रविवार, 8 दिसंबर 2013

डब्लूटीओ में भोजन का अधिकार

इंडोनेशिया के बाली द्वीप में चल रही डब्लूटीओ बैठक को भारत जैसे कृषि प्रधान देशों के लिए वाटरलू बताया जाता रहा है। वाटरलू, यानी वह जगह जहां दुनिया जीतने का सपना लेकर निकले नेपोलियन बोनापार्त को आखिरी शिकस्त मिली थी और उसका सपना हमेशा-हमेशा के लिए टूट गया था।

ताकतवर देशों का शुरू से यह दबाव रहा है कि भारत समेत दुनिया का कोई भी देश अपनी कुल खेतिहर उपज के दस फीसदी से ज्यादा रकम अपने किसानों को सब्सिडी के रूप में न दे, क्योंकि ऐसा करने पर बाजार में अनावश्यक विकृति पैदा होती है। यह शर्त बेहद टेढ़ी है, क्योंकि सब्सिडी के विभिन्न रूपों पर नजर रखना तो दूर, अलग-अलग समाजों में कुल खेतिहर उपज की कीमत तय करना भी समुद्र की लहरें गिनने जैसा काम है। इस संबंध में अमेरिका और यूरोप के मानक अगर भारत और चीन जैसे देशों में ज्यों के त्यों लागू कर दिए गए तो न सिर्फ इन देशों के किसान दिवालिया हो जाएंगे, बल्कि अनाज खरीद कर खाने वाली यहां की बहुत बड़ी आबादी भूखों मरने लगेगी।

ताकतवर देशों को सबसे ज्यादा नाराजगी भारत में कुछ समय पहले लागू भोजन के अधिकार को लेकर है। उनके मुताबिक न्यूनतम समर्थन मूल्य के जरिए भारत सरकार पहले ही 10 फीसदी से कम सब्सिडी वाली शर्त का उल्लंघन करती आ रही है, अब किसानों से महंगी दर पर खरीदे गए इस अनाज को बहुत ही सस्ती कीमत पर जरूरतमंद आबादी को मुहैया कराकर वह विश्व बाजार में दोहरी विरूपता पैदा कर रही है। बाली में, और इससे पहले जिनेवा में भी इस मुद्दे पर भारत का डटकर खड़े होना बिल्कुल उचित है, और इसके चलते अगर डब्लूटीओ टूटता है तो उसे बेहिचक टूट जाने दिया जाना चाहिए।

बीच की व्यवस्था के रूप में विकसित देशों की तरफ से चार साल की एक खिड़की प्रस्तावित की गई थी- कि इस अवधि में भारत अपने किसानों को ज्यादा सब्सिडी देता है तो दे, उसके खिलाफ कोई दंडात्मक कार्रवाई डब्लूटीओ की तरफ से नहीं की जाएगी। यह खुद में एक वाहियात बात है। भारतीय संसद से पारित हो जाने के बाद भोजन का अधिकार देश के सभी नागरिकों के लिए तब तक अक्षुण्ण रहेगा, जब तक संसद में एक और प्रस्ताव लाकर इसे सिरे से खारिज नहीं कर दिया जाता। ऐसे में किसी बाहरी दबाव में आकर इस पर एक निश्चित अवधि की तलवार भला कैसे लटकाई जा सकती है?


विश्व व्यापार संगठन खुद में कोई साम्राज्यवादी इंतजाम नहीं है। इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इससे कई क्षेत्रों में भारतीय निर्यात को अभूतपूर्व फायदा हुआ है। लेकिन कम क्षेत्रफल, अधिक आबादी और धीमे औद्योगीकरण के चलते भारत की कुछ विशिष्ट समस्याएं हैं, जिन्हें डब्लूटीओ तो क्या, संसार की कोई भी व्यवस्था दरकिनार नहीं कर सकती। विकसित देश अगर यह समझने की कोशिश ही नहीं करेंगे कि यहां किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य और गरीब आबादी को सस्ता राशन दिए जाने का क्या औचित्य है, तो भारत के आम लोगों की नजर में डब्लूटीओ की एक जोर-जबर्दस्ती वाली छवि ही बनेगी।  

एक युगांत

दक्षिण अफ्रीका ने अपना सबसे महान सपूत खो दिया। लेकिन नेलसन मंडेला न केवल अपने देश के लिए बल्कि दुनिया भर के लिए अन्याय-विरोध के असाधारण प्रतीक थे, और इस रूप में उनकी प्रेरक स्मृति हमेशा बनी रहेगी। अत्यंत सम्मानित विश्व-नेताओं में और भी कईनाम लिए जा सकते हैं, पर उन सभी को इतिहास-निर्माता या युग प्रवर्तक नहीं कहा जा सकता। मंडेला का अनूठापन यह था कि वे एक बड़े मुक्ति-नायक थे और शायद महात्मा गांधी के बाद सत्याग्रही शक्ति के सबसे बड़े स्तंभ। बीसवीं सदी के महान जननायकों में से एक। लिहाजा, उनके निधन से दक्षिण अफ्रीका के साथ-साथ बाकी दुनिया ने भी बहुत कुछ खोया है। उनके  जाने से पैदा हुई रिक्तता तब और चुभने लगती है जब हमारा ध्यान इस ओर जाता है कि आज की दुनिया किस तरह के राजनेताओं से संचालित हो रही है। मंडेला का नायकत्व कुछ दिनों की उथल-पुथल से नहीं बना, यह रंगभेद के खिलाफ उनके लंबे संघर्ष की उपज था। उनके खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा चला। सभाओं और दौरों पर रोक सहित कई पाबंदियां झेलनी पड़ीं। उन्हें सत्ताईस साल जेल में बिताने पड़े। पर उनके जीवट और अथक संघर्ष ने आखिरकार रंगभेदी शासन को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।

मंडेला 1994 में राष्ट्रपति चुने गए और दक्षिण अफ्रीका ने नस्लवाद से मुक्ति पाई। पर जैसा कि उन्होंने बार-बार कहा, इसे वे केवल अपनी नहीं, सामूहिक प्रयासों की कामयाबी मानते थे। दरअसल, दक्षिण अफ्रीका में गोरों की रंगभेदी हुकूमत के खिलाफ चला संघर्ष तर्कसंगत परिणति तक पहुंचा तो इसके पीछे मंडेला की अटूट हिम्मत के साथ-साथ अश्वेत समाज को एकजुट करने और जोड़े रखने की उनकी क्षमता भी थी। रंगभेदी आंदोलन का मंच बनी एएनसी यानी अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस की स्थापना 1912 में ही हो गई थी। मंडेला इसके साथ तीस साल बाद जुड़े। पर जैसे भारत में कांग्रेस गांधीजी का हाथ थामने के बाद ही जन-जन तक पहुंच सकी थी, वैसे ही एएनसी भी जनांदोलन की वाहक मंडेला के जुड़ने के बाद ही बन पाई। दशकों चले जनांदोलन में एक दौर ऐसा भी था जब प्रतिबंधों और निषेधाज्ञाओं की काट में एएनसी ने उग्र तरीके अपनाए और मंडेला को ही इसकी कमान सौंपी गई। पर उस दौर में भी यह खयाल रखा गया कि खून-खराबा न हो। मंडेला और उनके साथियों के खिलाफ चली न्यायिक कार्यवाही के रिकार्ड से भी इसकी पुष्टि होती है। अरसे तक तमाम दमन झेलने के बाद भी मंडेला में अपने विरोधियों के प्रति कड़वाहट नहीं थी, जिसका सबसे उल्लेखनीय प्रमाण वह सच्चाई और सामंजस्य आयोगथा, जो उनके राष्ट्रपति बनने के बाद गठित किया गया।


मंडेला की अगुआई में एएनसी के रंगभेद विरोधी आंदोलन को दुनिया भर से अपार समर्थन मिला और भारत सहित अनेक देशों ने दक्षिण अफ्रीका से राजनयिक संबंध मुल्तवी रखा। एक समय ब्रिटेन, अमेरिका की निगाह में मंडेला आतंकवादी थे। पर खुद अमेरिका और यूरोप के नागरिक समाजों में एएनसी और मंडेला के प्रति सहानुभूति और उनकी रिहाई की मांग बढ़ती गई और पश्चिमी सरकारों को अपना नजरिया बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा। राष्ट्रपति चुने जाने से एक साल पहले मंडेला शांति के नोबेल से विभूषित किए गए। इसके अलावा उन्हें मिले अंतरराष्ट्रीय सम्मानों की लंबी फेहरिस्त है। दुनिया की अनेक भाषाओं में उनकी जीवनियां लिखी गर्इं, उन पर बहुत-सी किताबें आर्इं। बहुत सारे देशों में सड़क, पार्क, संस्थान आदि के नामकरण मंडेला के नाम पर किए गए। दुनिया भर में लगाव और सम्मान की ऐसी मिसालें गिनी-चुनी ही मिलेंगी। एएनसी के स्वतंत्रता-घोषणापत्र में मंडेला ने लिखा, कोई भी सरकार राज करने के अधिकार का तब तक दावा नहीं कर सकती, जब तक वह सभी लोगों की इच्छा पर आधारित न हो। उनके इस संदेश को याद रखा जाना चाहिए।

शनिवार, 7 दिसंबर 2013

अनुच्छेद 370: किसका लाभ, किसकी हानि

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को मिले विशेष दर्जे को हमें दो पहलुओं से देखना होगा। इसका ऐतिहासिक पक्ष और फिर मौजूदा स्थिति। आजादी के ठीक पहले देश का 60 फीसदी हिस्सा ब्रिटिश इंडिया में था और 40 फीसदी हिस्सा रियासतों में बंटा हुआ था। आबादी के लिहाज से 30 करोड़ लोग ब्रिटिश इंडिया में रहते थे और शेष 10 फीसदी रियासतों में। कुल 552 रियासतें थीं, जिनमें जम्मू-कश्मीर, हैदराबाद और जूनागढ़ बड़ी रियासतें थीं। सरदार वल्लभभाई पटेल ने दूरदर्शी नीतियां अपनाकर इंस्ट्रुमेंट ऑफ एक्सेशन के तहत रियासतों के वृहत्तर भारत में विलय की प्रक्रिया शुरू कर दी। उन्होंने ब्रिटिश इंडिया के अंतिम वॉयसराय लॉर्ड माउंटबेटन को साफ कहा था, 'मैं अपनी टोकरी में भारत के सभी सेबों को रख लूंगा।' हालांकि जम्मू-कश्मीर में स्थिति ऐसी बनी कि यह पूरा सेब टोकरी में नहीं आ पाया।

हम जानते हैं कि जम्मू-कश्मीर रियासत के तत्कालीन शासक हरीसिंह भारत में विलय के लिए राजी नहीं थे। जब पाकिस्तान ने अपने सैनिकों के साथ कबायलियों का हमला करवाया तब हरीसिंह विलय-पत्र पर हस्ताक्षर के लिए राजी हुए। वह भी तब जब कबायली श्रीनगर की दहलीज पर आ पहुंचे थे। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का कश्मीरी नेता शेख अब्दुल्ला से बड़ा लगाव था। वे चाहते थे कि इस राज्य की बागडोर अब्दुल्ला के हाथों में हो।

भारतीय सेना जब कबायलियों को ठिकाने लगा रही थी तो इतिहास गवाह है कि नेहरू ने एक बहुत बड़ी भूल कर दी। उन्होंने एकतरफा युद्धविराम घोषित कर दिया और कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र में ले गए। यही भूल इस राज्य को लेकर मौजूदा विवाद की जननी है। जब संविधान सभा की बैठक में इसकी चर्चा चली तो नेहरू ने कहा कि चूंकि कश्मीर के मामले का अंतरराष्ट्रीयकरण हो चुका है, यदि हमने इस पर भारतीय गणराज्य की ताकत का इस्तेमाल किया तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमारी स्थिति कमजोर होगी। देश में तो नेहरू निर्विवाद नेता थे ही। इसके बाद उनकी मानसिकता हमेशा अंतरराष्ट्रीय नेता बनने की रही।

नेहरू के इसी रवैये के कारण मूल अनुच्छेद बदलकर मौजूदा 370 बना। आज जब भाजपा इस मुद्दे पर बहस का आह्वान कर रही है तो कांग्रेस, नेशनल कॉन्फ्रेंस और कथित धर्मनिरपेक्षवादी नेता कह रहे हैं कि इस विषय पर कोई बहस नहीं होनी चाहिए।

हालांकि तब संविधान सभा की बैठक में सबने एक स्वर से जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने का विरोध किया था। संविधान सभा में उत्तरप्रदेश से एक सदस्य थे मौलाना हसरत मोहानी। उन्होंने सवाल उठाया कि क्या कारण है कि जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा दिया जा रहा है। डॉ. भीमराव आंबेडकर भी इसके विरोधी थे। जब नेहरू ने उन्हें शेख अब्दुल्ला को समझाने के लिए भेजा तो आंबेडकर ने अब्दुल्ला से कहा, 'आप कह रहे हैं भारत जम्मू-कश्मीर की रक्षा करे, उसका विकास करे। भारत के नागरिकों को भारत में जो भी अधिकार हैं वे इस राज्य के लोगों को मिलें और जम्मू-कश्मीर में भारतीयों को कोई अधिकार नहीं हो। भारत के विधि मंत्री के रूप में मैं देश को धोखा नहीं दे सकता।

नेहरू ने जम्मू-कश्मीर को व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। संविधान सभा में सारे विरोध के बावजूद सबको समझा दिया गया और राज्य को अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्जा दे दिया गया। हालांकि इसका शीर्षक है 'जम्मू-कश्मीर के संबंध में अस्थायी प्रावधान। सवाल उठता है कि कोई अस्थायी प्रावधान कब तक रहना चाहिए? नेहरू ने 27 नवंबर 1963 को इस अनुच्छेद के बारे में संसद में बोलते हुए कहा था, 'यह अनुच्छेद घिसते-घिसते, घिस जाएगा। यानी कुछ समय बाद इसकी उपयोगिता स्वत: खत्म हो जाएगी और यह अप्रासंगिक हो जाएगा। हमारा मानना है कि 65 साल बहुत होते हैं। यह तो पहले ही दिन से अप्रासंगिक था। इसे लागू करने की जरूरत ही नहीं थी। इसे तो देश पर थोपा गया है।

इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझने के बाद अब हम मौजूदा बहस पर आते हैं। भाजपा नेता नरेंद्र मोदी ने जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे पर बहस का आह्वान करते हुए सवाल उठाए हैं: क्या जम्मू-कश्मीर का विकास पूरे भारत के विकास के साथ चल रहा है? इससे वहां के लोगों को फायदा हुआ है या नुकसान? उन्होंने तो अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं की लोकतांत्रिक कार्यशैली को ही आगे बढ़ाया है। वे तो लोगों के विचार जानने की कोशिश कर रहे हैं जिससे कि फैसला लेने में जन भावनाओं का ध्यान रखा जा सके। इसमें यह बात कहां आती है कि भारतीय जनता पार्टी ने अनुच्छेद 370 के मुद्दे पर अपना रुख नरम कर दिया है।

हम आज भी जम्मू-कश्मीर को शेष भारत से अलग करने वाला यह प्रावधान हटाने के पक्ष में हैं, क्योंकि संविधान में ही इसे अस्थायी प्रावधान बताया गया है। हमने कहा है कि हम लोकतांत्रिक पद्धति से चर्चा करके नतीजा निकालेंगे, कोई बात थोपेंगे नहीं। आजादी के तत्काल बाद भारत कमजोर देश था। वह इस स्थिति में नहीं था कि इस मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय दबाव झेल पाता। हम पूछना चाहते हैं कि आजादी के इतने वर्षों बाद क्या आज भी भारत मूक और कमजोर देश ही बना हुआ है? इन सब बातों पर राष्ट्रीय बहस की जरूरत है।

नेहरू ने इस मामले में एकपक्षीय निर्णय लिया था। अब यह अनुच्छेद हटाने के लिए बहस हो और उसमें जम्मू-कश्मीर की भी भागीदारी हो। आज जम्मू की आबादी कश्मीर घाटी की तुलना में 30 फीसदी ज्यादा है, लेकिन विधानसभा में कश्मीर घाटी का प्रतिनिधित्व ज्यादा है। यह असंतुलन दूर होना चाहिए।

अल्पसंख्यकवाद की राजनीति करने वाले लोगों को इस मुद्दे पर बहस और चर्चा नहीं चाहिए। प्रजातांत्रिक पद्धति की पहली जरूरत बहस है। अधिनायकवाद और फासीवाद में बहस की गुंजाइश नहीं होती। हमारी दृढ़ मान्यता है कि जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाला संविधान का अस्थायी अनुच्छेद 370 हटना चाहिए, लेकिन हम अपनी इच्छा देश पर नहीं थोपेंगें। एक स्वस्थ लोकतंत्र में किसी भी जरूरी विषय पर आप जनभावनाओं को दरकिनार नहीं कर सकते।

भारतीय जनता पार्टी के लिए इस विषय पर कोई अन्य रुख अपनाने के बारे में सोचना ही संभव नहीं है। आखिर पार्टी के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपने प्राणों की आहुति कश्मीर के लिए ही दी। संभवत: वे चाहते थे कि इसी बहाने इस विषय पर राष्ट्रव्यापी चर्चा हो और आंदोलन छेड़ा जाए। तब भारतीय जनसंघ (भाजपा का पूर्व स्वरूप) इतना मजबूत नहीं था, लेकिन आज भाजपा की जड़ें पूरे देश में फैली हैं और हम इस विषय पर देश-व्यापी आंदोलन छेडऩे की स्थिति में हैं। हालांकि आंदोलन से पहले हम इस विषय पर देशवासियों की भावनाएं जानना चाहते हैं। इसीलिए यह बहस जरूरी है।


साभारः दैनिक भास्कर

सियासी संकट की चपेट में बंगलादेश

1971 में बंगलादेश  के अस्तित्व में आ जाने के बाद यह तो स्पष्ट हो गया था कि 1947 में भारत का धार्मिक आधार पर किया गया विभाजन पूरी तरह से गलत था, लेकिन अभी यह तय होना शेष था कि भाषायी संस्कृति की बुनियाद पर खड़ा हो रहा यह राष्ट्र किस तरह से समृध्द और सम्पन्न होगा। लाखों निर्दोषों की हत्याओं और सामूहिक बलात्कार की अनगिनत घटनाओं के बाद गहरे जख्म लेकर बंगलादेश का जन्म हुआ था। लेकिन ऐसा लगता है कि बंगलादेश की राजनीतिक और कट्टरपंथी जमातों ने इन विद्रूपताओं को न ही गौर से देखा और न ही कुछ सीखा। सम्भवत: इसी का परिणाम है कि बंगलादेश के राजनीतिक दल ही आज उसकी शांति और संस्कृति, दोनों को ही तहस-नहस कर रहे हैं। प्रश्न यह उठता है कि इस पर विराम कितनी दूर जाकर लग पाएगा अथवा लग पाएगा भी या नहीं ? एक महत्वपूर्ण बात तो यह भी है कि भारत को भी उदार, शांत एवं प्रगतिशील बंगलादेश की जरूरत है, इसलिए यह देखना होगा कि भारत का राजनय इन स्थितियों को किस नजर से देखता और एक बेहतर बंगलादेश बनाने में किस तरह का योगदान दे सकता है?
सामान्य तौर पर तो बंगलादेश पूरे वर्ष भर हड़ताल व हिंसा के दौर से गुजरा जिसके कारण बंगलादेश की व्यवस्था व नागरिकों का जीवन पंगु हो गया। दो राजनीतिक गुटों के बीच हुई हिंसक घटनाओं में सैकड़ों लोग मारे गए और करोड़ों की क्षति पहुंची। इस बीच कई ऐसे अदालती निर्णय भी आए जिससे माहौल और उग्र हुआ। लेकिन वर्तमान समय में राजनीतिक गतिरोध चुनाव आयोग की उस घोषणा के बाद उत्पन्न हुआ है जिसमें 5 जनवरी, 2014 को बंगलादेश की जातीय संसद के लिए चुनाव कराने की घोषणा की गई है। मुख्य विपक्षी पार्टी बंगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) की मांग है कि जब तक राजनीतिक दलों के बीच आम राय नहीं बन जाती 5 जनवरी को होने वाला चुनाव स्थगित कर दिया जाना चाहिए। इसी मांग के समर्थन में बीएनपी के नेतृत्व में 18 पार्टियों के गठबंधन ने दो दिन के बंद का आह्वान किया था जिसमें जमकर हिंसा हुई और कई मौतें भी हुईं। लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त काजी रकीबुद्दीन अहमद ने चुनाव की तिथि की घोषणा करते समय ही यह स्पष्ट कर दिया था कि संवैधानिक मजबूरी के चलते 24 जनवरी, 2014 से पूर्व चुनाव कराना आवश्यक है। दरअसल आवामी लीग और बीएनपी के बीच झगड़ा इस बात को लेकर है कि चुनाव किसकी देखरेख में कराए जाएं और जमात-ए-इस्लामी जैसी पार्टियों द्वारा विरोध करने का कारण दूसरा है। प्रधानमंत्री शेख हसीना सर्वदलीय सरकार बनाकर चुनाव कराने का फैसला कर चुकी हैं जबकि बीएनपी के नेतृत्व वाले 18 पार्टियों के गठबंधन की मांग है कि चुनावों के लिए एक  'गैर-दलीय' सरकार बनाई जाए और एक 'स्वीकार्य व्यक्ति' चुनाव पर नजर रखे। इसका मतलब यह होगा कि शेख हसीना अपने पद से त्यागपत्र दे दें जबकि शेख हसीना इस मांग को 'असंवैधानिक' मानती हैं। (महत्वपूर्ण बात यह है कि बंगलादेश का सुप्रीम कोर्ट भी इसे संविधान की लोकतांत्रिक भावना के खिलाफ बता चुका है) इसलिए उसे खारिज भी कर चुकी हैं साथ ही विपक्ष से चुनावी सर्वदलीय कैबिनेट में शामिल होने के लिए कहा है।

दरअसल बंगलादेश में 1991 में जनरल इरशाद को सत्ता से बाहर किए जाने के बाद इस बात पर विवाद छिड़ गया कि चुनाव किस तरह कराए जाएं। एक समझौते के तहत बंगलादेश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश को अंतरिम सरकार का प्रमुख बनाया गया और आम चुनाव कराए गए। लेकिन यह सांविधानिक प्रावधान नहीं बना। इसलिए अवामी लीग ने मांग उठाई कि इसे एक सांविधानिक प्रावधान बना दिया जाना चाहिए ताकि देश में चुनाव हमेशा निष्पक्ष अंतरिम सरकार के नेतृत्व में ही हो। फलत: 6 मार्च, 1996 को 13वां संविधान संशोधन कर 'नॉन-पार्टी केयरटेकर गवर्नमेंट'(एनपीसीटीजी) को संवैधानिक फ्रेमवर्क प्रदान किया गया जिसमें एक प्रमुख सलाहकार और 10 से अनधिक सलाहकारों का प्रावधान था। यह सामूहिक रूप से राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी थी। इसी प्रावधान के तहत 1998 और 2001 के आम चुनाव सम्पन्न हुए। लेकिन बंगलादेश के सुप्रीम कोर्ट ने 10 मई, 2011 को निर्णय दिया कि देश में गैर दलीय आंतरिक सरकार व्यवस्था (नॉन-पार्टी केयरटेकर गवर्नमेंट सिस्टम) के निर्माण के लिए किया गया सांविधानिक प्रावधान अवैध था। कोर्ट का कहना था कि देश में बिना चुनी हुई सरकार नहीं रहनी चाहिए क्योंकि यह संविधान की मूल भावना के विरुध्द है।  इस आदेश का परिणाम यह हुआ कि अवामी लीग सरकार ने जून 2011 में 15वां संविधान संशोधन कर (विपक्ष की गैर-मौजूदगी में ही) एनपीसीटीजी के प्रावधान को रद्द कर दिया। दरअसल 13वें संविधान संशोधन द्वारा एनपीसीटीजी को लेकर दिक्कत तब पैदा हुई जब वर्ष 2007 में एक संविधानेत्तर ताकत सेना का समर्थन पाकर लगभग 2 वर्षों तक सत्ता पर काबिज रही। जबकि 13वें संविधान संशोधन के अनुसार केयरटेकर सरकार का कार्य नई जातीय संसद के लिए चुनाव कराना और चुनावों पर निगरानी रखना मात्र था। अनुच्छेद 123(3) के तहत जातीय संसद के विघटन के 90 दिनों के अंदर यह चुनाव हो जाने चाहिए और 120 दिन में चुनी हुई सरकार को सत्ता सौंप देनी चाहिए। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ था। ऐसी स्थिति में सेना समर्थित गैर-दलीय सरकार वास्तव में लोकतंत्र के लिए खतरा है, और इस सम्बंध में शेख हसीना का शंका वाजिब है इसलिए इसके बजाय एक चुनी हुई राष्ट्रीय सरकार का विकल्प कहीं ज्यादा  बेहतर है। लेकिन राजनैतिक नफा-नुकसान को देखते हुए बेगम खालिदा जिया और उनके सहयोगी इसे स्वीकारना नहीं चाहते।

गौर से देखें तो बंगलादेश में इस समय फैली अराजकता और हिंसा के तात्कालिक कारण भले ही वर्तमान सरकार के नीतिगत निर्णयों या कुछ न्यायिक निर्णयों में निहित हों, लेकिन बंगलादेश पिछले लगभग चार दशक से कभी कम तो कभी यादा समस्याओं का शिकार होता ही रहा है। यदि इस कालखण्ड के इतिहास को देखें तो लगभग 15 वर्षों तक सैन्य जनरलों ने बंगलादेश पर शासन किया और फिर शेष समय में दो बेगमों ने जिनमें से एक सैन्य शासक की पत्नी हैं और दूसरी बंगलादेश के संस्थापक शेख मुजीबुर्रहमान की पुत्री यानि खालिदा जिया और शेख हसीना। वैसे इन दोनों शासनकालों में केवल ऊपरी खोल ही बदला, लेकिन आंतरिक व्यवहार में कोई खास परिवर्तन नहीं आया। सैन्य शासन जनरल इरशाद के भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जाने के साथ समाप्त हुआ और बाद में बेगमों को भी इसी कारण से देश से निष्कासित होने तक की नौबत आ गई। मरहूम जनरल जियाउर रहमान की बेगम खालिदा जिया ने अपनी पार्टी की सरकारों के दौरान बंगलादेश को उसी रास्ते पर चलाया जिस पर पाकिस्तान चल रहा था और चाह रहा था। इसी का परिणाम था कि वर्ष 2006-08 के दौरान यह विचार किया गया कि आपातकाल और 'माइनस टू' के बगैर देश को सुधारने का कोई रास्ता ही शेष नहीं है। वास्तव में यदि देश भ्रष्टाचार के गर्त में इस कदर चला जाए कि निकलने की गुंजाइश ही न रह जाए (उल्लेखनीय है कि इस दौर में ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के मुताबिक बंगलादेश भ्रष्टाचार के मामले में सबसे ऊपर था) तो शायद यही रास्ता उत्तम हो सकता था। इस भ्रष्टाचार एवं अराजकता ने बंगलादेश के नागरिकों को मूलभूत संसाधनों से वंचित कर दिया। बढ़ती हुई गरीबी और बेरोजगारी ने कट्टरपंथ और आतंकवाद के लिए उर्वर भूमि तैयार कर दी जिसे बेगम खालिदा जिया जैसी नेता ने कट्टरपंथियों को संरक्षण देकर पोषित किया। खास बात यह है कि जैसे-जैसे यह देश मानव विकास पर पिछड़ता गया, वैसे-वैसे कट्टरता और आतंकवाद के करीब आता गया। यही वह दौर था जब 'सोनार बांग्ला' 'आतंकवाद के उभरते हुए गढ़' में रूपांतरित हो गया। सबसे अहम् बात यह है कि आईएसआई वहां बांगला संस्कृति को उर्दू संस्कृति में परिवर्तित करने का षड़यंत्र रच रही है जिसमें बीएनपी सहित कई दलों की महत्वपूर्ण भूमिका भी है। वह इसके जरिए बंगलादेश का तालिबानीकरण कर उसे पूरी तरह से भारत के विरुध्द खड़ा करना चाहती है।


बहरहाल आज की स्थिति यह है कि दोनों प्रमुख दलों के बीच तनातनी है जिससे न केवल राजनीतिक गतिरोध बना हुआ है बल्कि हिंसा और अराजकता का वातावरण भी बना हुआ है। इस दुनिया बंगलादेश के सियासी संकट के रूप में देख रही है। मजहबी पार्टी की बढ़ रही तादाद देश की बुनियाद के लिए खतरा बनती जा  रही है। ये वही पार्टियां हैं जिन्होंने 1971 में पाकिस्तान से अलग होने का इन पार्टियों ने विरोध किया था। फिलहाल तो ये स्थितियां देश को सियासी संकट की ओर ले जा रही हैं। इसलिए ऐसा लगता है कि देश को अभी कई तरह के दबावों से गुजरना होगा।  




देशबन्धु

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

खाद्य सुरक्षा पर समझौता मंजूर नहीं

विश्व व्यापार संगठन की बाली की मंत्रिस्तरीय बैठक में कोई नतीजा निकले या न निकले, पर खूब खींचतान होना तय है। बेशक, संगठन के डायरेक्टर जनरल, रोबर्तो अजेवेदो ने इस बैठक को दोहा प्रक्रिया को बचाने के लिए, ''अभी नहीं, तो कभी नहीं'' का मौका कहा है। लेकिन, इसका इंडोनेशियाई द्वीप पर हो रही वार्ताओं पर वास्तव में कोई असर पड़ने जा रहा है, ऐसा नहीं लगता है। 2001 से दोहा प्रक्रिया के अटके रहने के लिए, एक ओर विकसित देशों और दूसरी ओर भारत समेत विकासशील देशों के हितों का जो बुनियादी टकराव जिम्मेदार है, इस बैठक में और वास्तव में उसकी तैयारी के समय से ही, उसकी जोरदार गूंज सुनाई दे रही थी। अन्य मुद्दों के अलावा विकासशील देशों की कृषि सब्सिडियों का मुद्दा, विकसित और विकासशील देशों के बीच टकराव के केंद्र में है। विकासशील देशों के खाद्य सुरक्षा प्रावधानों के संदर्भ में, उनकी कृषि सब्सिडियों के मुद्दे के सामाजिक तथा नैतिक पहलू गाढ़े रंग में रेखांकित होकर सामने आ गए हैं। यह कोई संयोग नहीं है कि हमारे देश में कुछ ही महीने पहले बनाए गए खाद्य सुरक्षा कानून के कृषि सब्सिडी संबंधी निहितार्थों ने, इस बहस को और तीखा कर दिया है। अचरज नहीं कि बाली बैठक से ऐन पहले, भारतीय प्रतिनिधिमंडल के नेता, वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने लड़ाकू स्वर अपनाते हुए कहा कि, 'हम अब और इसकी इजाजत नहीं दे सकते हैं कि अमीरों की व्यापारिक महत्वाकांक्षाओं की वेदी पर, हमारे किसानों के हितों के साथ समझौता किया जाए।'

विकासशील देशों के ग्रुप, जी-33 (हालांकि अब उसके सदस्यों की संख्या 43 हो चुकी है) के नेता की हैसियत से भारत, विश्व व्यापार संगठन के तहत कृषि समझौते में ऐसे संशोधनों के लिए जोर लगाता रहा है, जिनसे विकासशील देशों की कृषि सब्सिडी को, इस व्यापार समझौते की तलवार से बचाया जा सके। खुद भारत के उदाहरण से स्पष्ट है कि विकासशील देशों के लिए कृषि सब्सिडियों का मुद्दा दो कारणों से जीवन-मरण का प्रश्न है। पहला तो यही कि इसका संबंध आबादी के बहुत विशाल बहुमत की आजीविका से है। दूसरे, इसका संबंध खाद्य सुरक्षा के लिए प्रावधानों से यानी करोड़ों गरीबों को भूख और कुपोषण की मार से बचाने से है।

इससे स्वतंत्र किंतु समान रूप से महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि विश्व व्यापार संगठन की व्यवस्था के तहत, विकासशील देशों से कृषि सब्सिडियों कटौती की यह मांग, इस अर्थ में सरासर अन्यायपूर्ण है कि विकसित देशों से अपनी कृषि सब्सिडियों में ऐसी कटौती की कोई मांग नहीं की जा रही है। यह तब है जबकि अमरीका जैसे विकसित देशों में और यूरोपीय संघ में दी जा रही कृषि सब्सिडी, भारत जैसे विकासशील देशों के मुकाबले मोटे तौर पर चार-पांच गुना ज्यादा बैठेगी। मोटे अनुमान के अनुसार, अमेरिका अपने फार्मरों को, अपने कृषि के सकल घरेलू उत्पाद के करीब आधे के बराबर सब्सिडियों के रूप में देता है, जबकि भारत में सारी कृषि सब्सिडियां भी मिलाकर अब तक, कृषि के सकल घरेलू उत्पाद के दस फीसद से भी कम बनी रही थीं और इस तरह, विश्व व्यापार संगठन की तलवार के नीचे आने से बची रही थीं। लेकिन अब, खाद्य सुरक्षा कानून बनने के बाद, इसके दस फीसद की सीमा से जरा सा ऊपर निकलने का अनुमान है और इस तरह भारतीय खाद्य सुरक्षा कानून विकसित देशों की नजरों में खटक रहा है।

विश्व व्यापार संगठन के तहत कृषि समझौते में निहित इस खुल्लमखुल्ला नाबराबरी के पीछे, परिभाषाओं का एक बड़ा खेल है, जो विकसित देश इस समझौते में थोपने कामयाब रहे हैं। यह किसी से छिपा हुआ नहीं है कि विकसित देश अपने किसानों को भारी सब्सिडियां देकर उन्हें अपने कृषि उत्पाद औने-पौने दामों पर विश्व बाजार में निकालने में समर्थ बनाते हैं। इसीलिए, एक समूह के रूप में विकासशील देश व्यापार वार्ताओं में शुरू से विकासशील देशों की ऊंची कृषि सब्सिडियों का मुद्दा उठाते रहे हैं। लेकिन, विकसित देश अपनी कृषि सब्सिडियों को बहुत ऊंचे स्तर पर बनाए रखते हुए भी, विकासशील देशों के लिए सब्सिडी पर, कृषि के सकल घरेलू उत्पाद के 10 फीसद की अधिकतम सीमा थोपने में कामयाब रहे हैं। यह किया गया है, कृषि सब्सिडियों पर एक पूरी तरह से मनमाना और कृत्रिम विभाजन थोपने की चाल के जरिए। कृषि सब्सिडियों को ''व्यापार विकृतिकारी'' और ''गैर-व्यापार विकृतिकारी'' की दो श्रेणियों में बांट दिया गया है।  यह विभाजन इस तरह किया गया है कि चूंकि विकसित देशों में सीधे मुख्यत: अपने काश्तकारों को सब्सिडी दिए जाने का रास्ता अपनाया जाता है, इन सब्सिडियों को ''गैर-बाजार विकृतिकारी'' की श्रेणी में डाल दिया गया है, जिनसे कथित रूप से मुक्त व्यापार के लिए काम करने वाले निकाय के नाते, विश्व व्यापार संगठन को कोई दिक्कत नहीं है। दूसरी ओर, चूंकि भारत समेत विकासशील देशों में, जहां आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा खेती पर निर्भर है, थोड़ी-बहुत जो भी सब्सिडियां दी जाती हैं, लागत सब्सिडी या कृषि उत्पादों के लिए समर्थन मूल्य के रूप में ही दी जाती हैं, ठीक इन्हीं सब्सिडियों को ''व्यापार विकृतिकारी'' की श्रेणी में डाला गया है। ठीक इन्हीं सब्सिडियों को अनुशासित करने को विश्व व्यापार संगठन की निष्ठा का प्रश्न बना दिया गया है! इसके पीछे यह झूठी दलील है कि इन्हीं सब्सिडियों का विश्व बाजार में कृषि उत्पादों के दाम पर असर पड़ता है।

ठीक इसी पृष्ठभूमि में भारत के नेतृत्व में जी-33 द्वारा ठोस तौर पर इसके लिए जोर लगाया जाता रहा है कि काश्तकारों की रोजी-रोटी और जनगण के लिए खाद्य सुरक्षा से जुड़ी सब्सिडियों के लिए, 10 फीसद की उक्त अधिकतम सीमा को ढीला किया जाए। कहने की जरूरत नहीं है कि अमेरिका के नेतृत्व में विकसित देशों को यह मंजूर नहीं है। इस मुद्दे पर गतिरोध बने रहने के चलते, बाली बैठक की तैयारी के लिए एक सप्ताह पहले जिनीवा में हुई बैठक बिना किसी समझौते के ही समाप्त हो गयी थी। इस मुद्दे पर गतिरोध को तोड़ने के लिए, विकसित देशों के अनुमोदन से, समझौते के रास्ते के रूप में एक ''शांति प्रावधान'' की पेशकश की गयी है। इस पेशकश का सार यह है कि फिलहाल विकासशील देशों की, जिनमें भारत भी शामिल है, कृषि सब्सिडियां अगर 10 की सीमा लांघती भी हैं, तो विश्व व्यापार संगठन के मंच पर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी। लेकिन, मूल व्यवस्था ज्यों की त्यों बनी रहेगी और तयशुदा सीमा के उल्लंघन की यह छूट सिर्फ चार साल के लिए होगी। जाहिर है कि चार साल के बाद, इन देशों को अपनी कृषि सब्सिडियों को उक्त सीमा में लाना होगा।


भारत के नेतृत्व में विकासशील देश, अब तक इस 'शांति प्रावधान' का विरोध करते आए हैं और सब्सिडी संबंधी व्यवस्था में ही बदलाव के लिए दबाव डालते आए हैं। हां! अगर शांति प्रावधान को बदलकर, उसे विश्व व्यापार संगठन के स्तर पर किसी स्थायी समाधान के निकलने तक के लिए वैध मान लिया जाए, तब जरूर विकासशील देश इसे मंजूर कर सकते हैं। लेकिन, यह विकसित देशों को अब तक मंजूर नहीं हुआ है। बहरहाल, अमरीका के नेतृत्व में पश्चिम ने, विकासशील देशों से कथित शांति प्रावधान पर 'हां' कराने के लिए दबाव बढ़ा दिया है। इसी क्रम में अमेरिका के व्यापार प्रतिनिधि ने, भारत के वाणिज्य मंत्री, आनंद शर्मा के साथ खास मुलाकात भी की है। दूसरी ओर, विकसित देश सबसे कम विकसित देशों के हितैषी का बाना धरकर, इस मुद्दे पर विकासशील देशों की एकता तोड़ने की भी कोशिश कर रह रहे हैं। बहरहाल, भारत को इस दबाव के सामने हर्गिज नहीं झुकना चाहिए। अपनी जनता के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने से किसी भी तरह की विश्व व्यापार व्यवस्था भारत को कैसे रोक सकती है? यूपीए-द्वितीय की सरकार अगर इस मामले में भी अमरीका के दबाव में घुटने टेकती है, तो यह जनता के लिए खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने के हमारे अधिकार पर ही नहीं, संसद तथा देश की संप्रभुता पर भी समझौता करना होगा। इसे हर्गिज मंजूर नहीं किया जा सकता है।



देशबन्धु

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