शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

अनिश्चितता में घिरे पड़ोसी देश

यह कोई मध्य रात्रि में दी गई दस्तक नहीं थी। यह दिन-दहाड़े सबके सामने की गई गिरफ्तारी थी। बंगलादेश के पूर्व प्रधानमंत्री मौदूद अहमद ने जैसे ही ढाका के एक होटल के बाहर कदम रखा उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। उनका अपराध यही है कि वह देश के सबसे बड़े विपक्षी नेता हैं और पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया के नेतृत्व वाली बंगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी में हैं। प्रधानमंत्री शेख हसीना, अवामी लीग की अध्यक्ष दोनों से नफरत करती हैं। पिछली बार मौदूद गिरफ्तार हुए थे तो एरशाद का सैनिक शासन था। वह भी उसी जेल में हैं जहां मौदूद को रख गया है। वह और उनकी पार्टी जातीय संसद ने प्रधानमंत्री के समर्थन देने से मना कर दिया था।

बेशक, किस्मत बदलती रहती है। आज जो शासन में है वे कल विरोधी पक्ष में होंगे। लेकिन बंगलादेश में जो नजर आ रहा है वह है बदले की राजनीति। खालिदा तो इस हद तक चली गई थीं कि उन्होंने उस समय हसीना की हत्या कराने की कोशिश की जब वह सत्ता से बाहर थीं। मौदूद तथा जेल में बन्द दूसरे लोगों ने प्रधानमंत्री के निरंकुश शासन के विरोध का हिम्मत की है। एक तानाशाह बुरा होता है, लेकिन इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता है कि जब वह सत्ता ही छोड़ना न चाहे। यह बंगलादेश की समस्या की जड़ है।

विरोधी पक्ष की मांग एक तटस्थ शासन में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की है। इसके बदले हसीना ने चुनाव अपने शासन में चुनाव कराए और इसके पहले उन्होंने संविधान के उस प्रावधान को खत्म किया जिसमें सुप्रीम कोर्ट के रिटायर हो रहे चीफ जस्टिस के नेतृत्व में बनी कामचलाऊ सरकार की देखरेख में चुनाव कराने की व्यवस्था थी। चुनाव एक मजाक कि वोट डालने के पहले ही 154 सदस्य निर्विरोध चुन कर आ गए और 103 कुछ दिन पहले देश में हुए एकतरफा चुनाव में चुन लिए गए। संसद में सदस्यों की संख्या 300 है। हसीना की जीत बहुत कम मायने रखती है जब बीएनपी और यादातर पार्टियों ने चुनाव का बहिष्कार किया और नई सरकार को स्वीकार करने से मना कर दिया। एक दैनिक अखबार के सर्वे का कहना है कि 77 प्रतिशत लोग चुनाव परिणामों को स्वीकार नहीं करते।

सबसे बेचैनी वाली बात है-न खत्म होने वाली हिंसा। बायकाट और हड़ताल में दर्जनों लोग मारे जा चुके हैं। अर्थ व्यवस्था पर इसका असर होना निश्चित है जो पिछले पांच सालों से छह प्रतिशत की दर से विकसित हो रही थी। बेरोजगारी बढ़ेगी, गरीबी बढेग़ी और मंहगाई भी। हसीना और खालिदा, दोनों में किसी को इसकी चिंता नहीं है कि स्थिति रोज-ब-रोज खराब होती जा रही है।

इसका फायदा जमायत-ए-इस्लामी को मिल रहा है, निस्संदेह जिसका लक्ष्य समाज को बांटने और कट्टरपंथ फैलाना है। जमायत संगठित तो है ही, इसने बुध्दिज़ीवी वर्ग को भी प्रदूषित कर दिया है। कार्यकर्ताओं के जरिए हिंसा जमायत का योगदान है। दुर्भाग्यवश,भारत खुले तौर पर हसीना के पक्ष में आ गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि वह सेकुलर हैं और अपने पिता शेख मुजीबुर्र रहमान, बंगलादेश के संस्थापक की तरह मुक्ति की पक्की समर्थक है। लेकिन किसी भी कीमत पर सत्ता को हाथ से नहीं जाने देने के उनके निश्चय ने सभी मानदंडों की धजियां उड़ा दी हैं। नई दिल्ली को बीच-बचाव वाली भूमिका निभानी चाहिए थी। शुरू में इसने ऐसा किया भी लेकिन अब वह पक्षपात करती दिखाई दे रही है। भारत विरोधी भावना फैल रही है और इसकी आंच 80 लाख हिंदुओं को झेलनी पड़ रही है। अगर भारत को अपनी पसंद दिखानी भी है तो इसे बंगलादेश के प्रथम विदेश मंत्री कमाल हुसैन और नोबेल पुरस्कार विजेता युनूस का समर्थन करना चाहिए ताकि वे तीसरा मोर्चा दे सकें। खालिदा वैसे मुक्ति समर्थक थीं लेकिन उन्होंने 1971 के बंगलादेश युध्द में पाकिस्तान का साथ देने वाले अब्दुल कादिर मुल्ला की फांसी के खिलाफ आवाज उठाकर अपनी विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगा दिए। उस समय जिन्होंने यादती किए उन्हें मुक्ति-समर्थक के हाथों दंडित होना ही चाहिए। लेकिन 80 साल से ऊपर के व्यक्ति को फांसी देने का कोई अर्थ नहीं है।

कादिर मुल्ला को शहीद घोषित करने का सर्वसम्मत प्रस्ताव नेशनल असेंबली में पारित कर पाकिस्तान ने भी अपनी छवि खराब कर ली। यह पूर्वाग्रही मानसिकता ही दर्शाता है। अफसोस व्यक्त करने के बदले पाकिस्तान का शासन इस तरह का व्यवहार कर रहा है जैसे वह उसके लिए दुखी नहीं है जो उसने किया। बंगलादेश के बारे में वह एक गलत नीति पर चल रहा है। पाकिस्तान राज बार-बार यह इसे करता है कि वह मुहम्मद अली जिन्ना की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा है जिन्होंने राजनीति में धर्म को नहीं मिलाने की सलाह दी थी। इस्लामाबाद ने अफगानिस्तान और कश्मीर के खिलाफ पहले तालिबान को प्रशिक्षण दिया। अब वही तालिबान पाकिस्तान की स्थिरता के लिए खतरा पैदा कर रहा है। पाकिस्तान में कट्टरपंथ बढ़ रहा है और उदारता की आवाज शायद ही सुनाई पड़ती है। जब पंजाब के गर्वनर तासीर के हत्या के अभियुक्त पर वकील वर्षा करते हैं तो उग्रपंथ कहां पहुंच गया है यह समझ में आता है। तासीर ईश्वर-निंदा कानून में संशोधन चाहते थे। तासीर के पुत्र, जिसे दो साल पहले अपहरण कर लिया गया, का कोई पता नहीं चल सका है और मीडिया जो वैसे ताकतवर है भी उसे भुला चुका है।

भारत और अफगानिस्तान से बेहतर रिश्ते की प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की कोशिश ताजी हवा का अहसास देती है। उन्हें एक तरफ दक्षिणपंथी ताकतों, जिनमें से कई उनके ही कैम्प में हैं और दूसरी तरफ सेना पर निर्भर रहना पड़ता है। फिर भी उन्होंने अपने भाई शहबाज शरीफ को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलने भेजा। लगता नहीं कुछ ठोस निकला। नई दिल्ली संवाद फिर से शुरू करने के पक्ष में नहीं है। जबकि दोनों देशों के बीच की दूरी कम करने का यही रास्ता है। नवाज शरीफ इस प्रकिया को तेज कर सकते थे अगर उन्होंने 2611 के दोषियों, जिन्होंने मुंबई पर हमला किया था, को दंडित करने के काम को आगे बढ़ाते।


पाकिस्तान रिटायर्ड जनरल परवेज मुशर्रफ की इस चुनौती को कम करके दिखा सकता है कि आर्मी अभी भी उसके पीछे खड़ी है। लेकिन आर्मी चीफ या उसके प्रचार महकमे की ओर से कोई खंडन नहीं आया है। यह देशद्रोह के उस मुकदमे का मजाक ही बना देता है अदालत जिसकी सुनवाई कर रहा है। इसका मतलब है कि पाकिस्तान में सेना तीसरा सदन है। यह बात जो सामने आई है कि पाकिस्तान की सेना जो कश्मीर समस्या के समाधान में सबसे बड़ी बाधा है। किसी हल पर पर राजी हो गई थी, यह अचरज की बात है। सेना के लिए यह संभव नहीं है कि एक पूर्व जनरल को फांसी या कारावास को स्वीकार कर ले। ऐसा लगता है कि उन्हें देश से बाहर भेजने के लिए उनके खराब स्वास्थ्य जैसा कोई सम्मानजनक रास्ता ढूंढा जा रहा है। भारत और पाकिस्तान के रिश्ते को लेकर एक अच्छा बिंदु है कश्मीर पर स्वीकार होने लायक समाधान। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा है कि कश्मीर समस्या का एक हल मिल गया था लेकिन कुछ अन्य चीजें रास्ते में आ गई इसे अंतिम रूप देने के पहले। क्यों नहीं इसी हल को फिर से लाया जाए?

उच्च न्यायपालिका में न्यायधीशों की नियुक्ति और तबादले की व्यवस्था में बदलाव के प्रयास

उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनके तबादले की वर्तमान व्यवस्था में बदलाव के लिये पिछले दो दशक से प्रयास किये जा रहे हैं। वर्तमान व्यवस्था के अंतर्गत उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के चयन का काम न्यायाधीशों की समिति ही करती है जबकि सरकार महसूस करती है कि इस प्रक्रिया में उसकी भूमिका भी होनी चाहिए। यही वजह है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की वर्तमान प्रक्रिया में बदलाव लाने और इसे अधिक पारदर्शी बनाने की लंबे समय से उठ रही मांग के मद्देनजर न्यायिक नियुक्ति आयोग को संवैधानिक दर्जा देने का प्रयास किया जा रहा है।

चूंकि नयी व्यवस्था को संवैधानिक संरक्षण प्रदान करने के लिये संविधान संशोधन की आवश्‍यकता है,इसलिये केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति और तबादले के लिये प्रस्तावित आयोग को संवैधानिक संरक्षण प्रदान करने के प्रस्ताव को मंजूरी दी है। मंत्रिमंडल के निर्णय के अनुसार संविधान के अनुच्छेद 124 मे दो नये उपबंध अनुच्छेद 124-क और अनुच्छेद 124-ख जोड़ने का प्रस्ताव है।

सरकार संसद के विस्तारित शीतकालीन सत्र में इस संविधान संशोधन को पारित कराने का प्रयास करेगी। यदि यह विधेयक पारित हो गया तो इसे राष्ट्रपति की संस्तुति मिलने के बाद उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति की जिम्मेदारी न्यायिक नियुक्ति आयोग को सौंप दी जायेगी और इसके साथ ही उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति और तबादले से संबंधित प्रक्रिया में एक नया अध्याय जुड़ जायेगा।

प्रस्तावित न्यायिक नियुक्ति आयोग का अध्यक्ष देश के प्रधान न्यायाधीश होंगे। इस आयोग में छह सदस्य होंगे। इसमें उच्चतम न्यायालय के दो वरिष्ठ न्यायाधीशों के साथ ही कानून मंत्री, विधि सचिव और दो बुद्धिजीवी होंगे। इन बुद्धिजीवियों के नामों का चयन प्रधान मंत्री, प्रधान न्यायाधीश और संसद में प्रतिपक्ष के नेता करेंगे। न्याय विभाग के सचिव इस आयोग के संयोजक होंगे।

यह आयोग न्यायाधीशों की नियुक्ति, तबादले और इस पद के दावेदारों की गुणवत्ता से संबंधित कामकाज करेगा। आयोग देश के प्रधान न्यायाधीश, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों तथा न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये सिफारिश करने के साथ ही उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों की किसी दूसरे उच्च न्यायालय में तबादले की सिफारिश करेगा।

उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधी प्रक्रिया में राज्यपाल,मुख्यमंत्री और संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की लिखित में राय प्राप्त करना भी आयोग के काम में शामिल है। यह सारी कार्यवाही आयोग द्वारा कामकाज के लिये बनाये गये नियमों के अनुसार ही की जायेगी।

उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के पद रिक्त होने की स्थिति में इस बारे में केन्द्र सरकार आयोग के पास सूचना भेजेगी। न्यायालयों में वर्तमान रिक्त स्थानों के बारे में यह कानून बनने की तारीख से तीन महीने के भीतर सूचना देनी होगी। यदि किसी न्यायाधीश का कार्यकाल पूरा हो रहा हो तो ऐसी स्थिति में यह पद रिक्त होने की तारीख से दो महीने पहले ही आयोग को सूचित करना होगा। किसी न्यायाधीश का निधन होने के कारण रिक्त हुए पद के बारे में भी दो महीने के भीतर ही आयोग को सूचित करने का प्रावधान किया गया है।

न्यायिक नियुक्ति आयोग में प्रावधान है कि इसके न्यायाधीशों के चयन की प्रक्रिया आयोग के संयोजक उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों, केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों से पात्र उम्मीदवारों के बारे में सिफारिशें आमंत्रित करके शुरू करेंगे।

इस समय उच्चतम न्यायालय में प्रधान न्यायाधीश सहित न्यायाधीशों के 31 और 24 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 906 स्वीकृत पद हैं। एक अनुमान के अनुसार इस समय विभिन्न उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के करीब 275 पद रिक्त हैं। उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के रिक्त पदों का सीधा प्रभाव लंबित मुकदमों के निबटाने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है।

न्‍यायाधीशों की नियुक्ति की वर्तमान व्यवस्था को लेकर उठ रहे सवालों के संदर्भ में ही उच्च्तम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश डॉ ए. आर. लक्ष्मणन की अध्यक्षता वाले 18वें विधि आयोग ने 2008 में अपनी 214वीं रिपोर्ट में भारत में 1993 से प्रभावी न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में बदलाव पर विचार का सुझाव दिया था।

आयोग की राय थी कि संविधान के अनुच्छेद 124 :2: और 217 :1: न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में कार्यपालिका और न्यायपालिका की भूमिका में बहुत खूबसूरती से संतुलन कायम किया गया था। लेकिन 1993 के उच्चतम न्यायालय के निर्णय और राष्ट्रपति को इस मसले पर दी गयी सलाह ने इसमें असंतुलन पैदा कर दिया। विधि आयोग का सुझाव था कि इस मामले में कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच मूल संतुलन बनाने के लिए इसकी नये सिरे से समीक्षा की जाए।

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी मद्रास उच्च न्यायालय की 150वीं जयंती समारोह में न्यायाधीशों की भूमिका के बारे में निर्णय को बेहद संवदेनशील विषय बताते हुये न्यायपालिका की स्वतंत्रता और इसकी विश्‍वसनीयता बनाये रखने पर भी जोर दिया। साथ ही राष्ट्रपति ने यह कहने में भी संकोच नहीं किया था कि न्यायपालिका की विश्‍वसनीयता उन न्यायाधीशों के स्तर पर निर्भर करती है जो देश की तमाम अदालतों को संचालित करते हैं। इसलिए न्यायाधीशों के चयन और उनकी नियुक्ति की प्रक्रिया  ही न सिर्फ उच्च मानदंडों के अनुरूप होनी चाहिए बल्कि यह प्रतिपादित सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए।


न्यायाधीशों की नियुक्ति वर्तमान व्यवस्था में संविधान संशोधन के जरिए बदलाव के लिए 1990 और फिर 2003 के लिए प्रयास किये गए थे लेकिन दोनों ही अवसरों पर लोकसभा भंग हो जाने के कारण यह प्रक्रिया आगे नहीं बढ सकी थी। सरकार एक बार फिर इस दिशा में प्रयास कर रही है। उम्मीद है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की वर्तमान व्यवस्था में बदलाव के लिये न्यायिक नियुक्ति आयोग गठित करने और इसे सांविधानिक संरक्षण प्रदान करने संबंधी संविधान संशोधन विधेयक संसद के विस्तारित सत्र के दौरान पारित करा लिया जायेगा।

गुरुवार, 16 जनवरी 2014

पोलियोमुक्त भारत

लचर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा भारत के लोगों के लिए हमेशा परेशानी और चिंता का सबब रही है। लेकिन अब एक अच्छी खबर आई है कि भारत पोलियो मुक्त देश घोषित हो गया है। पिछले तीन सालों में भारत में पोलियो का एक भी मामला दर्ज नहींहुआ है। भारत के लिए यह उपलब्धि काफी मायने रखती है, क्योंकि तीसरी दुनिया के देशों में चेचक, पोलियो, मलेरिया, बर्ड फ्लू, टीबी और एड्स जैसी बीमारियों का डर लंबे अरसे कायम है। स्वास्थ्य सेवा का चरमराता ढांचा, गरीबी, कुपोषण, बीमारियों के प्रति अज्ञानता, साफ-सफाई का अभाव ऐसे कई कारणों से इन देशों के निवासी बीमारियों की चपेट में आसानी से आते रहे हैं। भारत की ही बात करें तो बारिश के मौसम में मलेरिया, डेंगू, मस्तिष्क ज्वर फैलते ही हैं। ठंड में फ्लू की शिकायत होती है। आदिवासी व गरीब ग्रामीण अंचलों में महिलाएं व बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। इन बीमारियों से हर साल कई मौतें होती हैं, फिर भी इन पर रोक नहींलगाई जा सकी है। इतना जरूर हुआ है कि इनके कारण मच्छर भगाने के स्प्रे, लोशन आदि का कारोबार खूब बढ़ गया, सफाई के नाम पर शौचालय साफ करने वाले तरल पदार्थों, सेनेटाइजर जैसे उत्पादों की बिक्री बढ़ गई। साबुन की उपयोगिता नहाने से ज्यादा बीमारियों के कीटाणुओं का सफाया करने के लिए साबित की जाने लगी। कहने का आशय यह कि भारत में आमतौर पर पायी जाने वाली बीमारियां कुछ खास उद्योगों के लिए मुनाफे का कारण बन गयीं। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि स्वास्थ्य सेवा का ढांचा मजबूत करने के लिए पर्याप्त कोशिशें नहीं हुईँ।


इस निराशाजनक तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तमाम अड़चनों के बावजूद पोलियो जैसी बीमारी का उन्मूलन करने में सफलता मिली है। यह संभव हो पाया सरकार की इच्छाशक्ति और इसके साथ-साथ विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनीसेफ, और रोटरी इंटरनेशनल आदि के अंतरराष्ट्रीय सहयोग से। कुछ सालों पहले तक भारत से पोलियो उन्मूलन चुनौती बना हुआ था। लगभग 3 दशकों से इस दिशा में प्रयास जारी थे, फिर भी पोलियो के मामले कहींन कहींसे सामने आ जाते। हिंदी पट्टी के कुछ प्रदेशों में इस क्षेत्र में जागरूकता का अभाव था और कुछ धार्मिक अड़चनें पेश आ रही थीं। इसे दूर करने के लिए भी उपाय किए गए। सरकार अगर इस मुकाम तक पहुंची है तो इसमें उनमें लाखों स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का योगदान शामिल हैं, जिन्होंने दो बूंद जिंदगी की पिलाने के लिए घरों-घर संपर्क किया। सरकार ने पोलियो रोकने की दवा पिलाने के लिए सघन प्रचार किया। टीवी, रेडियो, अखबार, विशाल गुब्बारों, पोस्टरों आदि के जरिए देश में भर में संदेश प्रसारित किया जाता रहा है कि अमुक तारीख को पांच साल के बच्चों को पोलियोड्राप्स पिलाना है। अपने नजदीकी स्वास्थ्य केंद्र पर जाकर अभिभावक बच्चों को मुफ्त में ये दवा पिलाते रहे हैं। चाहे घर पर हों या प्रवास पर, पोलियो की दवा पूरे देश में कहींभी आसानी से बच्चे को मिल सके, इसका पुख्ता इंतजाम किया गया। इतना ही नहीं दवा पिलाने की तारीख के अगले दिन घर-घर घूम कर स्वास्थ्य कार्यकर्ता पूछताछ करते कि कोई बच्चा दवा पीने से छूट तो नहींगया। इस कड़ी मेहनत का ही नतीजा है कि पिछले तीन साल में पोलियो संक्रमण नहींहो पाया। अन्यथा दूषित पेयजल के सेवन से यह बीमारी नवजातों को आसानी से अपना शिकार बना लेती। अब भी हम निश्ंचितता से नहींबैठ सकते हैं क्योंकि पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे पड़ोसी देशों में पोलियो अब भी चिंता का विषय है। पाकिस्तान में तो 2012 के मुकाबले पोलियो के कहींज्यादा मामले 2013 में सामने आए हैं। वहां कुछ कट्टरपंथी ताकतें पोलियो ड्राप्स पिलाने का विरोध करती आयी हैं, जिसका खामियाजा नौनिहालों को जिंदगी भर की विकलांगता के रूप में भुगतना पड़ रहा है। चूंकि भारत में पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आवाजाही बनी हुई है, इसलिए पोलियो वायरस के फैलने की आशंका बनी रहेगी। भारत में अब भी सतर्कता बरतने की आवश्यकता है। इस बात पर भी विचार होना चाहिए कि जब चेचक, पोलियो जैसी बीमारियों को खत्म किया जा सकता है तो सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को भी इतना दुरुस्त किया जा सकता है कि मलेरिया, टीबी, फ्लू, डायरिया और कुपोषण खत्म हो सकें।

सब्सिडी का दुष्चक्र

एलपीजी के कई मायने निकलते हैं। यह लिक्विफाइड पेट्रोलियम गैस भी हो सकता है और लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन एवं ग्लोबलाइजेशन (उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण) भी, जिसकी अक्सर वाम झुकाव वाले आलोचना करते हैं। इसका एक मतलब सरकार द्वारा आम लोगों की जिंदगी पर डाले गए डाके (लाइफ प्लंडर्ड बाइ गवर्नमेंट) से भी है, जो सरकारी हस्तक्षेप विरोधी भावनाओं से जुड़ा हुआ है। यह एहसास तथाकथित मध्यवर्ग में लगातार बढ़ रहा है। इसकी वजह पेट्रोलियम उत्पादों की बढ़ती कीमतें व इनमें और वृद्धि का प्रस्ताव है।

असल में, पेट्रो उत्पादों में मूल्यवृद्धि जरूरी हो गई थी, क्योंकि वित्तीय सब्सिडी का बोझ बर्दाश्त से बाहर जाने लगा था। इसे सरकार तेल मार्केटिंग कंपनियों के घाटे की भरपाई के लिए दे रही थी, जो रुपये में कमजोरी के कारण और बढ़ गया। लेकिन यह कुतर्क है। दरअसल, अगर इसकी तुलना उस सार्वजनिक खर्च से की जाए, जिसे सरकार बेहिसाब लुटाती है, तो ये सब्सिडी ऊंट के मुंह में जीरे सी दिखेगी। इसे इस क्षेत्र में रोके गए निवेश का खास कारण नहीं माना जा सकता। ये निवेश कई अन्य वजहों से अटका है।

प्रशासनिक मूल्य प्रणाली (एपीएम) पहेली का महज एक सिरा है। अगर हमने एपीएम में लगातार सुधार किया होता, जैसा कि वर्ष 2002 में पेट्रोल व डीजल को लेकर सोचा गया था। इस सूरत में इनके दामों में काफी कम इजाफा करना पड़ता। नतीजतन महंगाई पर भी इसका असर मामूली रह जाता। ऐसा न करने से ही ज्यादा कीमतें बढ़ाने का दबाव बना है। जब महंगाई की दर नीचे थी, अगर तभी तेल कीमतें बढ़ाई जातीं तो सरकार को जनता के गुस्से का सामना नहीं करना पड़ता।

सवाल कई उठते हैं। तेल में ऐसा क्या है? क्यूं शराब और तंबाकू के साथ पेट्रोलियम उत्पादों को भी अप्रत्यक्ष कर सुधार पर बनी हर समिति कर एकीकरण के दायरे से बाहर रखती है? आयात या व्यापार समता कीमतें कैसे निकाली जाती हैं, इसको लेकर क्यों इतनी अपारदर्शिता है? कच्चे तेल के आयात से लेकर खुदरा कीमतों के निर्धारण की पूरी प्रक्रिया क्यों अंधेरे में रखी जाती है? खैर, ईंधन कीमतों में वृद्धि अपेक्षित थी। हालांकि, इसका यह मतलब कतई नहीं है कि हम इस क्षेत्र में सुधार के लिए तैयार हैं। अब तथाकथित मध्यवर्ग और अमीर-गरीब की बहस पर आते हैं।

लंबे और छोटे की तरह अमीर व गरीब भी निरपेक्ष नहीं, बल्कि सापेक्ष शब्द हैं। दुर्भाग्यवश, लोग औसत की अवधारणा ही नहीं समझते। यह मायने नहीं रखता कि हमारे दिमाग में औसत, माध्यिका और बहुलक की बात रहती है या नहीं। औसत भारतीय का एक निश्चित आइक्यू (बुद्धिलब्धि) स्तर है। चलो, इसका इस्तेमाल चतुराई और बेवकूफी को मापने के लिए करते हैं। अगर आप कहते हैं कि आधे भारतीय बेवकूफ हैं तो आप निंदा के पात्र बन जाएंगे। इसके उलट अगर आप यह कहते हैं कि आधे भारतीय चतुर हैं, तो आपकी प्रशंसा होगी। यही बात अमीर-गरीब के मामले में भी सच है।

भारत की औसत प्रति व्यक्ति आय करीब 5,000 रुपये महीना बैठती है। यानी इससे ज्यादा कमाने वाले व्यक्ति को अमीर कहा जा सकता है। हालांकि, अगर आपने ऐसा कहा तो समझ लीजिए आपकी खैर नहीं। इसके उलट यदि आप यह कहें कि 5,000 रुपये से कम आय वाले गरीब हैं तो यही मध्यवर्ग आप पर फिदा हो जाएगा।

कीमतों के जरिए सब्सिडी देने का विचार वाहियात है। खाद्यान्न और केरोसीन को ही ले लीजिए, जिसका एक बड़ा हिस्सा बीच में ही गायब हो जाता है, कुछ तो नेपाल व बांग्लादेश पहुंच जाता है। इस तरह से तो हम पड़ोसी देशों को सब्सिडी दे रहे हैं। सस्ते केरोसीन का इस्तेमाल मिलावट और सब्सिडी वाली रसोई गैस का प्रयोग ढाबों-होटलों से लेकर कारों के ईंधन तक होता है। सब्सिडी वाली एलपीजी का कोटा और बिना सब्सिडी वाली कोटामुक्त रसोई गैस का विचार भी वाहियात है। इसे लागू नहीं किया जा सकता।

इसकी वजह से मुझे सार्वजनिक वस्तुओं को लेकर ताज्जुब होता है। अर्थशास्त्रियों के पास तो इसकी तकनीकी परिभाषा है। लेकिन जब अधिकतर अर्थशास्त्री सार्वजनिक वस्तु शब्द का बहुत ज्यादा इस्तेमाल करते हैं, तो यह परिभाषा उनके दिमाग से गायब रहती है। उनके दिमाग में यही विचार रह जाता है कि ऐसी वस्तुएं हर हाल में सब्सिडी वाली या मुफ्त होनी चाहिए। इसलिए ये अर्थशास्त्री उम्मीद करते हैं कि देश में सार्वजनिक शौचालय मुफ्त होने चाहिए, लेकिन वही विकसित देशों में जाने पर इनके लिए शुल्क अदा करते हैं। इसी तरह उन्हें देश में हवाई अड्डों पर मुफ्त ट्रॉली चाहिए, जबकि विकसित मुल्कों में वे खुशी से कीमत चुकाते हैं।

होटलों में भी चेकआउट के बाद वे चाहते हैं कि मुफ्त में उनका सामान रखा जाए, लेकिन विदेश में वे इसके लिए पैसा देने को तैयार रहते हैं। ये सार्वजनिक वस्तुएं कतई नहीं हैं। यदि इन्हें निशुल्क उपलब्ध कराया जा रहा है तो कोई न कोई इसकी कीमत चुका रहा है। अगर तथाकथित मध्यवर्ग नहीं, तो असल गरीब इसका बोझ ढो रहे हैं। कम वित्तीय और प्रशासनिक क्षमता वाले भारत जैसे विकासशील देशों में हमें विकसित मुल्कों की तुलना में कम से कम सब्सिडी वाली या मुफ्त वस्तुओं व सेवाओं की उम्मीद करनी चाहिए। लेकिन हो रहा है इसके उलट। तर्क दिए जा रहे हैं कि देश काफी गरीब है और यहां के बाजार अविकसित। इतिहास गवाह है कि भारतीयों ने सरकार से कभी भी ऐसी खैरात की उम्मीद नहीं रखी। कानून-व्यवस्था और कौशल समेत तमाम सेवाएं समुदायों या समूहों द्वारा मुहैया कराई जाती थीं। कीमतों के जरिए किसी को सब्सिडी देने की जरूरत नहीं है। ऐसे हस्तक्षेप संसाधनों के आवंटन में गड़बड़ी पैदा करते हैं। इससे बेहतर है कि सीधे आय हस्तांतरित की जाए, न कि सशर्त नकदी हस्तांरण, जिसकी चर्चा चल रही है। लेकिन हम बार-बार तमाम तरह से बीपीएल (गरीबी की रेखा के नीचे) को चिन्हित करने में लगे हैं, ये और बात है कि वास्तव में हो उलटा रहा है। सशर्त नकदी हस्तांरण अगर कभी क्रियान्वित हुआ तो इसे अंधाधुंध तरीके से लागू किया जाएगा। वृद्धों और विकलांगों के अलावा किसी को भी सब्सिडी देने की जरूरत नहीं दिखती।

इसके अलावा जो अन्य गरीब हैं, उनके लिए भौतिक और सामाजिक मूलभूत ढांचे, वित्तीय उत्पादों, कानून-व्यवस्था, तकनीकी, सूचना आदि में हस्तक्षेपों की जरूरत है। हालांकि, ये हस्तक्षेप सब्सिडी के रूप में नहीं होने चाहिए। समर्थों को सब्सिडी देकर हमने उन्हें स्थायी रूप से विकलांग ही नहीं बनाया है, बल्कि हम मुफ्तखोरी की एक संस्कृति पैदा कर रहे हैं। किसी भी तरह से अगर एक बार कोई सब्सिडी दे दी जाती है तो उसे खत्म करना लगभग नामुमकिन होता है। यह खुद को बनाए रखती है। भौतिकशास्त्रियों ने ऐसी ही अविरत मशीनों के अस्तित्व की चर्चा की है, जो अपनी गति खुद बनाए रखती हैं। इसके उलट भारत ने अविरत गतिहीन मशीनरी बनाने की कला में महारत हासिल कर ली है।


                                                                                  

बुधवार, 15 जनवरी 2014

ताकि न्याय व्यवस्था में लौटे विश्वास...

हम अपनी जिस जनतांत्रिक, लोक कल्याणकारी व्यवस्था के गुण गाते नहीं थकते, वह एक आम नागरिक को इंसाफ दिलाने की गारंटी अब भी नहीं दे सकी है। बात सुनने में अजीब लगती है, लेकिन न्याय मिलने की गुंजाइश दिन पर दिन कम होती जा रही है। नैशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों की मानें तो आईपीसी के तहत आने वाले गंभीर अपराधों के मामलों में आरोपियों के सजा पाने की दर पिछले 40 सालों में कम होते-होते लगभग आधी हो गई है।

1972 में यह 62.7 फीसदी थी, जबकि 2012 में घटकर 38.5 प्रतिशत हो गई। कई मामलों में तो ट्रायल ही नहीं शुरू हो पाता। 1972 में दर्ज होने वाले कुल मामलों के 30.9 प्रतिशत में कार्यवाही शुरू हुई जबकि 2012 में ट्रायल सिर्फ 13.4 प्रतिशत मामलों में ही शुरू हो सका। मुकदमों का अदालत तक न पहुंचना और वहां पहुंचने के बाद खिंचते चले जाना हमारे सिस्टम की सबसे बड़ी कमजोरी है।

पिछले कुछ समय में न्यायपालिका ने कुछ हाई प्रोफाइल केसों को समय रहते निपटाकर वाहवाही जरूर बटोरी है पर साधारण लोगों के मामलों में वह वैसी तत्परता नहीं दिखती। इसलिए आज आम आदमी के भीतर यह धारणा मजबूत होती जा रही है कि त्वरित न्याय रसूख वालों को ही मिलता है, जबकि आम आदमी का मामला लटकता चला जाता है। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर चिंता जताई थी और निचली अदालतों को मुकदमों की सुनवाई में तेजी लाने के निर्देश दिए थे।
मुकदमे उलझने की अनेक वजहें हैं। देश में ट्रायल जजों की संख्या इतनी नहीं है कि किसी केस की त्वरित और लगातार सुनवाई हो सके, इसलिए कोई नया केस के आते ही उसे कतार में लगा दिया जाता है। एक अनुमान के मुताबिक पिछले साल ट्रायल कोर्टों में 2.68 करोड़ केस पेंडिंग पड़े थे। कई मामलों में कोई पार्टी जानबूझकर भी केस को टालती रहती है ताकि मामला कमजोर पड़ जाए। उसके वकील तरह-तरह का बहाना बनाकर केस खिसकाते रहते हैं। कहीं-कहीं इसके लिए रिश्वत देने की बात भी सामने आई है, लेकिन कई केस सिर्फ पुलिस की ढिलाई की वजह से पेंडिंग पड़े रहते हैं। वह इतनी सुस्त गति से जांच करती है कि केस को आगे बढ़ाना पड़ता है। कई बार आदतन और कई बार निहित स्वार्थों के दबाव में वह लचर सबूत पेश करती है जिससे मामला भटक जाता है।


अभी आलम यह है कि एक औसत सिविल केस में फैसला आने में 15 साल और क्रिमिनल केस में 5 से 7 साल लग जाते हैं। दरअसल आज पूरे न्यायिक तंत्र की ओवरहॉलिंग की जरूरत है। ऊपर से नीचे तक सभी एजेंसियों को चुस्त-दुरुस्त बनाना होगा और बड़ी संख्या में जजों की नियुक्ति करनी होगी। विभिन्न ट्रायल कोर्टों में खाली जजों के 3732 पद तत्काल भरने की जरूरत है। निचली अदालतों का इन्फ्रास्ट्रक्चर भी सुधारना जरूरी है। न्यायपालिका और कार्यपालिका को मिलकर इस दिशा में काम करना होगा ताकि आम आदमी में व्यवस्था के प्रति विश्वास पैदा हो सके।

अर्थव्यवस्था पर बोझ बनती राजनीति

नए वर्ष में देश के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की है। घटती आर्थिक विकास दर, बढ़ता राजकोषीय और चालू खाते का घाटा, लगातार चिंता का कारण बना हुआ है। यही नहीं, पिछले दिनों खुदरा मुद्रास्फीति की दर 14 महीने के उच्चतम स्तर तक पहुंच गई। अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां ने भी आगाह किया है कि यदि समय रहते आर्थिक निर्णय नहीं लिए गए तो भारत की साख और गिर सकती है।

2014 में आम चुनाव भी हैं, इसके मद्देनजर इसकी संभावनाएं कम ही हैं कि अगले कुछ महीनों के दौरान आर्थिक नीतियों से संबंधित दूरगामी निर्णय लिए जाएंगे। बल्कि इसके विपरीत चुनावी माहौल में विभिन्न तबकों के लिए आर्थिक पैकेज और राहत पैकेज की घोषणाएं हो सकती हैं। असल में पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद स्थितियां यूपीए सरकार के खिलाफ ही गई हैं। ऐसे में सरकार कठोर आर्थिक फैसलों के बजाए लोकलुभावन घोषणाएं कर सकती है।

खासकर तब जब राजनीतिक परिस्थितियों अनुकूल न हों और राजनीतिक उठा पटक का माहौल हो, सभी पार्टियां अपने आम को आम आदमी का रहनुमा बनाने के लिए लोकलुभावन नीतियों और वायदों का पिटारा खोल देती हैं। मगर इसका खामियाजा अर्थव्यवस्था को उठाना पड़ता है। पिछले आम चुनावों से पहले यूपीए सरकार ने किसानों के 60 करोड़ रुपये के कर्जमाफी की घोषणा की थी। इसी तरह अभी जो खाद्य सुरक्षा कानून पारित किया गया है, उससे भी अर्थव्यवस्था पर बोझ पड़ेगा। इस मामले में कोई भी दल पीछे नहीं है।

छत्तीसगढ़ में दो या एक रुपये किलो चावल देने वाली योजना भी इसी का एक रूप है। तमिलनाडु में तो मतदाताओं को टीवी, लैपटॉप के साथ ही मंगलसूत्र वगरैह देने की होड़ लग जाती है। उत्तर प्रदेश में भी लैपटाप और साइकिलें बांटी जा चुकी हैं। अभी दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में पहली बार सत्ता संभालने वाली आम आदमी पार्टी ने भी अपने चुनावी वायदों के अनुरूप बिजली की दरें आधी कर दी हैं और दिल्लीवासियों को 666 लीटर पानी मुफ्त देने का ऐलान किया है। बिजली की बढ़ती उत्पादन लागत, निरंतर बढ़ती मांग और अपर्याप्त आपूर्ति के बावजूद सस्ती बिजली का पैकेज देश के कमजोर आर्थिक हालात में समझ से परे है। बिजली की दरें आधी करने पर मांग और आपूर्ति में अंतर और भी बढ़ेगा। जिसको पाटने के लिए किसी गांव में अंधेरा किया जाएगा या फसलों को बिजली-पानी के लिए तरसता छोड़कर राजधानी में एयरकंडीशन चलाया जाएगा। यह नीति किसी दल को सत्ता तो दिला सकती है, लेकिन इसके दूरगामी परिणाम भावी पीढ़ी के लिए घातक होंगे।

असल में जिस बात की जरूरत है वह यह कि सब्सिडी का सही वितरण होना चाहिए। चूंकि देश के एक बड़े तबके के पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं, उसे बुनियादी चीजें नहीं मिल पाती हैं, ऐसे में सब्सिडी पूरी तरह खत्म नहीं की जा सकती, मगर इसे खैरात नहीं बनाना चाहिए। अनुत्पादक सब्सिडी एक तरफ सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ाएगी, वहीं दूसरी तरफ संसाधनों का मुफ्त वितरण भी करेगी। संसाधनों से वंचित व्यक्ति के लिए सब्सिडी आवश्यकता है, लेकिन संपन्न लोगों को भी बिजली पानी, डीजल, गैस पर सब्सिडी देना अवांछनीय है। इससे शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक व आधारभूत संरचना जैसे अतिआवश्यक उत्पादक क्षेत्रों में निवेश में कमी करनी पड़ती है।

राजनीतिक दलों की प्राथमिकताएं सत्ता के इर्द-गिर्द घूमती हैं, जबकि देश की प्राथमिकता टिकाऊ आर्थिक विकास होना चाहिए। राजनीतिक दलों और सरकारों की प्राथमिकताएं ऐसी होनी चाहिए कि विकास का फायदा अंतिम व्यक्ति तक पहुंचे। देश को चुनावी पैकेजनहीं, बल्कि सशक्त नेतृत्व चाहिए, जो जनता के भरोसे पर खरा उतर सके। जिसकी प्राथमिकताएं समग्र विकास हो। जो युवाओं में निवेश करे। उनका कौशल निखारे, उन्हें रोजगार प्रदान करे, न कि उन्हें सस्ती सुविधाओं का आदी बनाकर गुमराह करे। वास्तव में कृषि, उद्योग, व्यापार में उत्पादन व उत्पादकता बढ़ाकर ही हम आर्थिक महाशक्ति बन सकते हैं


  

सोमवार, 13 जनवरी 2014

माइक्रो ब्लॉगिंग पर चीन का शिकंजा

पूर्वी चीन सागर में चीन का विशेषकर जापान और अमेरिका के साथ टकरावपूर्ण रवैया बेहद चिंताजनक मसला बनता जा रहा है। वह बड़ी शक्ति की दादागिरी की भाषा बोलने लगा है, जिससे उसके सामरिक मंसूबों का स्पष्ट पता चलता है। हाल ही एक वरिष्ठ चीनी सैन्य अधिकारी लीऊ मिंगफु ने कहा कि अमेरिकी सामरिक प्रभाव को प्रशांत महासागर के आधे पूर्वी हिस्से तक सीमित कर दिया जाएगा, क्योंकि चीन की ताकत पूरे ऑस्ट्रेलिया सहित पूर्वी एशिया में उसे मिटा देगी। उधर, जापान का आरोप है कि हथियारों को संचालित करने वाले चीनी रडार जापानी लक्ष्यों पर निशाना साधे हुए हैं।

चीन ने इसका खंडन किया है, पर पश्चिमी सूत्रों का कहना है कि चीन के सैनिक विमानों, जहाजों और पनडुब्बियों ने सेंकाकू द्वीप समूह के इर्द-गिर्द जापान के नियंत्रण वाले समुद्री एवं हवाई क्षेत्रों को चुनौती दी है। हाल के महीनों में चीन के सरकारी मीडिया ने राष्ट्रपति शी जिंगपिंग के 'चीनी सपने' के गुणगान का जोरदार प्रचार अभियान चला रखा है।
पिछले नवंबर में राष्ट्रपति बनने के बाद से शी जिंगपिंग अपने राष्ट्रवादी 'चीनी सपने' पर जोर दे रहे हैं और इसके साथ ही सेनाधिकारी मिंगफु की उग्र-राष्ट्रवादी पुस्तक 'द चाइना ड्रीम' चर्चित हो गई और उसकी बिक्री में भारी वृद्धि हुई है। हालांकि इस सबके बीच चीन घरेलू मोर्चे पर सोशल मीडिया की लोकप्रियता से बहुत घबराया हुआ है। यही वजह है कि उसने सरकार के आलोचकों की धरपकड़ शुरू कर दी।

हाल ही बीजिंग विश्वविद्यालय में कानून के  ख्यात प्रोफेसर हे वेफांग ने कुछ असाधारण-सा काम किया। नए साल पर उन्होंने चीन के सर्वाधिक लोकप्रिय सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपने फॉलोअर्स को अलविदा संदेश दिया। वेफांग उन जनमतकारी नेताओं में एक हैं, जो संवैधानिक अधिकारों का समर्थन करते रहे हैं और चीन में सेंसरशिप कड़ी करने के बाद उन पर ऑनलाइन हमले किए गए। नतीजन, उन्हें अपनी सोशल साइट छोडऩी पड़ी। चीन में संवेदनशील शब्दों की एक लंबी सूची है, जिनका उपयोग निषिद्ध है। काटछांट, सेंसरशिप और यूजर अकाउंट्स पर प्रतिबंध आम बात है। इससे कई लोगों ने सोशल साइट्स का उपयोग छोड़ दिया है और चुप्पी साधे हुए हैं। सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी ऑनलाइन अफवाह फैलाने वाले लोगों की धरपकड़ कर रही है, जिसे आलोचकों के दमन के बतौर देखा जा रहा है। उसने असरदार ढंग से सोशल मीडिया को चुप करा दिया है।

संवेदनशील पोस्ट की आड़ में गिरफ्तारी के डर से मशहूर ब्लॉगर पोस्ट करने से बच रहे हैं। अगस्त, 2013 में धरपकड़ अभियान शुरू हुआ था और तब से अब तक देशभर में सैकड़ों लोग हिरासत में लिए गए हैं। इसके अलावा, चीन के सर्वोच्च न्यायालय ने सितंबर में अपने इस फैसले से जनता में डर बढ़ा दिया कि 5,000 से अधिक लोगों द्वारा देखी जानी वाली अफवाह पोस्टिंग या 500 से अधिक लोगों को फारवर्ड की जाने वाली अफवाह पोस्टिंग के लिए यूजर पर मुकदमा चलाया जा सकता है।

प्रमुख जनमतकारी नेताओं की एक लंबी सूची दी है, जिन पर पिछले कुछ माह में मुकदमा चला और उन्हें उत्पीडि़त किया गया। जैसे ली जियोंग, एक भ्रष्टाचार-विरोधी अभियानकर्ता, जिन्होंने अधिकारियों को अपनी संपत्ति की घोषणा की अपील की थी। उन्हें अगस्त में गिरफ्तार किया गया और उनके वेब अकाउंट को हटा दिया गया। एक मुखर वेंचर केपेटेलिस्ट वांग गोंगक्वान को एक सामाजिक कार्यकर्ता की रिहाई का अभियान चलाने में मदद के बाद सार्वजनिक व्यवस्था भंग करने के आरोप में सितंबर में गिरफ्तार किया गया था। नागरिक अधिकार रक्षा वकील पुजियांग ने एक प्रतिबंधित वेबसाइट को देखा था और उसके बाद उन्हें अपने पोस्ट करने के लिए अपना अकाउंट बदलना पड़ा था। गौरतलब है कि लु, पु और वांग- ये सभी नाम फॉरेन पॉलिसीज गलोबल 100 थिंकर्स ऑफ 2013 की सूची में हैं। आधुनिक चीनी इतिहास के एक प्रमुख अध्येता और माओत्से तुंग के मुखर आलोचक झांग लीफान ने पाया कि कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्ण अधिवेशन के अंतिम दिन बिना किसी चेतावनी के उनके माइक्रोब्लॉग और स्तंभ हटा दिए गए थे। चीनी सोशल मीडिया वेबसाइट्स सरकार-नियंत्रित सीसीटीवी न्यूज चैनल की तरह बनती जा रही हैं। लोकप्रिय ऑनलाइन टिप्पणीकार एवं सिनावेबो के प्रशासक ओल्ड लु ने हाल ही घोषणा की कि इस तरह से ये वेबसाइट्स अंतिम सासें गिन रही होंगी। संवाददाताओं और संपादकों की 'ट्रैनिंग मैन्यूल' में कहा गया है, 'समाचार मीडिया को पार्टी के प्रति वफादार होना चाहिए, वह पार्टी नेतृत्व का अनुसरण करे और पार्टी के प्रति वफादारी के सिद्धांत को पत्रकारिता का सिद्वांत बनाए।' चीनी मीडिया पर पार्टी का नियंत्रण एक जीती-जागती हकीकत है, पर पत्रकारों से पार्टी का आदेश मानने को कहना अजीब बात है।

हैरतअंगेज यह है कि जब संचार क्रांति मानव इतिहास में अभूतपूर्व प्रगति-पथ पर है तो चीन में पत्रकार अत्यधिक दमन के शिकार हो रहे हैं। हम कैसे देखें, समझें और सूचना प्रेषित करें, इन मामलों में डिजिटल क्रांति ने इतना व्यापक असर डाला है कि मुक्त समाज भी उसका प्रभाव महसूस कर रहे हैं। सोशल मीडिया की ऊंची उड़ान, मोबाइल उपकरणों का सैलाब, लोकतंत्र का विखंडन और निगरानी के डर- ये डिजिटल युग में पत्रकारों के लिए वाकई प्रासंगिक मुद्दे हैं। चीनी पत्रकार भी इसके अपवाद नहीं, भले ही उन्हें सरकारी शिकंजे के मद्देनजर परदे के पीछे रहकर सीखना पड़े।

विदेशी निवेशकों को इस गफलत में नहीं रहना चाहिए कि चीन की महा-आर्थिक ताकत को पत्रकारिता पर उसके दमनकारी प्रतिबंधों से अलग रखा जा सकता है। चीन के एक हालिया सेंसर आदेश में पत्रकारों से एक बैंक के डूबने की खबर को दबाकर रखने को कहा गया।  हालांकि किसी अप्रिय खबर को रोकने से हकीकतें नहीं बदलतीं। चीनी नेता सत्ता पर अपने एकाधिकार को बनाए रखने के लिए सूचना और सूचनाकर्ता दोनों का दमन कर रहे हैं। उनको भय है कि खुलापन और स्वतंत्रता उनके अस्तित्व के लिए खतरा हैं। उनका भय सही है, क्योंकि डिजिटल क्रांति जनता को एकजुट करने वाली एक प्रमुख ताकत बन चुकी है। राष्ट्रपति शी जिंगपिंग के लिए बेहतर होगा कि वे चीन के पत्रकारों को माओकालीन युग के अंधियारे में धकेलने की बजाय वैश्वीकृत सूचना क्रांति के उजियारे में उन्हें कुशल होने को प्रोत्साहित करें, लेकिन सवाल यह है कि क्या वे यह साहस दिखा पाएंगे?


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