शनिवार, 20 जुलाई 2013

Government liberalises FDI sector

In order to give a push to the slow moving economy, government has introduced a major reform. It has  decided to liberalise and hike foreign direct investment (FDI) limits in insurance, retail, telecom, defence and a host of other sectors. The decision was taken during a meeting of senior cabinet ministers chaired by Prime Minister Manmohan Singh.

The major changes are:

1. In the insurance sector, it was decided to raise the sectoral FDI cap from 26 per cent to 49 per cent under automatic route under which companies investing do not require prior government approval.
2. It was decided to allow 49 per cent FDI in single brand retail under the automatic route and beyond through the Foreign Investment Promotion Board (FIPB).
3. The Foreign Direct Investment (FDI) cap for civil aviation was, however, left unchanged at 49 per cent.
4.  FDI cap in defence sector remained unchanged at 26 per cent but higher limits of foreign investments in 'state-of-the-art' technology manufacturing will be considered by the Cabinet Committee on Security.
5. In case of PSU oil refineries, commodity bourses, power exchanges, stock exchanges and clearing corporations, FDI will be allowed up to 49 per cent under automatic route as against current routing of the investment through FIPB.
6. In basic and cellular services, FDI was raised to 100 per cent from current 74 per cent. Of this, up to 49 per cent will be allowed under automatic route and the remaining through FIPB approval.
7. FDI of up to 100 per cent was allowed in courier services under automatic route.
8. In credit information firms 74 per cent FDI under automatic route would be allowed.

The decisions taken by the high level committee were based on recommendations of Mayaram Committee which had suggested relaxing investment caps in about 20 sectors. 

शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

Madhubani Paintings In India

Art has been an essential part of Indian heritage since ancient times. Folk art is as important as classical art forms. Folk art is inspired by Indian mythology. Madhubani painting is one of these celebrated folk art forms. This painting is also referred to as Mithila Art. This art form is distinguished by line drawings filled in by vivid colors and contrasts/ patterns. Traditionally, this style of painting has been done by the women of the region. Success of Madhubani paintings has stimulated even men folk to join to meet the growing demand. Tribal motifs and use of dazzling earthy colors have made these paintings famous. These paintings are fashioned with mineral pigments that artists prepare. It is done on newly plastered or a mud wall.

History of Madhubani Paintings

Madhubani painting originated in a little village known as Maithili, in the State of Bihar. Initially, the womenfolk drew the paintings on walls of their home, as design of their thoughts, dreams and hopes. With the course of time, these paintings gained importance of being a part of celebrations and special events, such as wedding. Bit by bit the Madhubani paintings in India crossed the fixed boundaries and began reaching specialists of art. They enjoy popularity both at the national andsthe international level.

Themes of Madhubani Paintings

Madhubani paintings are two-dimensional and linear works having mostly sacred but secular themes. Madhubani paintings have wide-ranging themes. Even though scenes from Hindu mythology still rule these paintings. Amongst the most commonly executed themes in the Madhubani paintings are the events from Ramayana and life of Krishna. Other deities as well reappear in the paintings repeatedly. The Ardhanariswar is an area of expertise of Mithila paintings of India. Madhubani paintings of India also esteem the sun and moon and treat them as subjects of holiness.
Some exceptionally delightful Madhubani paintings are those of the figurative and the secular types. Although less plentiful than the religious paintings, they are unrivaled in artlessness and elegance.
Often, scenes of rural life are also depicted in these paintings. Women indulged in various village activities such as carrying baskets on their heads, drawing water from a well, or a village hobo playing a flute are general themes of these types. A number of symbolic paintings also flourish, the tree telling life and vivacity and the fish symptomatic of fertility are the most common symbols of Madhubani art.

Materials Used in Madhubani Paintings

The women don’t use camel hair brushes to create their works of art, but use only plain, slatted bamboo sticks with wads of cotton to apply the paint. “The colours are made from vegetable dyes or are of natural origin and are prepared by the women themselves. Black is made by mixing soot with cow dung, yellow from turmeric, blue from indigo, red from red sandalwood, green from leaves and white from rice paste. The black outlines are drawn first and then the colour is filled into the spaces.
During the period 1966-68, a prolonged drought struck Madhubani and the neighboring region of Mithila. A new source of non-agricultural income had to be found to keep these people away from the pangs of hunger. The All India Handicrafts Board encouraged the women artists to create their paintings on handmade paper for commercial purposes. For the market, the work is done on handmade paper or cloth treated with cow dung to give it its distinctive look and identity.

आदिवासी संस्कृति के आधार

रंग, रूप और भाषा के आधार पर एक नस्ल के लोगों की पहचान और दूसरे से उसके फर्क को रेखांकित करने की कोशिश होती रही है। लेकिन जीवन के प्रति उनके दृष्टिकोण के अंतर को जब तक नहीं समझा जाए, तब तक आदिवासी और गैर-आदिवासी समाज के फर्क को हम नहीं समझ सकते और साथ ही इस बात को भी नहीं समझ सकते कि जब नई औद्योगिक नीति और औद्योगीकरण का बड़ा तबका स्वागत कर रहा है, वैसी स्थिति में आदिवासी समुदाय हर जगह उसके खिलाफ क्यों उठ खड़ा हुआ है। न सिर्फ झारखंड, बल्कि ओड़िशा और छत्तीसगढ़ में विश्व पूंजीवाद का मुकाबला करता क्यों दिख रहा है?

जन-विज्ञान ने संसार की सभी जातियों को रंग के आधार पर मुख्यतया तीन नस्लों में बांटा है। पहली नस्ल गोरों की है, जिसे हम काकेसियन कहते हैं। दूसरी नस्ल मंगोलों की है, जिनका रंग पीला होता है। तीसरी नस्ल काले लोगों की है। अन्य रंग इन्हीं रंगों के मेल से बने हैं। इसी तरह रूप के आधार पर विभाजन किया जाए तो अपने देश में चार प्रकार के लोग मिलते हैं। एक तरह के लोगों का कद छोटा, रंग काला, नाक चौड़ी और बाल घुंघराले होते हैं। ये संभवत: जनजातीय समुदाय के लोग हैं और उन्होंने अपना ठिकाना जंगलों में बना रखा है। इतिहासकारों के मुताबिक ये द्रविड़ों और आर्यों के पहले से यहां आकर बसे थे।

एक दूसरे किस्म के लोग वे हैं जिनका कद छोटा, रंग काला, सिर के बाल घने और नाक खड़ी और चौड़ी होती है। रंग और कद-काठी में ये आदिवासियों के समान दिखते हैं, लेकिन हैं आदिवासियों से भिन्न, और विंध्याचल के नीचे सारे दक्षिण भारत में फैले हुए हैं। ये द्रविड़ जाति के लोग हैं। तीसरी जाति के लोग आर्य हैं, जिनका रंग गोरा या गेहुंआ होता है; कद-काठी लंबी और नाक नुकीली होती है। लेकिन इस देश की उष्ण जलवायु और अन्य जातियों के वैवाहिक मिश्रण से उनका रूप-रंग भी आज बहुत बदल गया है। और रंग-रूप के लिहाज से चौथे लोग वे हैं जो म्यांमा, असम, भूटान, नेपाल, उत्तर प्रदेश, उत्तर बंगाल और कश्मीर के उत्तरी किनारे पर पाए जाते हैं। इनका रंग पीला, मुखाकृति चपटी और नाक पसरी हुई होती है। ये मंगोल जाति के लोग हैं।

भाषा के लिहाज से भी मनुष्य समुदाय का वर्गीकरण किया गया है। डॉ सुनीति कुमार चटर्जी का कहना है कि भारतीय जनता की रचना जिन लोगों को लेकर हुई है, वे मुख्यतया तीन भागों में विभक्त किए जा सकते हैं। आस्ट्रिक यानी आग्नेय, द्रविड़ और हिंद यूरोपीय। झारखंड में इंडो आर्यन समूह की भाषाएं सदानी में बदल गई हैं, कुरूक/ उड़ाव द्रविड़ समूह की भाषाओं से मिलती-जुलती हैं। संथाली, मुंडारी, हो और खड़िया को आस्ट्रिक समूह में रखा गया है। यानी भाषाई दृष्टि से झारखंड के आदिवासी आस्ट्रिक जाति और आस्ट्रिक भाषा परिवार के सदस्य हैं।

इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों ने भारत में जातियों और संस्कृतियों का जो समन्वय किया, उसी से हिंदू समाज और हिंदू संस्कृति का निर्माण हुआ। बाद में जो भी आए, उन्होंने इस हिंदू संस्कृति को स्वीकार किया और उसमें समाहित हो गए, चाहे वे मंगोल हों, यूनानी, यूची, शक, अभीर, हूण और तुर्क हों। लेकिन यह सर्वमान्य तथ्य है कि आग्नेय परिवार के आदिवासियों ने उस हिंदू धर्म को कभी स्वीकार नहीं किया।

संघ परिवार के लोग आदिवासियों को, जिन्हें हाल तक वे वनवासी कहते थे, हिंदू साबित करने की हरचंद कोशिश करते हैं। लेकिन हिंदू समाज में वनवासियों की हैसियत क्या है, इसे हिंदू धर्मग्रंथों में वर्णित कुछ कहानियों और मिथकों से समझा जा सकता है।

हनुमान को वनवासियों का पूर्वज बताते हुए उन्हें राम का परम सेवक होने का दर्जा दिया गया है। हैं वे सेवक ही। सूर्यवंशी आर्यपुत्र राम के चरणों में बैठने और वक्त-बेवक्त उन्हें कंधे पर लाद कर घूमने वाला सेवक। महाभारत की कथा के अनुसार एक आदिवासी युवक एकलव्य ने कौरवों और पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य से धनुर्विद्या सीखनी चाही तो उन्होंने सिखाने से तो इनकार कर ही दिया। अपने कौशल और लगन से उसने धनुर्विद्या सीख ली तो कहीं वह उनके शिष्य अर्जुन से प्रतिस्पर्धा न करने लगे, इसलिए गुरु दक्षिणा में उससे अंगूठा ही मांग लिया।

आज भी तथाकथित विकास के नाम पर आदिवासी समाज से कुर्बानी मांगी जाती है और अपनी बलि देने से इनकार करने पर उन्हें गोलियों से भून दिया जाता है। यह बात बार-बार दोहराई जाती रही है कि आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने की जरूरत है। मगर वास्तव में आदिवासियों के प्रति कोई संवेदनशीलता होती तो विकास के नाम पर उनके साथ होने वाली क्रूरता पर जरूर ध्यान जाता।

आदिवासी क्या सिर्फ विकास के नाम पर बलि चढ़ने के लिए हैं? आजादी के बाद से विभिन्न परियोजनाओं ने करोड़ों लोगों को उजड़ने पर विवश किया है। इन विस्थापितों में तीन चौथाई आदिवासी रहे हैं। आज भी उन्हें उजाड़ने और अपने पारंपरिक परिवेश और कुदरती संसाधनों से वंचित करने का सिलसिला जारी है। नाममात्र का मुआवजा देकर उनका सब कुछ छीन लिया जाता है। अगर वे इसके लिए राजी नहीं होते तो निर्ममता से उनका दमन होता है।
कलिंग नगर में वे अपनी जमीन पर टाटा कंपनी का कारखाना बनने का विरोध कर रहे थे, जहां पुलिस फायरिंग में बारह आदिवासी मारे गए। इसी तरह झारखंड राज्य का गठन होने के बाद कोयलकारो परियोजना का विरोध करने वाले आदिवासियों पर तपकारा में पुलिस फायरिंग हुई,   जिसमें सात आदिवासी और मुसलिम समुदाय का एक व्यक्ति मारा गया।
दरअसल रंग-रूप और भाषा की खाई को तो पाटा जा सकता है, लेकिन कुछ ऐसी बातें होती हैं, जिन्हें पाटना मुश्किल होता है। मसलन, जीवन के बारे में हमारा दृष्टिकोण, प्रकृति के साथ हमारे रिश्ते आदि। आदिवासियों और गैर-आदिवासियों की जीवन दृष्टि के फर्क को हम कुछ ठोस उदाहरणों से समझ सकते हैं।
ईश्वर की कल्पना किसी न किसी रूप में सभी धर्मावलंबी करते हैं। गैर-आदिवासी समाज ईश्वर की कल्पना सगुण रूप में एक सुपुरुष के रूप में करता है। राम, कृष्ण या विष्णु आदि अलौकिक शक्तियों से संपन्न पुरुष हैं। ईश्वर का निर्गुण रूप भी मानवीय गुणों से संपन्न है। जबकि आदिवासी प्रकृति पूजक होते हैं। वे पहाड़, जंगल और पेड़ को पूजते हैं।
पूरी हिंदू सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था वर्णाश्रम धर्म पर टिकी हुई है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, उसके चार भाग हैं। ब्राह्मण पुजारी-पुरोहित और शिक्षक होता है, क्षत्रिय के हाथ में शासन व्यवस्था, वैश्य के जिम्मे वानिकी और व्यापार और शूद्र के जिम्मे सभी की सेवा करना, सभी तरह का मानवीय श्रम करना। आदिवासियों में यह वर्ण व्यवस्था नहीं।
आदिवासी समाज श्रम आधारित समाज है और गैर-आदिवासी समाज दूसरे के श्रम के शोषण पर टिका समाज। खुद रिक्शा खींच कर जीवनयापन करना श्रम आधारित समाज की रचना करता है। जब कोई दो-चार-दस रिक्शा दूसरे से खिंचवा कर यही काम करता है तो कहा जाएगा कि वह दूसरे के श्रम के शोषण पर टिका है। गैर-आदिवासी समाज का भी एक बड़ा हिस्सा कृषि व्यवस्था पर टिका है, लेकिन वहां जमीन का मालिक वैसा व्यक्ति भी हो सकता है, जो खुद खेती न करता हो। पूरे उत्तर भारत में कृषि व्यवस्था दिहाड़ी मजदूरों पर टिकी हुई है। आदिवासी समाज में ऐसी कल्पना ही नहीं की जा सकती।
पूरी गैर-आदिवासी व्यवस्था अतिरिक्त उत्पादन और अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांतों पर टिकी है। विकास के लिए जरूरी है अतिरिक्त उत्पादन और मुनाफा। कुछ लोगों के श्रम से उनकी जरूरत से अधिक कृषि क्षेत्र में उत्पादन हुआ तभी मानव जाति के विकास का रास्ता खुला। इस व्यवस्था की विडंबना यह हुई कि इसमें शारीरिक श्रम की कीमत सबसे कम आंकी गई और इसलिए श्रम करने वाले को निकृष्ट माना गया। खेत में काम करने वाला, चमड़े का सामान बनाने वाला, कपड़े बुनने वाला- ये सभी दलित हैं और आर्थिक दृष्टि से भी सबसे अधिक विपन्न।
आदिवासी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था अतिरिक्त उत्पादन और अतिरिक्त मूल्य या मुनाफे के सिद्धांत का पूरी तरह निषेध करती है। वह उतना ही उत्पादन करती है जितने की उसे जरूरत है। वह कल की चिंता नहीं करती और इसलिए प्रकृति का उतना ही दोहन करती है जिससे उसका नुकसान न हो।
गैर-आदिवासी समाज में सभी में थोड़ी-बहुत वणिक बुद्धि होती है। यानी जोड़-तोड़, हिसाब-किताब करना। कल की चिंता और उसके लिए संचय। इसलिए गैर-आदिवासी समाज का कोई भी सदस्य धंधाकर सकता है। यह अलग बात है कि कोई ज्यादा प्रवीण होता है, कोई कम। लेकिन आदिवासी समाज का संपन्न से संपन्न व्यक्ति धंधानहीं कर सकता। संपन्न होने के बावजूद महाजनी नहीं कर सकता।
सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के इस अंतर का प्रतिफलन कलाओं के क्षेत्र में भी हुआ है। गैर-आदिवासी समाज में रंगमंच होता है और दर्शक दीर्घा या प्रेक्षागृह। कलाकार और दर्शक। लेकिन आदिवासी समाज में इस तरह का विभाजन नहीं। पीड़ा और उल्लास के क्षणों की भी सामूहिक अभिव्यक्ति होती है, उसमें सभी भागीदार होते हैं। फसल कटने के बाद चांदनी रात में नाचते वक्त आदिवासी समाज का हर औरत-मर्द कलाकार बन जाता है। दूसरी तरफ अगर कोई अच्छा बांसुरी बजाता है तो वह उसका अतिरिक्त गुण तो है, लेकिन इस वजह से उसे इस बात की छूट नहीं कि वह अपने खेत में काम न करे।
आदिवासी और गैर-आदिवासी समाज और उनकी संस्कृति में अंतर करने वाली ये कुछ बातें हैं। आदिवासी संस्कृति आदिम नहीं, बल्कि एक भिन्न संस्कृति है। विश्व पूंजीवाद से आदिवासियों का टकराव दरअसल दो संस्कृतियों का टकराव है। ये दिल मांगे मोरकी संस्कृति और सीमित संसाधनों के बीच जीवन बसर करने वाले आत्मतोषकी संस्कृति का टकराव है। हालांकि मुख्यधारा में लाने के नाम पर हम उनके इस सांस्कृतिक वैशिष्ट्य को नष्ट करने की हरचंद कोशिश कर रहे हैं।

जनसत्ता

गुरुवार, 18 जुलाई 2013

कौशल विकास को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहन

राष्ट्रीय नि‍र्माण नीति (एनएमपी) 2011 में कौशल विकास को प्रोत्साहन देने के लिए अन्य बातों के साथ-साथ प्रत्यक्ष करों में छूट के कई प्रस्ताव किए गए हैं। राष्ट्रीय कौशल विकास परिषद( एनएसडीएसी) के समन्वय के साथ उत्पादन क्षेत्र में अलग सुविधाओ के लिए कौशल विकास के लिए सार्वजनिक निजी भागीदारी( पीपीपी) परियोजना के तहत कुल खर्च( भूमि और भवन को छोडकर) में से 150 % की छूट दी जाती है।

राष्ट्रीय नि‍र्माण नीति के अनुरूप, वित्त अधिनियम 2012 में आयकर अधिनियम, 1961 में एक नई धारा 35 सीसीडी को जोड़ा गया है। इसके अनुसार व्यवसाय आय की गणना करते समय, एक कंपनी को कौशल विकास में हुए कुल खर्च( भूमि और भवन को छोडकर) में से 150 % की छूट बोर्ड द्वारा अधिसूचित परियोजना में निर्धारित दिशा-निर्देश के अनुरूप दिए जाते हैं।

कौशल विकास परियोजना को अनुमति प्रदान करने के लिए दिशा-निर्देश 15 जुलाई, 2013 को जारी अधिसूचना संख्या एस ओ 2166 के दवारा आयकर नियम, 1962 में नए नियम 6AAF, 6AAG और 6AAH जोड़े गए हैं। दि‍शानि‍र्देशों के प्रमुख महत्‍वपूर्ण अंश नि‍म्‍नलि‍खि‍त हैं

  • कंपनी जो कि‍सी भी वस्‍तु के नि‍र्माण के व्‍यवसाय (शराब और तंबाकू उत्‍पादों के अति‍रि‍क्‍त) में कार्यरत है या नि‍यम 6AAH के तहत वि‍शेष सुवि‍धाओं को देने में लगी है, वो कौशल वि‍कास में हुए खर्च में छूट पाने के लि‍ए मान्‍य होगी।
  • परि‍योजना के लि‍ए केंद्र या राज्‍य सरकार या स्‍थानीय नि‍काय या प्रशि‍क्षण संस्‍थान जो एनसीवीटी या एससीवीटी से संबंध हो में अलग सुवि‍धा के साथ प्रशि‍क्षण दि‍या गया हो।
  • राष्‍ट्रीय कौशल वि‍कास एजेंसी (एनएसडीए) योग्‍य कंपनि‍यों द्वारा फॉर्म संख्‍या 3CQ से मि‍ले आवेदनों की जांच के लि‍ए नोडल एजेंसी होगी। एनएसडीए से मि‍ली सि‍फारि‍शों के बाद केंद्रीय प्रत्‍यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) कौशल वि‍कास परि‍योजनाओं को अधि‍सूचि‍त करेगी।
  • अधि‍सूचि‍त कौशल वि‍कास परि‍योजनाओं में हुए सभी प्रकार के खर्च को खंड 35 सीसीडी के तहत छूट के लि‍ए योग्‍य माना जाएगा।
  • कौशल वि‍कास परि‍योजना को चलाने वाली कंपनी खंड 35 सीसीडी के तहत अधि‍सूचि‍त परि‍योजनाओं के लि‍ए अलग लेखा रि‍कॉर्ड बनाएंगी और इनका लेखांकन करायेगी।
  • कौशल वि‍कास परि‍योजना के तहत प्रस्‍तावि‍त कर्मचारि‍यों या नए भर्ती कि‍ए गए कर्मचारि‍यों को प्रशि‍क्षण दि‍या जाएगा। खंड 35 सीसीडी के तहत वर्तमान के कार्यरत कर्मचारि‍यों को भर्ती के 6 महीने के बाद प्रशि‍क्षण देने पर यह मान्‍य नहीं होगा।

किशोर न्याय कानून

उच्चतम न्यायालय देश में महिलाओं के प्रति हो रहे अपराधों में किशोर लडकों की बढ़ती भागीदारी के मद्देनजर किशोर न्याय कानून के तहत किशोर की आयु घटाकर 16 साल करने से इंकार करते हुये फिलहाल इस मांग और विवाद पर विराम लगा दिया है। बलात्कार और बलात्कार के प्रयास तथा महिलाओं का शील भंग करने के प्रयास जैसे संगीन अपराधों में किशोरों की भूमिका के मद्देनजर ऐसे मामलों में लिप्त होने की स्थिति में 18 से 16 साल की आयु के किशोर को किशोर न्याय कानून के दायरे से बाहर रखने की मांग की जा रही थी।

पिछले एक साल की घटनाओं पर यदि नजर डालें तो पता चलता है कि महिलाओं के प्रति होने वाले यौन अपराधों में 16 से 18 साल की आयु के किशोरों की भूमिका में तेजी से वृद्धि हुई है। लेकिन मौजूदा आंकडों के आलोक में देश की शीर्ष अदालत की राय है कि ऐसे अपराधों में किशोरों की भागीदारी में जबरदस्त बढोत्तरी होने का तर्क सही नहीं है क्योंकि इनमें करीब दो फीसदी की ही वृद्धि हुई है।

किशोर बच्चों को अपराधियों के बीच रखने की बजाए उन्हें सुधारने की उम्मीद से ही वर्ष 2000 में किशोर न्याय: बच्चों की देखभाल और संरक्षण कानून बनाया गया था। किशोर न्याय कानून के प्रावधानों के तहत किशोर की परिभाषा अलग है, इसलिए संगीन अपराध के बावजूद भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के तहत उन्हें दंडित नहीं किया जाता। किशोर न्याय कानून के तहत किसी अपराध में 18 साल से कम आयु के किशोर के शामिल होने पर उसे बाल सुधार गृह भेजा जाता है। इसी कानून के तहत ही उसके खिलाफ किशोर न्याय बोर्ड में कार्यवाही होती है।

उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि किशोर न्याय: बच्चों की देखभाल और संरक्षण कानून 2000 की धारा 15:1::जीः के तहत जघन्य अपराध में दोषी पाये जाने के बावजूद एक किशोर 18 साल का होते ही रिहा कर दिया जाता था लेकिन इस कानून में 2006 में संशोधन के बाद स्थिति बदली है। अब यदि कोई किशोर ऐसे अपराध में दोषी पाया जाता है तो उसे तीन साल की सजा काटनी ही होगी भले ही वह 18 साल का हो चुका हो।

न्यायालय की इस व्यवस्था से स्पष्ट है कि यदि किसी किशोर ने 17 साल की आयु में अपराध किया है तो उसे दोषी पाये जाने की स्थिति में 18 साल की उम्र के बाद भी दो साल सलाखों के पीछे गुजारने ही होंगे।

दिल्ली में पिछले साल दिसंबर में चलती बस में 23 वर्षीय युवती से सामूहिक बलात्कार की घटना में शामिल छह व्यक्तियों में एक किशोर था और इस समय उस पर किशोर न्याय कानून के तहत अलग मुकदमा चल रहा है। इसी तरह मेघालय में पिछले साल हुए सामूहिक बलात्कार की घटना में गिरफ्तार 16 युवकों मे से आठ 13 से 18 साल की आयु के थे। इसी तरह मेघालय के बिर्नीहाट में सामूहिक बलात्कार की घटना के सिलसिले में गिरफ्तार तीन आरोपियों में कम से कम एक नाबालिग था।

राष्‍ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आँकड़ों के अनुसार 2012 में भारतीय दंड संहिता के तहत अपराधों के आरोपों में 18 साल से कम आयु के 35465 किशोर गिरफ्तार किये गये थे। इनमें 33793 लड़के और 1672 लड़कियाँ थीं। ब्यूरो के आँकड़ों के मुताबिक भारतीय दंड संहिता के तहत हुए अपराधों में किशोरों की भागीदारी 1.2 फीसदी थी जबकि प्रत्येक एक लाख किशोरों में इनकी अपराध दर 2.3 फीसदी थी।

यदि पिछले एक दशक के आँकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाये तो पता चलता है कि इस दौरान इसमें काफी वृद्धि हुई है। वर्ष 2011 की तुलना में 2012 में किशोरों द्वारा किये गए अपरधों में भी 11.2 फीसदी की वृद्धि हुई है।

इन आँकड़ों से यह भी पता चलता है कि 2002 से यौन अपराधों में किशोरों की संलिप्तता में वृद्धि हो रही है। पिछले साल ऐसे अपराधों में 2239 किशोर गिरफ्तार किये गये थे। इनमें से 1316 किशोरों पर बलात्कार के आरोप थे जबकि 2011 में बलात्कार के आरोप में 1149, 2010 में 858, 2009 में 798 और 2002 में 485 किशोर ही गिरफ्तार किये गये थे।

पिछले एक दशक में यौन अपराधों में इन किशोरों की भूमिका में तेजी से इजाफा हुआ है। वर्ष 2001 में बलात्कार के आरोप में करीब 400 किशोर पकड़े गये थे जबकि 2011 में इनकी संख्या बढ़कर 1149 तक पहुंच गयी थी।

शायद यही वजह थी कि दुष्कर्म और जघन्य अपराधों में किशोर लड़कों के शामिल होने की बढ़ती घटनाओं के कारण किशोर की आयु सीमा को नये सिरे से परिभाषित करने की मांग जोर पकड़ रही थी।

महिलाओं के साथ यौन अपराधों में किशोरों की बढती भूमिका पर संसदीय समिति ने भी चिंता व्यक्त की थी। संसद की महिला सशक्‍तिकरण मामलों पर गठित समिति ने भी महिलाओं के प्रति यौन अपराधों में 16 से 18 साल की उम्र के किशोरों की भूमिका के मद्देनजर पुरूष किशोर की आयु 18 साल से घटाकर 16 साल करने की सिफारिश की थी। समिति का मानना था कि किशोर न्याय कानून के तहत लड़के और लड़कियों की किशोर उम्र एक समान यानी 18 साल करने के अपेक्षित परिणाम नहीं मिले हैं।

कुछ समय पहले तक अपराध की दुनिया में किशोरों के शामिल होने का ठीकरा उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, गरीबी, निरक्षरता और अभावों पर फोड़ा जाता था लेकिन अब देखा जा रहा है कि संभ्रांत परिवार के किशोरों में भी इस तरह की आपराधिक प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है।

मौजूदा कानून के तहत किसी भी किशोर आरोपी का न तो नाम सार्वजनिक किया जा सकता है और न ही उसे सामान्य आरोपियों के साथ जेल में रखा जा सकता है। संगीन अपराध में लिप्त होने के बावजूद नाबालिग को उम्र कैद जैसी सजा भी नहीं दी जा सकती है। किशोर न्याय कानून के तहत उसे तीन साल तक ही बाल सुधार गृह में रखा जा सकता है और दोष सिद्ध होने के बावजूद उसे सरकारी नौकरी या दूसरी सेवाओं से न तो वंचित किया जा सकता है और न ही चुनाव लड़ने से रोका जा सकता है।

सवाल यह है कि आखिर अपराध और विशेषकर महिलाओं के प्रति अपराधों में किशोर युवकों की भूमिका में तेजी से इजाफा कैसे हो रहा है। समाज में ऐसे तत्वों की कमी नहीं है जो इन किशोरों को पथभ्रष्‍ट करने और अपनी विकृत मानसिकता से उपजे मंसूबों को पूरा करने के लिये उन्हें अपराध की दुनिया में ढकेलने से गुरेज नहीं करते है। इसके अलावा समाज में आ रहे खुलेपन, सिनेमा और टेलिविज़न पर दिखाये जा रहे विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों और इंटरनेट की दुनिया के कारण किशोरो में बढ़ रही उत्सुकता को भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता।

अकसर देखा गया है कि गंभीर अपराध में किसी किशोर के गिरफ्तार होने पर सबसे पहले उसके नाबालिग होने की दलील दी जाती है। इस संबंध में स्कूल में दर्ज आरोपी की उम्र का हवाला दिया जाता है। कई मामलों में ऐसा भी हुआ है कि स्कूल में कम उम्र दर्ज कराई गयी लेकिन वैज्ञानिक तरीके से आरोपी की आयु का पता लगाने की कवायद में दूसरे ही तथ्य सामने आये।

चूंकि देश की सर्वोच्च अदालत ने जघन्य अपराधों में किशोरों की संलिप्तता के बारे में उपलब्ध आँकड़ों के आधार पर किशोर कानून में परिभाषित किशोर की परिभाषा में किसी प्रकार के हस्तक्षेप से इंकार करते हुए कहा है कि पर्याप्‍त आँकड़े उपलब्ध होने तक ऐसा नहीं किया जा सकता है, इसलिए अब महिलाओं के प्रति यौन हिंसा के अपराधों में किशोरों की संलिप्तता के बारे में राष्‍ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के पिछले एक दशक के आँकड़ों के साथ ही तमाम तथ्यों और आँकड़ों तथा संसदीय समिति की सिफारिश के आलोक में संसद को ही किशोरों की मनःस्थिति में सुधार और उनके कल्याण के लिये नये उपायों पर विचार करना होगा।



अनूप भटनागर

बुधवार, 17 जुलाई 2013

Miniature Paintings In India

Miniature paintings are amongst the scores of things that make an Indian proud of rich cultural legacy of his country. Miniature paintings in India are celebrated globally for their exquisiteness, elegance and faultless detailing. As the name suggests, Miniatures paintings are complicated, multihued paintings. They are small in size, scrupulously executed with delicate brush strokes. India enjoys a long and diverse tradition of miniature paintings. More about these paintings is embellished in the following account.

History of Miniature Paintings in India

Miniature Paintings began taking shape in India in 6th-7th century AD, when Kashmiri Miniatures first emerged. These paintings developed through centuries. Miniature artists conveyed realism that survived afar particular vantage point. When Mughals in 16th century influenced the political horizon of India, Miniature Paintings get a momentum. Mughal rulers of Malwa, Deccan and Hindu Rajas of Rajasthan also gave their benefaction on this sublime art form. The rich, flamboyant miniature paintings created under Mughals encouraged strong Persian sway. They were patrician, strong and individualistic in portraiture enhanced with the portrayal of luxurious court scenes and hunting expeditions of sovereigns. Numerous manuscripts with excellent illustrations also existed. Flowers and animals were also amongst the common images of the paintings. Miniature painters at diverse medieval courts revealed the potential of immeasurable self-expression in their paintings.

Schools of Miniature Paintings in India

Schools of the Miniature paintings of India include:
  • Pala School- The initial instances of the Indian Miniature painting are linked to the Pala School dating back to the 11th century. It highlighted the figurative use of color in the paintings, which was derived from tantric ritual. The other characteristics include using a dexterous and elegant line, modeling forms by expressive and delicate variation of pressure, employing natural color for painting human skin etc.
  • Jain School- It laid great stress on style. Exclusive features of this school include heavy gold outlines, strong chaste colors, attenuation of dress to angular segments, modish figures of ladies, enlarged eyes and square-shaped hands. Its influence can be seen on Rajasthani and Mughal paintings also.
  • Mughal School- Painting bloomed with courtly scenes. Mughal emperors introduced their style of miniature paintings with Persian stimulation. Court scenes were depicted in splendor. The hilly landscapes were usually the backdrop. Flowers and animals were immensely depicted.
  • Rajasthani School- Several distinct schools of painting evolved in Rajasthan. The four main schools are- Mewar, Marwar, Bundi-Kota and Amber-Jaipur. The most imperative Marwar centers were Bikaner and Jodhpur. Rulers of these centers employed Mughal-trained artists. Rajsthani miniatures are the most eminent among paintings flourished under the patronage of court. In each and every part of Rajasthan, groups of extremely talented and creative artists fashioned these noteworthy paintings on wooden tablets, paper, leather, marble, ivory panels, walls and cloth.
  • Kashmir School- This school of miniature painting existed taking a new origin during the late 18th century, enduring through the l9th century to the early decades of the 20th century.
  • Bengal School- Scores of contemporary painters have been influenced by up-to-the-minute styles.
Nepali School and Orissa School are other notable schools of miniature paintings in India. There are even more art schools giving spotlight to historical miniature art styles. In the present day and age, the art of miniature painting in India is active with all cultural amalgamation. There are many artists in India who have dedicated their entire life to miniature painting with various mediums. Amongst the renowned miniature painting artists of India, the name of Amita shines brilliantly. The colors used in miniatures are by and large derived from natural sources like vegetables, conch shells, minerals and indigo. Some of the paintings also use pure gold and other precious stones and gems to haul out the colors for titivating these miniature paintings. Undoubtedly, Indian miniature paintings are a feather to the cap of Indian art and paintings.

मनोरोगियों के गरिमामय जीवन के लिए उनका सशक्तिकरण

मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य, मावन विकास के महत्‍वपूर्ण विकास को दर्शाता है। यह तंदरूस्‍ती और जीवन की गुणवत्‍ता का मुख्‍य निर्धारक होने के साथ सामाजिक स्थिरता का आधार है। खराब मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य का सामाजिक और आर्थिक स्‍तर पर व्‍यापक और दूरगामी प्रभाव पड़ता है जो कि गरीबी, बेरोज़गारी की उच्‍च दर, खराब शैक्षिक और स्‍वास्‍थ्‍य परिणाम की वजह बनता है। मानसिक और भावनात्‍मक तंदरूस्‍ती को मानव विकास के मुख्‍य संकेतक के रूप में पहचानने की ज़रूरत है। मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य और मनोसामाजिक दृष्टिकोण को सभी विकासात्‍मक तथा मानवीय नीतियों, कार्यक्रमों में शामिल करने की आवश्‍यकता है।
मानसिक और मनोसामाजिक रूप से विकलांग व्‍यक्ति विश्‍व की जनसंख्‍या के एक महत्‍वपूर्ण अनुपात को दर्शाते हैं। विश्‍व में चार में से एक व्‍यक्ति अपने जीवनकाल में मानसिक रोग से गुज़रता है। लगभग एक मिलियन लोग हर साल आत्‍महत्‍या करते हैं। बीमारियों की बढ़ती संख्‍या में अवसाद को तीसरा स्‍थान दिया गया है जिसके 2030 तक पहले स्‍थान पर पहुंचने की उम्‍मीद है। भारत में सामान्‍य मनोविकार के 6-7 प्रतिशत मामले हैं और गंभीर मानसिक विकार के 1-2 प्रतिशत मामले हैं। करीब 50 प्रतिशत लोग गंभीर मानसिक विकार से जूझ रहे हैं जिन्‍हे इलाज नहीं मिल पाता और सामान्‍य मानसिक विकार के मामले में यह आंकड़ा 90 प्रतिशत से अधिक है। मानसिक विकारों के इस प्रतिशत को देखते हुए यह ज़रूरी है कि मनोरोग के लिए इलाज उपलब्‍ध कराने के साथ आम लोगों के कल्‍याण के लिए मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं को बढ़ावा दिया जाए।

मानसिक और मनोसामाजिक रूप से विकलांग व्‍यक्तियों को अक्‍सर गलत धारणाओं की वजह से भेदभाव का सामना करता पड़ता है। मानसिक और मनोसामाजिक विकार से पीडि़त व्‍यक्तियों का शारीरिक शोषण भी किया जाता है। इस धारणा के कारण कि ऐसे व्‍यक्ति अपनी जिम्‍मेदारियों का निर्वहन नहीं कर सकते और अपने जीवन के बारे में फैसले नहीं ले सकते, अधिकांश देशों में उन्‍हें अपने सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक अधिकार इस्‍तेमाल करने में दिक्‍कत आती है।
हालांकि मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य स्थितियां, विकलांगता के प्रमुख कारणों में से एक हैं। मानसिक और मनोसामाजिक विकार से पीडित व्‍यक्तियों को जीने की मूलभूत आवश्‍यकताओं को बनाए रखने के लिए संसाधनों की कमी से जूझना पड़ता है। इसके अलावा विकास संबंधी नीतियों और कार्यक्रमों में यह सबसे ज्‍यादा उपेक्षित समूहों में से एक है। विकास प्रयासों में मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य को शामिल करना एक किफायती रणनीति है और गरीबों के हित में है।  अधिकांश मनोरोगों के लिए किफायती दर पर प्रभावी इलाज उपलब्‍ध हैं। बाल विकास, शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य, सामाजिक कल्‍याण नीतियों और कार्यक्रमों में मानसिक और मनोसामाजिक पहलुओं को शामिल किया जाना चाहिए।

भारत में राष्‍ट्रीय मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य कार्यक्रम (एनएमएचपी) की शुरूआत 1982 में हुई थी। इसका उद्देश्‍य सभी को न्‍यूनतम मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य देखभाल उपलब्‍ध और सुलभ कराना, मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य संबंधी ज्ञान के बारे में जागरूकता लाना और मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य सेवा के विकास में सामुदायिक भागीदारी को बढ़ावा देना तथा समुदाय में स्‍वयं-सहायता को प्रोत्‍साहित करना है। धीरे-धीरे मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं के दृष्टिकोण को अस्‍पताल आधारित देख-भाल (संस्‍थागत) को सामुदायिक आधारित देखभाल में बदल दिया गया है क्‍योंकि मनोरोगों के अधिकांश मामलों में अस्‍पताल की सेवाओं की ज़रूरत नहीं होती और इन्‍हें सामुदायिक स्‍तर पर ठीक किया जा सकता है।

नौंवी पंचवर्षीय योजना के दौरान जिला मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य कार्यक्रम की शुरूआत 1996 में हुई थी और वर्तमान में 30 राज्‍यों और केंद्र शासित प्रदेशों के 123 जिलों में चल रही है। इसके अतिरिक्‍त मनोरोगियों की पूर्व जांच और उनके इलाज के लिए जिला मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य कार्यक्रम में अब उन्‍नयाक और निवारक गतिविधियों को शामिल किया गया है जिसमें स्‍कूल मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य सेवाएं, कॉलेज परामर्श सेवाएं, कार्यस्‍थल पर तनाव कम करने और आत्‍महत्‍या रोकथाम सेवाएं शामिल हैं। मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य क्षेत्र में मानव संसाधन की उपलब्‍धता बढ़ाने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं ताकि मनोरोगियों पर पूरा ध्‍यान दिया जाए और जो व्‍यक्ति मनोरोग का शिकार हैं उन्‍हें शुरूआती चरण में ही सही सलाह और परामर्श मिल सके। एनएचएमपी के घटकों को राष्‍ट्रीय ग्रामीण स्‍वास्‍थ्‍य मिशन के दायरे में लाया जा रहा है ताकि राज्‍य मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं संबंधी आवश्‍यकताओं के अनुसार योजना बना सके। राष्‍ट्रीय मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य कार्यक्रम के लिए ग्‍यारहवीं पंचवर्षीय योजना खर्च (2012 तक) में 623.45 करोड़ रूपए की स्‍वीकृति दी गई है।

हालांकि मनोरोगियों की समस्‍याओं को पहचानते हुए सरकार ऐसे मरीज़ों के लिए मानवीय, इन पर केंद्रित कानूनी ढांचा उपलब्‍ध कराने की प्रक्रिया में है। प्रस्‍तावित मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य देखभाल विधेयक लाखों मनोरोगियों की जिंदगियों में परिवर्तन ला सकता है जिनके साथ अक्‍सर सामुदायिक स्‍तर और स्‍वास्‍थ्‍य देखभाल संस्‍थागत प्रतिष्‍ठानों दोनों में अमानवीय और अपमानजनक बर्ताव होता है तथा उनका उपहास उड़ाया जाता है।
प्रस्‍तावित मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य देखभाल विधेयक अधिकारों की दृष्टि से महत्‍वपूर्ण है जिसमें काफी हद तक मनोरोगी की पसंद और राय को प्रमुखता दी गई है।  'अग्रिम निर्देश' जैसे प्रावधान हर व्‍यक्ति को अधिकार देते हैं कि वह यह निर्णय ले सके कि वह किस तरह अपनी देखभाल और इलाज चाहते हैं। इसके अन्‍य प्रावधान इस प्रकार हैं:

  • मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य केंद्र में दाखिल मनोरोगी के पास आगंतुकों से मिलने, फोन कॉल उठाने या मेल आदि का जवाब देने या उसे इंकार करने का अधिकार होगा।
  • मनोरोगी को अपने इलाके/निवास पर इलाज कराने का अधिकार होगा तथा मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य केंद्रों में वह केवल न्‍यूनतम इलाज/देखभाल ले सकता है। इसका उद्देश्‍य मरीज़ को समाज में रहने, उसका हिस्‍सा बने रहने तथा जहां तक मुमकिन हो सके उससे अलग नहीं करना है।
  • हर मरीज़ को निर्दयी, अमानवीय तथा अपमानजनक व्‍यवहार से सुरक्षा पाने का अधिकार है और मानव स्‍वास्‍थ्‍य केंद्र में शिक्षा, विश्राम, धार्मिक कार्य की सुविधाएं होंगी और वह सुरक्षित तथा साफ होंगे।
  • किसी भी मरीज़ को कोई काम करने तथा बाल कटाने और वहां की पोषाक पहने के लिए विवश नहीं किया जाएगा।
  • मनोरोगियों को मेडिकल बीमा के लिए पात्र बनाया जाएगा।
  • सरकार मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य के कार्यक्रमों संबंधी योजना बनाने तथा उसे लागू करने और मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य और रोगों के बारे में जागरूकता लाने की अपने जिम्‍मेदारी के प्रति वचनबद्ध है।
  • हर व्‍यक्ति को किफायती दर पर ,उत्‍तम और अपेक्षित मात्रा में मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य संबंधी देखभाल और इलाज उपलब्‍ध होगा।
  • सरकार को सभी स्‍वास्‍थ्‍य कार्यक्रमों के हर स्‍तर पर सामान्‍य स्‍वास्‍थ्‍य संबंधी देखभाल सेवाओं में मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं के बारे में बताना चाहिए।


मानसिक रूप से स्‍वस्‍थ व्‍यक्ति एक स्‍वस्‍थ्‍य समाज और विकसित देश का प्रतीक होता है। केवल बेहतरीन स्‍वास्‍थ्‍य सेवाएं उपलब्‍ध कराना, सुरक्षा के लिए कानून बनाना काफी नहीं है इसके लिए मनारोगियों के प्रति भेदभाव, भ्रमों को खत्‍म करना और समाज का ऐसे व्‍यक्तियों के जज्‍बात को सही से समझना भी ज़रूरी है।

  

मंगलवार, 16 जुलाई 2013

राष्ट्रपति ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के 85 वें स्थापना दिवस पर व्याख्यान दिया

राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी ने आज राष्ट्रीय कृषि विज्ञान केंद्र परिसर, पूसा, नई दिल्ली में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के 85वें स्थापना दिवस पर व्याख्यान दिया।

इस अवसर पर राष्ट्रपति ने कहा कि हमें बारहवीं पंचवर्षीय योजना अवधि में कृषि वृद्धि दर का लक्ष्य हासिल करने के लिए उच्च पैदावार हासिल करनी होगी। हमें फसल विविधीकरण, पुराने बीजों के स्थान पर नए बीज लाने की दर में सुधार, अधिक उपज देने वाली किस्मों को अपनाने तथा जल प्रबंधन की परिपाटियों में सुधार जैसे पैदावार केंद्रित उपायों पर ज्यादा ध्यान देना होगा।

राष्ट्रपति ने कहा कि कृषि शिक्षा और विस्तार कार्यक्रमों के जरिए हमारे किसान समुदाय में उर्वरकों और कीटनाशकों के संतुलित इस्तेमाल की आवश्यकता का प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद-आइसीएआर और अन्य कृषि संस्थान उर्वरक इस्तेमाल की दक्षता को बढ़ावा देने के काम मे लगे हुए हैं। उन्होंने कहा कि आधुनिक प्रौद्योगिकी इस तरह से इस्तेमाल में लाया जाना चाहिए कि उससे फसल की किस्म, सही कृषि पद्धतियोें और अपनी उपज बेचने के लिए सही मण्डियों के चयन के संबंध में किसानों को निर्णय लेने में मदद मदद मिल सके।

राष्ट्रपति ने कहा कि भारत में करीब 85 प्रतिशत किसानों के पास 2 हेक्टेयर से भी छोटी जोत है जो उत्पादन की पूरी क्षमता हासिल करने में बाधा बनती है। ऐसी भूमिजोतों में उपज बढ़ाने के लिए किफायती, हल्के, बहु-उद्देश्यीय कृषि उपकरण विकसित करने आवश्यक हैं। उन्होंने कहा कि छोटी जोतों का मशीनीकरण समय की जरूरत है क्योंकि इससे व्यस्त सीजन के दौरान श्रम की कमी भी दूर हो सकती है। प्रभावशाली ऊर्जा प्रबंधन से कृषि में मशीनीकरण को सुगम बनाना चाहिए। उन्होंने कहा कि पारंपरिक ईंधनों पर निर्भरता कम करने और टिकाऊपन सुनिश्चित करने के लिए हमारे शोध संस्थानों को सौर ऊर्जा एवं जैवईंधनों जैसे नवीकरणीय ऊर्जा मॉडलों पर ध्यान देना चाहिए।

इस अवसर पर राष्ट्रपति ने किसान एसएमएस पोर्टल का शुभारंभ किया तथा आसीएआर राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किए।


इस अवसर पर केंद्रीय कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण मंत्री श्री शरद पवार, केंद्रीय कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण राज्य मंत्री डॉ. चरन दास महंत और केंद्रीय कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण राज्य मंत्री श्री तारिक अनवर उपस्थित थे।  

नालंदा का महान विश्‍वविद्यालय

नालंदा महाविहार (प्राचीन नालंदा विश्‍वविद्यालय) करीब आठ सौ वर्षों (पांचवी से 13वीं शताब्‍दी तक) विद्या का महान केन्‍द्र रहा। शुरू-शुरू में यह एक बौद्ध विहार था, जिसमें दुनिया के विभिन्‍न भागों से आए हुए हजारों भिक्षु रहते थे। अपने नालंदा प्रवास के दौरान वे बुद्धधम्‍म  और परिपत्ति तथा धम्‍मशासनम आदि के आधार पर बुद्धधम्‍म का अध्‍ययन करते थे। वरिष्‍ठ भिक्षु कनिष्‍ठ भिक्षुओं को उपदेश भी देते थे। इस तरह से प्राचीन नालंदा महाविहार की शुरूआत हुई। महाविहार विकसित हुआ और आखिरकार यह ऐसा विश्‍वविद्यालय बन गया, जिसकी दुनियाभर में कोई मिसाल नहीं थी। इसकी प्रतिष्‍ठा इतनी बढ़ी कि इसे विश्व विद्यालयों  का विश्‍वविद्यालय कहा जाने लगा।

वस्‍तुत: नालंदा महाविहार सिर्फ विद्या का महान केन्‍द्र ही नहीं था। यह संस्‍कृति और सभ्‍यता का एक महान केन्‍द्र बन गया। यह ऐसा स्‍थान था, जहां बुद्ध धर्म और इसकी सभी शाखाओं का अध्‍ययन ही नहीं किया जाता था, बल्कि बुद्ध धर्म के विचारों से इतर अन्‍य  संस्‍कृतियों का भी गहराई से तुलनात्‍मक अध्‍ययन किया जाता था। इस प्रकार से यह बौद्ध संस्‍कृति का ही नहीं बल्कि भारतीय संस्‍कृति का केन्‍द्र बन गया।

इस विश्‍वविद्यालय का नाम और इसकी प्रतिष्‍ठा पूरे एशिया में फैल गई। एशिया के विभिन्‍न देशों से विद्वान आकर यहां बौद्ध धर्म का अध्‍ययन करते थे। जिन देशों से विद्वान अध्‍ययन के लिए आते थे उनमें चीन, तिब्‍बत, कोरिया, मंगोलिया, भूटान, इंडोनेशिया, मध्‍य एशिया आदि प्रमुख हैं।

धीरे-धीरे विभिन्‍न देशों से विद्वानों का आदान-प्रदान शुरू हो गया। कोरिया, चीन और तिब्‍बत से बौद्ध भिक्षु नालंदा आया करते थे। तिब्‍बत से भी विद्वान नालंदा आते थे और बौद्ध धर्म और भारतीय संस्‍कृति के अपने ज्ञान में वृद्धि करते थे। इस प्रकार से नालंदा महाविहार के भिक्षु विद्वान संस्‍कृति के महान उपासक बन गए।

अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर बात करें, तो नालंदा को भारत के पर्यटक मानचित्र पर ऐसा स्‍थान दिया जा सकता है जो सर्वश्रेष्‍ठ, पुरातत्‍व स्‍थल है और जिस पर सभी भारतीयों को गर्व है। इस विश्‍वविद्यालय के खंडहर बड़गांव में पाए गए हैं। यह स्‍थान पूर्वी रेलवे लाइन की शाखा पर नालंदा रेलवे स्‍टेशन के पास बख्तियार-राजगीर ब्रांच लाइन पर पड़ता है। अगर कोई आज इस स्‍थान की तलाश में जाए तो उसे मौके पर नालंदा विश्‍वविद्यालय के आंशिक खुदाई वाले खंडहर मिलेंगे। इसके आस-पास ही अनेक गांव बस गए हैं, जिनमें बुद्ध की मूर्तियां विभिन्‍न रूपों में मिली हैं।

हालांकि इस स्‍थान को 1812 में फ्रांसीस बुकानन ने देखा था, लेकिन वह इसकी पहचान नहीं कर पाया। इस स्‍थान पर नियमित ढंग से खुदाई 1915 में शुरू हुई और दो दशकों तक पंडित हीरानन्‍द शास्‍त्री के अथक प्रयासों के बाद नालंदा का महान स्‍वरूप धरती की कोख से फिर प्रकट हुआ। अब इस स्‍थान को नालंदा के खंडहर कहा जाता है।

बोधिसत्‍व की तरह महावीर का जन्‍म भी ऐसे स्‍थान पर हुआ था, जिसके नाम से पहले नव लगता है। यह 1951 में वेन भिक्षु जगदीश कश्‍यप के समर्पित प्रयासों का नतीजा था। उनके उत्‍तराधिकारियों ने इन प्रयासों को आगे बढ़ाया। देश-विदेश के छात्रों और विद्वानों ने अध्‍ययन, ध्‍यान और बौद्धिक प्रयासों के जरिए इनका अध्‍ययन किया। इस स्‍थान पर एक संदर्भ विश्‍वविद्यालय, इस संस्‍थान के अनेक महत्‍वपूर्ण प्रकाशन, त्रिपिटकों के अंकीय संस्‍करण, बौद्ध धर्म का गहन अध्‍ययन, प्राकृत, संस्‍कृत ग्रंथों की सहायता से किया जाता है। इसके अलावा उन प्राचीन ग्रंथों के अध्‍ययन किये जाते हैं, जो नव नालंदा महाविहार की उपलब्धियां माने जाते हैं। नालंदा विश्‍वविद्यालय में क्‍सानजान (इन्‍हें आम तौर पर हुयेनसांग कहा जाता है), इनके नाम से ही चीन के इस यात्री की विद्वता और साधु प्रकृति झलकती है। दुनिया ने अगर बुद्ध धर्म को समझा है, तो इसमें हुयेनसांग की प्रतिभा का योगदान है। साथ ही, उन आचार्यों का भी योगदान है, जो भारत की ज्ञान पताका लेकर विदेश गए और वहां देश का नाम ऊँचा किया। अब नालंदा विश्‍वविद्यालय एक आकर्षक पर्यटक स्‍थल बन गया है, जहां महान क्‍सानजान की कांस्‍य की प्रतिमा स्‍थापित की गई है। इसके चारों तरफ जलाशय और फव्‍वारे लगाए गए हैं तथा यह स्‍थान हरी वाटिका से घिरा हुआ है।

नालंदा गुरु-शिष्‍य परम्‍परा की एक महान मिसाल थी। यह विशुद्ध भारतीय परम्‍परा है। इसके अंतर्गत शिष्‍य पर गुरु का पूरा आधिपत्‍य होता था, भले ही शैक्षिक विषयों पर असहमति की अनुमति थी। यह परंपरा हजारों वर्षों से चली आई थी और किसी अन्‍य स्‍थान की तरह नालंदा में ज्‍यादा फली-फूली।

गुरु-शिष्‍य परंपरा की चर्चा करते हुए आई त्सिंह कहते हैं ‘’ वह (शिष्‍य) गुरु के पास पहली बार रात में पहुंचता है। गुरु उसे पहली बार में बैठने का आदेश देते हैं और कहते हैं कि त्रिपिटकों में से किसी एक को चुन लो, वह उन्‍हें कुछ इस प्रकार से अध्‍ययन करने को कहते हैं, जो उन्‍हें और परिस्थितियों के अनुकूल होता है और ऐसा कोई तथ्‍य अथवा सिद्धांत नहीं बचता, जिसे वह स्‍पष्‍ट न करें। गुरु शिष्‍य के नैतिक आचारण की परीक्षा लेते हैं और अगर कोई गलती या विचलन पाते हैं, तो उसे चेतावनी देते हैं। जब भी उन्‍हें शिष्य में कोई कमी दिखाई देती है, वह उसे दूर करने अथवा विनयपूर्वक पश्‍चाताप करने के लिए कहते हैं। शिष्‍य गुरु के शरीर की मालिश करता है उनके कपड़ों की तह करता है और कभी-कभी घर-बाहर झाडू भी लगाता है। इसके बाद जल परीक्षा होती है। इसके बाद भी अगर कुछ करना होता है, तो शिष्‍य गुरु की सेवा करता है।

इस बात पर कोई आश्‍चर्य नहीं कि गुरु और शिष्‍य दोनों ही उसी प्रकार के पीले वस्‍त्र पहनते थे, जिनकी चर्चा बौद्ध ग्रंथों में उपलब्‍ध है। ये वस्‍त्र कमर के चारों तरफ लिपटे होते थे और घुटनों के नीचे तक लटकते थे। गुरु शिष्‍य दोनों ही सादा और सात्विक भोजन करते थे। हुयेनसांग के जीवनी के लेखक शाओमान हुई ली के अनुसार नालंदा विश्‍वविद्यलय का खर्च उसके आस-पास बसे लगभग एक सौ गांवों के निवासी उठाते थे।

नालंदा विश्‍वविद्यालय का विनाश तुर्क आक्रमणकारियों के हाथों हुआ और यह बहुत त्रासद रहा। 1205 ईसवी में जब बख्‍तियार खिलजी में नालंदा विश्‍वविद्यालय में आग लगा दी तो वह इसके जलने पर हंसता रहा। इस ज्ञान मंदिर को बनाने में जहां कई शताब्दियां लग गईं, वहीं इसको बर्बाद करने में कुछ ही घन्‍टे लगे। कहा तो यहां तक जाता है कि जब कुछ बौद्ध भिक्षु आक्रमणकारी से इस विश्‍व प्रसिद्ध विश्‍वविद्यालय के पुस्‍तकालय को नष्‍ट न करने के लिए अनुनय विनय कर रहे थे, तो उसने उन्‍हें ठोकर मारी और उसी आग में फिंकवा दिया, जिसमें पुस्‍तकें जल रही थीं। रत्‍नबोधि इस महान विश्‍वविद्यालय के पुस्‍तकालय का नाम था। इसके बाद बौद्ध भिक्षु इधर-उधर भाग गए और नालंदा की सिर्फ यादे ही शेष रहीं।

इस प्रकार से नालंदा विश्‍वविद्यालय की महान गाथा का अंत हुआ। इसकी चर्चा महान इतिहासकार हैमिलटन और बाद में अलेक्‍जेंडर कनिंघम ने की है। 1915 में इस स्‍थान पर खुदाई शुरू की गई, जो 20 वर्षों तक जारी रही। अब भी करने को बहुत कुछ बाकी है। नव नालंदा महाविहार इस स्‍थान के बगल ही स्थित है।

आधुनिक सरकार ने नालंदा विश्वविद्यालय के पुनरूद्धार के लिए अनेक प्रयास किए हैं। अब संसद ने नालंदा विश्वविद्यालय विधेयक पास किया है, जिसके अनुसार केन्‍द्र और राज्‍य सरकारों ने नालंदा शिक्षा संस्‍थान को वर्ल्‍डक्‍लास का दर्जा देने के लिए अपने प्रयास शुरू कर दिए हैं।

 (पसूका)

सोमवार, 15 जुलाई 2013

Mural Paintings In India

Murals are essentially artwork painted on walls, ceilings or any huge stable surface. Mural painting is an art somewhere flanked by fine art and house painting. Mural paintings in India date back to times immemorial. Painting murals is fundamentally associated to Indian painting traditions. Murals are considered as the first evidence of Indian paintings discovered from the ancient civilization remnants. Flamboyant murals adorn numerous temples in India as a part of the intricate tapestry of ornamental work which has evolved through the ages. Murals adorning the temples portray legendary and mythological figures and their epic battles and life stories. Antique Indian religious artwork is greatly recognized for the Indian mural paintings of Kerala. Ancient Buddhist and Hindu stonework figurines carved into caves and sides of cliffs from many centuries are also celebrated.

Earliest Evidence of Murals
The stunning frescoes painted on the caves of Ajanta and Ellora, on the Bagh caves in Madhya Pradesh, Sittannavasal in Tamil Nadu and caves of Badami in Karnataka are earliest evidences of murals. They are celebrated for their linear styles as well. In ancient scripts and literature, numerous evidences of mural paintings are there. According to Vinaya Pitaka, the then kings, traders and merchants were painted on the palace walls. Also plentiful references in antediluvian texts are there about galleries maintained by rulers and kings.

Colors of Murals
Colors for mural paintings in India were derived from natural materials like chalk, terracotta, red and yellow ochre mixed with animal fat. Pigments of paints were from local volcanic rocks, lamp black was the exception.

Animal glue and vegetable gum was used which made these paintings suffer from insects and caused to flaking and blistering. Contours of figures stood out boldly in later paintings. Deep color washes were used for the same.

Subjects of Mural Paintings
Subjects incorporated in murals were figures of human beings and animals, family scenes, deities, court life, hunting, and stories from Jataka. The ancient painters created the murals with skilled hands and perceptive eyes. Ajanta paintings are a classical example of such paintings as they display crowded compositions, decorative motifs, figure types and details of costumes.

Mural Paintings of India
Eastern India is loaded with countless evidences of wall and panel paintings elucidating Budhhist and non-Budhhist themes. In Arunachal Pradesh and Tripurasublime significant mural works have been found. Wall paintings in Alchi and Hemis monasteries in Ladakh are famous; Spiti Vally in Himachal Pradesh is recognized for its Buddhist paintings in the Gomphas of Tabo Monastery.

Ajanta Murals include statues of deities, animals and guards. These murals date back to the 2nd century BC. Maratha murals are also fashioned under the Mughal traditions. They used oil as medium.

Punjabi Murals were introduced during the reign of the Mughals. They are unique in their own way. Beguiling murals embellished on the walls of palaces and forts ofAkbar and Jahangir display the influence of Persian styles. The Mogul painting greatly influenced the Rajput School of painting. Wall paintings in Bundi, Deeg, Ajmer, Jaipur, Jodhpur and other places in Rajasthan are moderately convincing.

In North India, murals at the Vishnu Temple, Madanpur in Lalitpur district of Uttar Pradesh (12th century AD) expose the dexterous hands of the painters. South India is luxurious in mural paintings. Murals reached the top during Cholas, Vijayanagaras and Nayakas.

Bijapur, Hyderabad, and Golconda schools were influenced by the Mughal traditions and then by European expression. Amongst the biggest murals ever painted in Asia is at the Veerabhadreswara temple at Lepakshi in Andhra Pradesh in South India. This mural is on the ceiling of the shrine. Murals of Kerala are flamboyantly depicted on the walls of temples and monuments. These murals illustrate the traces of European similarity.

Mural paintings in India are the classical form of art. Patches of light colors used to highlight the expressions of the characters of the murals. Illusions of depth in the murals were created by various innovative ways. They were painted in stages as first the outline was drawn, then colors were applied and contours were renewed. These paintings are a great source to display the richness of art forms and variety that enriched Indian art.


आयरन फोलिक एसिड अनुपूरण साप्ताहिक कार्यक्रम का शुभारंभ किया जाएगा

किशोर और किशोरियों के लिए आयरन फोलिक एसिड अनुपूरण साप्ताहिक कार्यक्रम का शुभारंभ 17 जुलाई, 2013 से किया जाएगा । राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य अभियान की अपर सचिव और अभियान निदेशक श्रीमती अनुराधा गुप्ता ने आज नई दिल्ली में इसकी जानकारी दी ।

इस अवसर पर मीडिया को संबोधित करते हुए श्रीमती गुप्ता ने कहा कि भारत में किशोर और किशोरियों में एनीमिया के व्यापक मामले हैं । उन्होंने कहा कि करीब 56 प्रतिशत लड़कियां और 30 प्रतिशत लड़के एनीमिया से पीड़ित हैं । प्राथमिक स्तर पर एनीमिया की बीमारी आवश्यक पोषक तत्वों की कमी की वजह से होती है । उन्होंने कहा कि पोषक तत्वों की कमी आज देश में सर्वाधिक गंभीर विषय है । पोषक तत्वों की कमी के करीब 50 प्रतिशत मामलों में लौह तत्व की कमी से होने वाला एनीमिया है । श्रीमती गुप्ता ने कहा कि एनीमिया के ज्यादातर मामले पोषक तत्वों और खाने में लौह तत्व की कमी का परिणाम है । एनीमिया की वजह से किशोरों और किशोरियों का शारीरिक विकास पूरी तरह से नहीं हो पाता । उनकी शिक्षा क्षमता और दैनिक कार्यों पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ता है । एनीमिया की शिकार किशोरियों को समय से पूर्व प्रसव और कम वज़न वाले नवजात शिशुओं के जन्म जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है ।

श्रीमती गुप्ता ने कहा कि एनीमिया से पीड़ित लड़कियों में मातृ मृत्यु दर का जोखिम अधिक रहता है । युवा महिलाओं में करीब एक तिहाई मातृ मृत्यु दर 15-24 वर्ष की आयु के बीच होती है । उन्होंने कहा कि बच्चों, युवाओं और हमारी आगामी पीढ़ी के स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने के लिए एनीमिया जैसी जटिल बीमारी का हल तलाशना होगा । इसी उद्देश्य के साथ स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने साप्ताहिक लौह और फोलिक एसिड अनुपूरण (डब्ल्यूआईएफएस) कार्यक्रम तैयार किया है । इस कार्यक्रम के माध्यम से सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ी इस चुनौती से निपटने के लिए कारगर कदम उठाए जाएंगे ।

श्रीमती गुप्ता ने कहा कि एक विशिष्ट पहल के तहत आईएफए अनुपूरक प्रदान किया जा रहा है । पोषण और स्वास्थ्य शिक्षा पर आधारित सत्रों के माध्यम से विद्यालय और आंगनबाड़ी केंद्र पोषण और स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर नवयुवकों और नवयुवतियों को उनके स्वास्थ्य पर सलाह देंगे । डब्ल्यूआईएफएस के अंतर्गत 10-19 वर्ष आयु समूह की किशोर जनसंख्या को शामिल किया गया है । ये कार्यक्रम शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों के साथ देशभर में लागू किया गया है । इसके अंतर्गत कक्षा 6-12 के सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त विद्यालयों के 6 करोड़ लड़कियां और लड़के तथा स्कूल न जाने वाले 7 करोड़ किशोर और किशोरियां शामिल हैं । उन्होंने कहा कि स्वास्थ्य मंत्रालय ने सभी राज्यों को सुझाव दिया है कि वे सप्ताह में एक दिन संभव हो तो सोमवार को आईएफए गोलियों को किशोर और किशोरियों को प्रदान करें ।


श्रीमती गुप्ता ने कहा कि ये कार्यक्रम महिला और बाल विकास मंत्रालय की समेकित बाल विकास योजना, सबला और एमओएचएफडब्ल्यू के तरुण स्वास्थ्य कार्यक्रमों की तरह ही किशोरों और किशोरियों के स्वास्थ्य पोषक जरूरतों से जुड़े मुद्दों के लिए एक महत्वपूर्ण मंच साबित होगा । डब्ल्यूआईएफएस को राष्ट्रीय, राज्य, जिला और ब्ल़ॉक स्तर पर सुविधाएं प्रदान की जा चुकी हैं । ये कार्यक्रम भी महिला और बाल विकास मंत्रालय के प्रमुख हितधारक मानव संसाधन विकास मंत्रालय के साथ मिलकर संचालित किया जा रहा है । श्रीमती गुप्ता ने बताया कि वर्ष 2012-13 के दौरान स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय इस कार्यक्रम के लिए 133 करोड़ रुपये का आबंटन कर चुका है ।  

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