बुधवार, 4 सितंबर 2013

भू-अधिग्रहण विधेयक से मिलेगी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों को विशेष रियायतें

भू-अधिग्रहण विधेयक जिसका नाम बदल दिया गया है और अब इसे उचित मुआवजा तथा भूमि अधिग्रहण में पारदर्शिता, पुनर्वास और पुनर्स्‍थापन विधेयक 2012 का नाम दिया गया है। अब इसमें अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लोगों के हितों की रक्षा के उद्देश्‍य से अलग से एक अध्‍याय जोड़ा गया है। इसमें कहा गया है कि जहां भी भू-अधिग्रहण किया जाएगा, वहां यह बात स्‍पष्‍ट दिखनी चाहिए कि भू-अधिग्रहण के अलावा कोई अन्‍य उपाय नहीं था। विधेयक में यह भी कहा गया है कि जहां तक संभव होगा अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति वाले क्षेत्रों में भू-अधिग्रहण नहीं किया जाएगा। अगर ऐसा करना जरूरी हो जाए तो स्‍थानीय स्‍वशासन निकायों (यदि स्‍वशासन परिषदे मौजूद हो तो उन्‍हें मिलाकर) की सहमति/अनुमोदन से भू-अधिग्रहण किया जाएगा। इस विधेयक में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के हितों की रक्षा के लिए निम्‍नलिखित उपाय शामिल किए गए हैं

·         विकास योजना एक विकास योजना तैयार की जाएगी, जिसमें भू-अधिकार तय करने संबंधी विवरण शामिल किए जाएंगे। इसके लिए एक योजना तैयार की जाएगी, जिसमें वैकल्पिक ईंधन, चारे और गैर इमारती लकड़ी सहित वनोपज संसाधन तथा गैर वनोपज संसाधनों की पांच वर्षों तक के लिए व्‍यवस्‍था की जाएगी।

·         एक तिहाई तक की अदायगी अग्रिम अगर अनुसूचित जातियों और अनुसचित जनजातियों की जमीन का अधिग्रहण करना ही पड़े तो उन्‍हें एक तिहाई मुआवजा शुरू में ही पहली किश्‍त के रूप में दे दिया जाएगा। बाकी रकम जमी पर क्‍ब्‍जा लेने के बाद दी जानी चाहिए।

·         अनुसूचित जाति क्षेत्र में फिर से समझौता प्रभावित अनुसूचित जनजाति के परिवारों को जहां तक संभव हो उसी क्षेत्र में फिर से बसाया जाए, ताकि वे अपनी जातीय, भाषायी और सांस्‍कृतिक पहचान बनाए रख सकें।

·         समुदाय के लिए जमीन पुनर्वास मुख्‍य रूप से उन अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए होगा, जिनके बारे में सरकार निशुल्‍क सामुदायिक और सामाजिक उत्‍सवों के लिए जमीन देने का फैसला करे।

·         जनजातीय भूमि का पृथककरण नहीं किया जाएगा अनुसूचित जनजाति अथवा अनुसूचित जातियों के सदस्‍यों की भूमि को कानून और नियमों की अनदेखी करके अलग करना गैर कानूनी होगा, अगर ऐसा किया गया तो उस जमीन के पुनर्वास लाभ मूल जनजातीय लोगों अथवा उनके मालिक मूल अनुसूचित जाती लोगों को उपलब्‍ध कराए जाएंगे।

·         मछली पकड़ने का अधिकार प्रभावित जनजातीय लोग और परंपरागत रूप से वनबासी तथा अनुसूचित जाति के परिवार जिन्‍हें किसी नदी, तालाब अथवा जलाशय में मछली पकड़ने का अधिकार प्राप्‍त था, उन्‍हें नये जलाशय, सिंचाई अथवा पनबिजली परियोजना में भी मछली पकड़ने के अधिकार दिए जाएंगे।

·         अगर अनुसूचित क्षेत्र से बाहर बसाए गए तो अतिरिक्‍त लाभ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के जिन प्रभावित परिवारों को जिले से बाहर बसाया गया हो उन्‍हें 25 प्रतिशत अधिक पुनर्वास लाभ प्रदान किए जाएंगे। यह लाभ उन मुद्रा संबंधी लाभों पर आधारित होंगे और उनकी एकबारगी हकदारिता 50 हजार रूपये होगी।

·         अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों को जमीन के बदले जमीन के ज्‍यादा लाभ जिस परियोजना में अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचिज जनजाति के लोगों की जमीन जाएगी, उन्‍हें उतनी ही जमीन जितनी ली गई हो, दी जाएगी। अथवा यह ढाई एकड़, (जो भी कम हो) होगी।


·         अतिरिक्‍त राशि हर प्रभातिव परिवार को मिलने वाले 3000 रूपये प्रति मास की गुजारे की रकम के अलावा हर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का परिवार जो अनुसूचित क्षेत्र से विस्‍थापित हुआ हो, 50,000 रूपये की राशि पाएगा।

मताधिकार: दुर्बलों की शक्ति

''कमजोरों की शक्ति'' से इस बात का पता चलता है कि हमारा समाज - मजबूत और कमजोर नामक दो भागों में विभाजित है। ''शक्ति'' नामक शब्‍द को राजनीतिक शक्ति, आर्थिक शक्ति और सामाजिक शक्ति जैसे कई रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है। यह एक सामान्‍य धारणा है कि राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक शक्ति कुछ ऐसे मुट्ठी भर लोगों के पास केंद्रित है जिन्हें शक्ति सम्‍पन्‍न कहा जा सकता है किंतु यह एक मूक प्रश्‍न है कि क्‍या ये तथाकथित कमजोर लोग वास्‍तव में कमजोर हैं। मैं ऐसा नहीं मानता, भारत में जहां तक राजनीतिक शक्ति में भागीदारी का प्रश्‍न है, जो मेरे विचार से अन्‍य सारी शक्तियों की जननी है और उन शक्तियों को प्राप्‍त करने का वास्‍तविक माध्‍यम है। प्रस्‍तुत लेख में मैं ''कमजोरों की शक्ति की राजनीतिक शक्ति'' नामक इस पहलू की विवेचना कर रहा हूं।
भारत के संविधान में इस बात की घोषणा की गई है कि हमारा देश एक सार्वभौमिक, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्‍य है। संविधान निर्माताओं ने संविधान की प्रस्‍तावना में भारत के सभी नागरिकों के लिए अन्‍य बातों के अलावा न्‍याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तथा समान दर्जा और अवसर उपलब्‍ध कराने का संकल्‍प किया है। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 13 दिसम्बर, 1946 को संविधान सभा में जो प्रस्‍ताव पेश किया, उसके माध्‍यम से संविधान सभा का ऐजेंडा और लक्ष्‍य निर्धारित किया गया और संविधान सभा ने इस प्रस्‍ताव की घोषण की ताकि भारत के सभी लोगों के लिए न्‍याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समानता और समान अवसर सुनिश्चित हो सके तथा कानून की नजर में विचार, अभिव्‍यक्ति, मत, धर्म, व्‍यवसाय, संगठन और क्रियाकलाप की स्‍वतंत्रता हो जो कानून की शर्तों और सार्वजनिक नैतिकता के आधार पर हो। इसके साथ ही अल्‍पसंख्‍यकों, पिछड़ों और जनजातीय क्षेत्रों के लिए और वंचित तथा अन्‍य पिछड़ा वर्गों को पर्याप्त सुरक्षा मिले।
श्री मोती लाल नेहरू की अपेक्षा में एक समिति द्वारा मई, 1928 में बम्‍बई (अब मुम्‍बई) में एक सर्वदलीय सम्‍मेलन में संविधान सभा के ऐसे संकल्‍प की आधारशिला काफी पहले रखी जा चुकी थी। भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस के अध्‍यक्ष के रूप में अपने उद्घाटन भाषण में पं. नेहरू ने 1936 में लखनऊ अधिवेशन में इस विषय को निम्‍नानुसार उठाया था:-
''मैं इस बात से सहमत हूं कि विश्‍व की समस्‍याओं और भारत की समस्‍याओं का समाधान की कुंजी केवल समाजवाद ही है। हालांकि, समाजवाद आर्थिक विषय से भी कुछ अधिक है, यह जीवन का एक दर्शनशास्‍त्र है। गरीबी, व्‍यापक बेरोजगारी, भारत की जनता की कमियों को समाप्‍त करने के लिए समाजवाद के अलावा कोई अन्‍य तरीका मुझे दिखाई नहीं पड़ता।''
भारतीय परिदृश्‍य में महात्‍मा गांधी ने हर किसी की आंखों के आंसू पोछने का लक्ष्‍य निर्धारित किया। गांधीजी ने कहा कि स्‍वतंत्रता तब तक एक मजाक की तरह ही है जब तक लोग भूखे-नंगे हों और बेजुबान की तरह दर्द सह रहे हों। हरिजनों के उत्‍थान के लिए गांधी जी के संघर्ष को हमेशा ही मानवाधिकारों और सम्‍मान के लिए उनके संघर्ष के सबसे अधिक गरिमामय पहलू के रूप में मान्‍यता दी जाएगी।
महात्‍मा गांधी और पं. जवाहर लाल नेहरू के समाजवादी दृष्टिकोण के अलावा परे संविधान के जनकों ने लोकतंत्र को भारतीय संविधान की आधारभूत विशेषताओं के रूप में देखा। अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र की सबसे अच्‍छी परिभाषा देते हुए इसे ''जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा सरकार'' बताया। इस प्रकार लोकतंत्र मजबूत लोगों के साथ-साथ कमजोर लोगों का वास्‍तविक सशक्‍तीकरण है।
संविधान की प्रस्‍तावना में तथाकथित शक्तिहीन लोगों के लिए न्‍याय और समानता सुनिश्चित करने की बात की गई है, जो काफी समय से आर्थिक पिछड़ापन अथवा सामाजिक शोषण, छूआछूत और अन्‍य बुराईयों के कारण पीड़ित रहे हैं और जाति, धर्म, प्रजाति आदि के आधार पर भारतीय समाज पिछड़ गया है। संविधान के निर्माताओं ने लोकसभा और राज्‍य विधान सभाओं के प्रतिनिधियों के निर्वाचन एक व्‍यापक वयस्‍क मताधिकार के लिए संविधान में धारा-326 का उल्‍लेख किया जो सबसे ऐतिहासिक कदम है। यह सचमुच एक ऐतिहासिक निर्णय था और इसके साथ ही यह कमजोरों का वास्‍तविक सशक्‍तीकरण भी था। इस निर्णय के माध्‍यम से संविधान ने महिलाओं को भी समान लोकतांत्रिक अधिकार प्रदान किए, जबकि उस दौरान पश्चिमी देशों में भी मताधिकार के विषय में समानता मूलक अधिकारों के लिए महिलाएं संघर्ष कर रही थी। इस ऐतिहासिक निर्णय के समय सबसे उल्‍लेखनीय तथ्‍य यह था कि भारत की जनता का लगभग 84 प्रतिशत हिस्‍सा निरक्षर था, जब वर्ष 1950 में संविधान लागू किया गया था। इनमें से अधिकांश लोग गांवों में रहते थे और वे अब तक वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकीय उन्‍नति के लाभों से वंचित थे।

आज के राजनीतिक परिदृश्‍य ने सामाजिक रूप से पिछड़े और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को कमजोर समझा जाता है और उन्‍हें ''वोट बैंक'' के रूप में देखा जाता है। किंतु यह एक तथ्‍य है कि राजनीतिक दलों द्वारा उन्‍हें वोट बैंक के रूप में देखे जाने से उनकी वास्‍तविक शक्ति का पता चलता है क्‍योंकि इससे कई दिग्‍गजों के भाग्‍य का फैसला होता है। हर एक राजनीतिक दल उन्‍हें खुश करके उनका समर्थन प्राप्‍त करना चाहते है और उनके लिए हुए रोजगार गारंटी योजनाएं, आवास परियोजनाएं, वित्‍तीय राजसहायता और अन्‍य अनुदान तथा रियायत उपलब्‍ध कराएं जाते हैं। हाल के दिनों में विभिन्‍न स्‍तरों पर संसदीय, राज्‍य, स्‍थानीय अक्‍सर होने वाले चुनाव उनके लिए वरदान साबित हुए हैं, क्‍योंकि सत्‍ता चाहने वाले लोगों को उनके दरवाजे पर आना पड़ता है।

भारतीय संविधान की धारा-325 में अवसर की समानता सुनिश्चित करने के लिए प्रावधान शामिल किया गया है, जो संविधान निर्माताओं द्वारा उठाया गया एक अन्‍य महत्‍वपूर्ण कदम है। इसमें स्‍पष्‍ट उल्‍लेख किया गया है कि सभी निर्वाचकों के लिए एक सामान्‍य मतदाता सूची होगी और कोर्इ भी व्‍यक्ति इस सूची में शामिल किए जाने के अयोग्‍य नहीं होगा अथवा धर्म, प्रजाति, जाति, लिंग अथवा अन्‍य किसी कारण के आधार पर किसी निर्वाचन क्षेत्र के लिए किसी विशेष मतदाता सूची में शामिल किए जाने के लिए कोई दावा नहीं किया जाएगा। किंतु संविधान के जनकों ने भारतीय समाज के वंचित हिस्‍से से जुड़े तथ्‍यों को भी नजरंदाज नहीं किया। यही कारण है कि उन्‍होंने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातीयों के लिए विशेष सुरक्षा के प्रावधान किए। इसके परिणामस्‍वरूप लोक सभा और राज्‍य विधानसभाओं में अनुसूचित जातीयों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित करने की प्रेरणा मिली। वर्ष 1992 में भारतीय संविधान के 73वें और 74वें संशोधनों के जरिए नगर निगमों, नगर पालिकाओं और पंचायतों में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटे आरक्षित की गईं। संसद और राज्‍य विधानसभाओं में भी इसी प्रकार के आरक्षण के बारे में विचार किया जा रहा है और विभिन्‍न राजनीतिक दल और संसदविद् एक व्‍यावहारिक फार्मूला तैयार करने में जुटे हैं।


संसद और राज्‍य विधानसभाओं के चुनावों में उनके मताधिकार के रूप में संविधान के अधीन कमजोर लोगों को एक कारगर हथियार अथवा शक्ति सुनिश्चित करने के क्रम में इस बात को ध्‍यान में रखा गया है कि यह न केवल एक कागजी प्रावधान भर ही रहे। भारत के निर्वाचन आयोग को स्‍वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने का दायित्‍व सौंपा गया है। यह एक स्‍थायी संवैधानिक प्राधिकरण है जो कार्यपालिका के हस्‍तक्षेप से मुक्‍त है ताकि यह स्‍वतंत्र और निष्‍पक्ष चुनाव के संचालन की पवित्र संवैधानिक जिम्‍मेदारी को पूरा कर सके। यह कार्य लोकतंत्र के लिए काफी महत्‍वपूर्ण है। इससे लोकतंत्र को मजबूती मिलती है और निर्वाचन आयोग को इस बात का श्रेय मिलने के साथ गर्व भी होता है कि यह देश की करोड़ों लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने की अपनी पवित्र संवैधानिक जिम्‍मेदारी को पूरे विश्‍वास के साथ पूरा करता है। लोक सभा के 14 आम चुनावों और राज्‍य विधानसभाओं के 300 से अधिक आम चुनावों के परिणाम इस बात के सबूत हैं कि निर्वाचन आयोग संविधान द्वारा सौंपी गई जिम्‍मेदारी को सफलतापूर्वक पूरा करता है। इसके साथ ही यह कमजोर लोगों को न्‍यायसंगत मार्ग उपलब्‍ध कराता है ताकि वे अपने मताधिकार का इस्‍तेमाल करके अपनी राजनीतिक परिपक्‍वता दर्शा सकें। यहाँ तक कि देश के मौजूदा प्रधानमंत्री और राज्‍यों के कई मौजूदा मुख्‍यमंत्रियों को भी पराजय का सामना करना पड़ा है और देश के कमजोर लोगों के हाथों की शक्ति के कारण वे परास्‍त हुए हैं। दूसरी ओर, धरती के पुत्रों और गरीबों, स्‍थानीय स्‍कूल के शिक्षकों के सामाजिक क्षेत्र में उत्‍थान के बल पर उन्‍हें देश के सर्वोच्‍च निर्वाचित कार्यालयों में शोभायमान होने का मौका मिलता है।

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मंगलवार, 3 सितंबर 2013

China-US- North Korea: The Dynamics of a Strategic Triangle

China has developed a double policy in relation to North Korea. Its primary interest was and remains to maintain North Korea as a strategic buffer against the extension of American commercial, diplomatic and military influence into North Korea. For this reason, it has provided vital aid and diplomatic support to North Korea’s regime. With the establishment of the Six Parties Talks (SPT) – involving the United States, China, Japan, South Korea, Russia and North Korea – since 2003 and the development of UN sanctions to pressure the North to denuclearise and to abandon its plan to rise as a nuclear weapon state, China adopted a secondary role – as an intermediary to resolve the dispute over North Korean nuclear and missile activities. North Korea has declared often that it will not abandon its nuclear and missile program because it sees it as a valuable bargaining chip.

To be credible as an interlocutor, it has incrementally joined the UN sanctions and declared that North Korean missile and nuclear tests were unacceptable behavior. In the recently held Obama-Xi Jingpin summit in California (6–7 June 2013), both sides agreed that North Korea must denuclearise and that neither would accept it as a nuclear armed state. Obama declared that the United States would take steps to defend itself against North Korean threats and that the policy of sanctions and pressures would continue. The U.S. government spokesperson noted that Pyongyang’s nuclear and missile program would have “profound implications in the rest of Northeast Asia,” which neither China nor the United States would like to see.

In this summit, the common goal was recorded but there is no time line to fulfill it and the red line concerns the rise of Pyongyang as a “nuclear armed state” but its meaning is unclear because in recent years, North Korea has repeatedly made public declarations that it no longer accepts the nuclear non-proliferation treaty but is willing to talk and negotiate about its program, which it says it will maintain until there is a satisfactory political settlement in its favour. Although China supports UN sanctions on North Korea, it is debatable whether it actually implements them rigorously for fear of bringing down the Kim dynasty.

Washington too has a double policy, but it is aimed at both Pyongyang and Beijing. North Korea is America’s new frontier, and the endgame is to extend America’s commercial, diplomatic and military influence into the North. If Pyongyang denuclearises and makes a strategic deal with the United States, Japan and South Korea, that will bring American influence to the banks of the Yalu – the reason the Korean War was fought by China. If Pyongyang fails to denuclearise, the U.S. government will continue to expand its military activities in the region and in relation to Japan and South Korea and this will circumscribe the ability of the PLA generals and the North Korean generals to expand their manoeuvrability even as their military capabilities grow. Here, time is on Washington’s side and it is using it to establish the red lines towards both North Korea and China.

With Pyongyang, the red line is that eventually it must denuclearise. With Beijing, the red line is aimed at the PLA generals who have pushed for a forcible assertion of China’s military influence in the South China Sea and who, in retrospect, apparently gave wrong inputs to their political leaders in 2011–2012 that the U.S. and China’s neighbours were likely to accept the Chinese demand to deal with the contentious issues bilaterally and in a peaceful manner, which was a double message: that China could continue to expand its maritime activities and to assert its territorial claims while others had to act with restraint. Recently, the commander of the U.S. Pacific Fleet laid down two new markers in a visit to Malaysia: (1) “We will oppose the change of status quo by force by anyone,” Admiral Samuel Locklear, the head of the Pacific Command, noted and (2) “We need to retain the status quo until we get a code of conduct or a solution by party nations” [which include Malaysia, Vietnam, Philippines, Brunei, and Taiwan]. Locklear noted that the code of conduct would enable the military “to understand the boundaries of what they can do in the best interest for a peaceful solution.”

This approach is a diplomatic victory for Southeast Asian nations, which have asked for a multilateral approach, and a setback for Beijing, which has insisted on a bilateral approach. The complex process of negotiating a South China Sea protocol in a multilateral forum opens up a new diplomatic and political front for China’s political leaders and diplomatic experts while at the same time drawing a red line around the PLA generals and the advocates of an aggressive stance in the region. That is, the generals will have to cool their heels until the boundary (boundaries) of what they can do are established by interstate agreements. This is not a happy outcome for generals who prefer to work around ambiguity about the boundary line(s).

Another sign that Beijing’s diplomatic influence has peaked is revealed by the revival of North Korea-South Korea talks to reopen the Kaesong industrial zone (a major economic zone of North-South cooperation involving thousands of North and South Korean workers and hundreds of factories) and to revive the Kumgang mountain resort (a valuable tourist resort and source of foreign exchange). As well, the two seek to discuss humanitarian issues in the truce village at the DMZ line. Following months of threats and bickering, Pyongyang surprised the South Koreans with an offer of broad-based talks without preconditions and the South quickly accepted and met. The development of the bilateral channel of discourse between two sides of the Korean nation and a common history before 1945 are an interesting development in the sense that talking is better than fighting and, in this case, bilateral talks reduce the dependence on China as an intermediary.

In this fast moving scene, two Chinese dilemmas are emerging. (1) It is difficult for Beijing to navigate the pebbles in a bid to cross the big river of US-PRC-North Korea relations. With an established pattern of controlled escalation, Washington has the room to manoeuver in the region militarily, with its allies in the region, and with China. On the other hand China’s manoeuvrability is reduced as the U.S. establishes the red lines concerning proper conduct by North Korea on the nuclear and missile question and by China in the South China Sea. (2) At the same time, ways must be found by Beijing’s practitioners to negotiate the pebbles to cross the big river of internal bureaucratic politics. China’s internal policy triangle involves Xi Jingpin, the PLA and the Foreign Office.

From time to time, incidents related to China reveal the existence of provocative actions by semi-independent policy silos without apparent centralised policy coordination. China’s neighbours are learning that PLA’s actions may not be within the knowledge of China’s diplomats and even the top leaders and one must push back to ensure party control and diplomatic restraint by the Chinese authorities. This means that ways must be found to strengthen the hands of the Chinese diplomats and to establish red lines in the conduct of the PLA generals who do not answer to the Foreign Office or even their Ministry of Defence and remain, as in Mao’s days, and the days of the Long March, the arm of the Party.

Confucius advised the emperor to sit down and to face the South and seek harmony. It remains to be seen if the new emperor of China, Xi Jingpin, can face the North and secure the Korean peninsula and then face the South to secure the South China Sea and the Southeast Asian world. Not only does China have a new emperor in the form of Xi Jingpin, there is also a new strategic game in China’s north and south that will continue to be played out beyond the summitry with world leaders.


Temple Sculptures Of India

Temples of India are important examples of the grandeur that Indian sculpture speaks of. Mapping on a broad scale, there are two styles of Indian temple sculptures - the Nagara (North India) and the Dravidian (South India). Carving of the temple shikharas is the basic difference between the two structural types. Conversely besides this discrepancy the sculpture of Indian temples follow uniformity. Architectural elements include the vimanas, garbhagrihas, mandapa, lathe turned pillars, miniature towers and others. They are common to nearly all Hindu temple sculpture. Another interesting side of temple sculptures of India is the cave temples. More about Indian temple structure is mentioned in the following account.

Indian Temple Sculptures
Main motifs of Hindu temple sculptures consist of great epics such as Mahabharata, Ramayana, Puranas along with legends, plant and animal motifs, court scenes, famous beliefs, deities, eroticism and kirtimukhas. These temple sculptures can be classified in the following categories.

Central Indian Temple Sculptures
They are mainly crafted out of stone. These sculptures are known for their complex designs and amazing craftsmanship. These temple sculptures are ancient. Therefore, these shrines have immense historical importance.

Khajuraho temples are the main highlight of temple sculpture of Central India. Whether they are sacred or erotic, aestheticism is abundantly embedded in them. The Deogarh Temple of Gwalior has been built with the Gupta style.

These temple sculptures can be categorized into temple sculpture of Madhya Pradesh and temple sculpture of Chhattisgarh.

East Indian Temple Sculptures
East Indian temples include the ancient shrines of Orissa, West Bengal, Jharkhand and Bihar. These temples echo the culture and faith of the indigenous people. Konark and Puri are amongst the most imperative Hindu pilgrimage places. Konark is celebrated for Sun god temple and Puri is famous for Lord Jagannatha. Principally, these temples follow the Nagara style. Temples at Orissa, West Bengal, Bihar and Jharkhand are examples of East Indian temple sculpture.

West Indian Temple Sculptures
Columns and pillars of these temples are worth a visit. They are deliciously designed. These temples exhibit every detail. The stones here are filled with life. The Ghatesvara temple at Badoli and the Ambika Mata temple at Jagat are among the best examples of these temple sculptures. The BadolVCi temple is simple yet alluring. It includes a sanctum sanctorum having a curved super structure and an open foyer with six pillars and two pilasters for supporting a pyramidal spire. The walls of the heart of sanctorum are festooned with niches having sculpture.

Temple of Ambika Mata is very stunning. It houses a sanctum, a parapeted porch with projecting attics and an enclosed antechamber. Fine sculptures festoon the walls of sanctorum and hall. Super structures are of curvilinear and pyramidal types. Temples of Gujarat, Maharashtra and Goa exhibit the western Indian sculpture.

North Indian Temple Sculptures
The North Indian temple sculpture emerged during ancient India. They date back to the era of Mauryas. These temples are constructed on the lines of Nagara style. Temple towers are bee-hive shaped. These temples not only mirror the craftsmanship of Indian sub-continent but also the great spiritual significance. Indian states like Rajathan, Uttar Pradesh, Jammu and Kashmir house more than the Hindu temple sculpture. There are Jain temples as well. This sculpture is categorized by images of gods and goddesses, chunky flora sculpture and beautifully carved gateways. Places like Haryana and Punjab also have gurudwaras. Consequently, they give an inclusive glance on Sikh sculptures of India. Jammu and Kashmir, Delhi, Punjab, Uttar Pradesh, Rajasthan, Himachal Pradesh, Punjab, Uttaranchal and Haryana comprise the north Indian temple sculpture.

South Indian Temple Sculptures
Temples of South India are huge and etched with dedication, enthusiasm and love on stone. With their spirit these sculptures can bequeath an entirely unique identity on temple building in India. The lathe turned pillars, double mandapas and the kirtimukhas are unique architectural elements of South Indian temples. Some more shrines apart from the prime shrine are also erected in a specific temple complex. The types of the vimanas comprehend the number of shrines in a temple. For example, two shrines will certainly be housed in the dwikuta whereas trikuta will have three shrines. It was during the sovereignty of the Chalukyas and Cholas when the temple sculpture of South India received an impetus. In Hampi, the Vijayanagara Empire commemorated its art and sculpture on stone, the Cholas and Chalukyas are celebrated for their colossal temples. Miniature towers are another special facet of south Indian temple sculpture. A study of temples at Tamil Nadu, Karnataka, Andhra Pradesh and Kerala bring you a closer insight to the temple structures of this part of India.


Visiting these temples is a blissful experience. In the beginning nature worship and Buddhism dominated temple sculpture. With the emergence of the Magadhan Empire, a whole new change entered the temple sculpture. It was during the time of Mauryas and Sungas when the most discriminating sculptures were created. Also, with Gupta dynasty a number of patrons of art and architecture having rich taste came to limelight and gifted some really commendable sculptures to India. Therefore, in a nut shell, it can be said without a doubt that temple sculptures of India articulate the splendid sculpting and grandeur that was imbibed in them when they were newly constructed. They are able to cast a spell upon you so that you get an eye for every detail of splendor, beauty and grace of their sculpture.

सोमवार, 2 सितंबर 2013

Features Of Indian Sculpture

Indian history holds art, culture, dance, music, architecture, literary activities, painting and sculpting. It is not just about battles, kings, revolutions and struggles. Features of various arts and culture of India are the impact and incorporation of numerous cultures that entered with their invaders. The Indian style also evolved besides the foreign influences, particularly, in the sphere of temple building. The account below talks about the features of Indian sculpture. Check it out.

The Features of Ancient Indian Sculpture
Features of Indus Valley sculptures were entirely disjointedly dissimilar from the later ages. The terracotta sculptures or architectural adornments of the style of Indus Valley are unique.

Features of Vedic Indian sculpture (1500 BC-200 AD were also unique but were rural. Mauryans emerged in Magadha (North India). From about 545 BC to 550 AD Magadha was the center of cultural activity. The features of the Mauryan sculpture were mirrored mainly in the religious monuments that were erected during the dynasty. Later the golden age of Guptas ushered in India. The features of Gupta sculpture are found in the cave temples of India. These cave temples include Ajanta and Ellora.

Features of Buddhist Indian sculpture were leading in both these empires. As a matter of fact a majority of the Magadha dynasties have the influence of Buddhism. Therefore the art and architecture also demonstrate its authority. The features of Magadhan sculpture and architecture as well bring a lot of variety to light on forms of caves, pillars, and chaityas. Rock cut architecture also evolved in India during the zenith of the Magadha dynasty.

The South Indian temples witnessed a new-fangled sort of approach from 200 AD onwards, whether this approach was with features of Chalukya sculptures or the features of Pallava sculptures. The features of Badami Chalukya sculpture developed a new expression for itself which gained fame as the Karnata Dravida style. This was also popular as the Vesara architecture and sculpture. Idioms of both -southern and northern temple building are combined in this style. This mode was followed by some of the Western Chalukya temples. The features of Western Chalukya sculptures over and over again incorporated the copiously carved mandapdas, shikharas and outer walls.

On the other hand the temple walls of North Indian temple progressed in heights. Khajuraho temples were built during this time.

The features of Hoysala sculpture and the features of Vijayanagar sculptures came into existence from 1100 AD to 1526 AD. The Hoysala rulers were creative builders at the same time as the Vijayanagar imaginative wizardry was commemorated in the stone works at Hampi. The empire of majestic Cholas was also celebrated for the architecture and sculpture works. The bronze images were one of the major features of the Chola sculptures. The Chola bronze sculptures were well-designed and put rhythmic movements on show. Another ancient art of India included the features of Chola sculptures, features of Pala sculptures, features of Kushan sculpture, features of Satavahana sculptures, and the features of Rashtrakuta sculptures at a later stage and then the features of Nayak Sculpture.

The Features of Medieval Indian Sculpture
Features of sculpture in medieval India differed radically from that of primeval India. At this time Muslim rulers invaded India. The Persian art and architecture greatly influenced the native style. With the establishment of the Slave Dynasty in 1206 AD till 1526 AD saw the evolution of the features of Delhi Sultanate sculptures and architectures. The tall pillars, tombs, arched doorways, and minarets, merged with the Indian architecture. With this merger the formation of Indo-Islamic sculptures and architecture came into being.

Persian influence dissolved in the mainstream and largely affected the music, painting, attire, cuisine, and dialect. Indo- Islamic style crucially affected the Rajput architecture. The features of the Rajput sculptures hold evidence to this fact. The architectural elements of the monuments of the Rajput display that they were borrowed from Persian style of architecture. But the most luxurious buildings came into existence under the rule of Mughal Emperors. Whether it is the Taj Mahal- the monument celebrated worldwide or the Red Fort, the Mughals openhandedly contributed to the growth of Indian art. The features of Mughal sculpture and architecture would over and over again comprise of calligraphy, well maintained gardens, broad and complicated stone works, and the recurrent use of marble.

The Features of Modern Indian Sculpture
Modern Indian sculptures saw their origin from the Indo Saracenic sculptures. However these sculptures have traveled a long way from the colonial sculptures in India. The features of post-modern Indian sculptures and architectures will be unrecognizable in the present day and age only if they are differenciated with that of the ancient or medieval ones. With the course of time the style may have undergone scores of changes and these days they have a global magnetism.


The originality for which sculptures of India were wonderfully distinguished at a time has not changed. At that time also India was blessed with astonishing talents and the contemporary India is once again a powerhouse of architectural and sculptural talent. Sculpture has gradually evolved into installations and taken a modern character. No wonder, features of Indian sculpture are a source of versatility and varied expression and continue to be the same.

राष्‍ट्र के विकास में सड़कों का योगदान

सड़क परिवहन किसी भी राष्‍ट्र की जीवन रेखा मानी जाती है। आसानी से पहुंच संचालन में लचीलापन, घर-घर तक सेवा और विश्‍वसनीयता के कारण सड़क ढांचे का परिवहन प्रणाली में प्रमुख स्‍थान है। आर्थिक विकास के लिए यह महत्‍वपूर्ण है और समावेशी विकास का भी यह महत्‍वपूर्ण हिस्‍सा है। भारत में सड़क परिवहन में काफी विकास हुआ है और यह परिवहन का सबसे बेहतर तरीका बन गया है। यात्रियों की कुल संख्‍या में से 80 प्रतिशत से ज्‍यादा सड़क परिवहन से यात्रा करते हैं और माल की आवा-जाही 60 प्रतिशत से ज्‍यादा सड़क परिवहन से होती है।

सड़क नेटवर्क

भारत में लगभग 46.90 लाख किलोमीटर लंबाई की सड़कों का विशाल नेटवर्क है। भारत में सड़क घनत्‍व इस समय लगभग 1.43 किलोमीटर प्रति वर्ग किलोमीटर है, जो कई देशों से बेहतर है। सड़कों के नेटवर्क के विकास की जिम्‍मेदारी केंद्र सरकार, राज्‍य सरकारों और स्‍थानीय प्रशासन की होती है। राष्‍ट्रीय राजमार्गों की कुल लंबाई 82,803 किलोमीटर है, जो सड़कों के कुल नेटवर्क के दो प्रतिशत से कम है। लेकिन इन मार्गों से कुल सड़क परिवहन का 40 प्रतिशत से अधिक परिवहन होता है। राष्‍ट्रीय राजमार्गों की विकास की जिम्‍मेदारी केंद्र सरकार की है।

किसी भी देश के आर्थिक विकास की पहली जरूरत अच्‍छा और सुचारू परिवहन ढांचा होती है। सरकार की यह हमेशा कोशिश रही है कि वह त्‍वरित, सुरक्षित और कुशल सड़क‍ परिवहन नेटवर्क की व्‍यवस्‍था करे। समझा जाता है कि सड़क अवसंरचना के आधुनिकीकरण से उच्‍च सकल घरेलू उत्‍पाद को बढ़ाया जा सकता है। भारत के परिवहन क्षेत्र का सकल घरेलू उत्‍पाद में लगभग 5.5 प्रतिशत का योगदान है, जिसमें सड़क परिवहन का बड़ा हिस्‍सा है। भारत विश्‍व की तेजी से उभरती अर्थव्‍यवस्‍था के रूप में सामने आया है। विशेषज्ञों के अनुसार भारत अपनी पूरी क्षमता से तभी विकास कर सकेगा, जब बुनियादी ढांचा सुविधाओं में सुधार हो, जो इस समय बढ़ रही अर्थव्‍यवस्‍था की आवश्‍यकता के अनुरूप नहीं है। देश के आर्थिक और सामाजिक विकास की आवश्‍यकता के अनुरूप एक विशाल सड़क विकास कार्यक्रम की शुरूआत की गई है।

राष्‍ट्रीय राजमार्ग विकास परियोजना

राष्‍ट्रीय राजमार्ग विकास परियोजना कम विकसित क्षेत्रों के विकास के लिए एक फ्लैगशिप कार्यक्रम है। समर्पित क्षेत्रीय कार्यक्रमों जैसे पूर्वोत्‍तर के लिए विशेष त्‍वरित सड़क विकास कार्यक्रम और नक्‍सलवाद से प्रभावित क्षेत्रों के लिए विशेष कार्यक्रम शुरू किये गये हैं। अब देश में एक्‍सप्रेस-वे बनाने की योजना है। चालू वित्‍त वर्ष में तीन परियोजनाएं-राष्‍ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पूर्वी सीमावर्ती एक्‍सप्रेस-वे, मेरठ एक्‍सप्रेस-वे और लगभग छह सौ 50 किलोमीटर लंबा मुंबई-वडोदरा एक्‍सप्रेस-वे शुरू करने की योजना है। बंगलुरू-चेन्‍न्‍ई और दिल्‍लीजयपुर एक्‍सप्रेस-वे मार्गों का निर्माण भी प्रगति पर है। ये सभी एक्‍सप्रेस-वे मार्ग हरित परियोजनाएं हैं।

धनराशि की विशाल आवश्‍यकता को पूरा करने के लिए वित्‍त-पोषण और वित्‍तीय नीतियों के नए तरीकों जैसे ईंधन पर उप-शुल्‍क, विदेशी निवेश सहित निजी क्षेत्र की भागीदारी, बाजार से ऋण तथा बजट में व्‍यवस्‍था जैसे नए तरीके अपनाये गए हैं। इनमें एक बड़ा कदम सरकार-निजी क्षेत्र भागीदारी के जरिए विदेशी तथा घरेलू निवेश को आकर्षित करना है। निजी क्षेत्र में भागीदारी से आधुनिक प्रौद्योगिकी का इस्‍तेमाल बढ़ेगा, जिससे कार्य कुशलता बढ़ेगी। निजी क्षेत्र में खरीद के लिए और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में अधिक लचीली व्‍यवस्‍था है। इसलिए योजनाओं को तेजी से पूरा किया जा सकेगा। निजी क्षेत्र से पूंजी जुटाने के कारण सरकार के लिए अपने सीमित संसाधनों को अधिक कुशलता और कारगर ढंग से इस्‍तेमाल करने का मार्ग प्रशस्‍त हो गया है। सड़क निर्माण में कई नई प्रकार की सामग्री भी आ रही है, इसकी कम लागत को ध्‍यान में रखते हुए इसे बढ़ावा देना होगा।

देश में राष्‍ट्रीय राजमार्गों के विकास के लिए 12वीं पंचवर्षीय योजना में बजट में 1,44,769 करोड़ रूपये की व्‍यवस्‍था रखी गई है, 64,834 करोड़ रूपये आईईबीआर से और 1,87,995 करोड़ रूपये निजी क्षेत्र की भागीदारी से जुटाये जाएंगे।

राष्‍ट्रीय राजमार्गों के विकास के लिए देश में राष्‍ट्रीय राजमार्ग विकास कार्यक्रम की 1998 में शुरूआत की गई थी, जो सड़क विकास की अब तक की सबसे बड़ी परियोजना है। इस कार्यक्रम का उद्देश्‍य लगभग 50 हजार किलोमीटर लंबाई के राजमार्गों का निर्माण करना है। चार महानगरों के बीच चार लेन वाले राजमार्ग की कंनेक्‍टीविटी वाली स्‍वर्ण चतुर्भुज परियोजना पूरी हो गई है, जबकि उत्‍तर-दक्षिण-पूर्व-पश्चिम कॉरीडोर परियोजना पूरी होने वाली है। भूमि अधिग्रहण की रूकावटों, पर्यावरण और वन संबंधी आपत्तियों और उच्‍च लागत वाले ऋण आदि बाधाओं के बावजूद कई स्‍थानों पर राजमार्गों को चार लेन और छह लेन का करने का कार्य प्रगति पर है। अब तक 21 हजार किलोमीटर से अधिक मार्ग पर काम पूरा हो चुका है और लगभग 12,350 किलोमीटर मार्ग पर काम चल रहा है। अन्‍य फ्लैगशिप क्षेत्रीय कार्यक्रमों में एसएआरडी-एनए और नक्‍सवाद प्रभावित क्षेत्र में लगभग 12 हजार किलोमीटर लंबाई की सड़कें बनाने के कार्यक्रम हैं, जिनमें से लगभग 3800 किलोमीटर लंबी सड़कें बनाई जा चुकी हैं।

परियोजना की प्रणाली

अधिक से अधिक बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को सरकार-निजी क्षेत्र की भागीदारी से निर्माण-संचालन-हस्‍तांतरण (बीओटी) आधार पर पूरा करने पर जोर दिया गया है, ताकि स्‍वास्‍थ्‍य, शिक्षा आदि जैसे सामाजिक क्षेत्रों के लिए अधिक से अधिक सार्वजनिक धन उपलब्‍ध रहे। लेकिन व्‍यावहारिक रूप से अधिकतर परियोजनाओं को बीओटी प्रणाली से बनाना संभव नहीं होगा। हाल में जो बोलियां हुईं हैं, उनके रूझान से पता चलता है कि अधिकतर सड़क परियोजनाओं के लिए अनुकूल बोलियां नहीं मिली हैं। इसलिए हाल में मंत्रालय ने सड़क परियोजनाओं को टर्न-की इंजीनियरिंग प्रोक्‍योरमेंट कनसट्रक्शन (ईपीसी) अनुबंध आधार पर पूरा करने का फैसला किया है। इससे निर्माण में कम समय लगेगा और कार्य की गुणवत्‍ता भी बेहतर होगी। इसमें एक लाभ यह है कि निजी क्षेत्र की कार्यकुशलता भी बरकरार रहेगी और निजी उद्यमी अपने काम को तेजी से पूरा करने के लिए नई टेक्‍नोलॉजी का भी इस्‍तेमाल कर सकेंगे।

नई पहल

ई-टॉलिंग:  इस समय टॉल-प्‍लाजा की जो प्रणाली चल रही है, उसका अनुभव यह है कि प्‍लाजा पर वाहनों की काफी भीड़ हो जाती है और देरी भी होती है। इससे पार पाने के लिए सरकार ने देश भर में राष्‍ट्रीय राजमार्गों पर इलेक्‍ट्रोनिक टॉल-कलेक्‍शन (ईटीसी) प्रणाली अपनाने का फैसला किया है। इसके जरिए टॉल-प्‍लाजा पर चलते वाहनों से इलेक्‍ट्रोनिक तरीके से टॉल-शुल्‍क प्राप्‍त किया जा सकेगा। इस सिलसिले में प्रायोगिक परियोजनाएं हो चुकी हैं। इससे 2014 तक राष्‍ट्रीय राजमार्गों के हर टॉल-प्‍लाजा पर ईटीसी प्रणाली लागू करने का मार्ग प्रशस्‍त हो गया है।

नई सामग्री :  इतने विशाल कार्यक्रम के लिए धन की व्‍यवस्‍था के अलावा बड़ी मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों की भी आवश्‍यकता है। इसलिए निर्माण सामग्री का संरक्षण एक और महत्‍वपूर्ण विषय है। देश में राजमार्गों के निर्माण के विशाल कार्यक्रम को देखते हुए सीमित मात्रा में उपलब्‍ध संसाधनों जैसे रेत, मिट्टी, रोडी, सीमेंट, बिटुमेन आदि को बचाने की आवश्‍यकता है। दूसरी ओर देश के सामने औद्योगिकी कचरे-फ्लाईऐश, तांबे की छीजन, संगमरमर चूरे का गारा आदि जैसे औद्योगिक कचरे को रखने और निपटाने की समस्‍या है। इस बात की कोशिश की जा रही है कि सड़कों के निर्माण में इस्‍तेमाल की जा रही सामग्री के स्‍थान पर इन बेकार पदार्थों का इस्‍तेमाल किया जाए।


दुर्घटना पीडि़त लोगों का बिना भुगतान किये उपचार (सड़क सुरक्षा की पहल) : भारत में सड़क दुर्घटनाओं में हताहतों की संख्‍या सबसे अधिक होती है। वर्ष 2011 में लगभग पांच लाख सड़क दुर्घटनाएं हुईं, जिनमें 1.42 लाख से ज्‍यादा लोगों की मौत हुई। हर रोज़ लगभग 390 लोग हमारे देश में सड़क दुर्घटनाओं में मरते हैं। सड़क दुर्घटनाओं में मरने वालों में आधे से ज्‍यादा 20-65 वर्ष में उम्र के होते हैं। घर के कमाऊ सदस्‍य की मौत या विकलांगता से घर में गरीबी आती है और रहन-सहन का स्‍तर बिगड़ जाता है। इसके अलावा घर के सदस्‍य के मरने का दु:ख अलग होता है। बाहर सड़क पर निकलने की इतनी कीमत नहीं दी जा सकती। मंत्रालय ने इस संबंध में बहुसूत्री नीति अपनाई है। इस दिशा में पिछले दिनों एक दुर्घटना पीडि़त लोगों का बिना भुगतान किये उपचार की प्रायोगिक परियोजना शुरू की है, जो दुर्घटना के पहले 48 घंटों में उपयोगी है। इस योजना के अंतर्गत दुर्घटना के शिकार व्‍यक्ति को इन 48 घंटों के दौरान तुरंत नि:शुल्‍क उपचार उपलब्‍ध कराया जाएगा। इससे सड़क दुर्घटना में मरने वालों की संख्‍या में कमी आएगी।


PIB

रविवार, 1 सितंबर 2013

भूमि अधिग्रहण कानून पारित

लोकसभा ने भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास एवं पुनस्र्थापन विधेयक को पारित कर ऐतिहासिक कदम उठाया है। चूंकि इस बिल पर सर्वदलीय सहमति है, इसलिए राज्यसभा में भी इसके पारित होकर कानून का रूप ले लेने में अब कोई अड़चन आएगी, इसकी आशंका कम है। 1894 में जब अंग्रेजी हुकूमत ने भूमि अधिग्रहण कानून बनाया तो उसका मकसद भारतीय किसानों की जमीन का मनमाना उपयोग था। खेद है कि आजादी के 66 साल बाद तक वही कानून मामूली संशोधनों के साथ लागू रहा।

किसानों के संघर्ष के कारण ही सरकार अपेक्षाकृत अधिक कृषक-हितैषी कानून बनाने के लिए प्रेरित हुई। अगर इस कानून को इसकी मूल भावना के मुताबिक लागू किया गया तो विकास परियोजनाओं के लिए जमीन गंवाने वाले किसानों को उचित मुआवजा मिलेगा और उनका संतोषजनक पुनर्वास हो सकेगा। इस कानून को लेकर उद्योगपतियों में जमीन महंगी होने से परियोजना खर्च बढऩे जैसी कुछ आशंकाएं हैं। लेकिन अगर उद्योग एवं व्यापार जगत गहराई से सोचे तो पाएगा कि यह कानून उनके हित में भी है।

जनतांत्रिक चेतना के विस्तार के साथ खेत या खनन भूमि के परंपरागत मालिकों में अपने अधिकार की समझ गहरी हुई है। नतीजतन हाल के वर्षों में लगभग हर विकास परियोजना उद्योग जगत/सरकार और विस्थापित होने वाले समुदायों के बीच संघर्ष-स्थली में तब्दील होती गई है। नए कानून से कृषि-आधारित समुदाय अपने वर्तमान एवं भावी हितों को लेकर आश्वस्त हो सकेंगे, जिससे सकल विकास नीति में उन्हें हिस्सेदार बनाना आसान होगा।


एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में विकास थोपा नहीं जाना चाहिए, बल्कि इसका ऐसा स्वरूप सामने आना चाहिए जिसमें भागीदार बनना समाज के सभी तबकों को अपने फायदे में महसूस हो। नया कानून इसी दिशा में एक पहल है। इस कानून के संदर्भ में यह भी अहम है कि राजनीतिक दलों, किसान एवं अन्य जन-संगठनों, संसदीय स्थायी समिति आदि के बीच विचार-विमर्श से यथासंभव सहमति का मसविदा तैयार हो सका। मुमकिन है कि इससे भी कई समूह संतुष्ट न हों। मगर लोकतंत्र संपूर्ण नहीं, बल्कि यथासंभव सहमति से चलता है। नया भूमि अधिग्रहण कानून ऐसी सहमति का एक श्रेष्ठ उदाहरण है।

सीरिया और तेल संकट

आर्थिक अनिश्चितता से घिरे माहौल में तेल संकट की आशंका ने खतरे की घंटी बजा दी है। चर्चा सिर्फ एक बात की है कि क्या अमेरिका अगले एक-दो दिनों में अपने सहयोगी देशों के साथ मिल कर सीरिया पर हमला करने वाला है। हमले के सारे तर्क उपलब्ध हैं और इस बार शायद दुनिया में अमेरिकी सैनिक कार्रवाई का वैसा विरोध भी न हो, जैसा इराक पर हमले के दौरान नजर आया था।
विश्व जनमत कई बातों को लेकर सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल असद और उनकी सरकार से नाराज है। यह बात और है कि इस नाराजगी को खाड़ी क्षेत्र में एक और लड़ाई की दलील नहीं बनाया जा सकता। सीरिया में पिछले डेढ़ वर्षों से जारी गृहयुद्ध को बशर ने सचेत ढंग से शिया बनाम सुन्नी की शक्ल दी, जबकि इसकी शुरुआत सभी अरब तानाशाहियों के खिलाफ उठे प्रतिरोध आंदोलन के हिस्से के रूप में हुई थी।
राजधानी दमिश्क के करीब हाल में हुए स्नायु गैस के हमले में तीन सौ से ज्यादा आम नागरिकों की मौत ने उनकी सत्ता को पूरी तरह अलग-थलग कर दिया है। रासायनिक हथियारों का उत्पादन और उपयोग पूरी दुनिया में प्रतिबंधित है और अपने ही देश के निर्दोष लोगों के खिलाफ इसके इस्तेमाल जितना बर्बर कृत्य तो कोई हो ही नहीं सकता। सीरियाई हुकूमत शुरू में इस घटना से इन्कार करती रही, लेकिन हकीकत सामने आ जाने पर वह इसे विद्रोहियों की कारस्तानी बता रही है। समस्या यह है कि पूरे मामले की जांच के लिए वह संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षकों को अपने यहां आने नहीं देना चाहती।
बशर अल असद को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रूस और चीन का वीटो पावर अपने साथ होने का भरोसा है। साथ ही उन्हें यह भी लगता है कि मित्र देश ईरान के साथ युद्ध भड़क जाने और खाड़ी क्षेत्र में एक नया तेल संकट पैदा हो जाने के डर से अमेरिका और उसके मित्र देश इतनी आसानी से सीरिया पर हमला नहीं करने वाले। लेकिन यहां मामला अमेरिका की कूटनीतिक प्रतिष्ठा का है।
सुन्नी प्रभुत्व वाले देशों में यह कहने वाले कम नहीं हैं कि अमेरिका ने सुन्नी शासन वाले इराक पर तो व्यापक जनसंहार का कोई हथियार खोजे बगैर ही हमला बोल दिया, जबकि शिया शासन वाले सीरिया में ऐसे हथियारों के इस्तेमाल के बावजूद उसके खिलाफ कोई कार्रवाई करने को तैयार नहीं है। यह दलील सुन्नी अरब देशों पर अलकायदा की पकड़ और मजबूत बनाने वाली साबित हो सकती है।

दूसरी तरफ आम अरब जनमत अपनी सरकारों को हाथ बांधे अमेरिका के पीछे खड़ा देखने को भी तैयार नहीं है। यह बात अरब लीग के उस फैसले से जाहिर हो रही है, जिसमें उसने सीरियाई शासन की कटु आलोचना के बावजूद उस पर बाहरी हमले की वकालत करने से परहेज किया है। सीरिया पर पश्चिमी हमले के साथ बहुत सारे खतरे जुड़े हैं और अभी के माहौल में इससे बचना ही ठीक रहेगा। लेकिन तानाशाह सत्ताएं इसे कुछ भी कर डालने की छूट न मान लें, इसके लिए रूस और चीन को अमेरिका के अंध विरोध के बजाय बशर अल असद पर अपनी चाल सुधारने का दबाव बनाना चाहिए।

शनिवार, 31 अगस्त 2013

History of Sculpture in India

An imperative part of Indian art culture is dominated by sculptures in India. Indian sculptures started from bronze and other stones. Sculpture of India has its roots from the planet’s oldest Indus Valley Civilization to globally celebrated modern Indian sculpture art. Hinduism, Jainism, Buddhism and Islam in later centuries, the sculptures of India went on a new path. Their impact added beauty to complex carvings, caves, Stupas and other sacred buildings. Amongst the most magnificent examples of Indian sculptures are Taj Mahal of Agra and Khajuraho of M.P. History of Indian sculpture is as vast as their variety.

History of Sculpture in India
Records of sculpture of India are as old as Indus Valley Civilization. The most excellent example of this sculpture is the 3rd millennium Great Baths of Mohenjo-Daro. At that time Terracotta and mud bricks were used for sculptures. The time changed and so the forms of Indian sculpture and architecture. When the new religious faith- Buddhism emerged, the brick constructions and terracotta works were gradually replaced.

It was during the reign of Maurya dynasty when characters and scenes were carved from Hinduism, Buddhism and Jainism to a lesser extent.

The appearance of these sculptures seems as if the figures are posing for a photograph. With all themes from the beginning, there are instances of Hindu art's most enduring image: superb young women, full-breasted, nude and frequently in some noticeably athletic pose. Such type of images can be seen in famed temples of Khajuraho, of about 11th century AD. Seldom are they only feminine attendants, but mostly they are legendary characters.

Indian Sculpture in Early Centuries
Hindu and Buddhist art fell into the same tradition. The splendid Buddhist carvings on the Great Sanchi Stupa give the impression of completely being Hindu. But Buddhist sculpture holds a nature of its own when the faith moves from India to the northwest part of planet.

Gandhara Sculpture
A school of Buddhist sculpture is now in northwest Pakistan. It existed since1st century AD. Its ancient name was Gandhara. This region of northwest Pakistan is open to overseas influences incoming along the recently opened Silk Road. The Roman and Greek practicality in art is one impact of this kind from the west. This realism in Gandhara sculpture is delicately pooled with the confined traditions of India to fabricate Buddhist images of a gracefully conventional type.

Southern Sculpture
Kingdoms in south like Chola, Pallavas, Cheras, Pandyas, Nayaks and Chalukyas gave more impetus and patronage to Indian temple sculpture. In Northern part of India, the scenario was the very same. Though, there was difference in the basic style. The North Indian temples have bee-hive shaped towers; the South Indian forms follow the expressions of Dravidian art and sculptures. The ancient Indian sculptures, consisted of religious buildings above all. Temples in ancient India were heart of culture, art and knowledge.

Sculpture by Muslims
Muslim sculptures pioneered India to a completely different form of sculpture and architecture. Thus, Medieval Indian Sculpture observed the creation of dome shaped buildings. Other architectural components that augmented the beauty of the religious places include chhatris, chaajas, jharokhas and the like.

Modern Indian sculptures entirely drifted away from the Muslim sculptures. A variety of Indian sculptures has survived in India. This variety consists of Bronze, wooden, sand, stone and marble Indian sculptures. History of Indian cultures has therefore went through numerous changes over the ages. While some of the sculptures have endured the test of time, others stay behind just in form of carcasses. The contemporary Indian sculptures pursue more international expressions but the sources are intensely rooted in the Indian history of sculpture and art. History of Indian sculpture is illustrious and broad and is still creating new vocabulary.


शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

देश में निर्मित भारत का पहला विमान वाहक जहाज-आई एन एस विक्रांत

देश में बने सबसे पहले विमान वाहक जहाज (प्रोजेक्‍ट-71) का कोचीन शिपियार्ड लिमिटेड में जलावतरण किया गया। इसका नाम आईएनएस विक्रांत रखा गया। इसके साथ ही भारत विमान वाहक जहाज के डिजाइन और निर्माण करने वाले विश्‍व के प्रमुख देशों के क्‍लब में शामिल हो गया। इस जहाज का निर्माण 28 फरवरी 2009 को शुरू हुआ। चार वर्षों के अंदर विमान वाहक जहाज का जलावतरण एक सराहनीय उपलब्धि है। आईएनएस विक्रांत देश की सबसे अधिक प्रतिष्ठित और सबसे बड़ी युद्धपोत परियोजना बन गई है।

जहाजों का निर्माण करने वाले देश के प्रमुख यार्ड कोचीन शिपियार्ड लिमिटेड को भारतीय नौसेना के लिए देश के अंदर विमान वाहक जहाज बनाने की जिम्‍मेदारी सौंपी गई है। विमान वाहक जहाज का मूल डिजाइन भारतीय नौसेना डिजाइन निदेशालय ने तैयार किया। इस डिजाइन का और विस्‍तृत रूप बाद में कोचीन शिपियार्ड लिमिटेड ने तैयार किया।

निदेशालय ने युद्धपोतों के 17 से अधिक डिजाइन तैयार किये हैं, जिनके आधार पर देश के अंदर लगभग 90 जहाज बनाए गए हैं। लगभग 40 हजार टन के जहाज विक्रांत का डिजाइन तैयार करना इस निदेशालय की परिपक्‍व क्षमता का सबूत है। यह डिजाइनरों के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि है, विशेष रूप से इसलिए कि यह दुनिया का इतने बड़े आकार का पहला विमान वाहक जहाज है, जिसमें गैस टर्बाइन प्रणोदन (प्रोपलशन) जैसे कुछ खास फीचर हैं।

परियोजना के चरण-1 की समाप्ति पर जलावतरण के अवसर पर बताया गया कि डिजाइन के अनुसार विमान वाहक जहाज की लंबाई 260 मीटर है और अधिकतम चौड़ाई 60 मीटर है। जहाज के उतरने वाली मुख्‍य पट्टी तैयार है। 80 प्रतिशत से अधिक ढांचा भी तैयार है, जिसमें लगभग 2300 कक्ष हैं। 75 प्रतिशत से अधिक ढांचा खड़ा कर लिया गया है। प्रमुख मशीनें लगा दी गईं हैं, जैसे 80 मेगावाट बिजली बनाने वाले एल एम 2500 के दो गैस टर्बाइन, लगभग 24 मेगावाट बिजली बनाने वाले डीजल आलटरनेटर और मुख्‍य गियर बॉक्‍स भी लगा दिये गये हैं। विक्रांत को नावों के पुल के जरिए एरनाकुलम चैनल में उतारा गया। इसके बाद दूसरे चरण की फिटिंग्‍ज लगाई जानी हैं।

विमान वाहक जहाज एक छोटा सा तैरता हुआ शहर है, जिसके उड़न क्षेत्र का आकार फुटबॉल के दो मैदानों के बराबर है। इसकी केबल तारों की लंबाई 2700 किलोमीटर है। अगर इस तार को लंबाई में खोलकर बिछाया जाए, तो यह तार कोच्चि से दिल्‍ली तक पहुंच जाएगी। जहाज में 1600 कर्मचारी काम करेंगे।

आईएनएस विक्रांत से रूस के मिग 29के विमान और नौसेना के एलसीए लड़ाकू विमान का संचालन किया जा सकेगा। हेलीकॉप्‍टरों में कामोव 31 और देश में निर्मित एएलएच हेलीकॉप्‍टर भी शामिल होंगे। यह जहाज आधुनिक सीडी बैंड अर्ली एयर वार्निंग रडार और अन्‍य उपकरणों की मदद से अपने आस-पास की काफी बड़ी वायु सीमा के बारे में जानकारी प्राप्‍त कर सकता है। जहाज की रक्षा के लिए सतह से आकाश तक मार करने वाली मिसाइलें तैनात होंगी। ये सभी अस्‍त्र प्रणालियां देश में विकसित युद्ध प्रबंधन प्रणाली के जरिए समन्वित होंगी।

जहाज के लिए इस्‍पात भारतीय इस्‍पात प्राधिकरण लिमिटेड के राऊरकेला, बोकारो और भिलाई संयंत्रों से प्राप्‍त किया गया है। मेन स्विच बोर्ड, स्‍टेयरिंग गियर आदि लार्सेन एंड टुब्रों के मुंबई और तालेगांव संयंत्रों में बनाए गए हैं। एयर कंडिशनिंग और रे‍फ्रिजरेशन प्रणालियां पुणे में किर्लोसकर संयंत्रों में विकसित की गईं हैं। पंपों की आपूर्ति बेस्‍ट और क्रॉमपोटन, चेन्‍नई से की गई है। भेल ने एकीकृत प्‍लेटफॉर्म प्रबंधन प्रणाली की आपूर्ति की है और विशाल गियर बॉक्‍स गुजरात में एलेकॉन में बना है। बिजली के केबल कोलकाता के निक्‍को उद्योग से प्राप्‍त किये गये हैं।

विमान वाहक जहाज के जलावतरण से आईएनएस विक्रांत का पहला चरण पूरा हुआ है, जिसके अंतर्गत स्‍कीजम्‍प सहित लगभग 75 प्रतिशत ढांचा तैयार हुआ है। अब विक्रांत का दूसरा चरण शुरू होगा, जिसके अंतर्गत विभिन्‍न अस्‍त्रों और सैंसरों, प्रणोदन प्रणाली और विमान परिसर के समन्‍वयन का काम रूस की कंपनी मैसर्ज एनडीबी की सहायता से होगा। इसके बाद जहाज के बहुत सारे परीक्षण होंगे और 2016-17 के आस-पास इसे भारतीय नौसेना को सौंपा जाएगा।

जहाज का डिजाइन इस प्रकार का बनाया गया है कि यह परमाणु, जैविक और रासायनिक हथियारों के हमलों की स्थिति में अप्रभावित रहेगा।

इस परियोजना का निर्माण कई प्रकार की चुनौ‍तियों से घिरा हुआ था। विशेष स्‍टील के निर्माण से लेकर विशाल उपकरणों के ढांचों को तैयार करना और जहाज में लगाना बहुत बड़ी चुनौती थी। इन चुनौतियों का कोचीन शिपियार्ड लिमिटेड के कुशल और दक्ष विशेषज्ञों ने मुकाबला किया। शिपियार्ड ने वेल्डिंग के लिए विशेष प्रणाली विकसित की। उत्‍पादन कार्यों में तेजी लाने के लिए यार्ड ने यथासंभव पहले से ही विभिन्‍न ब्‍लॉकों की एसेंबली और इनकी फिटिंग का काम पूरा करने की तकनीकें विकसित कीं।

कोचीन शिपियार्ड भारत का सबसे श्रेष्‍ठ शिपियार्ड है। अपनी स्‍थापना से लेकर अब तक शिपियार्ड 90 से अधिक जहाजों का निर्माण करके इनकी आपूर्ति कर चुका है। देश का बना सबसे बड़ा जहाज कोचीन शिपियार्ड ने बनाया है। पिछले एक दशक में इस कंपनी ने अन्‍य देशों के लिए भी जहाज बनाए हैं और चालीस से अधिक जहाजों का निर्यात किया है।

नौसेना डिजाइन निदेशालय के डिजाइन के अनुसार देश में ही बनाया गया विमान वाहक जहाज आईएनएस विक्रांत भारतीय नौसेना की सबसे अधिक प्रतिष्ठित युद्धपोत परियोजना है। भारतीय नौसेना अब औरों से खरीदने वाली नौसेना नहीं है, बल्कि स्‍वयं निर्माण करने वाली नौसेना बन गई है।

PIB


गुरुवार, 29 अगस्त 2013

Contemporary Indian Painting

From the commencement of the last decade of the past century, artists in India started augmenting the forms that they employed in their work. Contemporary Indian Painting and sculpture both are equally important. Paintings and sculptures today have turned into a source of fascination and are assisting individuals to grow in their skill and develop their talent and aptitude by offering a medium for expression and appreciation to them. The name of Subodh Gupta is amongst the most eminent painters and sculptures of India. To gain more info about the contemporary painting of India, scroll down.

Contemporary Indian Artists
Contemporary painters and artists express the synthesis of a mixture of movements and styles in their work. They presented a variety of visual expressions and forms of various schools. They are delightfully harmonized with the aestheticism of the art of painting. In the work of leading artists far-reaching and innovative directions are reflected. These artists and painters include Vivan Sundaram, Atul and Anju Dodiya, Narayanan Ramachandran, Jitish Kallat, Bhupat Dudi, Subodh Gupta, Jagannath Panda, Ranbir Kaleka, Devajyoti Ray, Shreya Chaturvedi, Bharti Kher and Thukral and Tagra, Vagaram Choudhary and T.V.Santosh.

Forms of Expressions and Impetus of Contemporary Paintings
The variety of currents influencing Indian society appeared to boost up in complex time. Scores of artists went for new and imbibing styles of expression. The significant development overlapped with the materialization of novel galleries that took interest to endorse a broader series of art forms, for instance, Nature Morte in Delhi and its collaborator gallery Bose Pacia Gallery (New York and Kolkata). To add, Talwar Gallery in New Delhi and New York stands for a to-do list of assorted and globally renowned artists from India. The exodus maintains that the one who is present is the artist and not the art. In the year 2006, April, in UK, The Noble Sage Art Gallery was opened to concentrate entirely in Indian, Sri Lankan and Pakistani up to date art. The Noble Sage visualized their gallery as an opening to stage the South Indian present-day art scene, rather than looking to the Mumbai, Delhi, Mewar and Baroda schools. They predominantly focused on the work that came up from the Madras School. Ironically, plenty of artists were fashioned at the same, the nonexistence of gallery or white cube hold for newer endeavors. The absence of such galleries produced artists who were associated to the Bangalore art scene and those who shaped a sagacity of art-activism or art-community in a positive sense such as Surekha's ‘Communing With Urban Heroins’ in 2008 and ‘Un-Claimed and Other Urban F(r)ictions’ in 2010.

Versatility of Contemporary Indian Paintings
Contemporary Indian paintings are influenced from various parts of the planet. A number of artists flew to the West; the remaining ones expressed themselves while amalgamating their past with their up to date in western culture. For instance, Shyamal Dutta Ray was apprehensive about Bengal and village life, new artists such as Shreya Chaturvedi believes art should articulate for itself. According to her, today’s art must be in touch with the common public, it should connect to them and encourage them through some grand message or idea behind it.

Increase in communication regarding Indian art, in English and vernacular Indian languages as well, made it suitable in which art was professed in the art schools. Critical approach became exact and lead to re-thinking contemporary art practice in India.


Contemporary Indian Painting is wonderfully varied since the break of 21st century. Abstract work of art in contemporary India is gaining popularity day by day and as a means of owning inexpensive modern art. The last decade has seen increase in popularity of Art magazines such as Art India from Mumbai, Art and Deal, New Delhi, (edited and published by Siddharth Tagore) and Art etc from Emami Chisel, (edited by Amit Mukhopadhyay). These art magazines complemented the catalogues created by the particular galleries.

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