सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

101 वीं विज्ञान कांग्रेस

भारत में विज्ञान व वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के लिए 1914 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस की स्थापना हुई थी। भारत तब अंग्रेजों का गुलाम था और अशिक्षा, अंधविश्वास, सामाजिक कुरीतियों से जकड़ा हुआ था। लेकिन बीते सौ सालों में भारत ने विज्ञान के क्षेत्र में निरंतर प्रगति की है। अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में अनेक उपलब्धियों के साथ हाल का मंगल अभियान ऐसी कामयाबी है जिस पर हर भारतीय को नाज है। इसके अलावा विज्ञान की लगभग सभी शाखाओं में भारतीय वैज्ञानिक उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं, शोध कार्य भी हो रहे हैं, किंतु समाज में वैज्ञानिक सोच का जिस तेजी से प्रसार होना चाहिए था और विज्ञान के प्रति विद्यार्थियों का जो झुकाव होना चाहिए था, वह नहींहो पाया है। भारतीय विज्ञान कांग्रेस के शताब्दी वर्ष मेंइस मुद्दे पर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। हाल ही में जम्मू विश्वविद्यालय में संपन्न 101वींविज्ञान कांग्रेस में उद्धाटन वक्तव्य में प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह ने कहा कि हमारे देश में विज्ञान की शिक्षा पर काफी यादा ध्यान दिए जाने की जरूरत है। अगले कुछ वर्षों में शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश करने वाली सबसे बड़ी जनसंख्या हमारे देश में होगी। इसीलिए हमें उनको सही रास्ते पर ले जाने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। यह रास्ता उन्हें उत्पादक रोजगार की तरफ ले जाएगा। हमें यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि हम्ारे युवा वर्ग विज्ञान को अपना करियर बनाएं। ऐसा करने के लिए हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि यह काम इतना आकर्षक बन जाए कि वे ऐसा ही करें। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री लगातार दसवींबार विज्ञान कांग्रेस को संबोधित कर रहे थे। हर बार की तरह उन्होंने इस बार भी विज्ञान में निवेश को बढ़ाने की आवश्यकता पर बल दिया और कहा कि इसे जीडीपी का 2 प्रतिशत करने की आवश्यकता है। भारत जैसे निरंतर प्रगतिशील देश में विज्ञान के क्षेत्र में जितना निवेश किया जाएगा, उससे कहींअधिक हासिल होगा। सरकार इस दिशा में काम भी कर रही है। जीडीपी का 2 प्रतिशत विज्ञान को देने का कार्य तो अब तक संभव नहींहुआ, किंतु पिछले कुछ वर्षों में राष्ट्रीय विज्ञान और अभियांत्रिकी बोर्ड नामक संगठन की स्थापना, जैव प्रौद्योगिकी में अनुसंधान व विकास के लिए सार्वजनिक व निजी क्षेत्र की भागीदारी, आठ नए आईआईटी एवं विज्ञान व अनुसंधान में 5 संस्थानों का खोला जाना स्वागतेय कदम है।


 इस विज्ञान कांग्रेस में तमिलनाडु में न्यूट्रीनो आधारित वेधशाला और 'नेशनल मिशन ऑन हाई परफार्मेंस कंप्यूटिंग' सहित करीब नौ हजार करोड़ रुपए की कई परियोजनाओं का ऐलान प्रधानमंत्री ने किया। इस बार विज्ञान कांग्रेस की थीम 'समग्र विकास के लिए विज्ञान व प्रौद्योगिकी में नवाचार' रही। आशय यह कि विज्ञान व प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल व लाभ सीमित वर्ग तक न रहे बल्कि समाज का हर तबका इससे वैसे ही लाभान्वित हो, जैसे सूचना व संचार क्रांति से हर वर्ग को उन्नयन का अवसर मिला। विज्ञान के क्षेत्र में अपनी प्रगति पर हम खुश हो सकते हैं, लेकिन अगर यूरोप, अमरीका की छोड़े, एशिया में ही चीन, जापान, दक्षिण कोरिया जैसे देशों से तुलना करें, तो पता लगेगा कि अभी हमें और कितना, कुछ करने की आवश्यकता है। समाज में विज्ञान की शिक्षा के प्रति बहुत उत्साहजनक माहौल नहींहै। विद्यार्थी विज्ञान पढ़े, उसमें शोधकार्य के लिए आगे बढ़ें, इसकी जगह इस बात पर बल दिया जाता है कि वह वाणिज्य प्रबंधन जैसे क्षेत्र में ऊंची डिग्री हासिल करे और किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में आकर्षक पैकेज की नौकरी हासिल कर ले। विद्यालयों, महाविद्यालयों में विज्ञान की शिक्षा में नवाचार बहुत कम अपनाया जा रहा है और शिक्षक पुराने ढर्रे पर अपना काम निबटा रहे हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया में अब भी रोजाना ग्रहों, नक्षत्रों, भूत-प्रेतों, दैवीय चमत्कारों से जुड़े समाचार आते हैं। दिव्य शक्ति से संपन्न बाबाओं के दरबार अब भी सज रहे हैं, उनका आडंबर दिन-ब-दिन बढ़ रहा है। अभी ज्यादा समय नहींहुआ, जब एक साधु के सपने के कारण सोने की खोज में खुदाई की गई और एक बाबा के मृत हो जाने के बाद भी उसके अनुयायी यही कह रहे थे कि वे समाधि लगाए हुए हैं और इस बार शायद इसमें कोई रिकार्ड बना लें। भारतीय समाज ने देखा है कि किस तरह वैज्ञानिक तरक्की का लाभ उड़ीसा में आए चक्रवात के वक्त मिला, जब पहले से लोगों को वहां से हटाया गया और जान-माल की हानि नहींहुई, ऐसे और बहुत से उदाहरण हैं, पर न जाने क्यों हम अंधविश्वास के चक्र से मुक्त नहींहो रहे हैं। समाज इस जकड़न को तोड़ेगा, तभी सही अर्थों में वैज्ञानिक प्रगति होगी। सरकार नयी परियोजनाएं प्रारंभ करने के साथ भारत रत्न डा.सी.एन.आर.राव की उस खीझ को संदर्भ सहित समझने की कोशिश करे, जिसमें उन्होंने कहा था कि वैज्ञानिक बिरादरी की जरूरतों को राजनेता समझ नहींपाते हैं। उम्मीद है अगली विज्ञान कांग्रेस तक जरूरत को समझने का यह दायरा और बढ़ेगा, नकारात्मक सोच से घटेगा नहीं।

Subject:- Civil Service Examination – Relaxation of number of attempts


The Central Government has approved “two additional attempts to all categories of candidates w.e.f. Civil Services Examination 2014, with consequential age relaxation of maximum age for all categories of candidates, if required.”





http://persmin.gov.in/AIS1/Docs/MoreAttempts.pdf

तीसरा मोर्चा

16वीं लोकभा के चुनाव में तीसरा मोर्चा गठित करने के लिए राजनीतिक दलों ने प्रयास शुरू किया है। इनकी मंशा या कहें राजनीतिक इच्छा है कि देश को कांग्रेस-भाजपा से परे राजनीति में तीसरा मोर्चा की जरूरत है। देश में यद्यपि दो दलीय राजनीतिक प्रणाली नहीं है लेकिन पहले कांग्रेस और फिर भाजपा-नीत तथा कांग्रेस नीत गठबंधन सरकारें केन्द्र में चलती रही हैं और अब यह माना जाने लगा है कि देश में ये ही दो गठबंधन पारी-पारी से शासन करेंगे। अन्य दलों को इनके साथ जुड़कर सरकार का अंग बनना है, इनकी नीतियों को मन से या बेमन से ही मंजूर करना है और इन बड़े दलों की नीतियों के पक्ष में या विपक्ष में मत देना है। मतलब अन्य दलों को सरकार में रहना है तो इनके साथ चलना है और विपक्ष में रहना है तो भी बड़े दल के साथ ही रहना है। इस तरह देश के अन्य दल एक तरह से इन बड़े दलों के ''बंधुआ'' हो गए हैं। लोकसभा या रायसभा में विपक्ष का मतलब बड़ा दल है और यह बडा दल सदन की कार्रवाई में बाधा डालता है तो अन्य दलों के न चाहते हुए भी सदन स्थगित हो जाता है। सदन के बाहर कहते हैं कि सदन चलेगा अथवा नहीं, यह बड़ा दल जाने, हम तो छोटे दल हैं। हकीकत यह है कि ये छोटे दल अपने दम पर अपने क्षेत्र की जनता से ताकत प्राप्त कर सदन में पहुंचे हैं। लेकिन सदन में वर्चस्ववादी मानसिकता वाले बड़े दलों के कारण इनकी आवाज सुनी नहीं जाती। इस तरह बड़े दल अपने अस्तित्व के लिए इनकी आवाज तो दबाते हैं, एक तरह से इनका राजनीतिक शोषण करते हैं और इन पर मनोवैज्ञानिक दबाव भी बनाते हैं- ये सोचें कि ये 'छोटे दल' हैं। इस तरह बड़े दलों का यह सामंती रवैया छोटे दलों की प्रतिभा को कुंद करता है, इनके समग्र व्यवहार को खिलने नहीं देते। इन्हें अपना पिछलग्गू ही बनाए रखते हैं। इसी में इन बड़े दलों का अस्तित्व बना रहता है। यह तो ऐसा ही है कि राजा की सवारी ढोने के लिए प्रजा को सामने लाया जाता रहा या राजा शिकार पर निकलता तो हांका पाड़ने प्रजा को आगे आना पड़ता था।

तीसरा मोर्चा मात्र सत्ता प्राप्त करने या कांग्रेस-भाजपा को सत्ता से हटाने के उद्देश्य से ही बने, ऐसा नहीं है। यह सोचना कि तीसरा मोर्चा सत्ता प्राप्ति के लिए बनाया जा रहा है, तीसरा मोर्चा की राजनीतिक अवधारणा के पवित्र उद्देश्य को नकारना है। तीसरा मोर्चा की जरूरत को जनता न समझे, जनता को इस समझ से दूर रखने का यह एक भयानक षड़यंत्र है और इस षड़यंत्र में मीडिया, बड़े दल शामिल हो रहे हैं। ये सब केन्द्र में एक पार्टी की सरकार या बड़े दल के अंतर्गत बनने वाली किसी सरकार के पक्ष में सोचते हैं, प्रचार करते हैं। इस तरह सोचने वाले तीसरा मोर्चा की राजनीतिक अवधारणा को सत्ता प्राप्ति की लालसा तक सीमित कर उसके उभार को बाधित करते हैं। वैसे भी मान लो तीसरा मोर्चा केन्द्र की सत्ता में काबिज होने के लिए गठित किया जा रहा है तो क्या बुरा है। ऐसा प्रयास करनेवाले दल कौन-सा अपराध कर रहे हैं। दरअसल तीसरा मोर्चा के गठन के लिए प्रयास करने वाले एक निर्णायक लड़ाई के लिए ही तीसरा मोर्चा गठित करने भिड़े हैं। 1991 के बाद देश में जिस तरह की नवउदारवादी आर्थिक नीतियां लागू की गईं और उसे कांग्रेस तथा भाजपा सरकारों ने अपने-अपने शासनकाल में लागू करने में जोर लगाया और यह ध्यान रखा कि इसमें ढिलाई न हो, इसके कारण देश में गैरबराबरी बढ़ी और भयानक भ्रष्टाचार बढ़ा। जनता परेशान है, लेकिन जनता की परेशानी दूर करने की वैकल्पिक नीतियां प्रस्तुत करने की राजनैतिक-इच्छा दोनों ही दलों की नहीं है क्योंकि अब दोनों ही दल वैश्विक आर्थिक दबाव और साम्रायवादी आर्थिक नीतियों के पैरोकार बन गए हैं। इनसे जनता को किस तरह छुटकारा मिले? देश की बदहाली के लिए चिंतित तथा उसे दूर करने के लिए वैकल्पिक नीतियों से लैस दल देश में हैं, उनकी विचारधारा राष्ट्रीय स्तर पर फैली है। लेकिन एक राजनीतिक दल के रूप में अपनी सीमित पहुंच के कारण केन्द्र में अपने अकेले की संख्या पर सरकार नहीं बना सकते, इसका यह मतलब नहीं कि जनता को इस नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के शोषण का शिकार होने के लिए छोड़ दिया जाए। अगर केन्द्र में अकेले नहीं आ सकते तो अन्य छोटे दलों को साथ लेकर सत्ता पर काबिज दलों को हटाने का जरूरी राजनीतिक कर्म तो किया ही जा सकता है। समय की यह मांग है। इस समय जो चुप बैठेगा या तटस्थ रहेगा या निष्क्रिय रहेगा या केवल अपनी ही सोचेगा वह देश की जनता के साथ राजनीतिक धोखा करेगा। अत: जो दल इस समय तीसरा मोर्चा बनाने भिड़े हैं वे जनता को बड़े संकट से उबारने के बडे क़र्म में लगे हैं।

तीसरा मोर्चा क्यों जरूरी है, इस पर विचार किया जाना चाहिए। जब भी तीसरा मोर्चा की बात उठती है और वह कोई आकार लेने की स्थिति में आता है, त्यों ही बड़े राजनीतिक दलों, मीडिया, कार्पोरेट और राजनीति का इसी ढर्रे में तथा इसी व्यवस्था में चलने देने के पक्षधरों के पेट का पानी डोलने लगता है। उनके पेट में मरोड़ शुरू हो जाती है और बुध्दि में एेंठन उठती है। वे एक साथ उठ खड़े होते हैं और चिल्लाने लगते हैं कि देखो फिर तीसरा मोर्चा का तमाशा आ रहा है। तीसरा मोर्चा के गठन को ही गैरजरूरी बताने में जुट जाते हैं और यह भी कहने लगते हैं कि तीसरा मोर्चा बन नहीं सकता। जनता जरूर कुछ आशा भरी नजरों से देखती है। 2009 और 2014 में काफी फर्क है। आज उदारवादी आर्थिक नीतियों का दुष्परिणाम सामने है। जनता महंगाई भोग रही है और घोर भ्रष्टाचार देखती रही है। सरकार निजीकरण की ओर तेजी से बढ़ रही है। कार्पोरेट हित साधने में लगी है सरकार। अरबपतियों की संख्या बढ़ी है और गरीबी-अमीरी के बीच खाई यादा चौड़ी हुई है। सरकार तथा व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण राजनीति के प्रति जनता में अरुचि पैदा हो गई है और इसका लाभ उठाकर गैरराजनीतिक आंदोलन बढ़े हैं तथा सत्ता में आ गए हैं जो जनता को यादा भ्रमित कर रहे हैं। देश में बिचौलियों की समृध्दि बढ़ी है। सरकार की विफलताओं के कारण जनता में घोर निराशा है।


तीसरा मोर्चा को लेकर कई तरह की शंकाएं पैदा की जा रही हैं। इससे एक तो यह कि ये क्षेत्रीय दल अपने-अपने रायों में आपस में लड़ते हैं अत: केन्द्र में एक साथ नहीं बैठ सकते और इनकी बनी सरकार यादा दिन नहीं चल सकती। इनके बीच ही प्रधानमंत्री के कई दावेदार हैं। लेकिन विचार करने की बात है कि जब से केन्द्र में गठबंधन सरकारें बनने लगी हैं, ये सरकारें भी एक तरह से क्षेत्रीय-छाया में बनी सरकारें रही हैं। क्षेत्रीय दलों का सहयोग लेकर बनी सरकारों ने क्षेत्रीय दलों को मनमाफिक पोर्टफोलियो दिए और उनकी पसंद या कहें उनके द्वारा नामित व्यिक्त को ही केबिनेट में लिया।  बहरहाल, तीसरा मोर्चा- एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम बना सकता है। विदेश नीति पर एक आम सहमति बन सकती है- तीसरा मोर्चा भी वैश्विक सोच पैदा कर सकता है। उसमें भी राजनीति के अच्छे जानकार हैं। ऐसा क्यों माना जाए कि वैश्विक समझ केवल भाजपा और कांग्रेस के पास ही है। दरअसल केन्द्र में तीसरा मोर्चा की सरकार हमारे फेडरल स्टक्चर को यादा मजबूत करेगी। उसे मौका दिया जाए वह अपनी सार्थकता सिध्द करे, यह चैलेन्ज रहेगा तो तीसरा मोर्चा सही अर्थों में जनवादी सरकार देगा। तीसरा मोर्चा पर आगे चर्चा जारी रहेगी। विविधा के बीच आम सहमति ''तीसरा मोर्चा'' की विशेषता है।

रविवार, 9 फ़रवरी 2014

पेयजल का स्थाई एवं उचित प्रबंधन

वर्तमान समस्या के समाधन हेतु युक्ति निर्धारण अत्यंत आवश्यक है। अनेक स्रोत, जैसे सेमीनार, समाचार पत्र और साहित्य आदि से प्राप्त ज्ञान और अध्ययनों के आधार पर राज्य में पेयजल के स्थाई एवं उचित विकास हेतु सुझाव दिए गए हैं।

इनमें से अधिकांश युक्तियां सरकार पर केंद्रित हैं क्योंकि जल संबंधी क्षेत्र में राज्य सरकार की अहम भूमिका है। नीतियों का निर्धारण एवं कार्यान्वयन राज्य सरकार का ही उत्तरदायित्व है। ऐसी प्रभावी संस्थाएं जिनमें उत्तरदायित्व, प्रतिनिधि तथा पारदर्शी निर्णय लेने की क्षमता हो, वे सरकार की नीति निर्धारण एवं विधि निर्माण की भूमिका के लिए आवश्यक रूप से अनुकूल है।

सरकार भी उपभोक्ताओं जैसे घरेलू जल आपूर्ति, अपशिष्ट का निकास, कृषि वन प्रांत, पर्यावरण सेवाएं, उद्यम, परिवहन, बिजली एवं मनोरंजन आदि के मध्य जल आवंटन हेतु उत्तरदायी है। उपभोग के वरीयता क्रम एवं जल के मूल्य का निर्धारण राजनीतिक रूप से संवेदनशील एवं आर्थिक महत्व की प्रक्रियाएं हैं, जिनमें सरकार को जल संसाधन प्रबंधन के सभी स्तरों पर स्टेकहोल्डरों को शामिल किया जाना चाहिए।

सरकार की भूमिका तो अत्यंत महत्वपूर्ण है ही, इसके साथ ही समुदाय में स्वामित्व, उत्तरदायित्व तथा प्रबंधन में सहयोग की भावना का होना समान रूप से आवश्यक है, नहीं तो कोई भी नीति सफल नहीं हो सकती। जनता द्वारा सरकार को जल के एक उदारदानी के रूप में जानने के बजाए उसे एक प्रोत्साहक और अर्थ प्रबंधक के रूप में देखा जाना चाहिए।

सरकारी एजेंसियों द्वारा जल के विवेकपूर्ण उपयोग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए राज्य को स्थानीय समुदाय की मांग के अनुसार तकनीकी सहायता प्रदान करने में समर्थ होना चाहिए।

यद्यपि हो सकता है कि केंद्रीय शासन के पास जल संचालन का प्रत्यक्ष उत्तरदायित्व नहीं बचे, परंतु क्षेत्र में उनके लिए समन्वयन तथा नियमन का कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है।

इस कार्य में जल परीक्षण, शुल्क निर्धारण, लोक शिक्षण एवं जागरूकता, क्षमता वृद्धि हेतु सहयोग एवं प्रोत्साहन प्रदान करना तथा क्षेत्रीय व सामुदायिक समानता सुनिश्चित करना सम्मिलित है।

प्रादेशिक जल नीति, राजस्थान के सिंचाई विभाग द्वारा सन् 1999 में निर्धारित की गई। इसमें जल संबंधी प्रत्येक पक्ष सम्मिलित है। यह उल्लेखनीय है कि नीति निर्धारण से पूर्व राज्यव्यापी स्टेकहोल्डरों से परामर्श नहीं किया गया था, जो कि इस प्रकार के महत्वपूर्ण दस्तावेजों के संबंध में होना चाहिए था। तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि यह विश्व बैंक के दबाव में किया गया है। फिर भी, जबकि ऐसा महत्वपूर्ण दस्तावेज पहले कभी नहीं बना, यह एक अच्छी शुरूआत है। इस दस्तावेज के अनुसार पेयजल को प्रथम वरीयता दिया जाना उचित है।


दुर्भाग्यवश आज इस संपूर्ण सांस्कृतिक एवं तकनीकी परंपरा की धज्जियाँ उड़ रही हैं और इसके लिए भारत सरकार के अतिरिक्त और कोई भी उत्तरदायी नहीं है। केवल अकाल के समय में भारतीय माध्यम और नेतागण इन तंत्रों को याद करने की ओर प्रवृत्त होते हैं और उसके बाद शांतिपूर्वक भूल जाते हैं। तकनीकों की सहायता से पारंपरिक जल संरक्षण का पुनरुत्थान आज अति आवश्यक है। यह कम मूल्य के तकनीकी रूप से स्थाई तथा पारंपरिक साधन प्रदान करता है। यह सामुदायिक प्रबंधन और जनता के सहयोग में वृद्धि करता है। यह सरकार पर जनता की निर्भरता को कम करता है।


आर्थिक स्थायित्व

ग्रामीण जल आपूर्ति प्रणालियों हेतु न्यूनतम अनुरक्षण शुल्क लागू कर दिया जाना चाहिए, जिससे साझेदारी में वृद्धि हो और व्यवस्था में सुधार हेतु धन राशि को सुनिश्चित किया जा सके।

सेवाओं के क्रियात्मक स्थायित्व को सुनिश्चित करने हेतु जल को एक आर्थिक संसाधन मानना एक महत्वपूर्ण कदम है। पूर्व समय में अनेक व्यक्तियों ने इस बात पर जोर दिया था कि जल एवं स्वच्छता मनुष्य के स्वास्थ्य व जीवन की सुरक्षा हेतु महत्वपूर्ण है, अतः ये सेवाएं निःशुल्क प्रदान की जानी चाहिए।

इससे अधिकतर वे अमीर लोग लाभांवित हुए जो पानी की अत्यधिक मात्रा का निःशुल्क उपयोग करने की प्रवृत्ति रखते हैं। जबकि वे गरीब लोग जो बहुत कम स्थानों पर नल व्यवस्था से जुड़े हैं, जल से वंचित रह जाते हैं।

अधिकांशतः जल व स्वास्थ्य सेवाओं के निम्न स्तर के कारण लोग इनके लिए शुल्क देने के इच्छुक नहीं होते। इस कारण जल एजेंसियों की आय इतनी कम होती है कि तंत्र में सुधार नहीं किया जा सकता।

सर्वोत्तम प्रक्रियाओं के अनुसार, जल सेवाओं को प्रदान करने हेतु वांछित मूल्य प्राप्त करने के लिए सामान्यतः जल की कीमत निर्धारित करनी होगी। यह ग्रामीण राजस्थान में संभव प्रतीत नहीं होता, जहां व्यक्तियों की शुल्क प्रदान करने की क्षमता सीमित है तथा सेवाओं के स्तर को देखते हुए शुल्क लेना न्यायसंगत नहीं लगता।

फिर भी इस परिस्थिति में संपूर्ण तंत्र में लोगों की साझेदारी विकसित करने के लिए न्यूनतम मात्रा में कर लगाया जा सकता है। अतः हैंडपंपों की देखभाल, जो एक अजेय समस्या बनी हुई है, उसका समाधान उपरोक्त उपाय से संभव हो सकता है। यदि सभी लाभांवित हैंडपंपों के रख-रखाव हेतु कुछ न्यूनतम शुल्क जमा करें, तो वे कुशलतापूर्वक कार्य करने हेतु मिस्त्री पर दबाव डाल सकते हैं।

यही सिद्धांत क्षेत्रीय आपूर्ति योजनाओं हेतु अपनाया जा सकता है। शहरों में जल पर शुल्क लेने हेतु स्लैब पद्धति का प्रयोग किया जाना चाहिए। इसका अर्थ है कि 40 लीटर जल प्रति व्यक्ति प्रतिदिन समर्थन मूल्य पर वितरित किया जाना चाहिए।

इस मात्रा से अधिक जल हेतु पूरा मूल्य वसूल किया जाना चाहिए। औद्योगिक उपयोग हेतु भी समर्थन मूल्य पर वितरित जल की सीमा निश्चित की जानी चाहिए। इस प्रकार यदि जल आपूर्ति आर्थिक मूल्यों पर आधारित दरों पर की जाएगी तो जल आपूर्ति के आवश्यक स्तर को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से उपभोक्ता की प्रतिक्रिया सकारात्मक होगी।

जन-सहभागिता

पेयजल प्रबंधन में, संगठनात्मक संरचनाओं तथा जल अधिकारों पर नियंत्रण हस्तांतरण द्वारा जन सहभागिता सुनिश्चित करें। जन सहभागिता प्रचलित करने हेतु गैर-सरकारी संस्थाओं को सम्मिलित करें।

कोई भी विकास कार्य लाभांवितों की सहभागिता के बिना सफलतापूर्वक पूरा नहीं किया जा सकता। ग्रामीण जल आपूर्ति प्रणालियाँ सामान्यतः स्थानीय समुदाय की आर्थिक क्षमता और तकनीकी प्रतिस्पर्धा के अंतर्गत बने रहने के उद्देश्य से अति साधारण और कम मूल्य की हैं।

पिछले 200 वर्षों से चल रही विकास की प्रक्रिया के कारण यह माना जाने लगा है कि स्थानीय ग्रामीणों का सरकारी संपत्ति पर कोई नियंत्रण नहीं है, अतः उनका कोई उत्तरदायित्व भी नहीं है। जन सहभागिता अब भी प्राप्त की जा सकती है और इसे प्राप्त करने का सर्वोत्तम तरीका है कि लघु स्तर पर सक्रिय योजना का सफल प्रदर्शन करें, जो यह सुनिश्चित कर सके कि लाभ का अंश सभी को प्राप्त होगा और इन प्रणालियों का अनुरक्षण और संचालन सभी मिल-जुलकर करेंगे।

यद्यपि कुछ समय से जन सहभागिता का औचित्य स्वीकार कर लिया गया है और नीतियों में भी इसे स्थान दिया गया है, तथापि इसका वास्तविक प्रयोग अभी आरंभ नहीं हुआ है।

सामान्यतः पंचायती राज संस्थाओं को जन प्रतिनिधि मान कर उन्हें नियंत्रण सौंप दिया जाता है परंतु यह समझ लेना चाहिए कि पंचायती राज उच्च अधिकारी तंत्र है। किसी विकास परियोजनाओं में जन सहभागिता सुनिश्चित करना उच्च कौशल का कार्य है और उन्हीं को सुपुर्द किया जाना चाहिए जो इसमें निपुण हों। पेयजल सहित अन्य क्षेत्रों का अनुभव बताता है कि जहाँ भी गैर-सरकारी संस्थाओं को अवसर दिया गया है, वे विकास परियोजनाओं में जन सहभागिता को सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण स्तर तक सफल रही हैं।

अतः ऐसी परियोजनाओं में निर्माण एवं कार्यान्वयन की प्रक्रिया में इन संस्थाओं को सम्मिलित किया जाना चाहिए। साथ ही स्वैच्छिक संस्थाएं गरीबों को विभिन्न सेवाओं हेतु अपनी मांगें प्रतिपादित एवं प्रकट करने में सहायता कर सकती हैं।

महिला सशक्तिकरण के संदर्भ में ग्रामीण विकास विज्ञान समिति, जोधपुर द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, राजस्थान में महिलाओं में मानसिक तनाव का मूल कारण पेयजल की कमी है। महिलाओं को दूर-दूर से पानी भर कर लाते हुए देखना असामान्य बात नहीं है।

गाँवों में महिला सहभागिता सुनिश्चित करने हेतु इनके समूह बनाए जाने चाहिए। प्रत्येक स्तर पर महिलाओं को कार्यक्रम का महत्वपूर्ण अंश मानते हुए उनसे परामर्श लिया जाना चाहिए।

चूंकि महिलाएं ही पानी भर कर लाती हैं, उन्हें जल के संबंध में, जल जनित रोगों एवं उनके निदान और जीवन के सामाजिक पक्षों पर प्रशिक्षण प्रदान करने पर जोर दिया जाना चाहिए। महिलाओं की भागीदारी और उन्हें दिए जाने वाले महत्व के कारण उनमें आत्मविश्वास उत्पन्न होगा और वे आत्मनिर्भर बनेंगी।

जल अधिकार जल पर सरकार का नियंत्रण कम करके जनता और समुदायों को इस संसाधन का क्षेत्राधिकार दे देना चाहिए। जनता को प्रबंधन, अनुरक्षण तथा उपलब्ध जल के वितरण का अधिकार होना चाहिए। सरकार को इस तंत्र के मात्र प्रवर्तक के रूप में देखा जाना चाहिए, नियंत्रक के रूप में नहीं।

जल संरक्षण

उचित सरकारी नीतियों, अधिनियमों और जागृति अभियानों के माध्यम से जल संरक्षण को उच्चतम संभावित सीमा तक बढ़ाएं।

मानसून जल के पारितोषिक के बिना मानव समाज वृद्धि नहीं कर सकता। भारतीय जनता को उपलब्ध संसाधनों के अनुसार वर्षा जल से लेकर भूजल तक जलधारा से लेकर नदी एवं बाढ़ के पानी तक पानी के प्रत्येक संभव रूप को संरक्षित करने हेतु तकनीकों की एक श्रेणी विकसित की गई है। विशेषतया शुष्क व अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों मे जहाँ जल धाराएँ मौसमी हैं और पानी की कमी पूरे वर्ष रहती है, सर्वप्रथम नहरों की शाखाओं को संग्रहण संरचनाओं की ओर निर्देशित कर दिया गया।

बाढ़ग्रस्त मैदानों में लोगों ने बाढ़ के खतरनाक जल के उपयोग हेतु उत्तम तकनीकें विकसित की, जो की न केवल खेतों की सिंचाई में प्रयुक्त की गई वरन खेतों को उपजाऊ बनाने तथा मलेरिया जैसे रोगों पर नियंत्रण रखने (बाढ़ के पानी में उत्पन्न मछलियों का उपयोग करके, जो मच्छरों के लार्वा को खा जाती हैं) के कार्य में भी सहायक सिद्ध हुई।

तटीय क्षेत्रों में भी, जहाँ तटीय लहरें समय-समय पर नदी जल को खारा बना देती हैं, जिससे वह कृषि के लिए अनुपयुक्त हो जाता है, लोगों ने आकर्षक साधन विकसित किए हैं।

जब कोई विकल्प उपलब्ध नहीं थे, जनता ने अपनी जीविका हेतु वर्षा जल पर निर्भर रहना सीख लिया। वर्षा जल को एकत्रित करके उसका उपयोग सिंचाई एवं पीने हेतु करने के उद्देश्य से विभिन्न देशी तकनीकें विकसित की गई।

दुर्भाग्यवश आज इस संपूर्ण सांस्कृतिक एवं तकनीकी परंपरा की धज्जियाँ उड़ रही हैं और इसके लिए भारत सरकार के अतिरिक्त और कोई भी उत्तरदायी नहीं है। केवल अकाल के समय में भारतीय माध्यम और नेतागण इन तंत्रों को याद करने की ओर प्रवृत्त होते हैं और उसके बाद शांतिपूर्वक भूल जाते हैं।

तकनीकों की सहायता से पारंपरिक जल संरक्षण का पुनरुत्थान आज अति आवश्यक है। यह कम मूल्य के तकनीकी रूप से स्थाई तथा पारंपरिक साधन प्रदान करता है।

यह सामुदायिक प्रबंधन और जनता के सहयोग में वृद्धि करता है। यह सरकार पर जनता की निर्भरता को कम करता है। पारंपरिक जल संग्रहण प्रणालियाँ उन स्थानीय परिस्थितियों एवं विशिष्ट वातावरणों के उपयुक्त पाई गई, जहां वे विकसित हुई थी। हजारों भारतीय गाँवों में आज भी कोई स्थानीय जल स्रोत नहीं है।

मानसून की अनियमितता, सतही जल स्रोत की असामयिकता और पाइप द्वारा जल आपूर्ति में होने वाला व्यय सभी दर्शाते हैं कि जल संरक्षण संरचनाएं जनता की मांगों की पूर्ति में सहायक सिद्ध होंगी।

नीतिगत स्तर पर पारंपरिक जल संरक्षण संरचनाओं के पुनरुत्थान और जल पुनर्भरण हेतु कुछ सुझाव निम्नलिखित हैं :-

1. जल संरचनाओं के कैचमेंट क्षेत्र में खानों हेतु दिए गए पट्टे निरस्त किए जाएँ और खान क्षेत्र के अपशिष्ट के प्रबंध हेतु एक नीति निर्धारित करें। अव्यवस्थित खनन वर्षा जल में रुकावट पैदा करता है, ऊपरी मृदा को नष्ट करता है और वनस्पति को हटाता है।

राजस्थान उच्च न्यायालय ने जोधपुर के जल संग्रहण तंत्र पर खनन के दुष्प्रभावों का अध्ययन करने हेतु एक समिति का गठन किया। समिति ने यह पाया कि कैचमेंट क्षेत्र निरंतर व अव्यवस्थित बालू-पत्थर खनन के कारण उजड़ रहे हैं। नहरें एवं जल धारी संरचनाएं खनन के कारण नष्ट होती जा रही हैं। खनन अपशिष्ट और पत्थर के मलबे के अव्यवस्थित रूप से एकत्रित होने के कारण वर्षा जल व पर्यावरण तंत्र में बाधा उत्पन्न हो जाती है।

खानें एक प्रकार के गड्ढों के समान हैं, जिनमें रोग-उत्पन्न करने वाले मच्छर उत्पन्न होते हैं। जल स्तर भी इस मानव निर्मित विपत्तियुक्त खनन के कारण गिरता जा रहा है।

अव्यवस्थित खनन को दर्शाने वाला एक और उदाहरण जिला राजसमंद का है। पहली बार प्रख्यात राजसमंद झील इस वर्ष पूर्ण रूप से सूख गई है। यह घटना इसके कैटमेंट में अनियंत्रित खनन को प्रत्यक्ष रूप से प्रकट करती है।

2. कैचमेंट एवं नहरों के किनारों पर स्थित सभी पत्थर खानों का लाइसेंस शीघ्र ही निरस्त करना अति आवश्यक है। खानों के सभी लाइसेंसों को पी.एच.ई.डी. के उपयुक्त अभियंता के माध्यम से जारी किया जाना चाहिए और उससे अनापत्ति प्रमाण पत्र प्राप्त करना चाहिए।

3. विभिन्न तकनीकों द्वारा भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण को उन्नत करना चाहिए। शहरी क्षेत्रों में इसे आवश्यक बना देना चाहिए। बीसवीं सदी के मध्य तक पुनर्भरण की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई क्योंकि भूजल दोहन सीमित था।

ग्रीष्म ऋतु में कुओं के तेजी से गिरते हुए जलस्तर के कारण बारहमासी नदियों की आयु अल्प होती जा रही है। जल विकास की तकनीकों में सुधार के कारण जल स्तर और भी कम हो गया है। भूजल का कृत्रिम पुनर्भरण एक महत्वपूर्ण पक्ष है क्योंकि यह संग्रहण के लिए निःशुल्क स्थान प्रदान करता है।

नागरिक समाज को प्रेरित करना

नागरिक समाज के विभिन्न कार्यकर्ताओं, जैसे शैक्षणिक वर्गों और गैर-सरकारी संस्थाओं को पेयजल प्रबंधन में सक्रिय रूप से सम्मिलित करना चाहिए।

यह स्पष्ट हैं कि पेयजल प्रबंधन एक महत्वपूर्ण विषय है जिसे अकेले सरकार पर नहीं छोड़ा जा सकता। नागरिक समाज से अन्य विभिन्न स्टेकहोल्डरों को भी इसमें सम्मिलित किया जाना चाहिए। विभिन्न क्षेत्रों में स्थाई एवं उपयुक्त विकास हेतु नीतियों एवं परियोजनाओं को क्रियान्वित करने में स्वयंसेवी संस्थाएं एवं गैर सरकारी संस्थाएं, सरकार एवं जनता के मध्य उत्तप्रेरक का कार्य कर सकती हैं।

ये संस्थाएं मूल स्तर पर लंबे समय से कार्यरत होती हैं तथा इन्हें स्थानीय परिस्थिति का ज्ञान, समुदायों का सम्मान एवं विश्वास प्राप्त होता है। निम्नलिखित गतिविधियाँ हैं जिनमें स्वयंसेवी संस्थाएं एवं गैर-सरकारी संस्थाएं जल के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती हैं।

1. जल संबंधी विषयों, जैसे जमीन पर क्या उगाएँ, लघु सिंचाई, दुर्लभ जल का सार्थक उपयोग और जल संग्रहण के औचित्य पर चेतना व संवेदना को जगाना।

2. जल की प्रति ईकाई उत्पादन, फसल हेतु आवश्यक जल की मात्रा, खारे जल का उपयोग संसाधनों का मूल्य निर्धारण, जल संग्रहण की प्रासंगिकता तथा उस क्षेत्र में पेयजल विकास हेतु प्रस्तावित संरचनाओं की उपयुक्तता का अध्ययन करना।

3. उचित प्रलेखन तथा जल संसाधनों से संबंधित विषयों और उनकी प्रवृत्ति तथा संसाधनों के विकास और जलधारकों के पुनर्भरण हेतु जल संग्रहण संरचनाओं के लिए उचित क्षेत्रों की पहचान से संबंधित सूचनाओं को एकत्रित करके डाटा बैंक का निर्माण करना।

4. सहभागी विकास हेतु ज्ञान कौशल और प्रवृत्तियों में वृद्धि करने के लिए जन प्रशिक्षण।

5. संसाधनों के बेहतर प्रबंधन एवं न्याय संगत वितरण हेतु जल उपभोक्ता समूहों/समुदायों का निर्माण करना। स्थानीय जनता को जल प्रबंधन तंत्र में शामिल करने हेतु प्रभावी उपक्रम का विकास।

6. कम मूल्य पर परियोजना कार्यान्वयन।

नगरीय बनाम ग्रामीण

नगरीय एवं ग्रामीण क्षेत्रों को सुरक्षित पेयजल उपलब्धता में निहित अंतर को कम करने के उद्देश्य से चल रही ग्रामीण जल-आपूर्ति योजनाओं को अधिक मात्रा में आर्थिक सहायता प्रदान करना।

रेगिस्तानी क्षेत्रों में सुरक्षित जल एक मूल्यवान उपभोग की वस्तु है। वे गरीब लोग जिनके पास स्वयं के जल स्रोत नहीं होते, वे पानी के लिए बड़ी कीमत चुकाते हैं। इन्हें स्वयं एवं पशुओं हेतु दस पैसे से पंद्रह पैसे लीटर की दर से पानी खरीदना पड़ता है।

एक अनुमान के अनुसार गरीबों की 35 से 40 प्रतिशत आय (450 रु. से 1000 रु. प्रति माह) पेयजल खरीदने में व्यय हो जाती है। इसकी तुलना में शहरों में जल पर बहुत कम व्यय किया जाता है। इसके अतिरिक्त अमीर व्यक्ति गरीबों से बीस गुणा अधिक जल का उपभोग करते हैं।

शहरी क्षेत्रों में अधिकांश व्यक्ति जल का वास्तविक मूल्य नहीं समझते और उसका अनेक प्रकार से अपव्यय करते हैं। शहरी नागरिकों से जल की कीमत वसूलने हेतु स्लैब विधि का प्रयोग करना चाहिए, जिससे वे इसके वास्तविक मूल्य को समझ सकें एवं इसका विवेकपूर्ण उपयोग करें।

वे सार्वजनिक एजेंसियाँ जिनके सुपुर्द पेयजल प्रबंध का प्रावधान है, शहरी क्षेत्रों पर अधिक ध्यान देती हैं। उनकी अधिकांश निधि का उपयोग शहरी क्षेत्रों में जल तंत्र को उन्नत करने में किया जाता है।

यह विधि ग्रामीण क्षेत्रों मे निवास करने वाली करीब 70 प्रतिशत जनता के साथ विभेद करती है। प्रदत्त निधि को शहरी क्षेत्रों से ग्रामीण क्षेत्रों की ओर मोड़ देना चाहिए।

बड़ा सर्वोत्तम है एक भ्रांति

स्थानीय स्रोतों पर निर्भर करें जो अपेक्षाकृत सस्ते वातावरण के अनुकूल हैं।

जनता को पेयजल आपूर्ति हेतु दूरस्थ स्रोतों पर निर्भरता की प्रवृत्ति बढ़ गई है। इसके साथ पारंपरिक प्रणालियों की उपेक्षा की जाती रही है। अतः जोधपुर को पेयजल आपूर्ति इंदिरा गांधी नहर परियोजना की लिफ्ट नहर से की जाती है और शहर का पारंपरिक तालाबों एवं कुंडों का तंत्र नष्ट होता जा रहा है। पी.एच.ई.डी. जैसे तकनीकी विभागों की प्रवृत्ति बड़ी तकनीकी-केंद्रित परियोजनाओं की ओर आकर्षित होने की है।

पी.एच.ई.डी. के अनुमान के अनुसार जोधपुर शहर के विभिन्न स्रोतों से 1 मिलियन क्यूबिक फीट जल प्राप्त करने की कीमत निम्नानुसार है-

अ. स्थानीय जल स्रोतों से 4000 रु.
ब. जवाई- हेमावास नहर 45,000 रु.
स. इंदिरा गांधी लिफ्ट नहर 1,84,000 रु.


यह स्पष्ट है कि स्थानीय प्रणाली सर्वोत्तम एवं सबसे सस्ती है। यह सच है कि सभी स्थितियों में जल प्रबंधन हेतु लघु योजनाओं को बड़े बांधों का विकल्प नहीं माना जा सकता परंतु बड़ा सदैव सर्वोत्तमहोता है, जैसी परिकल्पना पर उस समय प्रश्नचिन्ह लगाया जा सकता है जब छोटे बांधों, बन्धों एवं टाँकों के निर्माण द्वारा जल संसाधनों का उपयोग किया जाता है। ऐसे क्षेत्रों में विकास हेतु बिना कोई मूल्य चुकाए, लोगों के जीवन एवं वातावरण में परिवर्तन हुआ है। बड़ा ही सर्वोत्तम हैकी परिकल्पना से हट कर लाभांवितों हेतु लघु, परिणामोन्मुख, तकनीकी रूप से सुदृढ़ और सतत रूप से चलने वाली परियोजनाओं को कार्यान्वित करने का समय आ गया है।

स्वास्थ्य के क्षेत्र में अभिनव पहल

गांवों में डाक्टरों को भेजने के लिए कम से कम एक साल ग्रामीण क्षेत्र के किसी अस्पताल में सेवा देने की शर्त अनिवार्य किए जाने के बाद भी स्थिति नहीं बदल सकी। वजह यह कि गांवों के बारे में आज भी आधुनिक जीवन शैली में पले-पढ़े लोगों का नजरिया नहीं बदला है जबकि पहले की तुलना में ग्रामीण परिवेश काफी बदल चुका है। गांव पहले वाले गांव नहीं रहे। गांवों में बुनियादी सुविधाएं बढ़ी हैं और संचार सुविधाओं के पहुंचने से  गांव की जीवन शैली में भी काफी बदलाव आया है। डाक्टरों को गांवों में शहरों की अपेक्षा अधिक मान-सम्मान  मिल रहा है। गांवों के बारे में डाक्टरों को अपना मानस बदलने की आवश्यकता है। इस दिशा में सरकार ने एक अभिनव पहल की है। अब सरकार विशेषज्ञ चिकित्सकों को गांवों के अस्पतालों में भेजेगी। इसके लिए डाक्टरों को अलग से भुगतान किया जाएगा और गांवों में जाकर विभिन्न बीमारियों से पीड़ित लोगों का उपचार करेंगे। इनमें हृदय रोग, कैंसर, हड्डी रोग तथा इसी तरह के अन्य विशेषज्ञ चिकित्सक होंगे। सरकार ने ऐसे विशेषज्ञ डाक्टरों का एक विस्तृत पैनल तैयार करने जा रही है जो ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर सेवाएं दे सकते हैं। इसमें निजी चिकित्सा संस्थानों के डाक्टर भी होंगे। पीड़ितों को बेहतर इलाज की सुविधा उपलब्ध कराने की इस कल्याणकारी कार्यक्रम में विशेषज्ञ डाक्टरों ने रूचि दिखाई तो राज्य में चिकित्सा के क्षेत्र में यह क्रांतिकारी कदम साबित हो सकता है। फिलहाल ग्रामीण गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए जिला अस्पतालों पर निर्भर हैं। कई बार दूरी उनके लिए बाधक बन जाती है तो कई जिला अस्पतालों में विशेषज्ञ डाक्टरों के उपलब्ध नहीं होने से उन्हें निराश लौटना पड़ता है। इस तरह के सरकारी कार्यक्रम कई बार लागू करने के तरीके की व्यवहारिकता पर खरा नहीं उतर पाते। स्वास्थ्य सुरक्षा बीमा वाली स्मार्ट कार्ड योजना में भी अड़चनें आई थीं। निजी चिकित्सा संस्थानों ने इसे मानने से इनकार कर दिया था और मरीज अपना इलाज नहीं करा पा रहे थे। आज भी कुछ चिकित्सा संस्थान स्मार्ट कार्ड पर विशेषज्ञ सेवाएं उपलब्ध कराने में नाक-भौं सिकोड़ते हैं। कुछ तो अपनी शर्त पर लाचार मरीज से अंतर की राशि वसूल करने में परहेज नहीं  कर रहे हैं। ऐसे में संदेह होता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में विशेषज्ञ डाक्टरों की सेवाएं उपलब्ध कराने के सरकार के इस कार्यक्रम को अपेक्षित सफलता मिल भी सकेगी या नहीं। अब यह सरकार की दूरदर्शिता पर है कि वह इस कार्यक्रम के लिए कैसा आकर्षक प्रस्ताव इन डाक्टरों के सामने रख पाती है। कार्यक्रम का उद्देश्य काफी अच्छा है और इसकी सफलता के लिए हर बिन्दु पर सरकार को व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना होगा।

बांग्लादेश की भयावह तस्वीर

बांग्लादेश में चुनाव बाद की हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है। इस हिंसा के सबसे अधिक शिकार हिंदू हो रहे हैं। बांग्लादेश में पिछले माह आम चुनाव हुआ था। उसके बाद कट्टरपंथियों के हमले में ढाई सौ लोग हताहत हुए हैं। एक बांग्ला दैनिक के मुताबिक इस दौरान अल्पसंख्यकों के पांच सौ घरों में आग लगाई गई है। बांग्लादेश के हिंदू व बौद्धों की सबसे अधिक आबादी दौचंगा, मेहरपुर, जेसोर और डोनाइडाह जिलों में है और उन पर हमले भी वहीं हो रहे हैं। एक समाचार पत्र में प्रकाशित खबर का शीर्षक है-चंपातला में सिर्फ रुदन। इसमें बताया गया है कि चुनाव के बाद किस तरह जमात-ए-इस्लामी तथा बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के समर्थकों ने जेसोर जिले के चंपातला में हिंदू परिवारों पर अत्याचार किए और महिलाओं के साथ ज्यादती की। कालीगंज, टाला और कलरवा में प्राय: सभी हिंदुओं के घरों को आग लगा दी गई। 1बांग्लादेश के कट्टरपंथी इसलिए भी अल्पसंख्यकों से इस समय चिढ़े हैं, क्योंकि उनके चुनाव बहिष्कार के बावजूद अल्पसंख्यकों ने मतदान में हिस्सा लिया। बांग्लादेश में अल्पसंख्यक अवामी लीग के समर्थक माने जाते हैं, इसीलिए जमात-ए-इस्लामी तथा बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के कट्टरपंथियों के निशाने पर वे ही हैं। बांग्लादेश में हिंदू नागरिकों की आबादी आज सवा करोड़ है और उसमें 72 लाख वोटर हैं, जो तीन सौ में 22 से 25 प्रतिशत संसदीय सीटों पर अहम भूमिका अदा करते हैं और इन्हीं संसदीय क्षेत्रों में उन पर जुल्म ढाया जाता है। जिस तरह 2014 में उन पर जुल्म ढाया जा रहा है उसी तरह का जुल्म 1992 में भी किया गया था। तब बांग्लादेश में हिंदुओं के 28 हजार घरों, 2200 वाणिज्यिक उद्यमों और 3600 मंदिरों को क्षतिग्रस्त किया गया था। हिंदुओं पर अत्याचार रोकने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री खालिदा जिया ने कोई कोशिश नहीं की थी। 2001 के संसदीय चुनाव के दौरान भी अल्पसंख्यकों पर जमकर हमले हुए। हर बार की तरह इस बार भी कट्टरपंथियों के हमले से बचने के लिए हजारों बांग्लादेशी हिंदू भागकर पश्चिम बंगाल के उत्तारी 24 परगना, नदिया, दक्षिण दिनाजपुर में आश्रय लिए हुए हैं। उस पार से जो हिंदू इस पार आ गए वे कभी नहीं लौटे। बांग्लादेश के हिंदू शरणार्थी भी बंगाल और अन्यत्र आकर सम्मानपूर्वक रह लेते हैं, दिहाड़ी मजदूरी करते हैं, फेरी लगाते हैं, रिक्शा खींचते हैं और तरह-तरह के काम कर पैसा कमाकर जीवन काटते हैं, किंतु उस पार लौटने की सपने में भी नहीं सोचते। 1बांग्लादेश के लेखक सलाम आजाद ने अपनी किताब में जो आंकड़े दिए हैं वे भयावह तस्वीर पेश करते हैं। सलाम आजाद ने लिखा है कि कट्टरपंथी संगठनों के अत्याचार से तंग आकर 1974 से 1991 के बीच प्रतिदिन औसतन 475 लोग यानी हर साल एक लाख 73 हजार 375 हिंदू हमेशा के लिए बांग्लादेश छोड़ने को बाध्य हुए। यदि उनका पलायन नहीं हुआ होता तो आज बांग्लादेश में हिंदू नागरिकों की आबादी सवा तीन करोड़ होती। 1941 में पूर्वी पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी 28 प्रतिशत थी, जो 1951 में 22 प्रतिशत, 1961 में 18.5 प्रतिशत, 1974 में 13.5 प्रतिशत, 1981 में 12.13 प्रतिशत, 1991 में 11.6 प्रतिशत, 2001 में 9.6 प्रतिशत और 2011 में घटकर 8.2 प्रतिशत हो गई। सलाम आजाद ने लिखा है कि बांग्लादेश के हिंदुओं के पास तीन ही रास्ते हैं-या तो वे आत्महत्या कर लें या मतांतरण कर लें या पलायन कर जाएं। बांग्लादेश में शत्रु अर्पित संपत्तिकानून, देवोत्तार संपत्तिपर कब्जे ने अल्पसंख्यकों को कहीं का नहीं छोड़ा है। इसके अलावा उस पार हिंदुओं को भारत का समर्थक या एजेंट, काफिर कहकर प्रताड़ित किया जाता है। इसे बांग्लादेश से हिंदुओं को भगाने के जेहाद के रूप में भी देखा जा सकता है। जिस तरह वहां के कट्टरपंथी तत्व हिंदुओं और बौद्धों पर आक्त्रमण कर रहे हैं उसका मकसद देश को अल्पसंख्यकों से पूरी तरह खाली कराना है। पंथनिरपेक्षता के पैरोकार इस मामले पर क्यों खामोश हैं? क्या यह दुखद नहीं कि मौजूदा प्रधानमंत्री शेख हसीना भी वहां अल्पसंख्यकों की रक्षा नहीं कर पा रही हैं? जो लोग बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के विरोधी थे, जिन्होंने मुक्ति संग्राम लड़ने वाले तीस लाख लोगों को मार डाला, तीन लाख महिलाओं के साथ दुष्कर्म किया, तीन हजार भारतीय सैनिकों को मार डाला उसी जमाते इस्लामी के लोग साल भर से अराजकता फैलाने में जुटे हैं। जमाते इस्लामी के कट्टरपंथियों ने मुक्ति संग्राम के दौरान सौ से ज्यादा बुद्धिजीवियों को मार डाला था। यदि बांग्लादेश को आजादी मिलने में और हफ्ता भर की देरी होती तो बचे हुए बुद्धिजीवियों को भी उन्होंने मार दिया होता। 1अब जमाते इस्लामी के वही कट्टरपंथी बचे हुए हिंदुओं को खत्म कर देना चाहते हैं। वे बांग्लादेश को एक दूसरा पाकिस्तान बनाना चाहते हैं। अब सवाल यह है कि बांग्लादेश के हिंदू क्या करें? रास्ता कैसे निकलेगा? इसका जवाब यही है कि रास्ता तभी निकलेगा जब बांग्लादेश में सांप्रदायिक राजनीति को निषिद्ध किया जाए। राष्ट्र सबका है, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान। कहने की जरूरत नहीं कि आज सबसे बड़ी चिंता दुनिया में हर जगह बहुसंख्यक द्वारा अल्पसंख्यक का सांप्रदायिक उत्पीड़न है। कहीं भी सांप्रदायिक उत्पीड़न के शिकार निरीह लोग ही हैं। इस समय दुनिया कट्टरता के जिस खतरे से जूझ रही है उसका सामना यदि सही तरह नहीं किया गया तो स्थितियां और अधिक बिगड़ेंगी। अमेरिका जिस तरीके से कट्टरता को समाप्त करना चाहता है उससे सहमत नहीं हुआ जा सकता। उसके तरीके से भी निरीह लोग ही मारे जाते हैं। इराक और अफगानिस्तान में दुनिया इसे देख चुकी है।

शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

पूंजीवादी युग में कट्टरपंथ की वजह

जब दुनिया पूरी तरह से पूंजीवाद की उंगली पकड़कर बाजार की गलियों में चलने के लिए तैयार हुई थी तो यह उम्मीद जगाई गई थी कि दुनिया से धर्म, नस्ल या संस्कृति के पारम्परिक सरोकारों का स्थान पूंजीवादी उदारवाद ग्रहण कर लेगा और फिर वह उन रिक्तियों को भरने का कार्य करेगा जो इनके मध्य टकरावों का निर्माण करती हैं। महत्वपूर्ण बात तो यह है कि पूंजीवाद ने तो अपना प्रभाव पूरी तरह से जमा लिया और  बाजार कुछ इतनी खुली गलियाें का निर्माण कर लिया जिनके किनारों का तलाशना मुश्किल है। खास बात यह है कि बहुत हद तक धर्म भी बाजार के रंग में रंगा लेकिन उसकी परम्परागत प्रकृति बदलाव और कट्टरपंथी उभारों में कमी नहीं  आई परिणाम यह हुआ कि दुनिया आगे बढ़ने के क्रम में टकराव की ओर बढ़ती चली गई। सवाल यह उठता है कि ऐसा क्यों हुआ? बाजार स्वातंत्र्य तथा विज्ञान और तकनीक के इस आधुनिक युग में धर्म के नाम मानवता की हत्या में वृध्दि क्यों? क्या यह सभ्यताओं या फिर संस्कृतियों का टकराव है अथवा आधुनिक युग की विकृत होती मानसिकता का पर्याय? या फिर यह मान लें कि बाजारवाद पूंजीवाद के आगमन के बाद धार्मिक कट्टरपंथ उसके द्वारा आच्छादित नहीं हुआ, बल्कि उससे प्रेरित और उत्तेजित हुआ? लेकिन क्यों?

पिछले दिनों अमेरिका की एक रिसर्च इंस्टीटयूट पिउ रिसर्च सेंटर ने दुनिया के 198 देशों को अपनी एक स्टडी के माध्यम से बताया है कि उन देशों की संख्या, जिनमें धर्म की वजह से उच्च या अति उच्च लेवल का सामाजिक टकराव बढ़ा है, पिछले छह वर्षों (वर्ष 2007 से 2012) में शिखर पर पहुंच गई है। उल्लेखनीय है दुनिया में धार्मिक टकराव को लेकर पिउ रिसर्च सेंटर द्वारा जारी यह पांचवीं स्टडी रिपोर्ट हैं जिसमें उसने कुछ प्रमुख इंडेक्सेज को लेकर ये निष्कर्ष निकाले हैं।  इनमें एक है जीआरआई (गवर्नमेंट रिस्ट्रिक्शन इंडेक्स) और दूसरा है एसएचआई  (सोशल होस्टैलिटीज इंडेक्स)। इन स्केल्स के अनुसार दुनिया के 198 देशों में से 33 प्रतिशत देश और टेरिटोरीज वर्ष 2012 में उच्च स्तर के धार्मिक टकराव में शामिल थीं, जिनकी संख्या वर्ष 2011 में 29 प्रतिशत और मध्य 2007 में 20 प्रतिशत थी। विशेष बात तो यह है कि रिसर्च के अनुसार अमेरिका को छोड़कर दुनिया के प्रत्येक प्रमुख क्षेत्र में धार्मिक टकराव बढ़ा है। मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में इस तरह के टकराव में सबसे तेजी से वृध्दि हुई है जिसका कारण सम्भवत: वर्ष 2010-11 का अरब स्प्रिंग नाम का वह राजनीतिक विद्रोह है जिसने सत्ता परिवर्तन के लिए मार्ग भी प्रशस्त किया। लेकिन एशिया-पेसिफिक क्षेत्र का धार्मिक टकराव का बढ़ना और विशेषकर चीन का इस मामले में पहली बार 'हाई कैटेगरी' के स्तर पर पहुंचना, ध्यान देने योग्य बात है।

रिसर्च पर ध्यान दें तो पता चलेगा कि दुनिया भर में धार्मिक शत्रुता के एक जैसे उदाहरण सामने नहीं आए हैं, बल्कि उनकी प्रकृति भिन्न-भिन्न है। कहीं पर धार्मिक शत्रुता माइनारिटीज और मैजारिटीज के बीच टकराव के रूप में सामने आई है तो कहीं पर माइनारिटीज के साथ दर्ुव्यवहार के रूप में। कहीं पर यह अपने ही धर्म के अनुयाईयों के खिलाफ कोड ऑफ कंडक्ट का पालन कराने के लिए हमलावर होती दिखी है तो कहीं पर महिलाओं की यूनिफार्म को लेकर। कहीं पर यह शत्रुता एक धर्म द्वारा दूसरे धर्म के लोगों या उनकी संस्थाओं पर हमले के रूप में दिखी है तो कहीं पर साम्प्रदायिक दंगों के रूप में। इनसे जुड़े कुछ महत्वपूर्ण उदाहरणों के रूप में लीबिया और सीरिया में कॉप्टिक आर्थोडॉक्स ईसाईयों पर हमला; सोमालिया में कट्टरपंथी आतंकी संगठन अल-शबाब द्वारा अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों के लोगों को धार्मिक नियमों का पालने कराने (यह संगठन सिनेमा, संगीत, स्मोकिंग, दाढ़ी बनाने आदि को गैर-इस्लामी मानता है) के लिए हमला, अमेरिका में सिख गुरुद्वारे पर ईसाईयों का हमला; चीन में झिनझियांग में हान चीनियों द्वारा उइगर मुसलमानों पर हमला; तिब्बत में बौध्दों द्वारा 'हुइ मुसलामनों' पर हमला, म्यांमार में राखिन प्रांत में बौध्दों का रोहिंग्या मुसलमानों का हमला, पाकिस्तान में हिन्दुओं पर हमला... आदि को देखा जा सकता है। इस प्रकार के धार्मिक टकरावों में मैजारिटीज द्वारा माइनारिटीज के साथ किए गए दर्ुव्यवहारों में सबसे यादा वृध्दि हुई है ( 2011 के 38 प्रतिशत के मुकाबले 2012 में 47 प्रतिशत), दूसरे स्थान पर कोड ऑफ कंडक्ट का पालन कराने के लिए प्रयुक्त हिंसा है (2011 के 33 प्रतिशत के मुकाबले 2012 में 39 प्रतिशत) जबकि तीसरे स्थान पर महिलाओं के धार्मिक यूनिफार्म को लेकर (2011 के 25 प्रतिशत के मुकाबले 2012 में 32 प्रतिशत जबकि 2007 में यह संख्या 7 प्रतिशत थी) हुए हमले हैं। धार्मिक नियमों का पालन न करने पर डराना या हिंसा करने के मामले में भारत को भी इस रिपोर्ट में शामिल किया गया है। हालांकि रिसर्च स्टडी में बंगलादेश का नाम नहीं है, लेकिन इस समय बंगलादेश में भी हिंदुओं की स्थिति बेहद तकलीफदेह है। बीते 5 जनवरी को बंगलादेश में हुए जनरल इलेक्शन का बीएनपी और जमाते इस्लामी द्वारा किए बायकॉट आह्वान के बाद भी हिन्दुओं ने इलेक्शन में भाग लिया जिसकी भारी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी। खुद बंगलादेश के अखबारों ने लिखा है कि ठाकुरगांव, दिनाजपुर, रंगपुर, बोगरा, लालमोनिरहाट, गायबंधा, राजशाही, चटगांव और जेसोर जिलों में जितने बड़े पैमाने पर तथा जिस बेरहमी के साथ हिंदू परिवारों, उनके घर और ठिकानों पर हमले हुए हैं, उससे 1971 में पाकिस्तान समर्थक समूहों द्वारा दिखाई गई बर्बरता की यादें ताजा हो गई हैं। वास्तव में इस संदर्भ में पाकिस्तान से आने वाली खबरों को भी जोड़ कर देखें तो देश के बंटवारे के 66 वर्ष बाद पाकिस्तान और बंगलादेश में अल्पसंख्यकों की हालत को लेकर लाचारी का आलम नजर आता है। पाकिस्तान हिंदू काउंसिल नामक संस्था की रिपोटर्ें बताती हैं कि वहां हिंदू लड़कियों के अपहरण और जबरन विवाह तथा हिंदुओं के अंत्येष्टि स्थलों पर कब्जे की घटनाएं बेलगाम जारी हैं।

बहरहाल हमलों की प्रकृति को देखने से एक बात साफ पता चलती है कि यूरोप, अमेरिका और कुछ हद तक श्रीलंका में हमलों का स्वरूप संस्थागत अधिक रहा इसलिए वहां इस टकराव का कारण या तो आर्थिक है अथवा राजनीतिक। पाकिस्तान में हिंदुओं के खिलाफ हिंसा और म्यांमार में रोहिंग्याओं के खिलाफ हिंसा का कारण धार्मिक विद्वेष अधिक रहा जिसके लिए वहां के कट्टरपंथी समूहों के साथ-साथ राजनीतिक सरकारें कहीं अधिक दोषी हैं। इराक में शिया-सुन्नी टकराव और अल्जीरिया में मुस्लिम-ईसाई टकराव का पक्ष दूसरा है और वहां पर पूरी तरह  से नवउपनिवेशवाद और बहुत हद तक अमेरिकी हस्तक्षेप इसका इस धार्मिक टकराव का कारण है। लेकिन सोमालिया आदि में जो धार्मिक उत्पीड़न हो रहा है वहां पर दबे-कुचले और जीवन के मूलभूत संसाधनों से वंचित लोग इसका शिकार हो रहे हैं, जिसका मूल कारण देश में अक्षम गवर्नेंस की उपस्थिति या गवर्नेंस की अनुपस्थिति, पश्चिमी हस्तक्षेप, कट्टरपंथी समूहों का ताकतवर होना है।


कुल मिलाकर भले ही हम यह कह लें कि हम एक उदार दुनिया का निर्माण करने की ओर बढ़ रहे हैं, हम आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं या हम सभ्यता की एक घनी चादर का निर्माण करने में सफल हैं अथवा हमने उदार लोकतांत्रिक संस्थाओं का निर्माण करने में सफलता अर्जित की है जो धर्म के द्वारा नहीं बल्कि धर्म को नियंत्रित कर आधुनिक कानूनों द्वारा चलती हैं, लेकिन यह स्टडी इन दावों को पूरी तरह से खारिज करती दिख रही है। पूरी दुनिया में धार्मिक उन्माद या धर्म अथवा नस्लवादी हिंसा की लगातार होती वृध्दि के बावजूद क्या यह मान लिया जाए कि हम वास्तव में आधुनिक युग का एक हिस्सा हैं? सामान्य अवधारणाएं चाहे जिस रूप में व्यक्त हों लेकिन इसका एक पक्ष यह है कि जैसे-जैसे दुनिया असमान विकास की तरफ खिसकती जाएगी, वैसे-वैसे आर्थिक अक्षमता के उप-उत्पादों के रूप में धार्मिक, सांस्कृतिक अथवा नस्लीय टकरावों की संख्या बढ़ेगी। तब क्या यह कहा जा सकता है कि बाजारवादी पूंजीवाद जैसे-जैसे परिपक्व  होगा, वैसे-वैसे मध्यकालीन या औपनिवेशिककालीन प्रत्ययों की भूमिका नये किस्म के टकरावों में बढ़ती जाएगी

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