सोमवार, 2 दिसंबर 2013

वैश्विक आतंकवाद का खतरा बरकरार

आतंकी संगठन लश्कर-ए-तोयबा पहले की अपेक्षा आज कहीं यादा मजबूत हो गया है, पाकिस्तान में इसके सुरक्षित गढ़ हैं। संगठन को चलाने के लिए इसके आर्थिक मददगारों की संख्या भी बढ़ी है और चंदा इकट्ठा करने के लिए खाड़ी में इसके पास मजबूत नेटवर्क है। यह भारत का कहना नहीं है बल्कि अमरीका के रक्षा विशेषज्ञों का आकलन है। अमरीकी विशेषज्ञों का जो विश्लेषण सामने आया है उनके मुताबिक 2611 के मुम्बई हमलों के पांच वर्ष बीत जाने के बाद लश्कर की ताकत में बहुत बड़ा इजाफा हुआ है। पाकिस्तानी सेना और वहां की खुफिया एजेंसी आईएसआई का वह भारत के खिलाफ  एक पसंदीदा  हथियार बन गया है। विशेषज्ञों का आकलन है कि लश्कर, जमात-उद-दावा जिसको अमरीका भी सबसे बड़ा खतरा मानता है, से जुड़ा हुआ सशस्त्र संगठन है। अनुमान है कि जमात के पास पांच लाख से यादा प्रशिक्षित हथियारबंद सदस्य हैं और वे अन्य आतंकी संगठनों के साथ मिलकर काम करते हैं। जहां तक लश्कर तथा अन्य आतंकवादियों का सवाल है, भारत हमेशा से यह कहता आ रहा है कि पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान उसका सबसे बड़ा पनाहगार है। वहां आतंकी संगठनों को प्रशिक्षण दिया जाता है और उनका इस्तेमाल भारत में दहशत पैदा करने के लिए किया जा रहा है। अभी बीते दिनों ही प्रधानमंत्री ने देश की सुरक्षा व्यवस्था से जुड़ी मशीनरी को आतंकी हमलों के प्रति सचेत भी किया है और कहा है कि ऐसे तत्व अपनी नापाक गतिविधियों से देश में चल रही चुनाव की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधा डाल सकते हैं।

जहां तक मुम्बई हमले के दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की बात है तो उस घटना की  पांचवीं बरसी पर भारत के गृहमंत्री ने फिर एक बार इस बात को दोहराया और पाकिस्तान से आग्रह किया कि उस आतंकी हमले के दोषियों के खिलाफ सख्त  कार्रवाई करें। उन्होंने इस बात का भी जिक्र किया कि इस हमले के दोषियों को जल्दी सजा दिलाने के नजरिये से ही भारत ने पाकिस्तानी न्यायिक आयोग को दो बार भारत आने की इजाजत भी दी जिससे वह इस मामले के जांच अधिकारियों के बयान ले सके और त्वरित कार्रवाई की जा सके। भारत ने आतंकवाद के मसले को अमरीका के साथ-साथ दुनिया के सभी बड़े मुल्कों और प्रमुख मंचों पर कई बार उठाया भी।  मुम्बई हमले के बाद भारत की तरफ से इस बात के पुख्ता सबूत पेश किए गए कि आतंकियों का सरपरस्त पाकिस्तान का खुफिया संगठन आईएसआई है। अमरीका के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र ने भी पाकिस्तान से इंसानियत के खिलाफ किए गए उस भयानक अपराध के दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करते हुए उन्हें कटघरे में लाने की चेतावनी दी। अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के प्रवक्ता का कहना था कि हमारी सरकारें वैश्विक आतंकवाद के खतरों से निपटने के लिए मिलजुल कर सहयोग कर रही हैं।  ऐसे में पाकिस्तान को चाहिए कि वह मुम्बई हमले के सरगना और उसके प्रायोजकों को इंसाफ के कटघरे में खड़ा करें। लेकिन यह सब एक औपचारिकता ही दिखाई देती है। जहां तक अमरीका का सवाल है वह अपनी जरूरत के हिसाब से अपनी रणनीति और कार्रवाईयों की दिशा तय करता है। उसे जब जरूरत महसूस हुई तो उसने आतंकवाद को प्रश्रय देने वाले लादेन को खुफिया सैन्य कार्रवाई करके पाकिस्तान के अन्दर ही मार डाला, यहां तक कि उसके शव को भी खुद ही ऐसे ठिकाने लगा दिया जिससे उसका कोई अता-पता ही न चल सके।

जहां तक भारत में आतंकी घटनाओं का सवाल है, चाहे वह संसद पर हमले का मामला रहा हो या मुम्बई की 2611 की घटना अथवा सीमा पार से लगातार हो रही घुसपैठ, इन आतंकी घटनाओं में भारत ने बड़े पैमाने पर अपने जन-धन की हानि उठाई है। आए दिन कश्मीर से लगी सीमा पर पाकिस्तान की तरफ से लगातार घुसपैठ की खबरें मिलती रहती हैं। निश्चितरूप से आतंकी पाकिस्तानी सेना की सहमति के बिना सीमा पार कर भारत में घुसपैठ नहीं कर सकते। भारत ने इस बारे में पाकिस्तान सरकार के साथ बार-बार इस तथ्य को रखा और पिछली बार जम्मू क्षेत्र में हुई आतंकी घटना जिसमें आतंकियों ने भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ कर  सेना के शिविर और सिविल पुलिस की चौकियों पर हमला कर तबाही मचा दी थी, उसके बाद स्थिति यहां तक पहुंच गई कि  लग रहा था दोनों देशों के बीच वार्ता के दरवाजे हमेशा के लिए बन्द हो जायेंगे, लेकिन भारत हमेशा शांति और सहअस्तित्व का अनुयायी रहा है तथा पड़ोसी से भी वह इसी तरह की उम्मीद करता है क्योंकि उसका मानना है कि शांति के रास्ते चलकर ही देश का विकास किया जा सकता है। वह ऐसे किसी भी कार्रवाई का पक्षधर नहीं रहा जिससे दोनों देशों के सम्बन्ध हमेशा के लिए टूट जाए, लेकिन पाकिस्तान की तरफ से इस दिशा में कोई सकारात्मक पहल नहीं दिखाई देती। 

आईएसआई, जिसका पाकिस्तानी सेना के साथ गहरा तालमेल है उसके द्वारा आतंकी संगठनों को लगातार समर्थन और वित्त पोषित किया जा रहा है। पाकिस्तान में लोकतंत्र के हिमायतियों और शांति के पक्षधरों की तादाद कम नहीं है लेकिन वहां की सरकार सेना, आईएसआई और भारत विरोधी कट्टरपंथियों के जाल से निकलने का साहस नहीं कर पा रही है। सत्ता बदलने के बाद नवाज शरीफ और उनकी सरकार से यह उम्मीद बंधी थी कि वह इस दिशा में कोई ठोस पहल करके दोनों देशों के रिश्तों को सुधारने की कोशिश करेंगे, लेकिन ऐसा कुछ होता दिखाई नहीं दे रहा है।


देशबन्धु

  

रविवार, 1 दिसंबर 2013

एड्स/एचआईवी में गिरावट का रुख जारी

एचआईवी/एड्स महामारी विकास एवं सामाजिक प्रगति के लिए बहुत बड़ी चुनौती बनी हुई है। यह बीमारी गरीबी और असमानता के चलते होती है। समाज के बहुत दुर्बल वर्गों यानी वयोवृद्ध, महिलाओं, बच्‍चों और गरीबों को यह अपना शिकार बनाती है। जो देश समय रहते इसकी प्रतिक्रिया में कुछ नहीं कर पाते, उन्‍हें इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है और इसके परिणामस्‍वरूप उत्‍पादकता, कुशल और तजुर्बेकार श्रम की कमी तथा इलाज पर भारी खर्च और अन्‍य प्रकार के व्‍यय के रूप में उठानी पड़ती है। कारण यह है कि सार्वजनिक सेवाओं की मांग बढ़ जाती है। इसका प्रभाव करीब-करीब राष्‍ट्रीय अर्थव्‍यवस्‍था के हर क्षेत्र पर पड़ता है। चालू वर्ष के विश्‍व एड्स दिवस का विषय रखा गया है साझी जिम्‍मेदारी: एड्स मुक्‍त पीढ़ी के  सशक्‍तीकरण परिणाम।

विश्‍व परिदृश्‍य

अब जबकि इस भयानक छूत की बीमारी के खिलाफ लड़ाई जारी है, अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2012 में 23 लाख वयस्‍क और बच्‍चे इस बीमारी की चपेट में आये। इसकी तुलना में वर्ष 2001 में 33 प्रतिशत कम लोग इस बीमारी से ग्रस्‍त हुए थे। वर्ष 2001 के मुकाबले नये एचआईवी मरीजों की संख्‍या 52 प्रतिशत कम हुई है। मरीजों में बच्‍चे शामिल हैं। एड्से जुड़ी हुई मौतों में भी 30 प्रतिशत कमी आई है। 2005 में जब इस बीमारी का जोर सबसे ज्‍यादा था, इसके इलाज की सुविधाएं बढ़ा दी गईं। टीबी के मरीजों की जरूरतें पूरी की जा रही हैं और उसके महत्‍वपूर्ण परिणाम दिखाई दिये हैं। एचआईवी संक्रमण के साथ जिंदा मरीजों की संख्‍या और इस बीमारी के कारण मरने वाले लोगों की संख्‍या में भी 2004 से 36 प्रतिशत कमी हुई है।

2012 के अंत तक कम और मध्‍यम आय वर्ग वाले देशों में 97 लाख लोग इस बीमारी से मुक्‍त होने के लिए इलाज करा रहे थे। एक वर्ष में भी तब 20 प्रतिशत वृद्धि हुई थी। वर्ष 2011 में संयुक्‍त राष्‍ट्र सदस्‍य देश 2015 तक 1.5 करोड़ एचआईवी मरीजों को चिकित्‍सा सुविधाएं देने का लक्ष्‍य प्राप्‍त करने पर सहमत हुए लेकिन इन देशों ने जैसे-जैसे अपने यहां इलाज की सुविधाएं बढ़ाईं, नये तरीके से इलाज के लाभों से वंचित करने की रूझानें दिखाई दीं। विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन ने इस बीमारी के इलाज के लिए नये मार्ग दर्शक नियम तय किये और इस बीमारी का इलाज चाहने वाले जरूरतमंद लोगों की संख्‍या का अनुमान बढ़ाकर एक करोड़ कर दिया।

एचआईवी के लिए निधियों का दान करने वाले दाताओं की संख्‍या बढ़ रही है। वर्ष 2008 तक यह उतनी ही थी जितनी हर देश में एचआईवी के इलाज पर निधियों की जरूरत पड़ती है। अनुमान लगाया गया कि 2012 में दुनियाभर में एचआईवी संसाधनों के यह 53 प्रतिशत के बराबर थी। अनुमानों के अनुसार वर्ष 2012 में एचआईवी चिकित्‍सा के लिए दुनिया भर में 18.9 अरब अमरीकी डॉलर के संसाधन उपलब्‍ध थे जो जरूरत से तीन से पांच अरब अमरीकी डॉलर कम थे। यह भी अनुमान लगाया गया है कि 2015 तक दुनियाभर में 22 से 24 अरब अमरीकी डॉलर तक एचआईवी मरीजों के इलाज पर खर्च आएगा।

भारत में स्थिति
 
राष्‍ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम संयुक्‍त राष्‍ट्र द्वारा तय ''सहस्राब्‍दी विकास लक्ष्‍य'' पूरा करने की तरफ बराबर प्रगति कर रहा है तथा एचआईवी बीमारी घट रही है। राष्‍ट्रीय स्‍तर पर वयस्‍कों में एड्स की बीमारी में बराबर गिरावट आ रही है और 2001 की तुलना में यह स्‍तर 0.41 प्रतिशत कम हुआ है। 2006 में यह इस स्‍तर में 0.35 प्रतिशत गिरावट आई और वर्ष 2011 में यह स्‍तर 0.27 प्रतिशत कम हुआ। राष्‍ट्रीय स्‍तर पर वयस्‍कों (15-49 वर्ष) एचआईवी अनुमान के अनुसार 2007 में 0.33 प्रतिशत था। वर्ष 2011 में घटकर यह 0.27 प्रतिशत के स्‍तर पर आ गया। वयस्‍कों में एचआईवी की बीमारी कम होने का रुख लगातार बना रहा और जिन राज्‍यों में इसका प्रकोप ज्‍यादा है यानी आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्‍ट्र, मणिपुर, नागालैंड और तमिलनाडु में यह बीमारी अधिक है। अन्‍य राज्‍य हैं मिजोरम और गोवा। लेकिन जिन राज्‍यों में इसका प्रकोप कम है यानी असम, अरुणाचल प्रदेश, चंडीगढ़, छत्‍तीसगढ़, मेघालय, ओडिशा, पंजाब, त्रिपुरा और उत्‍तराखंड-उनमें वयस्‍कों में एचआईवी की बीमारी बढ़ी है।

भारत ने दिखा दिया है कि हर साल एचआईवी संक्रमण के जितने मरीज होते हैं उनमें 57 प्रतिशत कमी आई है। यह कमी पिछले दशक के दौरान आई और वर्ष 2000 में जहां ऐसे मरीजों की संख्‍या 2.74 लाख थी वहीं 2011 में घटकर यह 1.16 लाख के स्‍तर पर आ गई। यह राष्‍ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम के अंतर्गत किये गये उपायों का परिणाम है। अन्‍य कार्य नीतियां भी बढ़ाई जा चुकी हैं। इस बीमारी के मरीजों की संख्‍या में महत्‍वपूर्ण कमी का कारण उन राज्‍यों से आया है जहां ये बीमारी ज्‍यादा है और जहां पर उक्‍त अवधि में मरीजों की संख्‍या 76 प्रतिशत घटी है। एचआईवी/एड्स के भारत में जितने जिंदा मरीज हैं, उनकी संख्‍या 2011 में 21 लाख आंकी गई है। इनमें 15 वर्ष के कम आयु के बच्‍चे (1.45 लाख) सात प्रतिशत जबकि 15 से 49 वर्ष आयु वर्ग की 46 प्रतिशत महिलाएं शामिल हैं। जितने भी एचआईवी मरीज हैं, उनमें 39 प्रतिशत (8.16 लाख) महिलाएं हैं। भारत में एचआईवी जिंदा मरीजों की संख्‍या लगभग स्थिर बनी हुई है। यह जहां 2006 में 23.2 लाख थी, वहीं 2011 में 21 लाख थी।
कार्यक्रम के आंकड़ों से संकेत मिलता है कि 2009-10 और 2010-11 के बीच में इलाज की सुविधाएं वयस्‍कों के लिए 30 प्रतिशत बढ़ गई। इससे अनुमान है कि एड्स से ग्रस्‍त लोगों की वार्षिक मृत्‍यु संख्‍या में 29 प्रतिशत कमी आई। यह एनएसीपी-3 अवधि (2007-2011) के दौरान हुआ। उन राज्‍यों में मृत्‍यु संख्‍या में खासतौर से कमी दिखाई दी जहां नये ढंग से इलाज की सुविधाएं बढ़ाने का कार्यक्रम पूरा कर लिया गया। जिन राज्‍यों में एड्स के कारण मृत्‍यु दर अधिक है, वहां भी एड्स से मरने वालों की संख्‍या में 42 प्रतिशत कमी आई। 2007 से 2011 के बीच 42 प्रतिशत गिरावट देखी गई। जुलाई 2013 की स्थिति के दौरान देश में एचआईवी के 6.76 लाख जिंदा मरीज हैं, जो नये ढंग की चिकित्‍सा से लाभ उठा रहे हैं।

जिन लोगों को इस बीमारी से ज्‍यादा खतरा है उनके लिए चिकित्‍सा सेवाएं देने में महत्‍वपूर्ण सुधार आया है। फिलहाल, 84 प्रतिशत महिला सेक्‍स वर्करों में 87 प्रतिशत पुरूषों के साथ सहवास करती हैं और 84 प्रतिशत सूईयों के जरिए नशा करने वालों को चिकित्‍सा उपलब्‍ध है। 2011 में इसके प्रभाव के मूल्‍यांकन से पता चला कि महिला सेक्‍स वर्करों में एचआईवी में गिरावट राष्‍ट्रीय कार्यक्रम के कारण आई और अनुमान लगाया गया है कि इस राष्‍ट्रीय कार्यक्रम के कारण 2015 तक महिला सेक्‍स वर्करों में इस बीमारी के प्रचलन में गिरावट आई और अनुमान के अनुसार एचआईवी के 30 लाख मामले रोके जा सके। इसका कारण 2015 तक इस राष्‍ट्रीय कार्यक्रम के अंतर्गत लक्ष्‍य समूहों में बीमारी रोकने का अभियान था।

विश्‍व बैंक और नॉको
भारत को राष्‍ट्रीय एड्स नियंत्रण परियोजना के लिए 1991 से विश्‍व बैंक से निधियां प्राप्‍त होनी शुरू हुईं और तब से राष्‍ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम चल रहा है। 1990 से शुरू दशक के शुरूआती वर्षों में एनएसीपी में रक्‍त की सुरक्षा पर ध्‍यान दिया जाता था। जिन समूहों में एड्स का खतरा ज्‍यादा तथा उनमें इसे रोकने के कदम उठाये गये। आम जनता में चेतना लाई गई। राष्‍ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम के दूसरे चरण (1999-2006) में भारत में इस कार्यक्रम का विस्‍तार किया गया और इसे राज्‍य स्‍तरों पर शुरू किया गया। एड्स मरीजों पर खासतौर से ध्‍यान दिया गया। एचआईवी निरोधक कार्यक्रम में एनजीओ को शामिल किया गया। तीसरे चरण में इस बीमारी को रोकने के लक्ष्‍य बढ़ा दिये गये और इसमें उन सभी लोगों को शामिल किया गया जो इस खतरे के दायरे में थे। ऐसा जागरूकता तंत्र का विस्‍तार करके किया गया। इससे सरकार को यह मालूम करने में सहायता मिली कि यह बीमारी कितनी बढ़ चुकी है, किन राज्‍यों में यह ज्‍यादा प्रचंड है और आबादी के वे कौन-कौन से समूह हैं, जो इसके खतरे के दायरे में हैं। 

एनएसीपी के चौथे चरण के लक्ष्‍य दीर्घकालीन निरंतरता के लिए भारत सरकार की 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-2017) के समावेशी वृद्धि और विकास के लक्ष्‍य से जुड़ी हुई है। अगले पांच वर्ष के दौरान राष्‍ट्रीय कार्यक्रम का लक्ष्‍य एचआईवी संक्रामक रोग को समाप्‍त करने में तेजी लाना है। नवाचार पहुंच के जरिए कार्यक्रम का मकसद सर्वाधिक जोखिम वाले आबादी समूह के पास लक्षित निवारक हस्‍तक्षेप करना है, जिसमें व्‍यापक हिफाजत को बढ़ाना, सहायता और इलाज, जानकारी का विस्‍तार, व्‍यवहार में बदलाव पर ध्‍यान देने के साथ शिक्षा और संचार, मांग बढ़ाना और कलंक को मिटाना, एकीकरण की प्रक्रिया और संस्‍थागत क्षमता को और बढ़ाना, समूचे कार्यक्रम घटकों में नई राहें तलाशने जैसी मुहिम जारी रखना शामिल है।

राष्‍ट्रीय एड्स नियंत्रण समर्थन परियोजना (एनएसीएसपी) परिणामों पर ध्‍यान देते हुए एनएसीपी 2012-2017 के चौथे चरण की सामरिक योजना में सहयोग करेगी। परियोजना के तीन घटक होंगे :

घटक एक : लक्षित निवारक हस्‍तक्षेपों को बढ़ाना (कुल अनुमानित लागत 440 मिलियन अमरीकी डॉलर)।

घटक दो : संचार व्‍यवहार बदलाव (कुल अनुमानित लागत 40 मिलियन अमरीकी डॉलर)।

घटक तीन : संस्‍थागत सुदृढता (कुल अनुमानित लागत 30 मिलियन अमरीकी डॉलर)।

एनएसीएसपी के ढांचागत क्रियान्‍वयन और संस्‍थागत व्‍यवस्‍थाएं एनएसीपी तीन की तरह ही होगी। इसके कार्यक्रमों का प्रबंधन केन्‍द्रीय स्‍तर पर एड्स नियंत्रण विभाग, राज्‍य स्‍तर पर राज्‍य एड्स नियंत्रण सोसयटियों (एसएसीएस) और जिला स्‍तर पर जिला एड्स निवारक नियंत्रक इकाईयां करेंगी। तकनीकी समर्थन इकाइयों को एनएसीपी-तीन के दौरान एसएसीएस के साथ राज्‍यों में लक्षित हस्‍तक्षेपों को सहयोग देने, गुणवत्‍ता, निगरानी के लिए गठित किया गया था।

हालांकि समग्र एचआईवी के फैलाव की दर सर्वाधिक जोखिम समूह के बीच घट रही है। यह 2010-11 के दौरान मादक द्रव पदार्थ लेने वालों के बीच 7.14 प्रतिशत, पुरुषों के साथ यौन संबंध बनाने वाले पुरुषों के बीच 4.43 प्रतिशत और महिला सेक्‍स वर्करों के बीच 2.6 प्रतिशत दर थी। राज्‍यों में काफी फेरबदल हुआ है। इन क्षेत्रों की आबादी तक पहुंच बढ़ाने के प्रयास बहुत आवश्‍यक हो गए हैं। राष्‍ट्रीय कार्यक्रम विश्‍व एड्स दिवस वर्ष 2013 के विषय के साथ दुनियाभर में अपने शानदार प्रदर्शन, प्रबंधन प्रणाली और उत्‍कृष्‍ट कार्यों से प्राप्‍त अनुभवों के साथ कार्य करना जारी रखेगा। विश्‍व एड्स दिवस का विषय है साझी जिम्‍मेदारी : एड्स मुक्‍त पीढ़ी के सशक्‍तीकरण परिणाम।



PIB

शनिवार, 30 नवंबर 2013

ईरान की बढ़ती अहमियत से सऊदी अरब परेशान क्यों

कभी ईरान के शाह पहलवी अमेरिका के बहुत प्रिय हुआ करते थे लेकिन जब उनकी यादतियां सारी हदें पार कर गईं तो ईरान की अवाम ने पेरिस में रह रहे एक धार्मिक नेता अयातोल्ला खुमैनी के नेतृत्व में उनका तख्त बदल दिया, ताज बदल दिया और इस्लामी सरकार कायम कर दी। ईरान में अपनी तरह की लोकशाही शुरू हो गई और अमरीका और ईरान में दूरियां बढ़ गईं। एक मुकाम तो ऐसा भी आया जब अमरीका ने ईरान पर सद्दाम हुसैन से हमला करवाया। यह पुरानी बात है। उसके बाद से दजला और फरात नदियों में बहुत पानी बह गया। सद्दाम हुसैन जो कभी अमेरिका के सबसे करीबी भक्त हुआ करते थे, अमेरिका की कृपा से मारे जा चुके हैं, इराक में अब शिया मतावलंबी प्रधानमंत्री पदस्थ किया जा चुका है और अमेरिका की समझ में पूरी तरह से आ गया है कि ईरान से पंगा लेना उसको बहुत महंगा पड़ सकता है। ऐसे माहौल में अमेरिका ने एड़ी चोटी का जोर लगाकर ईरान से दोस्ती की कोशिश शुरू कर दी है। परमाणु हथियारों की अपनी दादागीरी की आदत से अमेरिका को बहुत नुकसान हुआ है लेकिन वह दुनिया के किसी मुल्क की परमाणु ताकत को वह अभी भी दबा देना चाहता है। अमरीका समेत सुरक्षा परिषद के सभी पांचों स्थायी सदस्यों की इच्छा यही रहती है कि उनके अलावा और कोई भी परमाणु ताकत न बने लेकिन उनकी चल नहीं रही है। ईरान के मामले में भी एक बार यही हो रहा है लेकिन दुनिया की राजनीति के बदल रहे नए समीकरणों के चलते अब खेल बदल गया है। अब ईरान को एक परमाणुशक्ति के रूप में स्वीकार करने के अलावा अमरीका के सामने और कोई रास्ता नहीं है।

ईरान के साथ अमरीका और अन्य देशों के समझौते का जश्न पश्चिमी दुनिया में मनाया जा रहा है लेकिन इस समझौते से एक तरह से परमाणु हथियारों की दुनिया में अपना दबदबा बनाए रखने की सुरक्षा परिषद के स्थायी देशों की मंशा ही सबसे स्थायी कारण नजर आती है। इजरायल के दबाव में पिछले कई वर्षों से इ्ररान पर पश्चिमी देशों की तरफ से लगाई गई पाबंदियां भी देश के हौसले को नहीं रोक पाईं। बहरहाल आखिर में उनकी समझ में आ गया कि ईरान से बातचीत करने का सही तरीका यह है कि उसको रियाया न समझा जाए, उसके साथ बराबरी के स्तर पर बातचीत की जाए ।

मौजूदा समझौते के बाद ईरान का परमाणु संवर्धन का कार्यक्रम जारी रहेगा। दस्तावेज में लिखा है कि शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिए आपसी परिभाषा के आधार पर परमाणु संवर्धन का कार्यक्रम चलाया जाएगा। इरान ने वचन दिया है कि वह समझौते के छ: महीनों में यूरेनियम का पांच प्रतिशत से यादा का संवर्धन नहीं करेगा  या 3.5 प्रतिशत संवर्धन वाला जो उसका भण्डार है उसमें कोई वृध्दि नहीं करेगा। 3.5 प्रतिशत के संवर्धन पर ही बिजली पैदा की जा सकती है जबकि हथियार बनाने के लिए 90 प्रतिशत संवर्धन की जरूरत पड़ती है। इरान ने समझौते में पूरा सहयोग किया है। उसने अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी को अपने परमाणु ठिकानों की जांच करने का पूरा अधिकार देने का वचन दिया है। इसके बदले में  अमरीका, फ्रांस, चीन, रूस, जर्मनी और ब्रिटेन ने ईरान को वादा किया है कि वह उसके तेल पर लगाई गई पाबंदियों पर ढील देगें।  ईरान से पेट्रोल के निर्यात पर जो पाबंदी लगी हुई है वह भी दुरुस्त की जायेगी। सुरक्षा परिषद में भी ईरान के खिलाफ कोई पाबंदी  का प्रस्ताव नहीं लाया जाएगा। ओबामा की सरकार भी  ईरान पर पाबंदियां लगाने या उसकी धमकी देने से बाज आयेगी। यह पाबंदियां इरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए लगाई गई थीं। वह तो कहीं रुका नहीं अलबत्ता ईरान की जनता ने सारी तकलीफें झेलीं।  इजरायल इस नए कूटनीतिक विकास से सबसे यादा परेशान है। उसके जाहिर से कारण हैं। अभी तक वह अमेरिका के लठैत के रूप में पश्चिम एशिया में मनमानी करता रहा है लेकिन सऊदी अरब की परेशानी भी कम नहीं है। ईरान के साथ अमरीका के रिश्ते ठीक होने का नतीजा यह होगा कि पश्चिम एशिया में अमेरिका के सबसे भरोसेमंद अरब देश के रूप में पहचाने जाने वाले देश के रूप में सऊदी हनक कम हो जायेगी। ईरान की कोशिश यह भी चल रही है कि पश्चिम एशिया में शिया शासकों की संख्या बढ़ाई जाए। जबकि यह  रियाद को यह बिलकुल पसंद नहीं है। सऊदी अरब  ने देखा है कि किस तरह से 2010 के चुनाव के बाद भी ईरान की मदद से इराक में शिया राष्ट्रपति बना रहा गया। रियाद की परेशानी यह है कि अमरीकी सत्ता में उनके कोई लाबी ग्रुप नहीं हैं। इसलिए वह अमेरिका की नीतियों को उस तरह से नहीं प्रभावित कर पाता जिस तरह से इजरायल कर लेता है। इसलिए ईरान के साथ हुए अमेरिका और अन्य ताकतवर देशों के समझौते को समर्थन देने के अलावा सऊदी अरब के पास कोई रास्ता नहीं था। सउदी अरब को डर है कि पश्चिम एशिया की राजनीति में उनकी घट रही ताकत को और गति मिल जायेगी। उनके घोषित शत्रु ईरान अब उनके आका अमेरिका के करीब आ  जाएगा। ईरान ने अपनी ताकत इराक और लेबनान में बढ़ा ही लिया है। सीरिया में भी बशर अल असद के साथ इरान के सम्बन्ध हैं और सुन्नियों के हमलों को रूस और इरान के बल पर लगातार नाकाम किया जा रहा है। सऊदी अरब को उम्मीद थी कि वह सीरिया के खिलाफ भी फौजी ताकत का इस्तेमाल करेगा। खासतौर से जब पिछले अगस्त में दमिश्क के पास एक आबादी पर सीरिया की सेना की तरफ से कथित रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल की खबर आई थी। अगर ऐसा हुआ होता तो बशर अल असद की सत्ता को हटाकर सऊदी पसंद का कोई शासक वहां बैठाया जा सकता था लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा ने दूसरा रास्ता चुन लिया। उन्होंने रूस से समझौता कर लिया कि सीरिया अपने रासायनिक हथियारों को खत्म कर देगा। हालांकि इस समझौते को ओबामा की भारी कूटनीतिक सफलता माना गया लेकिन सऊदी अरब को इस से बहुत निराशा हुई।

अमेरिका की कथित शह से पश्चिम एशिया और उत्तर अफ्रीका में लोकतंत्र की आवाजें जब जोर पकड़ने लगीं तो सऊदी हुक्मरान बहुत चिंतित हुए। इसी प्रक्रिया में उनका सबसे करीबी अरब दोस्त होस्नी मुबारक हटा दिया गया और बहरीन में भी सुन्नी शासक के खिलाफ जब लोकतंत्र वाले जुलूस निकलने लगे तो सउदी अरब वालों को लगा कि उस अभियान को भी ईरान का सहयोग हासिल है। बहरीन का शासक सुन्नी है लेकिन वहां भी आबादी का बहुमत वाला हिस्सा शिया समुदाय वालों का है।

कुल मिलाकर सऊदी अरब को इस बात से नाराजगी तो है कि अमेरिका ईरान की तरफ खिंच रहा  है लेकिन जानकारों को मालूम है कि अमेरिका अभी सउदी अरब से रिश्ते खराब नहीं कर सकता। खाड़ी के देशों में अमरीकी हितों के सबसे बड़े संरक्षक के रूप में रियाद की हैसियत अभी कायम है और आने वाले बहुत दिनों तक उसके कमजोर होने की कोई संभावना नहीं है। लेकिन अमेरिका भी खाड़ी के देशों में सऊदी अरब के विकल्प की तलाश कर रहा है। इराक में सत्ता परिवर्तन के साथ उनको उम्मीद थी कि वहां एक ऐसा साथी मिल जाएगा जो पुराने सद्दाम हुसैन की तरह काम करेगा लेकिन वाहन बहुमत की सत्ता आ गई और बहुमत वहां शियाओं का है। नतीजा यह  हुआ कि वहां का शासक ईरान के यादा करीब चला गया। अमेरिका को खाड़ी के धार्मिक संप्रदायों की उठापटक में कोई रुचि नहीं है। उसे तो वहां ऐसे राजनीतिक हालात चाहिए जिससे उसकी मौजूदगी और ताकत मजबूती के साथ जमी रहे। सबको मालूम है कि किसी भी कूटनीतिक चाल का उद्देश्य अपने राष्ट्रीय हित को मुकम्मल तौर पर पक्का करना होता है। इसलिए अमेरिका इस इलाके में सऊदी अरब के ऊपर निर्भरता कम करने के लिए ईरान को साथ लेने की नीति पर काम कर रहा है। यह शुरुआत है। सऊदी अरब को मालूम है कि  ओबामा अब खाड़ी के देशों की राजनीति पर उतना ध्यान नहीं देंगे क्योंकि अब चीन के आसपास के देश उनकी प्राथमिकता सूची में यादा ऊपर आ गए हैं।


इस सबके बावजूद भी सउदी अरब और अमेरिका के बीच बहुत कुछ साझा है। दोनों ही देश पश्चिम एशिया में अल कायदा और ईरान की बढ़ती ताकत से परेशान हैं। अमेरिका को लाभ यह है कि वह ईरान से दोस्ती करके अपनी कूटनीतिक चमक को मजबूत कर सकता है लेकिन यह रियाद वालों को बिलकुल सही नहीं लगता।  उनके पास अमेरिका के अलावा किसी और से मदद की उम्मीद भी नहीं है और संभावना भी नहीं है। बीच में सऊदी शासकों ने यूरोपियन यूनियन से दोस्ती बढ़ाने की कोशिश की थी लेकिन वे बेचारे तो अमेरिका की ही मदद के याचक  हैं।  रूस और चीन भी अमेरिका का विकल्प नहीं बन सकते इसलिए न चाहते हुए भी सऊदी अरब को अमेरिका का साथी बने रहने में भलाई नजर आती है।  लेकिन एक बात साफ है कि ईरान से जिनेवा में हुए इस समझौते के बाद खाड़ी की राजनीति में मौलिक बदलाव आने वाला है।  यह भी तय है कि पिछले कई दशकों से अमरीकी राजनीति की गलतियों के चलते पश्चिम एशिया में जो संघर्ष के हालात पैदा हो गए थे अब उनमें भी बदलाव होना तय है। हो सकता है कि इसका श्रेय बराक ओबामा के खाते में जाय और उनकी वाहवाही हो लेकिन मध्यपूर्व में अमेरिका के सबसे बड़े सहयोगी के रूप में सऊदी अरब की हैसियत कम हों एक दिन बहुत करीब आ गए हैं।




देशबन्धु

बेरोजगारी की वार्षिक रिपोर्ट 2012-13 जारी

भारत में शिक्षित बेरोजगारी और युवाओं के  रोजगार में घटते अवसरों पर श्रम एवं रोजगार मंत्रालय से संबद्ध श्रम ब्यूरो, चंडीगढ़ ने अपने प्रथम वर्ष के तृतीय वर्ष 2012-13 के लिए रोजगार एवं बेरोजगार रिपोर्ट  28 नवंबर 2013 को जारी की. इससे पूर्व श्रम  एवं रोजगार मंत्रालय रोजगार एवं बेरोजगार से संबंधित दो रिपोर्ट 19 सितंबर 2013 को जारी कर चुका है.

इस रिपोर्ट में मुख्यतः  रोजगार एवं बेरोजगारी आंकड़ो को मापने के लिए आयु समूहों ,शिक्षा एवं ग्रामीण और शहरी  क्षेत्रो को सम्मिलित किया गया है.  इसमें अक्टूबर 2012 से मई 2013 तक के राज्यों तथा संघ राज्य क्षेत्रो के श्रम संबंधी अनुमानों को शामिल किया गया है.

राष्ट्रीय स्तर पर बेरोजगारी की दर

आयु समूह
बेरोजगारीकी दर(प्रतिशत में)
15 से 24 वर्ष
18.1
18 से 29
 13.0
15 से 29  
13.3

श्रम शक्ति सहभागिता दर

•  विभिन्न आयु समूह में श्रम शक्ति सहभागिता दर 15 से 24 में 25.5, 18 से 29  में 41.2, 15 से 29  में 34.2 प्रतिशत रही है.
•   उत्तरी राज्यों में श्रम  शक्ति सहभागिता दर पंजाब में 36.2, चंडीगढ़ में  36.2, हिमाचल प्रदेश में 45.2 प्रतिशत रही.

विभिन्न वर्ष आयु समूह से संबंधित तथ्य

इसमें तीन आयु समूह 15 से 24 वर्ष,  18 से 29 वर्ष, 15 से 29 वर्ष  को शामिल किया गया है और 15 से 29 वर्ष आयु समूह मुख्य है.
राज्य स्तर पर इस आयु समूह में बेरोजगारी की दर हिमाचल प्रदेश में 17.7, पंजाब में 13.5 हरियाणा में 12.3, चंडीगढ़ में 13.6 प्रतिशत.
जारी किये गए रिपोर्ट कार्ड के अनुसार 15 से 29 आयु समूह के मध्य रोजगार में लगे युवाओं में अधिकतर स्वरोजगार को अपनाते है.
इस आयु समूह में शिक्षा का स्तर बढ़ने के साथ -साथ बेरोजगारी की दर भी बढ़ रही है रिपोर्ट कार्ड के अनुसार प्रत्येक तीन स्नातक या उच्च शिक्षित युवाओं में से एक युवा बेरोजगार पाया गया है.
ग्रामीण क्षेत्रों में इस आयु समूह के स्नातक लोगो की बेरोजगारी की  दर 36.6 प्रतिशत जबकि उच्च शिक्षित लोगो में बेरोजगारी की  दर 26.5 प्रतिशत रही .
•  अखिल भारतीय स्तर पर इस आयु समूह में वो लोग जो किसी भी भाषा को लिखने या पढ़ने में सक्षम नहीं पायें गए उनकी बेरोजगारी दर सबसे कम 3.7 प्रतिशत रही.

रिपोर्ट से संबंधित तथ्य

इस रिपोर्ट को तैयार करने में युजुअल प्रिंसिपल स्टेटस एपोच, युजुअल प्रिंसिपल एण्ड साब्सिडियरी स्टेटस एप्रोचवर्तमान साप्ताहिक स्तर और मौजूदा दैनिक स्तर दृष्टिकोण को शामिल किया गया.

इस रिपोर्ट कार्ड के आंकड़ो को तैयार करने में ग्रामीण क्षेत्रों के 82,624 आवासों एवं 50,730 शहरी क्षेत्रों के आवासों को सम्मिलित किया गया है.इस रिपोर्ट कार्ड की अनुशंसा अक्टूबर 2012 से मई 2013 तक के सम्मिलित आंकड़ो  के आधार पर की गयी.

शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

NEPAL ELECTIONS 2013

As the Nepal’s election result unfolds, the sudden setback to ‘progressive forces for Change’ is surprising. The Madhes movement of 2007, which invoked federalism, gave rise to political parties from Madhes, drew into the national discourse and garnered support to institutionalise the nation as the ‘Federal Democratic Republic of Nepal’. While Madhesi parties (region-based) performed well in the Constituent Assembly (CA) I election, they have not been able to make the same impact in the CA II election, especially since in CA I, they were perceived as ‘king-makers’ in national government formation or alliances. What has changed in Madhesi politics? What will be the direction of Madhesi politics in the future of Nepal?

Burden of Proof vs. Benefit of Doubt
Since 2008, Madhesi parties have been in the national government with key cabinet positions. However, they have not able to perform as per the expectation of the Madhes people. The political parties were unable to deliver their agenda, and the failure of CA I is considered a major setback for Madhesi parties, leading to overall disenchantment.

Moreover, while contesting for the CA II election, Madhesi parties have divided into many groups to represents the Madhesis. This also contributed to their unpopularity. Interestingly, after 2008, Madhesi parties’ splits were expedited to join successive formations of the national government.

In such a scenario, the election campaign for CA II raised serious concerns about the ability of Madhesi parties to represent the Madhesis. In addition, the national parties have put forward Madhesi candidates in the heartland to appeal to the Madhesi electorate by reaffirming that federalism is now their agenda too.

National parties have therefore placed the burden of Proof on Madhesi parties, that is, since they failed to deliver the agenda of the Madhesis the first time around, what is the likelihood that they will succeed the second time?  This gives national parties the opportunity to ask the Madhesis to allow them to represent their concerns if they are voted in. 

Election of ‘Constituent Assembly’ vs. ‘Parliament’
There was widespread understanding among the people that apart from ‘federalism’ and ‘forms of Government’, CA I resolved issues of constitution-making. Technicalities of federalism are no more an issue as identity is ensured along with economic capability as understood across political parties. The CA II election has more to do with development politics, and hence, CA II is also seen as a normal parliamentary election in which basic amenities of the people matter. In this context, CA I could not deliver and therefore the overall uneasiness with Madhesi parties was strong as they were a part of national government holding key cabinet positions.

Divided Madhesi Parties vs. Division of Votes
The division of Madhesi parties from four parties during the CA I election to nearly thrity (including old and newly registered parties) has severely damaged the credibility of Madhesi politics. This led to a division of votes among the Madhesis. National parties too fielded Madhesi candidates to galvanise Madhesi votes so as to make use of the way Madhesis vote, which is on the basis of their identity/region/caste or language.

Direction of Madhesi Politics
Although Madhesi parties have suffered a serious setback, the emergence of Madhesi politics has raised some major political concerns that have already introduced them into the national discourse. There is a fair chance that they will be able to pull in Madhesi sentiments towards inclusive/representative democracy, distribution of resources, doing away with a monolithic hill-centric nationalism to inclusive citizenship, devolution of power from caste of high hills elites (CHHE) under  a centralised system to a decentralised form of governance under identity-based federalism, rights of self-determination etc. Hence, even if Madhesi parties do not make it to the formation of government/ cabinet bargaining, Madhesi politics would find a way ahead until the CA II does not address the demands of Madhesis, who feel they have suffered emotional discrimination in Nepal.

Challenges for the Constitution-Making Process
At this point, it is extremely difficult to analyse the people’s verdict of the CA II election. Madhesi parties are alleging that the overall process of the CA II election was rigged and are demanding proper investigation to establish the truth. However, this could also be a tactic to buy some time to decide their future course of action. Nonetheless, the political presence of Madhesi parties is inevitable, as is their alliance with progressive federal forces like Janjati’s group and UCPN-Maoist. At the same time, it is the responsibility of the Nepali Congress and CPN-UML to reconcile with other political players.


Historically, Nepal has made numerous mistakes in framing the idea of a nation. At this critical juncture, Nepal cannot afford any failure in making an acceptable constitution. The nation as a whole should also learn from past experience that the culture of winners imposing on losers in the name of ‘people’s mandate’ has detrimental effects on achieving national consensus. This is even more so if the constitution-making process is at stake.  

गुरुवार, 28 नवंबर 2013

यौन उत्पीड़न का सिलसिला

महिलाओं के खिलाफ अपराधों के पंजीकृत मामलों की बढ़ती संख्या महिला सशक्तिकरण की संकेतक है, लेकिन अन्य संकेतकों की तरह ही यह भी असंतुलित है। देश के अनेक भागों में महिलाएं आज भी शोषण का शिकार हैं और चुपचाप पुरुष वर्चस्व वाले समाज में ज्यादतियां बर्दाश्त करती रहती हैं। यह न केवल विद्यमान सामाजिक असमानता का संकेतक है, बल्कि बढ़ती सामाजिक रुग्नता और पाखंड का भी प्रतीक हैं। एक तरफ भारत में देवियों की पूजा की जाती है और दूसरी तरफ उनका शोषण और उत्पीड़न किया जाता है। इस साल मध्य नवंबर तक दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 1435 मामले दर्ज किए जा चुके हैं, जबकि 2012 में महज 706 मामले दर्ज हुए थे। इससे पता चलता है कि महिलाओं पर होने वाले अत्याचार अब मामलों में तब्दील होने लगे हैं। लंबे समय से महिलाएं चुपचाप समाज के अत्याचार सहन कर रही थीं। इस कदम से उन्हें न्याय मिलने में एक हद तक सहायता मिलेगी। हालांकि यह सामाजिक मूल्यों के पतन का भी संकेतक है।

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के जज, जो अब रिटायर हो चुके हैं, पर उनकी सहायिका ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था। इसके बाद विधि क्षेत्र में ही वरिष्ठ पेशेवरों के खिलाफ यौन उत्पीड़न के कुछ और मामले उजागर हुए हैं। यौन उत्पीड़न के बढ़ते मामलों को देखते हुए अब यह आशंका पैदा हो गई है कि सफल वकीलों के दफ्तर में युवा महिला अधिवक्ताओं के काम करने के अवसर सिकुड़ न जाएं। ऐसे में सवाल पैदा होता है कि यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं को क्या करना चाहिए। उन्हें इन मामलों की शिकायत दर्ज करनी चाहिए या नहीं? इस प्रकार की परिस्थितियों में फंस चुकी बहुत सी महिलाएं महसूस करती हैं कि उनके पास हालात से निपटने का कोई कारगर उपाय नहीं है। खासतौर पर उन्हें नौकरी गंवाने की चिंता सताती है। उन्हें लगता है कि गलत हरकतों का विरोध करने पर उन्हें नकारात्मक परिणाम भुगतने पड़ेंगे, जो उनकी सुरक्षा या फिर काम की गुणवत्ता को प्रभावित कर सकते हैं।

नौकरी गंवाने का डर या फिर अनुचित व्यवहार की आशंका कुछ महिलाओं को हालात के सामने समर्पण करने को मजबूर कर देती है। ऐसे में वे गलत हरकतों का विरोध करने के बजाय उन्हें बर्दाश्त करने और अवांछित मांगों की पूर्ति के लिए राजी हो जाती हैं। चूंकि पीड़िता को लग सकता है कि गलत मांगों को मानने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं है, वे प्रतिकार के डर से गलत संबंधों को स्वीकार भी लेती हैं। आंकड़े बताते हैं कि इस साल 540 मामलों में महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीड़न करने वाला उनका दोस्त या प्रेमी है, 330 मामलों में पड़ोसी है और केवल 53 मामलों में पीड़िता से किसी अनजान व्यक्ति ने दुष्कर्म किया है। यह सामाजिक मूल्यों के पतन का द्योतक है।

तरुण तेजपाल के हाई प्रोफाइल मामले में साथी कर्मचारी ने यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज कराई है। तरुण तेजपाल ने इसे नशे में की गई चुहल बताया है और इसमें पीड़िता की सहमति को भी दर्शाया है, लेकिन इससे अनेक सवाल उठते हैं। इसके पीछे क्या मानस था और वह भी अपनी बेटी की दोस्त के साथ इस तरह के व्यवहार का। क्या यह इसलिए हुआ कि वह शराब के नशे में चूर थे या उनके मन में वासना थी? या फिर सत्ता के मद में चूर होने के कारण यह सब हुआ? जिस प्रकार समाज में भ्रष्टाचार के लिए भौतिक संपदा और ताकत महत्वपूर्ण कारण हैं, उसी प्रकार इस प्रकार के आपराधिक कृत्य के लिए वासना और सत्ता प्रमुख कारण हैं। संपत्ति जुटाने के लिए किसी भी हद से गुजर जाना हमें हमारे स्व से काट देता है। इसी प्रकार महिलाओं के प्रति वासना हमें हमारी आत्मा से काट देती है। यह हमें अंतश्चेतना के बजाय तन की वासना की ओर ले जाती है और इससे जुड़ी माया या भ्रम जारी रहता है। आत्मा से कट जाने का दुष्परिणाम यह होता है कि हम खुद से बाहर आनंद तलाशने लगते हैं और यह भूल जाते हैं कि सुख हमारी आत्मा की सहज अवस्था है। यह भी मान लिया गया है कि धन, वासना और सत्ता हमें आनंद देती हैं और इसीलिए भौतिक सुविधाओं को हासिल करने और महिलाओं को काबू में करने की इच्छा बलवती हो जाती है।

आत्मा से संबंध विच्छेद का एक और महत्वपूर्ण कारण है मन की कमजोरी। इसके कारण व्यक्ति बाहरी प्रभावों में बह जाता है, जैसे शराब का नशा और सत्ता का मद। इनके प्रभाव में व्यक्ति विवेक का त्याग कर देता है। आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य हमारे काम को परिणाम की कसौटी पर परखता है, जो जिम्मेदारी का भाव लाने में एक अहम पहलू है। इस सोच के व्यक्ति ही मूल्यों के आधार पर चीजों को देख पाते हैं और सही-गलत के बीच अंतर को पकड़ पाते हैं। अध्यात्म का सबसे महत्वपूर्ण सबक है अहं, क्रोध, लालच, वासना और अनुराग जैसी बुराइयों को त्याग देना। ये सब भ्रम या माया हैं। हालांकि आत्मा से संबंध विच्छेद के कारण हम इन बुराइयों को त्याग नहीं पाते। एक बुराई से दूसरी पैदा होती है और यह कुचक्त्र इसी प्रकार चलता रहता है। जब हम समाज में ऐसे लोगों को अहमियत पाते देखते हैं जिनके पास पैसा, सत्ता और महिलाएं हैं तो हम भी इन्हें प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं।


जैसे-जैसे यौन उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ती हैं, समाज की बुराइयां भी उजागर होती हैं। हमें खुद को ऐसे व्यक्ति के रूप में बदलना होगा जिसका लक्ष्य 'काम करना' है न कि इस पर विचार करना कि 'आप कैसा महसूस करते हैं।' इसलिए अपने आध्यात्मिक लक्ष्यों को निर्धारित कीजिए, भौतिक सुख तो खुद ब खुद मिल जाएगा। ज्ञानोदय तो अवधारणा में परिवर्तन मात्र है। ध्यान बाजार में बिकने वाली प्रतियों से हटाकर इस पर लगाना चाहिए कि पत्रिका में वास्तव में लोग काम करते हैं। अगर तरुण तेजपाल अपनी आत्मा से जुड़े रहते और अपना ध्यान 'मैं क्या हूं' से हटाकर 'मैं यह करता हूं तो क्या हो जाऊंगा' पर केंद्रित करते तो यह घटना नहीं घटती।

ईरान से स्वागतयोग्य समझौता

ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर दुनिया के छह शक्तिशाली देशों, अमरीका, रूस, चीन. फ्रांस, जापान और जर्मनी के साथ जिनेवा में हुआ समझौता इस बात का परिचायक है कि अगर इच्छाशक्ति दिखलाई जाए तो वार्ता से शांतिपूर्ण ढंग से समस्याओं का समाधान तलाशा जा सकता है। ईरान का परमाणु कार्यक्रम में विश्व में तनाव का एक बड़ा कारण बना हुआ था। अमरीका और उसके साथी देश ईरान के परमाणु कार्यक्रमों को बंद कराना चाहते थे। उन्हें संशय था कि शांतिपूर्ण कार्यक्रम की आड़ में ईरान विध्वंस के हथियार न बना रहा हो। जबकि ईरान ऐसे आरोपों को खारिज करता रहा। अपनी बात मानते न देख अमरीका ने ईरान पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए थे, जिसकी वजह से उसकी आर्थिक स्थिति चरमरा गयी थी। ईरान की सीमा में पहुंचते ही वस्तुओं के दाम दोगुने-चौगुने हो जाते। खाद्य सामग्री, दवा व चिकित्सीय उपकरणों के महंगा होने से आम जनता को बेहद तकलीफ थी। ईरान से होने वाले तेल के निर्यात पर भी इसका विपरीत असर पड़ा। इससे न केवल ईरान को बल्कि उसके साथ व्यापार कर रहे दूसरे देशों के लिए कई संकट खड़े हो गए। भारत भी इसका भुक्तभोगी है। बहरहाल, अब ऐसी कई मुश्किलें थोड़े समय के लिए आसान हो जाएंगी, ऐसे आसार बन रहे हैं। जिनेवा में पांच दिनों की वार्ता के बाद जो परमाणु समझौत हुआ उसके तहत ईरान अगले छह महीनों तक अपनी परमाणु संवर्धन क्षमता में कोई वृध्दि नहीं करेगा और इसके लिए जो नए परमाणु संयंत्र वहां बनाए जा रहे हैं, उनके निर्माण कार्य को वहीं का वहीं छोड़ देगा। बदले में उस पर लगे अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों में लगभग 7 अरब डॉलर की ढील दी जाएगी। हालांकि ईरान के राष्ट्रपति ने कहा है कि परमाणु संवर्धन के उसके अधिकार को मान्यता दी गई है, लेकिन अमरीका के विदेश मंत्री जॉन कैरी ने इससे इंक़ार किया है। पर ईरान पांच प्रतिशत से ऊपर यूरेनियम संवर्धन रोकने पर सहमत हुआ है। एक राष्ट्रव्यापी प्रसारण में ईरान के राष्ट्रपति रोहानी ने दोहराया कि उनका देश कभी परमाणु हथियार नहीं बनाएगा। साथ ही उन्होंने कहा, कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि व्याख्या कैसे की जा रही है, संवर्धन के ईरान के अधिकार को मान्यता दी गई है। उन्होंने समझौते की ये कहते हुए सराहना की है कि ये ईरान के बुनियादी उसूलों के हिसाब से है। ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खमेनेई ने भी इस समझौते का स्वागत किया है। 6 महीनों के लिए वैध इस समझौते से सभी प्रसन्न हैं, किंतु इजराइल खिन्न है। उसके मुताबिक यह ऐतिहासिक भूल है। जहां तक भारत का सवाल है, यह समझौता उसके लिए भी फायदेमंद हो सकता है। भारत में तेल आयात का बड़ा हिस्सा ईरान से आता था। अमरीकी दबाव के कारण भारत की इस तेल व्यापार में भागीदारी ख़ासी घट गई और इसका नुकसान भारत को भुगतना पड़ा। फिलहाल ईरान से भारत का तेल आयात घटकर 10 फ़ीसदी से भी नीचे चला गया है। अब इसमें सुधार होगा।


 ईरान भारत का पड़ोसी देश है और वहां से तेल मंगाना आसान और फ़ायदेमंद होता है। ईरान से गैस आयात के लिए जिस पाइपलाइन की बात हो रही है, उस पाइपलाइन परियोजना पर आगे बढ़ा जा सकेगा। ईरान-पाकिस्तान-भारत पाइप लाइन पर तो प्रगति होगी ही, दूसरी तरफ़ ईरान से समुद्र के रास्ते भारत तक गैस पहुंचाने के प्रस्ताव में भी थोड़ी तेज़ी आएगी। भारत की ओएनजीसी विदेश और इंडियन ऑयल जैसी कंपनियों ने ईरान में भारी निवेश कर रखा है, प्रतिबंध के कारण वहां काम शुरु नहींहो पा रहा था, लेकिन अब वह आगे बढ़ेगा। ईरान में पुनर्निर्माण के काम शुरू होंगे और उसमें भाग लेने भारतीय कंपनियां ईरान जा सकेंगी। इस संभावित आर्थिक फायदे  के अलावा भारत को अपनी पिछली कूटनीति पर गौर करने का एक मौका भी मिल रहा है। अमरीकी दबाव में जरूरत से ज्यादा झुककर ईरान से दो हजार साल पुराने संबंधों को दांव पर लगा दिया गया था। अब संबंध सुधारने का अवसर आया है और भारत को इसका पूरा लाभ लेना चाहिए।

कुल पेज दृश्य