मंगलवार, 11 मार्च 2014

सुरक्षित भंडारण की कमी से खाद्यान्न की बर्बादी

गत सप्ताह हुई बेमौसम बारिश ओलावृष्टि  से देश भर में करोड़ों रुपए की खेतों में खड़ी गेहूं, चना, तुवर, मूंग, तिवरा, सरसों आदि रबी सलों का नकुसान हुआ है। इसके अलावा मिर्ची, आलू, टमाटर, के साथ ही  पपीता तथा बौराए आम की उद्यानिकी सलों के नुकसान के समाचार हैं। चूंकि अभी तक खेतों में खड़ी पकने वाली फसलों की सुरक्षा की कोई तकनीक विकसित नहीं की जा सकी है इसलिए कृषि उत्पादन में होने वाली क्षति को रोक पाना संभव नहीं हो पाता है।  किसान के नुकसान की भरपाई राहत के रूप में केवल मुआवजा देकर की  जाती है। लोकसभा चुनावों को देखते हुए सभी राय सरकारें किसानों को राहत देने  में तत्परता दिखा रही हैं यह इसलिए भी किसान बहुत बड़ा वोट बैंक है। सबसे अधिक राजनैतिक सक्रियता मध्यप्रदेश में राय सरकार ने दिखाई है जहां  मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान केन्द्र सरकार से 5000 करोड़ की तत्काल राहत पैकेज की मांग को लेकर अपने  पूरे  मंत्रिमंडल के साथ एक दिन के लिए धरना-उपवास पर बैठे रहे   गनीमत यह रही कि अन्य रायों के मुख्यमंत्रियों ने मध्यप्रदेश के धरना उपवास का अनुसरण नहीं किया, अन्यथा सारे देश के मुख्यमंत्रीगण धरने पर बैठे रहते। 

दूसरी ओर, इस बेमौसम बारिश के कारण छत्तीसगढ़, ओडिशा कुछ अन्य धान उत्पादक रायों में किसानों से खरीद के बाद सहकारी समितियों एवं धान संग्रहण केन्द्रों में खुले आसमान बोरियों में रखा गया लाखों टन धान पानी में भीगने के कारण खराब होने का समाचार है।  छत्तीसगढ़ में 2013 में  धान की बम्पर सल हुई थी, इसलिए राय सरकार द्वारा सहकारी समितियों के माध्यम से किसानों से समर्थन मूल्य पर अभी तक की सबसे अधिक 79.68 लाख टन धान खरीदी की गई थी।  हर स्तर पर लचर व्यवस्था के कारण सहकारी समितियों द्वारा खरीदा गया समस्त  धानसंग्रहण केन्द्रों तक नहीं पहुंच पाया तथा चावल मिलों द्वारा धान के उठाव में विलम्ब के कारण धान की बोरियां  बड़ी मात्रा में संग्रहण केन्द्रों में ही खुले आसमान में भीगती रही। बताया जाता है कि छत्तीसगढ़ में आज भी 35 लाख टन धान की बोरियां उचित भंडारण के अभाव में खुले में पड़ी हैं

भारत में 2013 में गेहूं की बम्पर सल हुई थी, किन्तु अनेक रायों में गोदामों की कमी के कारण गेहूं  की बोरियां खुले  प्रांगण में  रखी गई थी तथा मानसून की बारिश समय पर होने के कारण किसानों से समर्थन मूल्य पर खरीदा लाखों टन गेहूं खराब हो गया था। यह केवल इसी साल की बात नहीं हैहर साल सुरक्षित भंडारण सुविधाओं के अभाव में लाखों टन खाद्यान्न मौसम तथा बेमौसम बारिश के कारण खराब हो जाता है। पिछले साल ही खाद्यान्न सड़ने की जानकारी सर्वोच्च न्यायालय को मिलने के बाद वह केन्द्र सरकार को टकार लगाते हुए कह चुका है कि अनाज सड़ाने की बजाय उसे जरूरतमन्द लोगों में बांट देना चाहिए

कुल मिलाकर बारिश के पानी से खाद्यान्न खराब होने की समस्या सुरक्षित भंडारण तथा उचित रख रखाव की समस्या है 2012 में किए गए एक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन के अनुसार भारत में उचित सुरक्षित भंडारण तथा अन्य अधोसंरचना के अभाव में हर साल 210 लाख टन गेहूं बेकार चला जाता है जो आस्ट्रलिया के कुल गेहूं उत्पादन के बराबर है यह दु: की बात है कि  एक ओर तो क्रयशक्ति के अभाव में गरीबों को पर्याप्त भोजन नहीं मिल पाता है, तो दूसरी ओर लाखों टन अनाज सड़ जाता है या चूहों की भेंट चढ़ जाता है   भारत में सरकारी क्षेत्र में खाद्य भंडारण क्षमता सदैव ही जरूरत से कम रही है भारतीय खाद्य निगम के पास केवल 340 लाख टन की भंडारण क्षमता है जिसमें इसके प्रांगणों में खुले रखे जाने वाले 35 लाख टन खाद्याान्नों की भंडारण क्षमता भी सम्मिलित है। इस प्रकार इस खुले में रखे जाने वाले 35 लाख टन खाद्यान्न पर सदैव ही ओले बरसाती पानी का खतरा मंडराता रहता है। भारतीय खाद्य निगम के नए गोदामों में 47 लाख टन भंडारण क्षमता तथा पेग योजना के तहत निजी क्षेत्र के गोदामों में 20 लाख टन जुड़ने के बावजूद भंडारण क्षमता में कमी बनी रहने वाली है   

केन्द्र सरकार सुरक्षित खाद्यान्न भंडारण क्षमता की समस्या से भलीभांति परिचित है तथा वह 12वीं योजना में  भंडारण क्षमता में 150 लाख टन वृध्दि का इरादा रखती है। केन्द्र सरकार चाहती है कि भारतीय उद्यमी गोदाम, वेयरहाउस तथा कोल्ड स्टोरेज निर्माण क्षेत्र आगे आने के साथ-साथ इस क्षेत्र में  प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भी बढ़े। अभी तक  भंडारण क्षमता के विस्तार क्षेत्र में और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में सफ लता हासिल नहीं हो पाई है।  इसके अलावा सरकार ने खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश करने वालों के लिए भी  ग्रामों में  गोदाम निर्माण सहित ग्रामीण अधोसंरचना में अनिवार्य निवेश की शर्त भी रखी है। सरकार चाहती तो बहुत कुछ है, किन्तु उसे अभी तक अपेक्षित सफ लता नहीं मिली है। बड़ी भंडारण क्षमतावाले पक्के गोदामों का निर्माण एक लम्बी प्रयिा है। जबकि अभी तो खरीफ  और रबी दोनो मौसम में बरसात में खुले में भंडारित खाद्यान्न को नुकसान हो रहा है


इस संबंध में एक सुझाव यह भी दिया जाता है कि किसानों खासकर बड़े किसानों को उनके ही परिसर में गोदाम बनाने हेतु प्रोत्साहित करने हेतु उदारता से साख सुविधाएं उपलब्ध करवाना चाहिए। समस्या यह है कि किसान अपने पास कटी सल भंडारण करने की जोखिम उठाने की बजाय  सरकार द्वारा पूर्वघोषित  समर्थन मूल्य पर बेचकर नकदी पाना चाहता है किसान चाहता है कि खेत से खलिहान होते हुए मंडी परिसर तक उसकी उपज सुरक्षित रहे तथा उसे उसकी उपज का उचित मूल्य मिले। भंडारण में यह भी ध्यान रखना जरूरी होता है कि भंडारण अवधि में खाद्यान्न, सब्जियों एवं लों के पोषक तत्वों में कमी आए। इस संबंध में सभी दृष्टि से अल्पकालिक उपाय के रूप में यह बेहतर होगा कि सरकार कम कीमत पर हवारोधी सुरक्षित बड़े आकार के 100 एवं 200 टन क्षमता के पॉलीथीन बोरे किसानों एवं सहकारी समितियों को उपलब्ध करवाए। इससे केवल किसानों को ही नहीं बल्कि सहकारी समितियों को भी नुकसान से बचाया जा सकता है। इससे खाद्य पदार्थो की बर्बादी के रूप में होने वाली राष्ट्रीय क्षति को भी रोका जा सकता है।

सोमवार, 10 मार्च 2014

कौन बनाएगा एक बेहतर भारत?

सोलहवें आम चुनाव के कार्यक्रम की घोषणा हो गई है। इस बार के आम चुनाव, अब तक के सबसे लंबे समय में पूरे होने वाले आम चुनाव होंगे। पूर्व-प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या या कारगिल युद्ध जैसी अप्रत्याशित स्थितियों या बाधाओं से प्रभावित हुए चुनाव ही इसका अपवाद होंगे। 7 अप्रैल से शुरू होकर, 12 मई तक, पूरे पांच हफ्ते चलने वाले ये चुनाव, नौ चरणों में होने जा रहे हैं, जो कि अपने आप में एक रिकार्ड है।
बेशक, इतने लंबे चुनाव कार्यक्रम पर कुछ हलकों से कुछ आपत्तियां भी सुनने को मिली हैं, फिर भी भारत का संविधान (धारा-324 से 329 तक) इस संबंध में पूरी तरह से स्पष्ट है कि, ''संसद...के सभी चुनावों के लिए मतदाता सूचियां तैयार करने की निगरानी, निर्देशन तथा नियंत्रण और चुनाव कराने'' की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की ही है। इसलिए, चुनाव आयोग की जिम्मेदारी सिर्फ चुनाव कराने की ही नहीं है बल्कि ऐसे स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव कराने की है, जिनमें देश के सभी वैध मतदाताओं का अपने मतदान के अधिकार का व्यवहार करना सुनिश्चित किया जाए। इस सिलसिले में देश की कानून व व्यवस्था की स्थिति, संभावित गड़बड़ी के खतरों और देश के विभिन्न हिस्सों में स्वतंत्र व निष्पक्ष तरीके से चुनाव कराने के लिए बलों की उपलब्धता से संबंधित तमाम जानकारियां अकेले चुनाव आयोग के पास ही होती हैं। इसलिए, चुनाव आयोग ही सही तरीके से यह तय कर सकता है कि चुनाव कितने चरणों में होने चाहिए और चुनाव कराने की अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी कारगर ढंग से पूरी करने के लिए उसे कितने समय की जरूरत होगी। याद रहे कि देश में संसदीय जनतंत्र को असरदार बनाने के लिए चुनावों का समुचित तरीके से कराया जाना बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसलिए, चुनाव आयोग द्वारा अपने विवेक का प्रयोग कर लिए गए इन फैसलों पर विवाद की कोई जरूरत नज् ार नहीं आती है।
आने वाले आम चुनाव के रूप में हम दुनिया भर का सबसे बड़ा जनतांत्रिक उद्यम देखेंगे। आने वाले आम चुनाव पिछले आम चुनाव से भी काफी बड़े होंगे। अंतिम आंकड़ों के अनुसार पिछले आम चुनाव में लोकसभा की कुल 543 सीटों के लिए देश भर में 300 से ज्यादा राजनीतिक पार्टियों के उम्मीदवारों तथा निर्दलियों को मिलाकर, पूरे 8070 उम्मीदवार मैदान में थे। उनकी किस्मत का फैसला कुल 71 करोड़ 80 लाख मतदाताओं के हाथों में था, जिनमें से 58.4 फीसद ने वास्तव में मतदान में हिस्सा लिया था। इस चुनावी उद्यम में जुटा प्रशासनिक ताना-बाना भी अपनी विशालता में कोई कम चकराने वाला नहीं था। पिछली बार महीने भर चले चुनाव के पांच चरणों में कुल 8,28,804 मतदान केंद्रों में 13,68,430 मतदान मशीनों से वोट डाले गए थे और इस काम को संभालने में 65 लाख से ऊपर कर्मचारी लगे थे। चुनाव का स्वतंत्र व निष्पक्ष तरीके से कराया जाना सुनिश्चित करने के लिए करीब 11 लाख वर्दीधारी जवान तैनात किए गए थे।
चुनाव आयोग की घोषणा के अनुसार, 16 वें आम चुनाव की मतदाता सूचियों में पूरे 81 करोड़ 40 लाख मतदाताओं के नाम हैं। यह संख्या, 15 वें आम चुनाव से करीब 10 करोड़ ज्यादा है। इसी प्रकार, इस बार  देश भर में 9 लाख 30 हजार मतदान केंद्रों में वोट डाले जाएंगे यानी पिछली बार से 10 हजार ज्यादा मतदान केंद्रों में। चुनाव की तरीखों की घोषणा के साथ हमारे देश में यह विराट उद्यम शुरू हो गया है।
चुनाव आयोग ने स्वतंत्र तथा निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए उठाए जाने वाले अपने अनेकानेक कदमों की भी घोषणा की है। मुख्य चुनाव आयुक्त ने ऐलान किया: ''हमने यह सुनिश्चित करने का खासतौर पर ध्यान रखा है कि (सामाजिक रूप से) कमजोर इलाकों में रहने वाले तथा कमजोर मतदाताओं का चुनावी मशीनरी से निरंतर संपर्क बना रहे ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उनके मताधिकार का प्रयोग करने में कोई भी बाधा न डालने पाए।'' हालांकि, मुख्य चुनाव आयुक्त ने यह एलान भी किया है कि यह सुनिश्चित करने के लिए, ''विभिन्न श्रेणियों में पर्याप्त संख्या में प्रेक्षक तैनात किए जाएंगे,'' फिर भी इस निर्णय का पूरी मुस्तैदी से पालन करने की जरूरत होगी ताकि मतदाताओं के उस प्रकार बडे पैमाने पर डराए-धमकाए जाने को रोका जा सके, जो सब प. बंगाल में पिछले ही दिनों हुए स्थानीय निकायों के चुनाव में देखने को मिला था। बेशक, स्थानीय निकायों के चुनाव सीधे-सीधे केंद्रीय चुनाव आयोग के दायरे में नहीं आते हैं, फिर भी इस अनुभव से सावधान होकर चुनाव आयोग से अतिरिक्ति सतर्कता बरतने की उम्मीद तो की ही जानी चाहिए। पुन: यह सुनिश्चित करने के लिए भी चुनाव आयोग को कदम उठाने होंगे कि चुनाव प्रचार के दौर में आतंक फैलाने का सहारा लेकर कोई मतदाताओं को इस तरह डरा भी न पाए कि वे भय के कारण अपने मताधिकार का प्रयोग करने से ही हिचकने लगें।
पुन: मुख्य चुनाव आयुक्त ने यह भी कहा है कि, ''चुनाव के दौरान धन के प्रवाह पर अंकुश लगाने पर खास जोर दिया जा रहा है।'' चुनाव में धनबल के बढ़ते इस्तेमाल पर पर्याप्त तथा खास ध्यान दिए जाने की जरूरत होगी। हालांकि, अपेक्षाकृत बड़े राज्यों में संसदीय चुनाव के लिए खर्च की सीमा बढ़ाकर अब 70 लाख रुपए कर दी गई है, वास्तव में इस सीमा का ज्यादातर उल्लंघन ही किया जाता है। पुन: इसकी इजाजत नहीं दी जानी चाहिए कि जिन पार्टियों या उम्मीदवारों के पास पर्याप्त आर्थिक संसाधन नहीं हैं, वे चुनावी पहलू से पीछे छूट जाएं और इस तरह बुनियादी तौर पर उनके जनतांत्रिक अधिकारों को नकार ही दिया जाए। पहले ही दीवारों पर लिखने, पोस्टर लगाने आदि पर लगाई गई तरह-तरह की पाबंदियों का नतीजा यह हुआ है कि अपेक्षाकृत कम साधनसंपन्न पार्टियों व उम्मीदवार प्रचार के मामले में ज्यादा घाटे में रह गए हैं जबकि जिन पार्टियों व उम्मीदवारों के पास ज्यादा संसाधन हैं, वे मीडिया में विज्ञापनों से लेकर, एक साथ कई-कई जगह कराए जाने वाले लैसर-शो जैसे महंगे साधनों का उपयोग कर प्रचार में आगे निकल जाते हैं। ''पेड न्यूज'' तथा फर्जी जनमत सर्वेक्षणों जैसी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने के लिए और कड़े कदम उठाए जाने चाहिए। चुनाव में सभी के लिए बराबरी का मौका सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
बेशक, चुनावी समर में सभी सेनाएं जीतने की नीयत से उतरती हैं। इस राजनीतिक लड़ाई में भी ऐसा ही होगा और सभी पार्टियां तथा उम्मीदवार, जनता का समर्थन हासिल करने के लिए एक-दूसरे से होड़ कर रहे होंगे। बहरहाल, अंतिम विश्लेषण में चुनाव का फैसला तो जनता की सेना तय करने वाली है न कि तरह-तरह के संसाधनों से तथा प्रतिस्पर्द्धी पार्टियां के तरकशों से चलने वाले तीरों से तय होने जा रही है।
इस तरह, 16 वें आम चुनाव में भारत की जनता इस आधार पर चुनाव की दिशा तय करने जा रही है कि उस पर जो लगातार बढ़ते बोझ लादे जा रहे हैं, उनसे उसे राहत कौन दिला सकता है? कौन सी ताकत या ताकतें हैं जो उसके लिए बेहतर आजीविका तथा उसके बच्चों के लिए बेहतर भविष्य सुनिश्चित कर सकती हैं? दूसरे शब्दों में, कौन एक बेहतर भारत बनाएगा? साफ है कि जनता की ये आकांक्षाएं तो तभी पूरी हो सकती हैं जब देश विकास के एक वैकल्पिक रास्ते पर चलेगा, एक ऐसा रास्ता जो कांग्रेस या भाजपा के रास्ते से अलग होगा। याद रहे कि चाहे आर्थिक नीतियों का मामला हो या महाघोटालों का, कांग्रेस और भाजपा में कोई अंतर ही नहीं है। उसके ऊपर से कांग्रेस-भाजपा का खांटी हिंदुत्ववादी एजेंडा, सांप्रदायिक ध्र्रुवीकरण बढ़ाने और सांप्रदायिक जहर फैलाने पर ही केंद्रित है और यह सामाजिक सौहार्द्र को तथा इसलिए भारत की एकता व अखंडता को भी, भारी चोट पहुंचाता है।

भारत की जनता को आगे बढ़कर इन चुनौतियों को स्वीकार करना होगा और आने वाले चुनाव में ऐसा जनादेश सुनिश्चित करना होगा जिससे देश एक वैकल्पिक नीतिगत रास्ते पर बढ़ सके, जो एक बेहतर भारत का निर्माण करेगा तथा हमारी जनता की जिंदगी बेहतर बनाएगा।

शीतयुध्द की ओर खिसक रही है दुनिया

कुछ दिन पहले तक लग रहा था कि यूक्रेन के इंडिपेंडेंट स्क्वायर पर यूक्रेन के लोगों की जमा भीड़ उन आंतरिक कारणों की उपज है जो बर्खास्त राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच द्वारा पैदा किए गए थे, लेकिन अब स्थिति बदली हुई दिख रही है और जैसे-जैसे समय आगे बढ़ रहा है वैसे-वैसे लग रहा है कि दुनिया एक और शीतयुध्द की ओर खिसक रही है। कुछ रूसी सैनिक क्रीमिया में और शेष उसके इर्द-गिर्द एकत्रित हो रहे हैं। क्रेमलिन इसे क्रीमिया में ही नहीं, बल्कि यूक्रेन में मौजूद रूसी नागरिकों की जान के खतरे के दृष्टिगत उचित मान रहा है जबकि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा इसे अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन बताते हुए रूस को इसकी कीमत चुकाने जैसी चेतावनी दे रहे हैं। यूक्रेनी प्रधानमंत्री अर्सेनी यात्सेनयक रूस से यह कहते हुए देखे जा रहे हैं कि रूस का सैनिक कार्रवाई का निर्णय युध्द की शुरुआत और सम्बंधों का अंत होगा। तात्पर्य यह हुआ कि स्थिति बेहद जटिल हो चुकी है, जिससे न केवल यूक्रेन के अस्तित्व के समक्ष संकट पैदा हो गया है बल्कि इससे अंतरराष्ट्रीय शांति को खतरा उत्पन्न हो गया है। अब सवाल यह उठता है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्या विश्व शक्तियां इस समस्या समाधान शांतिपूर्ण ढंग से करना चाहती हैं या फिर इसे किसी ग्रेट गेम का हिस्सा बनाना चाहती हैं?
लेख लिखे जाने तक यह स्थिति बन चुकी थी कि रूसी सेना के क्रीमिया में प्रवेश या उसके द्वारा क्रीमियाई सीमा पर युध्द की तैयारियां और रूसी राष्ट्रपति पुतिन द्वारा संसद में यूक्रेन के असाधारण हालात और रूसी लोगों के जीवन पर मंडरा रहे खतरे को देखते हुए सैन्य कार्रवाई के लिए इजाजत मांगने एवं संसद के ऊपरी सदन के द्वारा उनके प्रस्ताव को तत्काल पारित कर देने के बाद यूक्रेन के राष्ट्रपति  द्वारा अपनी सेना को युध्द के लिए तैयार रहने को कहना, स्पष्ट संकेत करता है कि हालात अब काबू के बाहर हो चुके हैं। अब यूक्रेन की तैयारी अमेरिकी और ब्रिटिश नेताओं से मदद मांगने की है। इस दिशा में बातचीत के लिए नाटो आपात बैठक बुला चुका है। इस बीच यह भी खबर है कि क्रीमिया के नए प्रधानमंत्री सर्गेई अक्सोनोव ने अपने प्रांत में 30 मार्च को एक जनमत संग्रह कराने की घोषणा की है। अगर इन आंतरिक गतिविधियों का मंथन किया जाए तो आसानी से पता चलता है कि यूक्रेन की स्थितियां बेहद जटिल और बहुआयामी हो चुकी हैं और इनका कारण सिर्फ विक्टर यानुकोविच की गलतियों में निहित नहीं है।
अमेरिकी व अन्य पश्चिमी बुध्दिजीवियों व राजनीतिज्ञों की तरफ  से आए बयानों पर ध्यान दें तो वे सब इसे रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन की महत्वाकांक्षा का परिणाम बताते दिखेंगे क्योंकि उनकी नज्र में पुतिन यूक्रेन को अपना पिठ्ठू बनाकर रखना चाहते हैं। लेकिन क्यों? इसका उत्तर इस प्रश्न में खोजा जाना चाहिए कि स्थिरता हासिल कर चुका यूक्रेन आखिर अचानक हिंसात्मक क्यों हो उठा? एक वजह यह हो सकती है जिसका प्रचार अमेरिका और यूरोप के बुध्दिजीवी व राजनीतिक रहे हैं। दरअसल रूस यूक्रेन को फ्रैटर्नल रिलेशन में बांधकर उसे अपनी कठपुतली बनाना चाहता है और उसके द्वारा घोषित सहोदर सहायता (फै्रटर्नल असिस्टेंस) कमोबेश उसी तरह का हथियार है जिसका इस्तेमाल 1968 में प्राग्वे में और 1979 में अफगानिस्तान में अपने सैनिक आक्रमण का औचित्य साबित करने के लिए रूस द्वारा किया गया था। पश्चिमी देश यह मानते हैं कि भ्रातृत्व का प्रयोग सोवियत युग में किसी भी राय को सोवियत संघ की कठपुतली बनाने के लिए किया जाता था, फिर चाहे वह शांति से सम्भव हो या हिंसा से। आज भी उद्देश्य वही है। लेकिन क्या यूरोप और अमेरिका दूध के धुले हुए हैं और वे प्रत्येक राष्ट्र की निरपेक्ष भाव से मदद करने के लिए बेचैन घूम रहे हैं। इराक और अफगानिस्तान को देखकर कोई भी ऑपरेशन इराकी फ्रीडम और ऑपरेशन इनडयूरिंग फ्रीडम से अमेरिका वे उसके सहयोगियों द्वारा की गई सैन्य कार्रवाइयों की सच्चाई को जान सकता है। इसलिए यदि पशिचमी दुनिया रूस को चेतावनी दे रही है या यूक्रेन को लेकर उसके विरुध्द स्ट्रैटेजिक तैयारियां कर रही हैं तो इसके पीछे उसका ध्येय यूक्रेन के हितों की रक्षा नहीं, बल्कि अपने कुछ उद्देश्यों की प्राप्ति अधिक है। 
दरअसल यह टकराव यूक्रेन के यूरोपीय संघ अथवा यूरेशियाई संघ को लेकर पैदा हुआ। ऐसा माना जाता है कि पहले राष्ट्रपति यानुकोविच यूरोपियन यूनियन के साथ संधि करने वाले थे, लेकिन बाद में ब्लादिमीर पुतिन के इशारे पर उन्होंने यू-टर्न ले लिया। जबकि विपक्ष यह  चाहता था कि यूक्रेन सरकार रूस से पुरानी मित्रता को नजरअंदाज कर ईयू के साथ समझौता करे। देखते ही देखते यूक्रेन की जनता में उबाल आ गया और वह मांग करने लगी कि यूक्रेन को वाया ईयू यूरोप की मुख्यधारा में शामिल करने की इच्छा हिंसात्मक तरीके से करने लगी। हालांकि इस दौरान ये सवाल भी खड़े किए गये कि रूस को छोड़ यूरोपीय संघ के साथ जुड़ने से उसे व्यापार में जो नुकसान होगा, उसकी भरपाई कैसे की जाएगी? अगर यूक्रेन की सरकार रूस को छोड़कर ईयू के साथ जाती है तो पहले कदम पर उसे आर्थिक संकट का सामना करना पड़ेगा क्योंकि रूस उसे जो आर्थिक मदद देने वाला है, वह रोक दी जाएगी। चूंकि रूस और यूक्रेन सांस्कृतिक व आर्थिक रूप से सदियों से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं इसलिए यूक्रेन को कुछ दूसरे तरह के नुकसान भी होंगे। लेकिन यूक्रेनियन विपक्ष और यूक्रेनी जनता ने इसे पूरी तरह से अनदेखा किया, आखिर क्यों? महत्वपूर्ण बात यह है कि ब्रिटेन जैसा देश यूरोपीय संघ से बाहर होना चाहता है। जनवरी 2013 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन यह घोषणा कर चुके हैं कि 2015 में होने वाले चुनावों में जीत हासिल होने पर कंजरवेटिव सरकार बनी तो 2017 में वह यूरोप में अपने भविष्य को लेकर एक बाध्यकारी जनमत सर्वेक्षण कराना चाहेगी। फ्रांस का एक दल भी ऐसा ही चाहता है। बीते कुछ दिन पूर्व ही स्विट्जरलैंड इस बात को लेकर जनमत करा चुका है कि ईयू की तरफ  से होने वाले आप्रवासन का वह कोटा तय कर देगा। यदि ईयू में प्रवेश पा जाने मात्र से किसी भी देश को प्राप्त होने वाले अनुलाभों की फेहरिस्त बहुत लम्बी हो जाएगी तो फिर ब्रिटेन, फ्रांस और स्विट्जरलैंड जैसे देश उससे अलग क्यों होना चाहते हैं?
यह सही है कि पूर्व सोवियत संघ के प्रभाव वाले पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देशों का यूरोपियन यूनियन में विलय रूस के लिए चिंता की बात हो सकती है क्योंकि ईयू पर अमेरिका का प्रभाव है और अमेरिका रूस के खिलाफ जिस तरह की भू-रणनीतिक तैयारियां कर रहा है, वे रूस के लिए चुनौती है। इसलिए पूर्व सोवियत संघ के घटक देशों का ईयू के करीब जाना रूसी रणनीति को कमजोर करेगा। पूर्व सोवियत संघ का घटक रहे पूर्वी यूरोप के छह देशों-आर्मेनिया, अजरबेजान, बेलारूस, मोलदोवा, जार्जिया और यूक्रेन यूरोपियन यूनियन में शामिल होने के बाद यूरोपीय यूनियन की सीमाएं रूस को छूने लगेंगी जो रूस के लिए एक खतरा साबित होंगी। अमेरिका पहले ही नाटो सदस्यों के सहयोग से रूस को मिसाइल डिफेंस सिस्टम के जरिए स्ट्रैटेजिकली घेरने की रणनीति पर काम कर रहा है। उक्त छह देशों का उसका हिस्सा बनते ही रूस भू-राजनीतिक रूप से भी घिर जाएगा। पुतिन स्वयं कुछ महत्वाकांक्षाओं को लेकर तीसरी बार राष्ट्रपति बने और अब उनकी मंशा रूस को शीतयुग के सोवियत संघ का स्थान दिलाने की है इसलिए वे इस पश्चिमी षड़यंत्र को स्वीकार नहीं करेंगे।

फिलहाल यदि रूस और यूक्रेन के टकराव को रोकने की बजाय अमेरिका व उसके पश्चिमी सहयोगी ग्रेट गेम में उलझे का काम करेंगे तो दुनिया को इसके गम्भीर परिणाम भुगतने पड़ जाएंगे।

बुधवार, 5 मार्च 2014

लोकतंत्र और सेना

एक और लोकसभा ने अपने पांच साल का कार्यकाल पूरा कर लिया है। सदन में जो भी कार्यवाही पूरी हुई है वह वास्तव में झगड़े से भरी और चिढ़ पैदा करने वाली थीं। दुर्भाग्य से करीब-करीब सभी एशियाई देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करने वाले सदन ने अपना काम करना बंद कर दिया है। तीन महीने बाद भारतीय मतदाता एक बार फिर अपना प्रतिनिधि चुनने मतदान केंद्रों पर कतार में खड़े होंगे। इन प्रतिनिधियों में क्वालिटी नहीं है, लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि अगला सदन बेहतर होगा, क्योंकि आम आदमी पार्टी के उभार ने देश को साफ सुथरा और पारदर्शी बनाने की ओर जाने वाला परिवर्तन राजनीतिक परिदृश्य ला दिया है।

मुझे सशस्त्र सेना का बढ़ता प्रभाव पसंद नहीं है। रक्षामंत्री एके एंटनी का कहना सही है कि देश में कभी कोई सैनिक विद्रोह नहीं हो सकता है। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी यही विचार अगस्त 1947 में रखे थे जब उन्होंने आजादी के बाद शासन के लिए संसदीय तरीका अपनाया था। उनका तर्क था कि देश बहुत बड़ा है और जाति तथा धर्म में जकड़ा है।

हालांकि मेरी चिंता इस बारे में है कि शासन के मामलों मे सेना का दखल शुरू हो गया है। सियाचिन ग्लेशियर में सेना की टुकड़ी तैनात करने का उदाहरण ले लीजिए। क्या यह जरूरी था कि जब बहुत सारे रिटायर्ड शीर्ष अधिकारी कह चुके थे कि इसका कोई रणनीतिक महत्व नहीं है? वैसे भी जब भारत और पाकिस्तान के विदेश सचिवों ने समझौते की शुरुआत की थी तो हमारी सेना को उसका पालन करना चाहिए था, लेकिन इसने उसे रोक दिया। इसे एक ऐसा क्षेत्र बनाने के बजाय जहां कोई आबादी नहीं हो, ग्लेशियर पर दोनों देश के जवान कठिन मौसम की यातना सहते हैं और लगातार जानें गंवाते रहते हैं। दूसरा उदाहरण आ‌र्म्ड फोर्सेस एक्ट का है जो शक होने पर बिना किसी कानूनी कार्यवाही किसी व्यक्ति को हिरासत में रखने या यहां तक कि उसे मार डालने का अधिकार सेना को देता है। पूर्वोत्तर में कई वषरें से यह कानून लागू है। सरकार की बहाल की गई कमेटी ने इसे गैर-जरूरी पाया और इसकी वापसी की सिफारिश की, लेकिन सेना की ही चली और स्पेशल पावर्स कानून अभी भी जारी है। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने आधिकारिक तौर पर नई दिल्ली से कहा है कि राज्य को इस कानून के प्रभाव से मुक्त कर दिया जाए। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर भी यह अपील की है, लेकिन केंद्र सरकार इस पर भी नहीं झुकी, क्योंकि सेना चाहती है कि स्पेशल पावर्स एक्ट लागू रहे। यहां तक कि जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री का राजनीतिक कैदियों को रिहा करने की साधारण रियायत के आग्रह को ठुकरा दिया गया है।

जम्मू-कश्मीर में पथरीबल में हुई मुठभेड़ की जांच एकदम ताजा उदाहरण है। सेना ने पांच आतंकवादियों को मार गिराया, जबकि स्थानीय ग्रामीण कहते हैं कि मारे गए लोग निर्दोष थे। सीबीआइ ने मामले की जांच की और सुप्रीम कोर्ट को अपनी रिपोर्ट सौंपी है। रिपोर्ट के मुताबिक यह निर्दयतापूर्वक की गई फर्जी मुठभेड़ थी। वास्तव में 23 साल बाद चुप्पी तोड़ने वाले कुपवाड़ा के तत्कालीन उपायुक्त एसएम यासीन ने हाल ही में कहा है कि कोनम पोशपोरा में हुए सामूहिक दुष्कर्म की रिपोर्ट बदलने के लिए धमकी दी गई थी और पदोन्नति का लालच दिया गया था। यह अचरज की बात है कि सेना ने इससे इन्कार कर दिया है कि ऐसी कोई घटना हुई थी। भारत सरकार अभी भी सुप्रीम कोर्ट के जज की अध्यक्षता में एक न्यायिक जांच गठित कर फर्जी समझे जाने वाली मुठभेड़ों की जांच करा सकती है। पथरीबल मुठभेड़ से उठा विवाद अभी शांत भी नहीं हुआ था कि जनवरी 2012 में हुई संभावित सैन्य विद्रोह की कहानी सार्वजनिक हो गई। दो सैन्य इकाइयों को आगरा से दिल्ली की ओर रवाना किया गया। राजधानी के नजदीक किसी भी सैन्य दल की गतिविधि के लिए पहले ही अनुमति लेनी होती है। इसके बावजूद दोनों इकाइयां चलीं और तभी वापस बुलाई गईं जब रक्षा सचिव ने डायरेक्टर जनरल आफ मिलिट्री आपरेशन्स लेफ्टिनेंट जनरल एके चौधरी को मध्यरात्रि में तलब कर बताया कि सरकार में शीर्ष पर बैठे लोग इससे नाखुश और चिंतित हैं। जब एक दैनिक समाचार पत्र ने इस खबर को प्रकाशित किया तो रक्षामंत्री एंटनी ने इसे बकवास बताया। कुछ महत्वपूर्ण सैनिक और सिविल अधिकारियों ने भी ऐसा ही किया। अपने रिटायरमेंट के बाद एके चौधरी ने खबर की पुष्टि की। सबसे धक्कादायक पुष्टि एयरचीफ एनएके ब्राउन ने की। उन्होंने कहा कि पैराशूट सैनिकों को इस लिए भेजा गया था कि उनके हिंडन एयरबेस के सी130 के पास पहुंचने की संभावना की जांच की जा सके। इसके बावजूद कि रक्षामंत्री एंटनी ने कहा कि यह एक रूटीन प्रशिक्षण कार्य था, डायरेक्टर जनरल मिलिट्री आपरेशन्स को कहने के बाद सरकार की ओर से यह देखने के लिए एक चॉपर भेजना कि सैन्य दल वापस लौट रहे हैं या नहीं, यही दर्शाता है कि जितना दिखाई दे रहा है उससे ज्यादा कुछ है। सेनाध्यक्ष वीके सिंह की जन्मतिथि से संबंधित सुप्रीम कोर्ट में अपील की तारीख तथा सैन्य इकाइयों की गतिविधि की तिथि के आपस में मेल खाने की वजह से इसे अनुपात से अधिक महत्व मिला। पूरे मामले की आगे की जांच करानी पड़ेगी।

नागरिक मामलों में सेना की मामूली दखलंदाजी भी अशुभ है। सेना अराजनीतिक है तो इसका श्रेय उसके प्रशिक्षण और उसकी प्रतिबद्धता को है, जबकि पाकिस्तान और बांग्लादेश, दोनों सही रास्ते से भटक गए हैं। भारतीय सेना एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपने स्थान को जानती है और वह इसका सम्मान भी करती है। फिर भी जो उदाहरण मैंने दिए हैं उन्हें गंभीर चेतावनी के रूप में लेना चाहिए। सच है कि लोकतांत्रिक स्वभाव भारत की मिट्टी में जड़ जमाए हुए है, लेकिन ऐसा नहीं मान लिया जा सकता कि हर हाल में यह ऐसा ही रहेगा। सेना राष्ट्र की सुरक्षा के लिए है और उसके उपयोग का निर्णय लेने का अधिकार चुनी हुई सरकार को है। यह एक ऐसी चीज है जो बुनियादी है और लोकतांत्रिक व्यवस्था में इस पर समझौता नहीं किया जा सकता है।


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