शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

गोवा में आयोजित 44 वां भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह

भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह (आईएफएफआई) एशिया में प्रति वर्ष आयोजित होने वाले सबसे महत्वपूर्ण फिल्म समारोहों में से एक है। इसका उद्देश्य विभिन्न देशों के सामाजिक, सांस्कृतिक लोकाचार के संदर्भ में समझ और फिल्म संस्कृति की सराहना करने, दुनिया के लोगों के मध्य मैत्री और सहयोग को प्रोत्साहित करने के लिए विश्व सिनेमा को फिल्म कला की उत्कृष्टता दर्शाने के लिए साझा मंच उपलब्ध कराना है।

इतिहास

आईएफएफआई  का पहला संस्करण फिल्म प्रभाग, भारत सरकार द्वारा 1952 में मुंबई में आयोजित किया गया था। इसमें चालीस फीचर और सौ लघु फिल्में शामिल की गई थी। इसके बाद यह समारोह चेन्नई, दिल्ली और कोलकाता में ले जाया गया। इस समारोह का स्वरूप गैर-प्रतिस्पर्धात्मक था और इसमें चौबीस देशों ने भाग लिया। मुख्य समारोह का आरंभ मुंबई में हुआ था जिसका उद्घाटन सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री श्री के.के. दिवाकर ने किया था। दिल्ली सत्र का उद्घाटन प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने 21 फरवरी, 1952 को किया था।

1952 में शुरूआत के बाद आईएफएफआई भारत में अपनी तरह का सबसे बड़ा आयोजन है। बाद में आईएफएफआई नई दिल्ली में आयोजित किए गए। जनवरी, 1965 में आयोजित तीसरे संस्करण से यह प्रतिस्पर्धी बन गया। इसके बाद इसे केरल की राजधानी त्रिवेन्द्रम ले जाया गया था। 1975 में फिल्मोत्सव की गैर-प्रतिस्पर्धी तथा एक साल के अंतराल के बाद अन्य फिल्म निर्माण करने वाले शहरों में आयोजित करने की शुरूआत की गई। बाद में फिल्म महोत्सवों का आईएफएफआई में विलय कर दिया गया। 2004 में इसे त्रिवेन्द्रम से गोवा लाया गया, तब से आईएफएफआई वार्षिक और प्रतिस्पर्धी आयोजन बन गया है।

आईएफएफआई, 2013

आईएफएफआई का 44वां संस्करण 20 नवंबर, 2013 से शुरू होकर 30 नवंबर को समाप्त हो जाएगा। आईएफएफआई सचिवालय द्वारा सूचना और प्रसारण मंत्रालय के तत्वाधान में गोवा सरकार के सहयोग से आयोजित समारोह में पूरे विश्व से आई फिल्में दिखाई जाएंगी। इसमें भारत से लेकर पूरी दुनिया से आई समकालीन एवं कला फिल्में एक गुलदस्ते के रूप में पेश की जाएंगी। इसमें विभिन्न फिल्म स्क्रीनिंग कार्यक्रम, शैक्षिक सत्र और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। इस संस्करण में विभिन्न श्रेणियों में लगभग 160 फिल्में दिखाई जाएंगी।

आईएफएफआई का 44वां संस्करण कई मामलों में विशिष्ट है। पहली बार दो अंतर्राष्ट्रीय फिल्म हस्तियां, हॉलीवुड की अभिनेत्री सुसान सारांडोन और जानेमाने ईरानी फिल्म निर्माता माज़िद मजीदी उद्घाटन समारोह में मंच साझा किया। पहली बार नोबेल पुरस्कार विजेता नेल्सन मंडेला और लेक वालेसा पर फिल्में दिखाई जाएगीं। पहली बार भारत के महान स्वतंत्रता-संग्राम नेता बाशा खान पर आधारित अफगान निदेशक द्वारा निर्मित और निर्देशित फिल्म दिखाई जाएगी। हॉलीवुड अभिनेत्री सुश्री मिशेल योह, इस उत्सव के समापन समारोह की मुख्य अतिथि होंगी। इस समारोह में पहली बार भारत के पूर्वोत्तर राज्यों के सिनेमा पर प्रकाश डाला जाएगा। पूर्वोत्तर राज्यों की 19 फिल्मों के पैकेज में आठ पूर्वोत्तर राज्यों की जातीय, परम्परागत और सांस्कृतिक विविधता को दर्शाया जाएगा।

प्रतिष्ठित लाइफ टाइम एचीवमेंट पुरस्कार जानेमाने चेक फिल्म निदेशक श्री जिरी मेंजेल को दिया जा रहा है जिनकी फिल्में चेक न्यू वेब सिनेमा के रूप में मानी गई हैं। 44वें आईएफएफआई में फोकस खंड में जापान की फिल्में दिखाई जाएगी। जिरी मेंजेल द्वारा निर्मित चेक हास्य फिल्म द डॉन जोआंस से इस समारोह की शुरूआत हुई। समापन फिल्म मंडेला : लांग वॉक टू फ्रीडमजिसे जस्टिन चाणविक ने निर्देशित किया है, रंगभेद विरोधी क्रांतिकारी और दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला की जीवनी पर आधारित है।

भारतीय पैनोरमा

भारतीय पैनोरमा श्रेणी में समकालीन भारतीय सिनेमा की 26 फीचर फिल्में और 16 गैर-फीचर फिल्में शामिल हैं। महान अभिनेता मनोज कुमार ने उद्घाटन समारोह के दौरान भारतीय पैनोरमा-2013 की आधिकारिक रूप से झंडी दिखाकर शुरूआत की। प्रसिद्ध फिल्म निर्माता और संपादक श्री बी लेनिन की अध्यक्षता में फीचर फिल्मों की जूरी ने कुल 210 योग्य प्रविष्टियों में से 25 फिल्मों का चयन किया है। हिन्दी फिल्म पान सिंह तोमर, जिसने अभी हाल में 60वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का पुरस्कार जीता है, भारतीय पैनोरमा में 26वीं फिल्म है, जिसे सीधा प्रवेश मिला है। फीचर फिल्म जूरी ने कान्याका टाकीज (मलयालम निदेशक के आर मनोज ) को भारतीय पैनोरमा-2013 की उद्घाटन फिल्म के रूप में चुना है। फीचर फिल्म श्रेणी में जिन फिल्मों को चुना गया है, उनमें छह मलयालम, पांच बांगला, पांच हिन्दी, तीन मराठी और दो अंग्रेजी में हैं। कोंकणी, कन्नड, मिसिंग, उड़िया और तमिल में एक-एक फिल्म का चयन किया गया है।

जानेमाने निदेशक श्री राजा सेन की अध्यक्षता में गैर-फीचर फिल्म जूरी ने 130 योग्य प्रविष्टियों में से 15 फिल्मों का चयन किया है। कश्मीरी फिल्म शैफर्ड्स ऑफ पैराडाइज (निदेशक- श्री राजा शब्बीर खान) ने हाल में आयोजित राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ गैर-फीचर फिल्म का पुरस्कार जीता है। इसे सीधे प्रवेश मिला है और यह भारतीय पैनोरमा की 16वीं फिल्म है। गैर-फीचर फिल्म श्रेणी में रंगभूमि (हिन्दी, निदेशक कमल स्वरूप) उद्घाटन फिल्म है। गैर-फीचर फिल्म श्रेणी में हिन्दी की पांच, मलयालम की तीन, अंग्रेजी की तीन, मराठी की दो, कश्मीरी की दो और कुदुख की एक फिल्म शामिल है।

आईएफएफआई-2013 युग फिल्म निर्माताओं मनोज कुमार, बुद्धदेब दासगुप्ता और एस. शंकर को नमन करता है और इन तीन हस्तियों की पसंद की तीन फिल्में इनके प्रशंसकों के लिए दिखाई जाएंगी।

पुरस्कार

44वें आईएफएफआई में विश्व की 16 फिल्मों को प्रतिष्ठित मयूर पुरस्कारों के लिए मुकाबला करना होगा। सर्वश्रेष्ठ फिल्म को 40 लाख रूपए नकद पुरस्कार प्रदान किया जाएगा, जिसे फिल्म के निर्माता और निर्देशक में बराबर-बराबर बांटा जाएगा। फिल्म के निदेशक को नकद पुरस्कार के अलावा गोल्डन मयूर और प्रमाण-पत्र भी दिया जाएगा। रजत मयूर, प्रमाण-पत्र और नकद पुरस्कार 15 लाख रूपए का होगा, जो श्रेष्ठ निदेशक को दिया जाएगा, जबकि सर्वश्रेष्ठ अभिनेताओं (पुरूष) और (महिला) को रजत मयूर, प्रमाण-पत्र और 10 लाख रूपए का नकद ईनाम दिया जाएगा। किसी फिल्म (फिल्म के किसी भी पहलू के लिए जिसे जूरी पुरस्कार या मान्यता देना चाहती है) या व्यक्ति (फिल्म के लिए उसके कलात्मक योगदान के लिए) को रजत मयूर, प्रमाण-पत्र और 15 लाख रूपए का नकद पुरस्कार दिया जाएगा।

प्रतिष्ठित लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार में 10 लाख रूपए का नकद पुरस्कार, प्रमाण-पत्र, एक शॉल और दुपट्टा सिनेमा के लिए विशिष्ट योगदान देने वाले मास्टर फिल्म निर्माता को प्रदान किया जाएगा। प्रतिष्ठित चेक फिल्म निर्माता श्री जिरी मेंजेल इस वर्ष का यह पुरस्कार प्राप्त करने वाले व्यक्ति हैं। शताब्दी पुरस्कार रजत मयूर, प्रमाण-पत्र और 10 लाख रूपए का नकद पुरस्कार उस फीचर फिल्म को दिया जाएगा, जो सौंदर्य, तकनीक या प्रौद्योगिकी नवाचार के रूप में मोशन फिक्चरों में नये प्रतिमान को दर्शाती हों।

भारतीय सिनेमा का शताब्दी वर्ष

यह वर्ष भारतीय सिनेमा का 100वां वर्ष है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने इस अवसर पर फिल्म उद्योग को बढ़ाना देने के लिए विशेष कदम उठाए हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं- सिनेमैटोग्राफ अधिनियम के प्रावधानों की समीक्षा के लिए मुदगल समिति का गठन किया गया है और समिति की सिफारिशें विचाराधीन है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि फिल्म निर्माताओं को देश में अनुमति लेने के लिए किसी कठिनाई का सामना न करना पड़े, मंत्रालय ने एकल खिड़की क्लीयरेंस प्रणाली स्थापित करने के लिए सक्रिय कदम उठाया है। इसका उद्देश्य मानक संचालन प्रक्रिया को सुचारू रूप से लागू करना था। सिनेमा को प्रोत्साहन देने की पहल के रूप में राष्ट्रीय फिल्म विरासत मिशन को उद्योग की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित रखने के लिए कहा गया है। इसने अभी हाल में घोषणा की है कि प्रत्येक वर्ष आईएफएफआई में प्रतिष्ठित भारतीय फिल्म हस्ती को भारतीय सिनेमा में उनके योगदान के लिए शताब्दी पुरस्कार दिया जाएगा।

समापन

फिल्म समारोह व्यक्तियों और उन देशों की एक सभा है जहां दुनिया के बड़े फिल्म कलाकार उभरती हुई प्रतिभाओं को समान स्तर का समझते हैं। यह सारी दुनिया के फिल्म प्रेमियों के साथ आमने-सामने बातचीत करने के लिए पेशेवरों का एक फोरम भी है। आईएफएफआई का उद्देश्य भारतीय सिनेमा को पोषित, प्रोत्साहित करना तथा बाहर की दुनिया के साथ-साथ अनेक दर्शकों से परिचित कराना है जो इस विशाल और विविधतापूर्ण देश में सह-अस्तित्व से रहते हैं। त्वरित प्रौद्योगिकी परिवर्तनों के साथ इस उत्सव की महत्ता बढ़ेगी, क्योंकि यह दर्शकों और फिल्म निर्माताओं को एक साथ लाने के साथ-साथ उभरती प्रौद्योगिकियों और नये उभरते मीडिया की चुनौतियों से परिचित कराएगा। नई बातचीत की परिकल्पना की गई है। नई नीतियां गठित की जाएंगी, ताकि आईएफएफआई के प्रत्येक संस्करण के साथ देखने के अनुभव में वृद्धि हो और वह समृद्ध हो।


(पसूका लेख)

गुरुवार, 21 नवंबर 2013

Pioneering Spices Research

Life has changed for good for Mr. George Thomas Panackavayal, a 65 year old progressive farmer from Koorachundu in Kozhikode district of Kerala. George Thomas’s story is an inspiration for those who lament agriculture is no more a profitable business. From a novice farmer to an award winning visionary figure, his triumph is a living testimony to the significant work done by the Indian Institute of Spices Research (IISR), Kozhikode, through its Krishi Vigyan Kendra(KVK).

Being a traditional black pepper grower, George was cultivating local varieties. Yield from these vines was not so promising and most of the vines died because of quick wilt. Like any other traditional farmer, his life was also full of ups and downs.

The Beginning of a New Innings

It was in the year 2007, a training programme on mushroom cultivation at IISR’s Krishi Vigyan Kendra located at Peruvannamuzhi in Kozhikode district changed his life forever. It was the beginning of a winning partnership in agriculture. With the guidance and support of the KVK, he started a mushroom cultivation unit investing around one lakh rupees.

Later George Panackavayal turned into cultivation of ginger and turmeric by procuring five kilograms of IISR Prabha variety of turmeric and Varada variety of ginger. He followed the scientific crop management practices; took the advice of experts from KVK and IISR at each and every stage of cultivation and it worked well. In 2010, he sold 1000 kg of turmeric and 500 kg of ginger rhizomes to other farmers through the Participatory Seed Production programme of KVK. Next year also, he harvested a bumper yield of 500 kg of turmeric and 400 kg of ginger from a mere 15 cents of land.

In the year 2007, he planted around 300 vines of high yielding varieties of black pepper such as Sreekara, Subhakara, Panchami and Pournami released by IISR. From the third year of planting, the vines started yielding and in year he got a yield of 200 kg fetching him a net income of 75000 rupees. He is also growing coconut, areca nut, nutmeg, rubber, tapioca and other tuber crops. He was one of the four farmers mentioned in the Harvesters of Hope, a compilation of the success stories of 101 farmers in the country, published by the Ministry of Agriculture in 2009. He credits all his success to the support he got from IISR.

George’s success story is not an isolated one. Thanks to remarkable work done by IISR; many farmers have scripted success stories by cultivating different spices across the country.

IISR Genesis

Spices research in the country had a modest beginning with the establishment of a regional centre of Central Plantation Crops Research Institute at Calicut- the city of spices in the year 1975 by the Indian Council of Agricultural Research (ICAR). Further in 1995 the research on spices gained full momentum with the establishment of Indian Institute of Spices Research, the one and only ICAR centre for research on spice crops. The institute is located in a serene campus of 14.3 hectors at Chelavoor, 11 kilometers from Calicut city.

The experimental farm of IISR is located at Peruvannamuzhi, a picturesque setting about 51 kilometers north east from the city of Calicut. The research farm, set up in a leased land of 94.8 hectares, focuses on intensive production of nucleus planting materials and conservation of biodiversity in spices. IISR is also the headquarters of All India Coordinated Research Projects on Spices which is the largest spices research network in the country. The mandate crops of the institute are black pepper, cardamom, ginger, turmeric, cinnamon, clove, nutmeg, allspice, garcinia, vanilla and paprika.

IISR maintains the world’s largest germplasm repository of spices with a total of 2575 black pepper accessions, 435 cardamom accessions, 685 ginger and 1040 turmeric accessions. Apart from this, the institute has gene repositories of Vanilla, Paprika and other tree spices such as Cinnamon, Clove, Nutmeg and Cassia.

A significant contribution of the institute in the field of spices research is the breeding of high yielding spice varieties that are tolerant to drought, pests and diseases. The institute has developed various technologies for sustainable production of spices.

Spices Varieties Released by IISR

A significant contribution of the institute in the field of spices research is the breeding of high yielding spice varieties that are tolerant to drought, pests and diseases.

Eight varieties of black pepper were released by the institute. Varieties such as Sreekara, Subhakara, Panchami and Pournami are already in the farmers’ field. Latest varieties include IISR Thevam, IISR Malabar Excel, IISR Girimunda and IISR Shakthi.

IISR Vijetha 1, IISR Avinash and IISR Kodagu Suvasini are the cardamom varieties developed by the Cardamom Research Centre (CRC) of IISR functioning at Appangala in Kodagu district of Karnataka.

The ginger varieties of the institute, IISR Varada, IISR Rejatha and IISR Mahima are suitable for cultivation in all major ginger growing tracts of the country.

Eight high quality turmeric varieties have been released so far by the institute. Suguna, Sudarshana, Parbha, Prathibha and IISR Alleppy Supreme are known for their high curcumin content and other quality attributes.

IISR Vishwasree, a high yielding nutmeg variety with a bushy and compact canopy, is suitable for all tracts in South India. Kerala Shree another nutmeg variety released recently. Navasree and Nithyasree are the leading cinnamon varieties of IISR well known for their bark oil and oleoresin.

White Pepper Production Technology

White pepper is one of the value added forms of black pepper that fetches high revenue for farmers. Owing to its charming creamy white colour, mild flavor, attractive odor, good taste and suitability to use in any food item, it has become a hot choice in the international market especially in the European countries. It also fetches almost fifty percent higher price in the market.

Traditionally, white pepper is produced by the de-cortication of ripened or dried berries. But this conventional method and other mechanical decortications were inadequate for bulk production of white pepper at industrial or farm level. The hygienic aspects and quality of white pepper are also a matter of concern. Scientists at IISR have developed a bacterial technology for converting mature green pepper to white pepper through bacterial fermentation.

Mature green pepper obtained after harvest is washed in sterilized water containing a mid log phase culture of Bacillus bacteria and it is incubated at room temperature for five days. Then the pepper berries are trampled and washed thoroughly with running water to remove degraded pericarp and bacterial metabolites. Creamy white pepper berries obtained through fermentation is dried to get high quality white pepper.

Broiler Goat Rearing

‘Broiler Goat Rearing’, fine-tuned by the scientists of the Peruvannamuzhi Krishi Vigyan Kendra of IISR is a boon to the farming community especially in the areas where green fodder is in scarce. Under this method, 15 to 30 days old kids with a higher birth weight are selected before they start eating green leaves. These kids, once identified, are kept away from their mothers and are housed separately in sheds made of bamboo or wooden poles. Proper ventilation, sunlight and cleanliness are ensured at all the times.

Initially, the kids are given small quantities of concentrated feed. And the quantity is increased gradually depending upon the intake. Additional supplements such as liver tonic mixed with fish oil are also given twice a week. Young kids are also provided with mother’s milk for one month (twice or thrice a day) for their proper growth. Various women self help groups like Kaveri Kudumbashree and Nidhi and several other individual farmers in Peruvannamuzhi of Kozhikode district of Kerala have been rearing goats in this method for the past five years. According to the members of the group the method is highly suitable for those who don’t have enough land for grazing animals.

Less cost, more profit, ease in cattle management and a good demand for the goat meat are some of the many favourable factors encouraging the farming community to adopt broiler goat rearing more passionately. Kids bred under broiler technology gain about 25-33 kilograms in 120-140 days, whereas in traditional system of green feeding, the goats acquire only a maximum weight of 10 kilos, that too in 6 months. The expenditure towards feeding a kid under this method comes to about Rs. 1200. A net income of Rs. 5050 to 7050 (at Rs. 250 per kg on live weight basis) can be easily realized in this method.

IISR is continuing its journey. By changing the lives of generations positively this institute is presenting science with a human touch.


PIB

बुधवार, 20 नवंबर 2013

भारतीय वन प्रबंधन संस्‍थान

शिक्षा से अपेक्षा की जाती है कि वह नागरिकों को अपने चारों तरफ हो रही घटनाओं से अवगत कराए और उनकी जानकारी अद्यतन रखे, ताकि सामाजिक मुद्दों से निपटने में उनमें आत्‍मविश्‍वास पैदा हो सकें। इस संदर्भ में वैज्ञानिक शिक्षा का काफी महत्‍व है कि वह लोगों में वैज्ञानिक सोच पैदा करती है। विज्ञान में उच्‍च शिक्षा के क्षेत्र में अन्‍य संभावनाओं के अन्‍वेषण की जरूरत है। शिक्षा की वह शाखाएं जो कई विषयों से संबंधित है, जैसे प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन, पर्यावरण प्रबंधन, जलवायु प्रबंधन, कृषि प्रबंधन, विपणन प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में बाहरी जगत से जुड़ी शिक्षाओं को शामिल किये जाने और उनका विश्‍लेषण करने की जरूरत है।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य :
पिछले पांच दशकों में शिक्षा की विभिन्‍न शाखाओं से लोगों की काफी उम्‍मीदें बढ़ी है और शिक्षा की पद्धति तथा पाठ्यक्रम में बदलाव की मांग की गई है। शिक्षा से जुड़े संस्‍थान इन बदलावों एवं जरूरतों को इनमें शामिल करने का प्रयास करते रहे है, ताकि वे समय के साथ प्रासंगिक हो और लोगों की उम्‍मीदों को पूरा कर सकें। उद्योग जगत, कोरपोरेट जगत, संसाधन प्रबंधन से जुड़ी सभी शाखाओं में छात्रों से अपेक्षा की गई है कि वे पर्यावरण संबंधी मुद्दों, सतत् विकास, कार्बन डाई ऑक्‍साइड के उर्त्‍सजन पर रोक एवं पर्यावरण बदलाव से जुड़े मुद्दों की विशेष जानकारी रखें। इसी तरह की उम्‍मीदें तकनीकी क्षेत्र में प्रगति एवं कम्‍प्‍यूटर तथा संचार के क्षेत्र में होने वाली प्रगति का बड़ा कारण है। इस तरह की प्रगति एवं खोजों ने चीजों को बहुत आसान एवं प्रतिस्‍पर्धी बना दिया है, लेकिन अब समाज की जरूरतें और भी बढ़ गई हैं और इनकी मांग जोर पकड़ने लगी है।

हाल ही में आई आपदाएं :
मानव जिस तरीके से प्रकृति से छेड़छाड़ करके प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहा है। उन्‍होंने किसी न किसी तरीके से जता दिया है कि यह अधिक शोषण है और इस तरह की गतिविधियां ज्‍यादा नहीं चल सकती हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से अगर हम देखें, तो पाएंगे कि संसाधनों के अंधाधुंध दोहन को देखते हुए विभिन्‍न प्रकार की आपदाओं, जैव विविधता को नुकसान, जल संकट, अकाल एवं सूखा, बाढ़ एवं अन्‍य आपदाओं की घोषणा पहले ही कर दी गई थी। हाल ही में उत्‍तराखंड और ओडिशा में जो प्राकृतिक आपदाएं आयी हैं, वे सभी इसी बात की पुष्टि करती है और उन सभी के कारक उन्‍हीं आपदाओं में छिपे हुए हैं।

इस तरह के प्रत्‍यक्ष गंभीर परिणामों और घटनाओं ने मानव जाति को यह बताने की कोशिश की है कि वह प्रकृति के दायरे में रहकर ही अपनी गतिविधियां जारी रखें और अपने लोभ तथा लालच को छोड़कर कुदरत के साथ तारतम्‍य बैठाने की कोशिश करें। इस संदर्भ में देश में उच्‍च शिक्षा के क्षेत्र में अब यह जरूरी हो गया है कि हम अपने पाठ्यक्रम में इस तरह के बदलावों को शामिल करें, ताकि युवाओं का ज्ञान एवं चीजों तथा उनके बारें में उनकी सोचने की क्षमताओं में बढ़ोतरी हो सकें।
केन्‍द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के तहत कार्य कर रहे भारतीय वन प्रबंधन संस्‍थान ने समकालीन जरूरतों से सामंजस्‍य स्‍थापित किया है और अपने पाठ्यक्रम में विभिन्‍न विषयों जैसे प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन, पर्यावरण बदलाव और लोगों पर उसके पड़ने वाले प्रभावों, पारिस्थिातिकी से जुड़ी गतिविधियां, प्राकृतिक संसाधनों जैसे जल, वन एवं भूमि की आर्थिक कीमत को पहचानने जैसे मुद्दों को समाहित किया है। वन प्रबंधन में स्‍नातकोत्‍तर डिप्‍लोमा, फैलो इन प्रोग्राम मैनेजमेंट, प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन में एम फिल जैसे विभिन्‍न विषयों को शामिल किया गया है, जिससे छात्रों में लोगों से जुड़ी बुनियादी जरूरतों की विश्‍लेषण क्षमता का विकास होता है। इन सभी पाठ्यक्रमों में पढ़े गये विषयों से छात्रों को अपने क्षेत्र कार्यों के दौरान चीजों से रूबरू होने का अवसर मिलता है और ग्राम स्‍तर पर होने वाली घटनाओं को वे वास्‍तविक नजरिये से देखते है, जिससे उनकी सोचने और निर्णय लेने की व्‍यावहारिक क्षमता का विकास होता है। देश में कई प्रबंधन संस्‍थान हर साल विभिन्‍न प्रबंधन संबंधी विषयों में स्‍नातकोत्‍तर पेशेवर तैयार कर रहे है। लेकिन भारतीय वन प्रबंधन संस्‍थान की यह खूबी है कि वह ऐसे युवा स्‍नातकोत्‍तर छात्र तैयार करता है, जिन्‍हें पर्यावरण पर मानवीय गतिविधियों के पड़ने वाले प्रभावों के आंकलन, संसाधनों के बारे में जानकारी और उनकी कीमत का ज्ञान, पारिस्थिातिकी से जुड़ी सेवाओं का मूल्‍यांकन, सामाजिक प्रभाव आंकलन क्षमता के क्षेत्र में विशेष ज्ञान होता है।


देश में सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक क्षेत्र में हो रहे बदलावों  और हाल ही में कंपनी कानून में किये गये कॉरपोरेट सामाजिक ‍जिम्‍मेदारी से जुड़े विषय पर संशोधन के मद्देनजर ऐसे युवा छात्रों की मांग कई गुना बढ़ने की उम्‍मीद है। भविष्‍य में ऐसी स्थिति आएगी, जब ऐसे युवा विशेषज्ञ छात्रों की समाज में काफी मांग होगी। भारतीय वन प्रबंधन संस्‍थान इस जरूरत से वाकिफ है और वह अपने यहां पढ़ रहे छात्रों की क्षमताओं में और बढ़ोतरी पर गंभीरता से विचार कर रहा है। इसी के मद्देनजर उनके प्रशिक्षण एवं क्षेत्र कार्य के दौरान लोगों से अंतक्रिया की क्षमता का विकास करने पर विशेष ध्‍यान दिया जा रहा है।

सोमवार, 18 नवंबर 2013

लोकतंत्र का गिरता स्तर

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के प्रचार अभियान में नेताओं के बीच एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने की होड़ जिस तरह बढ़ती जा रही है उससे भारतीय लोकतंत्र की मान-मर्यादा को आघात ही लग रहा है। सूचना क्रांति के इस युग में अब नेताओं की कोई भी टिप्पणी जनता की निगाह से छिप नहीं सकती। बावजूद इसके वे किसी तरह का संयम दिखाने के लिए तैयार नहीं दिखते। नेताओं के चुनावी भाषण एक-दूसरे को चुनौती देने, तरह-तरह के आरोप लगाने और व्यक्तिगत आक्षेप करने तक सीमित रह गए हैं। नीतियों और मुद्दों की चर्चा तो बहुत दूर की बात हो गई है। चूंकि चुनाव के समय जनता का एक बड़ा वर्ग नेताओं के इस तरह के बयानों के प्रति रुचि प्रदर्शित करता है इसलिए मीडिया भी उन्हें महत्व देने से परहेज नहीं करता। वैसे भी जनता को यह जानने का अधिकार है कि उसके प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले नेताओं के तौर-तरीके क्या हैं? अपने देश में फिलहाल ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिससे जनता को प्रत्याशी की उन क्षमताओं के बारे में पता लगे जो किसी योग्य जन प्रतिनिधि या फिर शासन का संचालन करने वाले शख्स में होनी चाहिए।

पिछले सप्ताह निर्वाचन आयोग ने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को उनके एक बयान के लिए चेतावनी दी तो भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी भी अपने कई चुनावी भाषणों के लिए कांग्रेस के निशाने पर आ गए। मोदी ने कांग्रेस के चुनाव चिन्ह का जिक्र खूनी पंजे के रूप में किया। वह राहुल गांधी के लिए शहजादे शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं, जो कांग्रेस को रास नहीं आ रहा। एक रैली में वह यह भी बोल गए कि कांग्रेस सीबीआइ और इंडियन मुजाहिदीन की मदद से चुनाव लड़ रही है। कांग्रेस में भी ऐसे नेताओं की कमी नहीं जो अपने तीखे और बेतुके बयानों को लेकर चर्चा में बने रहते हैं। हाल ही में सोनिया गांधी ने भाजपा नेताओं को केवल कुर्सी का सपना देखने वाला करार दिया। हालांकि खुद कांग्रेस भी ऐसा ही सपना देख रही है। सपा के नरेश अग्रवाल यह टिप्पणी कर अमर्यादित बयानबाजी करने वाले नेताओं की जमात में सबसे आगे हो गए कि एक चाय बेचने वाला देश के बारे में नहीं सोच सकता। उनका यह बयान उनकी सामंती सोच को ही दर्शाता है और जनता के ऐसे वर्ग को अपमानित करता है, जो ऐसे लोगों को अपना आदर्श मानते हैं जो साधारण परिवेश से निकल कर कामयाबी के शिखर छूते हैं।

एक समय था जब नेता एक-दूसरे के प्रति शालीन भाषा का इस्तेमाल करते थे। वे इसका ख्याल रखते थे कि राजनीतिक बयानबाजी व्यक्तिगत आक्षेप के स्तर पर न आने पाए। उनकी ओर से ऐसी टिप्पणियों से बचा जाता था जो राजनीतिक माहौल में कटुता और वैमनस्य पैदा कर सकती थीं। दुर्भाग्य से आज वह लक्ष्मण रेखा मिटा दी गई है और इसका परिणाम यह हुआ है कि राजनीतिक दलों के बीच कटुता उस स्तर तक जा पहुंची है जब उनके लिए किसी भी मसले पर सहमति कायम करना मुश्किल हो गया है। संप्रग सरकार के कार्यकाल पर ही नजर डालें तो यह स्पष्ट है कि भाजपा और कांग्रेस के बीच बनी दूरी के चलते राष्ट्रीय महत्व के अनेक मसलों पर आगे नहीं बढ़ा जा सका। भाजपा और कांग्रेस के बीच राजनीतिक विरोध स्वाभाविक है, लेकिन यह निराशाजनक है कि व्यक्तिगत आक्षेपों के कारण यह विरोध कटुता में तब्दील हो गया। कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा ने एक रचनात्मक विपक्ष की भूमिका अदा नहीं की और विरोध के नाम पर विरोध करने के उसके रवैये ने संप्रग सरकार को सही तरह काम नहीं करने दिया। इसके विपरीत भाजपा कांग्रेस पर अहंकारी रवैया प्रदर्शित करने का आरोप लगाती रही है। पता नहीं किसका पक्ष सही है, लेकिन जो कुछ स्पष्ट है वह यह कि हमारे देश की राजनीति का स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है। मुश्किल यह है कि गिरावट का दौर थमता नहीं दिख रहा। राजनीतिक दल विरोधियों को नीचा दिखाने के लिए गड़े मुर्दे उखाड़ने और उनके जरिये सनसनीखेज आरोप लगाने का काम कर रहे हैं। हाल के दिनों में कई नेताओं के खिलाफ ऐसे आरोप उछाले गए हैं जिनका इस्तेमाल पहले भी किया जा चुका है। ऐसे माहौल में यह आवश्यक हो गया है कि राजनीतिक दल इस पर विचार करें कि बयानबाजी का स्तर कैसे सुधारा जाए? केवल चुनाव के समय ही नहीं, बल्कि सामान्य अवसरों पर भी राजनेताओं के लिए अपने भाषणों में संयम और शालीनता का परिचय देना आवश्यक है। इसमें संदेह नहीं कि चुनाव के समय नेताओं के बीच गर्मागर्मी बढ़ जाती है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे अपने भाषणों में मर्यादा की दीवार ही गिरा दें।

नेताओं की अमर्यादित बयानबाजी के संदर्भ में निर्वाचन आयोग की भूमिका सीमित ही नजर आती है। हाल में उसने नेताओं की कुछ आपत्तिाजनक टिप्पणियों का संज्ञान लिया है और राहुल का मामला विशेष रूप से उल्लेखनीय है, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि उसके हाथ बंधे हुए हैं। निर्वाचन आयोग ऐसे मामलों में अधिक से अधिक अपनी असहमति जताने, चेतावनी देने अथवा फटकार लगाने तक सीमित है। चुनाव आयोग के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं जिससे वह अमर्यादित बयानबाजी करने वाले नेताओं को सही मायने में सख्त संदेश दे सके।

चुनाव के दौरान नेताओं की कोई टिप्पणी अथवा भाषण का एक अंश ही मीडिया के समाचारों में आ पाता है। कई बार उसके आधार पर पूरा मामला अथवा संदर्भ समझना मुश्किल होता है। राजनेता अपनी विवादित टिप्पणी पर अक्सर यह शिकायत करते दिखाई देते हैं कि उनकी बात का संदर्भ कुछ और था और इसे सही तरह समझा नहीं गया। उनके लिए इस तरह के तकरें की आड़ लेना सुविधाजनक बहाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं। वे ऐसी किसी व्यवस्था के निर्माण पर विचार करने के लिए तैयार नहीं जिसमें चुनाव के समय नेताओं को टेलीविजन अथवा अन्य किसी माध्यम में एक-दूसरे से सीधी बहस करने का मौका मिलता। ऐसी किसी व्यवस्था से ही जनता को नेताओं अथवा राजनीतिक दल के संदर्भ में सब कुछ सही-सही जानने-समझने का अवसर मिल सकता है। चुनावी रैलियों में चुनिंदा लोग ही पहुंच पाते हैं और जो भीड़ जुटती है उसका एक बड़ा हिस्सा भाड़े पर लाए गए लोगों का होता है। ऐसे में आम जनता के पास मीडिया की खबरों के आधार पर ही किसी प्रत्याशी के संदर्भ में अपनी राय बनाने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं होता।

पता नहीं निर्वाचन आयोग अथवा राजनीतिक दल चुनाव प्रचार के तौर-तरीकों में बुनियादी बदलाव लाने, विशेष रूप से प्रत्याशियों को एक मंच पर एक-दूसरे से बहस करने का अवसर देने की व्यवस्था बनाने के लिए कब आगे आएंगे? जब तक इस तरह की व्यवस्था नहीं बनती है तब तक जनता के समक्ष प्रत्याशियों और पार्टी की नीतियों के बारे में स्पष्टता नहीं आएगी। भारत के लोकतंत्र को अगर और अधिक मजबूत करना है तो इस तरह की व्यवस्था का निर्माण जल्द से जल्द किया जाना चाहिए चाहे इसके लिए निर्वाचन आयोग को कोई नए प्रावधान ही क्यों न बनाने पड़ें। कई देशों में लोकतंत्र ने इसीलिए मजबूती हासिल की है, क्योंकि वहां राजनीति के प्रत्येक स्तर पर पारदर्शिता को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। अमेरिका जैसे देशों में चुनाव प्रणाली बड़ी हद तक प्रत्याशियों के बीच सीधी बहस पर आधारित है। दुर्भाग्य से भारत में राजनीतिक वर्ग इससे बचता नजर आ रहा है।


दैनिक जागरण 

रविवार, 17 नवंबर 2013

समस्याएं सिर्फ लड़कियों की ही नहीं

सभी पुरुषों को पीछे धकेलते हुए रानी झांसी ने कहा, कि मैं मरते दम तक अपनी झांसी नहीं दूंगी। रानी पद्मिनी, रानी दुर्गावती, अहिल्याबाई होल्कर, जीजा बाई भी माताएं थीं। कभी लड़कियां थीं- समस्याएं थीं। एक बार की बात है कि शिवाजी की पहली पत्नी सई के भाई बजाजी को आदिलशाह ने मुसलमान बना लिया तथा उसका विवाह एक मुस्लिम स्त्री से करा दिया। बाद में उस स्त्री की मृत्यु होने पर वे पुन: हिन्दू बनकर उन्हीं में मिलना चाहते थे। किन्तु उन्हें सब अन्य हिन्दू अपने में मिलाने को तैयार नहीं थे। तब उन्हें आश्वस्त करने के लिये शिवाजी ने अपनी माता जीजाबाई के इस उपदेश को, कि राजा प्रजा का पिता व पालक होता है, उसे अपना समधी बना लिया जिससे समस्या हल हो गई। लड़कियों को समाज हिम्मत देगा, तो वे भी समाज को ऊपर उठाने में अपना सहयोग देंगी।

क्या आप मानते हैं कि लड़कियों का नाम ही समस्याएं बनता जा रहा है? क्या आपने अपने घर में कहीं से थकी-मांदी लौटी हुई मां, बहन को सबके लिए खाना बनाने का बंदोबस्त करते नहीं देखा? क्या आपके घर में नई दुलहिन लाने के लिये अपनी मां को हर घड़ी चिंता व जद्दोजहद करते हुए नहीं देखा? आपकी नई नवेली दुलहिन के स्वागत में उसने क्या-क्या पकवान नहीं बनाये? क्या आपने अपने तेज तपते माथे पर उसके हाथों से रखी जा रही ठंडी पट्टियों का स्पर्श नहीं सराहा? क्या आपके हाथों को पकड़कर आपको बैठाने में उसने मदद नहीं की? क्या उसने अपने हाथों से आपके मुंह में भोजन या दवा का चम्मच नहीं बढ़ाया? यदि हां, तो आप उनकी समस्याओं को क्यों बढ़ा-चढ़ाकर देखते हैं? वे अपनी समस्याओं को खुद भी हल कर सकती हैं- बस जरा उनकी तरफदारी तो कीजिये।

दहेज की समस्या आज लड़कियों की बनाई हुई नहीं है। उनकी अशिक्षा की समस्या आज सामाजिक वातावरण की सौगात है। उनकी असुरक्षा आज समाज के विशृंखलित हो जाने का नतीजा है। शहर बड़े होते गये।  समाज में एक-दूसरे से अपरिचय बढ़ता गया। अमीर-गरीब के भेद बढ़ गए। पुरुषों के साथ कौन सा व्यवहार उचित है, उसके कुछ गुर लड़कियों को सिखाए ही नहीं गए।  यों तो सामान्यत: पुरुष, मौके का फायदा उठाने के मन्तव्य के होते हैं। परन्तु लड़की के चौंककर गुस्से से उनकी तरफ एक नजर देखने से ही वे उड़न छू हो जाते हैं। एक घटना इस प्रकार हैं एक बार मिस टी भोपाल से दिल्ली जा रही थीं। जब वे दिल्ली उतरीं तो अकेली ही आगे कुली लेने को बढ़ीं चूंकि उनकी अटैची भारी थी। उसी समय एक पुरुष ने भी उसी कुली को रोका जिस पर इनकी नजर थी। वह पुरुष बोला, यह कुली तो दोनों का सामान (एक-एक अटैची) उठा लेगा। चलिए इसी को दोनों ले लेते हैं। कुली भी राजी था। अब सामान रखवाने के बाद साथ चलते हुए वह पुरुष बोला- 'आप यहां कहां रुकेंगी?' मिस टी बोलीं 'फलाने गेस्ट हाउस में।' वह पुरुष बोला, 'मैं भी एक गेस्ट हाउस में रुक रहा हूं, आप मेरे साथ ही रुक जाइए।' इस पर मिस टी ने चौंककर उसकी तरफ देखा और कहा, 'आपका दिमाग खराब तो नहीं है?' उस पर उस पुरुष ने अपनी अटैची कुली से खुद ले ली और वहां से अर्न्तध्यान हो गया। मिस टी ने कान पकड़े कि कभी किसी के साथ कुली का साझा नहीं करेंगी। कॉलेज के दिनों में भी याद पड़ता था बस में पुरुष लोग पास खड़े होने की कोशिश करते थे। इस तरह कि क्षण में काफी सट जाएं और दिखाएं यों कि जैसे बस के सामान्य झटकों से पास खिसकते आ रहे हों। मिस टी कभी-कभी यह हिम्मत कर लेती थीं कि पलट कर कहें, मिस्टर आप सीधे खड़े होइये। उस मिस्टर ने कभी यह नहीं कहा, कि मैं तो सीधा ही खड़ा था। बल्कि उसने भीड़ में अपना मुंह घुमाने और छुपाने की ही कोशिश की। महिलाओं को यह पते की बात मालूम होनी चाहिए कि खोटी नीयत वाले का कोई पड़ोसी साथ नहीं देता, बशर्ते मिस खुद की चौंकन्नी और दबंग हों। कुछ कहने की हिम्मत रखें।

कुछ गुर यों पुस्तकों में सिखाए जाते हैं। अगर बस में या कार में कहीं किसी अनजान पुरुष के पास बैठें तो दोनों के बीच अपना पर्स रख दें। कोई निकट आने की कोशिश करें तो बता दें, मेरे हस्बैंड या भाई मुझे लेने बस स्टॉप पर ही आ जाते हैं। कोई सिरफिरा दिखे, तो शुरू से ही अपना नकारात्मक स्वर ऊंचा रखें। यदि कोई रास्ता न दें, तो अपने पर्स से उसका कंधा थपथपायें। भीड़ में घुसना हो, तो अपनी पीठ, हाथ या कंधा पहले आगे बढ़ायें। अव्वल तो भीड़ में घुसें ही नहीं। किसी पुरुष की ओर लंबे समय तक न देखें। अर्थपूर्ण नजरों से देखने से तो आप अपने लिये खतरे को न्योता दे रही हैं। किसी अंधेरी खाली गली में अकेले न जायें। एक बार मिस टी को रात के वक्त एक से दूसरी जगह जाने में अपरिहार्य रूप से देरी हो गई। उन्होंने तुरंत अपने मोबाईल पर 100 नम्बर घुमाया। पुलिस वहां पहुंच गई। उन्होंने अपनी समस्या बताकर मदद मांगी, जिसे पुलिस मना नहीं कर सकी और मिस टी अपने घर सकुशल पहुंच गई। एक बार उन्हें एक फर्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट में एक अकेले पुरुष के साथ का कूपा मिला। उन्होंने टीटी को बुलाकर उसे बदलवा लिया। यह और बात थी कि वह पुरुष रात के 10 बजे भी अपने मोबाईल पर फिजूल की अपनी मौज-मस्ती की बातें अपने दोस्तों को बता रहा था। शायद वह मिस टी को ही इम्प्रेस करने की कोशिश कर रहा था।

मैं यह सभी पुरुषों को नहीं सुना रही, सभी एक जैसे इस प्रकार के नहीं होते। परन्तु अधिकतर को ही। एक बार तो हद हो गई। मिस टी एक बड़े अनाचार, अत्याचार और क्रूरतापूर्ण वाकये की जांच कर रही थी। उस समय वहां के एक ऊंचे पदाधिकारी ने कहा, कि इन औरतों को अकेले बसों में भरकर अपनी मांगें मनवाने के लिये पहाड़ों से नीचे ही नहीं आना चाहिए था। रात के अंधेरे में ये इधर-उधर अकेली दौड़ती मिलेंगी, तब तो हर पुरुष इन्हें पकड़कर सतायेगा ही। मिस टी ने सोचा, हाय री किस्मत। कहां गई शूरवीरों की पहचान, जो स्त्री की लल्जा को बचाने के लिए दौड़े आए थे? स्वर्ग से वस्त्र की निर्झरिणी बहा रहे थे? एक ये हैं- सब के सब कौरव हैं क्या? स्त्री ने क्या नहीं किया? सभी पुरुषों को पीछे धकेलते हुए रानी झांसी ने कहा, कि मैं मरते दम तक अपनी झांसी नहीं दूंगी। रानी पद्मिनी, रानी दुर्गावती, अहिल्याबाई होल्कर, जीजा बाई भी माताएं थीं। कभी लड़कियां थीं- समस्याएं थीं। एक बार की बात है कि शिवाजी की पहली पत्नी सई के भाई बजाजी को आदिलशाह ने मुसलमान बना लिया तथा उसका विवाह एक मुस्लिम स्त्री से करा दिया। बाद में उस स्त्री की मृत्यु होने पर वे पुन: हिन्दू बनकर उन्हीं में मिलना चाहते थे। किन्तु उन्हें सब अन्य हिन्दू अपने में मिलाने को तैयार नहीं थे। तब उन्हें आश्वस्त करने के लिये शिवाजी ने अपनी माता जीजाबाई के इस उपदेश को, कि राजा प्रजा का पिता व पालक होता है, उसे अपना समधी बना लिया जिससे समस्या हल हो गई। लड़कियों को समाज हिम्मत देगा, तो वे भी समाज को ऊपर उठाने में अपना सहयोग देंगी।


बहुत कम लोग जानते हैं कि आर्य समाज के गौरवशाली व्यक्तित्व के स्वामी श्रध्दानंद के जीवन में एक सकारात्मक मोड़ उनकी पत्नी, शिवरानी के मधुर समर्पण और सविनय आचरण सहित सही बात के प्रति आग्रह के फलस्वरूप आया। असल में पहले ये एक बिगड़े रईस थे। उनके पिता जालंधर के नगर कोतवाल थे और स्वामी श्रध्दानंदजी जिनका नाम तब मुंशीराम था, अपना जीवन ऐय्याशी में बिताते थे। एक बार की बात है कि वे रात को कुछ यादा ही पीकर लौटे और उन्होंने उल्टी की, फिर उन्हें मानों होश ही नहीं रहा। जब होश आया तब उन्होंने पाया कि वे एक साफ बिस्तर पर लेटे हैं और उनकी पत्नी अपने मुलायम हाथों से अपनी बच्चे जैसे अंगुलियों से उनका माथा सहला रही हैं और उनकी तबियत पूछ रही है। उनकी तबियत ठीक नहीं थी तो पत्नी ने भी भोजन नहीं किया था। सबेरे उन्हें अपने व्यवहार पर बड़ी ग्लानि हुई। तब से उनका आचरण बदल गया। अंत में तो उन्होंने सन्यास ही ले लिया और अनेक लोगों के प्रेरणा पुरुष बने।

देशबन्धु

पाकिस्तान में उग्र होते तालिबानी आतंकवादी

एक पुरानी कहावत है कि यदि कोई किसी दूसरे के लिये गङ्ढा खोदता है तो देर या सबेर स्वयं उसमें गिर पड़ता है और अपने लिए मुसीबतों को आमंत्रित कर लेता है। पाकिस्तान में आज बहुत कुछ ऐसा ही हो रहा है। दूसरों को तंग करने के लिये और आतंक फैलाने के लिये पाकिस्तान ने तालिबान को जन्म दिया और उसे हर तरह से लड़ाई की ट्रेनिंग दी तथा आधुनिकतम खतरनाक हथियार मुहैया कराए। आज यह सब कुछ पाकिस्तान की सरकार और पाकिस्तान की जनता के विरुध्द इस्तेमाल हो रहा है।

पाकिस्तान में तालिबानी संगठन को 'तहरीके तालिबान' कहते हैं जिसे संक्षेप में 'टीटीपी' के नाम से भी पुकारा जाता है। 'टीटीपी' के सरगना 'हकीमुल्ला महसूद' को अमेरिकी ड्रोन से चलाए गए मिसाइल के द्वारा गत एक नवम्बर को मार गिराया गया। उस समय यह कुख्यात आतंकवादी उत्तरी वजीरिस्तान में अपने विशाल महल में आराम फरमा रहा था। इसके पहले इस संगठन के मुखिया बैतुल्ला महसूद को भी अमेरिकनों ने ड्रोन से हमला करके मार गिराया था। हकीमुल्ला महसूद की हत्या से पाकिस्तान में खलबली मच गई है। अमेरिका की गुप्तचर एजेंसी हकीमुल्ला महसूद की खोज सन् 2009 से ही कर रही थी। जब उसके नेतृत्व में आतंकवादियों ने पूर्वी अफगानिस्तान के एक सैनिक अड्डे पर हमला करके 7 अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी के कर्मचारियों को मार डाला था। महसूद ने सन् 2010 में अमेरिका के न्यूयार्क टाइम्स सक्वायर में कार में रखे बम द्वारा भयानक विस्फोट करना चाहा था परन्तु इसमें वह सफल नहीं हो पाया था ।

अमेरिकन गुप्तचर एजेंसी ने कई बार ड्रोन द्वारा हमला करके हकीमुल्ला महसूद की हत्या करना चाहा। परन्तु उसमें उसे सफलता नहीं मिली थी। इस बार उसे अचानक सफलता मिल गई और हकीमुल्ला महसूद का काम तमाम हो गया। इस खूंखार आतंकवादी के मारे जाने से पाकिस्तानी तालिबानी संगठन 'टीटीपी' के आतंकवादी अत्यन्त ही उग्र और हिंसक हो गये हैं। महसूद के समर्थकों ने पाकिस्तानी सरकार को खुली चेतावनी दे दी है कि अब वह नरसंहार के लिए तैयार रहे। 'टीटीपी' पाकिस्तान की सेना, पाकिस्तान की पुलिस पर आए दिन हमला करेगी। वह आत्मघाती आतंकियों द्वारा पाकिस्तान के सरकारी प्रतिष्ठानों को उड़ाएगी और सरकारी कर्मचारियों का बेरहमी से सफाया करेगी।

'टीटीपी' के कई मुखिया ने यह भी सार्वजनिक तौर से कहा है कि तालिबान के मामले में पाकिस्तानी सरकार दोगली नीति अपना रही है। एक तरफ वह कहती है कि वह अमेरिका से बार-बार अनुरोध कर रही है कि पाकिस्तान में ड्रोन हमले रोके जाएं क्योंकि इससे निर्दोष नागरिक मारे जाते हैं और दूसरी तरफ वह अमेरिकनों को गुपचुप तरीके से तालिबानों के ठिकानों पर ड्र्ोन हमले करने को उकसाती है। अब तालिबान पाकिस्तान सरकार के झूठे बयानों और झूठे वादों पर विश्वास करने को तैयार नहीं है। पाकिस्तान सरकार अब यह देखेगी कि 'टीटीपी' किस  प्रकार पाकिस्तान में खून की होली खेल रही है।

यह सच है कि अपने पिछले वाशिंगटन दौरे के दौरान नवाज शरीफ ने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से यह अनुरोध किया था कि पाकिस्तान में ड्रोन हमले रोके जाएं क्योंकि इसमें निर्दोष लोग मारे जाते हैं परन्तु बराक ओबामा ने ऐसा करने से मना कर दिया। उनका  कहना था कि पाकिस्तान में ड्रोन के हमले केवल आतंकवादियों का सफाया करने के लिए किए जाते हैं। यदि गलती से ये हमले कुछ निर्दोष नागरिकों पर भी हो जाते हैं तो उस पर पाकिस्तान की सरकार को ध्यान नहीं देना चाहिये। बराक ओबामा ने यह भी कहा कि पाकिस्तान की पूर्ववर्ती सरकार ने लिख कर अमेरिकी सरकार से यह अनुरोध किया था कि पाकिस्तान में ड्रोन हमले जारी रखे जाएं। क्योंकि आतंकवादियों के सफाए के लिए यह आवश्यक है। खबर है कि बराक ओबामा के कठोर रुख को देखकर नवाज शरीफ निरूत्तर हो गए। उन्होंने बराक ओबामा से यह भी अनुरोध किया कि अमेरिका काश्मीर के मामले में हस्तक्षेप करे। परन्तु बराक ओबामा ने कठोर शब्दों में कहा कि अमेरिका ऐसा कभी नहीं करेगा। अत: नवाज शरीफ बड़े बेआबरू होकर व्हाइट हाउस ने निकले।

पिछले कई महीनों से नवाज शरीफ की सरकार यह कोशिश कर रही थी कि पाकिस्तानी तालिबानो के साथ, दूसरे शब्दों में टीटीपी के साथ, एक सुलह वार्ता हो जिससे तालिबान पाकिस्तान में और अधिक उत्पात नहीं मचा सके। यह महज एक संयोग था कि जिस समय टीटीपी के साथ पाकिस्तान सरकार के प्रतिनिधियों की बातचीत होने वाली थी ठीक उसी समय टीटीपी के मुखिया हकीमुल्ला महसूद की हत्या अमेरिकनों ने ड्रोन से छोड़ी गई मिसाइल के द्वारा कर दी। इस घटना से पाकिस्तान सरकार कांप उठी। पाकिस्तान के आन्तरिक मामलों के मंत्री चौधरी निशार अली खां ने यहां तक कहा कि ऐसा करके अमेरिका ने पाकिस्तान में शांति स्थापना करने के सारे प्रयासों पर पानी फेर दिया। अब टीटीपी शायद ही सुलह वार्ता को राजी हो।

सन् 2003 से आतंकवादियों ने पाकिस्तान में 9000 सुरक्षा सैनिकों और 18000 आम नागरिकों की हत्या की है। टीटीपी का कहना है कि अब इस तरह की हत्याएं और तेजी से बढ़ेंगी। टीटीपी पाकिस्तान सरकार और अमेरिका दोनों से बदला लेना चाहती है।  नवाज शरीफ की मुश्किलें  कम नहीं होने वाली हैं। क्योंकि पाकिस्तान की आर्थिक हालत खस्ता है और देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए उसे अमेरिका से आर्थिक मदद लेनी ही होगी। उधर अमेरिका किसी भी हालत में ड्रोन हमलों को बन्द करने के लिये तैयार नहीं है।


इसमें कोई सन्देह नहीं कि आतंकवादियों को बढ़ावा पाकिस्तान की फौज ने यह सोचकर दिया था कि वह सीमा पार कर भारत में आतंक मचाएगा। पाकिस्तान में जिस तेजी से हालात बिगड़ते जा रहे हैं उसमें जनता का ध्यान बांटने के लिए पाकिस्तान की फौज तालिबानो को घुसपैठ कर भारत में झोंकने का प्रयास करेगी। इससे भारत की सिरदर्दी बहुत अधिक बढ़ जाएगी। अब भारत के सुरक्षा बलों को पहले से अधिक सतर्क रहना होगा जिससे पाकिस्तानी आतंकवादी भारत में घुसकर नरसंहार नहीं कर सकें।  

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