गुरुवार, 18 जुलाई 2013

किशोर न्याय कानून

उच्चतम न्यायालय देश में महिलाओं के प्रति हो रहे अपराधों में किशोर लडकों की बढ़ती भागीदारी के मद्देनजर किशोर न्याय कानून के तहत किशोर की आयु घटाकर 16 साल करने से इंकार करते हुये फिलहाल इस मांग और विवाद पर विराम लगा दिया है। बलात्कार और बलात्कार के प्रयास तथा महिलाओं का शील भंग करने के प्रयास जैसे संगीन अपराधों में किशोरों की भूमिका के मद्देनजर ऐसे मामलों में लिप्त होने की स्थिति में 18 से 16 साल की आयु के किशोर को किशोर न्याय कानून के दायरे से बाहर रखने की मांग की जा रही थी।

पिछले एक साल की घटनाओं पर यदि नजर डालें तो पता चलता है कि महिलाओं के प्रति होने वाले यौन अपराधों में 16 से 18 साल की आयु के किशोरों की भूमिका में तेजी से वृद्धि हुई है। लेकिन मौजूदा आंकडों के आलोक में देश की शीर्ष अदालत की राय है कि ऐसे अपराधों में किशोरों की भागीदारी में जबरदस्त बढोत्तरी होने का तर्क सही नहीं है क्योंकि इनमें करीब दो फीसदी की ही वृद्धि हुई है।

किशोर बच्चों को अपराधियों के बीच रखने की बजाए उन्हें सुधारने की उम्मीद से ही वर्ष 2000 में किशोर न्याय: बच्चों की देखभाल और संरक्षण कानून बनाया गया था। किशोर न्याय कानून के प्रावधानों के तहत किशोर की परिभाषा अलग है, इसलिए संगीन अपराध के बावजूद भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के तहत उन्हें दंडित नहीं किया जाता। किशोर न्याय कानून के तहत किसी अपराध में 18 साल से कम आयु के किशोर के शामिल होने पर उसे बाल सुधार गृह भेजा जाता है। इसी कानून के तहत ही उसके खिलाफ किशोर न्याय बोर्ड में कार्यवाही होती है।

उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि किशोर न्याय: बच्चों की देखभाल और संरक्षण कानून 2000 की धारा 15:1::जीः के तहत जघन्य अपराध में दोषी पाये जाने के बावजूद एक किशोर 18 साल का होते ही रिहा कर दिया जाता था लेकिन इस कानून में 2006 में संशोधन के बाद स्थिति बदली है। अब यदि कोई किशोर ऐसे अपराध में दोषी पाया जाता है तो उसे तीन साल की सजा काटनी ही होगी भले ही वह 18 साल का हो चुका हो।

न्यायालय की इस व्यवस्था से स्पष्ट है कि यदि किसी किशोर ने 17 साल की आयु में अपराध किया है तो उसे दोषी पाये जाने की स्थिति में 18 साल की उम्र के बाद भी दो साल सलाखों के पीछे गुजारने ही होंगे।

दिल्ली में पिछले साल दिसंबर में चलती बस में 23 वर्षीय युवती से सामूहिक बलात्कार की घटना में शामिल छह व्यक्तियों में एक किशोर था और इस समय उस पर किशोर न्याय कानून के तहत अलग मुकदमा चल रहा है। इसी तरह मेघालय में पिछले साल हुए सामूहिक बलात्कार की घटना में गिरफ्तार 16 युवकों मे से आठ 13 से 18 साल की आयु के थे। इसी तरह मेघालय के बिर्नीहाट में सामूहिक बलात्कार की घटना के सिलसिले में गिरफ्तार तीन आरोपियों में कम से कम एक नाबालिग था।

राष्‍ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आँकड़ों के अनुसार 2012 में भारतीय दंड संहिता के तहत अपराधों के आरोपों में 18 साल से कम आयु के 35465 किशोर गिरफ्तार किये गये थे। इनमें 33793 लड़के और 1672 लड़कियाँ थीं। ब्यूरो के आँकड़ों के मुताबिक भारतीय दंड संहिता के तहत हुए अपराधों में किशोरों की भागीदारी 1.2 फीसदी थी जबकि प्रत्येक एक लाख किशोरों में इनकी अपराध दर 2.3 फीसदी थी।

यदि पिछले एक दशक के आँकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाये तो पता चलता है कि इस दौरान इसमें काफी वृद्धि हुई है। वर्ष 2011 की तुलना में 2012 में किशोरों द्वारा किये गए अपरधों में भी 11.2 फीसदी की वृद्धि हुई है।

इन आँकड़ों से यह भी पता चलता है कि 2002 से यौन अपराधों में किशोरों की संलिप्तता में वृद्धि हो रही है। पिछले साल ऐसे अपराधों में 2239 किशोर गिरफ्तार किये गये थे। इनमें से 1316 किशोरों पर बलात्कार के आरोप थे जबकि 2011 में बलात्कार के आरोप में 1149, 2010 में 858, 2009 में 798 और 2002 में 485 किशोर ही गिरफ्तार किये गये थे।

पिछले एक दशक में यौन अपराधों में इन किशोरों की भूमिका में तेजी से इजाफा हुआ है। वर्ष 2001 में बलात्कार के आरोप में करीब 400 किशोर पकड़े गये थे जबकि 2011 में इनकी संख्या बढ़कर 1149 तक पहुंच गयी थी।

शायद यही वजह थी कि दुष्कर्म और जघन्य अपराधों में किशोर लड़कों के शामिल होने की बढ़ती घटनाओं के कारण किशोर की आयु सीमा को नये सिरे से परिभाषित करने की मांग जोर पकड़ रही थी।

महिलाओं के साथ यौन अपराधों में किशोरों की बढती भूमिका पर संसदीय समिति ने भी चिंता व्यक्त की थी। संसद की महिला सशक्‍तिकरण मामलों पर गठित समिति ने भी महिलाओं के प्रति यौन अपराधों में 16 से 18 साल की उम्र के किशोरों की भूमिका के मद्देनजर पुरूष किशोर की आयु 18 साल से घटाकर 16 साल करने की सिफारिश की थी। समिति का मानना था कि किशोर न्याय कानून के तहत लड़के और लड़कियों की किशोर उम्र एक समान यानी 18 साल करने के अपेक्षित परिणाम नहीं मिले हैं।

कुछ समय पहले तक अपराध की दुनिया में किशोरों के शामिल होने का ठीकरा उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, गरीबी, निरक्षरता और अभावों पर फोड़ा जाता था लेकिन अब देखा जा रहा है कि संभ्रांत परिवार के किशोरों में भी इस तरह की आपराधिक प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है।

मौजूदा कानून के तहत किसी भी किशोर आरोपी का न तो नाम सार्वजनिक किया जा सकता है और न ही उसे सामान्य आरोपियों के साथ जेल में रखा जा सकता है। संगीन अपराध में लिप्त होने के बावजूद नाबालिग को उम्र कैद जैसी सजा भी नहीं दी जा सकती है। किशोर न्याय कानून के तहत उसे तीन साल तक ही बाल सुधार गृह में रखा जा सकता है और दोष सिद्ध होने के बावजूद उसे सरकारी नौकरी या दूसरी सेवाओं से न तो वंचित किया जा सकता है और न ही चुनाव लड़ने से रोका जा सकता है।

सवाल यह है कि आखिर अपराध और विशेषकर महिलाओं के प्रति अपराधों में किशोर युवकों की भूमिका में तेजी से इजाफा कैसे हो रहा है। समाज में ऐसे तत्वों की कमी नहीं है जो इन किशोरों को पथभ्रष्‍ट करने और अपनी विकृत मानसिकता से उपजे मंसूबों को पूरा करने के लिये उन्हें अपराध की दुनिया में ढकेलने से गुरेज नहीं करते है। इसके अलावा समाज में आ रहे खुलेपन, सिनेमा और टेलिविज़न पर दिखाये जा रहे विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों और इंटरनेट की दुनिया के कारण किशोरो में बढ़ रही उत्सुकता को भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता।

अकसर देखा गया है कि गंभीर अपराध में किसी किशोर के गिरफ्तार होने पर सबसे पहले उसके नाबालिग होने की दलील दी जाती है। इस संबंध में स्कूल में दर्ज आरोपी की उम्र का हवाला दिया जाता है। कई मामलों में ऐसा भी हुआ है कि स्कूल में कम उम्र दर्ज कराई गयी लेकिन वैज्ञानिक तरीके से आरोपी की आयु का पता लगाने की कवायद में दूसरे ही तथ्य सामने आये।

चूंकि देश की सर्वोच्च अदालत ने जघन्य अपराधों में किशोरों की संलिप्तता के बारे में उपलब्ध आँकड़ों के आधार पर किशोर कानून में परिभाषित किशोर की परिभाषा में किसी प्रकार के हस्तक्षेप से इंकार करते हुए कहा है कि पर्याप्‍त आँकड़े उपलब्ध होने तक ऐसा नहीं किया जा सकता है, इसलिए अब महिलाओं के प्रति यौन हिंसा के अपराधों में किशोरों की संलिप्तता के बारे में राष्‍ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के पिछले एक दशक के आँकड़ों के साथ ही तमाम तथ्यों और आँकड़ों तथा संसदीय समिति की सिफारिश के आलोक में संसद को ही किशोरों की मनःस्थिति में सुधार और उनके कल्याण के लिये नये उपायों पर विचार करना होगा।



अनूप भटनागर

बुधवार, 17 जुलाई 2013

Miniature Paintings In India

Miniature paintings are amongst the scores of things that make an Indian proud of rich cultural legacy of his country. Miniature paintings in India are celebrated globally for their exquisiteness, elegance and faultless detailing. As the name suggests, Miniatures paintings are complicated, multihued paintings. They are small in size, scrupulously executed with delicate brush strokes. India enjoys a long and diverse tradition of miniature paintings. More about these paintings is embellished in the following account.

History of Miniature Paintings in India

Miniature Paintings began taking shape in India in 6th-7th century AD, when Kashmiri Miniatures first emerged. These paintings developed through centuries. Miniature artists conveyed realism that survived afar particular vantage point. When Mughals in 16th century influenced the political horizon of India, Miniature Paintings get a momentum. Mughal rulers of Malwa, Deccan and Hindu Rajas of Rajasthan also gave their benefaction on this sublime art form. The rich, flamboyant miniature paintings created under Mughals encouraged strong Persian sway. They were patrician, strong and individualistic in portraiture enhanced with the portrayal of luxurious court scenes and hunting expeditions of sovereigns. Numerous manuscripts with excellent illustrations also existed. Flowers and animals were also amongst the common images of the paintings. Miniature painters at diverse medieval courts revealed the potential of immeasurable self-expression in their paintings.

Schools of Miniature Paintings in India

Schools of the Miniature paintings of India include:
  • Pala School- The initial instances of the Indian Miniature painting are linked to the Pala School dating back to the 11th century. It highlighted the figurative use of color in the paintings, which was derived from tantric ritual. The other characteristics include using a dexterous and elegant line, modeling forms by expressive and delicate variation of pressure, employing natural color for painting human skin etc.
  • Jain School- It laid great stress on style. Exclusive features of this school include heavy gold outlines, strong chaste colors, attenuation of dress to angular segments, modish figures of ladies, enlarged eyes and square-shaped hands. Its influence can be seen on Rajasthani and Mughal paintings also.
  • Mughal School- Painting bloomed with courtly scenes. Mughal emperors introduced their style of miniature paintings with Persian stimulation. Court scenes were depicted in splendor. The hilly landscapes were usually the backdrop. Flowers and animals were immensely depicted.
  • Rajasthani School- Several distinct schools of painting evolved in Rajasthan. The four main schools are- Mewar, Marwar, Bundi-Kota and Amber-Jaipur. The most imperative Marwar centers were Bikaner and Jodhpur. Rulers of these centers employed Mughal-trained artists. Rajsthani miniatures are the most eminent among paintings flourished under the patronage of court. In each and every part of Rajasthan, groups of extremely talented and creative artists fashioned these noteworthy paintings on wooden tablets, paper, leather, marble, ivory panels, walls and cloth.
  • Kashmir School- This school of miniature painting existed taking a new origin during the late 18th century, enduring through the l9th century to the early decades of the 20th century.
  • Bengal School- Scores of contemporary painters have been influenced by up-to-the-minute styles.
Nepali School and Orissa School are other notable schools of miniature paintings in India. There are even more art schools giving spotlight to historical miniature art styles. In the present day and age, the art of miniature painting in India is active with all cultural amalgamation. There are many artists in India who have dedicated their entire life to miniature painting with various mediums. Amongst the renowned miniature painting artists of India, the name of Amita shines brilliantly. The colors used in miniatures are by and large derived from natural sources like vegetables, conch shells, minerals and indigo. Some of the paintings also use pure gold and other precious stones and gems to haul out the colors for titivating these miniature paintings. Undoubtedly, Indian miniature paintings are a feather to the cap of Indian art and paintings.

मनोरोगियों के गरिमामय जीवन के लिए उनका सशक्तिकरण

मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य, मावन विकास के महत्‍वपूर्ण विकास को दर्शाता है। यह तंदरूस्‍ती और जीवन की गुणवत्‍ता का मुख्‍य निर्धारक होने के साथ सामाजिक स्थिरता का आधार है। खराब मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य का सामाजिक और आर्थिक स्‍तर पर व्‍यापक और दूरगामी प्रभाव पड़ता है जो कि गरीबी, बेरोज़गारी की उच्‍च दर, खराब शैक्षिक और स्‍वास्‍थ्‍य परिणाम की वजह बनता है। मानसिक और भावनात्‍मक तंदरूस्‍ती को मानव विकास के मुख्‍य संकेतक के रूप में पहचानने की ज़रूरत है। मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य और मनोसामाजिक दृष्टिकोण को सभी विकासात्‍मक तथा मानवीय नीतियों, कार्यक्रमों में शामिल करने की आवश्‍यकता है।
मानसिक और मनोसामाजिक रूप से विकलांग व्‍यक्ति विश्‍व की जनसंख्‍या के एक महत्‍वपूर्ण अनुपात को दर्शाते हैं। विश्‍व में चार में से एक व्‍यक्ति अपने जीवनकाल में मानसिक रोग से गुज़रता है। लगभग एक मिलियन लोग हर साल आत्‍महत्‍या करते हैं। बीमारियों की बढ़ती संख्‍या में अवसाद को तीसरा स्‍थान दिया गया है जिसके 2030 तक पहले स्‍थान पर पहुंचने की उम्‍मीद है। भारत में सामान्‍य मनोविकार के 6-7 प्रतिशत मामले हैं और गंभीर मानसिक विकार के 1-2 प्रतिशत मामले हैं। करीब 50 प्रतिशत लोग गंभीर मानसिक विकार से जूझ रहे हैं जिन्‍हे इलाज नहीं मिल पाता और सामान्‍य मानसिक विकार के मामले में यह आंकड़ा 90 प्रतिशत से अधिक है। मानसिक विकारों के इस प्रतिशत को देखते हुए यह ज़रूरी है कि मनोरोग के लिए इलाज उपलब्‍ध कराने के साथ आम लोगों के कल्‍याण के लिए मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं को बढ़ावा दिया जाए।

मानसिक और मनोसामाजिक रूप से विकलांग व्‍यक्तियों को अक्‍सर गलत धारणाओं की वजह से भेदभाव का सामना करता पड़ता है। मानसिक और मनोसामाजिक विकार से पीडि़त व्‍यक्तियों का शारीरिक शोषण भी किया जाता है। इस धारणा के कारण कि ऐसे व्‍यक्ति अपनी जिम्‍मेदारियों का निर्वहन नहीं कर सकते और अपने जीवन के बारे में फैसले नहीं ले सकते, अधिकांश देशों में उन्‍हें अपने सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक अधिकार इस्‍तेमाल करने में दिक्‍कत आती है।
हालांकि मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य स्थितियां, विकलांगता के प्रमुख कारणों में से एक हैं। मानसिक और मनोसामाजिक विकार से पीडित व्‍यक्तियों को जीने की मूलभूत आवश्‍यकताओं को बनाए रखने के लिए संसाधनों की कमी से जूझना पड़ता है। इसके अलावा विकास संबंधी नीतियों और कार्यक्रमों में यह सबसे ज्‍यादा उपेक्षित समूहों में से एक है। विकास प्रयासों में मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य को शामिल करना एक किफायती रणनीति है और गरीबों के हित में है।  अधिकांश मनोरोगों के लिए किफायती दर पर प्रभावी इलाज उपलब्‍ध हैं। बाल विकास, शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य, सामाजिक कल्‍याण नीतियों और कार्यक्रमों में मानसिक और मनोसामाजिक पहलुओं को शामिल किया जाना चाहिए।

भारत में राष्‍ट्रीय मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य कार्यक्रम (एनएमएचपी) की शुरूआत 1982 में हुई थी। इसका उद्देश्‍य सभी को न्‍यूनतम मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य देखभाल उपलब्‍ध और सुलभ कराना, मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य संबंधी ज्ञान के बारे में जागरूकता लाना और मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य सेवा के विकास में सामुदायिक भागीदारी को बढ़ावा देना तथा समुदाय में स्‍वयं-सहायता को प्रोत्‍साहित करना है। धीरे-धीरे मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं के दृष्टिकोण को अस्‍पताल आधारित देख-भाल (संस्‍थागत) को सामुदायिक आधारित देखभाल में बदल दिया गया है क्‍योंकि मनोरोगों के अधिकांश मामलों में अस्‍पताल की सेवाओं की ज़रूरत नहीं होती और इन्‍हें सामुदायिक स्‍तर पर ठीक किया जा सकता है।

नौंवी पंचवर्षीय योजना के दौरान जिला मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य कार्यक्रम की शुरूआत 1996 में हुई थी और वर्तमान में 30 राज्‍यों और केंद्र शासित प्रदेशों के 123 जिलों में चल रही है। इसके अतिरिक्‍त मनोरोगियों की पूर्व जांच और उनके इलाज के लिए जिला मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य कार्यक्रम में अब उन्‍नयाक और निवारक गतिविधियों को शामिल किया गया है जिसमें स्‍कूल मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य सेवाएं, कॉलेज परामर्श सेवाएं, कार्यस्‍थल पर तनाव कम करने और आत्‍महत्‍या रोकथाम सेवाएं शामिल हैं। मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य क्षेत्र में मानव संसाधन की उपलब्‍धता बढ़ाने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं ताकि मनोरोगियों पर पूरा ध्‍यान दिया जाए और जो व्‍यक्ति मनोरोग का शिकार हैं उन्‍हें शुरूआती चरण में ही सही सलाह और परामर्श मिल सके। एनएचएमपी के घटकों को राष्‍ट्रीय ग्रामीण स्‍वास्‍थ्‍य मिशन के दायरे में लाया जा रहा है ताकि राज्‍य मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं संबंधी आवश्‍यकताओं के अनुसार योजना बना सके। राष्‍ट्रीय मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य कार्यक्रम के लिए ग्‍यारहवीं पंचवर्षीय योजना खर्च (2012 तक) में 623.45 करोड़ रूपए की स्‍वीकृति दी गई है।

हालांकि मनोरोगियों की समस्‍याओं को पहचानते हुए सरकार ऐसे मरीज़ों के लिए मानवीय, इन पर केंद्रित कानूनी ढांचा उपलब्‍ध कराने की प्रक्रिया में है। प्रस्‍तावित मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य देखभाल विधेयक लाखों मनोरोगियों की जिंदगियों में परिवर्तन ला सकता है जिनके साथ अक्‍सर सामुदायिक स्‍तर और स्‍वास्‍थ्‍य देखभाल संस्‍थागत प्रतिष्‍ठानों दोनों में अमानवीय और अपमानजनक बर्ताव होता है तथा उनका उपहास उड़ाया जाता है।
प्रस्‍तावित मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य देखभाल विधेयक अधिकारों की दृष्टि से महत्‍वपूर्ण है जिसमें काफी हद तक मनोरोगी की पसंद और राय को प्रमुखता दी गई है।  'अग्रिम निर्देश' जैसे प्रावधान हर व्‍यक्ति को अधिकार देते हैं कि वह यह निर्णय ले सके कि वह किस तरह अपनी देखभाल और इलाज चाहते हैं। इसके अन्‍य प्रावधान इस प्रकार हैं:

  • मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य केंद्र में दाखिल मनोरोगी के पास आगंतुकों से मिलने, फोन कॉल उठाने या मेल आदि का जवाब देने या उसे इंकार करने का अधिकार होगा।
  • मनोरोगी को अपने इलाके/निवास पर इलाज कराने का अधिकार होगा तथा मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य केंद्रों में वह केवल न्‍यूनतम इलाज/देखभाल ले सकता है। इसका उद्देश्‍य मरीज़ को समाज में रहने, उसका हिस्‍सा बने रहने तथा जहां तक मुमकिन हो सके उससे अलग नहीं करना है।
  • हर मरीज़ को निर्दयी, अमानवीय तथा अपमानजनक व्‍यवहार से सुरक्षा पाने का अधिकार है और मानव स्‍वास्‍थ्‍य केंद्र में शिक्षा, विश्राम, धार्मिक कार्य की सुविधाएं होंगी और वह सुरक्षित तथा साफ होंगे।
  • किसी भी मरीज़ को कोई काम करने तथा बाल कटाने और वहां की पोषाक पहने के लिए विवश नहीं किया जाएगा।
  • मनोरोगियों को मेडिकल बीमा के लिए पात्र बनाया जाएगा।
  • सरकार मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य के कार्यक्रमों संबंधी योजना बनाने तथा उसे लागू करने और मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य और रोगों के बारे में जागरूकता लाने की अपने जिम्‍मेदारी के प्रति वचनबद्ध है।
  • हर व्‍यक्ति को किफायती दर पर ,उत्‍तम और अपेक्षित मात्रा में मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य संबंधी देखभाल और इलाज उपलब्‍ध होगा।
  • सरकार को सभी स्‍वास्‍थ्‍य कार्यक्रमों के हर स्‍तर पर सामान्‍य स्‍वास्‍थ्‍य संबंधी देखभाल सेवाओं में मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं के बारे में बताना चाहिए।


मानसिक रूप से स्‍वस्‍थ व्‍यक्ति एक स्‍वस्‍थ्‍य समाज और विकसित देश का प्रतीक होता है। केवल बेहतरीन स्‍वास्‍थ्‍य सेवाएं उपलब्‍ध कराना, सुरक्षा के लिए कानून बनाना काफी नहीं है इसके लिए मनारोगियों के प्रति भेदभाव, भ्रमों को खत्‍म करना और समाज का ऐसे व्‍यक्तियों के जज्‍बात को सही से समझना भी ज़रूरी है।

  

मंगलवार, 16 जुलाई 2013

राष्ट्रपति ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के 85 वें स्थापना दिवस पर व्याख्यान दिया

राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी ने आज राष्ट्रीय कृषि विज्ञान केंद्र परिसर, पूसा, नई दिल्ली में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के 85वें स्थापना दिवस पर व्याख्यान दिया।

इस अवसर पर राष्ट्रपति ने कहा कि हमें बारहवीं पंचवर्षीय योजना अवधि में कृषि वृद्धि दर का लक्ष्य हासिल करने के लिए उच्च पैदावार हासिल करनी होगी। हमें फसल विविधीकरण, पुराने बीजों के स्थान पर नए बीज लाने की दर में सुधार, अधिक उपज देने वाली किस्मों को अपनाने तथा जल प्रबंधन की परिपाटियों में सुधार जैसे पैदावार केंद्रित उपायों पर ज्यादा ध्यान देना होगा।

राष्ट्रपति ने कहा कि कृषि शिक्षा और विस्तार कार्यक्रमों के जरिए हमारे किसान समुदाय में उर्वरकों और कीटनाशकों के संतुलित इस्तेमाल की आवश्यकता का प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद-आइसीएआर और अन्य कृषि संस्थान उर्वरक इस्तेमाल की दक्षता को बढ़ावा देने के काम मे लगे हुए हैं। उन्होंने कहा कि आधुनिक प्रौद्योगिकी इस तरह से इस्तेमाल में लाया जाना चाहिए कि उससे फसल की किस्म, सही कृषि पद्धतियोें और अपनी उपज बेचने के लिए सही मण्डियों के चयन के संबंध में किसानों को निर्णय लेने में मदद मदद मिल सके।

राष्ट्रपति ने कहा कि भारत में करीब 85 प्रतिशत किसानों के पास 2 हेक्टेयर से भी छोटी जोत है जो उत्पादन की पूरी क्षमता हासिल करने में बाधा बनती है। ऐसी भूमिजोतों में उपज बढ़ाने के लिए किफायती, हल्के, बहु-उद्देश्यीय कृषि उपकरण विकसित करने आवश्यक हैं। उन्होंने कहा कि छोटी जोतों का मशीनीकरण समय की जरूरत है क्योंकि इससे व्यस्त सीजन के दौरान श्रम की कमी भी दूर हो सकती है। प्रभावशाली ऊर्जा प्रबंधन से कृषि में मशीनीकरण को सुगम बनाना चाहिए। उन्होंने कहा कि पारंपरिक ईंधनों पर निर्भरता कम करने और टिकाऊपन सुनिश्चित करने के लिए हमारे शोध संस्थानों को सौर ऊर्जा एवं जैवईंधनों जैसे नवीकरणीय ऊर्जा मॉडलों पर ध्यान देना चाहिए।

इस अवसर पर राष्ट्रपति ने किसान एसएमएस पोर्टल का शुभारंभ किया तथा आसीएआर राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किए।


इस अवसर पर केंद्रीय कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण मंत्री श्री शरद पवार, केंद्रीय कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण राज्य मंत्री डॉ. चरन दास महंत और केंद्रीय कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण राज्य मंत्री श्री तारिक अनवर उपस्थित थे।  

नालंदा का महान विश्‍वविद्यालय

नालंदा महाविहार (प्राचीन नालंदा विश्‍वविद्यालय) करीब आठ सौ वर्षों (पांचवी से 13वीं शताब्‍दी तक) विद्या का महान केन्‍द्र रहा। शुरू-शुरू में यह एक बौद्ध विहार था, जिसमें दुनिया के विभिन्‍न भागों से आए हुए हजारों भिक्षु रहते थे। अपने नालंदा प्रवास के दौरान वे बुद्धधम्‍म  और परिपत्ति तथा धम्‍मशासनम आदि के आधार पर बुद्धधम्‍म का अध्‍ययन करते थे। वरिष्‍ठ भिक्षु कनिष्‍ठ भिक्षुओं को उपदेश भी देते थे। इस तरह से प्राचीन नालंदा महाविहार की शुरूआत हुई। महाविहार विकसित हुआ और आखिरकार यह ऐसा विश्‍वविद्यालय बन गया, जिसकी दुनियाभर में कोई मिसाल नहीं थी। इसकी प्रतिष्‍ठा इतनी बढ़ी कि इसे विश्व विद्यालयों  का विश्‍वविद्यालय कहा जाने लगा।

वस्‍तुत: नालंदा महाविहार सिर्फ विद्या का महान केन्‍द्र ही नहीं था। यह संस्‍कृति और सभ्‍यता का एक महान केन्‍द्र बन गया। यह ऐसा स्‍थान था, जहां बुद्ध धर्म और इसकी सभी शाखाओं का अध्‍ययन ही नहीं किया जाता था, बल्कि बुद्ध धर्म के विचारों से इतर अन्‍य  संस्‍कृतियों का भी गहराई से तुलनात्‍मक अध्‍ययन किया जाता था। इस प्रकार से यह बौद्ध संस्‍कृति का ही नहीं बल्कि भारतीय संस्‍कृति का केन्‍द्र बन गया।

इस विश्‍वविद्यालय का नाम और इसकी प्रतिष्‍ठा पूरे एशिया में फैल गई। एशिया के विभिन्‍न देशों से विद्वान आकर यहां बौद्ध धर्म का अध्‍ययन करते थे। जिन देशों से विद्वान अध्‍ययन के लिए आते थे उनमें चीन, तिब्‍बत, कोरिया, मंगोलिया, भूटान, इंडोनेशिया, मध्‍य एशिया आदि प्रमुख हैं।

धीरे-धीरे विभिन्‍न देशों से विद्वानों का आदान-प्रदान शुरू हो गया। कोरिया, चीन और तिब्‍बत से बौद्ध भिक्षु नालंदा आया करते थे। तिब्‍बत से भी विद्वान नालंदा आते थे और बौद्ध धर्म और भारतीय संस्‍कृति के अपने ज्ञान में वृद्धि करते थे। इस प्रकार से नालंदा महाविहार के भिक्षु विद्वान संस्‍कृति के महान उपासक बन गए।

अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर बात करें, तो नालंदा को भारत के पर्यटक मानचित्र पर ऐसा स्‍थान दिया जा सकता है जो सर्वश्रेष्‍ठ, पुरातत्‍व स्‍थल है और जिस पर सभी भारतीयों को गर्व है। इस विश्‍वविद्यालय के खंडहर बड़गांव में पाए गए हैं। यह स्‍थान पूर्वी रेलवे लाइन की शाखा पर नालंदा रेलवे स्‍टेशन के पास बख्तियार-राजगीर ब्रांच लाइन पर पड़ता है। अगर कोई आज इस स्‍थान की तलाश में जाए तो उसे मौके पर नालंदा विश्‍वविद्यालय के आंशिक खुदाई वाले खंडहर मिलेंगे। इसके आस-पास ही अनेक गांव बस गए हैं, जिनमें बुद्ध की मूर्तियां विभिन्‍न रूपों में मिली हैं।

हालांकि इस स्‍थान को 1812 में फ्रांसीस बुकानन ने देखा था, लेकिन वह इसकी पहचान नहीं कर पाया। इस स्‍थान पर नियमित ढंग से खुदाई 1915 में शुरू हुई और दो दशकों तक पंडित हीरानन्‍द शास्‍त्री के अथक प्रयासों के बाद नालंदा का महान स्‍वरूप धरती की कोख से फिर प्रकट हुआ। अब इस स्‍थान को नालंदा के खंडहर कहा जाता है।

बोधिसत्‍व की तरह महावीर का जन्‍म भी ऐसे स्‍थान पर हुआ था, जिसके नाम से पहले नव लगता है। यह 1951 में वेन भिक्षु जगदीश कश्‍यप के समर्पित प्रयासों का नतीजा था। उनके उत्‍तराधिकारियों ने इन प्रयासों को आगे बढ़ाया। देश-विदेश के छात्रों और विद्वानों ने अध्‍ययन, ध्‍यान और बौद्धिक प्रयासों के जरिए इनका अध्‍ययन किया। इस स्‍थान पर एक संदर्भ विश्‍वविद्यालय, इस संस्‍थान के अनेक महत्‍वपूर्ण प्रकाशन, त्रिपिटकों के अंकीय संस्‍करण, बौद्ध धर्म का गहन अध्‍ययन, प्राकृत, संस्‍कृत ग्रंथों की सहायता से किया जाता है। इसके अलावा उन प्राचीन ग्रंथों के अध्‍ययन किये जाते हैं, जो नव नालंदा महाविहार की उपलब्धियां माने जाते हैं। नालंदा विश्‍वविद्यालय में क्‍सानजान (इन्‍हें आम तौर पर हुयेनसांग कहा जाता है), इनके नाम से ही चीन के इस यात्री की विद्वता और साधु प्रकृति झलकती है। दुनिया ने अगर बुद्ध धर्म को समझा है, तो इसमें हुयेनसांग की प्रतिभा का योगदान है। साथ ही, उन आचार्यों का भी योगदान है, जो भारत की ज्ञान पताका लेकर विदेश गए और वहां देश का नाम ऊँचा किया। अब नालंदा विश्‍वविद्यालय एक आकर्षक पर्यटक स्‍थल बन गया है, जहां महान क्‍सानजान की कांस्‍य की प्रतिमा स्‍थापित की गई है। इसके चारों तरफ जलाशय और फव्‍वारे लगाए गए हैं तथा यह स्‍थान हरी वाटिका से घिरा हुआ है।

नालंदा गुरु-शिष्‍य परम्‍परा की एक महान मिसाल थी। यह विशुद्ध भारतीय परम्‍परा है। इसके अंतर्गत शिष्‍य पर गुरु का पूरा आधिपत्‍य होता था, भले ही शैक्षिक विषयों पर असहमति की अनुमति थी। यह परंपरा हजारों वर्षों से चली आई थी और किसी अन्‍य स्‍थान की तरह नालंदा में ज्‍यादा फली-फूली।

गुरु-शिष्‍य परंपरा की चर्चा करते हुए आई त्सिंह कहते हैं ‘’ वह (शिष्‍य) गुरु के पास पहली बार रात में पहुंचता है। गुरु उसे पहली बार में बैठने का आदेश देते हैं और कहते हैं कि त्रिपिटकों में से किसी एक को चुन लो, वह उन्‍हें कुछ इस प्रकार से अध्‍ययन करने को कहते हैं, जो उन्‍हें और परिस्थितियों के अनुकूल होता है और ऐसा कोई तथ्‍य अथवा सिद्धांत नहीं बचता, जिसे वह स्‍पष्‍ट न करें। गुरु शिष्‍य के नैतिक आचारण की परीक्षा लेते हैं और अगर कोई गलती या विचलन पाते हैं, तो उसे चेतावनी देते हैं। जब भी उन्‍हें शिष्य में कोई कमी दिखाई देती है, वह उसे दूर करने अथवा विनयपूर्वक पश्‍चाताप करने के लिए कहते हैं। शिष्‍य गुरु के शरीर की मालिश करता है उनके कपड़ों की तह करता है और कभी-कभी घर-बाहर झाडू भी लगाता है। इसके बाद जल परीक्षा होती है। इसके बाद भी अगर कुछ करना होता है, तो शिष्‍य गुरु की सेवा करता है।

इस बात पर कोई आश्‍चर्य नहीं कि गुरु और शिष्‍य दोनों ही उसी प्रकार के पीले वस्‍त्र पहनते थे, जिनकी चर्चा बौद्ध ग्रंथों में उपलब्‍ध है। ये वस्‍त्र कमर के चारों तरफ लिपटे होते थे और घुटनों के नीचे तक लटकते थे। गुरु शिष्‍य दोनों ही सादा और सात्विक भोजन करते थे। हुयेनसांग के जीवनी के लेखक शाओमान हुई ली के अनुसार नालंदा विश्‍वविद्यलय का खर्च उसके आस-पास बसे लगभग एक सौ गांवों के निवासी उठाते थे।

नालंदा विश्‍वविद्यालय का विनाश तुर्क आक्रमणकारियों के हाथों हुआ और यह बहुत त्रासद रहा। 1205 ईसवी में जब बख्‍तियार खिलजी में नालंदा विश्‍वविद्यालय में आग लगा दी तो वह इसके जलने पर हंसता रहा। इस ज्ञान मंदिर को बनाने में जहां कई शताब्दियां लग गईं, वहीं इसको बर्बाद करने में कुछ ही घन्‍टे लगे। कहा तो यहां तक जाता है कि जब कुछ बौद्ध भिक्षु आक्रमणकारी से इस विश्‍व प्रसिद्ध विश्‍वविद्यालय के पुस्‍तकालय को नष्‍ट न करने के लिए अनुनय विनय कर रहे थे, तो उसने उन्‍हें ठोकर मारी और उसी आग में फिंकवा दिया, जिसमें पुस्‍तकें जल रही थीं। रत्‍नबोधि इस महान विश्‍वविद्यालय के पुस्‍तकालय का नाम था। इसके बाद बौद्ध भिक्षु इधर-उधर भाग गए और नालंदा की सिर्फ यादे ही शेष रहीं।

इस प्रकार से नालंदा विश्‍वविद्यालय की महान गाथा का अंत हुआ। इसकी चर्चा महान इतिहासकार हैमिलटन और बाद में अलेक्‍जेंडर कनिंघम ने की है। 1915 में इस स्‍थान पर खुदाई शुरू की गई, जो 20 वर्षों तक जारी रही। अब भी करने को बहुत कुछ बाकी है। नव नालंदा महाविहार इस स्‍थान के बगल ही स्थित है।

आधुनिक सरकार ने नालंदा विश्वविद्यालय के पुनरूद्धार के लिए अनेक प्रयास किए हैं। अब संसद ने नालंदा विश्वविद्यालय विधेयक पास किया है, जिसके अनुसार केन्‍द्र और राज्‍य सरकारों ने नालंदा शिक्षा संस्‍थान को वर्ल्‍डक्‍लास का दर्जा देने के लिए अपने प्रयास शुरू कर दिए हैं।

 (पसूका)

सोमवार, 15 जुलाई 2013

Mural Paintings In India

Murals are essentially artwork painted on walls, ceilings or any huge stable surface. Mural painting is an art somewhere flanked by fine art and house painting. Mural paintings in India date back to times immemorial. Painting murals is fundamentally associated to Indian painting traditions. Murals are considered as the first evidence of Indian paintings discovered from the ancient civilization remnants. Flamboyant murals adorn numerous temples in India as a part of the intricate tapestry of ornamental work which has evolved through the ages. Murals adorning the temples portray legendary and mythological figures and their epic battles and life stories. Antique Indian religious artwork is greatly recognized for the Indian mural paintings of Kerala. Ancient Buddhist and Hindu stonework figurines carved into caves and sides of cliffs from many centuries are also celebrated.

Earliest Evidence of Murals
The stunning frescoes painted on the caves of Ajanta and Ellora, on the Bagh caves in Madhya Pradesh, Sittannavasal in Tamil Nadu and caves of Badami in Karnataka are earliest evidences of murals. They are celebrated for their linear styles as well. In ancient scripts and literature, numerous evidences of mural paintings are there. According to Vinaya Pitaka, the then kings, traders and merchants were painted on the palace walls. Also plentiful references in antediluvian texts are there about galleries maintained by rulers and kings.

Colors of Murals
Colors for mural paintings in India were derived from natural materials like chalk, terracotta, red and yellow ochre mixed with animal fat. Pigments of paints were from local volcanic rocks, lamp black was the exception.

Animal glue and vegetable gum was used which made these paintings suffer from insects and caused to flaking and blistering. Contours of figures stood out boldly in later paintings. Deep color washes were used for the same.

Subjects of Mural Paintings
Subjects incorporated in murals were figures of human beings and animals, family scenes, deities, court life, hunting, and stories from Jataka. The ancient painters created the murals with skilled hands and perceptive eyes. Ajanta paintings are a classical example of such paintings as they display crowded compositions, decorative motifs, figure types and details of costumes.

Mural Paintings of India
Eastern India is loaded with countless evidences of wall and panel paintings elucidating Budhhist and non-Budhhist themes. In Arunachal Pradesh and Tripurasublime significant mural works have been found. Wall paintings in Alchi and Hemis monasteries in Ladakh are famous; Spiti Vally in Himachal Pradesh is recognized for its Buddhist paintings in the Gomphas of Tabo Monastery.

Ajanta Murals include statues of deities, animals and guards. These murals date back to the 2nd century BC. Maratha murals are also fashioned under the Mughal traditions. They used oil as medium.

Punjabi Murals were introduced during the reign of the Mughals. They are unique in their own way. Beguiling murals embellished on the walls of palaces and forts ofAkbar and Jahangir display the influence of Persian styles. The Mogul painting greatly influenced the Rajput School of painting. Wall paintings in Bundi, Deeg, Ajmer, Jaipur, Jodhpur and other places in Rajasthan are moderately convincing.

In North India, murals at the Vishnu Temple, Madanpur in Lalitpur district of Uttar Pradesh (12th century AD) expose the dexterous hands of the painters. South India is luxurious in mural paintings. Murals reached the top during Cholas, Vijayanagaras and Nayakas.

Bijapur, Hyderabad, and Golconda schools were influenced by the Mughal traditions and then by European expression. Amongst the biggest murals ever painted in Asia is at the Veerabhadreswara temple at Lepakshi in Andhra Pradesh in South India. This mural is on the ceiling of the shrine. Murals of Kerala are flamboyantly depicted on the walls of temples and monuments. These murals illustrate the traces of European similarity.

Mural paintings in India are the classical form of art. Patches of light colors used to highlight the expressions of the characters of the murals. Illusions of depth in the murals were created by various innovative ways. They were painted in stages as first the outline was drawn, then colors were applied and contours were renewed. These paintings are a great source to display the richness of art forms and variety that enriched Indian art.


आयरन फोलिक एसिड अनुपूरण साप्ताहिक कार्यक्रम का शुभारंभ किया जाएगा

किशोर और किशोरियों के लिए आयरन फोलिक एसिड अनुपूरण साप्ताहिक कार्यक्रम का शुभारंभ 17 जुलाई, 2013 से किया जाएगा । राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य अभियान की अपर सचिव और अभियान निदेशक श्रीमती अनुराधा गुप्ता ने आज नई दिल्ली में इसकी जानकारी दी ।

इस अवसर पर मीडिया को संबोधित करते हुए श्रीमती गुप्ता ने कहा कि भारत में किशोर और किशोरियों में एनीमिया के व्यापक मामले हैं । उन्होंने कहा कि करीब 56 प्रतिशत लड़कियां और 30 प्रतिशत लड़के एनीमिया से पीड़ित हैं । प्राथमिक स्तर पर एनीमिया की बीमारी आवश्यक पोषक तत्वों की कमी की वजह से होती है । उन्होंने कहा कि पोषक तत्वों की कमी आज देश में सर्वाधिक गंभीर विषय है । पोषक तत्वों की कमी के करीब 50 प्रतिशत मामलों में लौह तत्व की कमी से होने वाला एनीमिया है । श्रीमती गुप्ता ने कहा कि एनीमिया के ज्यादातर मामले पोषक तत्वों और खाने में लौह तत्व की कमी का परिणाम है । एनीमिया की वजह से किशोरों और किशोरियों का शारीरिक विकास पूरी तरह से नहीं हो पाता । उनकी शिक्षा क्षमता और दैनिक कार्यों पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ता है । एनीमिया की शिकार किशोरियों को समय से पूर्व प्रसव और कम वज़न वाले नवजात शिशुओं के जन्म जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है ।

श्रीमती गुप्ता ने कहा कि एनीमिया से पीड़ित लड़कियों में मातृ मृत्यु दर का जोखिम अधिक रहता है । युवा महिलाओं में करीब एक तिहाई मातृ मृत्यु दर 15-24 वर्ष की आयु के बीच होती है । उन्होंने कहा कि बच्चों, युवाओं और हमारी आगामी पीढ़ी के स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने के लिए एनीमिया जैसी जटिल बीमारी का हल तलाशना होगा । इसी उद्देश्य के साथ स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने साप्ताहिक लौह और फोलिक एसिड अनुपूरण (डब्ल्यूआईएफएस) कार्यक्रम तैयार किया है । इस कार्यक्रम के माध्यम से सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ी इस चुनौती से निपटने के लिए कारगर कदम उठाए जाएंगे ।

श्रीमती गुप्ता ने कहा कि एक विशिष्ट पहल के तहत आईएफए अनुपूरक प्रदान किया जा रहा है । पोषण और स्वास्थ्य शिक्षा पर आधारित सत्रों के माध्यम से विद्यालय और आंगनबाड़ी केंद्र पोषण और स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर नवयुवकों और नवयुवतियों को उनके स्वास्थ्य पर सलाह देंगे । डब्ल्यूआईएफएस के अंतर्गत 10-19 वर्ष आयु समूह की किशोर जनसंख्या को शामिल किया गया है । ये कार्यक्रम शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों के साथ देशभर में लागू किया गया है । इसके अंतर्गत कक्षा 6-12 के सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त विद्यालयों के 6 करोड़ लड़कियां और लड़के तथा स्कूल न जाने वाले 7 करोड़ किशोर और किशोरियां शामिल हैं । उन्होंने कहा कि स्वास्थ्य मंत्रालय ने सभी राज्यों को सुझाव दिया है कि वे सप्ताह में एक दिन संभव हो तो सोमवार को आईएफए गोलियों को किशोर और किशोरियों को प्रदान करें ।


श्रीमती गुप्ता ने कहा कि ये कार्यक्रम महिला और बाल विकास मंत्रालय की समेकित बाल विकास योजना, सबला और एमओएचएफडब्ल्यू के तरुण स्वास्थ्य कार्यक्रमों की तरह ही किशोरों और किशोरियों के स्वास्थ्य पोषक जरूरतों से जुड़े मुद्दों के लिए एक महत्वपूर्ण मंच साबित होगा । डब्ल्यूआईएफएस को राष्ट्रीय, राज्य, जिला और ब्ल़ॉक स्तर पर सुविधाएं प्रदान की जा चुकी हैं । ये कार्यक्रम भी महिला और बाल विकास मंत्रालय के प्रमुख हितधारक मानव संसाधन विकास मंत्रालय के साथ मिलकर संचालित किया जा रहा है । श्रीमती गुप्ता ने बताया कि वर्ष 2012-13 के दौरान स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय इस कार्यक्रम के लिए 133 करोड़ रुपये का आबंटन कर चुका है ।  

PIB

रविवार, 14 जुलाई 2013

Strategic Communication Planning -Critical for Governance, Security

A recent television commercial apparently meant to popularize Chinese noodles, in fact, establishes the superiority of products made in China. Over the years, Indian people have formulated a perception that products made in China may be considerably cheaper but actually are of very inferior quality and do not last long. This commercial is aimed to manipulate this popular perception and plant the thought in the minds of Indian children that Chinese goods are better and desirable. If the commercial was for only selling noodles, there was no need to project the mother as a Chinese woman wearing a Chinese dress. The child also tells his sister that not only their mom is Chinese but she also uses other products of China including the cell phone. Perception management through mass communication has been in vogue for long. Even during both the World Wars, all the stakeholders used pamphlets to either demoralize the enemy populations or to establish the superiority of their side.

Of all the fields including strategic planning, diplomatic moves, human resource management, troop deployment, financial maneuvering et al, it is communication planning that receives the least attention though at times it may prove to be vital and the most effective tool to achieve the desired goals. Economies all over the world may be receding, political stability may be becoming more vulnerable, social disharmony may be taking gigantic steps, cultures may be becoming more and more pungent but human connectivity is advancing by leaps and bounds. Not only in the developing societies but also in underdeveloped systems, penetration of mobile telephony and Internet is growing at an unprecedented speed. In the past, neither the radio nor television could reach the lowest strata of the societies but new media has done a wonder by connecting the largest section of the human population. In the entire history of mankind, the quantum of social change that occurred during last two decades due to the new technologies of communication is the largest as compared to what happened over the last few centuries.

The service providers may have succeeded in strategic planning to distribute their hardware and services to masses but the content of the communication has received scanty attention of the strategic planners. Today, USA is the most effective strategic planner and has been able to market its atrocities on people outside its jurisdiction as its sacrifice for humanity. At one point of time, the Soviet Union also communicated the superiority of its leftist ideology to the world effectively but failed miserably against the information onslaught of the West including the USA. China is a new entrant in the international information warfare. The example of the commercial of Chinese Noodles is only the tip of the iceberg. The manner in which China fed the Indian media about its justification of intruding into the Indian Territory is another example. The Indian media, both print and television, gave extra space and time to project Chinese assertions along with what our own government was conveying. The gradual perception management of the Indian population about China is a planned communication strategy by our unfriendly neighbour.

We in India appear to be using communication media quite extensively but in bits and pieces and certainly not for a sustained long term strategic effort. We hardly have a worth mentioning system of feeding the foreign media even in New Delhi. Most of the news and comments that foreign media persons create is based upon the reports of the Indian English media. In this process, both the real India and the views of the Government receive a scanty representation resulting in incomplete and distorted perceptions about India all over the world. In India, we may have a huge army of very able media persons yet we do not have even one communication strategist worth mentioning. We have the expertise to use media on piece meal basis but perhaps we do not have even a felt need to plan communications in a strategic manner to achieve our goals within and outside our own territory.

The strategic planning of communications inter alia includes
·         listing the long and short term communication objectives,
·         identifying and understanding the target audiences,
·         designing a media mix to reach these audiences
·         creating media content so as to make lasting impressions
·         actually reaching the target audiences repeatedly in a planned manner
·         collecting feedback from the audiences
·         making midway corrections in media mix, media plan and the messages
·         conducting periodical impact analysis

In his August 2008 paper, Rober T Hastings Jr. described strategic communication as "the synchronization of images, actions and words to achieve a desired effect." Steve Tathan of the UK Defence Academy argues that it is desirable to bind and coordinate communications together; it should be regarded in a much more fundamental manner than simply a process. The 'informational effect' should be placed at the very epi-centre and all action must be calibrated against that effect - including the evaluation of 2nd and 3rd order effects. This, according to him, is proper Strategic Communication. He makes a distinction between Strategic Communication and Strategic Communications and prefers the former to achieve the objectives.

Another important aspect is that strategic communication cannot be an effort isolated from the primary project planning. In fact, the emphasis should be to make communication planning as an integral part of the plan and policy document. An approved NATO document on Policy on Strategic Communication highlights the desirability of integrating the communication efforts with the main plan in an inseparable manner. It states, "the coordinated and appropriate use of NATO communications activities and capabilities – Public Diplomacy, Military Public Affairs, Information Operations and Psychological Operations, as appropriate – in support of Alliance policies, operations and activities, and in order to advance NATO's aims" (SG(2009)0794). "It is important to underline that Strategic Communication is first and foremost a process that supports and underpins all efforts to achieve the Alliance's objectives; an enabler that guides and informs our decisions, and not an organization in itself. It is for this reason that Strategic Communication considerations should be integrated into the earliest planning phases - communication activities being a consequence of that planning" (MCM-0164-2009).

In our own country perhaps the longest information campaign was that of Ministry of Health as a part of the population control measures. The campaign started in early fifties of the last century and is still on but success in changing perception in favor of small family and fewer number of children has only been partial. About one fifth of the population, mainly of minorities, has not been targeted so far. The apparent reason is that it was a campaign in bits and pieces and the thrust kept on changing. Assorted information events cannot succeed in changing the mind set.

The NDA Government’s India Shining campaign of about Rs 200 crores is another example. Out of the blue, the Indians were told that despite intense economic and social inequalities, India was shining. It failed to assess the perceptions of the people at the time when the campaign was launched. You cannot make a beginning from the point where you have yet to reach and that was the great disconnect. Perhaps the claim of shine was blinding for the common Indians. India Shining was a communication event management and not even a campaign what to talk about strategy.

Bharat Nirman advertisement bonanza of UPA of about Rs 600 crores seems to follow the same pattern. It has no connect with the Government advertisements of the recent past, neither there is any sign of strategic planning. A strategy unfolds gradually and adds on to the information and motivation step by step. But each ad of Bharat Nirman is complete in itself and does not connect with the past. An effective campaign like that of Amul is a progressive journey from one point to another, both points well defined by the planners in this case.

Communication theorist describes this non-strategic communication in terms of 'bullet theory'. Information is fired rapidly like bullets in the direction of the targets but without taking a precise aim. Result is huge redundancy and wasted effort. Long back Steel Authority of India took up a strategic communication campaign and over the years created an image for them as a company that is socially relevant and yet it also makes steel. Delhi Development Authority (DDA) during last decade or so has systematically managed to change the public perception of the people of Delhi about DDA from being a highly corrupt and inefficient organization to one with committed to transparency and public convenience.

Another failure of thinking and planning in terms of strategic communication planning is our war with the Naxals. We are hardly fighting the Naxals on the ideological front by taking up information to the minds of the already affected and likely to be affected populations. No one is shouting that Maoism has failed elsewhere and it is bound to create more problems than it can solve. Deployment of uniformed personnel and launching combat can be one part of strategy but psychological combat by way of information onslaught is hardly being planned. May be, it is essential to prepare the populations where Naxalites are likely to extend their wings to oppose Maoism on the ideological level. But it needs a mindset of strategic and systematic planning of changing the thought and behavior. Unfortunately the experts are perhaps not even sensitized to this kind of psycho-warfare within the country.

We do not know whether Mahatma Gandhi consciously planned his communication strategy for non violent protest but there appears to be a shadow of consistent progressive effort to inform and mobilize the people. Swami Vivekananda had a well laid down strategy to reestablish Vedanta and superiority of Hindu thought well before he physically left India to conquer the world. His was a victory by communicating effectively and strategically.

In various management teaching programs, planning, finance, human resource, marketing etc. are essential components of learning but it would be worthwhile to introduce the theory and practice of communication strategic planning. It would not only help in business but it will also help in the process of governance. In addition, seminars, workshops and add-on courses may also be organized to produce communication strategic planners. But, alas, this also needs strategic planning, of which we are shy to a great extent.

Prof. B K Kuthiala

The author is the Vice-Chancellor of the Makhanlal Chaturvedi National University of Journalism & Communication, Bhopal

जीएम बीज, फसल और सेहत

केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने पोषण और कृषि के क्षेत्रों के विशेषज्ञों की एक सभा में एक सवाल उठाया कि क्या आप एक ऐसी कृषि व्यवस्था चाहते हैं, जहां 95 प्रतिशत बीजों पर एक कंपनी का कब्जा हो? श्री रमेश के इस सवाल और उससे जुड़े संदर्भों पर केवल सभाओं में नहीं बल्कि देशव्यापी स्तर पर विचार मंथन कर जवाब तलाशने की आवश्यकता है। जयराम रमेश ने यह सवाल जीएम अर्थात जेनेटिकली मोडीफाइड (अनुवांशिक अभियांत्रिकी) फसलों पर संदेह जतलाते हुए उठाया। उन्होंने कहा कि पोषण में कृषि के महत्व को पहचानने से लेकर जीएम फसल के लिए मामला बनाना एक बहुत छोटा कदम है। व्यक्ति को प्रथम हरित क्रांति और आज की हरित क्रांति के बीच मौलिक अंतर समझना चाहिए। भारत में पहली हरित क्रांति के लिए गेहूं और धान की नई किस्में क्रमश: मैक्सिको स्थित सिम्मिट और फिलिपींस स्थित आइआरआइ से आई, पर आज हालात अलग हैं। फसल की नई किस्में मोंसेंटो और सिंजेंटा से आ रही है। ये वे दो विशाल कंपनियां हैं, जो जीएम से परिवर्तित फसलों की सबसे बड़ी प्रायोजक हैं। आज दूसरी तरह का खेल हो रहा है। श्री रमेश ने जीएम बीजों के बारे में अपनी राय रखते हुए कहा कि व्यक्तिगत रूप से मैं इस तरह की खेती के बारे में संदेह रखता हूं। क्योंकि इससे विजातीय जीन से तैयार फ सलों के झंडाबरदारों और हिमायती लोगों के लिए घुसने का मौका मिलता है। मेरा मानना है कि हमें इस बारे में बहुत सावधान रहना चाहिए।  यह सुनना बड़ा लुभावना लगता है कि चावल विटामिन ए से लैस होगा, एक गेहूं की ऐसी प्रजाति होगी, जिसमें लौहतत्व (आयरन) मिलेगा और ऐसी अद्भुत चीजें ट्रांसजेनेटिक तकनीक (विजातीय प्रजातियों के जीन के प्रयोग से विकसित फसल) की प्रौद्योगिकी के आधार पर कही जा रही है। श्री रमेश की इन बातों से असहमत होने का कोई कारण नजर नहींआता। उच्च पैष्टिकता से भरपूर फसलों का हवाला देकर किसी को भी झांसा देना आसान है, लेकिन हकीकत कुछ और ही होती है। ये फसलें पहली नजर में तो पौष्टिक लगती हैं, लेकिन इनका दूरगामी प्रभाव विपरीत ही पड़ता है और इसका नकारात्मक असर हमारी पारंपरिक खेती पर भी पड़ता है। दरअसल यह सारा खेल खेती को बंधक रख, उसे मुनाफा कमाने वाले उद्योग में तब्दील करने के लिए रचा गया है और इसके दो बड़े वैश्विक खिलाड़ी मोंसैंटो और सिंजेंटा नामक कंपनियां हैं। बड़ी चतुराई से इन दोनों कंपनियों ने कृषि प्रधान भारत में अपनी दखल बढ़ाई और फिर यहां की सारी खेती को कठपुतली बनाकर उसकी डोर अपने हाथों में रखनी चाही। यही कारण है कि अब गुजरात में जैविक खेती करने वाले किसानों के एक संगठन ने अपना बीज बैंक बनाने का निर्णय किया है, ताकि इन कंपनियों को खेती में एकाधिकार न जमाने दे, उनके महंगे व नुकसानदायक बीजों के मुकाबले अपने बीजों से खेती करें, जो फसल के लिहाज से भी अच्छी होगी और सेहत के लिहाज से भी।

जयराम रमेश ने कृषि एवं पर्यावरण मंत्री रहते हुए बीटी बैंगन पर रोक लगाई थी। जीएम तकनीक से उगाया गया कपास और मक्का भी संदेह के घेरे में आ चुके हैं। कुछ समय पहले ही पर्यावरण संगठन ग्रीनपीस ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि किस तरह जीएम फसलों का नकारात्मक असर शरीर के रोग प्रतिरोधात्मक तंत्र पर पड़ता है। लेकिन इसके बावजूद हमारे देश में जैवसुरक्षा आकलन की प्रक्रिया में पर्याप्त सावधानी नहींबरती जा रही। ग्रीनपीस का मानना है किहमारे देश का जीएम नियामक तंत्र एक तरफ  तो जीएम फसलों की जैवसुरक्षा सम्बन्धी महत्वपूर्ण सूचनाओं को छुपाता है, वहीं दूसरी ओर उन्हीं फसलों के क्षेत्रीय परीक्षण को अनुमति भी देता है। इससे हमारे भोजन तथा बीज आपूर्ति श्रृंखला पर बुरा असर पड़ सकता है। यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है और देश के नागरिकों व किसानों दोनों के साथ छल है। सबसे ऊपर जो सवाल उठाया गया है, उसके जवाब में जब हम दृढ़ इन्कार करेंगे, तभी भविष्य के खतरे से बचा जा सकेगा।

देशबंधु

शनिवार, 13 जुलाई 2013

इस्लामी दुनिया और आधुनिक लोकतंत्र

जास्मिन क्रांति से लेकर अब तक अरब इस्लामी दुनिया में एक ऐसी हलचल पैदा की जिसने कई तानाशाहों को अर्श से फर्श पर पहुंचाया और उन देशों को लोकतांत्रिक व्यवस्था की ओर उन्मुख बनाया। हालांकि उसके बाद भी वहां सब कुछ शांतिपूर्ण चल नहीं चल रहा है जिसका सीधा सा मतलब था कि जास्मिन जिन उद्देश्यों को लेकर सम्पन्न हुई थी या जिन उद्देश्यों  को लेकर तानाशाहों को हटाया गया था, अब तक वे प्राप्त नहीं हो सके हैं।

इसका परिणाम यह हुआ कि क्रांति किसी न किसी रूप में पुन: व्यक्त होने का प्रयास करती है। सवाल यह उठता है कि आखिर क्यों? अरब इस्लामी विश्व में इन क्रांति का मूल मकसद रहा है तानाशाहों का उन्मूलन और लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना। लेकिन सच तो यह है कि जास्मिन या उसकी अनुषंगी क्रांतियों ने तानाशाहों को हटाने तक योजना तो बनाई थी, लेकिन व्यवस्था के नवनिर्माण और उसके संचालन का विजन उनके पास नहीं था, इसलिए वे पूरी तरह से सफल नहीं हो सकीं?

अरब दुनिया के कुछ देशों से तानाशाहों की विदाई इस्लामी दुनिया की अवाम के लिए एक बड़ी जीत थी। लेकिन इसके बाद जनता को जो हासिल हुआ उसे देखते हुए एक सवाल उठता है कि क्या क्रांति वास्तव में सफल रही? क्या क्रांति ने जो मूल्य अपने संजो रखे थे, वे उन देशों में स्थापित हुए? ऐसा नहीं लगता कि तानाशाहों की सत्ता से बेदखली के बाद जो राजनीतिक शून्य उभरा था उसे नई अधिनायकवादी शक्तियों ने भरने में कामयाबी हासिल कर ली। ऐसे में यह बहस तो छिड़नी स्वाभाविक थी कि क्या इस्लाम अधिनायकवाद को बढ़ावा देता है? क्या मध्य-पूर्व में राजनीतिक पिछड़ेपन के लिए इस्लाम ही जिम्मेदार है? इस्लाम और लोकतंत्र के बीच किस तरह के सम्बंध हैं? पश्चिमी दुनिया से शुरू हुई यह बहस धीरे-धीरे अब अपना आकार काफी बढ़ा चुकी है जिसमें इस्लामवादियों का नजरिया गैर-इस्लामवादियों से पूरी तरह से भिन्न है। कुछ समय पहले येल ग्लोबल मैगजीन में प्रकाशित एक रिपोर्ट ने इस विषय से सम्बंधित विभिन्न पहलुओं को विभिन्न स्कॉलरों की विशेष टिप्पणियों के साथ सहित प्रस्तुत किया है।  रिपोर्ट में एक समाज विज्ञानी अर्न्स्ट गैलनर के माध्यम से बताया है कि यूरोप के तीन सबसे बड़े मतों में से एक इस्लाम आधुनिकता के सबसे करीब है। रिपोर्ट इस बात पर भी फोकस करती नजर आ रही है कि नये यूरोप की स्थापना यानी उसे आधुनिकता के करीब लाने में इस्लाम की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। फिर तो इस्लाम और आधुनिकता एक-दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं। अगर ऐसा है कि तो किसी भी कीमत पर यह बात स्वीकार नहीं की जा सकती कि इस्लामी विश्व में आए पिछड़ेपन के लिए इस्लाम धर्म जिम्मेदार है। फिर क्या इस्लामी दुनिया के पिछड़ेपन के लिए इस्लाम धर्म को कटघरे में खड़ा करना पश्चिमी देशों का वैचारिक प्रोपेगेंडा मात्र है ताकि सभ्यताओं के संघर्ष को जस्टीफाई किया जा सके?

इस संदर्भ में इतिहास के कुछ पन्ने उलटना जरूरी है ताकि यह देखा जा सके कि यूरोप सही अर्थों में रेनेसां (पुर्नजागरण) और रिफर्मेशन के बाद ही रूपांतरित हुआ। इसकी बुनियाद कांस्टैंटीनोपुल से भागकर यूरोपीय शहरों में गये व्यापारियों ने अपने ज्ञान, अपने ग्रंथों और अपनी विचारधारा और वार ऑफ क्रुसेड्स के समय यूरोपीय सैनिक द्वारा अरब से लाये गये ज्ञान पर रखी गई जिसने स्कालिस्टिकवादियों के मिथकों को तोड़ा। फिर इस्लाम आधुनिकता विरोधी कैसे हुआ? इस रिपोर्ट में इस बात का भी उल्लेख है कि 17वीं शताब्दी से पहले अरब दुनिया यूरोपीय दुनिया के मुकाबले काफी बेहतर थी क्योंकि मुस्लिम व्यापारी दुनिया भर में व्यापार करते थे जिससे अरब दुनिया आज के यूरोप की तरह सम्पन्न और आधुनिक थी। एंगस मेडिसन ने इस स्थिति को कुछ आंकड़ों के माध्यम से प्रमाणित करने की कोशिश की है। उनका मानना है कि अरब देशों की आर्थिक स्थिति यूरोपीय देशों से बेहतर थी और वैश्विक जीडीपी में अरब दुनिया की हिस्सेदारी यूरोप के मुकाबले बहुत यादा थी। रिपोर्ट में कहा गया है कि 1000 ई. में अरब दुनिया की जीडीपी विश्व जीडीपी में 10 प्रतिशत हिस्सा रखती थी जबकि यूरोप की हिस्सेदारी इससे एक प्रतिशत कम थी। लेकिन 17वीं शताब्दी में यह स्थिति पूरी तरह से बदल गई और यूरोप की वैश्विक जीडीपी में यूरोप की हिस्सेदारी 22 हो गई जबकि अरब देश केवल 2 प्रतिशत पर ही सिमटकर रह गए। इसका परिवर्तन का कारण क्या था? क्या इसकी असल वजह इस्लाम धर्म में निहित थी या बाहरी कारण इसके लिए जिम्मेदार थे? विद्वानों के एक वर्ग का मानना है कि धार्मिक कारणों से इस्लामी दुनिया के व्यापार में गिरावट आई जिसका सीधा असर उनकी जीडीपी पर पड़ा। इस बहस में मोटे तौर पर दो बातें नजर आ रही हैं। एक जो इस्लामवादियों के द्वारा इस्लाम के पक्ष में की जा रही है और दूसरी उसके विरोध में खड़े वर्ग द्वारा।

जीडीपी से जुड़े जिन आंकड़ों को प्रस्तुत किया गया है वे काल्पनिक या विशुध्द रूप से अनुमानित हैं क्योंकि उस समय ऐसी कोई वैश्विक संस्था विद्यमान नहीं थी जो आज की तरह जीडीपी के तुलनात्मक आंकड़े प्रस्तुत करती हो जिससे वस्तुस्थिति की सही जानकारी हो सके। हां, यूरोप के आधुनिक युग में प्रवेश करने के पहले इस्लामवादियों के अधीन बड़े साम्राय रहे थे, इसलिए मुस्लिमअरब व्यापारियों को अपेक्षाकृत अधिक सुविधाएं हासिल थीं। ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक ही था कि इस्लामी दुनिया व्यापार के क्षेत्र में आगे रहती। लेकिन जब यूरोप के आधुनिकीकरण की शुरूआत हुई तो उसके साथ-साथ वाणियवाद और उद्योगवाद भी आया जिसकी सम्पन्नता और विस्तार के लिए नवोदित यूरोपीय पूंजीवादी शक्तियों के नेतृत्व में साम्रायवाद की शुरूआत हुई। इसने एशिया और अफ्रीका के देशों और लोगों को अपना शिकार बनाया। इसी व्यवस्था ने स्थिति को उलट दिया। यानी इस्लामी दुनिया के पिछड़ने के लिए इस्लाम नहीं, बल्कि यूरोपीय ताकतों की महत्वाकांक्षाएं जिम्मेदार रहीं। रही बात स्वतंत्रता और लोकतंत्र की तो जैसा कि विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट बताती है कि मुस्लिम देशों में स्वतंत्रता और लोकतंत्र की कमी है, पूरी तरह से सही है। इसलिए इस सच को स्वीकारा जाना चाहिए। इस सम्बंध में इस्लामी स्कॉलरों को अतीत की सभ्यता के खोल से बाहर निकलकर स्वस्थ बहस में हिस्सा लेना चाहिए। यह सच है कि अरबों ने यूरोप को परिवर्तित करने में बड़ा योगदान दिया, लेकिन एक सच यह भी है वे उन्हीं मूल्यों को अपने यहां सुरक्षित नहीं रख पाए। यह सच है कि अधिनायकवाद के आगमन के लिए इस्लाम को दोषी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि अधिनायकवाद का इतिहास इस्लाम से यादा पुराना है। लेकिन एक सच यह भी है कि लगभग सात दशकों में अधिनायकवादियों का दबदबा सबसे यादा इस्लामी देशों में ही रहा है। महत्वपूर्ण बात यह है कि पिछले इस दौर में इन देशों में अधिनायकवाद के साथ-साथ बड़ी तेजी से कट्टरपंथ का उभार भी हुआ, उसके लिए जिम्मेदार कारण कोई भी हो सकते हैं। कट्टरपंथ ने जहां आधुनिक मूल्यों को दबाकर रूढ़िवादी समाज को विकसित करने का काम किया वहीं अधिनायकवाद ने लोकतांत्रिक मूल्यों को कुचलकर प्राच्य निरंकुशता को प्रश्रय दिया। ये दोनों ही आधुनिक मूल्यों एवं व्यवस्था के लिए प्रतिघाती सिध्द हुए।


अरब इस्लामी दुनिया में पैदा हुई क्रांति इस दोतरफा दबाव से उपजे प्रतिरोध की अगली कड़ी थी जिसने दो से तीन दशकों से सत्ता पर काबिज तानाशाहों को  सत्ता से बेदखल कर दिया। लेकिन क्रांतिकारियों के पास भविष्य के शासन की रूपरेखा न होने के कारण वे कट्टरपंथी ताकतों की गिरफ्त में आ गए। ऐसे में बहस को इस्लामी धर्मशास्त्रों के बुनियादी सिध्दांतों पर केन्द्रित ना करके इस समय मौजूद इस्लामी कट्टरपंथी ताकतों और उनके धार्मिक-राजनीति सरोकारों पर केन्द्रित किया जाए तो सार्थक परिणाम की संभावना बढ़ेगी अन्यथा वैचारिक टकराव का वातावरण निर्मित होने की सम्भावना अधिक रहेगी जिसके अहितकारी परिणाम दुनिया की शांति और सुरक्षा के लिए घातक होंगे। लेकिन जिस तरह से लीबिया, सीरिया और बहुत हद तक मिस्र भी आंतरिक धार्मिक विघटन की ओर जा रहे हैं, उसे देखते हुए यह आवश्यक है कि इस विषय पर वैश्विक विमर्श हो।

देशबंधु

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