाने का भी प्रावधान है। इस योजना के दायरे में शामिल अनुसूचित जाति वाले नि:शक्‍त विद्यार्थियों को भी अन्‍य योजनाओं से भी अतिरिक्‍त लाभ मिलेगा जो इस योजना के दायरे में शामिल नहीं है। छात्रवृत्ति योजना में वार्षिक पुस्‍तक भत्‍ता भी शामिल हैं। इसके लिए विभिन्‍न संस्‍थाओं में बैंक स्‍थापित किए गए हैं, जहां अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों को उनके पाठ्यक्रम और सेमेस्‍टर अवसंरचना के आधार पर किश्‍तों  में पुस्‍तकों की आपूर्ति की जाती है।
इस योजना में मिन्‍स टेस्‍ट आवेदन के आधार पर पात्र विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति दी जाएगी। मिन्‍स टेस्‍ट से यह निर्धारित होता है कि कोई सरकारी मदद का हकदार है या नहीं। वैसे विद्यार्थी जो किसी अन्‍य राज्‍य के हैं, लेकिन वे अपनी पढ़ाई दूसरे राज्‍य में कर रहे हैं, उन्‍हें भी उनके संबंधित राज्‍य द्वारा छात्रवृत्ति दी जाएगी और इसके लिए उन्‍हें अपने राज्‍य के सक्षम प्राधिकार के पास अपना आवेदन जमा करना होगा।  छात्रवृत्ति की अवधि निम्‍नलिखित कारकों पर निर्भर करती है, जिनमें पाठ्यक्रम की पूरी अवधि के दौरान बेहतर आचरण और नियमित उपस्थिति जैसे कारक शामिल हैं। (छात्रवृत्ति का नवीकरण इस आधार पर किया जाता है कि छात्रवृत्ति पाने वाला अगले उच्‍च वर्ग में प्रोन्‍नत हो जाएगा और इससे कोई सरोकार नहीं कि ऐसे परीक्षाओं का आयोजन किसी विश्‍वविद्यालय या संस्‍थान द्वारा किया गया हो।) हालांकि यदि अनुसूचित जाति का विद्यार्थी कोई निश्चित पाठ्यक्रम (इस योजना में शामिल) में पढ़ रहा है और पहली बार वह परीक्षा में असफल हो जाता है, तो छात्रवृत्ति का नवीकरण किया जा सकता है। स्‍पष्‍ट है कि इस योजना का उद्देश्‍य जहां तक हो सके ज्‍यादा से ज्‍यादा पात्र छात्रों को इसमें शामिल करना है।
छात्रवृत्ति राशि का समय पर भुगतान करने के लिए उत्‍तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और केरल जैसे राज्‍यों ने इस योजना का कार्यान्‍वयन पूरी तरह से कम्‍प्‍यूट्रीकृत कर दिया है। साथ ही छात्रवृत्ति की प्रक्रिया ऑनलाइन भी कर दी है। केरल ने छात्रवृत्ति राशि का समय पर भुगतान करने के लिए ई-ग्रांट्ज प्रणाली शुरू की है। इसके अलावा विभिन्‍न राज्‍य सरकारों एवं संघ-शासित प्रशासकों ने भी छात्रवृत्ति राशि का लाभार्थियों के पोस्‍ट ऑफिस या बैंक खातों में सीधे भुगतान करने पर सहमति जताई है। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि यह शत-प्रतिशत केंद्रीय सहायता प्राप्‍त योजना है और इसके तहत कुल खर्च की जाने वाली राशि प्रतिबद्ध व्‍यय से अधिक हो सकती है। किसी एक वर्ष में प्रतिबद्ध व्‍यय का स्‍तर पिछले पंचवर्षीय योजना के अंतिम वर्ष की अवधि के दौरान प्रशासकों द्वारा इस योजना के तहत की गई वास्‍तविक खर्च के स्‍तर के समतुल्‍य होती है और इसका खर्च प्रशासकों द्वारा वहन किया जाता है, जिसका प्रावधान उनके बजट में होता है।
अनुसूचित जाति के लिए शुरू की गई पोस्‍ट मैट्रिक छात्रवृत्ति योजना के तहत लाभार्थियों की संख्‍या लगातार बढ़ रही है। 11वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान वित्‍तयी सहायता प्राप्‍त छात्रों की संख्‍या 31.58 लाख से बढ़कर 46 लाख हो गई है। इस योजना के तहत राज्‍यों की प्रतिबद्ध व्‍यय को मिलाकर कुल खर्च राशि, वर्ष 2007-2008 के 2,158.70 करोड़ रूपये से बढ़कर वर्ष 2011-212 में 3,994.96 करोड़ रूपये हो गई है। वर्ष 2011-12 के दौरान इस योजना के तहत महिला लाभार्थियों की राष्‍ट्रीय औसत 38.31 प्रतिशत है। इस प्रकार इस योजना के जरिए सक्रिय सरकार की पहल से अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों को समाज के मुख्‍य धारा में लाने का मार्ग प्रशस्‍त हुआ है।


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