सोमवार, 27 जनवरी 2014

दया याचिकाओं में विलम्‍ब पर उच्‍चतम न्‍यायालय की व्‍यवस्‍था

उच्चतम न्यायालय की सुविचारित व्यवस्था ने विरलतम अपराध के लिये मौत की सजा पाने वाले मुजरिमों की दया याचिकाओं के निबटारे में अत्यधिक विलंब को लेकर लंबे समय से उठ रहे विवाद पर अब विराम लगा दिया है। शीर्ष अदालत ने स्पष्ट कर दिया है कि दया याचिका के निबटारे में अत्यधिक विलंब होने या किसी मुजरिम के मानसिक रोगी होने की स्थिति मौत की सजा को उम्र कैद में तब्दील करने का आधार हो सकता है।

देश की शीर्ष अदालत के अनुसार यह सुविचारित व्यवस्था है कि संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जीने का अधिकार इस तरह के फैसले के साथ ही खत्म नहीं होता है और मौत की सजा पर अमल को लंबे समय तक टाल कर रखने से ऐसे कैदियों पर अमानवीय प्रभाव पडता है। ऐसी स्थिति में मौत की सजा पर अमल में कैदी के नियंत्रण से बाहर का किसी भी प्रकार का विलंब उसे इस सजा को उम्र कैद में तब्दील कराने का हकदार बनाता है।

न्यायालय की इस व्यवस्था के तुरंत बाद ही भारतीय युवक कांग्रेस के मुख्यालय पर हुये आतंकी हमले के दोषी देवेन्द्रपाल सिंह भुल्लर की पत्नी ने अपने पति की मानसिक स्थिति का हवाला देते हुये सुधारात्मक याचिका दायर करके राहत पाने का प्रयास किया है।

जघन्यतम अपराधों में मौत की सजा पाने वाले मुजरिमों की दया याचिकाओं के निबटारे में अत्यधिक विलंब के कारण उठे विवाद पर प्रधान न्यायाधीश पी सदाशिवम की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने पूर्ण विराम लगाने का प्रयास किया है।

न्यायालय ने इस प्रकरण पर विचार के दौरान पाया कि 1980 तक दया याचिकाओं के निबटारे में 15 दिन से 11 महीने तक का ही समय लगता था। धीरे धीरे दया याचिकाओं के निबटारे की प्रक्रिया लंबी होती गयी और 1980 से 1988 के दौरान इसमें औसतन चार साल लगने लगे।

इसके बाद तो ऐसी याचिकाओं के निबटारे के लिये मुजरिमों को 12-12 साल इंतजार करना पड़ा। इस दौरान मौत की सज़ा पाने वाले कैदियों को एकांत में, जिसे काल कोठरी भी कहा जाता है, रखा गया। लेकिन अब उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि दया याचिका लंबित होने के दौरान ऐसे मुजरिमों को एकांत में रखना असंवैधानिक है।

संविधान के अनुच्छेद 72 और अनुच्छेद 161 के तहत राष्ट्पति और राज्यपाल दोषी को क्षमा दान दे सकते हैं या सज़ा कम कर सकते हैं और ऐसा सिर्फ सरकार की सलाह से ही किया जा सकता है। ऐसे मामलों के निबटारे के लिये हालांकि कानून में कोई समय सीमा नहीं है।

शायद इसी वजह से पिछले कुछ सालों से मुजरिमों की दया याचिकाओं के निबटारे में हो रहा अत्यधिक विलंब विवाद का विषय बना हुआ है। पहले भी यह मसला समय समय पर देश की शीर्ष अदालत पहुंचा और न्यायालय ने तथ्यों तथा परिस्थितियों के आधार पर अपनी सुविचारित व्यवस्थायें भी दीं। लेकिन उच्चतम न्यायालय की नयी व्यवस्था के बाद ऐसे मामलों को लेकर व्याप्त तमाम भ्रांतियां अब पूरी तरह खत्म हो गयी हैं।

लेकिन उच्चतम न्यायालय का मानना है कि कानून में प्रतिपादित प्रक्रिया का सही तरीके से पालन किया जाये, तो दया याचिकाओं का निबटारा कहीं अधिक तत्परता से किया जा सकता है।

गृह मंत्रालय से संबंधित संसदीय समिति ने भी दया याचिकाओं के निबटारे में अत्यधिक विलंब पर चिंता व्यक्त करते हुये ऐसे मामलों का तीन महीने के भीतर निबटारा करने की सिफारिश की थी।
सारे तथ्यों के मद्देनजर अब उच्चतम न्यायालय ने दया याचिकाओं के शीघ्र निबटारे के लिये 12 सूत्री दिशानिर्देश प्रतिपादित किये हैं। इन दिशानिर्देशों में कैदी की दया याचिका राष्ट्पति के समक्ष पेश किये जाने के समय अपनायी जाने वाली प्रक्रिया निर्धारित की गई है जिसमें कहा गया है कि संबंधित कैदी का सारा रिकार्ड और आवश्‍यक दस्तावेज़ एक ही बार में गृह मंत्रालय के पास भेजा जाना चाहिए।

न्यायालय ने कहा है कि कैदी से संबंधित सारा विवरण मिलने के बाद गृह मंत्रालय को एक उचित समय के भीतर ही अपनी सिफारिश राष्‍ट्रपति के पास भेजनी चाहिए और वहां से कोई जवाब नहीं मिलने पर समय समय पर इस ओर राष्‍ट्रपति का ध्यान आकर्षित करना चाहिए।

अधिकतर जेल मैनुअल में कैदी की दया याचिका खारिज होने की स्थिति में उसे और उसके परिजनों को सूचित करने का प्रावधान है लेकिन न्यायालय ने पाया कि कैदी और उसके परिजनों को लिखित में इसकी सूचना नहीं दी जाती है।

दूसरी ओर, राज्यपाल द्वारा दया याचिका खारिज होने की स्थिति में कैदी और उसके परिजनों को इसकी सूचना देने के बारे में जेल मैनुअल में कोई प्रावधान नहीं है।

इस तथ्य के मद्देनजर न्यायालय ने कहा है कि ऐसे कैदियों को अधिकार है कि राज्यपाल द्वारा दया याचिका खारिज करने के निर्णय के बारे में उन्हें लिखित में इसकी जानकारी दी जाये। इसलिए न्यायालय ने ऐसे कैदियों को दया याचिका खारिज होने पर इस फैसले की लिखित में जानकारी देना अनिवार्य कर दिया है।

यही नहीं, न्यायालय ने दया याचिका खारिज होने के बाद ऐसे कैदी को फांसी देने की प्रक्रिया शुरू करने से पहले उसके परिजनों को इसकी सूचना देने के बारे में भी समय सीमा निर्धारित की है।
न्यायालय ने कहा है कि दया याचिका खारिज होने और कैदी को फांसी देने के बीच कम से कम 14 दिन का अंतर रखा जाये और इस दौरान कैदी को खुद को मानसिक रूप से तैयार करने तथा अपने परिजनों से अंतिम बार मुलाकात का अवसर मिल सकेगा।

कई जेल मैनुअल में मौत की सज़ा पाने वाले कैदी को फांसी देने के बाद उसका पोस्टमार्टम कराने का प्रावधान नहीं है। इस तथ्य के मद्देनजर न्यायालय ने यह भी व्यवस्था दी है कि किसी कैदी को फांसी देने के बाद उसके शव का पोस्टमार्टम भी अनिवार्य रूप से कराया जाये।

दया याचिकाओं के निबटारे में छह साल से लेकर 12 साल तक की अवधि के विलंब को देखते हुये उच्चतम न्यायालय ने हालांकि 15 कैदियों की मौत की सजा को उम्र कैद में तब्दील कर दिया है। लेकिन न्यायालय को विश्वास है कि भविष्य में ऐसे कैदियों की दया याचिकाओं का तेज़ी से निबटारा किया जायेगा।


उम्मीद की जानी चाहिए कि उच्चतम न्यायालय की इस सुविचारित व्यवस्था के बाद मौत की सज़ा पाने वाले कैदियों की दया याचिकाओं के निबटारे की प्रक्रिया को गति प्रदान की जायेगी ताकि जघन्य अपराधों के लिये मौत की सज़ा पाने वाला कोई भी कैदी दया याचिका के निबटारे में अत्यधिक विलंब के आधार पर इस सज़ा को उम्र कैद में तब्दील कराने का दावा पेश नहीं कर सके।

शनिवार, 25 जनवरी 2014

सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला

सभ्यता के सोपान पर निरंतर बढ़ते जा रहे विश्व में क्या मृत्युदंड जैसी व्यवस्था के लिए कोई स्थान होना चाहिए, यह प्रश्न लंबे समय से विभिन्न देशों, समाजों व संस्कृतियों के लिए चिंतन का विषय रहा है। जब आप किसी को जीवन दे नहींसकते, तो उसे छीनने का भी अधिकार आपको नहीं हैएक बार किसी के प्राण ले लिए जाएं तो फिर उसे लौटाया नहींजा सकता, मौत की सजा मध्ययुगीन बर्बरता का परिचायक है, ऐसी धारणाएं मृत्युदंड की मुखालफत करती हैं और मानवाधिकार इनके केंद्र में होता है। मानवाधिकार के इसी तकाजे को ध्यान में रखते हुए विश्व के सौ देशों ने मृत्युदंड को पूरी तरह खत्म कर दिया है, 48 देशों में इसका प्रावधान होते हुए भी पिछले 10 सालों में कोई सजा नहींदी गई है, 7 देशों में इसे दुर्लभतम परिस्थितियों में हुए अपराधों के लिए ही तय किया गया है, जबकि 40 देशों में यह अब भी जारी है। भारत में मृत्युदंड की व्यवस्था है और पिछले कुछ वर्षों में धनंजय चटर्जी, अजमल कसाब, अफजल गुरु को फांसी की सजा हुई भी है, फिर भी इस बात पर देश में एक राय नहींहै कि मौत की सजा भारत में जारी रहना चाहिए या समाप्त कर देना चाहिए। मानवाधिकार संगठन हमेशा ही मृत्युदंड का विरोध करते रहे हैं, आम जनता का एक बड़ा हिस्सा भी ऐसी ही राय रखता है। हां, अगर निर्भया जैसा कोई मामला सामने आता है, या अजमल कसाब जैसा आतंकी रंगे हाथों पकड़ाता है, तब जनता आक्रोशित होकर फांसी की मांग करती है। पर यहां यह ध्यान देने की जरूरत है कि ऐसी मांग नाराजगी से उपजती है और उसमें तर्क पर भावनाएं हावी होती हैं। जबकि न्याय व्यवस्था हमेशा तर्कों से संचालित होती है, वह बदला लेने की भावना की जगह न्याय प्रदान करने के लिए बनायी गई है। इसलिए चाहे कसाब हो या निर्भया के दोषी, उन्हें अपना पक्ष रखने का भी अवसर भारत की न्याय व्यवस्था में दिया जाता है। निचली अदालत से लेकर सर्वोच्च अदालत तक अगर किसी की फांसी सजा बरकरार है, तो उसे राष्ट्रपति के पास दया याचिका भेजने का अधिकार होता है और अगर वह याचिका रद्द हो गई तो उसे फांसी दी जाती है, जैसा कसाब और अफजल गुरु मामले में देखा गया और अगर याचिका स्वीकृत हो गई तो फांसी की सजा नहींहोती। लेकिन याचिका पर फैसला लंबे समय तक न हो, उस स्थिति में क्या हो? क्योंकि राष्ट्रपति के लिए याचिका पर निर्णय लेने की कोई समय सीमा निर्धारित नहींकी गई है। इस स्थिति में मृत्युदंड पाए अपराधी और उसके परिजनों के लिए हर दिन मौत की प्रतीक्षा करते बीतता है, जो मानसिक तौर पर किसी सजा से कम नहीं है।


भारत के सर्वोच्च न्यायाधीश पी.सदाशिवम की अध्यक्षता वाली बेंच द्वारा 15 लोगों के मृत्युदंड को उम्रकैद में बदलने का फैसला इसी दृष्टिकोण से समझने की जरूरत है। यह एक ऐतिहासिक फैसला है और मानवाधिकारों की बड़ी जीत है। अपना पदभार संभालने के वक्त न्यायमूर्ति पी.सदाशिवम ने कहा था कि फांसी की सजा को लेकर स्पष्ट नियम बनाए जाने जरूरी हैं ताकि इस पर मौजूद असमंजस खत्म हो सके। अब उनके इस फैसले से कुछ बातें तय हो गई हैं। उदाहरण के लिए दया याचिका पर निर्णय लेने में लंबी देरी अपराधी को राहत देने का पर्याप्त आधार बन सकती है। इसी तरह मानसिक रोग से ग्रसित होने और दोषी को जेल में एकांत में रखने को भी राहत का आधार माना गया है। अगर मौत की सजा सुनाए गए कैदी की दया याचिका राष्ट्रपति खारिज करते हैं तो उसके परिजनों को इसकी जानकारी देना अनिवार्य होगा और 14 दिनों के भीतर फांसी की सजा देना भी जरूरी होगा। अदालत ने यह भी कहा है कि जिस भी व्यक्ति को मौत की सजा सुनाई जाती है, उसे सुप्रीम कोर्ट के सामने अपना मामला लाने का अधिकार होगा। कई हत्याओं के दोषी या फिर आतंकवाद संबंधी मामलों के दोषियों को भी यह अधिकार होगा। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले से 15 लोगों की फांसी उम्रकैद में बदल गई, जिसमें कुख्यात तस्कर वीरप्पन के 4 साथियों से लेकर अपने ही परिजनों को मौत के घाट उतारने वाले दंपती भी शामिल हैं। यह फैसला उन कैदिय और परिजनों के लिए भी थोड़ी राहत लेकर आया है, जो कई सालों से जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे हैं। फांसी देने से समाज में अपराध खत्म नहींहोते, यह साबित हो चुका है। लेकिन समाज में विभिन्न कारणों से बढ़ रहे अपराधों पर अंकुश लगे, अपराधियों में कानून का डर कायम हो और पीड़ितों को न्याय प्राप्त करने में देर न हो, ऐसी सुदृढ़ व्यवस्था बनाने की उम्मीद न्यायपालिका से जनता करती है।

शिक्षा का अधिकार

शिक्षा का अधिकार (आरटीई) देश में प्राथमिक शिक्षा के सर्वव्‍यापीकरण में अब तक का ऐतिहासिक विकास है। 2010 में लागू इस अधिनियम में 6 से 14 वर्ष की आयु समूह के प्रत्‍येक बालक को प्राथमिक शिक्षा का अधिकार दिया गया है। वे नि:शुल्‍क और अनिवार्य शिक्षा के हकदार हैं।

सर्वशिक्षा अभियान (एसएसए) आरटीई अधिनियम के कार्यान्‍वयन का एक मुख्‍य साधन है। यह दुनिया में अपनी तरह के सबसे बड़े कार्यक्रमों में से एक है। यह मुख्‍य तौर पर, केन्‍द्रीय बजट से प्राथमिक तौर पर वित्‍त पोषित है और इसे पूरे देश में चलाया जाता है। इस योजना के अंतर्गत 11 लाख रिहाइशों में 19 करोड़ से ज्‍यादा बच्‍चों को शामिल किया गया है। देश की 98 प्रतिशत बस्तियों में एक किलोमीटर के दायरे में प्राथमिक विद्यालय हैं और 92 प्रतिशत बस्तियों में तीन किलोमीटर के दायरे में उच्‍चतर प्राथमिक विद्यालय हैं।

इस कार्यक्रम का कार्यान्‍वयन प्राथमिक शिक्षा में लैंगिक और सामाजिक अंतराल को कम करना है। अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और मुस्लिम अल्‍पसंख्‍यक समुदायों की बालिकाओं और बच्‍चों तक पहुंच बनाने के लिए विशेष प्रयास किए गए हैं।

अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्‍य पिछड़े वर्गों, मुस्लिम समुदायों और शै‍क्षणिक रूप से पिछड़े ब्‍लॉकों में गरीबी रेखा से नीचे की बालिकाओं के लिए आवासीय उच्‍चतर प्राथमिक विद्यालयों के तौर पर 3500 से ज्‍यादा कस्‍तूरबा गांधी बालिका विद्यालयों (केजीबीवी) को स्‍थापित किया जा चुका है। इन विद्यालयों में नि:शुल्‍क आवास, पुस्‍तकें, स्‍टेशनरी और वर्दियां प्रदान की जा रही हैं।

एसएसए के अंतर्गत शहरी वंचित बच्‍चों, आवधिक प्रवास से प्रभावित बच्‍चों और दूर-दराज एवं बिखरी हुई बस्तियों में रहने वाले बच्‍चों पर विशेष ध्‍यान दिया गया है। ऑटिज्‍म से पीड़ि‍त बच्‍चों तक पहुंच बनाने के लिए विशेष प्रयास किए गए हैं। इसमें बुनियादी सुविधाओं में सुधार और सरकारी विद्यालयों में नए शिक्षक पदों की अनुमति शामिल है। सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्‍त विद्यालयों में सभी बच्‍चों को नि:शुल्‍क पाठ्य पुस्‍तकें प्रदान की जा रही हैं। पिछले वर्ष, केन्‍द्र ने 23,800 करोड़ रुपये से ज्‍यादा जारी किए और वर्तमान वित्‍तीय वर्ष (2013-14) के दौरान पहले आठ महीनों में 16,000 करोड़ रुपये से ज्‍यादा जारी किए जा चुके हैं।

वित्‍त पोषण के लिए बढ़ाई गई इस धनराशि से विद्यालय स्‍तर पर व्‍यापक निर्माण और बुनियादी सुविधाओं में सुधार किया गया है। 95 प्रतिशत के करीब विद्यालयों में पेयजल सुविधाएं हैं और 90 प्रतिशत विद्यालयों में शौचालय हैं। इसी प्रकार से, करीब 75 प्रतिशत उच्‍चतर प्राथमिक विद्यालयों में फर्नीचर सुविधाएं उपलब्‍ध हैं। शिक्षा के अधिकारको कार्यान्वित करने के लिए संयुक्‍त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के एक प्रमुख कार्यक्रम के अंतर्गत सर्वशिक्षा अभियान के तहत शौचालय, पेयजल सुविधाओं और विद्युतीकरण के साथ तीन लाख से ज्‍यादा नए विद्यालय भवनों का निर्माण किया जा चुका है।

नि:शुल्‍क और अनिवार्य शिक्षा (आरटीई) अधिनियम, 2009 के तहत बच्‍चों के अधिकार के लागू होने के बाद से शिक्षा के लिए जिला सूचना प्रणाली (डीआईएसई) आंकड़ों के अनुसार प्राथमिक स्‍तर पर बच्‍चों के दाखिले 2008-09 के करीब 19 करोड़ से 2012-13 में 20 करोड़ तक पहुंच चुके हैं। आरटीई अधिनियम के उद्देश्‍यों को पूरा करने के लिए सर्वशिक्षा अभियान (एसएसए) के अंतर्गत राज्‍यों/संघ शासित प्रदेशों को कुल 43,500 से ज्‍यादा विद्यालयों, अतिरिक्‍त सात लाख कक्षाएं, 5,46,000 शौचालय और 34,600 पेयजल सुविधाओं के लिए स्‍वीकृति दी जा चुकी है।

वर्ष 2008-09 और 2012-13 के दौरान अनुसूचित जाति के दाखिले में तीन से चार करोड़ तक की वृद्धि हो चुकी है। इसी प्रकार से अनुसूचित जनजातियों और अल्‍पसंख्‍यकों के बीच भी सकारात्‍मक दृष्टिकोण देखने को मिला है। आरटीई अधिनियम के अनुसार 13 राज्‍य, निजी और बिना किसी आर्थिक सहायता प्राप्‍त  विद्यालयों में अलाभान्वित समूहों/कमजोर वर्गों के बच्‍चों को दाखिल कर चुके हैं।

मध्‍यान्‍ह भोजन योजना के साथ शिक्षा का अधिकार अधिनियम, प्राथमिक शिक्षा के सर्वव्‍यापीकरण पर महत्‍वपूर्ण प्रभाव डालते हुए बच्‍चों के स्‍कूल से हटने में कमी के साथ-साथ कक्षाओं में भूख से होने वाली समस्‍याओं को भी महत्‍वपूर्ण रूप से दूर कर चुका है।

प्राथमिक शिक्षा के कुल दाखिला अनुपात में यह सुधार प्रतिबिंबित होता है। वर्ष 2011-12 में यह 99.89 प्रतिशत था। हालांकि प्राथमिक स्‍तर पर बच्‍चों के विद्यालय से हटने के मामलों में भी काफी कमी आई है। विद्यालयों से बच्‍चों के हटने की संख्‍या वर्ष 2005 में 1.34 करोड़ से ज्‍यादा थी, जो वर्ष 2012-13 में 29 लाख पर आ गई।

आरटीई के अंतर्गत गुणवत्‍ता को सुधारने के लिए कई नए उपाय भी अपनाए जा चुके हैं। वर्ष 2012-13 तक एसएसए के अंतर्गत करीब 20 लाख अतिरिक्‍त  शिक्षक पदों को स्‍वीकृति दी जा चुकी है। इनमें से 12 लाख 40 हजार पदों को भरे जाने की भी खबर है। आरटीई के बाद यह अनिवार्य कर दिया गया है कि शिक्षक पात्रता परीक्षा को उत्‍तीर्ण करने वाले व्‍यक्ति ही शिक्षक के तौर पर नियुक्‍त किए जा सकते हैं।

शिक्षण के स्‍तर को सुधारने के लिए कक्षा आठ तक के बच्‍चों को नि:शुल्‍क पाठ्य पुस्‍तकें उपलब्‍ध कराई जाती हैं। सतत् और व्‍यापक मूल्‍यांकन प्रणाली को भी प्रोत्‍साहन दिया जा रहा है। बच्‍चों के शिक्षण को और अधिक सरल और समग्र बनाने के लिए पाठ्यक्रम में संशोधन भी किए गए हैं। सेवारत शिक्षकों और मुख्‍याध्‍यापकों के प्रशिक्षण को भी प्रोत्‍साहन दिया जा रहा है।


11वीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत मानव संसाधन विकास मंत्रालय की सभी योजनाओं का उद्देश्‍य गुणवत्‍ता युक्‍त शिक्षा तक पहुंच और इसमें सुधार लाना है, जबकि वर्तमान पंचवर्षीय योजना का प्रमुख ध्‍येय शिक्षा में गुणवत्‍ता प्रदान करना है।

शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

राष्‍ट्रीय मतदाता दिवस 2014

25 जनवरी का दिन राष्‍ट्रीय मतदाता दिवस (एनवीडी) के रूप में मनाया जाता है। यह वही दिन है जब हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने देश के नागरिकों को भारत का चुनाव आयोगप्रदान किया था और इस आयोग को चुनाव पर निगरानी रखने, निर्देश देने तथा नियंत्रण रखने का दायित्‍व सौंपा गया है। यह आयोग भारतीयों को स्‍वतंत्र, निष्‍पक्ष तथा विश्‍वसनीय चुनाव कराने के लिए प्रतिबद्ध है।  किन्‍तु लोकतंत्र को सार्थक बनाने के लिए निर्वाचन की प्रक्रिया में लोगों की अधिकतम भागीदारी परम आवश्‍यक है।

चुनाव के संचालन में चुनाव सूची में दर्ज प्रत्‍येक भारतीय का यह दायित्‍व है कि वह सुरक्षित रूप से मतदान करें। इसके अलावा चुनावों में नागरिकों का भाग लेना सुनिश्चित करना लोकतंत्र की शक्ति का सूचक है। राष्‍ट्रीय मतदाता दिवस की परिकल्‍पना के पीछे यही भावना रही है कि मतदाता, विशेषकर नये पात्र मतदाताओं के पंजीकरण की संख्‍या में बढ़ोतरी हो, जिससे मतदाता की वयस्कता को संपूर्ण आयाम मिल सके। राष्‍ट्रीय मतदान दिवस लोगों के बीच जाने को लेकर केन्द्रित है और उन कारणों का अध्‍ययन करने के लिए लालायित हैं कि इस प्रक्रिया से लोग क्‍यों छूट जाते हैं और इस भाव को समझाने में मदद  करना कि जब तक प्रत्‍येक भारतीय मतदान प्रक्रिया में भाग नहीं लेता, हमारा लोकतंत्र अधूरा कहा जाएगा। इस दिन को हम चुनाव प्रक्रिया में प्रभावी सहभागिता के संबंध में लोगों को जागृत करने के लिए भी उपयोग में लाते हैं। इस दिन नये मतदाताओं द्वारा ली जाने वाली शपथ हमारे स्‍वयं के प्रति, राष्‍ट्र के प्रति तथा लोकतंत्र के प्रति हमारे विश्‍वास को सम्‍पुष्‍ट करती है।

अब तक भारत का चुनाव आयोग लोकसभा के 15 आम चुनाव तथा अनेक बार राज्‍य विधानसभाओं के आम चुनाव संपन्‍न करा चुका है, इससे शांति-पूर्ण व्‍यवस्थित तथा सत्‍ता का प्रजातांत्रिक हस्‍तांतरण सुनिश्चित हो पाया है। इस सूची में राज्‍यसभा तथा राज्‍य विधान परिषदों के शीर्षस्‍थ संवैधानिक पदों पर चुनाव भी शामिल हैं। स्‍वतंत्र, निष्‍पक्ष और पारदर्शी चुनाव कराने के अपने प्रयासों में आयोग ने अपनी विश्‍वसनीयता को पूरी ताकत के साथ कायम रखा है और साथ ही सुनिश्चित किया है कि प्रत्‍येक पात्र भारतीय का वोट मायने रखता है। अब इस वर्ष अगले लोकसभा चुनाव कराने की नई चुनौती चुनाव आयोग के सामने हैं, जहां युवा, शिक्षित, तकनीकी ज्ञान से ओतप्रोत नेतृत्‍व एवं युवा मतदाताओं से अनुसमर्थित नये राजनीतिक मोर्चों का अभ्‍युदय हुआ है। 2011 की जनगणना के अनुसार इस बार 149.36 मिलियन मतदाता प्रथम बार वोट पाने का अधिकार लिए हुए हैं। इसका यह अर्थ हुआ कि 725 मिलियन वोटरों के 20 प्रतिशत से ज्‍यादा वोटर 2014 में मतदान के पात्र होंगे। पहली बार वोटरों की कुल संख्‍या मई 2014 तक करीब 160 मिलियन (2011 में हुई जनगणना) हो जाएगी। विश्‍वभर में चुनाव प्रबंधन की व्‍यापक प्रक्रिया को देखते हुए चुनाव आयोग कतिपय वर्गों के बीच मतदान के प्रति उदासीनता के निराशाजनक वर्तमान स्‍तर के प्रति देश के नागरिकों, विशेषकर युवाओं से यह अपेक्षा करता है कि वे अपनी अधिकाधिक सहभागिता सुनिश्चित करें। विशेषकर, आयोग ने यह पाया है कि वर्ष दर वर्ष चुनाव सूची में नये वोटरों (आयु 18 प्‍लस) के नाम लुप्‍त पाये जा रहे हैं। कुछ मामलों में तो इनके पंजीकरण का स्‍तर 20 से 25 प्रतिशत तक के निम्‍न स्‍तर पर हैं।

इस समस्‍या से प्रभावी तौर से निपटने के लिए आयोग ने देश के 8.5 लाख मतदान केन्‍द्र के हर क्षेत्र में प्रत्‍येक वर्ष 1 जनवरी को 18 साल की आयु प्राप्‍त करने वाले सभी पात्र मतदाताओं की पहचान करने की एक सशक्‍त पहल की है। पंजीकरण के अलावा नये मतदाताओं को एक शपथ भी दिलाई जाती है। जो इस प्रकार से है :- हम, भारत के नागरिकों का लोकतंत्र में अप्रतिम विश्‍वास है। मैं अपने देश की लोकतांत्रिक परम्पराओं और चुनाव के स्‍वतंत्र, निष्‍पक्ष और शांतिपूर्ण गरिमा को बनाये रखने की शपथ लेता हूं और प्रत्‍येक चुनाव में धर्म, रंग, जाति, समुदाय, भाषा या किसी प्रकार के प्रलोभन से प्रभावित हुए बिना भय के मतदान करूंगा।इसके अलावा नये मतदाताओं को उनके ईपीआईसी के साथ समारोह के दौरान एक बिल्‍ला दिया जाता है, जिस पर नारा लिखा होता है:- मुझे मतदाता होने का गर्व है- मैं मतदान के लिए तैयार हूं। यह प्रक्रिया युवाओं को नागरिकता, सशक्तिकरण, प्रतिष्‍ठा और भागीदारी का आत्मबोध कराएगी और जब मौका आएगा तो उन्‍हें मताधिकार का प्रयोग करने के लिए भी प्रेरित करेगी।

राष्‍ट्रीय मतदाता दिवस का उद्देश्‍य देश भर में विशेष अभियान के जरिए नये पात्र मतदाता (18+) तक पहुंचना और उनका नाम मतदाता सूची में दर्ज कराना भी है। आयोग समय-समय पर सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य निर्वाचन अधिकारियों को निर्देश देता रहता है कि 18 वर्ष की आयु को प्राप्त करने वाले प्रत्येक युवा का नाम मतदाता सूची में शामिल किया जाए। आयोग विशेष रूप से इस तथ्य पर जोर देता रहा है कि देश की अधिक से अधिक महिलाओं को अपना नाम पंजीकृत कराने की आवश्यकता है। महिलाओं की पर्याप्त अनुपात में सहभागिता के बगैर भारत का लोकतंत्र अधूरा रह जाएगा।

हम राष्ट्रीय मतदाता दिवस के माध्यम से अपनी मतदाता सूची के व्यापक अंतर को कुछ हद तक पाटने में समर्थ हुए हैं और नए पात्र मतदाताओं का पंजीकरण कराया गया है। यह सब हमारे प्रशंसनीय प्रयासों तथा बूथ स्तर अधिकारी से लेकर मुख्य चुनाव अधिकारी के सतत कड़े परिश्रम और एसवीईईपी अभियान से सम्पन्न हो पाया है, जो व्यवस्थित वोटर शिक्षा व निर्वाचन सहभागिता का परिचायक है। भारत के चुनाव आयोग ने हमारे एसवीईईपी के अंतर्गत शुरू किए गए विभिन्न अभियानों, जानकारी के प्रचार-प्रसार, मतदाताओं को प्रोत्साहित करने एवं उनकी सहभागिता सुनिश्चित करके अनेक उपाय किए हैं। युवाओं के प्रेरणा स्रोत अर्थात भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ ए. पी. जे. अब्दुल कलाम भारतीय क्रिकेट टीम के श्री एम. एस. धोनी और विराट कोहली, ओलंपिक मेडल विजेता कुमारी साइना नेहवाल, कुमारी एम. सी. मारी की पात्र वोटरों को अपना पंजीकरण कराने की अपील को इस अभियान में उपयोग में लाया गया है।


बालिका - भविष्‍य का आभूषण

भारत का इतिहास सफल महिलाओं के उदाहरणों से भरा पड़ा है जिन्‍होंने जीवन के विभिन्‍न क्षेत्रों में ऊंचाइयों को छुआ है। लेकिन विडंबना यह है कि अनेक सांस्‍कृतिक वजहों से बालिकाओं को आज भी अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

इस बात को समझते हुए भारत सरकार ने समय-समय पर अनेक योजनाओं को लागू किया। लेकिन अभी भी काफी कुछ किए जाने की जरूरत है। इस तरह की एक पहल यूपीए सरकार ने 2008 में की जिसके तहत हर वर्ष 24 जनवरी का दिन राष्‍ट्रीय बालिका दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन 1966 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री का पद संभाला था।

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की आबादी का करीब 15 करोड़ 80 लाख बच्‍चे 0-6 वर्ष की आयु के हैं तो फिर सिर्फ राष्‍ट्रीय बालिका दिवस ही क्‍यों मनाया जाता है? इसका कारण स्‍पष्‍ट है: बालिकाएं भारतीय समाज का सबसे नाज़ुक हिस्‍सा है।

2011 की जनगणना से पता चलता है कि सामाजिक संकेतकों, जैसे साक्षरता में सुधार हुआ है और कुल लिंग अनुपात 933 से बढ़कर 940 हो गया है। लेकिन आयु वर्ग के हिसाब से जनगणना से पता लगता है कि 0-6 वर्ष के आयु वर्ग में 1000 लड़कों के पीछे लड़कियों के अनुपात में गिरावट आई है यानी बच्‍चों का लिंग अनुपात जो 2001 में 927 था वह 2011 में 914 हो गया।

नवीनतम जनगणना से स्‍पष्‍ट है कि 22 राज्‍यों और 5 संघ शासित क्षेत्रों में बच्‍चों के लिंग अनुपात में गिरावट आई है। 5 वर्ष से कम उम्र के बच्‍चों में पोषण की कमी के बारे में  राष्‍ट्रीय परिवार स्‍वास्‍थ्‍य सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार 43 प्रतिशत लड़कियां कुपोषित है।

राष्‍ट्रीय बालिका दिवस : उद्देश्‍य

सरकार अन्‍य हितधारकों के साथ यह प्रयास करती है कि बालिकाएं जीवित रहें और पुरूष प्रधान समाज में गरिमा और सम्‍मान से जिएं।
  • जागरूकता बढ़ाने और बालिकाओं को नए अवसरों की पेशकश
  • लड़कियों के सामने आने वाली सभी असमानताओं को समाप्‍त करना
  • यह सुनिश्‍चित करना की प्रत्‍येक बालिका को उचित सम्‍मान, मानवाधिकार और भारतीय समाज में मूल्‍य मिले
  • बालिकाओं पर लगे सामाजिक कलंक से मुकाबला करने और बच्‍चों के लिंग अनुपात को खत्‍म करने के विरूद्ध काम करना
  • बालिकाओं की भूमिका और उनके महत्‍व के बारे में जागरूकता बढ़ाना
  • बलिकाओं के स्‍वास्‍थ्‍य, शिक्षा, पोषण आदि से जुड़े मुद्दों का निपटारा
  • लिंग समानता को बढ़ावा देना

राष्‍ट्रीय बालिका दिवस समारोह से क्‍या हासिल होगा?

इसका उद्देश्‍य वर्तमान मानसिकता को खत्‍म करके यह सुनिश्‍चित करना है कि लड़की के जन्‍म से पहले ही उसे बोझ न समझा जाए और वह हिंसा अथवा भ्रूण हत्‍या का शिकार न बने।

विधायी उपाय

इन चुनौतियों से निपटने के लिए सरकार 3पर जोर दे रही है जिनमें एडवोकेसी यानी रक्षा, जागरूकता और सकारात्‍मक कार्य शामिल है। कुछ महत्‍वपूर्ण विधायी उपाय जो अब तक किए गए है उनमें शामिल है:

  • गर्भावस्‍था के दौरान लिंग का पता लगाने पर रोक और बालिकाओं को पारितोषिक देने के लिए नीतियां और कार्यक्रम
  • बाल-विवाह पर रोक
  • सभी गर्भवती महिलाओं की प्रसव-पूर्व देखभाल में सुधार
  • ‘‘बालिका बचाव योजना’’ शुरू करना
  • 14 वर्ष की उम्र तक लड़के और लड़कियां दोनों के लिए नि:शुल्‍क और अनिवार्य प्राइमरी स्‍कूल शिक्षा
  • महिलाओं के लिए स्‍थानीय निकायों में एक-तिहाई सीट आरक्षित करना
  • स्‍कूली बच्‍चों को वर्दी, दोपहर का भोजन और शिक्षण सामग्री दी जाती है और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की लड़कियों के लिए उच्‍च शिक्षा की योजनाएं
  • बालवाड़ी और पालना-घर
  • पिछड़े इलाकों की लड़कियों की सहूलियत के लिए ओपन लर्निंग प्रणाली स्‍थापित
  • विभिन्‍न राज्‍यों में स्‍व-सहायता समूह ग्रामीण इलाकों में लड़कियों की मदद के लिए ताकि उन्‍हें बेहतर जीवन-यापन के अवसर मिल सके


अन्‍य सकारात्‍मक कार्य

महिला और बाल विकास मंत्रालय ने धनलक्ष्‍मी नाम की एक योजना लागू की है ताकि टीकाकरण, जन्‍म पंजीकरण, स्‍कूल में दाखिला और आठवी कक्षा तक देखभाल जैसी मूलभूत जरूरतों को पूरा करने के लिए लड़की के परिवार को नकद धनराशि हस्‍तांतरित की जा सके।
केन्‍द्र प्रायोजित एक अन्‍य महत्‍वपूर्ण योजना 2010-11 में शुरू की गई। 11-18 वर्ष की किशोर लड़कियों का सर्वांगीण विकास करने के उद्देश्‍य से राजीव गांधी अधिकारिता योजना-सबला शुरू की गई और इसे सभी राज्‍यों/संघ शासित क्षेत्रों के 205 जिलों में लागू किया जा रहा है।
केन्‍द्र प्रायोजित समन्वित बाल विकास सेवा योजना के अंतर्गत 2006-07 में किशोरी शक्ति योजनालागू की गई, जिसका उद्देश्‍य किशोर लड़कियों को पोषण, स्‍वास्‍थ्‍य और परिवार की देखभाल, जीवन कौशल और स्‍कूल जाने का अधिकार प्रदान करना है। इसे देश के 6,118 खण्‍डों में लागू किया गया है।

वित्‍तीय अधिकार प्रदान करना

2014 में राष्‍ट्रीय बालिका दिवस के अवसर पर भारतीय डाक ने प्रत्‍येक बालिका के नाम पर नया बचत खाता खोलने का एक विशेष अभियान शुरू किया है। ये अभियान 24 जनवरी से शुरू होकर 28 जनवरी तक चलेगा। इसका उद्देश्‍य बालिकाओं को लघु बचत खाता खोलने के लिए प्रेरित करके उनका भविष्‍य सुरक्षित करना है।

यह सुविधा उत्‍तरी कर्नाटक क्षेत्र के सभी गांवों के 4,480 डाकघरों में उपलब्‍ध होगी, इस योजना के अंतर्गत प्रत्‍येक खाते में चार प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से ब्‍याज दिया जाएगा और जमाकर्ता अनगिनत लेन-देन कर सकता है। अधिकारी सभी स्‍कूलों में जाकर प्रत्‍येक बालिका को अपने नाम से एक बचत खाता खोलने में मदद करेंगे।

यौन उत्‍पीड़न से बचाव

समन्वित बाल संरक्षण योजना 2009-10 में लागू की गई और चाइल्‍डलाइन सेवाभारत में लड़कियों की सुरक्षा का मुद्दा देख रही है। 2005 में महिला और बाल विकास मंत्रालय ने यह पता लगाने के लिए एक अध्‍ययन किया कि भारत में किस हद तक बच्‍चों का उत्‍पीड़न होता है। उसके परिणामस्‍वरूप संसद ने मई 2012 में एक विशेष कानून यौन अपराधों से बच्‍चों की रक्षा अधिनियम 2012पारित किया।

बच्‍चों के लिए बजट

यूपीए सरकार ने 2008-09 के केन्‍द्रीय बजट में बच्‍चों के लिए बजट की व्‍यवस्‍था शुरू की, जिसे बच्‍चों के कल्‍याण की योजनाओं के लिए प्रदान किया गया। शुरू में इसमें महिला और बाल विकास मंत्रालय, मानव संसाधन विकास, स्‍वास्‍थ्‍य और परिवार कल्‍याण, श्रम और रोजगार, सामाजिक न्‍याय और अधिकारिता, आदिवासी मामले, अल्‍पसंख्‍यक मामले, युवा मामले और खेल आदि मंत्रालयों की बच्‍चों से जुड़ी विशेष के साथ अनुदान मांगोंको शामिल किया गया। इस समय बच्‍चों के लिए बजट में परमाणु ऊर्जा, औद्योगिक नीति, डाक, दूरसंचार तथा सूचना और प्रसारण आदि के केन्‍द्रीय मंत्रालयों/विभागों की 18अनुदान मांगोंको शामिल किया गया है और आरंभिक बजट में पर्याप्‍त वृद्धि की गई है। इससे बालिकाओं को बेहतर अवसर दिए जा सकेंगे।

राष्‍ट्रीय बाल नीति प्रस्‍ताव को मंजूरी

बच्‍चों के सामने उत्‍पन्‍न चुनौतियों से निपटने के लिए अधिकारों पर आधारित दृष्टिकोण की अपनी प्रतिबद्धता पर अमल करते हुए सरकार ने बच्‍चों के लिए राष्‍ट्रीय नीति, 2013 के बारे में प्रस्‍ताव को स्‍वीकार किया। इसमें बच्‍चों सहित सभी हितधारकों के साथ पांच वर्ष में एक बार सलाह मशविरा करके इस नीति की व्‍यापक समीक्षा करने की व्‍यवस्‍था है। महिला और बाल विकास मंत्रालय समीक्षा की प्रक्रिया को आगे बढ़ाएगा।

निष्‍कर्ष

भारत में बालिकाओं को संरक्षण देने का काम हर वर्ष राष्‍ट्रीय बालिका दिवस मनाने तक ही सीमित नहीं होना चाहिए बल्कि मजबूत विधायी उपायों के साथ सरकार और अन्‍य हितधारक-समुदाय, सिविल सोसायटी, औद्योगिक घराने, पड़ोसी और माता-पिता को लड़कियों के सुरक्षित जीवन के लिए एक मजबूत और अहम भूमिका निभानी चाहिए, ताकि बेहतर समाज, बेहतर भविष्‍य और बेहतर भारत का निर्माण हो सके।
(पसूका)


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