मंगलवार, 28 जनवरी 2014

भारत में न केवल कामगार, मालिक भी गरीब

इंडियन इंस्टीटयूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट तथा इंडियन सोसाइटी ऑफ लेबर इकानोमिक्स नई दिल्ली द्वारा हाल में ही प्रकाशित श्रम एवं रोजगार रिपोर्ट 2014 में भारत में वैश्विीकरण की प्रक्रिया के प्रारम्भ होने के बाद बीस साल में हुए श्रम एवं रोजगार बाजार की स्थिति में हुए बदलाव पर विस्तार से प्रकाश डाला गया हैं। इस श्रम एवं रोजगार रिपोर्ट 2014 के प्रधान लेखक एवं सम्पादक डॉ. अलख एन. शर्मा हैं, जो वर्तमान में इंडियन इंस्टीटयूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट के निदेशक एवं इंडियन जर्नल ऑफ लेबर इकोनॉमिक्स के सम्पादक हैं। नेशनल सेम्पल सर्वे के बीस साल के आंकडों को विश्लेषण करके रिपोर्ट बनाई गई है। रिपोर्ट में आर्थिक विकास एवं रोजगार कार्य निष्पादन, उभरती हुई चुनौतियां, मजदूरी, आमदनी एवं असमानता, कामगारों की सामाजिक सुरक्षा से संबंधित मुद्दे, रोजगार की रणनीति, नीतियां एवं कार्यक्रम तथा श्रम एवं रोजगार का आज का एजेंडा आदि के शीर्ष के अंतर्गत श्रम एवं रोजगार की स्थिति पर प्रकाश डाला गया है।

श्रम एवं रोजगार रिपोर्ट 2014 के अनुसार भारत में तेन्दुलकर फार्मूले पर आधारित गरीबी रेखा से नीचे रहनेवाले व्यक्तियों में बेरोजगारों की तुलना में रोजगारप्राप्त व्यक्तियों की संख्या एवं प्रतिशत दोनों ही अधिक हैं। 2011-12 मे लगभग एक चौथाई परिवार गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे थे, इनमें से 90 प्रतिशत परिवारों के व्यक्ति किसी न किसी प्रकार के रोजगार प्राप्त थे। 1993-94 में गरीबी रेखा से नीचे रहनेवाले रोजगार प्राप्त व्यक्तियों की संख्या 49 प्रतिशत थी, 2011-12 में घटकर 25 प्रतिशत रह गई। इस प्रकार भूमंडलीकरण के 20 साल के इस अवधि में रोजगार प्राप्त गरीबों की संख्या में कमी आई है। गरीबी में रहनेवाले अधिकांश लोग गैर-संगठित गैर-अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत थे। इस क्षेत्र के रोजगार प्राप्त श्रमिकों की आमदनी इतनी कम थी कि वे गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने को मजबूर थे। गरीबी रेखा से नीचे कुल परिवारों में 24.6 प्रतिशत स्वरोजगारी थे। इनमें से उन लोगों की भी बड़ी संख्या थी, जिन्होंने सरकारी योजनाओं के तहत बैंक कर्ज से स्वरोजगार प्रारम्भ किया था।

तेन्दुलकर गरीबी रेखा को सवा डॉलर पीपीपी दैनिक आमदनी की अंतरराष्ट्रीय अत्याधिक गरीबी रेखा के समकक्ष माना जा सकता है। इस गरीबी रेखा को अंत्योदय गरीबी रेखा भी कहा जा सकता है। 2 डालर पीपीपी दैनिक आमदनी की सामान्य अंतरराष्ट्रीय गरीबी रेखा के आधार पर 2011-12 में भारत में गरीबी रेखा से नीचे रहनेवाले रोजगार प्राप्त व्यक्तियों की संख्या 27.6 करोड़ हो जाती है, अर्थात 58 प्रतिशत परिवार गरीबी में गुजर-बसर कर रहे थे। इसको अर्ध्द-बेरोजगारी की स्थिति कहा जा सकता है। चूंकि बेरोजगारी को गरीबी का प्रमुख कारण माना जाता रहा है, यही कारण है कि सरकार का पूरा जोर रोजगार के अवसर सृजन करने पर केन्द्रित था एवं इसीलिए समय-समय पर अनेक रोजगार एवं स्वरोजगार योजनाएं प्रारम्भ की गईं। यहां यह बात स्पष्ट हो गई है कि मात्र रोजगार उपलब्ध करवा देने से गरीबी दूर नहीं हो जाती।

भारत में तेन्दुलकर गरीबी से नीचे रहनेवाले लोगों में दो करोड़ ऐसे लोग थे, जो नियोक्ता की श्रेणी में आते हैं, जो कुल बेरोजगारों के 4.4 प्रतिशत थे। इस नियोक्ता वर्ग परम्परागत ग्रामीण कारीगरों की बड़ी संख्या है। इनके अलावा उद्यम व्यवसाय से जुडे अन्य लोग भी अपने व्यवसाय धंधे में मदद के लिए आकस्मिक एवं नियमित कामगारों की सेवाएं लेते हैं किन्तु इनकी आमदनी इतनी कम होती है कि ये परिवार की न्यूनतम आवश्यकताएं भी पूरी नहीं कर पाते। इस प्रकार कामगार ही नहीं, बल्कि मालिक भी बड़ी तादाद में गरीबी रेखा से नीचे हैं। दो डॉलर दैनिक आमदनी की अंतरराष्ट्रीय सामान्य गरीबी रेखा के आधार पर गरीब नियोक्ताओं की संख्या बढ़कर लगभग 4.25 करोड़ हो जाती है। अब जिस देश में मालिक ही गरीब हो तो उस मालिक पर आश्रित रहने वाले नौकर कैसे सम्पन्न हो सकते हैं। नौकर तो महागरीब की श्रेणी में आएगा। कहने का मतलब है कि भारत में केवल आय एवं सम्पत्ति में ही विषमता नहीं है, बल्कि गरीबी की गहनता में भी काफी विषमता है। न्यूनतम मजदूरी की दरें दुगुनी करके मजदूरों की आमदनी बढ़ाई जा सकती है। खाद्यान्न का समर्थन क्रम मूल्य बढ़ा कर छोटे किसान की आमदनी बढाई जा सकती है। किन्तु सबसे बडा सवाल दर्जनों विविध प्रकार उद्यम एवं व्यवसाय करनेवाले गरीब नियोक्ताओं की गरीबी दूर करने का है उनकी आमदनी में किस प्रकार वृध्दि की जाय कि वह गरीबी से उबर सके इस पर विचार की आवश्यकता है।

इस रिपोर्ट से यह भी खुलासा हुआ है कि बेरोजगारों में अशिक्षित व्यक्तियों की तुलना में शिक्षित व्यक्तियों की संख्या अधिक है। अशिक्षित बेरोजगारों की संख्या एक प्रतिशत से भी कम है, जबकि डिप्लोमा व प्रमाणपत्रधारी बेरोजगारों की संख्या कुल बेरोजगारों का 10 प्रतिशत तथा स्नातक व स्नाकोत्तर डिग्रीधारकों की संख्या 8 प्रतिशत है। अशिक्षित बेरोजगारों की संख्या कम होने का एक बड़ा कारण यह है कि उन्हें जो भी काम मिलता है व जिस पारिश्रमिक पर का मिलता है वे कर लेते हैं जबकि उच्च शिक्षित बेरोजगार व्यक्ति पहले अपनी योग्यता के अनुसार अच्छे वेतन का काम ढूंढता है एवं उसके इंतजार में कुछ सालों तक बेराजगार बना रहता है।


श्रम रोजगार रिपोर्ट में पहली बार रोजगार स्थिति सूचकांक विकसित करके 2011-12 के लिए भारत के 21 बडे रायों का रोजगार स्थिति सूचकांक बनाया गया है। रोजगार व आमदनी की स्थिति के विभिन्न मानदंडों के आधार पर हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब व कर्नाटक को उत्तर राय की श्रेणी में रखा गया है, जबकि बिहार, ओडीशा, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ को निकृष्ट राय की श्रेणी में रखा गया है। कहने का आशय है कि पिछड़े प्रान्त न केवल जीडीपी व मानव विकास सूचकांक बल्कि रोजगार व कर्मी को भुगतान किए जानेवाले पारिश्रमिक के आधार पर भी पिछडे हुए हैं। इन पिछडे रायों में लाभप्रद रोजगार के अवसर विकसित करने पर ही राय विकास की ओर अग्रसर हो सकेंगे।

सोमवार, 27 जनवरी 2014

भारतीय गणतंत्र का विकास : कुछ प्रश्न, कुछ चुनौतियां

भारतीय गणतंत्र का विकास संदेश जहां विश्व के आर्थिक तंत्र को एक नया रूप देने का है वहीं उसका संकल्प विश्व शांति, सहयोग और युध्दहीन विश्व समाज का है। इसके लिए भारतीय मानस अपनी आजादी की लड़ाई के दौरान ही तैयार हो चुका था और आज वह परिपक्वता की स्थिति में आ गया है। इस परिपक्वता की स्थिति में अब उसे कुछ नई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इनमें सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक साम्रायवाद के कुचक्र से बचने की है। समाजवादी अर्थतंत्र की व्यवस्थाएं सोवियत संघ के विघटन के साथ ही खोटी साबित घोषित की जा चुकी है। उनकी खोट का प्रचार पूंजीवादी व्यवस्था की ओर से चकाचौंध कर देने वाला है। इस क्षण में भारत के सामने चुनौती है कि क्या वह स्वीकार कर ले कि समाजवादी अर्थतंत्र एकदम मिथ्या है और उसको दफन किया जाना चाहिए अथवा उसके भीतर जो श्रेयस्कर हैं उसको अंगीकार किया जाना चाहिये और पूंजीवादी गुलामी की व्यवस्था को सीमित किया जाना चाहिये।

भारतीय गणतंत्र का नाम लेते ही एक ऐसे देश का चित्र सामने आता है जिसका इतिहास कितने ही युगों की स्मितों को तोड़ता हुआ मनुष्य की आदिम सभ्यता तक पहुंचता है और जिसका आकार और विस्तार ऐसा है जिसे दुनिया का कोई देश नकार कर नहीं चल सकता है। यहां की धरती और आसमान के बीच मौसम की वे छबियां उभरती हैं जो धरती को अपनी अलग पहिचान सौर मंडल में स्थापित करती है। जलवायु और प्रकृति की विविधता का जो आलम है वही आलम है यहां की वनस्पति और खनिज संपदा का जिसमें नागफनी और दुर्वादल से लेकर चीड़ और बरगद के विशालकाय वृक्षों के समूह उपस्थित हैं और इसी प्रकार उपस्थित है इस गणतंत्र की धरती में हीरा जवाहरात से लेकर कोयला और अनमोल मिट्टी तक। पर्वतों और सरिताओं की छटा तो ऐसी हैं कि क्षण भर में ही जड़ और चेतन की बोधगम्यता को एक सहज दर्शन की संज्ञा दे देती है। ज्ञान और उसकी मीमांसा की जो उड़ानें अब तक मानव की मेधा ने भरी हैं उन सबका आदि अंत यहीं देखने को मिलता है। इस विचित्र और विविध रूपधारी गणतंत्र का समाज भी उसके अनुरूप ही है। यहां का समाज बहुभाषी, बहुधर्मी, बहुकर्मी और बहु आयामी है। पं. नेहरू ने ''भारत की खोज'' नामक पुस्तक में इस भारत का जो वर्णन किया है वह अविस्मरणीय है। उन्होंने इसके विभिन्न रूपों और उसके विभिन्न ''मूडो'' को जो भाषा दी है उसको आत्मसात तो अवश्य ही किया जाना चाहिये। उन्होंने इस महान देश के उत्थान-पतन, आशा-निराशा, आक्रोश और उन्मेष के क्षणों की तस्वीर खींचते हुए उसमें एक स्थायी रंग की उस आभा को भी प्रगट किया है जो आभा उसके शांत और स्थिर मानव की अतल गहराई से उठती हुई आज उसकी विस्तृत सतह पर वैसे ही थिर है जैसे हिमालय की श्रृंखलाओं पर धवल हिमखंड और फेनिल सागर में लहरों की थिरकन।

शांत और स्थिर मानसिकता इस गणराय की अपनी धरोहर और निजी पहिचान है। इस कारण इसके भीतर होने वाली उथल-पुथल अथवा विवाद बहुलता इसके छंद को विद्रुप नहीं करती है और इसकी समरसता को भी रसहीन नहीं बना पाती है। विविधता में एकता का स्वर इसमें सर्वोपरि है। यही कारण है कि इकबाल जैसे महाकवि के मुख से एकाएक निकल पड़ता है- ''कि कुछ बात है ऐसी कि हस्ती मिटती नहीं हमारी'' यह हस्ती तब भी नहीं मिटती है जब सदियों से दुश्मन इसे मिटाने पर तुले हैं। यह है इस देश की धरती की ताकत- तो क्या आश्चर्य है कि इस देश का राजनैतिक तंत्र जो गणतंत्र के रूप में आजादी के बाद उभरा उसमें भी वही ताकत हो जो इस देश के इतिहास और उसकी परंपरा में है, जो इस देश की मिट्टी और जलवायु में है। हमारे इस गणतंत्र की शक्ति का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि द्वितीय विश्वयुध्द के बाद जितने देशों को औपनिवेशिक गुलामी के बाद आजादी मिली उनमें भारत एकमात्र देश है जिसकी राजनैतिक व्यवस्था में कभी भी कोई व्यतिक्रम नहीं आया। भारत के समान ही स्वाधीनता पाने वाले लगभग सौ देश आज हैं जिन्हें द्वितीय विश्व युध्द के बाद आजाद होने का अवसर मिला पर उनमें से कितने ही राष्ट्र तो आज तक यह फैसला नहीं कर सके हैं कि उनकी आजाद सत्ता का स्वरूप क्या होगा? कितने ही देशों ने आजाद संविधान अंगीकार करने का प्रयास भी किया तो वह प्रयास ही असफल हो गया। स्वयं हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान, बंगलादेश, म्यामार और श्रीलंका अभी तक अपने लिये स्थायी या दीर्घायु संविधान नहीं दे सके। और कितने ही देश लहु-लुहान क्षेत्रों में भटकते हुए आज भी आशंकाओं के घेरे में चल रहे हैं।

यह सब क्यों हुआ? हमारे गणतंत्र से कई गुने छोटे ये देश अपने बीच वह शांत और स्थिर मानसिकता क्यों नहीं पैदा कर सके? क्यों कभी हमारे ही भूभाग के भावात्मक अंग होते हुए भी आज बिखराव के मार्ग पर भटक रहे हैं? क्यों इनकी राजनीति में मौसमी तूफान जब तब आकर इनके तंत्र को उजाड़ देते हैं? निस्संदेह ही ये अपने भीतर के बहुयामी व्यक्तित्व को पहिचानने में असफल हुए हैं। निस्संदेह ही ये अपने इतिहास की धरोहर को भूल बैठे हैं। और भूल बैठे हैं परंपरा और परिवर्तन की उस समरसता को जो भारतीय गणतंत्र की अपनी विशेषता है, उसकी अपनी पहिचान है। इस पहिचान और विशेषता को यदि इन देशों ने स्वीकारा होता तो संभवत: इनकी यह गति आज न होती। हमारे इस गणराय की विशेषता को हमारे ही समान बहुभाषी और बहुजातीय एक राष्ट्र जिसका सोवियत संघ था उसने जब पहिचाना तब बहुत देर हो चुकी थी। उसने हमारे गणतंत्र के आदर्शों को अंगीकार करने की बात की तब तक सोवियत संघ में बिखराव आ चुका था और वह टूट गया। पर, उसे देश के अंतिम राष्ट्रपति गोर्बाच्योव को भुलाया नहीं जा सकता है जिसने विश्व के सम्मुख इस बात को स्वीकार किया था कि सोवियत संघ की एकता और विकास के लिये भारतीय गणतंत्र एकमात्र उदाहरण है जिसका अनुकरण किया जाना चाहिए। आज भी गोर्बाच्योव के विचारों में भारत एकमात्र गणतंत्र है जो उन तमाम देशों के लिये एक अनुकरणीय उदाहरण है जिन देशों में धर्म, भाषा और जातियों की विविधता है। और ऐसी विविधता कहां नहीं है? कहां नहीं है भाषा और क्षेत्रीयता की अपनी विविधताएं? कहां नहीं धर्म और उसकी परंपराओं और रूढ़ियों की विविधताएं और कहां नहीें मानवी स्वार्थों और संकल्पों की सीमाओं के विभाजन? ऐसी सभी स्थितियों का हल यदि कहीं है तो वह है भारतीय गणतंत्र में।

भारतीय गणतंत्र का सबसे बड़ा आग्रह है ''विविधता में एकता'' - विविधता को मिटाने की जिन देशों ने चेष्टा की उनकी एकता भंग हो गई और जिन्होंने एकत्व की स्थापना के लिये विविधता को गौण स्थान दिया, ये भी मिट गए। विविधता और एकता दोनों ही अपनी सार्वभौम सत्ता के स्वामी बनकर जब चलते हैं और समान अधिकार संपन्न होकर मिलते हैं तो उनके बीच टूटने की स्थिति नहीं आती है। यह स्थिति है केवल हमारे गणतंत्र में, उसके संविधान में और उनमें जिन्होंने इस संविधान को निर्मित कर अपने आपको अर्पित किया है। भारतीय गणतंत्र के नागरिक अपने संविधान को एक धर्म पुस्तक की तरह लेकर चलते हैं और उसके अधीन अपने को रखकर समानता, स्वाधीनता, सहअस्तित्व और शांति का अनुभव करते हैं। उनकी आकांक्षाओं और व्याख्याओं में युध्दहीन विश्व, शोषणहीन समाज और जीवन व्यापार में सहयोग- यह सहयोग आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर बिना किसी भेदभाव के स्वीकारा जाना चाहिये।

जिस गणतंत्र के निवासियों की ऐसी धारणाएं उनकी आत्मा और भौतिक अस्तित्व के अंग बन गई हों उसे गणतंत्र की ओर से यदि पहिली विश्व घोषणा विश्व शांति और गुट निरपेक्षता, धर्म निरपेक्षता और समान आर्थिक अवसरों के संबंध में की जाती है तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। भारतीय गणतंत्र की पहिली धारणा थी कि जब तक विश्व में स्थायी शांति नहीं कायम होती है तब तक विकास की कोई संभावनाएं नहीं हैं इस कारण भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत अपनी विदेश नीति में उसे गुटीय नीति से दूर रहेगा तो दुनिया को दो खेमों में बांटकर शीत युध्द को बढ़ावा दे रहे हैं। हमारी नीति तटस्थता की है पर युध्द और शांति के बीच हम तटस्थ नहीं हैं। हम निस्संदेह ही शांति के पक्षधर और युध्द के विरोधी हैं। इसी प्रकार से आर्थिक और सामाजिक विकास की प्रक्रिया में हम उनके सहयोगी हैं जो अपनी आर्थिक अवस्था  को सुधारने के लिये प्रयत्नशील हैं और जो किसी का शोषण कर अपना घर नहीं भरना चाहते हैं। भारत ने जब  तीसरी दुनियां की अर्थव्यवस्था को विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था की संज्ञा दी और विकसित राष्ट्रों से सहयोग मांगा तो विकसित राष्ट्रों की अर्थव्यवस्था दो प्रकार की थी एक पूंजीवादी और दूसरी समाजवादी। पं. नेहरू ने तब इन दोनों ही अर्थव्यवस्थाओं से सहयोग पाने के लिये निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की अर्थव्यवस्थाओं को संगठित करने की बात की और जहां इन दोनों से ही सहयोग प्राप्त हो तो वहां पर मिश्रित अर्थव्यवस्था को भी स्थान देने की बात कही। स्वाधीनता के आदर्शों को कायम रखते हुए विकास का यही मार्ग संभव था। इससे इतर जिन्होंने मार्ग अपनाया वे राष्ट्र या तो अमरीकी पूंजीवाद के समर्थक बनने को बाध्य हुए अथवा फिर वे सोवियत रूस के समर्थक बन गए। भारत किसी का पिछलग्गू नहीं बना यह भारतीय गणतंत्र की सूझ-बूझ और उसकी भक्ति का परिचायक है।

भारतीय गणतंत्र का विकास संदेश जहां विश्व के आर्थिक तंत्र को एक नया रूप देने का है वहीं उसका संकल्प विश्व शांति, सहयोग और युध्दहीन विश्व समाज का है। इसके लिए भारतीय मानस अपनी आजादी की लड़ाई के दौरान ही तैयार हो चुका था और आज वह परिपक्वता की स्थिति में आ गया है। इस परिपक्वता की स्थिति में अब उसे कुछ नई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इनमें सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक साम्रायवाद के कुचक्र से बचने की है। समाजवादी अर्थतंत्र की व्यवस्थाएं सोवियत संघ के विघटन के साथ ही खोटी साबित घोषित की जा चुकी है। उनकी खोट का प्रचार पूंजीवादी व्यवस्था की ओर से चकाचौंध कर देने वाला है। इस क्षण में भारत के सामने चुनौती है कि क्या वह स्वीकार कर ले कि समाजवादी अर्थतंत्र एकदम मिथ्या है और उसको दफन किया जाना चाहिए अथवा उसके भीतर जो श्रेयस्कर हैं उसको अंगीकार किया जाना चाहिये और पूंजीवादी गुलामी की व्यवस्था को सीमित किया जाना चाहिये।

दूसरी चुनौती देश की प्रजातांत्रिक व्यवस्था को बनाये रखने की है। यों हमारे संविधान में लोकतंत्र सुरक्षित है किंतु समय-समय पर धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर उठने वाले विवाद देश की स्वस्थ मानसिकता को प्रदूषित करने में सहायक होते हैं। इस प्रकार के प्रदूषण का देश के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव न हो, यह हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। सामाजिक सद्भाव तथा सर्वधर्म सम्भाव हर नागरिक की प्राथमिकता होनी चाहिये।

एक और चुनौती है देश की अखंडता के लिये। यह खतरा न केवल देश के भीतर से उभरता है वरन पड़ोसी राष्ट्रों द्वारा भी प्रोत्साहित किया जाता है। इस ओर भी सावधान रहना आवश्यक है।

विकासशील दुनिया के बीच भारत का संदेश सबसे महत्वपूर्ण है और इस दिशा में हमारे गणतंत्र को अपना दायित्व समझना चाहिए।

दया याचिकाओं में विलम्‍ब पर उच्‍चतम न्‍यायालय की व्‍यवस्‍था

उच्चतम न्यायालय की सुविचारित व्यवस्था ने विरलतम अपराध के लिये मौत की सजा पाने वाले मुजरिमों की दया याचिकाओं के निबटारे में अत्यधिक विलंब को लेकर लंबे समय से उठ रहे विवाद पर अब विराम लगा दिया है। शीर्ष अदालत ने स्पष्ट कर दिया है कि दया याचिका के निबटारे में अत्यधिक विलंब होने या किसी मुजरिम के मानसिक रोगी होने की स्थिति मौत की सजा को उम्र कैद में तब्दील करने का आधार हो सकता है।

देश की शीर्ष अदालत के अनुसार यह सुविचारित व्यवस्था है कि संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जीने का अधिकार इस तरह के फैसले के साथ ही खत्म नहीं होता है और मौत की सजा पर अमल को लंबे समय तक टाल कर रखने से ऐसे कैदियों पर अमानवीय प्रभाव पडता है। ऐसी स्थिति में मौत की सजा पर अमल में कैदी के नियंत्रण से बाहर का किसी भी प्रकार का विलंब उसे इस सजा को उम्र कैद में तब्दील कराने का हकदार बनाता है।

न्यायालय की इस व्यवस्था के तुरंत बाद ही भारतीय युवक कांग्रेस के मुख्यालय पर हुये आतंकी हमले के दोषी देवेन्द्रपाल सिंह भुल्लर की पत्नी ने अपने पति की मानसिक स्थिति का हवाला देते हुये सुधारात्मक याचिका दायर करके राहत पाने का प्रयास किया है।

जघन्यतम अपराधों में मौत की सजा पाने वाले मुजरिमों की दया याचिकाओं के निबटारे में अत्यधिक विलंब के कारण उठे विवाद पर प्रधान न्यायाधीश पी सदाशिवम की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने पूर्ण विराम लगाने का प्रयास किया है।

न्यायालय ने इस प्रकरण पर विचार के दौरान पाया कि 1980 तक दया याचिकाओं के निबटारे में 15 दिन से 11 महीने तक का ही समय लगता था। धीरे धीरे दया याचिकाओं के निबटारे की प्रक्रिया लंबी होती गयी और 1980 से 1988 के दौरान इसमें औसतन चार साल लगने लगे।

इसके बाद तो ऐसी याचिकाओं के निबटारे के लिये मुजरिमों को 12-12 साल इंतजार करना पड़ा। इस दौरान मौत की सज़ा पाने वाले कैदियों को एकांत में, जिसे काल कोठरी भी कहा जाता है, रखा गया। लेकिन अब उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि दया याचिका लंबित होने के दौरान ऐसे मुजरिमों को एकांत में रखना असंवैधानिक है।

संविधान के अनुच्छेद 72 और अनुच्छेद 161 के तहत राष्ट्पति और राज्यपाल दोषी को क्षमा दान दे सकते हैं या सज़ा कम कर सकते हैं और ऐसा सिर्फ सरकार की सलाह से ही किया जा सकता है। ऐसे मामलों के निबटारे के लिये हालांकि कानून में कोई समय सीमा नहीं है।

शायद इसी वजह से पिछले कुछ सालों से मुजरिमों की दया याचिकाओं के निबटारे में हो रहा अत्यधिक विलंब विवाद का विषय बना हुआ है। पहले भी यह मसला समय समय पर देश की शीर्ष अदालत पहुंचा और न्यायालय ने तथ्यों तथा परिस्थितियों के आधार पर अपनी सुविचारित व्यवस्थायें भी दीं। लेकिन उच्चतम न्यायालय की नयी व्यवस्था के बाद ऐसे मामलों को लेकर व्याप्त तमाम भ्रांतियां अब पूरी तरह खत्म हो गयी हैं।

लेकिन उच्चतम न्यायालय का मानना है कि कानून में प्रतिपादित प्रक्रिया का सही तरीके से पालन किया जाये, तो दया याचिकाओं का निबटारा कहीं अधिक तत्परता से किया जा सकता है।

गृह मंत्रालय से संबंधित संसदीय समिति ने भी दया याचिकाओं के निबटारे में अत्यधिक विलंब पर चिंता व्यक्त करते हुये ऐसे मामलों का तीन महीने के भीतर निबटारा करने की सिफारिश की थी।
सारे तथ्यों के मद्देनजर अब उच्चतम न्यायालय ने दया याचिकाओं के शीघ्र निबटारे के लिये 12 सूत्री दिशानिर्देश प्रतिपादित किये हैं। इन दिशानिर्देशों में कैदी की दया याचिका राष्ट्पति के समक्ष पेश किये जाने के समय अपनायी जाने वाली प्रक्रिया निर्धारित की गई है जिसमें कहा गया है कि संबंधित कैदी का सारा रिकार्ड और आवश्‍यक दस्तावेज़ एक ही बार में गृह मंत्रालय के पास भेजा जाना चाहिए।

न्यायालय ने कहा है कि कैदी से संबंधित सारा विवरण मिलने के बाद गृह मंत्रालय को एक उचित समय के भीतर ही अपनी सिफारिश राष्‍ट्रपति के पास भेजनी चाहिए और वहां से कोई जवाब नहीं मिलने पर समय समय पर इस ओर राष्‍ट्रपति का ध्यान आकर्षित करना चाहिए।

अधिकतर जेल मैनुअल में कैदी की दया याचिका खारिज होने की स्थिति में उसे और उसके परिजनों को सूचित करने का प्रावधान है लेकिन न्यायालय ने पाया कि कैदी और उसके परिजनों को लिखित में इसकी सूचना नहीं दी जाती है।

दूसरी ओर, राज्यपाल द्वारा दया याचिका खारिज होने की स्थिति में कैदी और उसके परिजनों को इसकी सूचना देने के बारे में जेल मैनुअल में कोई प्रावधान नहीं है।

इस तथ्य के मद्देनजर न्यायालय ने कहा है कि ऐसे कैदियों को अधिकार है कि राज्यपाल द्वारा दया याचिका खारिज करने के निर्णय के बारे में उन्हें लिखित में इसकी जानकारी दी जाये। इसलिए न्यायालय ने ऐसे कैदियों को दया याचिका खारिज होने पर इस फैसले की लिखित में जानकारी देना अनिवार्य कर दिया है।

यही नहीं, न्यायालय ने दया याचिका खारिज होने के बाद ऐसे कैदी को फांसी देने की प्रक्रिया शुरू करने से पहले उसके परिजनों को इसकी सूचना देने के बारे में भी समय सीमा निर्धारित की है।
न्यायालय ने कहा है कि दया याचिका खारिज होने और कैदी को फांसी देने के बीच कम से कम 14 दिन का अंतर रखा जाये और इस दौरान कैदी को खुद को मानसिक रूप से तैयार करने तथा अपने परिजनों से अंतिम बार मुलाकात का अवसर मिल सकेगा।

कई जेल मैनुअल में मौत की सज़ा पाने वाले कैदी को फांसी देने के बाद उसका पोस्टमार्टम कराने का प्रावधान नहीं है। इस तथ्य के मद्देनजर न्यायालय ने यह भी व्यवस्था दी है कि किसी कैदी को फांसी देने के बाद उसके शव का पोस्टमार्टम भी अनिवार्य रूप से कराया जाये।

दया याचिकाओं के निबटारे में छह साल से लेकर 12 साल तक की अवधि के विलंब को देखते हुये उच्चतम न्यायालय ने हालांकि 15 कैदियों की मौत की सजा को उम्र कैद में तब्दील कर दिया है। लेकिन न्यायालय को विश्वास है कि भविष्य में ऐसे कैदियों की दया याचिकाओं का तेज़ी से निबटारा किया जायेगा।


उम्मीद की जानी चाहिए कि उच्चतम न्यायालय की इस सुविचारित व्यवस्था के बाद मौत की सज़ा पाने वाले कैदियों की दया याचिकाओं के निबटारे की प्रक्रिया को गति प्रदान की जायेगी ताकि जघन्य अपराधों के लिये मौत की सज़ा पाने वाला कोई भी कैदी दया याचिका के निबटारे में अत्यधिक विलंब के आधार पर इस सज़ा को उम्र कैद में तब्दील कराने का दावा पेश नहीं कर सके।

शनिवार, 25 जनवरी 2014

सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला

सभ्यता के सोपान पर निरंतर बढ़ते जा रहे विश्व में क्या मृत्युदंड जैसी व्यवस्था के लिए कोई स्थान होना चाहिए, यह प्रश्न लंबे समय से विभिन्न देशों, समाजों व संस्कृतियों के लिए चिंतन का विषय रहा है। जब आप किसी को जीवन दे नहींसकते, तो उसे छीनने का भी अधिकार आपको नहीं हैएक बार किसी के प्राण ले लिए जाएं तो फिर उसे लौटाया नहींजा सकता, मौत की सजा मध्ययुगीन बर्बरता का परिचायक है, ऐसी धारणाएं मृत्युदंड की मुखालफत करती हैं और मानवाधिकार इनके केंद्र में होता है। मानवाधिकार के इसी तकाजे को ध्यान में रखते हुए विश्व के सौ देशों ने मृत्युदंड को पूरी तरह खत्म कर दिया है, 48 देशों में इसका प्रावधान होते हुए भी पिछले 10 सालों में कोई सजा नहींदी गई है, 7 देशों में इसे दुर्लभतम परिस्थितियों में हुए अपराधों के लिए ही तय किया गया है, जबकि 40 देशों में यह अब भी जारी है। भारत में मृत्युदंड की व्यवस्था है और पिछले कुछ वर्षों में धनंजय चटर्जी, अजमल कसाब, अफजल गुरु को फांसी की सजा हुई भी है, फिर भी इस बात पर देश में एक राय नहींहै कि मौत की सजा भारत में जारी रहना चाहिए या समाप्त कर देना चाहिए। मानवाधिकार संगठन हमेशा ही मृत्युदंड का विरोध करते रहे हैं, आम जनता का एक बड़ा हिस्सा भी ऐसी ही राय रखता है। हां, अगर निर्भया जैसा कोई मामला सामने आता है, या अजमल कसाब जैसा आतंकी रंगे हाथों पकड़ाता है, तब जनता आक्रोशित होकर फांसी की मांग करती है। पर यहां यह ध्यान देने की जरूरत है कि ऐसी मांग नाराजगी से उपजती है और उसमें तर्क पर भावनाएं हावी होती हैं। जबकि न्याय व्यवस्था हमेशा तर्कों से संचालित होती है, वह बदला लेने की भावना की जगह न्याय प्रदान करने के लिए बनायी गई है। इसलिए चाहे कसाब हो या निर्भया के दोषी, उन्हें अपना पक्ष रखने का भी अवसर भारत की न्याय व्यवस्था में दिया जाता है। निचली अदालत से लेकर सर्वोच्च अदालत तक अगर किसी की फांसी सजा बरकरार है, तो उसे राष्ट्रपति के पास दया याचिका भेजने का अधिकार होता है और अगर वह याचिका रद्द हो गई तो उसे फांसी दी जाती है, जैसा कसाब और अफजल गुरु मामले में देखा गया और अगर याचिका स्वीकृत हो गई तो फांसी की सजा नहींहोती। लेकिन याचिका पर फैसला लंबे समय तक न हो, उस स्थिति में क्या हो? क्योंकि राष्ट्रपति के लिए याचिका पर निर्णय लेने की कोई समय सीमा निर्धारित नहींकी गई है। इस स्थिति में मृत्युदंड पाए अपराधी और उसके परिजनों के लिए हर दिन मौत की प्रतीक्षा करते बीतता है, जो मानसिक तौर पर किसी सजा से कम नहीं है।


भारत के सर्वोच्च न्यायाधीश पी.सदाशिवम की अध्यक्षता वाली बेंच द्वारा 15 लोगों के मृत्युदंड को उम्रकैद में बदलने का फैसला इसी दृष्टिकोण से समझने की जरूरत है। यह एक ऐतिहासिक फैसला है और मानवाधिकारों की बड़ी जीत है। अपना पदभार संभालने के वक्त न्यायमूर्ति पी.सदाशिवम ने कहा था कि फांसी की सजा को लेकर स्पष्ट नियम बनाए जाने जरूरी हैं ताकि इस पर मौजूद असमंजस खत्म हो सके। अब उनके इस फैसले से कुछ बातें तय हो गई हैं। उदाहरण के लिए दया याचिका पर निर्णय लेने में लंबी देरी अपराधी को राहत देने का पर्याप्त आधार बन सकती है। इसी तरह मानसिक रोग से ग्रसित होने और दोषी को जेल में एकांत में रखने को भी राहत का आधार माना गया है। अगर मौत की सजा सुनाए गए कैदी की दया याचिका राष्ट्रपति खारिज करते हैं तो उसके परिजनों को इसकी जानकारी देना अनिवार्य होगा और 14 दिनों के भीतर फांसी की सजा देना भी जरूरी होगा। अदालत ने यह भी कहा है कि जिस भी व्यक्ति को मौत की सजा सुनाई जाती है, उसे सुप्रीम कोर्ट के सामने अपना मामला लाने का अधिकार होगा। कई हत्याओं के दोषी या फिर आतंकवाद संबंधी मामलों के दोषियों को भी यह अधिकार होगा। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले से 15 लोगों की फांसी उम्रकैद में बदल गई, जिसमें कुख्यात तस्कर वीरप्पन के 4 साथियों से लेकर अपने ही परिजनों को मौत के घाट उतारने वाले दंपती भी शामिल हैं। यह फैसला उन कैदिय और परिजनों के लिए भी थोड़ी राहत लेकर आया है, जो कई सालों से जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे हैं। फांसी देने से समाज में अपराध खत्म नहींहोते, यह साबित हो चुका है। लेकिन समाज में विभिन्न कारणों से बढ़ रहे अपराधों पर अंकुश लगे, अपराधियों में कानून का डर कायम हो और पीड़ितों को न्याय प्राप्त करने में देर न हो, ऐसी सुदृढ़ व्यवस्था बनाने की उम्मीद न्यायपालिका से जनता करती है।

शिक्षा का अधिकार

शिक्षा का अधिकार (आरटीई) देश में प्राथमिक शिक्षा के सर्वव्‍यापीकरण में अब तक का ऐतिहासिक विकास है। 2010 में लागू इस अधिनियम में 6 से 14 वर्ष की आयु समूह के प्रत्‍येक बालक को प्राथमिक शिक्षा का अधिकार दिया गया है। वे नि:शुल्‍क और अनिवार्य शिक्षा के हकदार हैं।

सर्वशिक्षा अभियान (एसएसए) आरटीई अधिनियम के कार्यान्‍वयन का एक मुख्‍य साधन है। यह दुनिया में अपनी तरह के सबसे बड़े कार्यक्रमों में से एक है। यह मुख्‍य तौर पर, केन्‍द्रीय बजट से प्राथमिक तौर पर वित्‍त पोषित है और इसे पूरे देश में चलाया जाता है। इस योजना के अंतर्गत 11 लाख रिहाइशों में 19 करोड़ से ज्‍यादा बच्‍चों को शामिल किया गया है। देश की 98 प्रतिशत बस्तियों में एक किलोमीटर के दायरे में प्राथमिक विद्यालय हैं और 92 प्रतिशत बस्तियों में तीन किलोमीटर के दायरे में उच्‍चतर प्राथमिक विद्यालय हैं।

इस कार्यक्रम का कार्यान्‍वयन प्राथमिक शिक्षा में लैंगिक और सामाजिक अंतराल को कम करना है। अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और मुस्लिम अल्‍पसंख्‍यक समुदायों की बालिकाओं और बच्‍चों तक पहुंच बनाने के लिए विशेष प्रयास किए गए हैं।

अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्‍य पिछड़े वर्गों, मुस्लिम समुदायों और शै‍क्षणिक रूप से पिछड़े ब्‍लॉकों में गरीबी रेखा से नीचे की बालिकाओं के लिए आवासीय उच्‍चतर प्राथमिक विद्यालयों के तौर पर 3500 से ज्‍यादा कस्‍तूरबा गांधी बालिका विद्यालयों (केजीबीवी) को स्‍थापित किया जा चुका है। इन विद्यालयों में नि:शुल्‍क आवास, पुस्‍तकें, स्‍टेशनरी और वर्दियां प्रदान की जा रही हैं।

एसएसए के अंतर्गत शहरी वंचित बच्‍चों, आवधिक प्रवास से प्रभावित बच्‍चों और दूर-दराज एवं बिखरी हुई बस्तियों में रहने वाले बच्‍चों पर विशेष ध्‍यान दिया गया है। ऑटिज्‍म से पीड़ि‍त बच्‍चों तक पहुंच बनाने के लिए विशेष प्रयास किए गए हैं। इसमें बुनियादी सुविधाओं में सुधार और सरकारी विद्यालयों में नए शिक्षक पदों की अनुमति शामिल है। सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्‍त विद्यालयों में सभी बच्‍चों को नि:शुल्‍क पाठ्य पुस्‍तकें प्रदान की जा रही हैं। पिछले वर्ष, केन्‍द्र ने 23,800 करोड़ रुपये से ज्‍यादा जारी किए और वर्तमान वित्‍तीय वर्ष (2013-14) के दौरान पहले आठ महीनों में 16,000 करोड़ रुपये से ज्‍यादा जारी किए जा चुके हैं।

वित्‍त पोषण के लिए बढ़ाई गई इस धनराशि से विद्यालय स्‍तर पर व्‍यापक निर्माण और बुनियादी सुविधाओं में सुधार किया गया है। 95 प्रतिशत के करीब विद्यालयों में पेयजल सुविधाएं हैं और 90 प्रतिशत विद्यालयों में शौचालय हैं। इसी प्रकार से, करीब 75 प्रतिशत उच्‍चतर प्राथमिक विद्यालयों में फर्नीचर सुविधाएं उपलब्‍ध हैं। शिक्षा के अधिकारको कार्यान्वित करने के लिए संयुक्‍त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के एक प्रमुख कार्यक्रम के अंतर्गत सर्वशिक्षा अभियान के तहत शौचालय, पेयजल सुविधाओं और विद्युतीकरण के साथ तीन लाख से ज्‍यादा नए विद्यालय भवनों का निर्माण किया जा चुका है।

नि:शुल्‍क और अनिवार्य शिक्षा (आरटीई) अधिनियम, 2009 के तहत बच्‍चों के अधिकार के लागू होने के बाद से शिक्षा के लिए जिला सूचना प्रणाली (डीआईएसई) आंकड़ों के अनुसार प्राथमिक स्‍तर पर बच्‍चों के दाखिले 2008-09 के करीब 19 करोड़ से 2012-13 में 20 करोड़ तक पहुंच चुके हैं। आरटीई अधिनियम के उद्देश्‍यों को पूरा करने के लिए सर्वशिक्षा अभियान (एसएसए) के अंतर्गत राज्‍यों/संघ शासित प्रदेशों को कुल 43,500 से ज्‍यादा विद्यालयों, अतिरिक्‍त सात लाख कक्षाएं, 5,46,000 शौचालय और 34,600 पेयजल सुविधाओं के लिए स्‍वीकृति दी जा चुकी है।

वर्ष 2008-09 और 2012-13 के दौरान अनुसूचित जाति के दाखिले में तीन से चार करोड़ तक की वृद्धि हो चुकी है। इसी प्रकार से अनुसूचित जनजातियों और अल्‍पसंख्‍यकों के बीच भी सकारात्‍मक दृष्टिकोण देखने को मिला है। आरटीई अधिनियम के अनुसार 13 राज्‍य, निजी और बिना किसी आर्थिक सहायता प्राप्‍त  विद्यालयों में अलाभान्वित समूहों/कमजोर वर्गों के बच्‍चों को दाखिल कर चुके हैं।

मध्‍यान्‍ह भोजन योजना के साथ शिक्षा का अधिकार अधिनियम, प्राथमिक शिक्षा के सर्वव्‍यापीकरण पर महत्‍वपूर्ण प्रभाव डालते हुए बच्‍चों के स्‍कूल से हटने में कमी के साथ-साथ कक्षाओं में भूख से होने वाली समस्‍याओं को भी महत्‍वपूर्ण रूप से दूर कर चुका है।

प्राथमिक शिक्षा के कुल दाखिला अनुपात में यह सुधार प्रतिबिंबित होता है। वर्ष 2011-12 में यह 99.89 प्रतिशत था। हालांकि प्राथमिक स्‍तर पर बच्‍चों के विद्यालय से हटने के मामलों में भी काफी कमी आई है। विद्यालयों से बच्‍चों के हटने की संख्‍या वर्ष 2005 में 1.34 करोड़ से ज्‍यादा थी, जो वर्ष 2012-13 में 29 लाख पर आ गई।

आरटीई के अंतर्गत गुणवत्‍ता को सुधारने के लिए कई नए उपाय भी अपनाए जा चुके हैं। वर्ष 2012-13 तक एसएसए के अंतर्गत करीब 20 लाख अतिरिक्‍त  शिक्षक पदों को स्‍वीकृति दी जा चुकी है। इनमें से 12 लाख 40 हजार पदों को भरे जाने की भी खबर है। आरटीई के बाद यह अनिवार्य कर दिया गया है कि शिक्षक पात्रता परीक्षा को उत्‍तीर्ण करने वाले व्‍यक्ति ही शिक्षक के तौर पर नियुक्‍त किए जा सकते हैं।

शिक्षण के स्‍तर को सुधारने के लिए कक्षा आठ तक के बच्‍चों को नि:शुल्‍क पाठ्य पुस्‍तकें उपलब्‍ध कराई जाती हैं। सतत् और व्‍यापक मूल्‍यांकन प्रणाली को भी प्रोत्‍साहन दिया जा रहा है। बच्‍चों के शिक्षण को और अधिक सरल और समग्र बनाने के लिए पाठ्यक्रम में संशोधन भी किए गए हैं। सेवारत शिक्षकों और मुख्‍याध्‍यापकों के प्रशिक्षण को भी प्रोत्‍साहन दिया जा रहा है।


11वीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत मानव संसाधन विकास मंत्रालय की सभी योजनाओं का उद्देश्‍य गुणवत्‍ता युक्‍त शिक्षा तक पहुंच और इसमें सुधार लाना है, जबकि वर्तमान पंचवर्षीय योजना का प्रमुख ध्‍येय शिक्षा में गुणवत्‍ता प्रदान करना है।

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