शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

चिंता विश्व शांति की या इजराइली सुरक्षा की

गत वर्ष 24 नवम्बर को जब 'ई3 , 3' (ईयू के तीन देश-ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी तथा अमेरिका, रूस और चीन) तथा ईरान' 'रेसीप्रोकल मीजर्स' खोजने में सफल हुए थे  लेकिन तब इत्मीनान नहीं हो पाया था कि ईरान अपना यूरेनियम एनरिचमेंट कार्यक्रम वास्तव में बंद कर देगा। लेकिन इसकी उम्मीद थी क्योंकि यह मालूम था कि ईरान और अधिक समय तक अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों का सामना या तो कर नहीं पाएगा या फिर उसे भारी नुकसान उठाना पड़ेगा।  हालांकि उस समय यह प्रश्न भी उठा था कि आखिर पश्चिमी विश्व ने जिस तरह से ईरान के सम्भावित बम को दुनिया के सामने सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश करने की कयावद की, वैसी कवायद पाकिस्तान के बम को लेकर क्यों नहीं की गई? यही प्रश्न अभी मौजूद है जब  ईरान ने अपने यूरेनियम एनरिचमेंट कार्यक्रम को बंद करने की प्रक्रिया पर अमल (20 जनवरी 2014 से) करना शुरू कर दिया है। तो क्या इस तरह के कार्यक्रमों पर दुनिया के शक्तिशाली शासकों और उनकी चेरी बनी वैश्विक संस्थाओं को दोहरा मापदण्ड अपनाना चाहिए? यह भी सोचना होगा कि क्या यूरेनियम एनरिचमेंट प्रक्रिया से जुड़े अन्य देश तेहरान के साथ हुए समझौते के बाद ऐसा करने भौमिकीय कार्यक्रमों को बंद कर देंगे? यदि नहीं, तो फिर अकेले ईरान को लेकर इतनी हाय-तौबा क्यों मचाई गई? एक सवाल यह भी है कि क्या इस समझौते के बाद ईरान को  'एक्सिस ऑफ एविल' से मुक्त कर दिया जाएगा और वह पश्चिमी शक्तियों के साथ बातचीत के विहारों में मुक्त रूप से विचरण कर सकेगा?

नवम्बर में जो पी5+1 के साथ ईरान ने जिस अंतरिम समझौते को स्वीकार किया था, उस पर 20 जनवरी से अमल आरम्भ हो गया। समझौते के अनुसार ईरान 5 प्रतिशत से अधिक यूरेनियम एनरिच नहीं करेगा, 20 प्रतिशत एनरिच्ड यूरेनियम का पूरा हिस्सा समाप्त करेगा, मीडियम एनरिच्ड स्टॉकपाइल्स को न्यूट्रलाइज करेगा, ईराक के हैवी वाटर प्लांट को आगे विकसित करने से रोकेगा, और सेंट्रीफ्यूज नहीं लगाएगा, उसका 3.5 प्रतिशत एनरिच्ड यूरेनियम छह महीने बाद भी इतना ही रहेगा तथा आईएईए के निरीक्षकों की मॉनीटरिंग बढ़ायी जाएगी जिसमें नांताज और फ रादो न्यूक्लियर साइट्स की प्रतिदिन निगरानी भी शामिल होगी। इसके बदले में  'पी5+1' देश आंशिक रूप से प्रतिबंधों में ढील देने के साथ-साथ उसके तेल के वर्तमान स्तरों तक खरीद की अनुमति देंगे, अर्ध्दकीमती धातुओं और एयरलाइंस पर लगे प्रतिबंधों को निलम्बित करेंगे और प्रतिबध्दता का अनुपालन करने पर उसे 4.2 डॉलर फॉरेक्स रिजर्व प्राप्त करने की अनुमति देंगे।

ईरान के न्यूक्यिलयर प्रोग्राम को बंद कराने के लिए अमेरिका और उसके सहयोगियों की तरफ से जो प्रयास हुए क्या उनके केन्द्र में विश्व शांति थी या फिर इजराइली सुरक्षादरअसल ईरान को परमाणु हथियार बनाने से रोकने की वर्तमान कोशिशें दो महत्वपूर्ण बिंदुओं की ओर आकर्षित करती हैं।  प्रथम-ईरान की परमाण्विक महत्वाकांक्षाओं का अंत करने के लिए अमेरिका और इसके पश्चिमी सहयोगी देशों के प्रयासों में दिखती प्रतिबध्दता। पर खास बात यह है कि इन देशों के इस दिशा में प्रयास अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) के नवंबर 2011 के उस आकलन के बाद तेज हुए, जिसमें कहा गया था कि ईरान वास्तव में परमाणु हथियार बना रहा है और इसकी प्रक्रिया उस खतरनाक स्थिति तक पहुंच चुकी है, जहां से इसे रोका नहीं जा सकेगा। इस आकलन के बाद अमेरिका और उसके सहयोगियों को लग रहा था कि ईरान के खिलाफ कड़े कदम उठाने में विफल रहने पर इजराइल आक्रामक सैन्य कार्रवाई की ओर बढ़ सकता है। द्वितीय बिंदु इस धारणा के इर्द-गिर्द घूमता है कि ईरान की परमाणु क्षमता अकेले इजराइल के लिए ही खतरा नहीं बनती बल्कि वह अमेरिका के लिए भी खतरा साबित होती। इसके तत्काल बाद दिसंबर में यहूदी धर्म सुधार संघ के एक कार्यक्रम में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने स्पष्ट भी किया था कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम इजराइल ही नहीं, अमेरिका और पूरी दुनिया की सुरक्षा के लिए खतरा है। इसी क्रम में ओबामा ने दिसम्बर 2011 में ही एक बार फिर अपने वक्तव्य में कहा था कि उनकी पहली प्राथमिकता में केवल अमेरिकी सुरक्षा नहीं, बल्कि इजराइल की सुरक्षा भी है और वे ईरान से उत्पन्न खतरे को हल करने की कोशिशों को आगे बढ़ाते रहेंगे। क्या उस वक्त ओबामा के वक्तव्यों में इस तरह के शब्द अनायास ही आए थे या वास्तव में ये वे रणनीतिक शब्द थे चुनाव बड़ी ही सावधानी से किया गया थाये शब्द बता रहे थे कि अमेरिका जल्द ही ईरान पर अपनी नीति में कुछ बदलाव लाने वाला है।

यहां पर एक बात और महत्वपूर्ण है, वह यह कि ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षाओं को लेकर अमेरिकी नीतियों पर जारी बहस में पिछले एक दशक से यादा समय से यह सवाल बार-बार उठाया जा रहा है कि यह किसका मुद्दा है? अर्थात इजराइल का या फिर अमेरिका का? इस संदर्भ में इजराइल के पूर्व प्रधानमंत्री एरियल शेरॉन की वह सलाह बेहद महत्वपूर्ण है जिससे वे अपने सहयोगियों को बचने के लिए कहा करते थे।  वे उनसे कहते थे कि ईरान के मसले पर वे कोई उकसाने वाला बयान न दें क्योंकि ऐसी स्थिति में दुनिया ईरान के परमाणु कार्यक्रम को अकेले इजराइल की समस्या मान लेगी। इसलिए उनकी रणनीति अमेरिका पर यह दबाव बनाए रखने की होती थी कि वह अपने देश की चिंता करने से पहले इजराइल के हितों की चिंता करे। लेकिन अमेरिका के ही कुछ राजनीति विज्ञानी विशेषकर जॉन मियर शेमर और स्टीफन वाल्ट ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है कि ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षाओं से अमेरिका के अस्तित्व को कोई खतरा नहीं है। यदि रूस, चीन और यहां तक कि दक्षिण कोरिया के भी नाभिकीय क्षमतायुक्त होने के बावजूद अमेरिका शांति से रह सकता है, तो ईरान के नाभिकीय क्षमता युक्त होने के बाद क्यों नहीं? यही कारण है कि इजराइल के अमेरिका समर्थकों को ईरान का विरोध करने के लिए अमेरिकी राजनेताओं पर लगातार दबाव बनाना पड़ रहा है। लेकिन एक बात तो है कि अमेरिका अपने  ऊपर आते संकट को देखे बगैर ईरान के साथ दबाव और समझौते की नीति बिल्कुल न अपनाता। इसलिए यह संभव हो सकता है कि ईरान की नाभिकीय क्षमता दोनों के लिए खतरा हो।  यदि ऐसा नहीं है तो फिर यह मानना पड़ेगा कि इजराइल के हित अमेरिकी हितों के पूरक हैं इसलिए इजराइल के सामने आने वाला संकट दरअसल अमेरिका पर आने वाला संकट सिध्द होता, इसलिए अमेरिका को इस दिशा में प्रतिबध्दता के साथ कदम उठाना पड़ा।

लेकिन इसी अमेरिका ने दक्षिण एशिया में ऐसी ही शांति के लिए पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने का प्रयास नहीं किया, बल्कि उसे सम्पन्न होने दिया या फिर अप्रत्यक्ष रूप से उसे बढ़ावा दिया, क्योंजिस दौरान ईरान को जिस आधार पर एक्सिस ऑफ  एविल में शामिल किया जा रहा था उसी दौरान उसी आधार का नकारते हुए पाकिस्तान को क्लीन चिट दी जा रही थी जबकि वह परमाणु हथियार सम्पन्न भी था और आतंकवाद का एपीसेंटर भी। ईरान के मामले में तर्र्क  दिया गया कि ईरानी उन्मादी होते हैं। अगर उन्हें इजराइल का सिर मिले तो वे राष्ट्रीय हत्या करने से भी नहीं हिचकेंगे। लेकिन क्या पाकिस्तानी वास्तव में इतने शांत हैं कि कभी भी किसी को नुकसान पहुंचाए ही न? अगर ईरान अपना परमाणु बम हिजबुल्ला और हमास को सौंप सकता है तो पाकिस्तान भी अलकायदा और तालिबान, लश्कर-ए-तैयबा या मदहे शहाबा जैसे आतंकी संगठनों के साथ ऐसा ही कर सकता है। अब तक की सूचनाओं के अनुसार पाकिस्तान पहले से ही अपने परमाणु कार्यक्रम को तेज किए हुए है। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम भारत के मुकाबले कहीं अधिक तेजी से बढ़ रहा है। कई सूत्रों के अनुसार इस समय 70-90 अथवा 100 नाभिकीय हथियार हैं जिन्हें वह लगातार बढ़ाने की कोशिश में है। सीआईए के 'वीपन्स ऑफ मास डिस्ट्रक्शन' तथा 'एनर्जी डिपार्टमेंट' के डायरेक्टर ऑफ  इंटेलिजेंस के मुताबिक पाकिस्तान अगले दस वर्ष में 50 से 100 नाभिकीय बमों संबंधी अनुमानों की अपेक्षा कम से कम दो गुना न्यूक्लियर हथियार बना लेगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि 'पी 5' का एक सदस्य चीन लगातार पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम में शामिल है। अमेरिकी परमाणु वैज्ञानिकों थॉमस रीड और डैनी स्टिलमैन की पुस्तक 'न्यूक्लियर एक्सप्रेस' बताती है कि चीन ने 26 मई 1990 को अपने लोपनोर परीक्षण स्थल पर पाकिस्तान के लिए परमाणु परीक्षण किया था। लेकिन क्या उस कोई प्रतिबंध लगाया गया था?

बहरहाल ईरान का हौवा समाप्त होने के बाद देखना यह है कि दुनिया शांति की दिशा में कितने कदम आगे बढ़ पाती है?

शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

ऐसे मिल सकती है सस्ती बिजली

चुनावों के बाद दिल्ली सरकार ने बिजली की दरें घटा दीं और इस होड़ में हरियाणा व महाराष्ट्र  की सरकारें भी शामिल हो गई हैं। सबकी नजरें अगले चुनावों पर हैं। अत: अन्य सरकारें भी इसी दबाव में आएंगी। वास्तव में कोई भी सरकार बिजली की दर नहीं घटा रही है। केवल आपके ही टैक्स से आपको अनुदान दे रही है। ऐसा करने पर उन्हें सड़क, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के बजट में कटौती करनी होगी और आम आदमी पर ही उसका प्रभाव होगा। इस समस्या का वास्तविक समाधान तो तब होगा जब बिजली की कीमत  घटे। मूल प्रश्न यह है कि बिजली इतनी महंगी क्यों हो गई है?

सत्य तो यह है कि बिजली उद्योग एवं भ्रष्टाचार का हमारे देश में चोली-दामन का साथ रहा है। बिजली की चोरी आम बात है। दिल्ली में निजीकरण से पूर्व लगभग आधी बिजली चोरी व भ्रष्टाचार के कारण गायब हो जाती थी और सरकार इसे टी एंड डी लॉस (वितरण के दौरान हानि) के नाम से नजरअंदाज कर देती थी। पिछले वर्षों में टी एंड डी लॉस तो घटा है, लेकिन अब दूसरे प्रकार की चोरी का संदेह है। अत: सीएजी से लेखा परीक्षण कराया जा रहा है। अन्य  राज्यों में भी भारी चोरी है, हालांकि पिछले कुछ वर्षों में तकनीकी सुधारों से इसमें कमी अवश्य हुई है। वस्तुत: भ्रष्टाचार, चोरी एवं दूषित पूंजीवाद ही महंगी बिजली के मुख्य: कारण हैं ।

इस शोषण की व्यवस्था के कई उदाहरण हैं। कोयला खानों के आवंटन में मची आपाधापी केवल इसलिए थी कि मुफ्त में इन खदानों को हथियाकर भारी मुनाफे पर बिजली बेची जा सके। 2008 से 2012 तक 1,32,000 करोड़ रुपए की बिजली औसतन पांच रुपए प्रति यूनिट के थोक भाव पर वितरण कंपनियों को बेची गई। यानी इसका खुदरा भाव लगभग आठ रुपए प्रति यूनिट पड़ेगा। इतने महंगे भाव की बिजली किसी बड़े देश में नहीं बिकती। यह बिजली तो एनरॉन के दाभोल पावर स्टेशन से भी काफी महंगी थी। विदेशी एनरॉन को तो सरकार ने निकाल फेंका, लेकिन घरेलू पूंजीवादियों पर अकुंश लगाने में सर्वथा असहाय रही। महंगी बिजली खरीदने से सभी राज्यों की वितरण कंपनियों का घाटा तेजी से बढ़ा और अब सरकार द्वारा उन्हें 1,00,000 करोड़ रुपए की सहायता दी जा रही है। यानी आम आदमी से टैक्स लेकर इस घाटे की भरपाई होगी ।

पिछले कुछ वर्षों में बहुत से बिजलीघरों पर निजी निवेश का प्रारंभ हुआ। इनमें से कुछ तो कोयला नहीं जुटा पाए और तो कुछ के पास गैस नहीं है। केवल परियोजनाएं हथियाने की होड़ में पूंजीवादियों ने यह निवेश बैंकों से भारी ऋण लेकर प्रारंभ किया। अब ऐसी स्थिति बन गई है कि बिजली उद्योग तो मझधार में है और बैंकों का हजारों करोड़  रुपया डूबने के कगार पर है।

दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार ने हाल ही में भ्रष्टाचार के विरुद्ध जो बीड़ा उठाया है, उसकी परीक्षा सबसे पहले बिजली उद्योग में होगी क्योंकि देशभर में तीन लाख करोड़ रुपए की बिजली एक वर्ष में बिकती है और इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार से आम आदमी ग्रसित है। इसका मुख्य कारण सरकारी नियंत्रण एवं मोनोपॉली (एकाधिकार) है । हर उपभोक्ता को एक ही कंपनी से बिजली खरीदनी पड़ती है, कोई विकल्प नहीं है। मोनोपॉली के चलते चोरी, भ्रष्टाचार, दूषित पूंजीवाद एवं अकुशलता पर अकुंश नहीं रहता और नेता, इंजीनियर व ठेकेदार (बिजली उद्योग के त्रिदेव!) इसका लाभ उठाते हैं ।

हमारे देश ने टेलीफोन व सॉफ्टवेयर से लेकर अंतरिक्ष तक अपनी पहचान बनाई है। बिजली के मामले में हम पिछड़े देशों की श्रेणी में खड़े हैं । आज भी कुछ शहरों को छोड़ पूरे देश में बिजली की कटौती होती है जबकि आम आदमी की यह मूलभूत आवश्यकता है। याद कीजिए लाइसेंस-परमि‍ट राज के रहते टेलीफोन, कार, स्कूटर, हवाई यात्रा इत्यादि में स्पद्र्धा का वातावरण नहीं था और आम आदमी को महंगी एवं अकुशल सेवाएं मिलीं तथा सरकारी तंत्र का बोलबाला रहा । जैसे ही इन्हें स्पद्र्धा का सामना करना पड़ा, दाम गिरे, कुशलता बढ़ी एवं कटौती भी समाप्त हुई। यदि बिजली उद्योग को भी इसी प्रकार खोल दिया जाता तो दरें घट जातीं और कटौती भी नहीं होती ।

दिल्ली में वितरण कंपनियां पांच रुपए प्रति यूनिट पर थोक बिजली 24 घंटे खरीद रही हैं जबकि रात की थोक दर लगभग दो रुपए है। इससे उपभोक्ता पर अनुचित भार पड़ रहा है । सरकारी अनुदान से दरों को तो घटाया जा सकता है, किंतु भ्रष्टाचार, चोरी एवं मुनाफाखोरी में कमी न हो पाएगी। इसके लिए संस्थागत सुधार करने होंगे एवं  विद्युत अधिनियम  द्वारा निर्देशित प्रतियोगिता को लागू करना होगा ।

1973 में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने ऑटर टेल पावर कंपनी के केस में आदेश दिया था कि ट्रांसमिशन (प्रसारण) कंपनियों को अन्य लोगों की बिजली भी ढोनी होगी ताकि मोनोपॉली नहीं हो। 1989 में इंग्लैंड ने कानून बनाया कि सभी वितरण कंपनियों को अन्य लोगों की बिजली भी ढोनी होगी। इस कानून के तहत 1990 में सभी बड़े ग्राहकों को एवं पांच वर्षों में अन्य  सभी ग्राहकों को विभिन्न कंपनियों से बिजली खरीदने की छूट दी गई। इससे कुशलता बढ़ी एवं दरों में कटौती हुई। इसी व्यवस्था को यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि में भी अपनाया गया।
आपके घर में सरकारी फोन एवं तार है किंतु सब निजी टेलीफोन कंपनियां अपने फोन की आवाज आप तक इन्हीं  तारों के माध्यम से पहुंचा सकती हैं। इसी प्रकार हर वितरण कंपनी के तारों के माध्यम से अन्य कंपनियों की बिजली आप तक पहुंच सकती है। विकसित देशों में यह व्यवस्था दशकों से चल रही है।

हमारे यहां भी यदि स्पद्र्धा होगी तो दरें अवश्य घटेंगी और बिजली कटौती भी नहीं होगी। इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। दिल्ली सरकार यदि दो रुपए प्रति यूनिट पर मिलने वाली थोक बिजली आम आदमी के लिए आरक्षित कर दे तो दरें भी घटेंगी और अनुदान भी बचेगा। उद्योग एवं व्यवसाय या तो वितरण कंपनियों से महंगी बिजली खरीदें अन्यथा प्रतियोगिता का लाभ उठाकर बाजार से बिजली खरीदें। ऐसी व्यवस्था पूर्णतया संभव है।


शायद अब भ्रष्टाचार विरोधी वातावरण में इस समस्या का निवारण हो। यह तो निश्चित है कि स्थायी सुधार केवल ऐसी व्यवस्था से होंगे, जिसमें चोरी व भ्रष्टाचार के अवसर बहुत कम रह जाएं एवं प्रतियोगिता से कुशलता बढ़े और दरें स्वत: ही घटें।

भ्रष्टाचार निवारण की जिम्मेदारी

हमारी व्यवस्था में भ्रष्टाचार एक ऐसे घुन की तरह है जो भीतर ही भीतर सब कुछ खोखला कर रहा है। हमारी सरकारें यदि भ्रष्टाचामुक्त प्रशासन दे पाने में सफल हुई होती तो आज की तस्वीर कुछ और होती। गरीबी और अव्यवस्था पर हम शायद पार पा गए होते। पिछले कुछ वर्षों में इस घुन को खत्म करने की इच्छाशक्ति सरकारों ने दिखाई है। प्रशासन में पारदर्शिता और भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए नए कानून लाए गए हैं। लोकपाल जैसी संवैधानिक संस्था का गठन किया जा चुका है। सरकारों पर जनमानस का दबाव बढ़ा है कि वे भ्रष्टाचारमुक्त प्रशासन देने के लिए काम करें। छत्तीसगढ़ में शिकायतें सुनने सरकार हेल्पलाइन नम्बर जारी कर चुकी है। भ्रष्टाचार के खिलाफ 'जीरो टालरेन्स' पर जोर दिया जा रहा है। मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने कलेक्टरों से कहा है कि पूरी सख्ती से काम लें ताकि भ्रष्टाचार को रोका जा सके। काम आसान नहीं है फिर भी जिला स्तर पर कलेक्टर ऐसे वातावरण का निर्माण कर सकते हैं, जिसमें भ्रष्टाचार करने वाले पकड़े जाएं और उन्हें कड़ा से कड़ा दंड दिलाया जाए। जिस व्यवस्था में स्वच्छ प्रशासन की कल्पना की जा रही है उसमें, प्रशासनिक अधिकारियों के हाथ भी बंधे होते हैं। भ्रष्टाचारियों को राजनीतिक संरक्षण मिलता है और चाहकर भी अधिकारी कार्रवाई नहीं कर पाते। कई बार अधिकारी को ईमानदारी की सजा भुगतनी पड़ जाती है। मुख्यमंत्री ने अपने गणतंत्र दिवस संदेश में कामकाज में पारदर्शिता और शुचिता पर जोर देकर यह रेखांकित करने की कोशिश की थी कि सरकार इस मामले में पूरी संवेदनशीलता के साथ आगे बढ़ना चाहती है। कलेक्टर कांफ्रेन्स में भी उन्होंने इसे दोहराया, जिसका संकेत साफ है कि सरकार भ्रष्टाचार के मामलों में कड़े फैसले लेने से नहीं हिचकेगी। भ्रष्टाचारियों को राजनैतिक संरक्षण देने वालों को इसके निहितार्थों को समझ लेना चाहिए। स्वच्छ प्रशासन के लिए राजनैतिक स्वच्छता पहली शर्त है और इसके बिना भ्रष्टाचार उन्मूलन की बातें फिजूल हैं। मुख्यमंत्री ने कहा भी है 'जीरो टालरेंस' कोई नरा नही है, यह प्रशासन के कामकाज में दिखाई देना चाहिए। आने वाले समय में देखा जा सकेगा कि राज्य में स्वच्छ प्रशासन की मजबूत नींव रखने में कैसी सफलता मिल पाती है।

गुरुवार, 30 जनवरी 2014

सर्वोच्च न्यायालय ने जारी किये दया याचिकायों से संबंध 12 दिशा निर्देश

सर्वोच्च न्यायालय ने मौत की सजा पाये कैदियों के दया याचिकायों से संबंध दिशा निर्देश 22 जनवरी 2014 को जारी किये. ये दिशा निर्देश सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पी. सथाशिवम की अध्यक्षता में तीन जजों की बेंच ने जारी किये. सर्वोच्च न्यायालय ने कैदियों के एकान्त कारावास को असंवैधानिक कहा है. वर्तमान में राज्य एवं केंद्रीय जेल प्रशासन की नियम पुस्तिका के बीच कोई समरूपता नहीं है.

सर्वोच्च न्यायालय ने दया याचिकायों से संबंध नयें दिशा निर्देश

राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका देते हुए प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए.
सभी आवश्यक दस्तावेजों एवं अभिलेखों को गृह मंत्रालय (एमएचए) भेजा जाना चाहिए.
गृह मंत्रालय को सभी विवरण प्राप्त होने के बाद उचित एवं तर्कसंगत अवधि के भीतर राष्ट्रपति को अपनी सिफारिशें भेज देनी चाहिए.
यदि राष्ट्रपति के कार्यालय से कोई जवाब नहीं है, तो गृह मंत्रालय को समय -समय पर अनुस्मारक भेजने चाहिए.
राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा कैदियों के दया याचिका को अस्वीकार किये जाने पर उनके परिवार को लिखित में सूचित किया जाना चाहिए.
मौत की सजा पाये कैदी राष्ट्रपति एवं राज्यपाल द्वारा दया याचिका की अस्वीकृति की एक प्रति प्राप्त करने के हक़दार है.
दया याचिका की अस्वीकृति का संचार प्राप्त होने एवं फांसी की तारीख के बीच 14 दिनों का अंतराल होना चाहिए. इस प्रकार से कैदी को फांसी के लिए मानसिक रूप से खुद को तैयार करने की अनुमति होगी.
फांसी की निर्धारित तिथि के पर्याप्त सूचना के बिना न्यायिक उपचार का लाभ उठाने से कैदियों को रोका जायेगा.
एक ऐसी प्रक्रिया जिसमे कैदियों एवं उनके परिवार के बीच मानवता और न्याय हेतु अंतिम बैठक का प्रावधान होना चाहिए.
मौत की सजा पाये कैदियों की उचित चिकित्सा देखभाल के साथ नियमित रूप से मानसिक स्वास्थ्य मूल्यांकन किया जाना चाहिए. 
जेल अधीक्षक कैदी के फांसी का वारंट जारी होने के बाद सरकारी डॉक्टरों और मनोचिकित्सकों द्वारा मेडिकल रिपोर्ट के आधार पर कैदी की शारीरिक एवं मानसिक हालत को जांच कर संतुष्ट होने के बाद ही उसे फांसी दी जाएगी.
यह आवश्यक है, कि प्रासंगिक दस्तावेजों की प्रतियां दया याचिका बनाने में सहायता करने के लिए जेल अधिकारियों द्वारा एक सप्ताह के भीतर कैदी को प्रस्तुत किया जाना चाहिए.
सर्वोच्च न्यायालय ने फांसी के बाद कैदी का पोस्टमार्टम अनिवार्य कर दिया.

 दया याचिकायों से संबंधित संवैधानिक प्रावधान

भारत के संविधान के अनुसार, अनुच्छेद -72 में प्रावधान है- किसी भी अपराध के दोषी व्यक्ति को माफ़ी देने की शक्ति भारत के राष्ट्रपति के पास है.

राष्ट्रपति को गृह मंत्री एवं मंत्रिपरिषद द्वारा सलाह दी जाती है. राष्ट्रपति को अपने निर्णय देने के लिए कोई समय सीमा तय नहीं है क्योंकि वह न्यायिक समीक्षा के अधीन है.  

आईडब्ल्यूएमपी-घटते प्राकृतिक संसाधनों का संभरण सरंक्षण और विकास

व्यापक स्तर पर भूक्षरण और जल संसाधनों पर बढ़ता दबाव देश के लिए गंभीर चुनौती बनता जा रहा है। हालांकि इन प्राकृतिक संसाधनों को पहुंच रहे नुकसान के अनुमान अलग अलग हो सकते है, लेकिन यह पूरे यकीन के साथ कहा जा सकता है कि देश का आधे से अधिक भूभाग मृदा क्षरण और घटते जल संसाधनो के कारण भारी संकट में है।

देश के वर्षा जल पर निर्भरता वाले क्षेत्रों में यह समस्या ज्यादा गंभीर है। सिंचाई की निश्चित व्यवस्था वाले क्षेत्रों में कृषि उत्पादन व्यवस्थित होने के साथ ही वर्षा जल पर निर्भरता वाले क्षेत्रो का महत्व बढता जा रहा है कि यहा वर्षा जल संरक्षण से जुड़े विकास कार्यक्रमों के जरिए इन क्षेत्रों की उत्पादन क्षमता बढ़ाए जाने की संभावनाएं  हैं।

देश के वर्षा जल निर्भरता और भूक्षरण वाले क्षेत्रों के विकास के लिए एकीकृत जलसंभरण प्रबंधन कार्यक्रम (आईडब्ल्यूएमपी) ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से शुरू किया गया प्रमुख कार्यक्रम है। इसे भूसंसाधन विभाग की ओर से वर्ष 2009-10 से लागू किया गया है। इसमें तीन क्षेत्रीय विकास कार्यक्रमों को समाहित किया गया है, जिसमें मरूस्थल विकास कार्यक्रम (डी डी पी) सूखा क्षेत्र विकास कार्यक्रम (डी एम ए पी) और एकीकृत बंजर भूमि विकास कार्यक्रम (आई डब्ल्यू डी पी) शामिल है।

आईडब्ल्यूएमपी का मुख्य लक्ष्य मृदा जैसे घटते प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और विकास, वनस्पति आच्छादित क्षेत्र और जल स्रोतो का संरक्षण, भूक्षरण की रोकथाम, वर्षा जल संरक्षण, भूजल के घटते स्तर को सुधारना, फसलों का उत्पादन बढ़ाना, ब्हुचक्रीय फसल और विभिन्न कृषि गतिविधियां और सतत जीविकोपार्जन गतिविधियों को बढावा देकर घरेलू आय बढाने के उपाय करना शामिल है। आईडब्ल्यूएमपी के तहत शामिल गतिविधियों में हरित क्षेत्र और निकासी क्षेत्र का निरूपण मृदा और आद्रता संरक्षण, वर्षा जल संरक्षण, नर्सरियों का विकास, वनक्षेत्र बसाहट, बागवानी, हरित क्षेत्र विकास और संपत्ति विहीन लोगों के लिए जीविका चलाने के उपाय करना शामिल है। आईडब्ल्यूएमपी के तहत भूसंसाधन विभाग की ओर से केन्द्रीय मदद के तहत 3 करोड 12 लाख 90 हजार हेक्टेयर भू क्षेत्र में 6622 परियोजनाओं को मंजूरी दी गयी है। आईडब्ल्यूएमपी कार्यक्रम के तहत विभाग विभिन्न राज्यों को केन्द्रीय मदद के तहत वर्ष 2009 से लेकर नवंबर 2013 तक 8240.61 करोड़ रूपए की राशि जारी कर चुका है।

आईडब्ल्यूएमपी के तहत परियोजनाओ की अवधि 4 से 7 वर्ष के बीच होती है। हालांकि इन परियोजनाओं का पूरा होना अभी बाकी है लेकिन इनका असर देश के विभिन्न हिस्सों में अभी से दिखाई देने लगा है। आईडब्ल्यूएमपी के तहत जल संरक्षण के लिए बनायी गयी आधारभूत सुविधाओं के कारण परियोजना क्षे़त्र में रहने वाले किसानो के लिए जल उपलब्धता और अतिरिक्त आय अर्जित करने में मदद मिल रही है। कार्यक्रम के तहत ग्रामीण क्षे़त्र के गरीब परिवारों की आजीविका को बेहतर बनाने तथा उनकी आय बढाने में मददगार साबित हुयी परियोजनाओं में निम्नलिखित प्रमुख है।

आईडब्ल्यूएमपी-I के तहत मध्यप्रद्रेश के दतिया तहसील में वर्ष 2009-10 में 5,527 हेक्टेयर भू क्षेत्र के लिए जलसंभरण प्रबंधन कार्यक्रम मंजूर किया गया। यह कार्यक्रम राजीव गांधी मिशन फॉर वॉटरशेड मैनेजमेंट की ओर से डेवलपमेंट अल्टरनेटिव एजेंसी के जरिए क्रियान्वित किया जा रहा है। परियोजना क्षे़त्र के तहत आने वाले एक गांव सलयापमार का 1515 हेक्टेयर भौगोलिक क्षेत्र में से 86 प्रतिशत खेती वाली जमीन है। गांव की कुल आबादी 1500 है। गांव में प्रत्येक किसान के पास 2.5 प्रतिशत खेत है और 1.2 प्रतिशत पशुधन है। वर्ष 2012 में गांव में 2.22 लाख रूपए की लागत से एक जलाशय का निमार्ण किया गया था जिसकी कुल क्षमता 350 घन मीटर है। इसकी मदद से गांव की 70 एकड़ भूमि में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हुयी है और कृषि क्षेत्र की उत्पादन क्षमता में 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो चुकी है। जलाशय के निचले इलाकों में पहली बार धान की खेती की जा रही है। जलाशय का असर आसपास के 27 कुओं के जलस्तर में हुयी बढ़ोतरी के रूप में भी दिखाई दे रहा है। इन कुओं का जलस्तर 7 से 8 फुट बढा है। उत्पादन क्षमता वृद्धि और आर्थिक सशक्तिकरण के लिहाज से गांव के 17 कृषक परिवारों की आजीविका की स्थिति सुधरी है। कार्यक्रम लागू होने के पहले कभी स्थितियां इतनी बेहतर नहीं हुयी थीं।

छत्तीसगढ के बालोद जिले में डोंडी लोहरा ब्लॉक में आईडब्ल्यूएमपी-I परियोजना वर्ष 2009-10 में 5261 हेक्टेयर क्षेत्र में लागू की गयी। इसके तहत 5 हजार हेक्टेयर ऐसी भूमि भी है जिसका क्षरण उपचार किया जाना है। वर्ष 2012-13 के दौरान परियोजना के तहत कसई गांव में 2.92 लाख रूपए की लागत से एक रोक बांध का निर्माण किया गया। इसके पहले तक यह क्षेत्र सूखा संभावित इलाका था और बारिश के मौसम में यहां मिट्टी के क्षरण का सबसे ज्यादा खतरा रहता था। लेकिन बांध बनने के बाद न सिर्फ यहां मिट्टी का क्षरण कम हुआ है बल्कि 25 हेक्टेयर सूखा प्रभावित क्षेत्र मे सिंचाई शुरू हो चुकी है। सिचांई की व्यवस्था सुनिश्चित हो जाने से यहां धान की बुआई की उत्पादकता 12 क्यू एकड़ से बढ़कर 17 क्यू एकड़ हो गई है।

पश्चिमी ओडिशा में नुआपाडा जिले के कोमना ब्लॉक के लिए आईडब्ल्यूएमपी-II परियोजना को वर्ष 2009-10 में मंजूरी दी गयी। नुआपाडा का इलाका पूरी तरह वर्षा जल पर निर्भर है। यहां पर्यावरण क्षरण, कम कृषि उपज, बड़े पैमाने पर विस्थापन, कर्ज बोझ की समस्या, बचत आधार का नहीं होना, कृषि ऋण और विपणन तथा अन्य सेवाओं की अपर्याप्त उपलब्धता जैसी समस्याएं हैं। ज्यादा वर्षा वाला क्षेत्र होने के साथ ही वनस्पतियों की कमी के कारण यहां भूक्षरण का स्तर काफी ज्यादा है जिसके कारण कृषि उपज भी कम है। यहां के ज्यादातर किसानों को इसी कारण मानसून की एक फसल उपज पर ही गुजारा करना पडता है । आईडब्ल्यूएमी के तहत यहां प्याज की खेती को बढावा दिए जाने के सामूहिक प्रयासों का परिणाम यह रहा कि इससे सहकारी कृषक संगठनों के जरिए कृषि क्षेत्र के लिए मुनाफा कमायी की एक सुनिश्चित व्यवस्था की जा सकी । सहकारी संगठनों के जरिए मूल्य संवर्धन भंडारण और विपणन जैसी सेवाएं उपलब्ध कराकर प्याज की खेती के व्यावसायीकरण को बढ़ावा देना किसानों की आजीविका बेहतर बनाने का एक अनुसरणीय मॉडल साबित हुआ।

अभी तक यहां महज कुछ किसानों द्वारा एक सीमित क्षेत्र में प्याज की खेती की जाती रही । हालांकि उपज औसत दर्जे की रही लेकिन जलवायु और अन्य कारक फसल के लिए अनुकूल रहे । किसान उपज होते ही बाजार में कम कीमत के बावजूद इसे बेचते रहे जबकि दूसरी ओर छत्तीसगढ़ में कारोबारी बड़े भंडारगृहों मे इनका भंडारण कर अगस्त में ऊंची कीमत होने पर इसे बेचकर अच्छी कमायी करते रहे। ओडिशा में प्याज की स्थानीय किस्म और एन-53 किस्म भंडारण गुणवत्ता के लिहाज से भी औसत दर्जे की रहती थी जिसके कारण दो महीने से ज्यादासमय तक उपज का भंडारण संभव नहीं था। दूसरा इस छोटी सी अवधि के लिए भी किसानों के पास इसके भंडारण की समुचित व्यवस्था नहीं थी। तीसरा किसानों के पास इतने समय तक इंतजार कर पाना आर्थिक कारणों से भी संभव नहीं था। ऐसा पाया गया कि हल्के गुलाबी रंग वाली प्याज की ए.एफ.एल.आर किस्म का बिना ज्यादा नुकसान के छह महीनों तक भंडारण किया जा सकता है। इस खोज ने किसानों के लिए इस किस्म की उपज से अच्छी कमायी हासिल करने मे मदद की।

आईडब्ल्यूएमपी के तहत उत्पादक सहकारी संगठनों के जरिए आजीविका को प्रोत्साहित करने के उपायों से किसानों को उत्पाद बढ़ाने तथा उपज का लंबे समय तक समुचित भंडारण करने की सुविधा मिलने से वर्ष के आखिर में अच्छी कमायी करने में मदद मिली। यह सब आईडब्ल्यूएमपी के तहत कम लागत वाली भंडारण सुविधा, अच्छे किस्म के बीजों की उपलब्धता और खेती की बेहतर तकनीक के इस्तेमाल से संभव हो पाया।

आईडब्ल्यूएमपी-II के पहले चरण में नुआपाडा के कोमना ब्लॉक में 50 एकड़ भूमि में 70 किसानों को ए.एफ.एल.आर किस्म की प्याज की बुआयी में मदद दी गयी । प्रत्येक समूह से कुछ किसानों और प्रतिनिधियों को चुना गया और नासिक ले जाया गया जहां उन्हें परियोजना के तहत काम करने वाले सहकारी संगठनों और उनसे होने वाले लाभों को देखने का मौका मिला। कोमना के किसान नासिक के इन संगठनों और उनके काम-काज के तरीकों को देखकर काफी उत्साहित हुए। उन्होंने नासिक के किसानों से खेती, भंडारण और विपणन के बेहतर तरीके सीखे । इन सब में सबसे महत्वपूर्ण रहा नासिक के किसानों के साथ प्याज के बीज की आपूर्ति के लिए संपर्क।

ओडिशा में प्याज की खेती को प्रोत्साहित करने के लिए शुरू की गयी पहल से इसके तहत आने वाला भूक्षेत्र वर्ष 2009 के 92 एकड़ से बढ़कर वर्ष 2012 तक 298 एकड़ हो गया। नासिक के किसानों से सीखे गए तरीकों और मिले प्रशिक्षण तथा गुणवत्ता युक्त बीजों के कारण किसानों को अपनी उपज 50 क्विंटल प्रति एकड़ से बढ़कर करीब 70 क्विंटल प्रति एकड़ करने में मदद मिली। किसान समूहों के विकास का लक्ष्य 272 प्याज उत्पादक किसानों के पंजीकरण के साथ हासिल कर लिया गया। कोमा ब्लॉक में शुरू की गयी आईडब्ल्यएमपी-II 2009-10 परियोजना का अब नुआपाडा और खरियार ब्लॉकों तक विस्तार हो चुका है। कम लागत में भंडारण सुविधा उपलब्ध हो जाने से किसानों को अपनी फसल से ज्यादा कमायी हो रही है। किसानों को 10 फुट लंबाई और 10 फुट चौड़ाई तथा 13 फुट लंबाई वाले भंडारगृह उपलब्ध कराए गए हैं, जहां प्याज रखने के लिए 3 रैक बनाए गए हैं। ऐसे हर भंडारगृह का निर्माण 16 हजार रुपए की लागत से किया गया है। लाभार्थियों को सुझाव और तकनीकी सलाह के लिए बागवानी विभाग के साथ जोड़ा गया है। प्याज के लिए बनाए गए भंडारगृहों को बांस से बनाया गया है और इसके फर्श भूसे से ढके गए हैं। हर भंडारगृह में 20 क्विंटल प्याज रखने की क्षमता है। पहले एक किसान 20 क्विंटल प्याज 04 रुपए प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेच कर करीब 8 हजार रुपए ही कमा पाता था, लेकिन बेहतर भंडारण सुविधा मिलने से वह अब प्याज की उपज को 04 महीनों तक सुरक्षित रखकर 13 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बेचकर 19200 रुपए तक कमा लेता है, जबकि इसमें फसल कटाई और छंटायी के दौरान होने वाला 20 प्रतिशत नुकसान भी शामिल होता है। लागत के लिहाज से प्रति प्याज भंडारण क्षमता और मुनाफे औसत अनुपात 1:2:4 है और भंडारण ढांचों की आयु 8 वर्ष अनुमानित है।

परियोजना के तहत की गयी मध्यस्थता से किसानों को अपनी आय को कई गुना बढ़ाने में मदद मिली। मुनाफा बढ़ने के साथ ही बुआई क्षेत्र में तीन गुना से ज्यादा बढ़ोतरी हुई। प्याज उत्पादन से होने वाली आय कई किसानों के कुल परिवार द्वारा अर्जित आय का करीब 50 प्रतिशत हो चुकी है। सफल रहे किसानों ने अपने गांव में दूसरे लोगों को भी प्याज की ए.एफ.एल.आर. किस्म की बड़े पैमाने पर खेती करने और उपज को ऊंची कीमत के समय बेचने के लिए भंडारगृहों के इस्तेमाल के लिए भी प्रोत्साहित किया है। सहकारिता ने व्यक्तिगत स्तर पर किसानों में आत्मविश्वास बढ़ाया है जिससे वह बाजार में अपनी मजबूत स्थिति के प्रति ज्यादा जागरूक हो चुके हैं।

बुधवार, 29 जनवरी 2014

राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम में किशोरों की सेहत पर विशेष ध्यान

भारत को युवाओं का देश कहा जाता रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत की लगभग 80 फीसदी आबादी युवा हैं और ऐसे युवा देश को तंदरूस्‍त बनाने और इसे विकास की ओर ले जाने के लिए किशोरों की सेहत पर ज्‍यादा ध्‍यान दिया जाए। आजादी से लेकर अब तक नीति निर्धारण में किशोरों के स्‍वास्‍थ्‍य पर कभी ज्‍यादा ध्यान नहीं दिया गया। इसके पीछे एक बड़ा कारण यह भी रहा है कि इन्‍हें हमेशा सेहतमंद ही समझा गया, लेकिन असल में ऐसा कदापि नहीं है। 2014 की शुरूआत में भारत सरकार की ओर से किया गया राष्‍ट्रीय किशोर स्‍वास्‍थ्‍य कार्यक्रम (आरकेएसके) असल में मील का पत्‍थर साबित होगा।

इसके पीछे कुछ अहम तथ्‍यों पर पहले गौर किया जाना जरूरी है। मसलन, 10 से 19 वर्ष आयुवर्ग के लड़के/लड़कियों की आबादी देश की कुल जनसंख्‍या की 1/5 है। इसी तरह, अगर 10 से 24 वर्ष के लोगों की बात की जाए तो इनकी कुल संख्‍या देश के आबादी की एक तिहाई है। इसे हम साधारण रूप से यह भी कह सकते हैं कि बिना किशोरों के बेहतर सेहत पर ध्‍यान दिए एक युवा देश की परिकल्‍पना भी नहीं की जा सकती।

पिछले कई दशकों से संयुक्‍त राष्‍ट्र की एजेंसियां 'यूनिसेफ' और 'यूनिफेम' लगातार युवाओं की बेहतर सेहत की वकालत करतीं रही हैं। लेकिन भारत की विशाल आबादी और बीमारियों की चुनौतियों की वजह से युवा वर्ग पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया है। आरकेएसके योजना इस खास वर्ग की बीमारियों, अच्‍छी सेहत और भविष्‍य के चुनौतियों पर खास ध्‍यान देने वाली हैं।

केन्‍द्रीय स्‍वास्‍थ्‍य मंत्रालय ने नये कार्यक्रम को राष्‍ट्रीय स्‍वास्‍थ्‍य मिशन के तहत शुरू करने का फैसला किया है। राष्‍ट्रीय ग्रामीण स्‍वास्‍थ्‍य मिशन और राष्‍ट्रीय शहरी स्‍वास्‍थ्‍य मिशन के तहत सभी उप-स्‍वास्थ्‍य केन्‍द्रों, सामुदायिक स्‍वास्‍थ्‍य केन्‍द्रों और जन-स्‍वास्‍थ्‍य केन्‍द्रों में किशोरों के लिए अलग से सेवाएं शुरू करने का फैसला किया है। इन केन्‍द्रों में 10 से 19 वर्ष के किशोर और किशोरियां अपनी बीमारियों और उपचारों के अलावा सेहत से जुड़े परामर्श के लिए भी संपर्क कर सकेंगे। राष्‍ट्रीय ग्रामीण स्‍वास्‍थ्‍य मिशन को चलाने में जैसे आशा कार्यकर्ता सबसे अहम भूमिका निभाती हैं, उसी तरह हर स्‍वास्‍थ्‍य केन्‍द्र के तहत किशोर  कार्यकर्ताओं की भी मदद ली जाएगी। स्‍कूलों में किशोरों को अपने सेहत के प्रति  जागरूक करने के लिए अलग से अभियान चलाया जाएगा। स्‍कूली किशोरों को प्रोत्‍साहित करने के लिए कई तरह के अवार्ड और प्रमाण-पत्र देने जैसी योजनाओं पर भी विचार किया जा रहा है।

इस वर्ग विशेष में खान-पान और सेहत को लेकर कई तरह की भ्रातियां भी रहती हैं। इसको ऐसे भी समझा जा सकता है कि देश में युवाओं में 33 प्रतिशत बीमारियां गलत तथा अनियमित जीवन शैली की वजह से है, वहीं 60 फीसदी असामयिक मौत भी इसी वर्ग में होता है। शोध बताते हैं कि इन दोनों समस्‍याओं का कारण किशोरों के बीच तम्‍बाकू व शराब का सेवन, खराब खानपान शैली, शारीरिक प्रताड़ना और जोखिम वाले काम करना है। नए कार्यक्रम में किशोरों के लिए बेहतर जीवन-शैली से जुड़े परामर्श केन्‍द्रों का भी प्रावधान किया गया है। स्‍कूलों में स्‍वास्‍थ्‍य मिशन के तहत डॉक्‍टर व स्‍वास्‍थ्‍य कर्मी जागरूक करेंगे, जबकि स्‍कूल छोड़ चुके किशोरों तक ऐसी सेवाओं को पहुंचाने के लिए आशा कार्यकर्ता व नए युवा कार्यकर्ताओं की मदद ली जाएगी।

देश में किशोरियों से जुड़ी सेहत को नकारा नहीं जा सकता है। नेशनल फैमिली हेल्‍थ सर्वे-3 के अनुसार 56 प्रतिशत किशोरियां एनीमिया से ग्रसित हैं। इसी तरह 15-19 साल की पचास फीसदी लड़कियां कुपोषण या अतिपोषण की शिकार हैं। भारत में लगभग 2.4 प्रतिशत किशोरियां मोटापे की भी शिकार हैं। राष्‍ट्रीय किशोर स्‍वास्‍थ्‍य कार्यक्रम इस खास तबके की लड़कियों के लिए वरदान साबित हो सकता है। ज्‍यादातर लड़कियों को अपनी सेहत को लेकर जानकारियां नहीं के बराबर होती हैं। बढ़ती उम्र में शरीर में बीमारियों के प्रतिरोधियों के ज्‍यादा मौजूद होने के कारण ज्‍यादातर लड़कियां गंभीर बीमारियों के प्रति सुस्‍त रवैया अपनाए रहती हैं। इन लड़कियों को अपने शरीर की विभिन्‍न बीमारियों की जांच के लिए सुविधाएं उपलब्‍ध होंगी। घर से बाहर नहीं निकलने वाली किशोरियों तक स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाएं पहुंचाने और जानकारियां देने के लिए आशा कार्यकर्ताओं की मदद ली जाएगी।

भारत में सेहत सूचकांक को बेहतर करने के लिए मातृ मृत्‍यु दर को कम करना एक बहुत बड़ी चुनौती है। रजिस्‍ट्रार जनरल ऑफ इंडिया के ताजा आंकड़ों के अनुसार देश में अभी भी प्रति एक लाख पैदा होने वाले शिशुओं के दौरान 212 प्रसूताओं की मौत हो जाती है। इसमें किशोरियों की आबादी सबसे ज्‍यादा मानी जाती है। 'यूनिसेफ' के एक ताजा शोध में भी बताया गया है कि 19 वर्ष से कम उम्र की लगभग 40 प्रतिशत लड़कियां शादीशुदा हैं। इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि बाल विवाह और मातृ मृत्‍यु दर में सीधा संबंध है। किशोरों के इस खास कार्यक्रम में केन्‍द्रीय स्‍वास्‍थ्‍य मंत्रालय राज्‍यों की मदद से बाल विवाह और जल्‍दी विवाह जैसी प्रथा पर रोक लगाने की कोशिश करेगा। इसके लिए महिला व बाल विकास मंत्रालय और राज्‍यों में इन विभागों के साथ तालमेल बिठाने की भी योजना है।


हालांकि, अभी तक देश में ऐसी कोई स्‍वास्‍थ्‍य योजना नहीं बनी थी जिसमें किशोरों के खास वर्ग पर गौर किया गया हो, लेकिन उम्‍मीद की जा सकती है कि मौजूदा कार्यक्रम से इनका भला होगा। आगामी दशक में एक सशक्‍त देश बनने के लिए एक सेहतमंद युवा समाज के लिए यह कार्यक्रम मील का पत्‍थर साबित हो सकता है।

मंगलवार, 28 जनवरी 2014

ई-कचरे से निपटने की जिम्मेदारी किसकी

संयुक्त राष्ट्र ने एक बार फिर इलेक्ट्रानिक कचरे (ई-कचरे) की बढ़ती मात्रा पर दुनिया भर के देशों को सचेत किया है। ई-कचरे की बढ़ती हुई मात्रा से निपटने के लिए शुरू किए गए अपने स्टेप इनीशिएटिवमें संयुक्त राष्ट्र ने कहा है- आने वाले चार सालों में ई-कचरा अपनी वर्तमान मात्रा का 33 प्रतिशत बढ़ जाएगा। क्रिसमस पर इलेक्ट्रानिक सामानों की भारी खरीददारी के चलते ई-कचरे की मात्रा में उछाल आने का अनुमान है। इस दिन विकासशील देशों में अवैध रूप से निस्तारित किए जाने वाले ई-कचरे से सावधान रहने के जरुरत है। वैसे संयुक्त राष्ट्र की इस चिंता को इंटरपोल की एक जांच से भी बल मिला है। कुछ ही दिनों पहले इंटरपोल ने यूरोप में विकासशील देशों को रवाना होने वाले कुछ जहाज़ों में अवैध ई-कचरे पाया, लगभग चालीस कंपनियों के खिलाफ जांच के आदेश भी जारी किए।

हालांकि इंटरपोल के अधिकारियों ने साफ किया कि किन्हीं वजहों से खारिज किए गए सामान का निर्यात किया जाना अवैध नहीं है, लेकिन ऐसा तभी किया जा सकता है जब रिसाइकलिंग कर उनका उपयोग दोबारा संभव हो। अगर इसकी कोई संभावना नहीं बची है तो ऐसे सामानों को निर्यात किया जाना अवैध है। ऐसे सामानों की बिक्री सामान्यतः चोरी-छिपे होती है और जिसके पर्यावरण पर घातक प्रभाव पड़ते हैं। जाहिर है कि इन सभी चेतावनियों और पहलकदमियों में जो मुख्य मुद्दा है- वह ई-कचरे के सुरक्षित निस्तारण से जुड़ा है। बीते सालों में संयुक्त राष्ट्र के सभी प्रयास इसी दिशा में केंद्रित रहे हैं। हालांकि आरंभ से ही विकासशील देशों में ई-कचरे के निस्तारण को लेकर संयुक्त राष्ट्र ज्यादा गंभीर रहा है।

इस समय चीन ई-कचरे का उत्पादन करने का मामले में पहले स्थान पर आता है जबकि इसके बाद अमेरिका का नंबर है। यूरोप में जर्मनी सबसे ज्यादा ई-कचरा पैदा करता है तो ब्रिटेन इस मामले में पूरी दुनिया में सातवें पायदान पर है। दिलचस्प बात ये है कि यूरोप और अमेरिका से अफ्रीका और एशिया को निर्यात किए जाने वाले ई-कचरे की मात्रा के आंकड़ें अब तक उपलब्ध नहीं हैं। यूरोपीय पर्यावरण एजेंसी (ईईए) ये अनुमान जरूर व्यक्त करती है कि यूरोप से कुल 2,50,000 से लेकर 13  लाख टन के बीच  इस्तेमाल किया हुआ ई-कचरा पश्चिमी अफ्रीका और एशिया के देशों को निर्यात किया जाता है, लेकिन अलग-अलग देशों से संबंधित आंकड़ें उसके पास भी उपलब्ध नहीं हैं। इस बात को प्रमाणित करने वाले तमाम आंकड़ें मौजूद हैं, जिनसे पता चलता है कि विकसित देशों की ओर से बगैर रिसाइकल किया गया ई-कचरा चीन और भारत जैसे विकासशील देशों के कई हिस्सों में निर्यात कर दिया गया।


ऐसे में सवाल यही है कि क्या ई-कचरे के सुरक्षित निस्तारण की पूरी जिम्मेदारी विकासशील देशों पर डाली जा सकती है, जबकि विकसित देशों के पास इनके निपटारे की क्षमता और तकनीकें ज्यादा हैं। अवैध रूप से निर्यात किए जाने वाले ई-कचरे के पूरे तंत्र से निपटने की संयुक्त राष्ट्र के पास क्या व्यवहारिक योजना है? निश्चित तौर पर विकासशील देशों में इसके निस्तारण की सुरक्षित तकनीकें विकसित करना आवश्यक है, लेकिन ई-कचरे के अवैध स्त्रोतों पर नियंत्रण स्थापित करना भी जरूरी है।

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