गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

भारत के लिए खाद्य सब्सिडी का मसला अहम

बाली में चल रहे विश्व व्यापार संगठन के मंत्री स्तरीय बैठक में खाद्य सब्सिडी के मसले पर भी चर्चा हो रही है। भारत के लिए यह मसला अहम है, क्योंकि इसने एक खाद्य सुरक्षा कानून पास किया है, जिसके तहत किसानों को उनकी उपज का वाजिब मूल्य उपलब्ध कराना है और उपभोक्ताओं को कम कीमत पर अनाज उपलब्ध कराना है।

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने इस खाद्य सुरक्षा कानून को देश में 2014 लोकसभा चुनाव के पहले लागू करने के सख्त निर्देश अपनी पार्टी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार को दे रखा है। उनके लिए यह कानून प्रतिष्ठा का ही सवाल नहीं है, बल्कि जीवन और मौत का सवाल भी बन गया है। कांग्रेस आज विपरीत स्थितियों का सामना कर रही है और उसके सामने लोकसभा चुनाव एक बार फिर जीत लेने की गंभीर चुनौती खड़ी है। उसने खाद्य सुरक्षा विधेयक को अपने तुरुप का पत्ता बना रखा है।

भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस पर चौतरफा हमला कर रही है। कांग्रेस नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार का अपना रिकार्ड बहुत खराब हो गया है। भ्रष्टाचार के लगे आरोपों ने उसको नीचे से ऊपर तक हिला रखा है। उसके ईमानदार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर भी भ्रष्टाचार का दाग लग चुका है। अब शायद ही कोई यह मानने को तैयार होगा कि मनमोहन सिंह भ्रष्ट नहीं हैं। उनकी ईमानदारी को अपनी ढाल बनाने वाली कांग्रेस आज उस सुरक्षा कवच से हीन हो गई है।

खाद्य सुरक्षा कानून ही अब कांग्रेस और सोनिया की एक मात्र उम्मीद है, जिसकी सहायता से वह एक बार फिर सत्ता में आने की सोच सकती है। हालांकि इस कानून को भाजपा का भी समर्थन प्राप्त है। यदि बाली में इस कानून पर कोई खतरा पैदा हुआ, तो भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस का जीना हराम कर देगी। इस कानून को खतरे में डालने का आरोप वह कांग्रेस के ऊपर डालेगी।

विश्व व्यापार संगठन का मंत्री स्तरीय बाली सम्मेलन ऐसे समय में हो रहा है, जब विदेश व्यापार की बहुपक्षीयता खतरे में पड़ती जा रही है। इससे विश्व व्यापार संगठन के प्रभुत्व पर ही सवाल खड़ा हो गया है। आज बहुपक्षीय समझौतों के ऊपर द्विपक्षीय समझौते, क्षेत्रीय व्यापार समझौते और क्षेत्रीय व्यापारिक जोन हावी होते जा रहे हैं। इसके कारण बहुपक्षीय व्यापार वार्ताओं का दोहा च विफ ल हो गया है।

बाली में हो रहे सम्मेलन की मुख्य चिंता व्यापार के खर्च को कम करना है। सम्मेलन के पहले इस बात पर सहमति हो गई थी कि इस सम्मेलन का मुख्य विषय यही रहेगा। इसके साथ विकसित देशों और भारत व चीन जैसे विकासशील देशों के बीच यह भी सहमति है कि वे बहुत कम विकसित देशों से होने वाले व्यापार को रियायत देंगे।

लेकिन विकासशील देशों द्वारा कृषि का दिये जाने वाले समर्थन को भी इस सम्मेलन का मुद्दा बनाया गया है और यह इस सम्मलेन का सबसे विवादित मुद्दा है। सच कहा जाय, तो इस पर विवाद बहुत समय से चल रहा है। अन्य मसलों पर तो कुछ न कुछ सहमति भी हो जाती है, पर इस मसले पर किसी प्रकार की सहमति भी नहीं हो पाती है। इस मसले पर सहमति नहीं होने के कारण ही दोहा च लकवा से ग्रस्त हो गया है।

बाली सम्मेलन के द्वारा दोहा चक्र को नई जिंदगी दिए जाने की कोशिश की जा रही है। लेकिन कृषि पर सहमति हुए बिना इस सम्मेलन को न तो सफ ल कहा जा सकता है और न दोहा चक्र की वार्ता में जान आ सकती है। सच कहा जाए, तो विश्व व्यापार संगठन की प्रासंगिकता पर भी दोहा चक्र की विफ लता के कारण सवाल उठ रहा है।


भारत के वाणिय मंत्री आनंद शर्मा ने कहा है कि विकासशील देश कृषि सब्सिडी और किसानों को समर्थन देने के मसले पर अपने रुख से पीछे नहीं हटेंगे।



देशबन्धु

बुधवार, 4 दिसंबर 2013

थाइलैंड और नेपाल

भारत के दो पड़ोसी देश थाइलैंड और नेपाल, इस वक्त राजनीतिक अनिश्चितता के दौर से गुजर रहे हैं। 2006 में नेपाल में 240 साल पुराने राजतंत्र की समाप्ति हुई और लोकतंत्र की ओर इस देश ने पहला कदम बढ़ाया। किंतु बीते सालों में जिस तरह वहां राजनीतिक अस्थिरता का दौर बना रहा, संविधान को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों में मतभेद कायम रहा, उससे ऐसा लग रहा है कि लोकतंत्र की स्थापना के लिए जिस संयम, समझदारी, सहिष्णुता की आवश्यकता है, उसकी वहां फिलहाल कमी है। 10 वर्षों तक चले सशस्त्र संघर्ष और 19 दिनों तक चले जनआंदोलन के बाद साल 2006 में माओवादियों और गिरिजा प्रसाद कोइराला के नेतृत्व वाली सरकार के बीच हुए समझौते के बाद राजतंत्र की समाप्ति और लोकतंत्र की स्थापना का शत प्रतिशत श्रेय माओवादियों को मिला क्योंकि अन्य पार्टियां किसी न किसी रूप में राजतंत्र को बनाए रखना चाहती थीं। माओवादियों ने राजतंत्र के पक्ष में निर्मित लगभग अभेद्य दुर्ग को ध्वस्त कर दिया और जनता की अभूतपूर्व प्रशंसा पाई। साल 2008 के चुनाव में जनता ने इनको जबर्दस्त समर्थन दिया और दक्षिण एशिया में पहली बार किसी ऐसी पार्टी की सरकार बनी जो खुद को घोषित तौर पर माओवादी कम्युनिस्ट कहती थी, जिसकी अपनी निजी जनमुक्ति सेना थी और जो सशस्त्र संघर्ष के बाद चुनाव के जरिए सत्ता में आई। किंतु माओवादियों की आंखों पर इस सफलता की धुंध इतनी गाढ़ी होती गई कि वे जनभावनाओं को पढ़ नहीं पाए। वे लोगों से दूर होते गए और देखते-देखते वही लोग जिन्होंने 2006 में उन्हें ऐतिहासिक जीत दिलाई थी, उनसे दूर हो गए। उस दूरी का अंदाजा शायद अब माओवादियों को ताजा चुनावी परिणाम से हो रहा हो। 19 नवंबर को संविधान सभा के दूसरी बार संपन्न हुए चुनाव में उदारवादी लोकतांत्रिक ताकत नेपाली कांग्रेस पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है। संविधान सभा की कुल 240 सीटों में से नेपाली कांग्रेस पार्टी को 105 सीटों पर विजय प्राप्त हुई है। नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी-एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी (नेकपा-एमाले, सीपीएन-यूएमएल) ने 91 सीटें जीतकर दूसरा स्थान हासिल किया है, जबकि यूसीपीएन(माओवादी) 26 सीटें जीतकर तीसरे स्थान पर रही है। शेष 18 सीटें मधेसी और अन्य पार्टियों को प्राप्त हुई हैं। इस जनमत का सम्मान करते हुए सभी दल अपनी स्थितियों पर आत्ममंथन कर रहे होंगे, लेकिन फिलहाल जरूरी है कि वहां संविधान सभा का गठन हो। इन चुनावों का उद्देश्य भी यही था। 601 सदस्यीय संविधान सभा का गठन करने के लिए 240 सदस्य प्रत्यक्ष मतदान से आएंगे। आनुपातिक मतदान से 335 सदस्य चुने जाएंगे और शेष 26 सदस्यों को सरकार नामित करेगी। संविधान सभा का गठन होने से वहां लोकतंत्र मजबूत होगा, ऐसी उम्मीद है। इधर थाइलैंड में भी भारी राजनीतिक उथल-पुथल मची है। प्रधानमंत्री यिंगलक शिनवात्रा के खिलाफ प्रारंभ हुआ विरोध प्रदर्शन हिंसक हो चुका है और इसमें 5 लोगों की मौत हो गई है। विरोध प्रदर्शनकारियों का आरोप है कि यिंगलक शिनवात्रा देश के पूर्व प्रधानमंत्री और अपने भाई ताक्सिन शिनवात्रा के हाथों की कठपुतली बन गई हैं। ताक्सिन थाईलैंड के एक बड़े उद्योगपति हैं और 2006 में एक सैन्य तख्तापलट के जरिए उन्हें सत्ता से बेदखल कर दिया गया था। उन पर भ्रष्टाचार और सत्ता का गलत इस्तेमाल करने का आरोप था। फिलहाल वह निर्वासित जीवन बिता रहे हैं। प्रदर्शनकारियों का नेतृत्व पूर्व में देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी डेमोक्रेट पार्टी से जुड़े रहे सुदेप थेगसुबान कर रहे हैं और इन लोगों ने यिंगलक पर यह भी आरोप लगाया है कि वह एक ऐसा विधेयक लाने की फिराक में हैं जिससे उनके भाई को माफी मिल जाएगी और उनके सत्ता में लौटने का रास्ता साफ हो जाएगा।


थाईलैंड साल 2010 के बाद सबसे बड़े राजनीतिक विरोध प्रदर्शन का सामना कर रहा है। साल 2010 में थाक्सिन के रेड-शर्ट समर्थक हज़ारों की संख्या में सड़कों पर उतर आए थे और उन्होंने राजधानी बैंकॉक के अहम हिस्सों को अपने नियंत्रण में ले लिया था। अब यही काम विरोधी कर रहे हैं। वे कई सरकारी दफ्तरों के अलावा गर्वमेंट हाउस का घेराव कर भीतर आना चाह रहे थे। प्रदर्शनकारियों को हटाने के लिए सेना भेजी जा रही है। प्रदर्शनकारियों ने रविवार को विजय दिवस घोषित किया, क्योंकि उन्हें यिंगलक को अपदस्थ करने के लिए अपने आंदोलन को तेज करने और थाई राजनीति पर उनके परिवार के एक दशक से अधिक समय के प्रभाव को समाप्त करने की दिशा में आगे बढ़ने में सफलता मिली है। फिलहाल प्रधानमंत्री शिनवात्रा को किसी अज्ञात सुरक्षित स्थान पर रखा गया है। लेकिन थाइलैंड की राजनीति पर असुरक्षा के बादल मंडरा रहे हैं। विरोधियों से सरकार किस तरह निपटेगी, यह बड़ा सवाल है, क्योंकि समय पूर्व चुनाव करवाने से तो प्रधानमंत्री ने इन्कार कर दिया था। अपने दोनों पड़ोसी देशों की राजनैतिक हलचलों पर भारत को पैनी निगाह रखनी होगी।

EMPOWERMENT OF DISABLED


The Constitution of India ensures equality, freedom, justice and dignity of all individuals and implicitly mandates and inclusive society for all including the persons with disabilities. The Constitution in the schedule of subjects lays direct responsibility of empowerment of persons with disabilities on the State Governments. Therefore, the primary responsibility to empower the persons with disabilities rests with the State Governments also. As per Census, 2001, there are 2.19 crore persons with disabilities and they constitute 2.13 per cent of the total population of the country. These include persons with visual, hearing, speech, locomotors and mental disabilities. India is a signatory to the Declaration on the Full Participation and Equality of People with Disabilities in the Asia Pacific. India is also a signatory to the Biwako Millennium Framework for action towards an inclusive, barrier free and rights based society. India signed the UN Convention on Protection and Promotion of the Rights and Dignity of Persons with Disabilities and India ratified the Convention on 1st October, 2008. National Policy for Persons with Disabilities has been formulated in 2005. The policy focuses on the prevention of disabilities, the physical and economic rehabilitation measures for disabled persons. The policy is to be implemented by Government and other agencies. According to United Nations directives the international day of people with disability is being celebrated across the world on 3rd December on every year.

National Institutes for Disabled

In order to effectively deal with the multi-dimensional problem of the disabled population, the following National Institutes/ have been set up in each major area of disability namely; (i) National Institute for the Visually Handicapped, Dehradun, (ii) National Institute for Orthopedically Handicapped, Kolkata, (iii) Ali Yavar Jung National Institute for the Hearing Handicapped, Mumbai, (iv) National Institute for the Mentally Handicapped, Secunderabad, (v) National Institute of Rehabilitation Training and Research, Cuttack, (vi) Institute for the Physically Handicapped, New Delhi, (vii) National Institute for Empowerment of Persons with Multiple Disabilities, Chennai. These institutes are mainly responsible for conducting innovative researches, organise training programmes for manpower development and deliver services in the country.


Regional Rehabilitation Centres in five Composite Regional Centres (CRCs) for the Persons with Disabilities are located at Srinagar, Lucknow, Bhopal, Sundernagar and Guwahati. These centres conduct training programmes to prepare professionals in the field of rehabilitation as well as provide rehabilitation services to the disabled. Four Regional Rehabilitation Centres for Spinal Injuries and other Orthopaedic Disabilities at Mohali, Cuttack, Jabalpur and Bareilly are providing services for basic management and follow-up of the spinally injured so as to make the affected persons functionally independent. Artificial Limbs Manufacturing Corporation of India (ALIMCO), Kanpur, is a public sector body, engaged in manufacturing of aids and appliances for persons with disabilities. The products manufactured by the Corporation conform to ISI standards approved by the Bureau of Indian Standards. Marketing of products organised through Regional Marketing Centres at Kolkata, Mumbai, Chennai, Bhubaneswar and Delhi and also through National Institutes, and voluntary organisations.


 Financial Assistance

National Handicapped Finance and Development Corporation (NHFDC) is an apex-level financial institution for extending credit facilities to persons with disabilities for their economic development. Funds assistance is disbursed through the channelizing agencies authorized by the State Governments/UT Administrations and Non-Government Organisations. It also extends loans for pursuing education at graduate and higher levels. Besides, it assists in the upgradation of technical and entrepreneurial skills to enable beneficiaries to manage their production units efficiently. Government of India is implementing Scheme for Assistance to Disabled Persons for Purchase/Fitting of AIDs and Appliances. The objective of the Scheme is to assist needy and disabled persons in procuring-durable, sophisticated and scientifically manufactured, standard aids and appliance that can promote their physical, social and psychological rehabilitation by reducing the impact of disability and enhancing their economic potential. The scheme is implemented through agencies like voluntary organisations, National Institutes under the Ministry of social justice and empowerment ALIMCO, Zila Panchayats, DRDAs, etc. The implementing agencies are provided grant-in-aid for purchase, fabrication and distribution of aids and appliances. The scheme also includes under its ambit medical/surgical correction and intervention that may be essential prior to figment of aids and appliances.

Legal Measures

Supreme Court Directives
          
The Supreme Court of India had recently delivered landmark Judgement directing the government that 3% reservations allotted to disabled to be filled on priority basis. The apex court also directed the government to protect the human rights of disabled and ensure barrier free environment at public places and offices.

Persons with Disabilities Act, 1995

A comprehensive law, namely, the Persons with Disabilities (Equal Opportunities, Protection of Rights and Full Participation) Act, 1995 has been enacted and enforced from February 1996. The law deals with both prevention and promotional aspects of the rehabilitation such as education, employment and vocational training, creation of barrier-free environment, provision of rehabilitation services for persons with disabilities, institutional services and supportive social security measures like unemployment allowance and grievance redressal machinery both at the Central and State-level. Chief Commissioner for Persons with Disabilities is an important statutory functionary, appointed under Section 57 of the Persons with Disabilities (Equal Opportunities, Protection of Rights and Full Participation) Act, 1995. The functions and duties of the Chief Commissioner include coordinating the work of State Commissioners for persons with disabilities, monitoring of utilisation of funds disbursed by the Central Government, taking steps to safeguard rights and facilities made available to persons with disabilities and also to look into complaints with respect to deprivation of rights of persons with disabilities. The Chief Commissioner can also take suo motu notice of non-implementation of any rule, law meant for persons with disabilities and is vested with the powers of a civil court relating to summoning of witness, discovery, requisitioning and production of any documents. The National Trust for disabled is a statutory body set up under "The National Trust for the Welfare of Persons with Autism, Cerebral Palsy, Mental Retardation and Multiple Disabilities Act, 1999".

The main objectives of the Trust are to enable and empower persons with these disabilities to live independently as fully as possible, to extend support to registered organisations providing need-based services and to evolve procedures for appointment of legal guardians for persons with disabilities requiring such protection.

Rehabilitation Council of India

The Rehabilitation Council of India is a statutory body set up under the Rehabilitation Council of India Act, 1992. The Council is responsible for regulating the training policies and programmes for various categories of professionals in the area of rehabilitation and special education. Its functions includes, standardisation and regulation of training courses at different levels in all the training institutions throughout the country, recognition of institutions/universities running training courses in the area of rehabilitation of the disabled within and outside the country on a reciprocal basis, promotion of research in rehabilitation and special education, maintenance of a Central Rehabilitation Register for professionals possessing the recognised rehabilitation qualifications in the area of rehabilitation, and encouragement of Continuing Rehabilitation Education programmes in collaboration with organisations working in the area of disability.


(PIB Features)

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

सार्वजनिक उद्यमों को अधिक प्रतिस्पर्धी बनाने की जरूरत

तीसरे ब्रिक्स अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा सम्मेलन गत 21 एवं 22 नवम्बर को आईसीसी 2013 का  आयोजन नई दिल्ली में  किया गया था।  इसमें  ब्राजील, रूस, भारत, चीन व दक्षिण अफ्रीका के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया।  प्रतिस्पर्धा कानून व नीति के क्षेत्र में ब्रिक्स सम्मेलन को बहुत प्रतिष्ठा प्राप्त है। पहला सम्मेलन रूस में कझान तथा दूसरा  सम्मेलन चीन में बीजिंग में आयोजित किया गया था। नई दिल्ली में सम्पन्न तीसरे सम्मेलन के आयोजन का मुख्य उद्देश्य  ब्रिक्स देशों में प्रतिस्पर्धा प्रवर्तन के मुद्दे एवं चुनौतियों पर चर्चा करके आपसी सहयोग के एजेंडे को आगे बढ़ाना था। इसीलिए दो दिवसीय सम्मेलन का विषय प्रतिस्पर्धा प्रवर्तन के मुद्दे एवं चुनौतियां रखी गई थीं। सम्मेलन के विभिन्न सत्रों में  प्रतिस्पर्धा कानून: नवाचार  एवं आर्थिक विकास, प्रतिस्पर्धा प्रवर्तन के लिए प्रभावशाली अभिकरण बनाने, राजकीय उपम एवं प्रतिस्पर्धा प्रवर्तन तथा ब्रिक्स देशों की प्रतिस्पर्धा प्रवर्तन एजेंसियों के बीच नजदीकी समन्वय पर सार्थक चर्चा की गई। 
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह द्वारा सम्मेलन का उद्धाटन करते हुए अपने उद्बोधन में कहा कि ब्रिक्स देश वृध्दि, विकास तथा गरीबी की महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना कर रही हैं। बाजारों का अधिकतम लाभ उठाने के लिए ठोस प्रतिस्पर्धा नीति जरूरी है। क्योंकि प्रतिस्पर्धा विरोधी व्यवहार से बाजार से अच्छे परिणाम प्राप्त नहीं होते और इसका सबसे बुरा असर गरीब पर पड़ता है।  उन्होंने  सरकारी उद्यमों को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए उनकी स्वायतता पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को प्रतिस्पर्धा कानून लागू करने समक्ष अनेक चुनौतियां हैं। 
सम्मेलन में एक सत्र में सरकारी स्वामित्व के उपमों एवं प्रतिस्पर्धा पर भी चर्चा की गई। मुख्य आलेख न्यूयार्क विश्वविद्यालय के कानून विभाग के प्राध्यापक प्रो. इलीनर फॉक्स द्वारा तैयार किया गया   था। प्रो. इलीनर ने अपने आलेख में उनके द्वारा अंकटाड के लिए किए गए एक अध्ययन के नतीजों को भी शामिल किया गया है।  उक्त सत्र में ब्रिक्स देशों के प्रतिनिधियों ने भी अपने आलेख प्रस्तुत किए तथा चर्चा में हिस्सा लिया। प्रो. इलीनर का आलेख उनकी ख्याति के अनुरूप विद्वतापूर्ण था। किन्तु सवाल उठता है कि क्या रूस, चीन या भारत में एक भी संस्थान या विद्वान नहीं है जो मुख्य आलेख तैयार कर पाता।  इसे ब्रिक्स का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए।  प्रो. इलीनर के अनुसार सरकारी उपक्रमों को मिली हुई अनेक सुविधाओं एवं विशेषाधिकारों के कारण बाजार में  सही मायनों में प्रतिस्पर्धा नहीं हो पाती है। सरकारों को  सार्वजनिक उपक्रमों को सुविधाओं की बजाय उनकी कार्यकुशलता बढ़ाकर बाजार में प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना चाहिए।
ब्रिक्स की स्थापना के बाद आज इसके सदस्य देशों में बाजार में सरकारी एवं निजी उद्यमों को बराबरी पर रखकर प्रतिस्पर्धा की चर्चा हो रही है, अन्यथा सत्तर के दशक तक रूस एवं चीन में बाजार प्रतिस्पर्धा, कार्यकुशलता व मुनाफा को पूंजीवाद का अंग माना जाता था तथा पूंजीवाद को गाली के समान माना जाता था।  सोवियत संघ के विघटन के पूर्व तक रूस में सरकारी उपक्रमों का एकाधिकार था। सेज की स्थापना के पहले तक जनवादी चीन में भी सभी उपक्रम सरकारी उपम थे। भारत की 1948 की औद्योगिक नीति के तहत आधारभूत उद्योग केवल सरकारी क्षेत्र में ही स्थापित हो सकते थे तथा एमआरटीपी एक्ट के तहत एमआरटीपी आयोग निजी उपक्रमों की एकाधिकारी गतिविधियों पर अंकुश लगाता था किन्तु सरकारी उपक्रमों का एकाधिकार उसके दायरे के बाहर थे। भारत में प्रतिस्पर्धा आयोग की स्थापना के बाद बाजार में प्रतिस्पर्धा का नजरिया अपनाया गया है, किन्तु सार्वजनिक उपक्रमों के विशेषाधिकार कायम बदस्तूर कायम है। ब्रिक्स के प्रतिस्पर्धा सम्मेलनों से प्रतिस्पर्धा की दिशा में एक सकारात्मक पहल हुई है।    
भारत में जहां एक ओर सार्वजनिक उपक्रमों को सरकारी संरक्षण प्राप्त होता रहा है, तो दूसरी ओर  इन उपक्रमों में राजनैतिक व नौकरशाही हस्तक्षेप आम बात रही है।  प्रबंधन में हस्तक्षेप से कार्यकुशलता  पर विपरीत प्रभाव पड़ता था। अधिकांश सरकारी उपक्रमों  की वस्तु या सेवा की उत्पादन लागत अधिक आती थी या वे घाटे पर चलते थे। भारत में सार्वजनिक उपक्रमों को स्वायतत्ता की मांग बहुत पुरानी है किन्तु उसके साथ सब के प्रति जवाबदेही जोड़ देने से मुकत स्वायतत्ता की बजाय वह नियंत्रित स्वायतत्ता बन जाती है।  लेकिन अब धीरे-धीरे सरकारी नजरिये में बदलाव आ रहा है। ब्रिक्स प्रतिस्पर्धा सम्मेलन में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह ने अपने उद्धाटन भाषण में सार्वजनिक उद्यमों को स्वायतत्ता देने, नौकरशाही के नियंत्रण से मुक्त करने तथा निजी क्षेत्र से खुली प्रतिस्पर्धा पर जोर दिया।  
सार्वजनिक उपक्रमों को अधिक प्रतिस्पर्धी बनाने की जरूरत को अब सभी स्वीकार करने लगे हैं। किन्तु उन्हें अधिक प्रतिस्पर्धी उनकी तकनीकी एवं वित्तीय कार्यकुशलता बढ़ाकर की जानी चाहिए न कि सरकारी संरक्षण एवं सुविधाओं के बल पर प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए। इसीलिए कहा जाता है कि लेवल प्लेयिंग स्तर पर होनी चाहिए। सार्वजनिक उपक्रमों को संरक्षण एवं वित्तीय सहायता आम जनता के उपयोग में आनेवाली वस्तुओं एवं सेवाओं के लिए दी जानी चाहिए न कि साधन सम्पन्न व्यक्तियों को सेवा देने के लिए करदाताओं के पैसे से मदद करनी चाहिए। सवाल उठता है कि जो सरकारी उपम घाटे पर चल रहे हैं वे प्रतिस्पर्धा में कैसे ठहर पाएंगे।  उसका तो एक ही उत्तर है लम्बी बीमारी से ग्रसित उपक्रमों से उन्हें बन्द कर या निजी हाथों में सौंपकर सरकार को छुटकारा पा लेना चाहिए।  उदाहरण के लिए सरकारी उपक्रम स्कूटर इंडिया लिमिटेड का लैम्ब्रेटा, लैम्बी, लैम्ब्रों व विजय स्कूटर पिछले बीस साल से बाजार व सड़कों से गायब है किन्तु स्कूटर इंडिया लिमिटेड को 600 करोड़ रुपए का पुनर्जीवन पैकेज आक्सीजन के रूप में देकर जबरिया जीवित रखा जा रहा है तथा इसके बावजूद इसका संचयी घाटा हर साल बढ़ते हुए 100 करोड़ रुपए पहुंचने वाला है। ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं।

सोमवार, 2 दिसंबर 2013

वैश्विक आतंकवाद का खतरा बरकरार

आतंकी संगठन लश्कर-ए-तोयबा पहले की अपेक्षा आज कहीं यादा मजबूत हो गया है, पाकिस्तान में इसके सुरक्षित गढ़ हैं। संगठन को चलाने के लिए इसके आर्थिक मददगारों की संख्या भी बढ़ी है और चंदा इकट्ठा करने के लिए खाड़ी में इसके पास मजबूत नेटवर्क है। यह भारत का कहना नहीं है बल्कि अमरीका के रक्षा विशेषज्ञों का आकलन है। अमरीकी विशेषज्ञों का जो विश्लेषण सामने आया है उनके मुताबिक 2611 के मुम्बई हमलों के पांच वर्ष बीत जाने के बाद लश्कर की ताकत में बहुत बड़ा इजाफा हुआ है। पाकिस्तानी सेना और वहां की खुफिया एजेंसी आईएसआई का वह भारत के खिलाफ  एक पसंदीदा  हथियार बन गया है। विशेषज्ञों का आकलन है कि लश्कर, जमात-उद-दावा जिसको अमरीका भी सबसे बड़ा खतरा मानता है, से जुड़ा हुआ सशस्त्र संगठन है। अनुमान है कि जमात के पास पांच लाख से यादा प्रशिक्षित हथियारबंद सदस्य हैं और वे अन्य आतंकी संगठनों के साथ मिलकर काम करते हैं। जहां तक लश्कर तथा अन्य आतंकवादियों का सवाल है, भारत हमेशा से यह कहता आ रहा है कि पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान उसका सबसे बड़ा पनाहगार है। वहां आतंकी संगठनों को प्रशिक्षण दिया जाता है और उनका इस्तेमाल भारत में दहशत पैदा करने के लिए किया जा रहा है। अभी बीते दिनों ही प्रधानमंत्री ने देश की सुरक्षा व्यवस्था से जुड़ी मशीनरी को आतंकी हमलों के प्रति सचेत भी किया है और कहा है कि ऐसे तत्व अपनी नापाक गतिविधियों से देश में चल रही चुनाव की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधा डाल सकते हैं।

जहां तक मुम्बई हमले के दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की बात है तो उस घटना की  पांचवीं बरसी पर भारत के गृहमंत्री ने फिर एक बार इस बात को दोहराया और पाकिस्तान से आग्रह किया कि उस आतंकी हमले के दोषियों के खिलाफ सख्त  कार्रवाई करें। उन्होंने इस बात का भी जिक्र किया कि इस हमले के दोषियों को जल्दी सजा दिलाने के नजरिये से ही भारत ने पाकिस्तानी न्यायिक आयोग को दो बार भारत आने की इजाजत भी दी जिससे वह इस मामले के जांच अधिकारियों के बयान ले सके और त्वरित कार्रवाई की जा सके। भारत ने आतंकवाद के मसले को अमरीका के साथ-साथ दुनिया के सभी बड़े मुल्कों और प्रमुख मंचों पर कई बार उठाया भी।  मुम्बई हमले के बाद भारत की तरफ से इस बात के पुख्ता सबूत पेश किए गए कि आतंकियों का सरपरस्त पाकिस्तान का खुफिया संगठन आईएसआई है। अमरीका के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र ने भी पाकिस्तान से इंसानियत के खिलाफ किए गए उस भयानक अपराध के दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करते हुए उन्हें कटघरे में लाने की चेतावनी दी। अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के प्रवक्ता का कहना था कि हमारी सरकारें वैश्विक आतंकवाद के खतरों से निपटने के लिए मिलजुल कर सहयोग कर रही हैं।  ऐसे में पाकिस्तान को चाहिए कि वह मुम्बई हमले के सरगना और उसके प्रायोजकों को इंसाफ के कटघरे में खड़ा करें। लेकिन यह सब एक औपचारिकता ही दिखाई देती है। जहां तक अमरीका का सवाल है वह अपनी जरूरत के हिसाब से अपनी रणनीति और कार्रवाईयों की दिशा तय करता है। उसे जब जरूरत महसूस हुई तो उसने आतंकवाद को प्रश्रय देने वाले लादेन को खुफिया सैन्य कार्रवाई करके पाकिस्तान के अन्दर ही मार डाला, यहां तक कि उसके शव को भी खुद ही ऐसे ठिकाने लगा दिया जिससे उसका कोई अता-पता ही न चल सके।

जहां तक भारत में आतंकी घटनाओं का सवाल है, चाहे वह संसद पर हमले का मामला रहा हो या मुम्बई की 2611 की घटना अथवा सीमा पार से लगातार हो रही घुसपैठ, इन आतंकी घटनाओं में भारत ने बड़े पैमाने पर अपने जन-धन की हानि उठाई है। आए दिन कश्मीर से लगी सीमा पर पाकिस्तान की तरफ से लगातार घुसपैठ की खबरें मिलती रहती हैं। निश्चितरूप से आतंकी पाकिस्तानी सेना की सहमति के बिना सीमा पार कर भारत में घुसपैठ नहीं कर सकते। भारत ने इस बारे में पाकिस्तान सरकार के साथ बार-बार इस तथ्य को रखा और पिछली बार जम्मू क्षेत्र में हुई आतंकी घटना जिसमें आतंकियों ने भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ कर  सेना के शिविर और सिविल पुलिस की चौकियों पर हमला कर तबाही मचा दी थी, उसके बाद स्थिति यहां तक पहुंच गई कि  लग रहा था दोनों देशों के बीच वार्ता के दरवाजे हमेशा के लिए बन्द हो जायेंगे, लेकिन भारत हमेशा शांति और सहअस्तित्व का अनुयायी रहा है तथा पड़ोसी से भी वह इसी तरह की उम्मीद करता है क्योंकि उसका मानना है कि शांति के रास्ते चलकर ही देश का विकास किया जा सकता है। वह ऐसे किसी भी कार्रवाई का पक्षधर नहीं रहा जिससे दोनों देशों के सम्बन्ध हमेशा के लिए टूट जाए, लेकिन पाकिस्तान की तरफ से इस दिशा में कोई सकारात्मक पहल नहीं दिखाई देती। 

आईएसआई, जिसका पाकिस्तानी सेना के साथ गहरा तालमेल है उसके द्वारा आतंकी संगठनों को लगातार समर्थन और वित्त पोषित किया जा रहा है। पाकिस्तान में लोकतंत्र के हिमायतियों और शांति के पक्षधरों की तादाद कम नहीं है लेकिन वहां की सरकार सेना, आईएसआई और भारत विरोधी कट्टरपंथियों के जाल से निकलने का साहस नहीं कर पा रही है। सत्ता बदलने के बाद नवाज शरीफ और उनकी सरकार से यह उम्मीद बंधी थी कि वह इस दिशा में कोई ठोस पहल करके दोनों देशों के रिश्तों को सुधारने की कोशिश करेंगे, लेकिन ऐसा कुछ होता दिखाई नहीं दे रहा है।


देशबन्धु

  

रविवार, 1 दिसंबर 2013

एड्स/एचआईवी में गिरावट का रुख जारी

एचआईवी/एड्स महामारी विकास एवं सामाजिक प्रगति के लिए बहुत बड़ी चुनौती बनी हुई है। यह बीमारी गरीबी और असमानता के चलते होती है। समाज के बहुत दुर्बल वर्गों यानी वयोवृद्ध, महिलाओं, बच्‍चों और गरीबों को यह अपना शिकार बनाती है। जो देश समय रहते इसकी प्रतिक्रिया में कुछ नहीं कर पाते, उन्‍हें इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है और इसके परिणामस्‍वरूप उत्‍पादकता, कुशल और तजुर्बेकार श्रम की कमी तथा इलाज पर भारी खर्च और अन्‍य प्रकार के व्‍यय के रूप में उठानी पड़ती है। कारण यह है कि सार्वजनिक सेवाओं की मांग बढ़ जाती है। इसका प्रभाव करीब-करीब राष्‍ट्रीय अर्थव्‍यवस्‍था के हर क्षेत्र पर पड़ता है। चालू वर्ष के विश्‍व एड्स दिवस का विषय रखा गया है साझी जिम्‍मेदारी: एड्स मुक्‍त पीढ़ी के  सशक्‍तीकरण परिणाम।

विश्‍व परिदृश्‍य

अब जबकि इस भयानक छूत की बीमारी के खिलाफ लड़ाई जारी है, अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2012 में 23 लाख वयस्‍क और बच्‍चे इस बीमारी की चपेट में आये। इसकी तुलना में वर्ष 2001 में 33 प्रतिशत कम लोग इस बीमारी से ग्रस्‍त हुए थे। वर्ष 2001 के मुकाबले नये एचआईवी मरीजों की संख्‍या 52 प्रतिशत कम हुई है। मरीजों में बच्‍चे शामिल हैं। एड्से जुड़ी हुई मौतों में भी 30 प्रतिशत कमी आई है। 2005 में जब इस बीमारी का जोर सबसे ज्‍यादा था, इसके इलाज की सुविधाएं बढ़ा दी गईं। टीबी के मरीजों की जरूरतें पूरी की जा रही हैं और उसके महत्‍वपूर्ण परिणाम दिखाई दिये हैं। एचआईवी संक्रमण के साथ जिंदा मरीजों की संख्‍या और इस बीमारी के कारण मरने वाले लोगों की संख्‍या में भी 2004 से 36 प्रतिशत कमी हुई है।

2012 के अंत तक कम और मध्‍यम आय वर्ग वाले देशों में 97 लाख लोग इस बीमारी से मुक्‍त होने के लिए इलाज करा रहे थे। एक वर्ष में भी तब 20 प्रतिशत वृद्धि हुई थी। वर्ष 2011 में संयुक्‍त राष्‍ट्र सदस्‍य देश 2015 तक 1.5 करोड़ एचआईवी मरीजों को चिकित्‍सा सुविधाएं देने का लक्ष्‍य प्राप्‍त करने पर सहमत हुए लेकिन इन देशों ने जैसे-जैसे अपने यहां इलाज की सुविधाएं बढ़ाईं, नये तरीके से इलाज के लाभों से वंचित करने की रूझानें दिखाई दीं। विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन ने इस बीमारी के इलाज के लिए नये मार्ग दर्शक नियम तय किये और इस बीमारी का इलाज चाहने वाले जरूरतमंद लोगों की संख्‍या का अनुमान बढ़ाकर एक करोड़ कर दिया।

एचआईवी के लिए निधियों का दान करने वाले दाताओं की संख्‍या बढ़ रही है। वर्ष 2008 तक यह उतनी ही थी जितनी हर देश में एचआईवी के इलाज पर निधियों की जरूरत पड़ती है। अनुमान लगाया गया कि 2012 में दुनियाभर में एचआईवी संसाधनों के यह 53 प्रतिशत के बराबर थी। अनुमानों के अनुसार वर्ष 2012 में एचआईवी चिकित्‍सा के लिए दुनिया भर में 18.9 अरब अमरीकी डॉलर के संसाधन उपलब्‍ध थे जो जरूरत से तीन से पांच अरब अमरीकी डॉलर कम थे। यह भी अनुमान लगाया गया है कि 2015 तक दुनियाभर में 22 से 24 अरब अमरीकी डॉलर तक एचआईवी मरीजों के इलाज पर खर्च आएगा।

भारत में स्थिति
 
राष्‍ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम संयुक्‍त राष्‍ट्र द्वारा तय ''सहस्राब्‍दी विकास लक्ष्‍य'' पूरा करने की तरफ बराबर प्रगति कर रहा है तथा एचआईवी बीमारी घट रही है। राष्‍ट्रीय स्‍तर पर वयस्‍कों में एड्स की बीमारी में बराबर गिरावट आ रही है और 2001 की तुलना में यह स्‍तर 0.41 प्रतिशत कम हुआ है। 2006 में यह इस स्‍तर में 0.35 प्रतिशत गिरावट आई और वर्ष 2011 में यह स्‍तर 0.27 प्रतिशत कम हुआ। राष्‍ट्रीय स्‍तर पर वयस्‍कों (15-49 वर्ष) एचआईवी अनुमान के अनुसार 2007 में 0.33 प्रतिशत था। वर्ष 2011 में घटकर यह 0.27 प्रतिशत के स्‍तर पर आ गया। वयस्‍कों में एचआईवी की बीमारी कम होने का रुख लगातार बना रहा और जिन राज्‍यों में इसका प्रकोप ज्‍यादा है यानी आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्‍ट्र, मणिपुर, नागालैंड और तमिलनाडु में यह बीमारी अधिक है। अन्‍य राज्‍य हैं मिजोरम और गोवा। लेकिन जिन राज्‍यों में इसका प्रकोप कम है यानी असम, अरुणाचल प्रदेश, चंडीगढ़, छत्‍तीसगढ़, मेघालय, ओडिशा, पंजाब, त्रिपुरा और उत्‍तराखंड-उनमें वयस्‍कों में एचआईवी की बीमारी बढ़ी है।

भारत ने दिखा दिया है कि हर साल एचआईवी संक्रमण के जितने मरीज होते हैं उनमें 57 प्रतिशत कमी आई है। यह कमी पिछले दशक के दौरान आई और वर्ष 2000 में जहां ऐसे मरीजों की संख्‍या 2.74 लाख थी वहीं 2011 में घटकर यह 1.16 लाख के स्‍तर पर आ गई। यह राष्‍ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम के अंतर्गत किये गये उपायों का परिणाम है। अन्‍य कार्य नीतियां भी बढ़ाई जा चुकी हैं। इस बीमारी के मरीजों की संख्‍या में महत्‍वपूर्ण कमी का कारण उन राज्‍यों से आया है जहां ये बीमारी ज्‍यादा है और जहां पर उक्‍त अवधि में मरीजों की संख्‍या 76 प्रतिशत घटी है। एचआईवी/एड्स के भारत में जितने जिंदा मरीज हैं, उनकी संख्‍या 2011 में 21 लाख आंकी गई है। इनमें 15 वर्ष के कम आयु के बच्‍चे (1.45 लाख) सात प्रतिशत जबकि 15 से 49 वर्ष आयु वर्ग की 46 प्रतिशत महिलाएं शामिल हैं। जितने भी एचआईवी मरीज हैं, उनमें 39 प्रतिशत (8.16 लाख) महिलाएं हैं। भारत में एचआईवी जिंदा मरीजों की संख्‍या लगभग स्थिर बनी हुई है। यह जहां 2006 में 23.2 लाख थी, वहीं 2011 में 21 लाख थी।
कार्यक्रम के आंकड़ों से संकेत मिलता है कि 2009-10 और 2010-11 के बीच में इलाज की सुविधाएं वयस्‍कों के लिए 30 प्रतिशत बढ़ गई। इससे अनुमान है कि एड्स से ग्रस्‍त लोगों की वार्षिक मृत्‍यु संख्‍या में 29 प्रतिशत कमी आई। यह एनएसीपी-3 अवधि (2007-2011) के दौरान हुआ। उन राज्‍यों में मृत्‍यु संख्‍या में खासतौर से कमी दिखाई दी जहां नये ढंग से इलाज की सुविधाएं बढ़ाने का कार्यक्रम पूरा कर लिया गया। जिन राज्‍यों में एड्स के कारण मृत्‍यु दर अधिक है, वहां भी एड्स से मरने वालों की संख्‍या में 42 प्रतिशत कमी आई। 2007 से 2011 के बीच 42 प्रतिशत गिरावट देखी गई। जुलाई 2013 की स्थिति के दौरान देश में एचआईवी के 6.76 लाख जिंदा मरीज हैं, जो नये ढंग की चिकित्‍सा से लाभ उठा रहे हैं।

जिन लोगों को इस बीमारी से ज्‍यादा खतरा है उनके लिए चिकित्‍सा सेवाएं देने में महत्‍वपूर्ण सुधार आया है। फिलहाल, 84 प्रतिशत महिला सेक्‍स वर्करों में 87 प्रतिशत पुरूषों के साथ सहवास करती हैं और 84 प्रतिशत सूईयों के जरिए नशा करने वालों को चिकित्‍सा उपलब्‍ध है। 2011 में इसके प्रभाव के मूल्‍यांकन से पता चला कि महिला सेक्‍स वर्करों में एचआईवी में गिरावट राष्‍ट्रीय कार्यक्रम के कारण आई और अनुमान लगाया गया है कि इस राष्‍ट्रीय कार्यक्रम के कारण 2015 तक महिला सेक्‍स वर्करों में इस बीमारी के प्रचलन में गिरावट आई और अनुमान के अनुसार एचआईवी के 30 लाख मामले रोके जा सके। इसका कारण 2015 तक इस राष्‍ट्रीय कार्यक्रम के अंतर्गत लक्ष्‍य समूहों में बीमारी रोकने का अभियान था।

विश्‍व बैंक और नॉको
भारत को राष्‍ट्रीय एड्स नियंत्रण परियोजना के लिए 1991 से विश्‍व बैंक से निधियां प्राप्‍त होनी शुरू हुईं और तब से राष्‍ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम चल रहा है। 1990 से शुरू दशक के शुरूआती वर्षों में एनएसीपी में रक्‍त की सुरक्षा पर ध्‍यान दिया जाता था। जिन समूहों में एड्स का खतरा ज्‍यादा तथा उनमें इसे रोकने के कदम उठाये गये। आम जनता में चेतना लाई गई। राष्‍ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम के दूसरे चरण (1999-2006) में भारत में इस कार्यक्रम का विस्‍तार किया गया और इसे राज्‍य स्‍तरों पर शुरू किया गया। एड्स मरीजों पर खासतौर से ध्‍यान दिया गया। एचआईवी निरोधक कार्यक्रम में एनजीओ को शामिल किया गया। तीसरे चरण में इस बीमारी को रोकने के लक्ष्‍य बढ़ा दिये गये और इसमें उन सभी लोगों को शामिल किया गया जो इस खतरे के दायरे में थे। ऐसा जागरूकता तंत्र का विस्‍तार करके किया गया। इससे सरकार को यह मालूम करने में सहायता मिली कि यह बीमारी कितनी बढ़ चुकी है, किन राज्‍यों में यह ज्‍यादा प्रचंड है और आबादी के वे कौन-कौन से समूह हैं, जो इसके खतरे के दायरे में हैं। 

एनएसीपी के चौथे चरण के लक्ष्‍य दीर्घकालीन निरंतरता के लिए भारत सरकार की 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-2017) के समावेशी वृद्धि और विकास के लक्ष्‍य से जुड़ी हुई है। अगले पांच वर्ष के दौरान राष्‍ट्रीय कार्यक्रम का लक्ष्‍य एचआईवी संक्रामक रोग को समाप्‍त करने में तेजी लाना है। नवाचार पहुंच के जरिए कार्यक्रम का मकसद सर्वाधिक जोखिम वाले आबादी समूह के पास लक्षित निवारक हस्‍तक्षेप करना है, जिसमें व्‍यापक हिफाजत को बढ़ाना, सहायता और इलाज, जानकारी का विस्‍तार, व्‍यवहार में बदलाव पर ध्‍यान देने के साथ शिक्षा और संचार, मांग बढ़ाना और कलंक को मिटाना, एकीकरण की प्रक्रिया और संस्‍थागत क्षमता को और बढ़ाना, समूचे कार्यक्रम घटकों में नई राहें तलाशने जैसी मुहिम जारी रखना शामिल है।

राष्‍ट्रीय एड्स नियंत्रण समर्थन परियोजना (एनएसीएसपी) परिणामों पर ध्‍यान देते हुए एनएसीपी 2012-2017 के चौथे चरण की सामरिक योजना में सहयोग करेगी। परियोजना के तीन घटक होंगे :

घटक एक : लक्षित निवारक हस्‍तक्षेपों को बढ़ाना (कुल अनुमानित लागत 440 मिलियन अमरीकी डॉलर)।

घटक दो : संचार व्‍यवहार बदलाव (कुल अनुमानित लागत 40 मिलियन अमरीकी डॉलर)।

घटक तीन : संस्‍थागत सुदृढता (कुल अनुमानित लागत 30 मिलियन अमरीकी डॉलर)।

एनएसीएसपी के ढांचागत क्रियान्‍वयन और संस्‍थागत व्‍यवस्‍थाएं एनएसीपी तीन की तरह ही होगी। इसके कार्यक्रमों का प्रबंधन केन्‍द्रीय स्‍तर पर एड्स नियंत्रण विभाग, राज्‍य स्‍तर पर राज्‍य एड्स नियंत्रण सोसयटियों (एसएसीएस) और जिला स्‍तर पर जिला एड्स निवारक नियंत्रक इकाईयां करेंगी। तकनीकी समर्थन इकाइयों को एनएसीपी-तीन के दौरान एसएसीएस के साथ राज्‍यों में लक्षित हस्‍तक्षेपों को सहयोग देने, गुणवत्‍ता, निगरानी के लिए गठित किया गया था।

हालांकि समग्र एचआईवी के फैलाव की दर सर्वाधिक जोखिम समूह के बीच घट रही है। यह 2010-11 के दौरान मादक द्रव पदार्थ लेने वालों के बीच 7.14 प्रतिशत, पुरुषों के साथ यौन संबंध बनाने वाले पुरुषों के बीच 4.43 प्रतिशत और महिला सेक्‍स वर्करों के बीच 2.6 प्रतिशत दर थी। राज्‍यों में काफी फेरबदल हुआ है। इन क्षेत्रों की आबादी तक पहुंच बढ़ाने के प्रयास बहुत आवश्‍यक हो गए हैं। राष्‍ट्रीय कार्यक्रम विश्‍व एड्स दिवस वर्ष 2013 के विषय के साथ दुनियाभर में अपने शानदार प्रदर्शन, प्रबंधन प्रणाली और उत्‍कृष्‍ट कार्यों से प्राप्‍त अनुभवों के साथ कार्य करना जारी रखेगा। विश्‍व एड्स दिवस का विषय है साझी जिम्‍मेदारी : एड्स मुक्‍त पीढ़ी के सशक्‍तीकरण परिणाम।



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