शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2013

एयर इंडिया का संकट

देश का राष्ट्रीय वायुवाहक एयर इंडिया संकट में है। पिछले चार वषों में सरकार ने कंपनी को 16,000करोड़ रुपये की रकम उपलब्ध कराई है। यह रकम 500 रुपये प्रति परिवार बैठती है। इसका मतलब यह हुआ कि देश के हर परिवार से यह रकम वसूल कर एयर इंडिया को उपलब्ध कराई गई है। इतनी बड़ी राशि झोंकने के बाद भी कंपनी का घाटा थम नहीं रहा है।

घाटे का एक कारण जरूरत से ज्यादा उड्डयन कंपनियों का बाजार में प्रवेश करना है। जैसे नुक्कड़ पर पान की चार दुकाने खुल जाएं तो ग्राहक बंट जाते हैं और इनमें से कुछ दुकाने शीघ्र ही बंद हो जाती हैं, परंतु इसे अर्थव्यवस्था के लिए नुकसान नहीं मानना चाहिए। पान की वे दुकाने ही बंद होंगी, जिनके पान की क्वालिटी खराब होगी और ग्राहकों के साथ व्यवहार अच्छा नहीं होगा। कुशल दुकान लाभ कमाती है और खस्ताहाल दुकान बंद हो जाती है। नई कंपनियों का प्रवेश करना, प्रतिस्पर्धा का गरमाना और अकुशल कंपनी का बंद होना यह सब पूंजीवाद का सामान्य अंग है। किंगफिशर एयरलाइन का बंद होना इसी प्रक्रिया का हिस्सा है।

अब एयर इंडिया उसी मुहाने पर खड़ी है। एयर इंडिया के घाटे में चलने के दो कारण हैं। तात्कालिक कारण 2007 में इंडियन एयरलाइंस और एयर इंडिया का विलय है। दोनों पूर्व कंपनियों का चरित्र अलग-अलग था, जैसे चाय और नीबू पानी। इंडियन एयरलाइंस छोटे जहाज का इस्तेमाल करती थी और कम दूरी पर उड़ान भरती थी, जबकि एयर इंडिया बड़े जहाज और लंबी दूरी की उड़ान भरती थी। इंडियन एयरलाइन के पायलटों के वेतन कम थे। दोनों कंपनियों के विलय के बाद इंडियन एयरलाइंस के पायलटों ने बराबर वेतन की मांग की। इसे मंजूर न किए जाने पर असंतोष व्याप्त हो गया। दूसरा कारण सरकारी कंपनियों की मौलिक अकुशलता है। नेतागण एयर इंडिया पर दबाव बनाते हैं कि उनके शहर से विमान सेवा शुरू की जाए या इन रूटों पर उड़ने वाले हवाई जहाजों की संख्या बढ़ाई जाए। इन राजनीतिक रूटों पर कंपनी को घाटा होता है। सरकारी कर्मियों का मनमौजी स्वभाव भी आड़े आता है।

लोग बताते हैं कि साठ के दशक में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के अगले दिन ही कर्मियों की कार्यशैली मस्त हो गई। उन्हें भरोसा हो गया कि अब काम करें या न करें, नौकरी तो सुरक्षित है। वेतन वृद्धि और पदोन्नति पर भी कोई असर नहीं पड़ने वाला। इसी लिए एयर इंडिया के पायलट अपनी सुविधा के अनुसार उठते हैं। पायलट साहब एयरपोर्ट नहीं पहुंचे तो उड़ान में देर हो जाती है। सुबह एक फ्लाइट में देरी होने से पूरे दिन कार्यक्रम बिगड़ जाता है और देरी का सिलसिला जारी रहता है। कभी-कभी खबर आती है कि एयर इंडिया के स्टाफ ने ओवर ड्यूटी करने से मना कर दिया, जिस कारण हवाई जहाज उड़ान ही नहीं भर पाया। एयर इंडिया के विमानों का उपयोग कम किया जाता है। कापा सेंटर फार एविएशन के अनुसार एयर इंडिया के 127एयरक्राफ्ट में से करीब सौ ही उड़ाए जाने के काबिल हैं। इन सौ का उपयोग भी दूसरी कंपनियों की तुलना में कम है। पिछले समय में एयर इंडिया की कार्यकुशलता में कुछ सुधार हुआ है। उड्डयन में कंपनी का कुछ हिस्सा 14 प्रतिशत से बढ़कर 20प्रतिशत हो गया है। एयरक्राफ्ट के उपयोग में भी सुधार हुआ है। परंतु मैं इन सुधारों को महत्व नहीं देता हूं। जैसे कि मौसम अच्छा होने पर कैंसर का रोगी उठकर चल पड़े तो उसे सुधार नहीं कहा जा सकता। यह अकुशलता दूसरे देशों की एयरलाइनों में भी व्याप्त है।

एक रपट के अनुसार फ्रांस की एयर फ्रांस, इटली की अलिटालिया, बेल्जियम की सबेना, ग्रीस की ओलिंपिक और स्पेन की आइबेरिया को भी सरकारी मदद देकर जिंदा रखा गया है। जापान की राष्ट्रीय एयरलाइन 2009 में दिवालिया हो गई थी। तत्पश्चात कर्मचारियों की भारी छंटनी की गई थी। अब छोटे और नए आकार में यह पुन: चालू हुई है। आशय है कि भीषण स्पर्धा में सरकारी कंपनियां असफल हैं। प्रश्न उठता है कि फिर दूसरी सरकारी कंपनियां सफल क्यों हैं? मेरा मानना है कि इनकी सफलता का प्रमुख कारण एकाधिकार है। जैसे स्टेट बैंक की शाखाओं का पूरे देश में जाल बिछा हुआ है। मैं दिल्ली में रहता था। फिर उत्तराखंड में रहने लगा। यहां मेरे गांव के पास स्टेट बैंक की ही अकेली ब्रांच थी। मजबूरन मुङो दिल्ली में अपना खाता स्टेट बैंक में ही खुलवाना पड़ा ताकि दोनों शाखाओं के बीच मनी ट्रांसफर आसानी से हो सके।

मेरा मानना है कि सरकारी कंपनी के सफल होने की संभावना नगण्य है। इनका मूल चरित्र अकुशलता और आरामतलबी का होता है। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने इस बात को सही समझा था। अरुण शौरी के नेतृत्व में कई अकुशल सरकारी कंपनियों का निजीकरण कर दिया गया था, जैसे बालको का। निजीकरण का अर्थ होता है कि कंपनी की बागडोर को निजी उद्यमी के हाथों सौंप दिया जाए और कंपनी पर सरकारी नियंत्रण समाप्त कर दिया जाए। फार्म्युला है कि उद्यमी बड़ा है और सरकार छोटी। मनमोहन सिंह की सरकार ने निजीकरण के स्थान पर विनिवेश की नीति को लागू किया है। विनिवेश में सरकारी सरकारी कंपनी के कुछ शेयरों को बेच दिया जाता है। कंपनी का नियंत्रण मंत्री और सचिव महोदय के हाथों में ही रहता है। ऊपर से विनिवेश से मिली रकम को खर्च करने का मौका इन्हें मिल जाता है। सरकार का दायरा छोटा करने के स्थान पर विनिवेश की रकम को खर्च करने में सरकार के दायरे को बड़ा कर दिया है।

एयर इंडिया समेत तमाम सरकारी कंपनियों का निजीकरण कर देना चाहिए, खासतौर पर घाटे में चलने वाली कंपनियों का। मिली रकम का नए जरूरी क्षेत्र में निवेश करना चाहिए जैसे अंतरिक्ष अन्वेशन, जेनेटिक रिसर्च, स्वास्थ्य पर्यटन, पैटियट मिसाइल के उत्पादन इत्यादि में। सरकार को वहीं निवेश करना चाहिए जहां जोखिम अथवा पूंजी की कमी के कारण निजी उद्यमी बढ़ने का साहस न कर सकें। उड्डयन जैसे क्षेत्र में निजी उद्यमी सक्षम हो चुके हैं। इससे सरकार को पीछे हटकर नए उद्यमियों के प्रवेश का रास्ता सुलभ करना चाहिए। विशेष बात यह कि मंत्रियों के लिए अपने क्षेत्र में जाने को आसान बनाने के लिए गरीबों से टैक्स वसूल नहीं करना चाहिए।

डा. भरत झुनझुनवाला

साभारः दैनिक जागरण

  

गुरुवार, 17 अक्टूबर 2013

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पारिस्थितिकी का पक्ष

भारत में पारिस्थितिकी संतुलन के लिहाज से एक बेहद संवेदनशील क्षेत्र के रूप पश्चिमी घाट का महत्त्व किसी से छिपा नहीं है। लेकिन विचित्र है कि सरकार को जहां इसके संरक्षण के लिए खुद आगे आना चाहिए था, उसने इस समूचे क्षेत्र में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की व्यापक पैमाने पर अनदेखी की। यहां तक कि इस क्षेत्र के पारिस्थितिकी संकट पर गठित माधव गाडगिल समिति की रिपोर्ट को भी लंबे समय तक दबा कर रखा गया। मगर पिछले साल जब संयुक्त राष्ट्र ने पश्चिमी घाट को विश्व धरोहरों की सूची में शामिल किया, उसके बाद इस मसले पर स्पष्ट नीति की घोषणा का दबाव सरकार पर बढ़ गया। शायद यही वजह है कि अब पर्यावरण मंत्रालय ने वन संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत छह राज्यों के लगभग साठ हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले पश्चिमी घाट इलाके को पारिस्थितिकीय दृष्टि से संवेदनशील घोषित करते हुए उसमें किसी भी तरह के खनन, तापविद्युत संयंत्र और प्रदूषण फैलाने वाली अन्य औद्योगिक इकाइयां संचालित करने पर प्रतिबंध लगा दिया है। हालांकि पिछले कुछ सालों में कई अदालतों के फैसलों के चलते इस इलाके में खनन और दूसरी पर्यावरण गतिविधियों पर लगाम लगी है। फिर संयुक्त राष्ट्र के विश्व धरोहरों में पश्चिमी घाट को शामिल करने के बाद यों भी किसी परियोजना को मंजूरी दिला पाना थोड़ा मुश्किल काम हो गया था। मगर सरकार के ताजा फैसले के बाद अब कोई भी परियोजना लगाने की इजाजत तभी दी जाएगी, जब इसके लिए इलाके की ग्राम सभाओं की पूर्व सहमति ले ली गई हो।

पर्यावरण मंत्रालय का ताजा फैसला पारिस्थितिकी विशेषज्ञ माधव गाडगिल और योजना आयोग के सदस्य के कस्तूरीरंगन की अगुआई में हुए दो अलग-अलग अध्ययन के आधार पर आया है। अब दक्षिण में कन्याकुमारी से लेकर उत्तर में ताप्ती नदी तक करीब डेढ़ हजार किलोमीटर का पश्चिमी घाट का दायरा देश का सबसे बड़ा संरक्षित क्षेत्र हो जाएगा। गौरतलब है कि कस्तूरीरंगन समिति ने इलाके की जैव विविधता को समृद्ध करने, मानव आबादी के घनत्व को नियंत्रित करने और वनक्षेत्र को नुकसान से बचाने के मकसद से लाल सूचीमें शामिल औद्योगिक इकाइयों के साथ-साथ खनन और विद्युत परियोजनाएं लगाने पर पाबंदी की सिफारिश की थी। हालांकि पर्यावरण सचिव ने विनियमित क्षेत्र से आम आबादी को बाहर रखने के मसले पर अपनी अलग राय दी थी, लेकिन इसके उलट मंत्रालय ने पुराने नियम को बहाल रखा है। अगर पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचे तो पवनचक्की लगाने के मामले में सरकार ने रियायत देने का फैसला किया है। इसी तरह, सख्त नियम-कायदों के पालन की शर्त पर पनबिजली परियोजना लगाने की भी इजाजत दी जाएगी।

पश्चिमी घाट जैव विविधता के मामले में समूचे विश्व में एक खास स्थान रखता है। यहां फूलों की पांच हजार से ज्यादा किस्में हैं। स्तनपायी जीवों की एक सौ चालीस, पक्षियों की लगभग पांच सौ, उभयचर जीवों की पौने दो सौ प्रजातियां हैं, जिनमें से अधिकतर दुनिया में कहीं और नहीं पाए जाते। खासतौर पर केरल का साइलेंट वैली राष्ट्रीय पार्कभारत का ऐसा उष्णकटिबंधीय हरित वन है, जो अभी तक अछूता है। इसके अलावा, देश में नदियों के कम से कम चालीस फीसद हिस्से का पोषण पश्चिमी घाटों से ही होता है। लेकिन अतिक्रमण, वन माफिया, अवैध खनन और विद्युत परियोजनाओं के कारण पश्चिमी घाट अपनी करीब तीन चौथाई से ज्यादा जैव संपदा खो चुका है। देर से ही सही, पश्चिमी घाट को बचाने की सरकारी स्तर पर पहल हुई है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इसके संरक्षण के लिए तय किए गए नियम-कायदों पर सख्ती से अमल होगा।


जनसत्ता 

बुधवार, 16 अक्टूबर 2013

अपराधमुक्त राजनीति की आस

पिछले कुछ महीनों से देश में एक अजीब-सी मायूसी छा रही थी। महत्वपूर्ण नीतियों में विलंब, भ्रष्टाचार और लोकमत को अनदेखा करने की प्रवृत्ति से निराशा का माहौल बन गया था। लेकिन हताशा के ये बादल अब धीरे-धीरे हटते नजर आ रहे हैं। शुक्रिया उन नागरिकों का जिन्होंने जनहित में लड़ाई लड़ी। इसके अलावा माहौल में परिवर्तन में न्यायालय के निर्णयों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। इन्हीं की बदौलत राजनीतिक सुधारों के नागरिकों के प्रयास आंशिक रूप से ही सही, सफल हो पाए। आखिरकार जनता के दबाव और चुनावी राजनीति की मजबूरियों के कारण सरकार को अंतत: कार्रवाई करनी ही पड़ी।

सबसे पहले आया मुख्य सूचना आयोग का निर्णय। इसमें छह बड़े राजनीतिक दलों को लोक प्राधिकरण घोषित कर सूचना के अधिकार (आरटीआइ) अधिनियम के दायरे में लाया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि इन दलों से जानकारी मांगने के दरवाजे जनता के लिए खुल गए। फिर आया आपराधिक मामलों में दोषी करार हुए सांसदों, विधायकों के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय, जिसने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8(4) को गैर-संवैधानिक घोषित कर दोषी सांसदों, विधायकों को संसद और राज्य विधानसभाओं से बाहर निकालने का रास्ता खोल दिया। अंत में आया सर्वोच्च न्यायालय का एक और निर्णय जिसने भारतीय मतदाताओं को चुनाव में खड़े सभी उम्मीदवारों को ठुकराने का अधिकार दिया। तुरंत बाद, कई कार्यकर्ताओं और मुहिम से जुड़े लोगों ने संसद और राजनीतिक वर्ग पर जनता का दबाव बनाना शुरू किया ताकि इन बदलावों में किसी भी प्रकार का परिवर्तन ना किया जाए। इस दबाव के चलते, सरकार को अंत में आरटीआइ (संशोधन) विधेयक को स्थायी समिति के पास भेजना पड़ा और दोषी सांसदों पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को पलटने वाले विधेयक को भी स्थगित करना पड़ा। लेकिन इतना प्रयास भी पर्याप्त साबित नहीं हुआ।

इस सबके बावजूद लोकमत की अनदेखी करते हुए सरकार ने धारा 8(4) पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलटने के लिए एक अध्यादेश लाने का अप्रत्याशित प्रयास किया। इस प्रकार की शीघ्रता न केवल अनैतिक थी, बल्कि प्रक्रियात्मक रूप से गलत भी थी। जब संसद सरकार के साथ नहीं थी और सरकार एक बार पहले ही विधेयक पारित करवाने में असफल रही थी, तो अध्यादेश का रास्ता अपनाना आश्चर्यजनक था! संविधान के तहत अध्यादेश लाने की अनुमति केवल तभी दी जाती है जब संसद सत्र में न हो और जब किसी संदर्भ में तत्काल कार्रवाई करना अनिवार्य हो। मैं यह तो नहीं जानता कि मंत्रिमंडल की बैठक से पहले सरकार ने क्या राजनीतिक गणना की और किस बिना पर यह निर्णय लिया, लेकिन यह स्पष्ट है कि यह कार्रवाई हताशा में की गई थी ताकि दोषी राजनेताओं को बचाया जा सके।

कांग्रेस के नेताओं द्वारा हस्तक्षेप और उसके पश्चात सरकार का यू-टर्न भी इसी प्रकार की किसी राजनीति का हिस्सा होगा, ताकि पार्टी को इस स्टैंड से कुछ राजनीतिक लाभ प्राप्त हो सके। किंतु दुख इस बात का है कि यह राष्ट्रपति भवन से अध्यादेश वापस भेजे जाने की अफवाहों के बाद हुआ।सरकार का यह निर्णय यदि थोड़ा समय पहले आया होता तो न सिर्फ यह ज्यादा विश्वसनीय होता, बल्कि संसद में हमारे जैसे अन्य सांसदों, जो उस संशोधन के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं, का अच्छा सहारा साबित होता। फिर भी, इस लड़ाई का अंत उन सभी लोगों के लिए एक आशा की किरण साबित हुआ है जो ऐसे सुधारों की लंबे समय से वकालत कर रहे थे। यदि यह परिवर्तन कायम रहा तो उम्मीद है कि आने वाले वषों में भारत की राजनीति का रुख बहुत हद तक बदल जाएगा।

मौजूदा व्यवस्था में, दोषी लोगों के लिए विधानमंडल में चुनाव जीत कर कानूनी प्रक्रियाओं को स्थगित करवाना और उनसे बचना आसान हो जाता है। आपराधिक जांच को प्रभावित करने और पुलिसकर्मियों को दुश्मन से दोस्त बनाने की प्रबल इच्छा अपराधियों को राजनीति की ओर आकर्षित करती है। कोई अचरज की बात नहीं है कि 2009 में लोकसभा में चुनाव जीत कर आए 543 में से 76 सदस्यों के खिलाफ हत्या, दुष्कर्म और डकैती जैसे गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। यही हाल राज्य विधानसभाओं का भी है। इस वर्ष अप्रैल माह के अंत में मैंने इसी मुद्दे पर इस समाचारपत्र में एक लेख लिखा था जिसमें भारत में राजनीति से अपराधीकरण को खत्म करने की जरूरत पर जोर दिया था। मैंने तर्क दिया था कि मौजूदा कानून, खासतौर से जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8(4) दोषी सांसदों व विधायकों को जरूरत से अधिक सुरक्षा प्रदान करता है। एक तरफ यह कानून गंभीर अपराधों के दोषी प्रत्याशियों को चुनाव लड़ने से रोकता है, वहीं इसकी धारा 8 (4) मौजूदा विधेयकों को इस दंड से माफ करती है। इससे दोषी विधेयकों को चुनाव लड़ने का अनुचित लाभ प्राप्त होता है।

मेरा मानना है कि यह कानून भारतीय संविधान की धारा 14 (कानून के समक्ष समानता का अधिकार) में उल्लिखित विचारों के विपरीत है। मैंने राजनीति से अपराधीकरण खत्म करने के हमारे एजेंडे के विस्तार के लिए कुछ महत्वपूर्ण सुधारों की बात कही थी- सर्वप्रथम, धारा 8(4) को निरस्त करना और दूसरा, चुने हुए प्रतिनिधियों के विरुद्ध आपराधिक मामलों की तेजी से सुनवाई (90-180 दिनों के भीतर) करने के लिए फास्ट ट्रैकन्यायालयों की स्थापना करना। शुक्र है, पहले और सबसे महत्वपूर्ण सुधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी मुहर लगा दी है, किंतु अभी भी लड़ाई आधी बाकी है। यह बहुत जरूरी है कि दूसरा सुधार जल्द से जल्द लाया जाए। मामला अभी ताजा है- इसीलिए यह अवसर बिल्कुल उपयुक्त है।

जब तक चुनाव जीत कर आए प्रतिनिधियों के खिलाफ आपराधिक मामलों में तेजी से जांच नहीं की जाएगी, ये मामले वषों अधूरे रहेंगे। ऐसे में राजनीतिक संरक्षण और अदालतों में स्थगन का आचरणन्यायिक प्रक्रिया का मजाक बना कर रख देंगे और हमारे दूसरे बदलावों के कोई मायने नहीं रह जाएंगे। भारत के चुनावी परिदृश्य पर असल प्रभाव तभी पड़ेगा जब मामलों का निपटारा उचित समयसीमा के भीतर किया जाएगा। यह क्षण ऐतिहासिक हो सकता है। या तो यह भारत में राजनीति को हमेशा के लिए बदल देगा या फिर सिर्फ एक बेमानी रुकावट, एक गतिरोध बन कर रह जाएगा, जिससे हमारा राजनीतिक वर्ग आसानी से निपट लेगा। अब यह जरूरी है कि चिंतित नागरिकों के गुस्से को जल्द से जल्द सहमति बनाने और जनमत जुटाने के लिए इस्तेमाल किया जाए।

बैजयंत जयपांडा

Production, Factors affecting the production and Factors of Production

Production, in Economics is one of the important activities whatever human being is received goods as a natural gift can not be consumed as such. It requires some processing and then and then only it is consumed. Through processing we transform some goods and services in to another one for example sugarcane into sugar, Cotton into cloth etc. In economics, sugarcane or cotton are termed as inputs factor or raw material while sugar or cloth are termed as output or finished product. Thus the term can be defined as under.
1.            Production means transformation of inputs (goods and sieves) into output.
2.            Production of wealth or value.
3.            Production means creation (addition) of wealth or value.
It may consist not only goods but also services.
Factors affecting the production: Following factors affect production.
Natural factors:
Like climatic conditions, soil type affect production. Production can be diminished due to natural calamities like flood, drought etc.
Technical progress:
 Can positively influence production. Use of improved variety, fertilizers, insecticides etc. can give us more production.
Political factors:
Also affect production positively or negatively. Decisions pertaining to taxation, investment or fiscal. Policies of Govt. influence production.
Infrastructure facilities:
 Like transport, credit, storage etc. are also equally important to have more production.
Character of people:
Determines productivity. The hard workers and sincere workers always produce more and hence it is very important factor which influences production.
Factors of Production:

For undertaking production following important factors are required

1. Land 2. Labour 3. Capital and 4. Organization or Enterprise


Sustainable Food Systems for Food Security and Nutrition in India

World Food Day is celebrated every year on 16th October, the foundation day of the Food and Agriculture Organization of the United Nations. The World Food Day theme for 2013 is "Sustainable Food Systems for Food Security and Nutrition”. Some of the themes adopted during previous years emphasize the policy framework for better global food security. To name a few, theme for 2008 was ‘World food security: the challenges of climate change and bioenergy

’; in 2009: ‘Achieving food security in times of crisis’; in 2011: Food prices - from crisis to stability; and ‘Agricultural cooperatives – key to feeding the world’, in 2012.
Food security refers to the availability of food and one's access to it. A household is considered food-secure when its occupants do not live in hunger or fear of starvation. The World Health Organization defines three facets of food security: food availability, food access, and food use. Food availability is having sufficient quantities of food on a consistent basis. Food access is having sufficient resources, both economic and physical   to obtain appropriate foods for a nutritious diet. Food use is the appropriate use of food resources based on knowledge of basic nutrition and care. The FAO adds a fourth facet: the stability of the first three dimensions of food security over time. In fact, food security is the prerequisite for the economic and social stability of any nation. Sustainable food security requires a stable supply of food with robust agricultural growth and properly functioning agricultural markets.

India faces a unique development paradox of being in the front ranks of fast growing global economies, with about 25 percent of the world's hungry poor. Although the country grows enough food for its people, pockets of hunger remain. According to some figures, around 40 per cent of children under the age of five years are malnourished and nearly half of all pregnant women aged between 15 and 49 years suffer from anemia. Nutrition is crucial for fulllment of basic human rights and forms the foundation for meaningful human existence with decreased susceptibility to infection, related morbidity, disability and mortality, better learning capacities and adult productivity.
Agricultural growth is crucial for our economic development and Food security. The experience from BRICS countries indicates that a one percentage growth in agriculture is at least two to three times more effective in reducing poverty than the same growth emanating from non-agriculture sectors. Over the years due to concerted efforts of our governments, our country has emerged as a leading producer of some cereals and animal products. Government of India has also launched several schemes to further increase the growth in agriculture and boost farm production to establish sustained food systems in the country. These include schemes such as Rashtriya Krishi Vikas Yojana (RKVY), National Food Security Mission (NFSM), Development and Strengthening of Infrastructure facilities for Production and Distribution of Quality Seed, National Horticulture Mission (NHM), Rainfed Area Development Programme (RADP), Integrated Scheme of Oilseeds, Pulses, Oil Palm and Maize (ISOPOM), Gramin Bhandaran Yojana etc. In addition, Government has substantially improved the availability of farm credit; implemented debt waiver; introduced better crop insurance schemes; increased Minimum Support Price (MSP), improved marketing infrastructure, etc.
Although India had long back achieved self-sufficiency in food, the Government of India launched the National Food Security Mission in 2007. The mission was expected to increase the production of rice by 10 million tonnes, wheat by 8 million tonnes and pulses by 2 million tonnes in five years by the end of 11th Five Year Plan (2011-2012). The primary reason for this optimism was that there exists a substantial gap between the current average yields and the potential yields which can be bridged with the help of available technologies.
Further in order to provide food and nutritional security to the people by ensuring availability of food at affordable prices, Government has enacted National Food Security Act, recently. The National Food Security Act is a historic initiative for ensuring food and nutritional security to the people. It gives right to the people to receive adequate quantity of food grains at affordable prices.

Salient features of the act are:
1.   Upto 75% of the rural population and upto 50% of the urban population will have uniform entitlement of 5 kg food grains per month at highly subsidized prices of Rs. 3, Rs. 2, Rs. 1 per kg. for rice, wheat, coarse grains respectively. It will entitle about 81 crore people while under the existing Targeted Public Distribution System only 2.5 crore Antyodaya Anna Yojana (AAY) families or about 32.5 crore persons (assuming 5 as the average household size) are getting food grains at these prices. Thus, population getting food grains at these highly subsidized prices as their legal right will increase to 67% from existing 27%.
2.   The poorest of poor households would continue to receive 35 kg food grains per household per month under Antyodaya Anna Yojana at subsidized prices of Rs 3, Rs 2 and Re 1.
3.   Pregnant women and lactating mothers, besides being entitled to nutritious meals as per the prescribed nutritional norms will also receive maternity benefit at least of Rs. 6000/-. Children in the age group of 6 months to 14 years will be entitled to take home ration or hot cooked food as per prescribed nutritional norms.
4.   The Central Government will provide funds to States/UTs in case of short supply of food grains from Central pool. In case of non-supply of food grains or meals to entitled persons, the concerned State/UT Governments will be required to provide such food security allowance as may be prescribed by the Central Government to the beneficiaries.
5.   Central Government will provide assistance to the States towards cost of intra-State transportation, handling of food grains and FPS dealers’ margin. This will ensure timely transportation and efficient handling of food grains.
6.   Reforms have been initiated for doorstep delivery of food grains, application of information and communication technology (ICT) including end to end computerization, diversification of commodities under TPDS etc for effective implementation of the Food Security Act.

Women Empowerment—
Eldest woman of 18 years of age or above will be head of the household for issue of ration card, and if not available, the eldest male member is to be the head of the household.
Grievance redressal mechanism-
There will be state and district level redressal mechanism with designated nodal officers.  The States will be allowed to use the existing machinery for District Grievance Redressal Officer (DGRO), State Food Commission, if they so desire, to save expenditure on establishment of new redressal set up. Redressal mechanism may also include call centers, helpline etc.
On the issue of redressing grievances that may arise in implementation of such a massive social justice programme, it has been planned to give an increased role for Panchayati Raj institutions and women’s self help group in programme-monitoring and social auditing.
With this mega scheme of  strengthening the food security of the poor, destitute billions, with an estimated annual food grains requirement of 612.3 lakh tonnes and corresponding estimated food subsidy of about  Rs.1,24,724 crore, during this fiscal, a new beginning is being made towards welfare of citizens. A Food secure nation can only be economically and socially stabile.

(PIB Features.)

मंगलवार, 15 अक्टूबर 2013

प्रधानमंत्री की ब्रुनेई और इंडोनेशिया यात्रा

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ब्रुनेई और इंडोनेशिया यात्रा 12 अक्टूबर 2013 को सम्पन्न हुई. उनकी यह यात्रा आर्थिक संबंधों से आगे बढ़कर, भारत की लुक ईस्ट' नीति को विस्तार देने और एशिया प्रशांत क्षेत्र के विभिन्न देशों के साथ व्यापार संबंधों के विस्तार की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण रही.

प्रधानमंत्री आसियान शिखर सम्मेलन और पूर्वी एशिया सम्मेलन में हिस्सा लेने हेतु 9 से 10 अक्टूबर 2013 तक ब्रुनेई दारूस्सलाम में थे. ब्रुनेई के बाद प्रधानमंत्री इंडोनेशिया की अपनी पहली आधिकारिक द्विपक्षीय यात्रा के लिए 10 अक्टूबर 2013 को जकार्ता पहुंचे और 12 अक्टूबर 2014 को उनकी यात्रा सम्पन्न हुई.

यात्रा से संबंधित मुख्य तथ्य

डॉक्टर मनमोहन सिंह ने ब्रुनेई में आसियान और पूर्व एशिया शिखर वार्ता से इतर आसियान देशों की जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसी महाशक्तियों के प्रधानमंत्रियों के साथ द्विपक्षीय बैठकें की.

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के समूह आसियान के 10 सदस्य देशों के लिए पूर्णकालिक राजदूत के साथ अलग से एक दूतावास स्थापित करने की भी घोषणा की.

डॉक्टर मनमोहन सिंह ने यह भी कहा कि भारत द्वारा वर्ष 2015 तक आसियान व्यापार को 100 अरब डालर करने हेतु आसियान देशों द्वारा वर्ष 2013 के अंत तक सेवाओं और निवेशों पर एक मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने हैं.

प्रधानमंत्री आसियान शिखर सम्मेलन और पूर्वी एशिया सम्मेलन में हिस्सा लेने हेतु 9 से 10 अक्टूबर 2013 तक ब्रुनेई दारूस्सलाम में थे. पूर्वी एशिया सम्मेलन एशियाई देशों और उसके साझेदार देशों जैसे चीन, भारत, आस्ट्रेलिया जापान और अमेरिका शामिल हैं.

ब्रुनेई के बाद प्रधानमंत्री इंडोनेशिया की अपनी पहली आधिकारिक द्विपक्षीय यात्रा के लिए 10 अक्टूबर 2013 को जकार्ता पहुंचे.

डॉक्टर मनमोहन सिंह की इंडोनेशिया यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच स्वास्थ्य तथा परिवार कल्याण, भ्रष्टाचार से निपटने, मादक पदार्थों पर नियंत्रण, आपदा प्रबंधन और प्रशासकों के प्रशिक्षण जैसे क्षेत्रों सहित छह सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किए गए.

दोनों देश वाषिर्क सम्मेलन आयोजित कर अपनी रणनीतिक साझेदारी को विस्तारित करने पर सहमत हुए. दोनों देशों के बीच सहयोग के जिन क्षेत्रों की पहचान की गई है उनमें अंतरिक्ष, परमाणु उर्जा, खाद्य सुरक्षा, आतंकवाद का मुकाबला, जेहादी ताकतों से सीमा पार खतरा शामिल हैं.


इंडोनेशिया में भारतीय प्रतिनिधिमंडल में विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद, वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री आनंद शर्मा और मुख्य सतर्कता आयुक्त प्रदीप कुमार तथा अन्य शीर्ष अधिकारी शामिल थे.

Consumer’s Surplus

Consumer’s surplus is one of the most important concepts in Economics. It was expounded by Alfred Marshall. We often find that the price we pay for a commodity is usually less than the satisfaction we derived from its consumption for example, when we purchase a packet of salt, match-box, news paper etc. and consume, the satisfaction derived from those is greater as compared to the price paid for them. This what consumer surplus mean. The concepts can be defined as under.

1. Consumer’s surplus is the excess of what we are prepared to pay over what we actually pay for a commodity.
2. It is difference between what we are prepared to pay and what we actually pay.
3. Consumer’s surplus: Total Utility - Total Amount spend     
Explanation: We can illustrate the concept of consumer’s surplus with the help of the table given below.

Unit (Orange)
Marginal Utility
Price (Rs.)
Consumer’s Surplus
1
10
2
8
2
8
2
6
3
6
2
4
4
4
2
2
5
2
2
0
Total
30
10
20

Hence consumer’s surplus = Total Utility – total amount spent
                                       = 30 - 10 i.e. 20.s

It is assumed in the above table the price of oranges in the market is Rs. 2.00 per orange. A consume will purchase as may oranges as make his, marginal utility equal to the price. Thus he will purchase 5 orange and pay for each Rs. 2.00. In this way he will spend Rs. 10.00 But the total utility of the 5 oranges is equal to Rs. 30.00. He thus gets a consumer’s surplus equal to (30-10) Rs. 20.00

The consumer’s surplus can also be found from fourth column of the table. The utility of the first unit of oranges to the consumer is equal to Rs. 10.00, therefore be would be prepared to pay Rs. 10.00 for it’s rather than go with out is. But be pays for the first orange only Rs. 2.00, because the price of an orange in the market is Rs. 2.00. Therefore, from the first unit, the consumer is surplus equal to (10-2) = Rs. 8.00, which is written in the fourth column. Similarly the utility of second orange is equal to 8 while the consumer pays Rs. 2.00 for its and therefore  obtains (8-2) = Rs. 6.00 as consumer’s surplus. From 5th orange the consumer derives satisfaction equal to Rs. 2.00 and as such the consumer’s surplus from fifth unit is equal to (2-2) = 0. Thus if we calculate the total utility obtained (i.e. 30) and total amount paid (Rs. 10.00), the consumer’s surplus as given in column no four is equal to. Rs. 20.00

Practically however the measurement of consumer’s surplus is not simple. There are numerous difficulties to measure consumer’s surplus exactly in the market but it is possible to have rough estimate which is of very great practical value.

Criticism:
 The concept of consumer’s surplus has been critised on several grounds.
1. It is said that this concept is imaginary idea. It is very difficult to say how much one is prepared to pay and if it is said it will unreal.
2. It is very difficult to measure exactly. Because different people are prepared to pay different amount (price) and hence it is very difficult to measure total consumer’s surplus in the market.
3. This concept does not apply to necessaries. For example, if we ask how much a man be prepared to pay for a glass of water when he is dying of thirst, it is very difficult to say an exact amount. Thus, consumer’s surplus in such cases is immeasurable.
Importance of consumer’s surplus: This concept is useful in a number of ways.
In public finance:
 It is very useful to Finance Minister in imposing taxes and fixing the rates. He will impose more taxes on commodities in which consumer’s surplus is more.
• To the businessman and monopolistic as they can increase the price of the commodities in which there is large consumer’s surplus.
• Comparing advantages of different places.

• Measuring Benefits from international trade.

आधी आबादी का सच

हमारे देश में औरतों के साथ भेदभाव का संबंध व्यापक स्तर पर व्याप्त है। इसके पीछे मुख्य वजह यह है कि लिंग भेद हमारी संस्कृति और परंपरा में सदियों से रचा-बसा है। औरतों को हमेशा से समाज में परिवार में एक अलग दर्जा दिया गया।

उसके व्यक्तित्व को घर और समाज के इज्जत के साथ जोड़कर देखा जाता है। यह एक मनुवादी सोच है। औरतों को परिवार और समाज में हमेशा नीचा दिखाया गया। यानी कि औरत दोयम दर्जे की होती है। हमारे समाज में लड़कियों को किस हद तक लिंगभेद का शिकार होना पड़ता है। इसका सबसे निकृष्ट उदाहरण है कि उसको जन्म लेने के पहले ही लिंग परीक्षण के बाद भ्रूणहत्या का शिकार होना पड़ता है। अगर लड़कियां इस तरह के भेदभाव की शिकार नहीं हुई तो जन्म लेने के बाद उसे भोजन, पढ़ाई, जीने की आजादी, प्रेम करने का मौलिक हक, इन मामलों में भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। परिवार में पुत्र के शिक्षा, स्वास्थ्य, करियर, उसकी आजादी को पुत्री की अपेक्षा अधिक तवज्जो दिया जाता है। लड़कियां प्रेम नहीं कर सकती, क्योंकि इससे समाज में उसकी जाति और परिवार का अपमान होता है, कभी-कभी तो झूठी शान के नाम पर लड़कियों को कत्ल कर दिया जाता है, जिसे ऑनर किलिंग कहा जाता है। हमारे समाज में औरतों को दंडित करने के लिए कई तरह की भ्रांतियों का सहारा लिया जाता है। अगर वैवाहिक जीवन के पहले पति मर जाए तो उसको विधवा बोला जाता है। अब वह अशुभ हो गई। जन्म से लेकर मृत्यु तक औरतों को समाज के पक्षपातपूर्ण रवैये का शिकार होना पड़ता है। उसको हमेशा किसी ना किसी के अधीनता में रहना पड़ता है। पुत्र को परिवार और वंश को बढ़ाने वाला माना जाता है तो पुत्री को दान में दिया जाता है। इसे हमारे समाज में कन्या-दान कहा जाता है। इस तरह की सामंती सोच और अंधविश्वास को छोड़ना होगा। दहेज के नाम पर औरतों के साथ जुल्म किया जाता है। औरतों को डायन कहकर उसे जिंदा जलाया जा रहा है। यह सब 21वीं सदी के हमारे समाज में हो रहा है। इस तरह के गैर व्यावहारिक और भाव-विहीन सोच, के साथ हम आगे नहीं बढ़ सकते हैं। अगर हम सब आने वाली पीढ़ी को एक उन्नत समाज देना चाहते हैं तो लड़कियों को भी लड़कों की तरह आगे बढ़ने के लिए समान अवसर उपलब्ध कराना होगा। उसे भी बराबरी का हक देना होगा। कुदरती तौर पर औरत पुरुष से कमतर नहीं है, ना ही पुरुष औरत से कमतर है। दरअसल दोनों कुदरत की अनुपम कृति है और कोई किसी से कम नहीं है।

* ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट में शामिल 135 देशों की सूची में भारत 105वें स्थान पर है।
* महिलाओं की सुरक्षा के लिहाज से भारत चौथा सबसे खतरनाक देश है।
* देश में लिंग अनुपात प्रति हजार पुरुषों पर 940 महिलाओं का है।

  -डॉ रंजना कुमारी [निदेशक, सेंटर फॉर सोशल रिसर्च]

  

सोमवार, 14 अक्टूबर 2013

Kashmir: India-China-Pakistan Triangular Conflict

“Poor Kashmir, it lies in the Himalayan ramparts where the borders of India, Pakistan and China rub together. Reality mocks its beauty. There is no escaping the permeating meloncholy of a land that lies under the gun.” — Trevor Fishlock

The indelible factors of geography in terms of ‘location,’ ‘space’ and ‘terrain’ in shaping the destiny of nations remains profound. The conflict that has been going on ‘for’ and ‘in’ the state of Jammu and Kashmir (J&K) for seven decades is a prime example; it is the State’s locational position on the face of the earth for China, India and Pakistan that is driving the triangular competition in which Pakistan’s virulence is being used both as the means to ‘contain’ India, and her territory, including what she occupies to act as a spring board for China’s regional outreach.

Contributing to the factors of geography are vestiges of the past. Shadows of history fall long and keep festering if the end state is allowed to remain open ended and if actions are not grounded in strategic logic. Such has been the case of Kashmir – both in handling Pakistan and China and failing to  integrate the Kashmiri people. In the absence of the national will to correct what the Chinese call as ‘historic mistakes,’ outrages in the form of periodic sabre rattling and violence would continue – Keran and Samba are merely the recent of the many examples. While mistakes of the past cannot be undone and war is never a good option, corrective measures within a well calibrated operating matrix are always possible.

Though stating the obvious, it is important to highlight that the map is intended to draw attention to the adverse balance sheet after seven decades of conflict; out of the 2,22,236 square kms that originally comprised the Princely State of J & K, 56 percent has already passed under the control of China and Pakistan. The mutilated state of J&K is marked in black and red respectively-lines that have been drawn with blood of soldiers who continue their unending vigil in the absence of a coherent national strategy. At the same time the map reiterates Kashmir’s geographical proximity with Afghanistan, with which it shares a land border, and the proximity of the energy rich Central Asian Republics. Kashmir’s ‘locational’ relevance for India, China and Pakistan has always been significant and it has become a driver in its own right for the perpetual state of conflict with Pakistan and a reality which has the potential for keeping the Sino-Indian relations adversarial.

The triangular strategic competition between China and Pakistan on one side and India on the other is remicent of the Great Game of yesteryears; the aims and ends may have changed, but Kashmir’s strategic value as an avenue for Great Powers, remains a significant factor for conflict. China wants to develop her Silk Route through her territory (Gilgit-Baltistan) and India (ideally) would like to develop energy routes to the CAR nations through Afghanistan, which are best accessed through her territory/Pakistan. Since the aims are not complementary and there is no reason to expect a diplomatic solution, the ‘K’ factor and the dynamics it generates would add to the volatility and exacerbate the competition. If the frequency and scale of incidents of the current year are any indication, preliminary moves for setting the stage to exploit the post 2014 situation are already underway.

The aim is to revisit the geo-strategic realities of J&K and argue the point that despite the desire to further the Indo-Pak peace process, unless there is a fundamental shift in Pakistan’s stance wrt Kashmir, there ‘cannot’ and ‘should not’ be any half baked solution. Given Kashmir’s emotive resonance and charged atmospherics, there is little that discussions and platitudes can accomplish. The reality that stares India in the face is that China’s rise is resulting in her outreach to the Arabian Sea and this requires her to consolidate in Gilgit Baltistan. At the same time, India’s future cannot be held hostage to a toxic and tottering Pakistan. How the situation may play out in geo-strategic terms remains uncertain, but what is certain is the fact that conflict which has been a constant for the region would continue, though its nature and tenor may undergo a change. How, where and in what shape Pakistan will feature and what would be China’s role in pursuing her regional goals will decide the outcome. At the same time, India cannot condense to pledge her future in what portends to be an uncertain environment.

Harsh that it might sound, but the bane for Kashmir and her people ‘is’ and ‘has’  been her strategic relevance and behind the protracted Indo-Pak conflict, obfuscrated under layers of misleading narratives, the core reason is ‘territorial’ –religion is merely the currency and the cover for the conflict. On the other hand, with China there is no need to obfuscate the raison-de-etre for the conflict – it is squarely Kashmir’s  locational value as an access point and as an avenue. It was Kashmir’s pivotal location that was the reason for generating conflict for the state during the Great Game played between Czarist Russia and Imperial Britain. The only change that has come with the passage of time is that the actors have changed to India on one side and China and Pakistan on the other.

What has not changed is the fact that Kashmir which provided the avenue for ingress into the plains of the sub-continent remains as important, perhaps even greater since China is planning to develop her Silk Routes to the Arabian Sea coast and to West Asia and to the Middle East. There is no mitigating the fact that Afghanistan that has remained at the cusp of conflict remains fragile, and at the same time her locational relevance and economic importance has gone up exponentially in the latest version of the game. Compounding the situation is the issue of river waters since Kashmir is either the source or conduit of the rivers for both India and Pakistan, the war for control of water resources will exacerbate tensions

Field Marshal Ayub Khan was candid in stating Pakistan’s compulsions to attempt to capture the state:“The very fact that Pakistan had to be content with the waters of the three western rivers (in accordance with the Indus water Treaty) underlined the importance for us of having physical control over the upper reaches for their maximum utilisation for the growing needs of Pakistan.”Syed Salahuddin, the Chairman of the United Jihad Council, the umbrella organisation cording the Pakistan sponsored Jihad in J & K graphically stated: “Kashmir is the source from where all of Pakistan’s water resources originate. If Pakistan loses its battle with India, it will become a desert.”In view of the foregoing, Kashmir and the immediate region would remain a hotspot and for India, remaining on the back-foot as a policy would be counterproductive in geo-strategic terms and grievously retard her potential.

Strategic backdrop.  The Cease Fire Line delineated at the Karachi Agreement of 27 Jul 1949, accepted the de facto splitting of the state. On one hand, the creation of POK provided Pakistan a viable buffer against possible Indian aggression opposite her heartland, which translated to a great military advantage. By occupying Gilgit-Baltistan, Pakistan gained another significant strategic advantage, whose importance has grown with time. Pakistan’s control over this strategic region has opened up multi-dimensional spheres for cooperation/collusion with China. At the same time, the occupation of Aksai Chin and the territorial belt running to the southern tip of the Indo-Tibetan border in East Ladakh has not only put India in a perpetual defensive, but the loss of strategic passes in 1962 (Chang La, Jara La, Charding La and the like) restrict her options and place India at a disadvantage.


When seen holistically, there can be no denial that these developments restrict India’s strategic options whose effect is expected to increase, as the situation gets adversarial. Since Pakistan is increasingly being seen by China as a means and end to further her regional strategic objectives, especially against India, this exacerbates the competition and portends further conflict for Kashmir as the state is physically the geo-strategic fulcrum for Sino-Pak collusion against India. In view of this growing reality, India’s strategic future in Kashmir needs a re-appraisal. Some geo-strategic issues that merit attention are postulated.


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