गुरुवार, 23 जनवरी 2014

स्ट्रीट वेंडिंग बिल 2012

देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले रेहड़ी पटरी व्यवसायी और फेरीवाले समाज में हमेशा से हाशिए पर रहे हैं। शासन और प्रशासन द्वारा हमेशा से उन्हें शहर की समस्या में ईजाफा करने वाले और लॉ एंड आर्डर के लिए खतरा माना जाता रहा है। हालांकि सेंटर फॉर सिविल सोसायटी (सीसीएस), नासवी व सेवा जैसे गैर सरकारी संगठन देशव्यापी अभियान चलाकर छोटे दुकानदारों और फेरीवालों की समस्याओं को दूर करने के लिए उचित संवैधानिक उपाय की लंबे समय से मांग करते रहे हैं। इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाते हुए पिछले दिनों लोकसभा से प्रोटेक्शन ऑफ लाइवलीहुड एंड रेग्युलेशन ऑफ स्ट्रीट वेंडिंग बिल 2012 पारित किया गया।

दरअसल, शहरी गरीबी में एक बड़ी आबादी उन छोटे दुकानदारों और फेरीवालों की है जो तमाम सरकारी कल्याणकारी सुविधाओं से वंचित हैं। अनौपचारिक क्षेत्र में होने के कारण इनकी मांग भी प्रायः दबी रह जाती है। इस बिल को लाने के पहले कई विवाद भी उठे। केंद्र सरकार ने इसे राज्य सूची का विषय बताकर राज्यों के ऊपर जिम्मेदारी थोपने का प्रयास किया। केंद्र सरकार का तर्क था कि स्ट्रीट वेंडर संबंधी नीतियां शहरी नीति के अंतर्गत हैं जो कि राज्य सूची में आता है इसलिए केवल राज्य ही इस पर कानून बना सकते हैं। जबकि यह महज स्ट्रीट वेंडरो से संबंधित नीति ही नहीं, बल्कि शहरी गरीबों का जीवन स्तर भी इससे प्रत्यक्ष तौर पर जुड़ा हुआ है।

बहरहाल स्ट्रीट वेंडरो की वैधानिकता, सुरक्षा, जीवनस्तर में सुधार, सामाजिक एवं आर्थिक लाभ केंद्रीत स्ट्रीट वेंडर बिल से एक नई उम्मीद अवश्य जगी है। वर्तमान बिल में कई ऐसे प्रावधान किए गए हैं जो इनकी विभिन्न समस्याओं का समाधान करने में सक्षम है। इस बिल में प्रावधान है कि प्रत्येक शहर में एक टाउन वेंडिंग कमिटि होगी जो म्युनिसिपल कमिश्नर या मुख्य कार्यपालक के अधीन होगी। यही कमेटी स्ट्रीट वेंडिंग से जुड़े सभी मुद्दों पर निर्णय लेगी। इस कमेटी में 40 प्रतिशत चुने गए सदस्य होंगे जिसमें से एक तिहाई सीट महिलाओं के लिए आरक्षित होगी। कमेटी को सभी स्ट्रीट वेंडरों के लिए पहचान पत्र जारी करना होगा। इसके पूर्व उनकी संख्या और निर्धारित क्षेत्र या जोन सुनिश्चित करने हेतु एक सर्वे कराया जाएगा। इसमें उनके लिए भिन्न-भिन्न जोन तय करने का भी प्रावधान है। प्रत्येक जोन में उसकी आबादी का केवल 2.5 प्रतिशत वेंडर ही होंगे। यदि उनकी संख्या इससे अधिक होती है तो उन्हें दूसरे जोन में स्थानांतरित किया जाएगा। बिल में स्पष्ट प्रावधान है कि वेंडरो की जो भी संपत्ति होगी उससे उन्हें वंचित नहीं किया जा सकेगा और न ही उनके किसी सामान को क्षति पहुंचाई जाएगी।

अबतक होता यही रहा है कि स्ट्रीट वेंडरों की दुकानों को शहरी अतिक्रमण से मुक्त कराने या सौंदर्यीकरण के नाम पर उजाड़ दिया जाता है। उनकी दुकानों और सामानों को काफी क्षति पहुंचाई जाती है, किंतु अब इस नए बिल के प्रावधान में ऐसे कृत्यों पर अंकुश लगा दिया गया है। नए प्रावधानों के मुताबिक अब यदि किसी जोन में उसकी कुल आबादी के 2.5 प्रतिशत से अधिक वेंडर होंगे तो उन वेंडरों को 30 दिन पूर्व नोटिस दी जानी जरूरी होगी, तभी उन्हें दूसरे जोन में स्थानांतरित किया जा सकेगा। नोटिस की समयावधि के बावजूद भी यदि कोई वेंडर उस जोन को खाली नहीं करता है तब उस पर 250 रूपए प्रतिदिन के हिसाब से जुर्माना और अंततः बलपूर्वक हटाया जा सकेगा अथवा उनके सामानों को जब्त किया जा सकेगा। इसकी एक सूची वेंडर को सौंपनी होगी तथा उचित जुर्माने के साथ उन जब्त सामानों को वापस लौटाया जा सकेगा। बिल में स्ट्रीट वेंडरों की सामाजिक-आर्थिक दशा सुधारने की दिशा में भी महत्वपूर्ण प्रावधान किए गए हैं। इस कानून के अमल में आने के बाद इनकी गैरकानूनी स्थिति भी समाप्त हो जाएगी जिस वजह से वे कई तरह की सरकारी लाभ और योजनाओं से वंचित रह जाते थे। इसी वजह से वे संस्थागत कर्ज सुविधा का लाभ भी नहीं ले पाते थे तथा कई तरह के सरकारी विभागों और कर्मियों को अवैध किराया या घूस देना पड़ता था।

गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा नीजि स्तर पर कराए गए सर्वे में पाया गया था कि स्ट्रीट वेंडरों द्वारा उनके गैरकानूनी दर्जे के कारण गलत लोगों को काफी मात्रा में घूस या अवैध राशि देनी पड़ती थी। इस अध्ययन में यह अंदाजा लगाया गया कि घूस की यह रकम करीब 400 करोड़ प्रति वर्ष थी। इन 15 वर्षों में यह रकम निश्चित रूप से और भी बढ़ चुकी होगी। यदि रेहड़ी पटरी वाले नियमित होते और सरकार उनसे कर वसूलती तो इतनी बड़ी राशि से सरकार स्ट्रीट वेंडरों की दशा सुधारने या बुनियादी ढांचे के विकास पर करती तो स्थिति कुछ और ही होती।

पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम और टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान द्वारा 15 शहरों में किए गए एक अन्य अध्ययन से यह बात सामने आई कि स्ट्रीट वेंडरों को बैंक कर्ज देने से इसलिए मना कर देते थे कि वे वैधानिक दायरे में नहीं आते थे। बैंकों द्वारा कर्ज नहीं मिलने के कारण वे सूदखोरों और महाजनों से 300 से 800 प्रतिशत तक के वार्षिक ब्याज दर पर कर्ज प्राप्त करते थे। इसका दुष्प्रभाव यह होता था कि वे आजीवन कर्ज के जाल में उलझकर रह जाते थे। वर्तमान बिल उन्हें वैधानिक दर्जा देता है जिससे उन्हें संस्थागत वित्तीय सेवाओं को हासिल करने में काफी सहूलियत होगी। वे कम ब्याज दरों पर सरकारी स्कीमों के जरिये बैंको से कर्ज भी प्राप्त कर सकेंगे।

श्रम मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक कुल श्रम बल का करीब 93 प्रतिशत हिस्सा इसी क्षेत्र में लगा है। इसका एक बड़ा हिस्सा स्ट्रीट वेंडरों या फेरीवालों के रूप में है। एक तरफ संगठित यानी औपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों का जीवनस्तर ऊंचा और आमदनी अधिक है वहीं इन श्रमिकों को दो जून की रोटी के लिए भी अपेक्षाकृत कड़ी मेहनत करनी होती है। इन श्रमिकों को वैसी सरकारी सुविधाओं का लाभ भी नहीं मिल पाता जो संगठित क्षेत्र के श्रमिकों को प्राप्त है। आज असंगठित श्रमिकों का देश के जीडीपी में योगदान करीब 65 प्रतिशत है, जबकि कुल बचत में इनका योगदान मात्र 45 प्रतिशत है। स्ट्रीट वेंडर भी असंगठित क्षेत्र के श्रमिक हैं, जिनका देश की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष योगदान है। इनके द्वारा बेचे जाने वाले अधिकांश सामान लघु, मध्यम उद्योगों में तैयार होते हैं। इस प्रकार ये इन लघु और मध्यम उद्योगों का पोषण करते हैं, जिसमें कई लोगों को संगठित रोजगार मिला हुआ है।


  

कारोबार की सरहद

एक दूसरे के पड़ोसी होते हुए भी भारत और पाकिस्तान के बीच कारोबार काफी सिमटा रहा है। कुछ समय पहले तक दक्षिण एशिया में श्रीलंका भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार था, अवामी लीग सरकार के कार्यकाल में अब बांग्लादेश उससे थोड़ा आगे निकल गया है। पाकिस्तान इन दोनों से पीछे है। इसकी वजह भारत से उसके रिश्तों में आते रहे उतार-चढ़ाव के अलावा कारोबार के लिए ढांचागत सुविधाओं की कमी भी है। दोनों के बीच बहुत सारा व्यापारिक लेन-देन तीसरे देश के जरिए होता रहा है, जो कि दोनों के हित में नहीं है। देर से ही सही, अब आपसी व्यापार की संभावनाएं बढ़ाने की कोशिश चल रही है। इस सिलसिले में सोलह महीने बाद दोनों तरफ के वाणिज्यमंत्रियों की बातचीत हुई और कई अहम फैसले किए गए। वाणिज्यमंत्री आनंद शर्मा और पाकिस्तान के व्यापारमंत्री खुर्रम दस्तगीर खान की बैठक के बाद घोषणा की गई कि वाघा सीमा बारहो महीने चौबीसो घंटे कारोबार के लिए खुली रहेगी। कंटेनर के जरिए भी सामान की निर्बाध आवाजाही हो सकेगी।

दोनों देशों ने एनडीएमए यानी भेदभाव-रहित बाजार प्रवेश कार्यक्रम अपनाने का निर्णय किया है। अगर पाकिस्तान ने मोस्ट फेवर्ड नेशन यानी कारोबार के लिहाज से सर्वाधिक तरजीही मुल्क का दर्जा भारत को दे दिया होता, तो शायद ऐसे किसी कार्यक्रम की जरूरत न पड़ती। लेकिन सैद्धांतिक तौर पर रजामंदी जताने के बाद पाकिस्तान पीछे हट गया। दरअसल, पाकिस्तान को यह डर सताता रहा है कि भारत के बड़ी अर्थव्यवस्था होने के कारण आयात-निर्यात को अधिक खुला करने से उसे नुकसान उठाना पड़ सकता है। सैद्धांतिक सहमति को लागू न करने के पीछे शायद घरेलू राजनीति का भी कुछ दबाव रहा हो।

बहरहाल, खान ने भरोसा दिलाया है कि एनडीएमए से भी वे मकसद हासिल किए जा सकते हैं जो व्यापार के लिए सबसे पसंदीदा मुल्क की अवधारणा में निहित हैं। आपसी व्यापार बढ़ाने के लिए दोनों देश अपने यहां एक दूसरे के बैंकों की शाखाएं खोलने की इजाजत देने को तैयार हैं। दोनों तरफ के केंद्रीय बैंकों को तय करना है कि किस-किस बैंक को इस तरह की अनुमति दी जाए। इसके अलावा सीमा शुल्क और कई दूसरी प्रक्रियाओं से संबंधित महकमों को भी आपसी व्यापार की सुविधाएं बढ़ाने की तैयारी में जुटना होगा। वीजा नियमों को खासकर कारोबारियों के लिए और उदार बनाने पर भी दोनों देशों ने सहमति जताई है।

पाकिस्तान से कारोबार बढ़ाने की दिशा में यूपीए सरकार का यह आखिरी बड़ा प्रयास होगा। इसलिए उम्मीद है कि अगले महीने के अंत तक इसे अमली जामा पहना दिया जाएगा, क्योंकि उसके बाद कभी भी चुनावी आचार संहिता लागू हो सकती है। वाजपेयी सरकार के समय ही सर क्रीक का विवाद निपटाने की दिशा में काफी प्रगति हो गई थी। पर खुद भाजपा की गुजरात सरकार का रवैया इस मामले में सकारात्मक नहीं रहा है। अगर सर क्रीक से जुड़े मतभेद सुलझा लिए जाएं तो जहां दोनों तरफ के मछुआरों के लिए सहूलियत होगी, वहीं आपसी कारोबार की संभावनाओं को भी और बल मिलेगा। इस सिलसिले में दोनों देशों के बीच समुद्री आर्थिक सहयोग समझौता होना चाहिए, जिसका सुझाव हाल में दोनों तरफ के मछुआरा संगठनों और शांति के लिए प्रयासरत समूहों ने दिया है।


- साभारः जनसत्ता

बुधवार, 22 जनवरी 2014

मध्य-पूर्व में संघर्ष की वजह अमेरिका

पिछले कुछ माह में मध्य-पूर्व दुनिया का और भी हिंसक क्षेत्र हो गया है। इराक में सीरिया के बाद सबसे खूनी गृहयुद्ध चल रहा है। इन भयावह घटनाओं को होते देख अमेरिका में कई लोगों को यकीन हो गया है कि यह वाशिंगटन की विफलता का नतीजा है। इस क्षेत्र के प्रति ओबामा प्रशासन के निष्क्रिय रवैये के कारण ही वहां अस्थिरता को बढऩे का मौका मिला। अब अगर इस क्षेत्र को किसी चीज की जरूरत है तो वह अमेरिका का और अधिक हस्तक्षेप ही है। उसका दखल ही क्षेत्र का माहौल बदल सकता है।

मध्यपूर्व उसी तरह के सांप्रदायिक संघर्ष में फंस गया है जैसा यूरोप में कैथोलिक और प्रोटेस्टंट के बीच सुधारवादी युग में देखा गया था। इन तनावों की जड़ें इतिहास और राजनीति में हैं और ये आसानी से दूर नहीं होंगे। तीन तथ्य हैं जिनके कारण हालात ऐसे हो गए हैं। एक तो मध्य-पूर्व के देशों की संरचना। आधुनिक मध्य-पूर्व का निर्माण प्रथम विश्व युद्ध के अंत में औपनिवेशिक शक्तियों ने किया था। ब्रितानियों व फ्रांसीसियों ने जिन राष्ट्रों का निर्माण किया वे ऐेसे हताश समूह थे, जिन्हें एक राष्ट्र के रूप में शासित होने का कोई अनुभव नहीं था। फिर इन राष्ट्रों के निर्माण के पहले कोई व्यवस्थित सोच-विचार भी नहीं किया गया।

मसलन, ऑटोमन साम्राज्य के तीन प्रांतों को लेकर इराक को एक राष्ट्र का रूप दिया गया, जबकि तीनों प्रांतों में ऐसी कोई समानता नहीं थी कि वे एक राष्ट्र का रूप ले सकें। औपनिवेशिक शक्तियों ने प्राय: अल्पसंख्यक गुटों से शासक चुने। (यह धूर्ततापूर्ण रणनीति थी, क्योंकि एक अल्पसंख्यक सत्ता को शासन करने के लिए हमेशा ही बाहर से मदद की जरूरत बनी रहेगी। इस तरह सुनिश्चित किया गया कि मध्य-पूर्व के शासक उन पर निर्भर रहें।)

1930 और 1940 के दौरान जब फ्रांसीसियों को सीरिया में राष्ट्रवादी विद्रोह का सामना करना पड़ा तो उन्होंने तब प्रताडि़त किए जा रहे अल्पसंख्यक अलावाइट समुदाय के लोगों की भारी भर्ती की। इतनी कि सेना और खासतौर पर अफसरशाही में इस समुदाय का प्रभुत्व हो गया। दूसरा तथ्य था बढ़ता इस्लामी कट्टरतावाद। अब कट्टरता बढऩे की भी अपनी वजहें हैं। एक वजह तो सऊदी अरब का उदय तथा वहां से खालिस वहाबी विचारों का बाहर के मुल्कों में प्रसार रही। फिर ईरानी क्रांति और क्षेत्र  के धर्मनिरपेक्ष गणराज्यों का सैन्य तानाशाही में तब्दील होने से पश्चिमीकरण की साख का घटना दूसरा कारण था।

उदाहरण के रूप में क्षेत्र के सबसे महत्वपूर्ण देश गमाल अब्देल नासेर के मिस्र को लिया जा सकता है। वह कट्टरपंथी नहीं था बल्कि अपनी धर्मनिरपेक्ष मानसिकता पर जोर देता था। किंतु वक्त के साथ जैसे-जैसे ये सत्ताएं नाकाम होती गईं, वे उन कबीलों के निकट आती गईं जो उनके प्रति वफादार थे। सद्दाम हुसैन के जिस इराक में ज्यादा धार्मिक आग्रह नहीं था वह 1990 के आते-आते अत्यधिक कट्टरपंथी हो गया।


आमतौर पर नई सांप्रदायिकता  प्रभुत्व की तत्कालीन शैली को और मजबूत करती गई। जब आप मध्य-पूर्व में जाएं तो आपको प्राय: यह सुनने को मिलता है कि यहां शिया-सुन्नी का मतभेद पूरी तरह बनावटी है और पुराने दिनों में दोनों समुदायों के लोग सौहार्दपूर्ण वातावरण में रहते आए थे। ऐसी टिप्पणियां लगभग हमेशा ही सुन्नियों की ओर से ही सुनने को मिलती हैं, जो मानकर चलते हैं कि सत्ता के गलियारों में बहुत कम नजर आने वाले उनके शिया बंधु अपनी अधीनस्थ हैसियत से पूरी तरह संतुष्ट हैं।


तीसरा कारण वाशिंगटन से गहराई तक जुड़ा है-  इराक पर हमला। यदि मध्य पूर्व में पिछले कुछ दशकों के दौरान सांप्रदायिक संघर्ष को तेज करने का कोई एक कारण है तो वह है इराक में सद्दाम हुसैन की सत्ता उलटने, वहां सारे सुन्नी केंद्रों को ध्वस्त करने और फिर इराक को शिया धार्मिक पार्टियों को सौंपने का तब के अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश का फैसला है। उन दिनों वाशिंगटन पर मध्य-पूर्व को रूपांतरित करने का भूत सवार था और उसने इसके सांप्रदायिक अंजामों पर जरा भी ध्यान नहीं दिया कि वह किस चीज का सूत्रपात करने जा रहा है। मैं इराक के मौजूदा प्रधानमंत्री नौरी अल-मलिकी से 2005 में मिला था जब वे इस पद पर नहीं थे।

तब मैंने उनका वर्णन इन शब्दों में किया था : 'ऐसे कट्टरपंथी शिया नेता जो अपने धार्मिक विचारों पर जरा भी झुकने को तैयार नहीं हैं और सुन्नियों को तो वे सिर्फ सजा ही देना चाहते हैं। वे मुझे ऐसे व्यक्ति कतई नहीं लगे जो राष्ट्रीय सुलह-सफाई चाहते हों।' यह भी साफ ही था कि लगभग दो दशकों तक सीरिया और ईरान में निर्वासित जीवन बिताने के कारण वे इन दोनों सत्ताओं के नजदीक थे। इन दोनों देशों के शासकों ने मलिकी व उनके सहयोगियों को शरण दी थी। जाहिर है सत्ता चलाने उनके तरीकों पर दोनों सत्ताओं का असर तो पड़ेगा बुश प्रशासन के अधिकारियों ने इन चिंताओं को एक सिरे से  खारिज कर दिया और मुझे कहा कि मलिकी का भरोसा लोकतंत्र और बहुलतावाद में है।

इन नीतियों के नतीजे अब साफ नजर आ रहे हैं। शिया शासक वाशिंगटन के आशीर्वाद से सुन्नियों के दमन में लग गए। इसके कारण देश में खून-खराबा बढ़ गया है और अस्थिरता का पुराना दौर लौट आया है। 20 लाख से ज्यादा इराकी, जिनमें ज्यादातर सुन्नी और ईसाई धर्म के लोग शामिल हैं, देश से पलायन कर गए और इसकी उम्मीद न के बराबर हैं कि वे कभी लौटेंगे भी। इराक में अब भी सत्ता अपने पास होने का भ्रम पाले सुन्नी अल्पसंख्यकों ने पलटकर संघर्ष शुरू कर दिया है। अब वे और भी अधिक कट्टरपंथी व अतिवादी हो गए हैं। इन सारे कबीलों के पड़ोसी सीरिया के सुन्नी कबीलों से खून के रिश्ते हैं और जब इन सीरियाई सुन्नी कबीलों ने इराक के गृह युद्ध को देखा तो वे भी अतिवादी बन गए।


अब जबकि हिंसा और भड़क गई है तो बुश प्रशासन के जमाने के अफसरों की टोली कहने लगी यदि अमेरिका इराक में थोड़ा और सक्रिय होता, उसके कुछ हजार सैनिक वहां होते, सुन्नी उग्रवादियों से लड़ते और मलिकी को मजबूत समर्थन देते तो स्थिति कुछ और ही होती। उन्हें अब भी समझ में नहीं आ रहा है कि उनका यह दृष्टिकोण ही समस्या की वजह है। इस नजरिये से मध्य-पूर्व के संघर्ष के गहरे चरित्र को लेकर नासमझी तो जाहिर होती ही है, यह भी पता चलता है कि वाशिंगटन यह देख ही नहीं पा रहा है कि किसी एक का पक्ष लेने से स्थिति काफी बिगड़ गई है। धर्म और राजनीति के जटिल संघर्ष में अमेरिकी हस्तक्षेप का एक और दौर संघर्ष की अग्नि को और भड़का देगा।

फरीद जकारिया
टाइम मैगजीन के एडिटर एट लार्ज

  

काला धन एक परिचर्चा

भ्रष्टाचार देश की जड़ों को खोखला कर रहा है। भ्रष्टाचार के अनेक रूप हैं लेकिन काला धन इसका सबसे भयावह चेहरा है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए चुनौती है। एक अंतरराष्ट्रीय संस्था ग्लोबल फाइनेंशियल इंटेग्रिटीके अनुसार भारत के लोगों का लगभग 20 लाख 85 हजार करोड़ रूपए विदेशी बैंकों में जमा है। देश में काले धन की समानांतर व्यवस्था चल रही है। चूंकि इस धन पर टैक्स प्राप्त नहीं होता है इसलिए सरकार अप्रत्यक्ष कर में बढ़ोतरी करती है, जिसके चलते नागरिकों पर महंगाई समेत तमाम तरह के बोझ पड़ते हैं।

अपनी कमाई के बारे में वास्तविक विवरण न देकर तथा कर की चोरी कर जो धन अर्जित किया जाता है, वह काला धन कहा जाता है। विदेशी बैंकों में यह धन जमा करने वाले लोगों में देश के बड़े-बड़े नेता, प्रशासनिक अधिकारी और उद्योगपति शामिल हैं। विदेशी बैंकों में भारत का कितना काला धन जमा है, इस बात के अभी तक कोई अधिकारिक आंकड़े सरकार के पास मौजूद नहीं हैं लेकिन स्विटजरलैंड के स्विस बैंक में खाता खोलने के लिए न्यूनतम जमा राशि 50 करोड़ रुपये बताई जाती है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जमाधन की राशि कितनी विशाल होगी। स्विस राजदूत ने माना है कि भारत से काफी पैसा स्विस बैंकों में आ रहा है। कुछ महीनों पहले स्विस बैंक एसोसिएशन ने भी यह कहा था कि गोपनीय खातों में भारत के लोगों की 1,456 अरब डॉलर की राशि जमा है।

स्विटजरलैंड में बैंकों के खातों संबंधी कानून बेहद कड़े हैं और लोगों को पूरी गोपनीयता दी जाती है। इन कानूनों के तहत बैंक और बैंककर्मी किसी भी खातें की जानकारी खाताधारक के सिवा किसी और को नहीं दे सकते। यहां तक की स्विटजरलैंड की सरकार भी इन खातों की जानकारी हासिल नहीं कर सकती। यही नहीं स्विस बैंकों में विदेशी लोगों के लिए खाता खोलना भी बेहद आसान है। खाता खोलने की एकमात्र जरूरत सिर्फ यह है कि आपकी उम्र 18 वर्ष से अधिक होनी चाहिए। यही नहीं खाता खोलने के लिए स्विटजरलैंड पहुंचने की भी कोई जरूरत नहीं है ईमेल और फैक्स पर जानकारी देकर भी खाता खुलवाया जा सकता है।


काले धन का इस्तेमाल आतंकवाद को बढ़ावा देने में किया जा रहा है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने भी इस ओर इशारा किया है कि विदेशों में जमा काला धन ही आतंकियों को वित्तीय मदद के रूप में भारत में आता है।

भारत का राजनीतिक परिदृश्य

भारत का राजनीतिक परिदृश्य हालांकि खंडित एवं जीर्ण-शीर्ण है, लेकिन वह एक आकार ले रहा है। स्वयंसेवी संगठनों, जिन्हें उपहास के तौर पर झोलावाला कहा जाता है, द्वारा गठित आम आदमी पार्टी (आप) ने इस परिदृश्य को बदला है। इस पार्टी ने कांग्रेस और भाजपा के विकल्प की जरूरत को पूरा किया है। कांग्रेस और भाजपा तो दो अलग-अलग पुरानी बोतलों में एक ही शराब हैं।

आप के उदय से रायों में पकड़ रखने वाली क्षेत्रीय पार्टियों को सबसे यादा नुकसान हुआ है। भाषा, क्षेत्र या धर्म के नाम पर उनकी अपील का असर कम हुआ है। दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप की जीत से चुनावों में जाति, पंथ या इनके जैसे दूसरे आधारों के नाम पर गोलबंदी करने वाली पार्टियों की ताकत कम हुई है। कांग्रेस और भाजपा, दोनों ने स्वीकार किया है कि जिस तरह से 'आप' पार्टी आगे बढ़ी है, उससे उन्हें सीखना होगा। ऐसे में इन दोनों को खुद को बदलना चाहिए था। फिर भी वे यथास्थिति के गढ़ बने हुए हैं। आप जब तक लोगों की आकांक्षाओं के साथ तालमेल बनाए रखती है, तब तक इसका कोई मायने नहीं कि इस पार्टी में मार्क्सवादी शामिल हैं या नक्सलवादी। अंतत: अब जल्द इस बात की परीक्षा होगी कि आप किस तरह गरीबी दूर करती है, जिसने आजादी के 67 वर्षों बाद भी देश की आबादी को तबाह कर रखा है।

एक बात निश्चित है कि वाम पार्टियां निर्मोही तरीके से कुचल दी गई हैं। निस्संदेह रूप से यह एक नुकसान है लेकिन कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट पार्टियां इसके लिए खुद दोषी हैं, क्योंकि जमीन से अब उनका कोई ताल्लुकात नहीं रह गया है। प्रगति और समान अवसर के सवाल को सिर्फ  नारों या नाटकों में सीमित नहीं किया जा सकता। गरीबों की भलाई के लिए 'आप' समय सीमा के अंदर पूरा करने का एजेंडा लेकर आई है। पश्चिम बंगाल में अपने 35 साल के शासन में कम्युनिस्ट जब लोगों के जीवन में सुधार नहीं ला सके तो उन्होंने साबित कर दिया कि उनका मार्क्सवाद प्रगति का परत मात्रा है। इसका परत उधेड़ने पर पता चलता है कि वह इसी व्यवस्था का ही अंश है। उन्होंने गरीबों को अपनी आवाज नहीं उठाने दी। जो काम वे दशकों के शासन में नहीं कर सके, आप ने इसे करीब 12 महीने में कर दिखाने का वादा किया है।

दोनों मुख्य पार्टियां-कांग्रेस और भाजपा मंदिरों के महंत की तरह हैं। उन्होंने कुछ सीखा नहीं है, भूले कुछ नहीं हैं। अपनी नीतियों को सुधरने के बजाय, 'आप' को वे बेतुका चीज या ऐसा गुब्बारा मान रहे हैं जो इस साल अप्रैल में होने वाले लोकसभा चुनाव तक फट जाएगा। लेकिन वे गलतफहमी में हैं, क्योंकि 'आप' ने लोगों के मन की उड़ान पर अपनी पकड़ बना ली है और यह आग की तरह फैल चुकी है। जो लाखों  लोग 'आप' में शामिल हुए हैं, वह इसे दिखा रहा है।

प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की हवा जिस तरह खत्म हो गई है वह इस बात का संकेत दे रहा है कि भीड़ पर उनकी पकड़ अब पहले जैसी नहीं रह गई है। हालांकि मीडिया अभी भी उन्हें उभारने में लगा हुआ है। यही कारण है कि आरएसएस ने भाजपा से 'आप' को रोकने को कहा है, न कि कांग्रेस को, जो वर्षों से उसकी विरोधी रही है। दिल्ली का शासन चलाने के क्रम में आप जो कुछ भी निर्णय ले रही है, उस पर नेताओं के हमले से यह बात पुष्ट होती है कि कांग्रेस खिसक कर तीसरे नंबर पर पहुंच चुकी है। बताया जा रहा है कि कांग्रेस इस नतीजे पर पहुंच चुकी है कि मोदी को रोकने के लिए वह गैर आधिकारिक तौर पर आप का समर्थन करेगी। इसका यह भी मायने है कि कांग्रेस महसूस कर चुकी है कि वह सत्ता में वापस नहीं आ पाएगी। वास्तव में वह केंद्र में 'आप' की सरकार बनवाने के लिए अपने समर्थन के साथ-साथ क्षेत्रीय दलों का समर्थन जुटाने का प्रयास कर सकती है। मोदी को सत्ता से बाहर रखने के लिए कांग्रेस कोई कोशिश बाकी नहीं छोड़ेगी।

राजनीतिक परिदृश्य का सबसे परेशान करने वाला पहलू भ्रष्टाचार है। कांग्रेस एवं भाजपा, खासकर भाजपा, को दागी नेताओं का समर्थन लेने में कोई हिचक नहीं है। कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के खिलाफ कार्रवाई करने से इंकार कर दिया है। जबकि उन पर एक वैसे कंपनी को मदद करने का आरोप है जिसका बहुत अधिक शेयर उनके रिश्तेदारों के पास है। मोदी यूं तो सार्वजनिक जीवन में शुचिता की बात कर रहे हैं लेकिन अदालत द्वारा दोषी करार दिए गए व्यक्ति को अपने मंत्रिमंडल में रखे हुए हैं। सजा मिलते ही बिहार के लालू प्रसाद और कांग्रेस के रशीद मसूद की संसद की सदस्यता खत्म हो गई। तो फिर गुजरात के मोदी सरकार में भाजपा एक सजायाफ्ता को पनाह क्यों दिए हुए है?

परेशान करने वाली दूसरी बात व्यक्तिवाद का उभार है। भारत का लोकतंत्र अध्यक्षीय प्रणाली में बदलने लगा है। इसके लिए मोदी सबसे अधिक दोषी हैं, क्योंकि उन्होंने मजबूत व्यक्तित्व और मजबूत सरकार का नारा दिया है। बारह साल पहले अपनी ही प्रजा का कत्लेआम कराने वाला शासक संविधान द्वारा प्रदत्त असहमति के अधिकार के लिए घातक होगा। यह कोई आश्चर्य वाली बात नहीं, लेकिन दुख:द है कि अहमदाबाद में पुलिस ने मोदी के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से इंकार कर दिया। मोदी पर एक लड़की को अपनी निगरानी में रखने का जो आरोप है वह कई सवाल खड़ा करता है। सच्चाई का पता लगाने के लिए एफआईआर जरूरी होता है। केंद्र द्वारा गठित आयोग सच्चाई का पता लगा सकता है। लेकिन स्थानीय पुलिस के रवैये से पता चलता है कि राय का सरकारीतंत्र मदद करने को तैयार नहीं है।

मोदी की चाल को देखते हुए 2014 के चुनाव को कांग्रेस को व्यक्तित्व की लड़ाई नहीं, बल्कि मुद्दों की लड़ाई में तब्दील करना चाहिए था। लेकिन कांग्रेस राहुल गांधी को प्रोजेक्ट कर गलत कर रही है। ऐसा लग रहा है संघर्ष इन्हीं दोनों के बीच है। राहुल गांधी अक्सर महत्वपूर्ण नीतिगत मामलों पर बोल रहे हैं और सरकारी निर्णयों को उलटवा रहे हैं। एक उदाहरण राजनीतिज्ञों को सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले से बचाने के लिए अध्यादेश जारी करने का है, जिस फैसले के अनुसार सजा सुनाए जाने के बाद विधायकी या संसद सदस्यता खत्म हो जाने का फैसला दिया गया था। दूसरा उदाहरण महाराष्ट्र के आवास घोटाले का है। आदर्श हाउसिंग रिपोर्ट को महाराष्ट्र की कांग्रेसनीत सरकार खारिज कर चुकी थी, लेकिन राहुल गांधी ने इस आंशिक रूप से वापस कराया। इसके बावजूद राजनीतिज्ञ बेखौफ घूम रहे हैं। गाज सिर्फ नौकरशाहों पर गिर रही है।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को समझना चाहिए कि आप सरकार उनकी कोई अपनी व्यक्तिगत मंडली नहीं है। आश्चर्य की बात है कि उन्होंने अपने पास 16 विभागों को रख लिया है। गांधीवादी जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से उपजी जनता पार्टी यादा दिनों तक नहीं चल सकी थी। लेकिन उसने एक काम जरूर किया कि अब देश में दुबारा आपातकाल नहीं थोपा जा सकता। लोकतंत्र की जड़ें काफी मजबूत हैं। अगर आप व्यवस्था को ठीक करती है और सुनिश्चत करती है कि वह इसी रास्ते पर रहेगी तो यह सरकार बहुत दिनों तक नहीं चले तो भी 'आप' का बहुत बड़ा योगदान होगा।


कुलदीप नैय्यर

शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

अनिश्चितता में घिरे पड़ोसी देश

यह कोई मध्य रात्रि में दी गई दस्तक नहीं थी। यह दिन-दहाड़े सबके सामने की गई गिरफ्तारी थी। बंगलादेश के पूर्व प्रधानमंत्री मौदूद अहमद ने जैसे ही ढाका के एक होटल के बाहर कदम रखा उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। उनका अपराध यही है कि वह देश के सबसे बड़े विपक्षी नेता हैं और पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया के नेतृत्व वाली बंगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी में हैं। प्रधानमंत्री शेख हसीना, अवामी लीग की अध्यक्ष दोनों से नफरत करती हैं। पिछली बार मौदूद गिरफ्तार हुए थे तो एरशाद का सैनिक शासन था। वह भी उसी जेल में हैं जहां मौदूद को रख गया है। वह और उनकी पार्टी जातीय संसद ने प्रधानमंत्री के समर्थन देने से मना कर दिया था।

बेशक, किस्मत बदलती रहती है। आज जो शासन में है वे कल विरोधी पक्ष में होंगे। लेकिन बंगलादेश में जो नजर आ रहा है वह है बदले की राजनीति। खालिदा तो इस हद तक चली गई थीं कि उन्होंने उस समय हसीना की हत्या कराने की कोशिश की जब वह सत्ता से बाहर थीं। मौदूद तथा जेल में बन्द दूसरे लोगों ने प्रधानमंत्री के निरंकुश शासन के विरोध का हिम्मत की है। एक तानाशाह बुरा होता है, लेकिन इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता है कि जब वह सत्ता ही छोड़ना न चाहे। यह बंगलादेश की समस्या की जड़ है।

विरोधी पक्ष की मांग एक तटस्थ शासन में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की है। इसके बदले हसीना ने चुनाव अपने शासन में चुनाव कराए और इसके पहले उन्होंने संविधान के उस प्रावधान को खत्म किया जिसमें सुप्रीम कोर्ट के रिटायर हो रहे चीफ जस्टिस के नेतृत्व में बनी कामचलाऊ सरकार की देखरेख में चुनाव कराने की व्यवस्था थी। चुनाव एक मजाक कि वोट डालने के पहले ही 154 सदस्य निर्विरोध चुन कर आ गए और 103 कुछ दिन पहले देश में हुए एकतरफा चुनाव में चुन लिए गए। संसद में सदस्यों की संख्या 300 है। हसीना की जीत बहुत कम मायने रखती है जब बीएनपी और यादातर पार्टियों ने चुनाव का बहिष्कार किया और नई सरकार को स्वीकार करने से मना कर दिया। एक दैनिक अखबार के सर्वे का कहना है कि 77 प्रतिशत लोग चुनाव परिणामों को स्वीकार नहीं करते।

सबसे बेचैनी वाली बात है-न खत्म होने वाली हिंसा। बायकाट और हड़ताल में दर्जनों लोग मारे जा चुके हैं। अर्थ व्यवस्था पर इसका असर होना निश्चित है जो पिछले पांच सालों से छह प्रतिशत की दर से विकसित हो रही थी। बेरोजगारी बढ़ेगी, गरीबी बढेग़ी और मंहगाई भी। हसीना और खालिदा, दोनों में किसी को इसकी चिंता नहीं है कि स्थिति रोज-ब-रोज खराब होती जा रही है।

इसका फायदा जमायत-ए-इस्लामी को मिल रहा है, निस्संदेह जिसका लक्ष्य समाज को बांटने और कट्टरपंथ फैलाना है। जमायत संगठित तो है ही, इसने बुध्दिज़ीवी वर्ग को भी प्रदूषित कर दिया है। कार्यकर्ताओं के जरिए हिंसा जमायत का योगदान है। दुर्भाग्यवश,भारत खुले तौर पर हसीना के पक्ष में आ गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि वह सेकुलर हैं और अपने पिता शेख मुजीबुर्र रहमान, बंगलादेश के संस्थापक की तरह मुक्ति की पक्की समर्थक है। लेकिन किसी भी कीमत पर सत्ता को हाथ से नहीं जाने देने के उनके निश्चय ने सभी मानदंडों की धजियां उड़ा दी हैं। नई दिल्ली को बीच-बचाव वाली भूमिका निभानी चाहिए थी। शुरू में इसने ऐसा किया भी लेकिन अब वह पक्षपात करती दिखाई दे रही है। भारत विरोधी भावना फैल रही है और इसकी आंच 80 लाख हिंदुओं को झेलनी पड़ रही है। अगर भारत को अपनी पसंद दिखानी भी है तो इसे बंगलादेश के प्रथम विदेश मंत्री कमाल हुसैन और नोबेल पुरस्कार विजेता युनूस का समर्थन करना चाहिए ताकि वे तीसरा मोर्चा दे सकें। खालिदा वैसे मुक्ति समर्थक थीं लेकिन उन्होंने 1971 के बंगलादेश युध्द में पाकिस्तान का साथ देने वाले अब्दुल कादिर मुल्ला की फांसी के खिलाफ आवाज उठाकर अपनी विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगा दिए। उस समय जिन्होंने यादती किए उन्हें मुक्ति-समर्थक के हाथों दंडित होना ही चाहिए। लेकिन 80 साल से ऊपर के व्यक्ति को फांसी देने का कोई अर्थ नहीं है।

कादिर मुल्ला को शहीद घोषित करने का सर्वसम्मत प्रस्ताव नेशनल असेंबली में पारित कर पाकिस्तान ने भी अपनी छवि खराब कर ली। यह पूर्वाग्रही मानसिकता ही दर्शाता है। अफसोस व्यक्त करने के बदले पाकिस्तान का शासन इस तरह का व्यवहार कर रहा है जैसे वह उसके लिए दुखी नहीं है जो उसने किया। बंगलादेश के बारे में वह एक गलत नीति पर चल रहा है। पाकिस्तान राज बार-बार यह इसे करता है कि वह मुहम्मद अली जिन्ना की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा है जिन्होंने राजनीति में धर्म को नहीं मिलाने की सलाह दी थी। इस्लामाबाद ने अफगानिस्तान और कश्मीर के खिलाफ पहले तालिबान को प्रशिक्षण दिया। अब वही तालिबान पाकिस्तान की स्थिरता के लिए खतरा पैदा कर रहा है। पाकिस्तान में कट्टरपंथ बढ़ रहा है और उदारता की आवाज शायद ही सुनाई पड़ती है। जब पंजाब के गर्वनर तासीर के हत्या के अभियुक्त पर वकील वर्षा करते हैं तो उग्रपंथ कहां पहुंच गया है यह समझ में आता है। तासीर ईश्वर-निंदा कानून में संशोधन चाहते थे। तासीर के पुत्र, जिसे दो साल पहले अपहरण कर लिया गया, का कोई पता नहीं चल सका है और मीडिया जो वैसे ताकतवर है भी उसे भुला चुका है।

भारत और अफगानिस्तान से बेहतर रिश्ते की प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की कोशिश ताजी हवा का अहसास देती है। उन्हें एक तरफ दक्षिणपंथी ताकतों, जिनमें से कई उनके ही कैम्प में हैं और दूसरी तरफ सेना पर निर्भर रहना पड़ता है। फिर भी उन्होंने अपने भाई शहबाज शरीफ को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलने भेजा। लगता नहीं कुछ ठोस निकला। नई दिल्ली संवाद फिर से शुरू करने के पक्ष में नहीं है। जबकि दोनों देशों के बीच की दूरी कम करने का यही रास्ता है। नवाज शरीफ इस प्रकिया को तेज कर सकते थे अगर उन्होंने 2611 के दोषियों, जिन्होंने मुंबई पर हमला किया था, को दंडित करने के काम को आगे बढ़ाते।


पाकिस्तान रिटायर्ड जनरल परवेज मुशर्रफ की इस चुनौती को कम करके दिखा सकता है कि आर्मी अभी भी उसके पीछे खड़ी है। लेकिन आर्मी चीफ या उसके प्रचार महकमे की ओर से कोई खंडन नहीं आया है। यह देशद्रोह के उस मुकदमे का मजाक ही बना देता है अदालत जिसकी सुनवाई कर रहा है। इसका मतलब है कि पाकिस्तान में सेना तीसरा सदन है। यह बात जो सामने आई है कि पाकिस्तान की सेना जो कश्मीर समस्या के समाधान में सबसे बड़ी बाधा है। किसी हल पर पर राजी हो गई थी, यह अचरज की बात है। सेना के लिए यह संभव नहीं है कि एक पूर्व जनरल को फांसी या कारावास को स्वीकार कर ले। ऐसा लगता है कि उन्हें देश से बाहर भेजने के लिए उनके खराब स्वास्थ्य जैसा कोई सम्मानजनक रास्ता ढूंढा जा रहा है। भारत और पाकिस्तान के रिश्ते को लेकर एक अच्छा बिंदु है कश्मीर पर स्वीकार होने लायक समाधान। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा है कि कश्मीर समस्या का एक हल मिल गया था लेकिन कुछ अन्य चीजें रास्ते में आ गई इसे अंतिम रूप देने के पहले। क्यों नहीं इसी हल को फिर से लाया जाए?

उच्च न्यायपालिका में न्यायधीशों की नियुक्ति और तबादले की व्यवस्था में बदलाव के प्रयास

उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनके तबादले की वर्तमान व्यवस्था में बदलाव के लिये पिछले दो दशक से प्रयास किये जा रहे हैं। वर्तमान व्यवस्था के अंतर्गत उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के चयन का काम न्यायाधीशों की समिति ही करती है जबकि सरकार महसूस करती है कि इस प्रक्रिया में उसकी भूमिका भी होनी चाहिए। यही वजह है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की वर्तमान प्रक्रिया में बदलाव लाने और इसे अधिक पारदर्शी बनाने की लंबे समय से उठ रही मांग के मद्देनजर न्यायिक नियुक्ति आयोग को संवैधानिक दर्जा देने का प्रयास किया जा रहा है।

चूंकि नयी व्यवस्था को संवैधानिक संरक्षण प्रदान करने के लिये संविधान संशोधन की आवश्‍यकता है,इसलिये केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति और तबादले के लिये प्रस्तावित आयोग को संवैधानिक संरक्षण प्रदान करने के प्रस्ताव को मंजूरी दी है। मंत्रिमंडल के निर्णय के अनुसार संविधान के अनुच्छेद 124 मे दो नये उपबंध अनुच्छेद 124-क और अनुच्छेद 124-ख जोड़ने का प्रस्ताव है।

सरकार संसद के विस्तारित शीतकालीन सत्र में इस संविधान संशोधन को पारित कराने का प्रयास करेगी। यदि यह विधेयक पारित हो गया तो इसे राष्ट्रपति की संस्तुति मिलने के बाद उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति की जिम्मेदारी न्यायिक नियुक्ति आयोग को सौंप दी जायेगी और इसके साथ ही उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति और तबादले से संबंधित प्रक्रिया में एक नया अध्याय जुड़ जायेगा।

प्रस्तावित न्यायिक नियुक्ति आयोग का अध्यक्ष देश के प्रधान न्यायाधीश होंगे। इस आयोग में छह सदस्य होंगे। इसमें उच्चतम न्यायालय के दो वरिष्ठ न्यायाधीशों के साथ ही कानून मंत्री, विधि सचिव और दो बुद्धिजीवी होंगे। इन बुद्धिजीवियों के नामों का चयन प्रधान मंत्री, प्रधान न्यायाधीश और संसद में प्रतिपक्ष के नेता करेंगे। न्याय विभाग के सचिव इस आयोग के संयोजक होंगे।

यह आयोग न्यायाधीशों की नियुक्ति, तबादले और इस पद के दावेदारों की गुणवत्ता से संबंधित कामकाज करेगा। आयोग देश के प्रधान न्यायाधीश, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों तथा न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये सिफारिश करने के साथ ही उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों की किसी दूसरे उच्च न्यायालय में तबादले की सिफारिश करेगा।

उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधी प्रक्रिया में राज्यपाल,मुख्यमंत्री और संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की लिखित में राय प्राप्त करना भी आयोग के काम में शामिल है। यह सारी कार्यवाही आयोग द्वारा कामकाज के लिये बनाये गये नियमों के अनुसार ही की जायेगी।

उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के पद रिक्त होने की स्थिति में इस बारे में केन्द्र सरकार आयोग के पास सूचना भेजेगी। न्यायालयों में वर्तमान रिक्त स्थानों के बारे में यह कानून बनने की तारीख से तीन महीने के भीतर सूचना देनी होगी। यदि किसी न्यायाधीश का कार्यकाल पूरा हो रहा हो तो ऐसी स्थिति में यह पद रिक्त होने की तारीख से दो महीने पहले ही आयोग को सूचित करना होगा। किसी न्यायाधीश का निधन होने के कारण रिक्त हुए पद के बारे में भी दो महीने के भीतर ही आयोग को सूचित करने का प्रावधान किया गया है।

न्यायिक नियुक्ति आयोग में प्रावधान है कि इसके न्यायाधीशों के चयन की प्रक्रिया आयोग के संयोजक उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों, केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों से पात्र उम्मीदवारों के बारे में सिफारिशें आमंत्रित करके शुरू करेंगे।

इस समय उच्चतम न्यायालय में प्रधान न्यायाधीश सहित न्यायाधीशों के 31 और 24 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 906 स्वीकृत पद हैं। एक अनुमान के अनुसार इस समय विभिन्न उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के करीब 275 पद रिक्त हैं। उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के रिक्त पदों का सीधा प्रभाव लंबित मुकदमों के निबटाने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है।

न्‍यायाधीशों की नियुक्ति की वर्तमान व्यवस्था को लेकर उठ रहे सवालों के संदर्भ में ही उच्च्तम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश डॉ ए. आर. लक्ष्मणन की अध्यक्षता वाले 18वें विधि आयोग ने 2008 में अपनी 214वीं रिपोर्ट में भारत में 1993 से प्रभावी न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में बदलाव पर विचार का सुझाव दिया था।

आयोग की राय थी कि संविधान के अनुच्छेद 124 :2: और 217 :1: न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में कार्यपालिका और न्यायपालिका की भूमिका में बहुत खूबसूरती से संतुलन कायम किया गया था। लेकिन 1993 के उच्चतम न्यायालय के निर्णय और राष्ट्रपति को इस मसले पर दी गयी सलाह ने इसमें असंतुलन पैदा कर दिया। विधि आयोग का सुझाव था कि इस मामले में कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच मूल संतुलन बनाने के लिए इसकी नये सिरे से समीक्षा की जाए।

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी मद्रास उच्च न्यायालय की 150वीं जयंती समारोह में न्यायाधीशों की भूमिका के बारे में निर्णय को बेहद संवदेनशील विषय बताते हुये न्यायपालिका की स्वतंत्रता और इसकी विश्‍वसनीयता बनाये रखने पर भी जोर दिया। साथ ही राष्ट्रपति ने यह कहने में भी संकोच नहीं किया था कि न्यायपालिका की विश्‍वसनीयता उन न्यायाधीशों के स्तर पर निर्भर करती है जो देश की तमाम अदालतों को संचालित करते हैं। इसलिए न्यायाधीशों के चयन और उनकी नियुक्ति की प्रक्रिया  ही न सिर्फ उच्च मानदंडों के अनुरूप होनी चाहिए बल्कि यह प्रतिपादित सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए।


न्यायाधीशों की नियुक्ति वर्तमान व्यवस्था में संविधान संशोधन के जरिए बदलाव के लिए 1990 और फिर 2003 के लिए प्रयास किये गए थे लेकिन दोनों ही अवसरों पर लोकसभा भंग हो जाने के कारण यह प्रक्रिया आगे नहीं बढ सकी थी। सरकार एक बार फिर इस दिशा में प्रयास कर रही है। उम्मीद है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की वर्तमान व्यवस्था में बदलाव के लिये न्यायिक नियुक्ति आयोग गठित करने और इसे सांविधानिक संरक्षण प्रदान करने संबंधी संविधान संशोधन विधेयक संसद के विस्तारित सत्र के दौरान पारित करा लिया जायेगा।

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