बुधवार, 19 दिसंबर 2012

आतंकवाद



आज पूरी दुनिया आतंकवाद से त्रस्त है। दुनिया का शायद ही कोई ऐसा देश हो जो आज आतंकवाद की मार न झेल रहा हो। अमेरिका, चीन, रूस जैसे बड़े ताकतवर देश हों या फिर सूडान जैसे तीसरी दुनिया के देश हों। सब जगह किसी न किसी रूप में आतंकवाद मौजूद है। आतंकवाद के इतिहास और उसकी परिभाषा के बारे में आज भी कुछ साफ-साफ कह पाना संभव नहीं है। दुनिया में आज तक आतंकवाद की परिभाषा तय नहीं हो पाई है। वैसे दुनिया में आतंकवाद का जनक इजराइल को माना जाता है। इजराइल में हागानाह नामक एक संगठन है। इसकी स्थापना इजराइल के उदय से पूर्व 1920 में ही हो गई थी। इस संगठन को ही आधुनिक धार्मिक आतंकवाद का जनक संगठन माना जाता है। हागानाह का संस्थापक एक कट्टरपंथी यहूदी जिबोलिस्की था जिसने धार्मिक आतंकवाद के पांच बुनियादी सिद्घांत स्थापित किए थे। ये सिद्धांत थे- धर्म को लोगों की पहचान और उनके अस्तित्व की सुरक्षा से जोड़ दो, सिर्फ समान धर्मावलंबियों से ही भाईचारा हो सकता हैं, उन्माद की हद तक इस विचार को स्थापित करो, तीसरा- लोगों में यह बात बैठा दो कि दुनिया में सबसे प्राचीन और गौरवशाली धर्म उन्हीं का है और बाकी सब धर्म निकृष्ट और भ्रष्ट हैं, चार- लोगों को इस सीमा तक भावुक बनाओं कि उन्हें अपने धर्म के लिए कुछ भी करने में हिचक न हो और पांच- लोगों में यह भावना भरो कि सारी दुनिया में भिन्न धर्मावलंबी उनके दुश्मन हैं।
आगे चल कर इन्हीं सिद्घांतों को कमोबेश इस्लामिक आतंकवादियों ने अपनाया है। आतंकवाद जीवन, भौतिक अखंडता व मानव स्वास्थ्य को खतरे में डालने वाला या बड़े पैमाने पर संपत्ति को हानि पहुंचाने वाला गैरकानूनी, गैरसंवैधानिक और आपराधिक काम है। इसलिए आतंकवाद कोई पारंपरिक विचारधारा नहीं, बल्कि वर्तमान संदर्भ में एक अनधिकृत वाद बन गया है, जिसने राजनीतिक मकसदों की पूर्ति के लिए हिंसा को अपना हथियार बना लिया है। आतंकवाद राज्य और समाज के विषैले चरित्र की उपज है। इसकी उत्पत्ति राज्यों में अल्पसंख्यकों, रंगभेद, जातीयता और धर्म के नाम पर अपनाई गई दमनात्मक नीतियों से होती है। इसके अलावा कुछ देशों ने अपने निजी हितों के लिए भी आतंकवाद को हमेशा से ही शह दी है। पूरी दुनिया में अमेरिका और पाकिस्तान इसकी सबसे बड़ी और सबसे अच्छी मिसाल हैं।
अमेरिका यह जानते हुए भी कि पाकिस्तान पूरी दुनिया में आतंकवाद का सबसे बड़ा स्रोत है और पूरी दुनिया के लिए गंभीर खतरा बन चुका है, उसे हर तरह से पूरी मदद देता है। इसका कारण है कि अमेरिका के हित बिना पाकिस्तान के पूरे नहीं होते हैं। ओसामा बिन लादेन भी आतंकवाद की एक ऐसी मिसाल बना रहा जिसका अमेरिका और पाकिस्तान ने खूब इस्तेमाल किया। शीत शुद्घ के दौर में अमेरिका ने ही लादेन को रूस के खिलाफ खड़ा किया था और सीआईए ने ही उसे प्राशिक्षित किया था। बाद में वही लादेन अमेरिका के लिए आतंकवादी बना। आतंकवाद ने आज दुनिया में मौजूद विज्ञान और तकनीकी का पूरा इस्तेमाल करते हुए अपने स्वरूप को ज्यादा भयावह बना डाला है। आज आतंकवादी भौतिक, रासायनिक, नाभिकीय, जैविक, मानव बम जैसे सारे हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। मानव बम व जैविक हथियार अत्याधुनिक हथियार है। मानव बम के जरिए किसी भी परिस्थिति में लक्ष्य को अंजाम दिया जा सकता हैं। जबकि जैविक हथियारों के जरिए कहीं भी बैठे-बैठे एक व्यापक स्तर पर तबाही मचाई जा सकती है। इसके अलावा इंटरनेट की मदद से आज साइबर हमले हो रहे हैं। एक-दूसरे देशों के सैन्य ठिकानों और महत्वपूर्ण दफ्तरों में लेंध लगा कर हमले किए जा रहे हैं।
अमेरिका पर 11 सितंबर, 2001 के आतंकवादी हमले ने यह साबित कर दिया कि आतंकवाद कहीं भी अपनी पहुंच बना सकता है। इस घटना ने विकसित देशों के इस भ्रम को तोड़ दिया हे कि उनके पास एक मजबूत व विकसित सुरक्षा कवच हैं। अब कोई भी देश आतंकवाद से बचा नहीं है। आतंकवाद रूपी वृक्ष की जड़े हर देश में फैलती जा रही है। आज कई ऐसे देश है जो जाति, वर्ग, संप्रदाय, धर्म और नस्ल के नाम पर भी अलग राज्य-राष्ट्र की मांगें उठा रहे हैं। रूस इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। चीन के मुस्लिम बहुल क्षेत्र पृथक राष्ट्र की मांग कर रहे हैं। फिलिस्तीन-इजराइल के बीच गाजा पट्टी को लेकर विवाद हैं, जिसमें प्रतिशोध की आग ने आतंकवाद को कभी बुझने नहीं दिया है। लीबिया मे इस्लामिक कट्टरता है तो अफगानिस्तान में तालिबान का अवतरण हुआ।
भारत तो जैसे आतंकवाद की प्रयोगाशाला बन गया है। देश को भीतर और बाहर दोनों जगह से आतंकवाद की मार झेली पड़ रही है। पहले पंजाब, फिर कश्मीर, मुंबई में आतंकी हमले, नक्सली आतंकवाद से भारत का हर राज्य इसकी चपेट में आता जा रहा है। अगर भारत पर हुए आतंकी हमलों पर नजर डालें तो 13 दिसंबर 2001 को भारत की संसद पर हुआ हमला सबसे बड़ा हमला था। 5 जुलाई को 2005 को अयोध्या में राम मंदिर पर हमला हुआ। 25 अगस्त, 2007 को आंध्र प्रदेश में बम विस्फोट की घटना, 26 नवंबर, 2008 को मुंबई में आतंकी हमला हुआ। यानी आतंकवाद की पहुंच कभी भी, कहीं और कैसे भी हो सकती है।
हाल ही में एक रिपोर्ट से यह बात सामने आई है कि इराक के बाद सबसे ज्यादा आतंकवाद की घटनाएं भारत मे हुई हैं। भारत में आतंकवाद एक बड़ी राजनीतिक चुनौती बन चुका है। जम्मू-कमीर में सक्रिय आतंकवादी संगठनों में हिजबुल-मुजाहिदीन, लश्करे तैयबा, अलफरान, हरकत उल अंसार प्रमुख हैं। , इसी तरह आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ में नक्सलवादी आतंकवाद चरम पर है। मणिपुर में पीपुल्स रिवोल्यूशनरी पार्टी, असम में बोडो व उल्फा, और मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट ने सर उठा रखा है।
यह किसी से छिपा नहीं है कि भारत में आतंकवाद फैलाने के लिए आतंकियों को प्रशिक्षण पाकिस्तान में ही मिल रहा है। ऐसे में सवाल उठता हे कि आतंकवाद से निपटा कैसे जाए। इसके लिए जरूरी है कि हर देश निस्वार्थ भाव से इससे निपटने की जिम्मेदारी ले। आतंकवाद एक वैश्विक समस्या है। इसलिए इसका निदान भी वैश्विक स्तर पर ही होना चाहिए। इस संदर्भ में त्रि-स्तरीय रणनीति बनाई जानी बहुत जरूरी है। सबसे पहले तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र एक सुरक्षा प्रहरी की भूमिका निभाए व आतंकवाद के खिलाफ उसके फैसले सख्ती से लागू हों। हरेक राष्ट्र यह प्रतिज्ञा करे कि वह आतंकवाद से लड़ेगा और अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए न तो आतंकवाद को बढ़ावा देगा और न ही अपने देश की जमीन को आतंकवाद का आश्रय स्थल बनने देगा। अगर कोई देश जानबूझकर ऐसा करता है तो उसके विरूद्घ अंतरराष्ट्रीय मोर्चाबंदी की जाए। तीसरे स्तर पर व्यक्ति की भूमिका सबसे अहम है। आतंकवाद से लड़ने में जब तक व्यक्ति खुद शामिल नहीं होंगे, इसका समाधान संभव नहीं है। इसलिए हर व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह अपने आस-पास की संदिग्ध गतिविधियों पर नजर रखें।
भारत के संदर्भ में बात करें तो हमारे लिए यह जरूरी है कि राष्ट्रीय स्तर पर न्यायिक प्रक्रिया तेजी से काम करे और पुलिस प्रशासन के पास पर्याप्त संसाधन हों। राष्ट्रीय स्तर पर खुफिया तंत्र की सूचनाएं आंकड़ों के विश्लेषण, जांच और आतंकवाद विरोधी आपरेशन जैसी कार्यवाही जरूरी है। हाईटैक सूचना प्रणाली हो और मीडिया जांच एजेसिंयों का सहयोग करें। देशहित में गुप्त सूचनाओं को सार्वजनिक न किया जाएं और आतंकवादियों का महिमा मंडन न करें। तटीय सुरक्षा को मजबूत किया जाए और बंदरगाहों व हवाई अड्डों पर जांच प्रणाली मजबूत बनाई जाए। पुलिस, सेना व अर्द्घसैनिक बलों के पास अत्याधुनिक हथियार हों, राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनजर अवैध प्रवासियों को रखते हुए देश से बाहर निकाला जाए और जन-प्रतिनिधि वोट बैंक की बजाय राष्ट्रीय हित को महत्व दें।
इसके अलावा भारत को दूसरे देशों के कानूनों से भी सीख लेनी चाहिए। जैसे अमेरिका का पैट्रियट एक्ट, 2011 जिसमें आतंकवाद रोकने के लिए व्यापक कानूनी प्रावधान हैं। आस्ट्रेलिया का कंट्रोल आर्डर जिसमें पुलिस को संदिग्ध को रोकने और तलाशी लेने का अधिकार है। ब्रिटेन का काउंटर टैरेरिज्म एक्ट जिसमें यह प्रावधान है कि आरोप पत्र से पहले 20 से 42 दिन तक संदिग्ध आतंकवादी को हिरासत में  रखा जा सकता हैं। बांग्लादेश में आतंकवाद के मामलों की छह महीने के भीतर सुनवाई कर और उन्हें निपटाने के लिए विशेष पंचाट बनाने की व्यवस्था है।
ऐसा नहीं है कि भारत में कानूनों की कमी है। लेकिन हमारे यहां आतंकवादियों को सजा के मुद्दे पर भी राजनीति होती है। संसद पर हमले के दोषियों को सुप्रीम कोर्ट फांसी की सजा सुना चुका है, लेकिन राजनीतिक कारणों से दोषियों को अब तक फांसी पर लटकाया नहीं गया। हमारे यहां समस्याओं से निपटने के लिए योजनाएं तो बनती हैं, लेकिन पूर्व तैयारी के अभाव में उनके सकारात्मक नतीजे सामने नहीं आ पाते हैं। प्रशाासनिक व्यवस्थाएं जवाबदेह नहीं हैं। समस्याओं के समाधान की बजाय उन्हें टालने की कोशिश की जाती है। जबकि अमेरिका ने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद आतंकवाद के खिलाफ जिस तरह से कठोर रूख अपनाया उसके बाद वहां ऐसी कोई आतंकवादी घटना नहीं हुई।

मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

डायरेक्ट कैश ट्रांसफर स्कीम


कैश ट्रांसफर
केंद्र सरकार अगले साल एक जनवरी से डायरेक्ट कैश ट्रांसफर योजना शुरू करने जा रही है। सालभर में इसे पूरे देश में लागू करने की योजना है। इससे करीब 21 करोड़ लोगों के खातों में सीधे पैसा जाने लगेगा।

 32 योजनाएं होंगी दायरे में

डायरेक्ट कैश ट्रांसफर स्कीम (डीसीटीएस) के दायरे में 32 सरकारी योजनाएं शामिल की जाएंगी। इनमें पेंशन से लेकर स्कॉलरशिप और मनरेगा जैसी योजनाएं भी हैं। सरकार डीसीटीएस के दायरे में 60 करोड़ लोगों को लाने की योजना पर काम कर रही है। 

प्रधानमंत्री को मदद के लिए 20 अधिकारियों की एक एक्जीक्यूटिव कमिटी बनाई गई है। इसके नीचे तीन कमेटियां है।  टेक्नोलॉजी कमिटी, फाइनेंशियल इन्क्लूजन कमिटी और इंप्लीमेंटेशन कमिटी ऑन इलेक्ट्रॉनिक ट्रांसफर ऑफ बेनीफिट।


गांवों पर ज्यादा जोर 

कैश ट्रांसफर के लिए बैंकों को ज्यादा से ज्यादा गांवों तक पहुंचाने की तैयारी है। अभी ग्रामीण क्षेत्र में बैंकों की 30,000 शाखाएं हैं। 5000 की आबादी वाले सभी गांवों में बैंक शाखा खोली जा रही है। 

2000 तक की आबादी वाले गांवों में बैंक प्रतिनिधि नियुक्त होगा। उन्हें बिजनेस करेस्पोंडेंस नाम दिया गया है। बड़े गांवों में ‘माइक्रो एटीएम’ लगेंगे। इन्हें आधार कार्ड के डाटाबेस से जोड़ा जा रहा है। 

ये होगा फायदा

·         सरकारी मदद में अब बिचौलियों की जगह नहीं होगी। 
·         पैसा मिलने में देरी नहीं होगी। 
·         दफ्तरों या अफसरों के चक्कर नहीं लगाने पड़ेंगे।  
·         सरकारी तंत्र की दखलंदाजी खत्म या कम हो जाएगी। 
·         डाटाबेस के आधार पर नियमित मॉनीटरिंग हो सकेगी। 

...और ये हैं खतरे

·         सबके लिए आधार कार्ड तैयार होने तक दलालों को रोक पाना मुश्किल। 
·         स्कीम में इंटरनेट और कंप्यूटर का बड़ा रोल, गांवों में इसकी भारी कमी। 
·         बिचौलिए इस स्कीम को विफल करने की कोशिश करेंगे। 

किसकी कितनी तैयारी


·          योजना आयोग ने 9 केंद्रीय मंत्रालयों के 7 कार्यक्रम (पेंशन सहित) और 22 स्कॉलरशिप योजनाओं की डायरेक्ट कैश ट्रांसफर के लिए पहचान की है।
·          31 मार्च 2013 तक सभी बैंक कोर बैंकिंग प्लेटफॉर्म पर आ जाएंगे जिसके जरिये डायरेक्ट कैश ट्रांसफर होगा।
·          ग्रामीण विकास मंत्रालय के पास मनरेगा के साढ़े 12 करोड़ परिवारों का डिजिटल डाटाबेस तैयार।
·          पोस्ट ऑफिसों में करीब 2.7 करोड़ खाते जिनमें 1.5 करोड़ जीरो बैलेंस वाले।
·          स्कूल यूनीफॉर्म सहायता का पैसा सीध खाते में जमा करने को बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश राजी। 
·          खाद सब्सिडी सीधे कैश ट्रांसफर से देने के दो फेज चालू। तीसरा 10 जिलों में 31 दिसंबर 2012 से।
·          धनलक्ष्मी और इंदिरा गांधी मातृत्व योजना डायरेक्ट कैश ट्रांसफर के लिए तैयार।
·          एलपीजी रसोई गैस सब्सिडी के डायरेक्ट कैश ट्रांसफर का रोडमैप तैयार।

 अभी ये होता है

·         सब्सिडी का पैसा सरकारी मशीनरी के जरिये पहुंचता है।  
·         पैसे का बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार में खप जाता है।
·         फर्जी लाभार्थियों को भी पैस मिल जाता है फायदा।
·         पैसा किसे मिल रहा इसकी मॉनीटरिंग नहीं हो पाती। 

अब ये होगा 

·         आधार कार्ड में सभी नागरिकों का डाटाबेस होगा। 
·         सरकार के पास योजना का लाभ लेने वालों की पहचान रहेगी।  
·         इन्हें आधार कार्ड के डाटाबेस से मिलाया जाएगा। फर्जी और डुप्लीकेट नाम छंट जाएंगे। 
·         लोगों के बैंक खातों में योजना का पैसा सीधे जमा होगा।  
·         अपने गांव की बैंक शाखा से लोग पैसा निकाल सकेंगे ।
·         'डायरेक्ट कैश ट्रांसफर स्कीम' के लिए फिलहाल 42 सरकारी योजनाओं की पहचान की गई है. जिनमें से 29 योजनाओं को पहली जनवरी से देश के 51 जिलों में लागू किया जाएगा.
·         कैश ट्रांसफर के तहत पहली अप्रैल, 2014 से देश भर के करीब 10 करोड़ गरीब परिवारों को 32 हज़ार रुपये सालाना का भुगतान होगा. इस मद में सरकार सालाना तीन लाख बीस हजार करोड़ रुपये खर्च करेगी.
·         केंद्रीय वित्त मंत्री पी चिदंबरम के मुताबिक 51 जिलों का चयन किसी भेदभाव पर नहीं हुआ है, बल्कि जिलों में बैंक शाखाओं की संख्या और राज्य सरकार की अनुशंसा के आधार पर इन जिलों को चुना गया है. जल्द ही यह पूरे देश में लागू होगी.
·         लाभ लेने वाले लोगों का बैंक खाता आधार कॉर्ड के जरिए खोला जाएगा. वित्त मंत्री के मुताबिक आधार कॉर्ड के इस्तेमाल से कोई शख्स एक ही योजना का लाभ दो बार नहीं ले पाएगा.
·         इस योजना को राजस्थान में अनुदानित केरोसीन तेल के भुगतान और कर्नाटक में रसोई गैस की अनुदानित भुगतान की योजनाओं में पहले ही लागू किया जा चुका है.
·         मौजूदा व्यवस्था में बाकी पैसा बिचौलियों की भेंट चढ़ जाती है. इसके अलावा विभिन्न सरकारी योजनाओं का लाभ आम लोगों तक देरी से पहुंचता रहा है. पी चिदंबरम और जयराम रमेश ने उम्मीद जताई है कि इस योजना के लागू होने से दोनों समस्याओं का हल मिल जाएगा.
·         फिलहाल इस स्कीम को मानव संसाधन विकास मंत्रालय, सामाजिक न्याय, अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय, महिला और बाल विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य, श्रम एवं रोजगार मंत्रालय की विभिन्न योजनाओं में इस स्कीम को लागू किया जाएगा.
·         माना जा रहा है कि योजना की सबसे बड़ी खामी ये है कि देश की 120 करोड़ से ज़्यादा की आबादी में महज 21 करोड़ लोगों का आधार कार्ड बना हुआ है. ऐसे में यह योजना हर किसी तक कैसे पहुंचेगी. यह सवाल खड़ा होता है.

 समसामियक  प्रश्न 

डायरेक्ट सब्सिडी मौजूदा सिस्टम से कैसे अलग है? 

मौजूदा सिस्टम में किसी प्रॉडक्ट या सर्विस की कीमत लागत से कम रखकर बेनिफिशरी को सब्सिडी दी जाती है। कैश ट्रांसफर में प्रॉडक्ट की कीमत बाजार के मुताबिक होगी और बेनिफिशरी को छूट के बराबर की रकम डायरेक्ट दी जाएगी।

सब्सिडी के बजाय डायरेक्ट ट्रांसफर कैसे बेहतर है? 
वर्ल्ड बैंक के अनुमान के मुताबिक, 2004-2005 में गरीबों में बांटने के लिए सरकार की तरफ से जारी कुल अनाज का केवल 41 फीसदी ही जरूरतमंदों तक पहुंच पाया था। ठीक इसी तरह, गरीबों में बांटने के लिए जारी केरोसिन तेल का करीब 25 फीसदी ओपन मार्केट में बेचा जाता है। बाजार भाव और सब्सिडी के बाद की कीमतों के अंतर से मुनाफा बनाने के लिए सिस्टम में मौजूद लोग ऐसा काम करते हैं। वहीं, डायरेक्ट कैश ट्रांसफर में प्रॉडक्ट प्राइस के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जा सकती है। इससे सब्सिडी लीकेज को रोका जा सकता है। 
क्या डायरेक्ट कैश ट्रांसफर सब्सिडी का फुलप्रूफ तरीका है? 
डायरेक्ट कैश ट्रांसफर की अपनी खामियां हैं। अगर जरूरतमंदों की पहचान सही तरीके से की जाए तो यूनिवर्सल सब्सिडी प्रोग्राम का रीप्लेसमेंट कामयाब हो सकता है। इसमें इस बात की भी पूरी आशंका है कि जो लोग सब्सिडी पाने लायक नहीं हैं, वे गलत जानकारी देकर या अधिकारियों की मिलीभगत से यह लाभ लेने की कोशिश करेंगे। इसके साथ ही प्रस्तावित कैश ट्रांसफर की कामयाबी के लिए यूनीक आईडेंटिफिकेशन (यूआईडी) नंबर सही तरीके से जारी करना जरूरी है। कैश ट्रांसफर भी समस्या है, क्योंकि देश की आधी आबादी के पास बैंक अकाउंट नहीं है।

कैश ट्रांसफर के पीछे क्या इकॉनमी है? 
जरूरतमंदों को सब्सिडी के बजाय सीधे कैश देने से उनके पास खर्च करने के लिए ज्यादा पैसा होगा। इस पैसे का इस्तेमाल वह अपनी जरूरत की दूसरी चीजें खरीदने में कर सकता है। इकॉनमिक थिअरी के मुताबिक, सरकार परिवारों का कल्याण करके कम खर्च में ज्यादा काम कर सकती है।

कैसे पहुंचेगा 'आपका पैसा आपके हाथ'
वित्त मंत्री पी चिदंबरम के मुताबिक पहली जनवरी 2013 से 'कैश सब्सिडी योजना' लागू की जाएगी यानी विभिन्न मंत्रालयों द्वारा चलाई जाने वाली कल्याणकारी योजनाओं का लाभ सीधे लाभार्थियों के बैंक खातों में हस्तांतरित कर दिया जायेगा.
कैश सब्सिडी योजना को ‘गेम चेंजर’ क़रार देते हुए कहा कि इससे सरकारी सहायता के दुरुपयोग और गलत हाथों में पड़ने का डर नहीं होगा और मदद आसानी से सीधे लाभार्थी तक पहुंचेगी.
 कैश ट्रांसफर के रास्ते की रुकावटें
सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) को खत्म करके नकद सब्सिडी योजना को लागू करना चाहती है। इस योजना के तहत सरकार गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) रहने वाले परिवारों के सदस्य के खातों में सीधे पैसा जमा करवाने की व्यवस्था करेगी। फिलहाल इस योजना को देश के 18 राज्यों के 51 जिलों में 1 जनवरी, 2013 से लागू करने का प्रस्ताव है। तदुपरांत दिसम्बर, 2013 तक पूरे देश में इसे लागू कर दिया जाएगा।
इस योजना का लाभ कमजोर तबके तक पहुँचाने के लिए सभी संबंधित विभाग को इलेक्ट्रॉनिक डायरेक्ट कैश ट्रांसफर सिस्टम से जोड़ा जाएगा। ‘आधार’ को इस योजना का आधार बनाये जाने की योजना है अर्थात ‘आधार’ कार्ड के आधार पर प्रस्तावित योजना का लाभ बीपीएल परिवार के सदस्यों को दिया जाएगा। प्रारंभिक दौर में तकरीबन 21 करोड़ बीपीएल परिवार के सदस्य, इस योजना से लाभान्वित होंगे। आकलन के मुताबिक देश में 40 से 50 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रहे हैं।
पीडीएस के तहत अनाज, खाद, केरोसीन, रसोई गैस इत्यादि सरकार उनके बाजार मूल्य से कम दाम पर बीपीएल परिवार को उपलब्ध करवाती है। इस नई योजना के कार्यान्वित हो जाने के बाद सारा सामान उन्हें बाजार मूल्य पर मिलेगा और इसके बदले उनके बैंक खातों में हर साल तकरीबन 30 से 40 हजार रुपया सब्सिडी के रुप में डाल दिया जाएगा। रसोई गैस के मामले में गरीबी रेखा के ऊपर रहने वालों  को भी नकद सब्सिडी दिया जाएगा। सप्रंग के इस महत्वाकांक्षी योजना पर प्रत्येक साल 4 लाख करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है।
सवाल है कि क्या बैंक इस योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए तैयार है? अधिकांश बीपीएल परिवार के सदस्यों का बैंकों में खाता नहीं है। अशिक्षा व गरीबी के कारण वे बैंकों में अपना खाता खुलवाने की स्थिति में नहीं हैं। बैंक के पास प्रर्याप्त संसाधन भी नहीं है कि वह उनका खाता खोल सके। फिलवक्त बैंकों के पास मानव संसाधन की कमी है। लाभार्थियों का ब्यौरा तैयार करना बैंकों के लिए मुष्किल काम है। शाखाओं के व्यापक पैमाने पर विस्तार की जरुरत है। इसके बरक्स उल्लेखनीय है कि सालों से चल रहे मनरेगा योजना के सभी लाभार्थियों का अभी तक बैंकों में खाता नहीं खुल सका है।
ऋण राहत एवं माफी योजना, 2008 को लागू करने में जिस तरह से बैंक स्तर पर अनियमिताएं बरती गई, सरकार इससे अच्छी तरह से वाकिफ है। ज्ञातव्य है कि इस योजना का लाभ बहुत सारे योग्य ऋणियों को नहीं मिल सका था, वहीं कुछ अपात्र ऋणी योजना का लाभ लेने में सफल रहे थे। आज भी इस योजना के लाभ से वंचित ऋणी या तो सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत या शिकायत कोषांग के मंच पर अपनी फरियाद कर रहे हैं।
समग्र रुप में देखा जाए तो ऐसी गड़बड़ी के लिए मूलतः सरकार जिम्मेदार थी। ज्ञातव्य है कि रिजर्व बैंक अंतिम समय तक इस योजना की शर्तों को तय करने में लगा रहा। कई एक बार संषोधित परिपत्र निकाले गये। ऊहाफोह एवं घालमेल की अवस्था में बैंककर्मियों से अपेक्षा की गई कि वे आनन-फानन में इस योजना को सफलता पूर्वक अमलीजामा पहना देंगे, जबकि लाभार्थियों की सूची तैयार करने के लिए अतिरिक्त प्रषिक्षित मानव संसाधन की जरुरत थी। बैंक के रुटीन कार्यों को करते हुए बैंककर्मियों के लिए लाभार्थियों की सूची तैयार करना संभव नहीं था। फिर भी सरकार ने इस महत्वपूर्ण पहलू पर ध्यान नहीं दिया और न ही स्वतंत्र ऐजेंसी से बैंकों के द्वारा किये गये कार्यों का अंकेक्षण करवाया गया। इस खामी का फायदा भ्रष्ट बैंककर्मियों ने जमकर उठाया और लाभार्थियों की सूची में हेर-फेर कर खूब माल कमाया।
जाहिर है नकद सब्सिडी योजना की सफलता के लिए ग्रामीण इलाकों में बैंक की शाखाओं का होना जरुरी है, जबकि अभी भी ग्रामीण इलाकों में प्रर्याप्त संख्या में बैंकों की शाखाएं नहीं हैं। जहाँ बैंक की शाखा है, वहाँ भी सभी ग्रामीण बैंक से जुड़ नहीं पाये हैं। एक अनुमान के अनुसार भारत की कुल आबादी के अनुपात में 68 प्रतिशत के पास बैंक खाते नहीं है। बीपीएल वर्ग में सिर्फ 18 प्रतिशत के पास ही बैंक खाता है। जागरुकता के अभाव में स्थिति में सुधार आने के आसार कम हैं। भले ही वितीय समावेशन की संकल्पना को साकार करने के लिए बैंकों में कारोबारी प्रतिनिधियों की नियुक्ति की गई थी, लेकिन विगत वर्षों में उनकी भूमिका प्रभावशाली नहीं रही है। 2008 तक बैंकों में मात्र 1.39 करोड़ नो फ्रिल्स खाते खोले जा सके थे। ‘नो फ्रिल्स खाता’ का तात्पर्य षून्य राषि से खाता खोलना है।
इस तरह के खाते खोलने में केवाईसी हेतु लिए जाने वाले दस्तावेजों में रियायत दी जाती है। इस नवोन्मेषी प्रोडक्ट को ग्रामीणों को बैंक से जोड़ने का सबसे महत्वपूर्ण हथियार माना जा रहा है। बावजूद इसके विगत दो-तीन सालों से रिजर्व बैंक के द्वारा लगातार कोषिश करने के बाद भी वितीय संकल्पना को साकार करने के मामले में कोई खास प्रगति नहीं हुई है।
सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के प्रमुखों को 15 दिसम्बर तक 51 जिलों में बीपीएल परिवार के कम से कम एक सदस्य की बैंक में खाते खुलवाने के लिए निर्देश दिया है। सूत्रों के अनुसार बैंकों को मतदाता सूची उपलब्ध करवा दी गई है, लेकिन प्राप्त सूचना के अनुसार निर्धारित अवधि में इस काम को अंजाम नहीं दिया जा सका है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष श्री मोंटेक सिंह आहलूवालिया जल्द ही इस मुद्दे पर 51 जिलों के जिलाधिकारियों के साथ बैठक करने वाले हैं, जिसमें यह विमर्श किया जाएगा कि क्या इस योजना को 1 जनवरी, 2013 से 51 जिलों में षुरु किया जा सकता है ? विमर्श के फलितार्थ के आधार पर ही आगे की कार्रवाई की जाएगी। उपलब्ध जानकारी के अनुसार, उक्त 51 जिलों में ‘आधार कार्ड’ कम बने हैं। इन जिलों के बहुत से हिस्सों में बैंकों की शाखाएं नहीं हैं। हालातनुसार योजना को लागू करने की तिथि को आगे बढ़ाये जाने की प्रबल संभावना है।
पड़ताल से स्पष्ट है कि बैंकों को बुनियादी आवष्यकताओं से लैस किये बिना यह योजना व्यावहारिक नहीं है। व्यावहारिकता पर सवाल उठना इसलिए भी लाजिमी है कि मौजूदा बैंकिंग प्रणाली में अनेकानेक खामियां हैं, जिन्हें दूर किये बिना बहुतेरे समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। बैंक शाखाओं, मानव संसाधन और अन्यान्य संसाधनों की कमी के अलावा बीते सालों में केवाईसी के अनुपालन में लापरवाही बरतने के कारण बैंकों में धोखाधड़ी की वारदातों में इजाफा हुआ है। हवाला के मामले भी बढ़े हैं। आतंकवादियों ने भी बैंकों की इस कमजोरी का फायदा उठाया है। लिहाजा केवाईसी के मुद्दे पर बैंक पूरी तरह से दरियादिली चाहते हुए भी नहीं दिखा सकता है, क्योंकि किसी के माथे पर यह नहीं लिखा होता है कि वह अपराधी है या आंतकवादी। ऐसे में देश में इस तरह की योजना को लागू करने से पहले मजबूत बैंकिंग व्यवस्था बनाने के लिए पहल करना चाहिए।


Prashant Dwivedi






सोमवार, 17 दिसंबर 2012

Capital punishment or the death penalty

Capital punishment or the death penalty is a legal process whereby a person is put to death by the state as a punishment for a crime. The judicial decree that someone be punished in this manner is a death sentence, while the actual process of killing the person is an execution. Crimes that can result in a death penalty are known as capital crimes or capital offences. The term capital originates from the Latin capitalis, literally "regarding the head" (referring to execution by beheading).
Capital punishment has, in the past, been practised by most societies (one notable exception being Kievan Rus); currently 58 nations actively practise it, and 97 countries have abolished it (the remainder have not used it for 10 years or allow it only in exceptional circumstances such as wartime). It is a matter of active controversy in various countries and states, and positions can vary within a single political ideology or cultural region. In the European Union member states, Article 2 of the Charter of Fundamental Rights of the European Union prohibits the use of capital punishment.
Currently, Amnesty International considers most countries abolitionist. The UN General Assembly has adopted, in 2007, 2008 and 2010, non-binding resolutions calling for a global moratorium on executions, with a view to eventual abolition. Although many nations have abolished capital punishment, over 60% of the world's population live in countries where executions take place, such as the People's Republic of China, India, the United States of America and Indonesia, the four most-populous countries in the world, which continue to apply the death penalty (although in India, Indonesia and in many US states it is rarely employed). Each of these four nations voted against the General Assembly resolutions.
In early New England, public executions were a very solemn and sorrowful occasion, sometimes attended by large crowds, who also listened to a Gospel message and remarks by local preachers and politicians. The Connecticut Courant records one such public execution on 1 December 1803, saying, "The assembly conducted through the whole in a very orderly and solemn manner, so much so, as to occasion an observing gentleman acquainted with other countries as well as this, to say that such an assembly, so decent and solemn, could not be collected anywhere but in New England."
Trends in most of the world have long been to move to less painful, or more humane, executions. France developed the guillotine for this reason in the final years of the 18th century, while Britain banned drawing and quartering in the early 19th century. Hanging by turning the victim off a ladder or by kicking a stool or a bucket, which causes death by suffocation, was replaced by long drop "hanging" where the subject is dropped a longer distance to dislocate the neck and sever the spinal cord. Shah of Persia introduced throat-cutting and blowing from a gun as quick and painless alternatives to more tormentous methods of executions used at that time. In the U.S., the electric chair and the gas chamber were introduced as more humane alternatives to hanging, but have been almost entirely superseded by lethal injection, which in turn has been criticised as being too painful. Nevertheless, some countries still employ slow hanging methods, beheading by sword and even stoning, although the latter is rarely employed.
The following methods of execution permitted for use:
·         Beheading (Saudi Arabia, Qatar)
·         Electric chair (Alabama, Tennessee, Virginia, South Carolina, Florida, Oklahoma and Kentucky in the USA)
·         Gas chamber (California, Missouri and Arizona in the USA)
·         Hanging (Afghanistan, Iran, Iraq, Japan, Mongolia, Malaysia, Pakistan, Palestinian National Authority, Lebanon, Yemen, Egypt, India, Burma, Singapore, Sri Lanka, Syria, Zimbabwe, South Korea, Malawi, Liberia, Chad, Washington in the USA)
·         Lethal injection (Guatemala, Thailand, the People's Republic of China, Vietnam, all states in the USA that are using capital punishment)
·         Shooting (the People's Republic of China, Republic of China, Vietnam, Belarus, Lebanon, Cuba, Grenada, North Korea, Indonesia)

Though the awarding of capital punishment, specially for murder, is according to age-old, tradition, in recent times there has been much hue and cry against it. It has been said that capital punishment is brutal, that it is according to the law of jungle - "an eye for an eye", and tooth for a tooth". It is pointed out that there can be no more place for it in a civilized country. Moreover, judges are not infallible and there are instances where innocent people have been sent to the gallows owing to some error of judgment.

Capital punishment is nothing but judicial murder, it is said, specially when an innocent life is destroyed. Besides this, capital punishment, as is generally supposed, is not deterrent. Murders and other heinous crimes have continued unabated, inspite of it. The result of such views has been that in recent years there has been an increasing tendency in western countries to award life imprisonment instead of capital punishment. Muslims countries, generally speaking, continue to be more serve in this respect.

Despite frequent demands from all society Indian has not so far abolished capital punishment. But even in India there has been a decline in the frequency of such punishment. It is now awarded only in cases of hardened criminals and only when it is established that the murder was not the result of a momentary impulse, the result of serious provocation, but well-planned and cold-blooded. In such cases, it is felt that nothing less than capital punishment would meet the ends of justice, that it is just and proper that such pests of society are eliminated. Those who indulge in anti-social and sternest possible measures should be taken against them, specially when they are habitual offenders.

It is, therefore, in the fitness of things that India has not so far abolished capital punishment but used it more judiciously. Sociologist are of the view that capital punishment serves no useful purpose. A murderer deprives the family of the murdered person of its bread-winner. By sending the criminals to gallows, we in no way help or provide relief to the family of the murdered. Rather, we deprive another family of its bread-winner. The sociologists, therefore, suggest that the murderer should be sentenced for life to work and support the family of murdered person as well as his own. In this way, innocent women and children would be saved from much suffering, hunger and starvation. Moreover, such measures would provide the criminals with an opportunity to reform himself. He would be under strict watch and if his conduct is satisfactory, he may be allowed to return to society as a useful member of it.

There is much truth is such views, and they must be given due weightage before a decision is taken to abolish or retain capital punishment. But Capital punishment should be continue for those who commit rare of the rarest crimes such as child rape, group rape, terrorism and etc.

रविवार, 16 दिसंबर 2012

Female foeticide


It has been six long decades since India gained independence but many Indians are still trapped in age-old traditional beliefs. Here, ‘old beliefs’ imply the mindset of people who still find themselves in the trap of girl-boy inequality. The ‘liberal’ Indian society has failed to transform the other orthodox India. No doubt India is advancing at a fast pace in the field of science and technology, and also in aping of the western culture, but if we look at the grass root level, the picture is not so rosy; it is rather a dark, especially when it comes to how we treat the fairer sex.

The status of females in India aptly symbolizes India’s status of being a developing nation – miles away from becoming a developed state. Of course, India deserves to be in this list because here, in this 21st century, the girl child continues to be murdered before she is born. Female foeticide is still prevalent in the Indian society, in fact, it has been a practice for hundreds of years.

Narrow-minded people do not mind murdering their unborn daughters for the fear of giving huge amounts of dowry at the time of her marriage. Such people, whenever they discover they are going to have a girl child (through illegal sex selection tests), get the foetus aborted. Else they would continue to reproduce till they get a male heir. When price rise is already taking a toll on the standard of living, is it necessary to go in for more than two children irrespective of their gender?

Many families put pressure on women to give birth to boy so that he can take family’s name forward, light the funeral pyre and be the bread earner of the family. But these days, are girls less competent than boys? Just look at the results of Board exams or any other competitive exams, girls mostly outshine boys. Women empowerment has led to inundation of females excelling in the corporate world, engineering and medical professions.

Sadly, there have been numerous incidents of the foetus being found lying in farms, floating in rivers, wrapped up in jute bags etc. India’s major social problem is the intentional killing of the girl child. The struggle for a girl child starts the day her existence is known in her mother’s womb. The fear and struggle to survive swallow most of the girl’s life even if she is ‘allowed’ to live in this cruel world.

In India, the girl child is considered a burden as huge amounts of money, gold and other items need to be given in the form of dowry when she gets married. Dowry is not the only reason for poor couple to abort their girl child. The ages old traditions, customs and beliefs of the Indian society are largely responsible for creating a negative mindset among the couples. More shocking is the fact that the sinful crime of female foeticide is not only common in rural areas where social discrimination against women, lack of proper education etc. can be considered as reasons behind carrying out such acts, but also the ultra modern, so-called ‘educated’ people living in urban areas and metropolitan cities who are a step ahead in killing the girl child in the womb.

The truth behind this crime has been brought into light several times by the print and electronic media. But, it has failed to melt the hearts and minds of those who remain unaffected by the consequences of the grave sin they are committing.

The matter was discussed in length and breadth in the inaugural episode of the show ‘Satyamave Jayate’ anchored by Bollywood actor Aamir Khan. The show has once again ignited the spirited discussion on the female foeticide in the country. That episode had mothers from different parts of rural and urban India talking about the pressure and the problems they faced for delivering a girl child. Although the show is doing really well and has already garnered positive reviews from the audiences, we will have to wait and see whether the impact will remain even after the programme stops beaming into our drawing rooms every Sunday. The emotional connect which the show has successfully created should be strong enough to stop the killing of the girl child before being born.

If we look at the figures of sex ratio in India, according to the 2011 Census, the number of girls stands at 940 which is a marginal increase from 933 in 2001. Not surprisingly, Haryana has the lowest sex ratio among the states while Kerala remains at the top with the highest sex ratio. In the national capital Delhi, the statistics stand at 821 girls against 1000 boys in 2001 compared to 866 in 2011.

According to the statistics, nearly 10 million female foetuses have been aborted in the country over the past two decades. Of the 12 million girls born in India, one million do not see their first birthdays.

As a result, human trafficking has become common in various states of India where teenage girls are being sold for cheap money by poor families. The girls are treated as sex objects and more than half of such cases go unreported.

The United Nations’ World Population Fund indicated that India has one of the highest sex imbalances in the world. Not surprisingly, demographers warn that there will be a shortage of brides in the next 20 years because of the adverse juvenile sex ratio, combined with an overall decline in fertility.
With the advent of technology, ultrasound techniques gained widespread use in India during the 1990s. It resulted in the foetal sex determination and sex selective abortion by medical professionals. Recently, incidences of female foeticide were reported from Beed district in Maharashtra where women used to come to a doctor’s clinic to get their female child aborted for Rs 2000. Just think for a moment about the doctor’s connivance in this illegal act. Doctors, whose aim is to save the lives of people, happily kill the foetus for a meagre two thousand bucks! And more heart wrenching is the fact that the aborted foetuses were very often fed to dogs.

The above mentioned case is not the only one of such heart wrenching heinous crimes. There are thousands of such clinics where illegal activities are carried out on a daily basis and in some cases, in connivance with politicians and police men.

The life transition from a female foetus to a school going girl to a caring woman is never an easy task for the fairer sex. She has to face challenges at every step of her life. Daily, there is news related to rape, sexual harassment, molestation, verbal abuse, torture, exploitation. She has to fight against gender indiscrimination, inequality, and hundreds of social norms are tagged with her the day she puts her steps outside her home.

In most of the cases, women abort their female child involuntarily when they succumb to family pressures. The in-laws’ illogical demand/ desire for a boy preference makes the life of women hell. Sometimes, she is left by her husband if she is unable to give birth to a child and worse happens when she conceives a girl child.

Ironically, it all happens in a country where the girl is seen as an incarnation of Goddess ‘Laxmi’. True, many families are out of bounds in joy when a girl child is born in their family. They think she will bring luck, harmony, happiness and peace in their family. They even touch her feet to seek her blessings. Many childless couples even adopt a girl child irrespective of the worries of her future (mainly marriage).

In such a grim scenario, it’s really difficult to digest the harsh reality of the differences between a boy and a girl. India has a deeply rooted patriarchal attitude to which even the doctors and the women, who in spite of being the victims, unthinkingly subscribe. There is an urgent need of undoing the historical and traditional wrongs of a gendered society; only then the hope of abolition of female infanticide and boy preference can positively adjust the figures in favour of the girl child in future. The skewed sex ratio has to find a balance in order to maintain the progress of the country.

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

नक्सलवाद


नक्सलवाद जो आज 14 राज्यों के 2500 से अधिक थानों में फैल चुका है अथवा ऐसा भी कह सकते हैं कि भारत के 626 जिलों में से 231 जिले इस आंदोलन की गिरफ्त में हैं। नक्सली आंदोलन मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, उड़ीसा, बिहार और झारखण्ड में भी सक्रिय है जहां हिंसा की छोटी बड़ी घटनाएं होती ही रहती हैं। नक्सलवादी मारने, अगवा करने अपहरण करने, पैसा ऐठने, बम व विस्फोटक सामग्री इस्तेमाल करने और सम्पत्ति नष्ट करने के कार्यक्रमों में तल्लीन हैं। पीपल्स वार गु्रप और माओइस्ट कम्युनिस्ट सेन्टर ही 700 करोड़ रूपया इस तरह इकट्ठा कर लेते हैं।
दलितों और आदिवासियों में असंतोष फैलाना तथा उनकी मार्फत सत्ता पर कब्जा करना इनका मुख्य उद्देश्य रहा है और है। इस तरह के कुछ 39-40 गु्रप हैं। अनुमान है कि इनके पास 1000 एके॰ 14 राइफल, 200 से अधिक हल्की मशीनगनें, 100 ग्रेनेड फायरिंग राइफल्स, हजारों 303 राइफल्स और अनेक आधुनिक हथियारों के साथ ही टनों विस्फोटक सामग्री है। जनता में इनके बारे में विस्तृत जानकारी देने में सरकार तथा मीडिया दोनों ही असफल रहे हैं। वैसे इनके बारे में शोध बहुत कम हुआ है। शोध से इनके प्रति नीति-निर्धारण में दिशा मिलती है।
सरकार (केन्द्र सरकार और राज्य सरकार) द्वारा समुचित ध्यान न देने के कारण तथा मीडिया द्वारा मामले को न समझने के कारण झारखण्ड और छत्तीसगढ़ में हालात बहुत बिगड़ गये। आंध्र प्रदेश में कुछ सुधार हुआ तो पश्चिमी बंगाल भी इनकी चपेट में आ गया। अर्द्ध सैनिक बल हों या पुलिस या निर्दोष रेल यात्राी, नक्सलवादियों के हौसले खूब बुलन्द हो गये कि उन्होंने देश के एक बड़े भू-भाग पर अपना वास्तविक कब्जा कर लिया।
तथ्य चैंकाने वाले थे और मौतें दिल दहलाने वाली। तब जाकर भारत सरकार कुछ जागी और समन्वय के लिए कमान्ड बनाने का तय किया गया। इस समन्वय करने वाली कमान्ड पर भी राजनीति चल रही है और इसके सफल होने के अवसरों को कम कर रही है।
नक्सली लोकतंत्रा पर विश्वास नहीं करते। हिंसा के द्वारा वे सत्ता पर आधिपत्य करना चाहते हैं। उनके हौंसले बुलन्द हैं, खासतौर पर आंध्र प्रदेश में जहां वे एक समानान्तर सरकार चला रहे हैं। समानान्तर सरकार चलाना उनकी उद्देश्य पूर्ति का एक अभिन्न अंग है। इसके लिए वे कोई हत्या करने या कोई गठबन्धन करने से पहरेज नहीं रखते। उनके भाषणों या प्रस्तावों में धोखे छिपे रहते हैं। उन्हें बातचीत के लिए केवल मजबूर ही किया जा सकता है।
प्रधानमंत्राी डा॰ मनमोहन सिंह ने आंध्र प्रदेश में जाकर नक्सलियों को चुनाव में भाग लेने की सलाह दी थी। सलाह प्रासंगिक थी जिसे नक्सली नहीं माने, न कभी मानेंगे और यदि मानेंगे तो यह अपना प्रभाव बढ़ाकर किसी विशेष भू-भाग या क्षेत्रा पर अपना कब्जा करने की रणनीति ा एक भाग होगा। इतिहास साक्षी है कि उन्होंने इस समय का प्रयोग अपनी स्थिति सुधारने, अपनी जड़ें गहरी करने के लिए ही किया है। हिंसा और शान्ति दो परस्पर विरोधी धारणायें और विश्वास हैं।
सही बात यह है कि इस समस्या पर गंभीर विचार-विमर्श और चिन्तन किया ही नहीं गया है इसीलिए भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए यह एक बड़ा खतरा बन गया है। इन नक्सलियों के नेपाल के माओवादियों, लिट्टे और उल्फा जैसे संगठनों से रिश्ते हैं। भारत में भी नक्सलवादी कई नामों से अलग-अलग क्षेत्रों में सक्रिय हैं।
भारत बाहरी तत्वों से पोषित राज्य प्रतिरोध और आतंकवाद का पिछले 41 वर्षों से शिकारगाह रहा है। इस समस्या की वजह से भारत में करीब 15,000 सैनिक व 55,000 नागरिक मारे गये हैं। पड़ोसी देश अपने वायदों पर अमल नहीं कर रहे हैं और भारत का सैनिक, अर्धसैनिक खर्चा इन्हें दबाने में बढ़ता ही जा रहा है पर समस्या सुलझने के आस-पास भी नहीं है।
स्वतंत्राता के तुरन्त बाद से ही हमारी सीमाओं में पड़ोस के देशों ने अवैध घुसपैठ की है और सीमा पार का आतंकवाद फैलाया है, हथियारों की तस्करी की है, विस्फोटक सामग्री भेजी है, जाली नोट भेजे हैं और नारकोटिक व्यापार को बढ़ाया है। इनका सर अभी नहीं कुचला गया तो ये भारतीय लोकतंत्रा के लिए सबसे बड़ा खबरा साबित होंगे। चीन से खदेड़े जाने के बाद भारत ही इनका प्रमुख केन्द्र बन गया है।

Euthanasia, इच्छा-मृत्यु या मर्सी किलिंग


Euthanasia मूलतः ग्रीक (यूनानी) शब्द है. जिसका अर्थ Eu=अच्छी, Thanatos= मृत्यु होता है.यूथेनेसिया, इच्छा-मृत्यु या मर्सी किलिंग (दया मृत्यु) पर दुनियाभर में बहस जारी है. इस मुद्दे से क़ानूनी के अलावा मेडिकल और सामाजिक पहलू भी जुड़े हुए हैं. यह पेचीदा और संवेदनशील मुद्दा माना जाता है. दुनियाभर में इच्छा-मृत्यु की इजाज़त देने की मांग बढ़ी है. मेडिकल साइंस में इच्छा-मृत्यु यानी किसी की मदद से आत्महत्या और सहज मृत्यु या बिना कष्ट के मरने के व्यापक अर्थ हैं. क्लिनिकल दशाओं के मुताबिक़ इसे परिभाषित किया जाता है.
voluntary (स्वैच्छिक) एक्टिव यूथेनेसिया : मरीज़ की मंज़ूरी के बाद जानबूझकर ऐसी दवाइयां देना जिससे मरीज़ की मौत हो जाए. यह केवल नीदरलैंड और बेल्जियम में वैध है.
involuntary एक्टिव यूथेनेसिया: मरीज़ मानसिक तौर पर अपनी मौत की मंज़ूरी देने में असमर्थ हो तब उसे मारने के लिए इरादतन दवाइयां देना. यह भी पूरी दुनिया में ग़ैरक़ानूनी है.
Passive यूथेनेसिया: मरीज़ की मृत्यु के लिए इलाज बंद करना या जीवनरक्षक प्रणालियों को हटाना. इसे पूरी दुनिया में क़ानूनी माना जाता है. यह तरीक़ा कम विवादास्पद है.
Active यूथेनेसिया: अफ़ीम से बनने वाली या कुछ अन्य दवाइयां देना ताक़ि मरीज़ को राहत मिले लेकिन बाद में उसकी मौत हो जाए. यह तरीक़ा भी दुनिया के कुछ देशों में वैध माना जाता है.
Assisted Suicide आत्महत्या के लिए मदद: पहले हुई सहमति के आधार पर डॉक्टर मरीज़ को ऐसी दवाइयां देता है जिन्हें खाकर आत्महत्या की जा सकती है. यह तरीक़ा नीदरलैंड, बेल्जियम, स्विट्ज़रलैंड और अमेरिका के ओरेगन राज्य में वैद्य है.
क्या कहता है भारतीय क़ानून :
भारत में इच्छा-मृत्यु और दया मृत्यु दोनों ही अवैधानिक कृत्य हैं क्योंकि मृत्यु का प्रयास, जो इच्छा के कार्यावयन के बाद ही होगा, वह भारतीय दंड विधान (आईपीसी) की धारा 309 के अंतर्गत आत्महत्या (suicide) का अपराध है.
इसी प्रकार दया मृत्यु, जो भले ही मानवीय भावना से प्रेरित हो एवं पीड़ित व्यक्ति की असहनीय पीड़ा को कम करने के लिए की जाना हो, वह भी भारतीय दंड विधान (आईपीसी) की धारा 304 के अंतर्गत सदोष हत्या (culpable homicide) का अपराध माना जाता है.
•जीने का अधिकार है तो मरने का क्यों नहीं?
पी. रथीनम् बनाम भारत संघ (1984) के मामले में भारतीय दंड संहिता की धारा 309 की संवैधानिकता पर इस आधार पर आक्षेप किया गया था कि यह धारा संविधान के अनुच्छेद 21 का अतिक्रमण है. यानी जीने का अधिकार है तो मरने का भी अधिकार होना चाहिए. लेकिन 1996 में उच्चतम न्यायालय ने ज्ञानकौर बनाम पंजाब राज्य के मामले में उक्त निर्णय को उलट दिया और साफ़ किया कि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत 'जीवन के अधिकार' में मृत्युवरण का अधिकार शामिल नहीं है. अतः धारा 306 और 309 संवैधानिक और मान्य हैं.
यूथेनेसिया के पक्ष में तर्क:
यूथेनेसिया आज विश्व में चर्चित विषय है. यह मृत्यु के अधिकार पर केंद्रित है. यूथेनेसिया समर्थक इसके लिए 'सम्मानजनक मौत' की दलील देकर ऐसे व्यक्ति को मृत्यु का अधिकार देने के पक्ष में हैं, जो पीड़ाजनक असाध्य रोगों से पीड़ित है अथवा नाममात्र को ज़िंदा है. भारतीय विधि आयोग (Law Commission) ने पिछले साल संसद को सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में दया मृत्यु (mercy killing) को क़ानूनी जामा पहनाने की सिफ़ारिश की है. हालांकि आयोग ने यह माना है कि इस पर लंबी बहस की गुंज़ाइश अभी बाक़ी है और निकट भविष्य में इसे मंज़ूरी देने की कोई संभावना नज़र नहीं आती.
•1995 ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी राज्य में यूथेनेसिया बिल को मंज़ूरी दी गई.
•1994 में अमेरिकी के ओरेगन राज्य में यूथेनेसिया को मान्यता दी गई.
•अप्रैल 2002 में नीदरलैंड (हॉलैंड) में यूथेनेसिया को विशेष दशा में वैधानिक क़रार दिया गया.
•सितम्बर 2002 में बेल्जियम ने इसे मान्यता दी.
•1937 से स्विट्ज़रलैंड में डॉक्टरी मदद से आत्महत्या को मज़ूरी है.
अन्य देशों में कानून:
आमतौर पर दया मृत्यु के दो स्वरूप नजर आते है। कुछ परिस्थितियों में रोगी की तकलीफ के मद्देनजर चिकित्सक स्वयं औषधि देकर रोगी को मृत्यु पाने में मदद करते है। वहीं एक स्थिति यह भी नजर आती है जब लाइफ सपोर्ट सिस्टम अथवा फीडिंग ट्यूब्स के सहारे जीवित रखे गए व्यक्ति से वह सपोर्ट सिस्टम हटा लिया जाता है। दया मृत्यु के पक्ष में मत व्यक्त करने वालों का तर्क है कि व्यक्ति के शरीर पर उसका अधिकार है। यदि बीमारी के कारण व्यक्ति का दर्द सहनशक्ति की सीमा से ऊपर जा चुका है, तो उस व्यक्ति को इच्छा मृत्यु के जरिए दर्द से मुक्ति पाने का अधिकार प्रदान किया जाना चाहिए। अगर व्यक्ति स्वयं मौत को गले नहीं लगा सकता, तो अन्य लोगों को उसकी मदद करनी चाहिए। उधर दया मृत्यु का विरोध करने वालों का कहना है कि जीवन ईश्वर की देन है, इसलिए इसे वापस लेने का हक भी सिर्फ उसे है। वहीं दया मृत्यु के विरोध में एक तर्कयह भी है कि दया मृत्यु को कानूनी मान्यता सुनिश्चित करने पर इसके दुरुपयोग मामले बढ़ जाएंगे। बीमार व्यक्ति को दया मृत्यु के जरिए कष्टमय जीवन से मुक्ति देने के विषय में दुनिया के अनेक देशों ने कानून सुनिश्चित किए है।
नीदरलैंड्स
वर्ष 2002 में नीदरलैंड्स चिकित्सीय संदर्भ में मृत्यु का अधिकार प्रदान करने वाला प्रथम यूरोपीय देश बना। यहां सिर्फ असहनीय दर्द से पीड़ित रोगियों को इच्छा मृत्यु प्रदान करने की अनुमति है। प्रत्येक मामले में चिकित्सकों की सेकंड ओपीनियन लेना आवश्यक है। वर्तमान में नीदरलैंड्स में देरी में गर्भपात एवं नवजात शिशुओं को चिकित्सीय कारणों से दया मृत्यु प्रदान करना गैरकानूनी है।
बेल्जियम एवं लक्जमबर्ग
नीदरलैंड्स के उपरांत बेल्जियम दया मृत्यु को कानूनी तौर पर अनुमति प्रदान करने वाला दूसरा यूरोपीय देश है। लक्जमबर्ग में रोमन कैथोलिक संप्रदाय के अनुयायियों की संख्या सर्वाधिक है। रोमन कैथोलिक चर्च दया मृत्यु प्रदान करने के विरोध में है। इसके साथ ही लक्जमबर्ग के चिकित्सकों ने भी दया मृत्यु के विरोध में मत प्रकट किया था, किन्तु व्यापक बहस के बाद लक्जमबर्ग में दया मृत्यु को कानूनी अनुमति प्रदान कर दी गई।
स्विट्जरलैंड
किसी की सहायता से आत्महत्या स्विट्जरलैंड में गैरकानूनी नहीं है। इसके लिए चिकित्सक की मौजूदगी भी अनिवार्य नहीं है। यही वजह है कि दर्द एवं तकलीफ से पीड़ित हजारों लोग आत्महत्या के लिए स्विट्जरलैंड पहुंचते है। यहां असहनीय दर्द से पीड़ित आत्महत्या के इच्छुक व्यक्ति को बारबेट्युरि अम्ल की खुराक दी जाती है। स्विट्जरलैंड के कानून के मुताबिक यदि कोई व्यक्ति निजी स्वार्थ के कारण किसी अन्य व्यक्ति को आत्महत्या करने में मदद करता है, तो उसके खिलाफ मुकदमा चलाया जा सकता है।
स्वीडन
यहां कृत्रिम रूप से जीवित रखे गए रोगी के अनुरोध पर चिकित्सक उसका लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटा सकते है। स्वीडिश सोसाइटी ऑफ मेडिसिन के अनुसार यदि रोगी सभी परिस्थितियों को जानते हुए निर्णय लेने की क्षमता रखता है, तो चिकित्सकों को रोगी की इच्छा का सम्मान करना चाहिए।
अमेरिका
यहां दया मृत्यु गैरकानूनी है, किन्तु रोगी को अपनी इच्छा से मेडिकल ट्रीटमेंट समाप्त करने का अधिकार है। रोगी दर्द से छुटकारा पाने के लिए चिकित्सक से ऐसी दवाएं देने की भी गुजारिश कर सकता है, जिससे उसकी जल्द मौत होने की आशंका उत्पन्न होती हो।
फ्रांस
फ्रांसीसी कानून के अंतर्गत डाक्टरों को यह सलाह दी गई है कि वे ब्रेन डेड रोगियों को कृत्रिम रूप से जीवत रखने का प्रयास न करे। इसके बावजूद दया मृत्यु गैरकानूनी है। रोगी के अनुरोध पर भी डाक्टरों को उसे दया मृत्यु देने का अधिकार नहीं है।
इटली
यहां दया मृत्यु प्रदान करने की कानूनी तौर पर अनुमति नहीं है, किन्तु रोगी मेडिकल ट्रीटमेंट अस्वीकार करने के लिए स्वतंत्र है। इसके अतिरिक्त रोगी को इस बाबत अग्रिम निर्देश देने का अधिकार नहीं है, कि बीमारी के कारण अचेतन अवस्था में पहुंचने पर उसे किस प्रकार का ट्रीटमेंट दिया जाना चाहिए।

भारत
विशेष परिस्थितियों में लंबे समय से दर्द से पीड़ित रोगियों को उनके अनुरोध पर दया मृत्यु देने के संबंध में कानून बनाने पर भारत में विचार किया जा रहा है।
भारत मे इच्छा-मृत्यु, समाधि और संथारा:
यूथेनेज़िया, आत्महत्या और संथारे में भेद को समझने के लिए हमें पहले मृत्यु के भेद को वर्गीकृत कर समझना होगा. मनुष्य की मृत्यु के चार मार्ग हैं:
1.प्रकृति द्वारा मारा जाना (दुर्घटना, बीमारी)
2.दूसरों द्वारा मारा जाना और (हत्या या हत्या का दुष्प्रेरण)
3.अपने आप को मार देना. (आत्महत्या, इच्छा मृत्यु)
4.यूथेनेसिया –पाश्चात्य प्रक्रिया (असाध्य बीमारी की दशा मे चिकित्सकों द्वारा दी गई मौत या दया मृत्यु)
भारत में इच्छा-मृत्यु के कई उदाहरण हैं – महाभारत के दौरान महान योद्धा भीष्म पितामह को इच्छा-मृत्यु का वरदान प्राप्त था. वे शर-शैया पर तब तक लेटे रहे. जब तक सूर्य उत्तरायण नहीं हो गया.
सीता जी ने धरती की दरार में कूदकर अपनी जान दे दी थी, श्री राम और लक्ष्मण जी ने सरयू नदी में जलसमाधि ली थी, स्वामी विवेकानन्द ने स्वेच्छा से योगसमाधि की विधि से प्राण त्यागे थे। पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने भी अपनी मृत्यु की तारीख और समय कई वर्ष पूर्व ही निश्चित कर लिया था।
आचार्य विनोबा भावे ने अपने अंतिम दिनों में इच्छा-मृत्यु का वरण किया जब उन्होंने स्वयं पानी लेने तक का त्याग कर दिया था. इंदिरा गांधी उन्हें देखने के लिए गईं थीं. तब वहां मौजूद पत्रकारों की यह मांग ठुकरा दी गई थी कि भावे जी को अस्पताल में दाख़िला किया जाए.
जैन मुनियों और जैन धर्मावलंबियों में संथारा की प्रथा भी इच्छा मृत्यु का ही एक प्रकार है. जो बरसों से प्रचलित है. हाल ही मे जयपुर की महिला विमला देवी जी के संथारे लेने पर समाज में इस पर लंबी बहस खिंची थी.
यूथनेसिया का प्रतिरोध:
•अमेरिका में एक डॉक्टर जेक क्रनोरनियन को तक़रीबन 130 व्यक्तियों को कई बरसों के अंतराल में ज़हर देकर मौत देने के आरोप में दोषी पाया गया और दूसरे दर्ज़े की हत्या की सज़ा दी गई.
•अमेरिका में ही डोनाल्ड हरबर्ट नामक एक फ़ायर-फ़ाइटर का प्रकरण सामने आया है जो पिछले दस साल तक कोमा में था लेकिन अचानक ही उसे होश आ गया.
•फ्रांस के एक 22 वर्षीय फ़ायर-फ़ाइटर विन्सेंट हम्बर्ट को उसकी मां ने जानबूझकर नींद का इंजेक्शन ओवरडोज़ दे दिया था. जिससे उसकी मौत हो गई थी. बाद में डॉक्टरों की टीम ने मामले में यह कहकर मोड़ ला दिया कि काउंसिल की मंज़ूरी के बाद उन्होंने ही हम्बर्ट की जीवनरक्षक प्रणाली हटा ली थी.
•इस तरह के प्रकरणों से इस संभावना को बल मिलता है कि ऐसे व्यक्ति ज़िंदा भी हो सकते हैं. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत में किडनी आदि के प्रत्यारोपण को लेकर जिस तरह क़ानून की आड़ में अवैध धंधा किया जाता है, उसी तरह यूथेनेसिया और मृत्यु के अधिकार का भी बेजा इस्तेमाल हो सकता है.
•चिकित्सकीय नीतिशास्त्र (medical ethics) में अपेक्षित है डॉक्टर मरीज़ को तब तक जीवित रखने की कोशिश करें जब तक संभव है.
•'जीवेम् शरदः शतम्' के ध्येय वाली भारतीय मनीषा तथा संस्कृति मे प्रत्येक दशा में जीवन रक्षा करने का आदेश समाहित है. जिंदगी से पलायन वर्जित माना जाता है.

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