शनिवार, 16 नवंबर 2013

तालिबान से भयभीत पाकिस्तान

भारत के साथ लगातार खुराफात करने वाला पाकिस्तान आजकल काफी डरा हुआ दिख रहा है। हालांकि ऐसा किसी बाहरी ताकत द्वारा भय दिखाने की वजह से नहीं हुआ है बल्कि तालिबान के नये कमाण्डर की धमकियों से। कारण यह है कि तहरीक ए तालिबान अथवा पाकिस्तान तालिबान अपने पूर्व कमाण्डर हकीमुल्ला महसूद की ड्रोन हमले हुयी मृत्यु के लिए बहुत हद तक पाकिस्तान को भी गुनहगार मानता है। स्वाभाविक तौर पर इसके लिए पाकिस्तान दण्ड का भागीदार होगा। हालांकि यह दण्ड कैसा होगा या कितना प्रभावशाली होगा, यह अभी स्पष्ट नहीं है लेकिन पाकिस्तान को यह भय तो सता ही रहा है कि तालिबान पाकिस्तान के साथ कोई समझौता नहीं बल्कि उसे सबक सिखाने की जरूरत है। तो क्या पाकिस्तान उस स्थिति में पहुंच चुका है, जहां से उसके पतन का काउंटडाउन शुरू होना तय होता है?

मुल्ला फजलुल्लाह अथवा 'मुल्ला रेडियो' एक ऐसा नाम जिसे मनुष्य की श्रेणी में रखते यह अपने आपसे यह सवाल करने का मन करता है कि क्या यह सही है? पाकिस्तान तालिबान कमाण्डर हकीमुल्ला की ड्रोन हमलों में हुयी मौत के बाद इसी को तालिबान प्रमुख घोषित किया गया है। स्वात घाटी का यह एक ऐसा नाम है जो सम्भवत: क्रूरता की सभी सीमाएं पार कर चुका है। यह वही है जिसने स्वात घाटी में केवल मलाला को जान से मारने की कोशिश नहीं की है बल्कि शरिया को लागू करने के दौरान बहुत से लोगों के साथ क्रूर व्यवहार और बहुतों की क्रूर हत्याएं की हैं। यद्यपि हकीमुल्ला महसूद पाकिस्तान की नयी सरकार के साथ बातचीत चाहता था, लेकिन फजलुल्लाह खुले तौर पर इसका विरोधी रहा है। ऐसे व्यक्ति के तालिबान प्रमुख बनने के बाद इस बात की सम्भावनाएं बढ़ गयी हैं कि पाकिस्तान सरकार और पाकिस्तान तालिबान के मध्य टकराव और बढ़ेगा, अशांति और अधिक पनपेगी और यह भी सम्भव है कि अफ गानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं की वापसी के बाद न केवल अफगानिस्तान में बल्कि पाकिस्तान में भी कुछ समीकरण बदलें।

मुल्ला फजलुल्ला पाकिस्तान तालिबान का पहला प्रमुख है जिसका सम्बंध दक्षिणी वजीरिस्तान के महसूद कबीले से नहीं है। इसका सम्बंध स्वात घाटी से है और यही कारण है कि महसूद कबीले के कुछ लोग फजलुल्लाह के नाम से खुश नहीं हैं लेकिन वरिष्ठ सदस्यों के दबाव में उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया है। इससे पूर्व यह स्वात तालिबान प्रमुख के रूप में कई बार सूचनाओं में उपस्थिति हुआ है। मुल्ला फजलुल्लाह उर्फ रेडियो मुल्ला अथवा मुल्ला रेडियो, मूलत: एक प्रतिबंधित चरमपंथी आतंकी समूह और पाकस्तान तालिबान के सहयोगी तहरीक-ए-नफ़ ज-ए-शरीयत-ए-मोहम्मदी (टीएनएसएम) का नेता है जिसका उद्देश्य पाकिस्तान में शरीया को लागू कराना है। युसुफजाई जनजाति के पख्तून बाबुकरखेल कबीले में 1974 में जन्मा मुल्ला फजलुल्ला 12 जनवरी 2002 में टीएनएसएम का नेता तब बना जब राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने उसे प्रतिबंधित कर दिया था। इस प्रतिबंध के बाद दरअसल सूफ ी मुहम्मद (संस्थापक टीएनएसएम) की गिरफ्तारी हुयी और फजलुल्ला को नेतृत्व प्राप्त हो गया। यह संगठन ढीले-ढाले ढंग से अक्टूबर 2005 तक चलता रहा लेकिन इसी समय भूकम्प ने मुल्ला के लिए शक्ति ग्रहण करने का एक अवसर उपलब्ध करा दिया। स्वात घाटी में आए भूकम्प के बाद उत्पन्न अराजकता और भुखमरी ने फजलुल्ला के लिए बड़े पैमाने पर नये कैडर उपलब्ध करा दिए जिनकी भर्ती कर उसने स्वात घाटी में अपने प्रभाव के विस्तार का कार्य आरम्भ किया। 2007 में लाल मस्जिद पाकिस्तानी फ ौज की कार्रवाई ने उसे ताकत ग्रहण करने का दोबारा मौका दिया। इस बार फजलुल्ला की आर्मी और तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के बैतुल्ला महसूद के बीच एक गठबंधन निर्मित हो गया। अब फजलुल्ला और उसकी आर्मी महसूद से निर्देश प्राप्त करने लगी। मई से सितम्बर 2007 के दौरान स्वात में अस्थायी सीज फ ायर ने उसे एक और अवसर दिया और इस समय का प्रयोग उसने स्वात घाटी में अपनी राजनीतिक ताकत के निर्माण और उसे स्थायित्व देने के लिए किया। अक्टूबर 2007 के बाद फ जलुल्ला ने लगभग 4500 आतंकियों की मदद से स्वात घाटी के के 59 गांवों में शरिया लागू करने के लिए इस्लामी अदालतों की स्थापना कर 'समांतर सरकार' की स्थापना कर ली।

मुल्ला फजलुल्ला के नाम से स्वात घाटी में कई रेडियो प्रसारण हो चुके हैं। यहां तक कि तालिबान के अंदर भी उसे एक कट्टर चेहरे के रूप में देखा जाता है। वह 2004 में उस वक्त सुर्खियों में आया, जब उसने स्वात में अचानक एफ एम रेडियो स्टेशन स्थापित कर लिया। इस स्टेशन से पश्चिमी देशों के खिलाफ  आग उगलने का काम किया जाने लगा। वर्ष 2009 तक उसने आर्मी की बदौलत स्वात घाटी पर कब्जा कर लिया और वहां शरीया कानून लागू कर दिया। मुल्ला रेडियो पोलियो टीकाकरण का भी विरोध करता है और इसे ईसाई और यहूदी साजिश बताता है। इसके साथ ही वह महिलाओं की शिक्षा का कट्टर विरोध करता है। कुल मिलाकर मुल्ला फजलुल्ला न पाकिस्तान की शांति के लिए बेहतर है, न पाकिस्तान के लोकतंत्र के लिए और न ही पाकिस्तान के लोगों के अधिकारों के लिहाज से। अब तो तालिबान प्रवक्ता ने स्पष्ट रूप से कहा है कि पाकिस्तान सरकार के साथ शांति वार्ता तालिबान की सम्भवानाएं शून्य से भी कम हो गयी हैं। तहरीके तालिबान पाकिस्तान के शीर्ष नेता एहसानुल्ला एहसान ने न्यूज वीक पाकिस्तान को दिए गए साक्षात्कार में कहा, 'पिछले सप्ताह महसूद की हत्या से पख्तून संस्कृति का उल्लंघन हुआ है। इस घटना के बाद सरकार के साथ किसी तरह की कोई शांति वार्ता नहीं हो सकती। वार्ता की संभावना शून्य से भी कम हो गई है।' एहसान ने दावा किया कि शांति वार्ता की चाल तालिबान नेताओं को एक-एक कर मारने के लिए चली जा रही है। इसके साथ ही तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान की तरफ से पाकिस्तान सरकार को बदले की कार्रवाई की चेतावनी भी दी गयी है, खासतौर पर पंजाब को निशाना बनाने की। तालिबान की तरफ से कुछ मीडिया सूत्रों से कहा गया है कि उनके पास एक खास योजना है। हालांकि तालिबान की तरफ से कहा गया है कि वे नागरिकों को निशाना नहीं बनाएंगे। वे नवाज शरीफ के गढ़ पंजाब में सेना और सरकारी संस्थानों को लक्ष्य बनाकर बम धमाके और आत्मघाती हमले करेंगे।

अब पाकिस्तान सरकार की दुविधा यह है कि आखिर वह किस रास्ते का चुनाव करे। हालांकि ये उसके ही पैदा किए हुए रक्तबीज हैं जो आज उसी को मारने के लिए तैयार हो गये हैं। फजलुल्ला लम्बे समय तक अफगानिस्तान में रहा है और उसके अफगानिस्तान तालिबान के साथ बेहतर रिश्ते रहे हैं इसलिए इस बात की सम्भावना अधिक है कि पाकिस्तान तालिबान और अफगान तालिबान के साथ एक सशक्त गठबंधन तैयार हो। हालांकि पाकिस्तान तालिबान का मुल्ला उमर के नेतृत्व वाले अफगान तालिबान से सीधे जुड़ाव नहीं है, क्योंकि दोनों समूहों का ही इतिहास, रणनीतिक लक्ष्य और अभिरुचियां अलग-अलग है। लेकिन अब जो स्थितियां बनती दिख रही हैं उनमें नया गठबंधन सम्भव है और विशेषकर अमेरिकी सेना की वापसी के पश्चात तो अवश्य ही। दरअसल वजीरिस्तान और स्वात घाटी का कबीलाई संगठन बहुत ही मजबूत है और आजादी के बाद पाकिस्तान की सरकार इन क्षेत्रों में अभियान चलाने या चरमपंथ को खाद-पानी देती रही, लेकिन 911 की घटना के बाद अमेरिकी प्यादा बनकर उसने खैबर ट्राइबल एजेंसी की तीर घाटी को इसलिए निशाना बनाया था क्योंकि उसे मालूम था कि वहां पर बड़े पैमाने पर उबेक, चेचन और अरब आतंकवादी मौजूद हैं जो अल-कायदा का साथ दे रहे हैं। इसके बाद उत्तरी वजीरिस्तान की शावल घाटी और बाद में दक्षिणी वजीरिस्तान में अभियान चलाया गया। इस अभियान के बाद पाकिस्तान जनजातीय नेताओं का दुश्मन बन गया और यह दुश्मनी अब तक नहीं गयी।


बहरहाल मुल्ला फजलुल्ला पाकिस्तान की सरकार और पाकिस्तान की अवाम के लिए एक अभिशाप से कम नहीं है। अब इस बात की सम्भावना अधिक है कि वह अल-कायदा, अफगान तालिबान के बीच उस सम्बियोटिक रिलेशनशिप को ताकत देने का काम करेगा, जो पाकिस्तान, अफगानिस्तान और सम्भव है कि दक्षिण एशिया के अन्य देशों, विशेषकर भारत जैसे देश के लिए भी खतरनाक सिध्द हो। वास्तव में यदि तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान अलकायदा, शहीद ब्रिगेड, इस्लामी मूवमेंट ऑफ उबेकिस्तान (आईएमयू), हरकत-उल-जिहाद इस्लामी (हूजी), इलियास कश्मीरी, क़री सैफुल्ला अख्तर, जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-झांगवी, लश्कर-ए-तैयबा, सिपह-ए-सहाबा आदि के साथ रिश्तों को कोई आयाम देने में सफ ल हो गया तो पाकिस्तान को किश्तों में रोना पड़ेगा। 



देशबन्धु


शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

लोकतंत्र का सामंतवादी संचालन

चारा घोटाला मामले में जब न्यायपालिका ने लालू प्रसाद यादव को दोषी ठहराते हुए जेल भेज दिया तो यह उम्मीद जगी थी कि पार्टी का नेतृत्व नए हाथों में स्थानांतरित हो जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं होने से लोकतंत्र समर्थकों की यह उम्मीद भी खत्म हो गई। न्यायपालिका के फैसले के आलोक में राष्ट्रीय जनता दल ने अपने कार्यकारी सदस्यों की बैठक बुलाई। इस बैठक में यह निर्णय किया गया कि पार्टी का नेतृत्व अभी भी लालू प्रसाद यादव के हाथों में रहेगा। वह जेल की सलाखों के पीछे से ही पार्टी का संचालन करेंगे और दिन प्रतिदिन के कामों का संचालन उनकी पत्‍‌नी राबड़ी देवी करेंगी। फिर भी धीरे-धीरे माहौल में बदलाव आना शुरू हुआ है। लोकतंत्र समर्थक सिविल सोसाइटी के सदस्यों ने भ्रष्ट राजनेताओं के खिलाफ न्यायपालिका की पहल पर जवाबदेही की मांग का सवाल उठाया है, लेकिन यहां पहली और आखिरी बात यही है कि क्या इस सबसे राजनीतिक दलों के कार्य व्यवहार में कोई अंतर आया अथवा ऐसी किसी अपेक्षा की उम्मीद बंधी? आज भारत में राजनीति इस स्तर तक गिर चुकी है जिसमें राबड़ी देवी अथवा परिवार के किसी दूसरे सदस्य का वैकल्पिक नेता के तौर पर आगे आना कोई आश्चर्य की बात नहीं। आम जनता को इस तरह की बातों की पहले से अपेक्षा होती है, जिसका इस्तेमाल इस रूप में किया जाता है कि पार्टी के भीतर विरोध करने वाला कोई विपक्ष नहीं है और सभी एकमत हैं।

इस संदर्भ में एक दूसरा प्रश्न यह भी उभरता है कि जैसी स्थिति राजद में है, क्या वैसा ही कुछ अन्य दलों में भी है? इस प्रश्न का उत्तार बहुत सामान्य है कि अन्य राजनीतिक दलों में भी कुछ अपवादों को छोड़कर ठीक इसी तरह की स्थिति देखने को मिलती है। आखिर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में वास्तव में हो क्या रहा है? हमारे यहां की दलीय प्रणाली में आखिर लोकतंत्र जैसी कोई बात क्यों नहीं है? भारत में राजनीतिक पार्टियों का संचालन पूरी तरह से सामंती तरीके से किया जा रहा है। यह सही है कि भारत में सामंतवाद पूरी तरह से खत्म हो चुका है, लेकिन राजनीतिक दलों के भीतर सामंती तौर-तरीके अभी भी बने हुए हैं। तीसरे, क्या दोषी नेता की अनुपस्थिति में पार्टी में कोई और ऐसा नेता नहीं है जो नेतृत्व की बागडोर संभाल सके। करीब-करीब सभी दलों में पार्टी के शीर्ष नेता के कद के नेता मौजूद हैं, किंतु राजनीतिक दलों में सामंती आ‌र्ग्रह इतने गहरे हैं कि कोई भी खुद को नेता के रूप में प्रस्तावित नहीं करता। भारतीय दलतंत्र में इसे बगावत समझा जाता है। यह राजद के हालिया उदाहरण के अलावा कांग्रेस के लंबे इतिहास से स्पष्ट हो जाता है। इससे एक और सवाल खड़ा होता है, पहले या दूसरे दर्जे के तमाम नेता पार्टी के शीर्ष नेता के समक्ष इतने दब्बू या गुलामों की तरह व्यवहार क्यों करते हैं? अधिकांश दलों में यह संस्कृति देखी जा सकती है। इसका प्रमुख कारण पार्टियों में अंतर-दलीय लोकतंत्र का अभाव है। यह भारतीय लोकतंत्र का दुर्भाग्य है कि इसमें अंतर दलीय लोकतंत्र पनप ही नहीं सका।

यूरोप और अमेरिका में अंतर-दलीय लोकतंत्र सफलतापूर्वक चल रहा है। 17वीं सदी में ही लोकतंत्र का स्वाद चखने वाले इंग्लैंड में अंतर-दलीय लोकतंत्र की उपेक्षा का कोई स्थान नहीं है। अंतर-दलीय लोकतंत्र का अभाव एक किस्म का सामंतवादी प्रभाव है, जो इंग्लैंड में लोकतंत्र के उदय से पहले तक स्थापित था। क्या कोई भारत में यह कल्पना भी कर सकता है कि बेहद शक्तिशाली मार्गरेट थैचर को जॉन मेजर जैसा सामान्य सा नेता पार्टी के नेतृत्व के लिए चुनौती दे सकता है और बेदखल कर सकता है। अमेरिका में प्राइमरी चुनाव अंतर-दलीय लोकतंत्र का सर्वोत्ताम रूप पेश करते हैं। 2008 में डेमोक्रेटिकपार्टी में दो कट्टर विरोधी उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन और बराक ओबामा में प्राथमिक चुनाव के लिए तगड़ा संघर्ष हुआ। तब एक अनजान चेहरे बराक ओबामा ने कभी शक्तिशाली प्रथम महिला रहीं हिलेरी क्लिंटन को प्राइमरी चुनावों में मात देकर डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी हासिल की। पार्टी के शक्तिशाली नेता को चुनौती पेश करने के कारण किसी को भी दल से बाहर नहीं निकाला गया। न तो हिलेरी क्लिंटन ने ओबामा से मात खाने के बाद अपनी नई पार्टी बना ली और न ही हिलेरी और ओबामा में इसलिए दुश्मनी हो गई कि प्राइमरी चुनावों में दोनों एक-दूसरे के खिलाफ लड़े थे। इसके बजाय हिलेरी क्लिंटन ने राष्ट्रपति बराक ओबामा की यह पेशकश स्वीकार कर ली कि वह अमेरिका की विदेश मंत्री बन जाएं। यह इसलिए संभव हुआ, क्योंकि वहां पार्टी किसी एक व्यक्ति की बपौती नहीं है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को अमेरिका के इस अंतर-दलीय लोकतंत्र से सबक सीखना चाहिए।


क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि कांग्रेस पार्टी के भीतर सोनिया, राहुल गांधी को कोई इस प्रकार चुनौती दे सकता है जैसे बराक ओबामा ने हिलेरी क्लिंटन को दी थी। अगर किसी ने ऐसा करने का साहस दिखाया तो उसे अगले ही दिन पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा। क्षेत्रीय दलों की हालत तो और भी खस्ता है। इनमें नेताजी का फैसला ही अंतिम शब्द होता है। इन दलों में लोकतंत्र का पूरी तरह से हरण कर लिया गया है। इसीलिए इन दलों में परिवार के बाहर से दूसरी पीढ़ी के नेता को उभरने ही नहीं दिया जाता। किसी पार्टी को चलाने या फिर सरकार चलाने का अधिकार बस प्रथम परिवार को होता है। आगामी विधानसभा चुनावों में टिकट से वंचित रह गए असंतुष्ट उम्मीदवारों की नाखुशी का एक कारण राजनीतिक पार्टियों में इसी अंतर-दलीय लोकतंत्र का अभाव भी है। आज जब विश्व वैश्रि्वक गांव में तब्दील हो रहा है, भारत अपनी सवा अरब आबादी की आकांक्षाओं की पूर्ति और कल्याण की अनदेखी नहीं कर सकता। आजादी के 66 साल बाद देश का लोकतांत्रिक ढांचा अंतर-दलीय लोकतंत्र के अभाव से कमजोर हो रहा है। इस दिशा में सुधार तभी संभव लगते हैं जब सुप्रीम कोर्ट चुनाव सुधारों पर भी नए प्रावधान लाए। आज हर भारतीय की यही उम्मीद है।

ग्रामीण स्वास्थ्य की दशा सुधारने की कोशिश

केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने ग्रामीण स्वास्थ्य की दशा और दिशा सुधारने वाला एक अत्यंत महत्वपूर्ण फैसला लिया है। बुधवार को हुई मंत्रिमंडल की बैठक में सामुदायिक स्वास्थ्य में बीएससी पाठयक्रम को मंजूरी दी गई। यह पाठयक्रम सरकार की उस योजना को कारगर बनाने में सहायक सिध्द होगा, जिसके तहत वह ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्यकर्मियों का एक विशेष दल तैयार करना चाहती है। इस तरह के किसी फैसले की वर्षों से प्रतीक्षा थी। बल्कि यूं कहना ज्यादा सही होगा कि इस ओर अरसे से प्रयास जारी थे, लेकिन हर बार किसी न किसी कारण से अडंग़ा लगाया जाता रहा। केंद्र ने अभी जो फैसला लिया है, छत्तीसगढ़ की प्रथम सरकार ने भी ऐसा ही निर्णय लिया था, किंतु वह लंबे समय तक लागू न हो पाया। दरअसल इसका विरोध मुख्यत: चिकित्सकों की ओर से ही होता आया, जिनका यह मानना है कि ऐसा करने से इस व्यवसाय के लोगों के दो स्तर निर्मित होंगे और उससे दीर्घकालिक नुकसान होगा। इस देश की आम जनता जानती है कि इसमें असल में किसका नुकसान है और चिकित्सा क्षेत्र को मुनाफे का व्यवसाय बना देने वाले किस मानसिकता से कार्य करते हैं। इसे विडंबना कहें या विरोधाभास कि एक ओर देश में मेडीकल टूरिज्म को बढ़ावा दिया जा रहा है, अर्थात विदेशों से मरीजों को इलाज के लुभावने पैकेज देकर आमंत्रित किया जा रहा है और दूसरी ओर यहां की गरीब व मुख्य रूप से ग्रामीण जनता के लिए मूलभूत स्वास्थ्य सेवाओं का अकाल पड़ा हुआ है। लाखों रुपए देकर सात सितारा अस्पतालों में इलाज करवाने की सुविधा यहां है, जहां डाक्टरों व मरीजों के बीच व्यापारी व ग्राहक का रिश्ता बना हुआ है। उधर, ग्रामीण इलाकों में स्थिति इतनी बदतर है कि मरीज को जानवर की तरह दो बांसों के बीच लटकाकर पास के शहरी अस्पताल में लाया जाता है और इन अस्पतालों में गरीब मरीजों के साथ लगभग जानवरों जैसा ही व्यवहार भी होता है। कराहते, तड़पते मरीज गलियारों में पड़े रहते हैं, गर्भवती महिलाएं सड़क पर ही बच्चे को जन्म देती हैं, टीबी, मलेरिया, उल्टी-दस्त जैसी बीमारियां अब भी काल का कहर बनकर  टूटती हैं, यह सिलसिला वर्षों से चल रहा है, लेकिन इसे खत्म करने का कोई ठोस उपाय नहींकिया गया। जब-जब आम आदमियों तक स्वास्थ्य सुविधाएं आसानी से पहुंचाने की बात होती है, देश में डाक्टरों का एक बड़ा वर्ग या कह लें इनका संगठित गिरोह इसके खिलाफ मोर्चा खोल देता है। क्योंकि इसमें इन्हें अपना नुकसान नजर आता है। लाखों रुपए की चिकित्सा शिक्षा प्राप्त कर, उसका लाभ करोड़ों लोगों तक पहुंचाने की जगह वे करोड़ों रूपए कमाने की ख्वाहिश रखते हैं। इसलिए स्वास्थ्य सुविधाएं अब आकर्षक पैकेजों मेंउपलब्ध होने लगी है, जो केवल संपन्न तबके की पहुंच में है। गरीब आदमी आज भी सरकारी अस्पतालों में बीमारी की पीड़ा सहते हुए लंबी कतार में लग कर इलाज की प्रतीक्षा करने के लिए अभिशप्त हैं। देश के नीति नियंताओं तक इनकी कराहें नहींपहुंचती। अगर वे सुनना चाहें तो भी उनके निर्णय लेने में बाधाएं खड़ी की जाती हैं। अभी जो तीन वर्ष का पाठयक्रम है, इसी तरह का एक फैसला संसद की स्थायी समिति ने पहले लिया था जिसमें चिकित्सा स्नातकों को तीन साल ग्रामीण इलाकों में सेवाएं देना अनिवार्य किया गया था। किंतु यह भी फलीभूत नहीं हो पाया।


बहरहाल, सामुदायिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में इस तीन वर्षीय पाठयक्रम में सामुदायिक स्वास्थ्य अधिकारियों का एक ऐसा दल तैयार होगा, जो स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अधीन कार्य करेगा। इस पाठयक्रम के स्नातक ग्रामीण क्षेत्रों में तैनात होंगे और मूलभूत स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराएंगे। उदाहरण के लिए सामान्य प्रसूति, जच्चा-बच्चा की प्रारंभिक देखभाल, टीकाकरण, सर्दी-जुकाम, सामान्य बुखार, टीबी, मलेरिया आदि का प्रारंभिक इलाज इन सब को करने में सामुदायिक स्वास्थ्य के स्नातक सक्षम होंगे। इससे ग्रामीणों को प्रारंभिक इलाज प्राप्त होगा ही, झोलाछाप डाक्टरों, झाड़-फूंक करने वालों से मुक्ति भी मिलेगी।



देशबन्धु

गुरुवार, 14 नवंबर 2013

वैश्विक तेजी में भारत में मंदी क्यों?

इस समय विश्व अर्थव्यवस्था में सुधार आ रहा है। अमरीका पहले ही मंदी से निकल चुका है। पिछली तिमाही में यूरोप की अर्थव्यवस्था ने भी जोर पकड़ा है। लेकिन हमारी हालत पस्त है। हम पूर्व में नौ प्रतिशत विकास दर हासिल कर चुके थे। आज पांच प्रतिशत भी बनाए रखना कठिन हो रहा है।

कारण हमारी घरेलू नीतियां हो सकती हैं। पिछले दशक के अपने अनुभव से ज्ञात होता है कि इस समय रुपये का टूटना वैश्विक कारणों से नहीं है। वर्ष 2002 से 2008 के बीच विश्व अर्थव्यवस्था स्थिर थी। इस अवधि में रुपये का मूल्य 45 रुपये प्रति डालर पर टिका रहा। 2008 में वैश्विक मंदी का दौर चालू  हुआ जो कि 2012 तक चला। इस अवधि में भी रुपये का मूल्य 45 रुपये प्रति डालर पर टिका रहा। इससे प्रमाणित होता है कि रुपये पर विश्व अर्थव्यवस्था की चाल का विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है। 2012 के बाद विश्व अर्थव्यवस्था ने पुन: सुधार की तरफ रुख किया है। लेकिन इस बार रुपये ने तेजी से लुढ़कना शुरू कर दिया है। प्रमाणित होता है कि रुपये के टूटने का कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था का उलटफेर नहीं है।

इन कारणों को समझने के लिये विश्व अर्थव्यवस्था से हमारे सम्बन्ध पर नजर डालनी होगी।     विश्व अर्थव्यवस्था से हमारा एक संबन्ध आयात और निर्यात से बनता है। वैश्विक संकट के कारण हमें आयातों में लाभ मिलता है। वैश्विक अर्थव्यवस्था मंद होती है तो ईंधन तेल की खपत कम होती है। इससे तेल के दाम में गिरावट आती है। तेल आयात करने का हमारा खर्च कम होता है। 2007 में तेल के दाम 145 डालर प्रति बैरल की ऊंचाई को छू गए थे। 2008 में संकट पैदा होने पर ये गिरकर 40 डालर पर आ गए थे। यह हमारे लिए लाभकारी रहा।

दूसरी तरफ हमारे निर्यात दबाव में आते हैं। दूसरे देशों में हमारे माल की मांग कम हो जाती है। अत: समग्र रूप से देखें तो हमारे विदेश व्यापार पर वैश्विक संकट का प्रभाव शून्य प्राय रहता है। फिर णभी निर्यातों पर पड़ रहे दुष्प्रभावों को दूर करना होगा। इस दुष्प्रभाव का प्रमुख कारण है कि हमारे निर्यात महंगे हैं। बाजार में मांग कम हो तो कुशल उद्यमी अपने माल का दाम घटा कर बेच लेता है। अकुशल उद्यमी माल के दाम नहीं घटा पाता है और बाजार से बाहर हो जाता है। इसी प्रकार हम अपने निर्यातों को सस्ता बना दें तो वैश्विक संकट का सामना कर सकते हैं। परन्तु अपने देश में माल के दाम बढ़ते ही जा रहे हैं। इसका मूल कारण है कि नेता और नौकरशाही की लूट बढ़ती ही जा रही है। बाजार का स्वभाव होता है कि कुछ समय के अन्तर पर तेजी और मन्दी आती रहती है। जो कम्पनी अन्दर से सुदृढ़ रहती है वह मंदी को झेल लेती है। दूसरी डूब जाती है। वास्तव में मन्दी ही परीक्षा का समय होता है। मंदी में जो उद्यम खड़ा रहता है वह तेजी में लाभ कमाता है। इसलिए वैश्विक मंदी को दुखड़े का कारण बनाने के स्थान पर हमें आत्मचिंतन करना चाहिए कि हम मंदी को झेल क्यों नहीं पा रहे हैं?

विश्व अर्थव्यवस्था से हमारा दूसरा संबंध पूंजी के माध्यम से स्थापित होता है। वैश्विक संकट के कारण विदेशी निवेशक अपने घर में दुबक जाते हैं। 2007 में अपने देश में 43 अरब डालर का विदेशी निवेश आया था। 2008 में यह घटकर यह मात्र 8 अरब डालर रह गया था। परन्तु शीघ्र ही यह पुराने स्तर पर आ गया। 2010 से 2012 के बीच लगभग 43 अरब डालर प्रति वर्ष आता रहा। विश्व अर्थव्यवस्था मंदी के चपेट में थी परन्तु विदेशी निवेश पर असर नहीं पड़ा। कारण कि विदेशी निवेश का दोहरा प्रभाव पड़ता है। एक तरफ विदेशी निवेशक दुबक जाते हैं जैसा कि 2008 में हुआ। लेकिन दूसरी तरफ अमरीका में संकट गहराने से निवेशक अपनी पूंजी को अमरीका से निकाल के दूसरे देशों में लगाना चाहते हैं। जैसे अपनी दुकान घाटे में चल रही हो तो घरवाले अपनी पूंजी को म्युचुअल फंड में लगा देते हैं। 2009 से 2012 तक वैश्विक मंदी के बावजूद विदेशी निवेश आते रहने का यही कारण था। वर्तमान में जो विदेशी पूंजी का पलायन हो रहा है उसका कारण घरेलू अर्थव्यवस्था में गिरावट है। भारत में निवेश करना लाभप्रद नहीं रह गया है। भारतीय उद्योग की लागत यादा आ रही है। इसका एक कारण मनरेगा है जिसके कारण श्रम के दाम बढ़ गए हैं। यह सकारात्मक पक्ष है। दूसरा कारण भ्रष्टाचार और लालफीताशाही है। यह नकारात्मक पक्ष है। इस भ्रष्टाचार के कारण विदेशी निवेशक भारत से पूंजी निकाल कर चीन, कोरिया, ताइवान में लगा रहे हैं।

विदेशी निवेशक जो पूंजी लाते हैं वह देश पर एक प्रकार का ऋण होता है चूंकि इसे वे मनचाहे समय पर वापस ले जा सकते हैं। विदेशी निवेशक डालर लाकर बैंक में जमा करा देते हैं। भारतीय आयातक द्वारा बैंक से डालर खरीद लिए जाते हैं। यदि आयातक ने इन डालरों का उपयोग फैक्ट्री लगाने के लिए मशीन का आयात करने का किया है तो परिणाम सुखद होता है। पूंजी खाते में मिले डालर का उपयोग हम पूंजी खाते में निवेश करने के लिये कर लेते हैं। परन्तु इन डालर का उपयोग खपत की वस्तुओं के लिए किया गया तो समस्या उत्पन्न हो जाती है। चीन के खिलौने टूट फूट कर समाप्त हो जाते हैं लेकिन ऋण खड़ा रह जाता है। देश को एक कम्पनी की तरह समझें। कम्पनी ऋण लेकर उद्योग लगाएं तो लाभ कमाती है। ऋण लेकर अय्याशी करे तो डूब जाती है। सरकार ने देश को अय्याशी की राह पर चलाया है। खपत की वस्तुओं का आयात करने को प्रोत्साहन दिया जैसे खुदरा बिी में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को छूट देने से। सरकार द्वारा स्विस चाकलेट एवं फ्रेंच परफ्यूम को कम करने का जरा भी प्रयास नहीं किया जा रहा है। बल्कि इस खपत को पोषित करने के लिये और अधिक मात्रा में विदेशी निवेश को आकर्षित किया जा रहा है। इस कारण हमारी अर्थव्यवस्था बिगड़ गई है।

वर्तमान में हमारी बिगड़ती स्थिति का कारण वैश्विक संकट नहीं, बल्कि घरेलू नीतियां हैं। मनरेगा तथा भ्रष्टाचार के कारण हमारे उद्योगों की लागत यादा आ रही है और हमारे निर्यात विश्व बाजार से बाहर हो रहे हैं। विदेशी निवेश से मिली पूंजी का उपयोग विलासिता की वस्तुओं का आयात करने के लिए उपयोग करने के कारण रुपया टूट रहा है। सरकार को चाहिए कि विदेशी निवेश को आकर्षित करने के स्थान पर आयातों पर रोक लगाने का प्रयास करे। साथ-साथ गर्वनेन्स सुधार कर उद्योगों की लागत कम करनी चाहिए।



देशबन्धु





  

बुधवार, 13 नवंबर 2013

International Children’s Film Festival of India

International Children’s Film Festival of India (ICFFI) also popularly known as The Golden Elephant is a biennial festival that strives to bring the most delightful and imaginative national and international children’s cinema to young audiences in India. Outstanding features, shorts, live action and animation films are screened over seven days of festive celebrations, attended by more than a hundred thousand children and hundreds of film professionals from across the world.

Every two years, the festival begins on 14th November, the birth date of Pandit Jawaharlal Nehru – India’s first Prime Minister – also fondly referred to as Chacha Nehru (Uncle Nehru), because of his love for children. Pandit Nehru established CFSI soon after India’s independence with the hope that indigenous and exclusive cinema for children would stimulate their creativity, compassion and critical thinking. It is this vision of Jawaharlal Nehru that guides ICFFI. Cinema is a powerful medium which will have to be used to play a pivotal role in child’s life and we should also understand what are the entertainment needs of the children.

In a world that is cluttered with consumerist and often violent content for children, ICFFI is committed to promoting cinema that is humane and non-violent, and yet delightful and fun! Special care is taken to program films that cultivate an understanding of other cultures, lives and experiences and encourage children to reflect on the world around. Workshops and open forums at the festival aim towards stimulating critical appreciation and creative pursuit of cinematic arts amongst young people. The festival also supports the work of children’s filmmakers by rewarding them for their dedication and talent.

ICFFI is one of the largest and most colourful children’s film festivals in the world. A unique feature of the festival is its audience. More than a hundred thousand children travel from little villages and towns from across India to view high quality international children’s cinema that they would never be exposed to otherwise. Here they get an opportunity to interact with other kids, eminent guests and directors from different parts of the world. ICFFI is dedicated to these little delegates and to those imaginative film-makers who attempt to make films for the toughest audience of all – children!

The 18th edition of ICFFI will take place from 14th to 20th November 2013 screening approx 150 plus films from across the world. The festival will have three Competition Sections: Competition International, Competition Asian Panorama, Competition Little Directors where international and national films compete for the prestigious Golden Elephant Trophies, accompanied by cash awards. The festival will also screen specially curated Non-Competition Sections including Children’s World that will showcase the most acclaimed films from the last decade and country specific which will present the best of one country’s children’s films to young audiences in India.

The main agenda of ICFFI is to give clean and healthy environment to the children by screening films produced by the countries all over the world. 18th Edition of ICFFI will take place in the historic city of Hyderabad, the festival permanent venue for the last 8 editions and is organized by Children’s Film Society of India (CFSI) – an autonomous body under the Ministry of Information and Broadcasting in collaboration with Government of Andhra Pradesh.

200 films from 48 countries are going to participate in this event. The countries participating for the first time are South America, Austria, Greenland, Lebanon, Scotland, Malaysia etc. Opening film is ‘Gopi Gawaiyya Bagha Baiyaya’ recently produced by CFSI and Closing film will be the award winning film. Around 1, 50,000 children are expected to participate in the festival. For the first time ICFFI has received a formidable quantity of animation films from across the globe: 285 animation films, focus on sourcing international award winning films featured in 20 most prestigious international children’s film festivals also including titles screened at Berlinale, Toronto International Film Festival, Cannes etc. 123 entries for Little Directors Section containing films made by children from India and around the world received for the festival. An amount of Rs.3.35 crores which also includes amount of Rs.25 lakhs towards North East, have been allocated by Ministry of I&B, Government of India. Contributions from AP Government are expected in tune of Rs.3.25 crores.

Children’s Film Society, India

Children’s Film Society (CFSI) was established in 1995 to provide value-based entertainment to children through the medium of films. CFSI is engaged in production, acquisition, distribution/exhibition and promotion of children’s films. The head office of CFSI is located in Mumbai with branch offices in New Delhi and Chennai. The mission of CFSI is to facilitate promotion of children’s films by encouraging strengthening and spreading the Children’s Film Movement all over the country and abroad. Films produced/ procured by the society are exhibited through State/ District level Children’s Film Festivals as well as through theatrical, non-theatrical exhibition in schools through Distributors, NGOs, etc. Children film society exhibits films produced by state.

Highlights

Ranbir Kapoor will be the special attraction at the international children's film festival. Noted lyricist, Gulzar and well known actor Amol Palekar will also participate in the festivities. The highlights of Opening ceremony and closing ceremony will be combination of cultural programmes and screening of films.‘Gopi Gawaiyya Bagha Baiyaya’,a recently produced film of CFSI will be screened during Opening ceremony at Lalit Kala Thoranam, Public Gardens, Hyderabad. Renowned director and actor Amol Gupte, is the current chairperson of the Children's Film Society.  An award winning film will be screened during closing ceremony. Celebrities from Hindi film industry (Bollywood) and Telegu film industry (Tollywood) are expected to be associated with opening and closing ceremony. 200 films from 48 countries will be showcased in 10 Screens across Hyderabad with 30 shows everyday and 150,000 expected child viewers. Besides Opening film for the festival i.e. ‘Gopi Gawaiyya Bagha Baiyaya’ & ‘Kaphal’, Jaldeep (First feature of CFSI), Adventures of a Sugar Doll (First animation of CFSI), RajuaurTinku (puppet animation short), Hangama Bombay Ishtyle, CharandasChor, Dost Magarmachch, Sunday, Halo, Karamati Coat, Gattu wiill also be exhibited. Animation section is introduced for the first time in the history of this event. A number of open forums and workshops will be organised like a master class on marketing locally produced children’s film internationally and Open Forums will be organised on Rights of Child Actors, Inclusive Cinema – representing the differently abled, Challenges and Potential of Indian Animation and Invisibility of Girls in children’s content. During this festival, the films are being screened through Digital Cinema Package (DCPs). Also, separate arrangements have been made for special children with one of the theatre in Hyderabad. The film will be screened at the Prasad IMAX Multiplex and 7 other theatres.

Main Programs and Events

Programming a Competitive Animation section, given the unprecedented quantity and quality of animation features and shorts received from across the world. Country Focus Retrospective of Czech films in collaboration with Zlin Film Festival, Czech Republic – the oldest children’s film festival in the world.

A Retrospective on the Best of Indian Children’s Films in commemoration of 100 years of Indian Cinema, the package will showcase National Award winning and Classic Indian Children’s films, in collaboration with DFF and NFAI. Special focus on Children with Special needs through dedicated film screenings and open forums. Topics screened for open forums are One Master Class on marketing locally produced children’s film internationally and 4 Open Forums on rights of Child Actors, Inclusive Cinema – representing the Differently abled, Challenges and Potential of Indian Animation, Invisibility of Girls in children’s content.


Awards

Four Golden Trophy Awards and a cash prize of 2 lakhs will be given for each for the best live action feature, best live action director, best live action screenplay and best live action screenplay. Special Mention Certificates may be awarded at the discretion of the jury. Awards and cash prizes of same cadre will also be given in all other categories namely Competition Animation, Competition Shorts and Competition Little Directors. These awards will be decided by four juries of 5 members each of eminent film personalities.

Moreover, Members of Selection Committee are very well known faces in film industry. Ayesha Sayani is a filmmaker. Amrit Gangar is a cinema critic and academic, Dolly Thakore is a film and theatre professional, Jeroo Mulla is a professor of media and communication at Sophia College, Mumbai, Meher Marfatia is a journalist and children’s story writer and also conducts workshops, Rashid Irani is a well-known cinema critic, Rekha Bhimani is a story writer, translator and voice-over artist.

Country Focus-Czech

The 18 ICFFI will have a Country Focus Retrospective of Czech films in collaboration with Zlin Film Festival, Czech Republic. The Zlin Film Festival is the oldest children’s film festival in the world which has had over 50 editions! The Country focus with Czech Republic is in keeping with the aim of the ICFFI which is to introduce children in India to the culture, lives and experiences of countries and people that they have limited access and exposure. In order to present the best of children’s cinema from an important child’s film producing country, and invite key players from their industry to inspire and encourage exchange of information, ideas and skills among Indian children’s filmmakers and film professionals. This will help to build an artistic and cultural relationship with film producing and film exhibiting organizations across the world and catalyze exchange of cinematic and cultural products and activities. The Country Focus will show a very beautifully curated package of children's films from the Czech Republic right from 1950's along with their most recent productions. The package will have live action as well as Animation features and shorts from across the years. There will be a delegation of 5 distinguished members visiting India from the Czech Republic, which will include the festival director of the Zlin Film Festival and famous children's film director's from Czech Republic.

Children Delegates

Total of 111 children delegate confirmed from Maharashtra, Gujarat, Dadra & Nagar Haveli, Rajasthan, Uttarakhand, Andaman Nicobar, Haryana, Madhya Pradesh & Jammu and two children from Chicago. Also, 65 children delegates from Japan, Germany, Morocco and other schools of India are expected to participate in this film festival. 

(PIB Features.)


मंगलवार, 12 नवंबर 2013

कृषि नीति की नाकामी

टमाटर और प्याज समेत खाद्य पदार्थो की बेतहासा बढ़ती कीमतों को लेकर उपभोक्ता परेशान हैं, परंतु लोग भूल रहे हैं कि कुल मिलाकर कृषि उत्पादों का आयात-निर्यात उपभोक्ताओं के हित में है। देश में खाद्य तेल और दाल की उत्पादन लागत ज्यादा आती है। इनका भारी मात्र में आयात हो रहा है, जिनके कारण इनके दाम नियंत्रण में हैं। यदि हम विश्व बाजार से जुड़ते हैं तो हमें टमाटर, प्याज के दाम ज्यादा देने होंगे, जबकि तेल और दाल में राहत मिलेगी। मेरी समझ से उपभोक्ता के लिए तेल और दाल ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। अत: टमाटर और प्याज के ऊंचे दाम को वहन करना चाहिए।

पिछले समय में टमाटर के दामों में जो वृद्धि हुई है वह अल्पकालिक है। पाकिस्तान में टमाटर की फसल कमजोर होने के कारण भारत से निर्यात हो रहा है। आने वाले समय में पाकिस्तान में पुन: टमाटर का उत्पादन होगा और इनके दाम कम हो जाएंगे। तुलना में अपने देश में तेल और दाल की उत्पादन लागत सदा ही ज्यादा आती है। इनका आयात निरंतर हो रहा है। अत: टमाटर के दाम में अल्पकालिक वृद्धि से बचने के लिए हमें दाल और तेल के दाम में वृद्धि को न्योता नहीं देना चाहिए। यह कुएं से निकल कर खाई में गिरने जैसा होगा।

सरकार ने कृषि उत्पादों के निर्यात पर बार-बार प्रतिबंध लगाए हैं। साथ-साथ किसानों को विभिन्न प्रकार से सब्सिडी दी है, जैसे खाद और बिजली में। नीति है कि देश के शहरी उपभोक्ताओं को किसी तरह प्रसन्न रखा जाए, परंतु यह नीति घातक है। इससे हमारी कृषि लगातार अकुशल बनी हुई है और उपभोक्ता महंगा माल खरीदने को मजबूर हैं। सरकार ने 2007 में गेहूं और 2008 से गैर बासमती चावल के निर्यात पर प्रतिबंध लगाए हैं। इन प्रतिबंधों के कारण घरेलू दाम नियंत्रण में रहे, परंतु लंबे समय में यह हानिप्रद रहा है, क्योंकि किसान आधुनिक तरीकों को नहीं अपना पा रहा है। इस कारण अपने देश में उत्पादन लागत लगातार ऊंची बनी हुई है।

इसी प्रकार सरकार द्वारा खाद, बिजली और सिंचाई पर भारी सब्सिडी दी जा रही है। इस सब्सिडी के कारण अल्पकाल में दाम न्यून बने हुए हैं, परंतु प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग हो रहा है, जैसे बिजली सस्ती होने के कारण किसानों द्वारा पूरे खेत की पानी से भरकर सिंचाई की जाती है। स्प्रिंकलर अथवा डिप के उन्नत तरीकों का उपयोग नहीं किया जा रहा है। फलस्वरूप फसल कम होती है और दाम ऊंचे बने रहते हैं। कम लागत में अधिक फसल लेने के लिए आधुनिक तकनीकों को अपनाया जाना बेहद जरूरी है। आर्थिक सुधारों की सोच थी कि कृषि सब्सिडी में कटौती करके बुनियादी सुविधाओं या शोध में निवेश बढ़ाया जाएगा।

सब्सिडी देने से सीधे एवं तत्काल उत्पाद के मूल्य कम हो जाते हैं। सिंचाई, सड़क, टेस्टिंग और कोल्ड स्टोरेज जैसी बुनियादी सुविधाओं में निवेश से भी उत्पाद के दाम नियंत्रण में आते हैं। इन निवेश के परिणाम आने में समय लगता है, परंतु यह सुधार टिकाऊ होता है, जैसे किसान ने उन्नत बीज तथा स्प्रिंकलर से खेती शुरू कर दी तो इससे उत्पादन हर वर्ष अधिक होगा। इसकी तुलना में सब्सिडी का प्रभाव अल्पकालिक होता है। सब्सिडी हटा लेने के साथ दाम पुन: चढ़ने लगते हैं। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि बच्चा पढ़ाई में कमजोर हो तो दो उपाय हैं। एक यह कि मास्टरजी से सिफारिश करके अंक बढ़वा लिए जाएं। दूसरा यह कि उसकी पढ़ाई के लिए टेबल और लाइट की व्यवस्था कर दी जाए। वह सुगमता से पढ़ सकेगा तो सहज ही अंक अच्छे आने लगेंगे। इसी प्रकार हमें बुनियादी सुविधाओं में निवेश करना चाहिए, न कि सब्सिडी में।

लेकिन 1991 के सुधारों के बाद सब्सिडी पर खर्च दोगुना हो गया है, जबकि बुनियादी सुविधाओं में निवेश में कटौती हुई है। सरकार की इस आत्मघाती नीति के कारण देश में कृषि उत्पादों के दाम ऊंचे बने हुए हैं और उपभोक्ता परेशान हैं। आने वाले समय में दो और समस्याएं उत्पन्न होने को हैं। भूमि और पानी की कमी बढ़ती ही जा रही है। शहरीकरण और सड़कों के लिए भारी मात्र में कृषि भूमि खरीदी जा रही है। पानी की समस्या और ज्यादा विकराल है। मौसम वैज्ञानिकों का अनुमान है कि आने वाले समय में वर्षा तेज परंतु कम समय के लिए होगी। ऐसी वर्षा का पानी धरती में कम समाएगा और समुद्र में ज्यादा बहेगा। इस कारण ट्यूबवेल के माध्यम से सिंचाई प्रभावित होगी। ग्लोबल वार्मिग के कारण पहाड़ों पर बर्फ का पिघलना जारी है। बर्फ के पिघलने के बाद हमारी नदियों में पानी बहुत कम हो जाएगा। अत: जरूरी है कि हम भूमि और पानी का कुशलतम उपयोग करें। कम भूमि और कम पानी से अधिक उत्पादन लेने के लिए आधुनिक तकनीकों का सहारा लेना ही पड़ेगा।

इन समस्याओं के बावजूद हमारे कृषि निर्यात बढ़ रहे हैं। 2001 में हमारे कृषि निर्यात छह अरब डालर थे, जो 2007 में 11 अरब हो गए थे। इनमें दो गुना वृद्धि हुई, लेकिन इसी अवधि में हमारे कुल निर्यात तीन गुना हो गए। यानी कुल निर्यातों में हमारे कृषि का हिस्सा फिसल रहा है। साथ-साथ हमारे कृषि आयात तेजी से बढ़ रहे हैं। 2002 से 2008 के बीच कृषि निर्यात में 45 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि कृषि आयातों में 161 प्रतिशत की। हमें बताया गया था कि डब्लूटीओ संधि के लागू होने पर कृषि निर्यात बढ़ेंगे और हमारे किसानों के लिए नए अवसर खुलेंगे। हो रहा है इसके ठीक विपरीत। आयातों के कारण हमारे किसान घरेलू बाजारों से भी वंचित हो रहे हैं। इस समस्या के लिए डब्लूटीओ संधि नहीं, बल्कि सरकार की कृषि नीति जिम्मेदार है। सरकार का ध्यान कृषि के तकनीकी उन्नयन के स्थान पर सब्सिडी देकर अपनी राजनीतिक नैया को आगे बढ़ाना मात्र रह गया है। बुनियादी सुविधाओं में निवेश करते तो हमारे निर्यात बढ़ सकते थे। समय रहते हमें कुछ जरूरी कदम उठाने चाहिए। एक, कृषि सब्सिडी को हटाकर घरेलू मूल्यों को वैश्विक मूल्यों के अनुरूप होने देना चाहिए। दो, बची राशि को बुनियादी सुविधाओं और तकनीकी उन्नयन में लगाना चाहिए।

साभारः दैनिक जागरण


  

High Speed Travel in Indian Railways - A Low Cost Solution

Indian Railways has played a significant role in the development of India since its inception in 1853.  Indian Railways today has the largest passenger operation amongst all Railways in the world carrying over 23 million passengers every day or about seven billion passengers annually which is equivalent to the world’s population. The focus has been to provide a safe and affordable means of transport to the teeming millions.

On the speed front trains still run at 110 kilometres per hour. Indian Railways had attained speeds of 120 kmph on its Mumbai and Kolkatta Rajdhani express trains way back in 1973. Ever since progress has been slow and since 2006 the Bhopal Shatabdi has achieved a speed of 150 kmph for a short spell. In order to meet the aspirations of the public for faster trains so as to reduce the journey times, there is a need to enhance the speeds to 160 kmph in the interim and up to 200 kmph ultimately on the existing track. Achieving higher speeds require extensive induction of new and innovative technology that enables a fast reliable and cost effective service with low carbon foot prints.

Countries like, China, France, Germany, Italy, Taiwan, Turkey, South Korea and Spain have developed high-speed rail to connect their major cities. The maximum commercial speed on most of these high-speed rail lines is 250 to 300 kmph. The first such high speed rail system began operations in Japan way back in 1964 and was widely known as the bullet train. China, today, has the world's longest high-speed rail network with 8,358 km of tracks. The network is still rapidly expanding to create a National High Speed Rail Grid by 2015.

Higher speeds require a dedicated track with fencing and can be prohibitively costly. For a country like India track fencing also has its own set of associated issues. Thus, leveraging Rolling stock technologies may provide a lower cost solution to meet the immediate needs of achieving speeds of 160 to 200 kmph, and that too on the existing track. For speeds above 200 kmph the costlier and time consuming solution of providing a separate dedicated track with fencing becomes inescapable. In this context the Institute of Rolling Stock Engineers with the assistance of  Indian Railways and also of RITES, a public sector undertaking under the Ministry of Railways, organized the high speed travel-low cost solutions International conference in New Delhi on 29th and 30th October 2013. The conference was inaugurated by the Railway Minister, Shri Mallikarjun Kharge. The conference was co-chaired by the ‘Institute of Mechanical Engineers’, London. The focus of this conference was to consider achieving higher speed trains in the range of 160 to 200 kmph with marginal inputs in the existing infrastructure.

The themes of the conference included World overview of High Speed technologies, High speed Bogie Technologies, Importance of Train Dynamics for high speed operation, Wheel sets for high speed operation, Lightweight coach Technologies, Track & infrastructure, Signalling technologies, Traction related issues, brake systems, Crashworthiness and Manufacturing and maintenance aspects specific to High Speed operation. A total of 49 papers were presented which included 25 by authors from Germany, Spain, Australia, USA, UK, Japan, France, South Africa, Switzerland, Italy and China. Major high speed rolling stock manufactures like Bombardier, Talgo, CAF, Alstom and Siemens, participated in the conference and shared their knowledge in high speed technology as well as experience in various parts of the world in providing low cost solutions. . Spanish National railway RENFE, the biggest high speed train operator in Europe, shared their experience in running high speed trains. The conference was also attended by policy makers, senior administrators, research institutions, consultants and industry professionals from India and abroad. This provided networking opportunities for railway officials as well as other stakeholders.

On this occasion the Railway Minister launched the High Speed Rail Authority, a subsidiary of RVNL, as a first step in making the high speed dream a reality. This is even relevant as Indian Railways proposes to establish a high speed network on six routes for which studies are being conducted by the French and the Japanese. As they say once begun is half done and the day is not far when Indian Railways will have trains running at 160-200 kmph in the country.

  

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