Category
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Name of the Person
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Contribution
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Physiology or Medicine
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James Rothman
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For their groundbreaking work on how the cell organizes
its transport system
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Randy Schekman
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Thomas Suedhof
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Physics
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Peter Higgs
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For the theoretical discovery of a mechanism
that contributes to our understanding of the origin of mass of subatomic
particles.
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Francois Englert
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Chemistry
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Michael Levitt
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For the development of multi scale models for
complex chemical systems
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Martin Karplus
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Arieh Warshel
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Peace
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The Organisation for the Prohibition of
Chemical Weapons (OPCW)
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For its extensive efforts to eliminate
chemical weapons
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Literature
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Alice Munro
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Master of the contemporary short story
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Economics
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Eugene Fama
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For their work on creating a deeper knowledge
of how market prices move
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Lars Peter Hansen
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Robert Shiller
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IAS Charisma is a brainchild of Dr. Kumar Ashutosh, a Ph.D. in History, PGDM(Marketing) and Double M.A.(History and Philosophy), an IAS aspirant himself, he cleared IAS Mains twice and faced IAS interview before starting on this journey of guiding future IAS aspirants to help them in tackling with the problems that he had to face during IAS preparation. IAS Charisma is an endeavor to light a candle for IAS aspirants who sometimes get lost in commercialization of education.
रविवार, 20 अक्टूबर 2013
NOBEL PRIZES 2013
महंगाई का दंश
पिछले दिनों यह माना जा रहा था कि डॉलर
के मुकाबले रुपए का लगातार अवमूल्यन ही महंगाई का सबब बना हुआ है। लेकिन रुपए के
थोड़ा संभलने और चालू खाते के घाटे में उल्लेखनीय कमी आने के बावजूद महंगाई से कोई
राहत नहीं मिल पाई है। यही नहीं, ताजा आंकड़े बताते हैं कि महंगाई पिछले सात महीनों के रिकार्ड स्तर पर
पहुंच गई है। और भी चिंताजनक पहलू यह है कि खाने-पीने की चीजों की महंगाई इस वक्त
पिछले तीन साल में सबसे ज्यादा है; सितंबर में यह अठारह फीसद से भी ऊपर पहुंच गई। यह हालत ऐसे साल में
है जब मानसून ने मेहरबानी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है और अच्छी वर्षा के कारण
मौजूदा वित्तवर्ष में कृषि क्षेत्र की विकास दर चार फीसद से ऊपर पहुंचने की उम्मीद
की जा रही है। इसलिए महंगाई का ताजा दौर चिंता के साथ-साथ थोड़ी हैरानी का विषय भी
है। रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नीति की अपनी पिछली समीक्षा में नीतिगत दरों में कुछ
कटौती की उम्मीद से उलट उनमें कुछ बढ़ोतरी कर दी, इसी तर्क पर मुद्रास्फीति पर काबू पाने के लिए ऐसा करना जरूरी है। पर
उसके इस कदम का भी कोई अपेक्षित परिणाम नजर नहीं आ रहा है। ताजा आंकड़ों ने एक बार
फिर रिजर्व बैंक को इस दुविधा में डाल दिया होगा कि बाजार में पूंजी प्रवाह बढ़ाने
और मुद्रास्फीति नियंत्रण में वह किसे प्राथमिकता दे।
बहुत-से जानकारों का कयास है कि रिजर्व
बैंक एक बार फिर रेपो दरों में चौथाई फीसद की बढ़ोतरी कर सकता है। ऐसा हुआ तो कर्ज
थोड़ा और महंगा हो जाएगा और बैंकों से लिए गए कर्जों पर मासिक किस्तें थोड़ी और
चुभने लगेंगी। पर सवाल यह है कि क्या मौद्रिक कवायद से महंगाई पर लगाम लगाने की
कोशिशें सफल हो पा रही हैं? यह बहुत बार देखा गया है कि ऐसे प्रयास सार्थक साबित नहीं हो पाए
हैं। उन्हें अधिक से अधिक सावधानी के कदम कहा जा सकता
है।
दरअसल, अर्थव्यवस्था को गति देने और
मुद्रास्फीति पर लगाम लगाने की उम्मीद वित्त मंत्रालय से की जानी चाहिए, न कि रिजर्व बैंक से। महंगाई से निपटने
का तकाजा नीतिगत फैसलों, आपूर्ति
की राह की अड़चनें दूर करने, जमाखोरी और कालाबाजारी रोकने आदि से ताल्लुक रखता है। लेकिन अब यह
कोई रहस्य की बात नहीं है कि प्याज की कीमत बेतहाशा बढ़ने के पीछे जमाखोरी सबसे बड़ी
वजह है। मगर इस पर अंकुश लगाने में न केंद्र सरकार ने तत्परता दिखाई है न प्याज की
उपज वाले अग्रणी राज्य महाराष्ट्र की सरकार ने। अनाज के वायदा बाजार के चलते
कीमतों को प्रभावित करने में सटोरियों की भूमिका बढ़ती गई है। पर केंद्र सरकार
वायदा बाजार के औचित्य पर पुनर्विचार के लिए कभी तैयार नहीं होती। फिर, यह आम अनुभव की बात है कि थोक कीमतों
और खुदरा कीमतों के बीच अंतर अतार्किक रूप से बहुत ज्यादा रहता है। इस अंतर को
कैसे तर्कसंगत बनाया जाए, इस दिशा में न केंद्र सरकार सोचती है न राज्य सरकारें।
महंगाई से निपटने के लिए उठाए जा सकने
वाले नीतिगत कदमों को लेकर राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी तो है ही, प्रबंधन के स्तर पर भी काहिली नजर आती
है। खुद कृषिमंत्री शरद पवार संसद में कह चुके हैं कि हर साल हजारों करोड़ रुपए के
फल और सब्जियां उचित रखरखाव के अभाव में बर्बाद हो जाते हैं। अनाज के मामले में भी
यह होता है। कहा जाता है कि विकास दर ऊंची हो तो महंगाई को नजरअंदाज किया जा सकता
है। पर मौजूदा स्थिति यह है कि विकास दर उत्साहजनक नहीं है और दूसरी ओर महंगाई
बेहद चिंताजनक स्तर पर है। इस दुश्चक्र जैसी स्थिति से निकलने के उपाय तो दूर, वास्तविक कारणों की गंभीर पड़ताल भी
नहीं हो रही है।
जनसत्ता
शनिवार, 19 अक्टूबर 2013
Factors of Production – Land
Land:
Dr. Alfred Marshall defined land is meant no
merely land in the strict sense of the word, but whole of the materials and
forces which nature gives freely for man’s aid in land, water, in air and light
and heat.
Land stands for all nature,
living and lifeless. It includes all natural resources that human being get
free from air, water and land. In short, the terms ‘land’ refers all that
nature has created on the earth, above the earth and below the earth’s surface.
Importance of Land:
Land a factor of production is of immense
importance. Land is the original sources of all material wealth. The economic
prosperity of a country is closely linked with the richness of her natural
resources. The quality and quantity of agricultural wealth a country depends on
nature of soil, climate, rainfall. The agril products are the form the basis of
trade and industry. Industry also depends upon availability of coal-mines or
waterfall for electricity production. Thus all aspects of economic life i.e.
agriculture, trade and industry are generally influenced by natural resources
which is called as “Land” in economics. The importance of land is therefore too
much as it is influencing finally the standard of living of the people.
Peculiarities of Land:
Land as a factor of production is quite
peculiar, it possess some importance feature, they are-
Land is free gift of nature:
Land is not produced or man-made resource
(agent). Therefore, that we have to accept is as it is. It is after all free
gift of nature.
Land is limited in area:
Land surface of the world is remaining
unchanged. In Holland, some land has been reclaimed from the sea. But these
efforts have produced a negligible result as compared with the total area
already in existence.
Land is permanent:
Land as factor of production is not easy to
destroy. The other factors are destructible but land can not be completely
destroyed.
Land lacks mobility:
Land cannot move bodily from one place to
another. It lacks geographical mobility.
Land is of infinite variety:
Land is not man-made. Land is of infinite
variety. For example, soil may be of different types, climate elements like
temperature, rains received in different part is always varying.
Factors affecting
productivity of land:
Different pieces of land differ in quality or
productivity. The productivity depends upon following factors.
Natural factors:
The factors like soil, climate, rainfall,
topography influence the productivity. The sandy soil with low rainfall always
yield less but it is not so in cause of black cotton soil. It always yields
more.
Human factor:
Man is always trying his
best how maximum output can be obtained from land. So many deficiencies are
always tacked good yields. This human effort is very important to increase the
productivity.
Situation factor:
The location of the land many a times
determines the productivity. The fertile land in remote corner of the country
perhaps may not be cultivated but the land having less fertility but located
nearby marked can give a good yield.
रूस जरूरी, पर चीन से सावधान
रूस तो भारत का एक बेहतर रणनीति सहयोगी
रहा है और हर मुश्किल में उसने दुनिया की परवाह
किए बगैर भारत का साथ दिया है, लेकिन चीन का चरित्र संदिग्ध है। वह एक तरफ भारत के साथ अपने कारोबार को विस्तार देने के
लिए मित्रता का हाथ बढ़ाता है और दूसरी तरफ
पाकिस्तान के नाभिकीय कार्यक्रमों को विस्तार देकर दक्षिण एशिया की शांति
को खतरे में डाल रहे हैं और भारतीय सुरक्षा के समक्ष बेहद गम्भीर चुनौती पैदा कर
रहा है। जो भी हो, चीन के साथ भारत को बेहद रणनीतिक होने
की जरूरत है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 20 से 24
अक्टूबर तक रूस और चीन की यात्रा पर रहेंगे। अगले वर्ष 2014 में होने जा रहे आम
चुनाव से पहले यह संभवत: उनकी अंतिम विदेश यात्रा होगी। इन दोनों देशों का भारत के
लिए विशेष रणनीतिक महत्व है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह रूसी फेडरेशन के साथ भारत
की विशेष एवं प्राथमिकता वाली रणनीतिक साझीदारी के अतिरिक्त अन्य मुद्दों पर भी
बातचीत करेंगे जबकि अगले चरण में बीजिंग पहुंचकर दोनों देशों के बीच साझीदारी
मजबूत करने के उद्देश्य से द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक मुद्दों पर बातचीत करेंगे। प्रधानमंत्री मनमोहन
सिंह की इस यात्रा से एक तरफ 'रिक'
की
व्यूहरचना को मजबूत करने की उम्मीद जगती है। लेकिन चीन लगातार ऐसी गतिविधियां
सम्पन्न कर रहा है जो भारत के रक्षा हितों के प्रतिकूल हैं, इसलिए यह सवाल भी उठता है कि क्या
मनमोहन सिंह चीन जाकर ऐसा कुछ कर पाएंगे जिससे कम से कम चीन के साथ भारत के
सम्बंधों की प्रकृति स्पष्ट हो सके?
प्रधानमंत्री की इस यात्रा के दौरान
व्यापार, व्यवसाय और ऊर्जा क्षेत्र में कई
प्रमुख समझौतों पर हस्ताक्षर होने की संभावना है। पहले चरण में वे 20 से 22
अक्टूबर तक रूस में परमाणु सहयोग, व्यापार और रक्षा जैसे महत्वपूर्ण मामलों पर वार्ता करेंगे, तत्पश्चात 22 अक्टूबर को वे मास्को से
बीजिंग के लिए रवाना होंगे जहां वह भारत में सीमापार से आने वाली नदियों, व्यापार घाटे और सीमा पर हुई घटनाओं से
जुड़ी चिंता पर बातचीत की उम्मीद है। हाल में ही मास्को में संपन्न भारत-रूस
अंतरसरकारी आयोग की बैठक के बाद संकेत हैं कि दोनों देशों ने परमाणु दायित्व मामले
के सम्बंध में प्रगति की है जो कुडनकुलम परमाणु बिजली परियोजना (केएनपीपी) की
तीसरी और चौथी इकाई के लिये रूसी रियेक्टर की आपूर्ति अनुबंध के लिए महत्वपूर्ण
है। समझा जाता है कि सिंह की यात्रा से पहले केएनपीपी की तीसरी और चौथी इकाई के
लिए प्रौद्योगिकी-वाणियिक समझौते को अंतिम स्वरूप देने के लिए बातचीत चल रही है और
उम्मीद है कि दोनों पक्षों के बीच वार्ता के बाद इस पर समझौता हो जाएगा। उल्लेखनीय
है कि भारत के परमाणु क्षतिपूर्ति संबंधी नागरिक उत्तरादायित्व (सीएनएलडी) अधिनियम, 2010 और अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय
सिध्दांतों के अनुरूप बनाने की कोशिश हो रही है। अन्य महत्वपूर्ण मामलों में
दूरसंचार क्षेत्र में रूसी निवेश शामिल होगा क्योंकि रूस की प्रमुख कंपनी सिस्तेमा
ने पिछले सप्ताह स्पेक्ट्रम नीलामी के संबंध में दूरसंचार नियामक ट्राइ के सुझावों
पर यह कहते हुए नाखुशी जाहिर की थी इससे अस्पष्टता और नीतिगत अनिश्चितता पैदा हुई
है जिससे निवेश योजनाओं पर असर पड़ रहा है। सम्भव है कि प्रधानमंत्री इस सम्बंध में
भी रूसी नेतृत्व का आश्वस्त कराएंगे।
चीन यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री
द्वारा अपने चीनी समकक्ष के साथ प्रमुख द्विपक्षीय और क्षेत्रीय मुद्दों पर बातचीत
होने की संभावना है, जिनमें
सीमा-पार की नदियों के मामले, व्यापार घाटा कम करने के लिए औद्योगिक पार्कों के जरिए चीनी निवेश
बढ़ाने के तरीके और सीमा पर हुई घटनाएं शामिल होंगी। यह भी संभावना है कि वीजा
प्रणाली को आसान बनाने के लिए समझौते तक पहुंचने की कोशिश हो। चीन के साथ भारत का
व्यापार घाटा बहुत अधिक होने के कारण भारत चीन पर और अधिक उत्पादों के आयात और
बेहतर बाजार पहुंच के लिए दबाव डाल सकता है। आधिकारिक आंकड़े के मुताबिक वित्त वर्ष
2012-13 में भारत का चीन के साथ व्यापार घाटा रिकार्ड 40.78 अरब डालर है जो
2011-12 में 39.4 अरब डालर और 2010-11 में 27.95 अरब डालर रहा था। यही नहीं, पांच रायों- उत्तर प्रदेश, गुजरात, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश
और कर्नाटक, में चीनी व्यावसायिक पार्क स्थापित
करने का प्रस्ताव है जो विशेष आर्थिक क्षेत्र की तरह काम करेगा। लेकिन क्या
ब्रह्मपुत्र पर तीन बांध बनाने सम्बंधी चीनी कदम पर कोई ठोस बातचीत होगी। चीनी
सेनाओं द्वारा बार-बार भारतीय सीमा में प्रवेश करने की जो घटनाएं हुई हैं, क्या प्रधानमंत्री उस विषय पर दमदार
तरीके से भारत का पक्ष रख पाएंगे? चीन ने पाकिस्तान को जो दो परमाणु रिएक्टर्स देने सम्बंधी डील की है
और यह भारत की सुरक्षा के लिए बेहद खतरनाक है, क्या प्रधानमंत्री इस विषय पर चीन को पीछे हटने के लिए राजी कर
पाएंगे? प्रधानमंत्री का यह मानकर चीन से बात
करनी चाहिए कि हम सिर्फ बाजार और सेल्समैन ही नहीं हैं जो सिर्फ मुनाफे की
संस्कृति से चलते हैं बल्कि एक राष्ट्र हैं। यदि इन प्रश्नों के उत्तर नकारात्मक
मिलते हैं, तो क्या इन यात्राओं को केवल एक
व्यवसायी की यात्राओं के रूप देखा जाना चाहिए या एक देश के राजनीतिक नेता की
यात्रा के रूप में?
गौर से देखें तो इस समय चीनी
गतिविधियां उपमहाद्वीप में भारत को घेरने के प्रयत्नों से जुड़ी हैं। चीन आज भारत
के पड़ोसी देशों के साथ अपनी 'रणनीतिक साझेदारी' को अंजाम देने के वृहत्तर प्रयासों में लगा हुआ है। वह धन और हथियार
देकर भारत के पड़ोसी देशों में पैठ बनाता जा रहा है। भले ही यह सिध्द न हो पाया हो
कि माओवादियों को हथियार चीन ही मुहैया करा रहा है लेकिन अब तक कई ऐसी खबरें आ
चुकी हैं कि उसके युन्नान प्रांत में हथियारों का बहुत बड़ा कालाबाजार है और
माओवादियों के पास उपलब्ध हथियारों का सम्बंध बहुत हद तक यहीं बनने वाले हथियारों
से है। भारत को रोकने के उद्देश्य से ही चीन पाकिस्तान को परमाणु बम का ब्लू
प्रिंट मुहैया कराया, उसे
मिसाइल तकनीक की और पारम्परिक हथियार भी। अमेरिकी परमाणु वैज्ञानिकों थॉमस रीड और
डैनी स्टिलमैन की पुस्तक 'न्यूक्लियर एक्सप्रेस में स्पष्ट खुलासा किया गया है कि चीन ने 26 मई, 1990 को अपने लोपनोर परीक्षण स्थल पर
पाकिस्तान के लिए परमाणु परीक्षण किया था। परमाणु शक्ति से सम्पन्न होने के बाद
पाकिस्तान भारत की सुरक्षा के लिए एक बड़ा खतरा बन गया है। ताजा खबर यह है कि चीन
पाकिस्तान के साथ परमाणु डील के तहत दो और परमाणु संयंत्र देने जा रहा है। इस डील
के तहत चीन स्वदेश निर्मित 1100 मेटगावॉट न्यूक्लियर रिएक्टर्स की शृंखला 'एसीपी 1000' को पहली बार किसी दूसरे देश
(पाकिस्तान) को बेच रहा है। इस परियोजना के तहत 9.6 अरब डॉलर (लगभग 49,404 करोड़
रुपए) की लागत से कराची के नजदीक केएएनएनयूपी 2 और 3 संयंत्र स्थापित किए जाएंगे।
इस रिपोर्ट के आने के बाद से कि चाइना नेशनल न्यूक्लियर कार्पोरेशन लि. ने
पाकिस्तान सरकार के साथ वाणियक अनुबंध पर हस्ताक्षर कर दिए हैं, भारत ने उच्च स्तरीय आधिकारिक बैठकों
के दौरान चीन के सामने यह मुद्दा उठाया। भारत ने चीन के समक्ष यह दलील भी रखी है
कि यह करार परमाणु अप्रसार देशों के समूह और परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के सदस्य के
तौर पर चीन की अंतरराष्ट्रीय प्रतिबध्दताओं के विपरीत है। भारत ने यह भी स्पष्ट कर
दिया है कि चीन द्वारा पाकिस्तान को परमाणु सहयोग मजबूत करने से इसका असर भारत की
सुरक्षा पर पड़ेगा। इसका कारण यह है कि पाकिस्तान अपने असैन्य कार्यम को सैन्य
कार्यम से अलग रखने को लेकर प्रतिबध्द नहीं है। लेकिन इसके विपरीत चीन यह दलील दे
रहा है कि उसका परमाणु सहयोग चीन-पाक परमाणु सहयोग समझौते के तहत ही आता है। एक
अहम् प्रश्न यह है कि क्या उस स्थिति में भी जब पाकिस्तान सैन्य और असैन्य परमाणु
कार्यम को अलग-अलग रखने के लिए अपनी प्रतिबध्दता न प्रकट कर रहा हो, तब भी चीन द्वारा परमाणु रिएक्टर
प्रदान करना एनपीटी के अनुच्छेद 6 का सीधा-सीधा उल्लंघन नहीं है। हालांकि एनएसजी
गाइडलाइंस किसी भी सप्लायर देश को यह अधिकार प्रदान कर देती है कि वह उन देशों को
नाभिकीय प्रौद्योगिकी और नाभिकीय ईंधन बेच सकता है जो अपना परमाणु कार्यम आईएईए
सुरक्षा उपायों के तहत चला रहे हैं (पांच नाभिकीय शक्तियों को छोड़कर)। लेकिन क्या
पाकिस्तान आईएईए सुरक्षा उपायों के तहत अपना परमाणु कार्यम चला रहा है? वैदेशिक या रक्षा मामलों के जानकार इस
बात से परिचित होंगे कि पाकिस्तान नाभिकीय हथियार सम्पन्न 'नॉन-एनपीटी' देश है और पूरी तरह से सेफगॉर्र्ड्स
सम्बंधी शर्तों व नियमों का अनुपालन नहीं करता है।
बहरहाल रूस तो भारत का एक बेहतर रणनीति
सहयोगी रहा है और हर मुश्किल में उसने दुनिया की परवाह किए बगैर भारत का साथ दिया
है, लेकिन चीन का चरित्र संदिग्ध है। वह एक
तरफ भारत के साथ अपने कारोबार को विस्तार
देने के लिए मित्रता का हाथ बढ़ाता है और दूसरी तरफ पाकिस्तान के नाभिकीय कार्यमों को विस्तार देकर
दक्षिण एशिया की शांति को खतरे में डाल रहे हैं और भारतीय सुरक्षा के समक्ष बेहद
गम्भीर चुनौती पैदा कर रहा है। जो भी हो, चीन के साथ भारत को बेहद रणनीतिक होने
की जरूरत है। अफसोस इस बात का है कि भारत इस समय इससे बहुत दूर खड़ा है।
रहीस सिंह
शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2013
सातवें वेतन आयोग का एजेंडा
1947 में आजादी के समय देश के आम आदमी
की हालत कमजोर थी। शिक्षा का अभाव था। स्वास्थ सेवाएं नगण्य थीं। ऐसे में सरकार ने
कल्याणकारी सेवाएं को जनता को उपलब्ध कराने का जो निर्णय लिया वह प्रशंसनीय था।
पूरे देश में सरकारी स्कूल और हेल्थ सेंटर खोले गये। इसके बाद साठ के दशक में
सार्वजनिक वितरण प्रणाली को लागू किया गया। अमरीका से मिले गेहूं के वितरण के लिये
फेयर प्राइस शाप की श्रृंखला बनाई गयी। समय क्रम में इंदिरा निवास एवं मनरेगा जैसी
योजनाएं चलाई गयीं। इन तमाम जन कल्याणकारी योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए बड़ी
संख्या में सरकारी कर्मियों की भर्ती कराई गयी जिससे सरकार द्वारा इनके माध्यम से
सेवा की जा सके।
वह तब था। आज परिस्थिति में दो तरह से
मौलिक बदलाव आया है। पहला बदलाव यह हुआ है कि आम आदमी की आर्थिक हालत सुधरी है।
वर्तमान में सामान्य श्रमिक की दिहाड़ी लगभग 200-300 रुपये है। इस रकम से परिवार की
कपड़ा और भोजन दैनिक जरूरतें पूरी की जा सकती हैं। अत: जन कल्याण को सरकारी
मेहरबानी जरूरी नहीं रह गयी है। दूसरी तरफ
सरकारी कर्मियों के वेतन में भारी वृध्दि हुयी है विशेषकर पांचवें वेतन
आयोग के बाद। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार अधिकतर देशों में सरकारी कर्मियों के
देय वेतन, देश के नागरिक की औसत आय से दोगुना या
इससे कम है। लेकिन भारत में इनकी आय 10 गुना से अधिक है। सरकारी कर्मियों के
प्रारम्भिक वेतन आज लगभग 13,300 रुपय वेतन एवं 10,000 रुपय अन्य सुविधाओं जैसे
एचआरए, मेडिकल, प्राविडेंड फंड, पेंशन आदि यानि लगभग 23,000 रुपए प्रति माह है। यह सरकार द्वारा दिये
जाने वाले वेतन की बात है। आईआई एम बेंगलुरु के प्रो. वैद्यनाथन् के अनुसार सरकारी
कर्मियों को वेतन से चार गुणा अधिक आय भ्रष्टाचार से होती है। इसे जोड़ लिया जाये
तो सरकारी कर्मियों की औसत आय 90,000 रुपये प्रति माह है। सरकारी कर्मियों के
अनुसार यह रकम तीन लोगों के परिवार के लिये पर्याप्त नहीं है। इसमें वृध्दि के
लिये आयोग का गठन किया गया है।
देश के लगभग 60 करोड़ वयस्कों में 3
करोड़ सरकारी अथवा संगठित प्राइवेट सेक्टर में कार्यरत हैं। शेष 57 करोड़ असंगठित
क्षेत्र में जीवन यापन कर रहे हैं। मेरे अनुमान से इनकी औसत मासिक आय लगभग 8,000
रुपये होगी। यदि 90,000 रु. में सरकारी कर्मियों की जरूरत पूरी नहीं हो रही है तो
इन 57 करोड़ नागरिकों की जरूरत 8,000 रु. में पूरी हो ही नहीं सकती है। परन्तु ये
फि रभी जीवित हैं।
जाहिर है कि आज सरकारी कर्मियों को आम
आदमी की तुलना में दस गुना अधिक वेतन मिल रहा है। देश के आम नागरिक की औसत आय से
तुलना की जाए तो भी ऐसी ही तस्वीर बनती
है। 2012 में देश के नागरिक की औसत आय 61,000 रुपये प्रति वर्ष थी। तीन व्यक्तियों
का परिवार माने तो परिवार के लिए यह 15,000 रुपये प्रति माह बैठता है। इससे भी
सरकारी कर्मियों की आय छह गुना है।
मैंने गणना की तो पाया कि 2005 से 2010
के बीच सामान्य श्रमिक के शुध्द वेतन में महंगाई काटने के बाद 14 प्रतिशत की
वृध्दि हुयी है। इनकी तुलना में देश के नागरिक की औसत आय में 40 प्रतिशत की वृध्दि
हुयी है। नागरिक की औसत आय में गरीब तथा अमीर दोनों सम्मिलित होते हैं। अमीरों की
आय में तीव्र वृध्दि होने से नागरिक की औसत आय में यादा वृध्दि हुयी है। इसी अवधि
में केन्द्रीय कर्मियों के औसत वेतन में वृध्दि के आंकड़े मुझे उपलब्ध नहीं हैं।
परन्तु सार्वजनिक इकाइयों के कर्मियों के वेतन में इसी अवधि में 63 प्रतिशत की
वृध्दि हुयी है। सरकारी कर्मियों के वेतन में भी इतनी ही वृध्दि हुई होगी। अत:
असंगठित कर्मियों के वेतन में 14 प्रतिशत एवं सरकारी कर्मियों के वेतन में 63
प्रतिशत की वृध्दि हुयी है। तिस पर
कर्मियों की जरूरतें पूरी नहीं हो रही हैं, उन्हें और चाहिये।
पांचवें एवं छठे आयोग से अपेक्षा की
गयी थी कि सरकारी कर्मियों की जवाबदेही एवं कार्यकुशलता में सुधार के लिये सुझाव
दिये जायेंगे। पांचवें वेतन आयोग ने सुझाव दिया था कि दस वर्षों में सरकारी
कर्मियों की संख्या में 30 प्रतिशत की कटौती करनी चाहिये। इसके सामने 20 वर्षों में मात्र 10 प्रतिशत की कटौती हो
पायी है। दूसरी संस्तुति दी गयी थी कि ग्रुप 'ए'
अधिकारियों
के कार्य का मूल्यांकन बाहरी संस्थाओं के द्वारा कराया जाना चाहिये। मेरी जानकारी
में इसे लागू नहीं किया गया है। छठे वेतन आयोग ने इस दिशा के में वेतन के अतिरिक्त
कार्य कुशलता का इन्सेन्टिव देने मात्र का सुझाव दिया था। लेकिन मेरा अनुभव बताता
है कि सरकारी विभागों की कार्यकुशलता में गिरावट ही आयी है। तात्पर्य यह कि पिछले
वेतन आयोगों द्वारा जो कारगर संस्तुति दी गयी थी उन्हें सरकार के द्वारा लागू नहीं
किया गया है।
देश संकट में है और आम आदमी असंतुष्ट
है। वह देख रहा है कि ग्रुप सी सरकारी कर्मी बाइक पर घूम रहे हैं और पक्का मकान
बना रहे हैं जबकि उसकी स्थिति यथावत है। जरूरत इस समय सरकारी कर्मियों के
भ्रष्टाचार पर रोक लगाने और उनकी कार्य कुशलता में इजाफ ा लाने की है न कि वेतन
बढ़ाने की। पहला सुझाव है कि हर ग्रुप 'ए'
एवं
ग्रुप 'बी' के सरकारी कर्मी से संबध्द जनता का गुप्त सर्वे डाक द्वारा कराया
जाये। किसी समय मैं एक पांच सितारा एनजीओ का मूल्यांकन कर रहा था। मैने उनके
सदस्यों को पत्र लिखकर उनका आकलन मांगा। उत्तरों से स्पष्ट हुआ कि एनजीओ के
अधिकारी सदस्यों से वार्ता ही नहीं करते थे। इस प्रकार का गुप्त सर्वे कराना
चाहिये। दूसरा सुझाव है कि ग्रुप 'ए'
कर्मियों
का किसी स्वतंत्र बाहरी संस्था से मूल्यांकन कराना चाहिये। एनजीओ सेक्टर में
सामान्यत: हर 5 या 10 वर्ष के बाद किसी स्वतंत्र व्यक्ति से रिव्यू कराया जाता है।
इसे सरकारी कर्मियों पर लागू करना चाहिये। अर्थशास्त्र में कौटिल्य लिखते हैं कि ''गृहस्थों की नियुक्ति करनी चाहिये कि
वे परिवारों की संख्या, उत्पादन
का स्तर एवं सरकार द्वारा वसूले गये टैक्स का स्वतंत्र मूल्यांकन करें।'' इस सिध्दान्त को लागू करना चाहिये।
तीसरा सुझाव है कि सरकारी कर्मियों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिये एक
स्वतंत्र खुफि या संस्थान स्थापित करना चाहिये जो कि भारत के चीफ जस्टिस अथवा लोकपाल के आधीन एवं सरकार के दायरे
से बाहर हो। कौटिल्य लिखते हैं कि जासूसों के माध्यम से सरकारी अधिकारियों को घूस
देने की पेशकश की जानी चाहिये और उन्हें ट्रैप करना चाहिये। इस संस्था द्वारा यह
कार्य कराना चाहिये।
वर्तमान में सरकारी कर्मियों की औसत आय
सामान्य श्रमिक की आय से दस गुणा अधिक है। इसमें वृध्दि का कोई औचित्य नहीं है। अत:
सातवें वेतन आयोग को वेतन संबंधी संस्तुति देने को नहीं कहना चाहिये। केवल
भ्रष्टाचार नियंत्रण और कार्य कुशलता सुधारने के सुझाव देने को कहना चाहिये।
कल्याणकारी विभागों के सरकारी कर्मियों
की भर्ती इसलिये की गयी थी कि बदहाल गरीब नागरिकों की ये सेवा कर सकें। अब इनकी
भूमिका सेवक के स्थान पर शोषक की हो गयी है। गरीब पर टैक्स लगाकर इन्हें उंचे वेतन
दिये जा रहे हैं। इसे तत्काल बंद करना चाहिये।
देशबन्धु
एयर इंडिया का संकट
देश का राष्ट्रीय वायुवाहक एयर इंडिया
संकट में है। पिछले चार वषों में सरकार ने कंपनी को 16,000करोड़ रुपये की रकम
उपलब्ध कराई है। यह रकम 500 रुपये प्रति परिवार बैठती है। इसका मतलब यह हुआ कि देश
के हर परिवार से यह रकम वसूल कर एयर इंडिया को उपलब्ध कराई गई है। इतनी बड़ी राशि
झोंकने के बाद भी कंपनी का घाटा थम नहीं रहा है।
घाटे का एक कारण जरूरत से ज्यादा
उड्डयन कंपनियों का बाजार में प्रवेश करना है। जैसे नुक्कड़ पर पान की चार दुकाने
खुल जाएं तो ग्राहक बंट जाते हैं और इनमें से कुछ दुकाने शीघ्र ही बंद हो जाती हैं, परंतु इसे अर्थव्यवस्था के लिए नुकसान
नहीं मानना चाहिए। पान की वे दुकाने ही बंद होंगी, जिनके पान की क्वालिटी खराब होगी और ग्राहकों के साथ व्यवहार अच्छा
नहीं होगा। कुशल दुकान लाभ कमाती है और खस्ताहाल दुकान बंद हो जाती है। नई
कंपनियों का प्रवेश करना, प्रतिस्पर्धा का गरमाना और अकुशल कंपनी का बंद होना यह सब पूंजीवाद
का सामान्य अंग है। किंगफिशर एयरलाइन का बंद होना इसी प्रक्रिया का हिस्सा है।
अब एयर इंडिया उसी मुहाने पर खड़ी है।
एयर इंडिया के घाटे में चलने के दो कारण हैं। तात्कालिक कारण 2007 में इंडियन
एयरलाइंस और एयर इंडिया का विलय है। दोनों पूर्व कंपनियों का चरित्र अलग-अलग था, जैसे चाय और नीबू पानी। इंडियन
एयरलाइंस छोटे जहाज का इस्तेमाल करती थी और कम दूरी पर उड़ान भरती थी, जबकि एयर इंडिया बड़े जहाज और लंबी
दूरी की उड़ान भरती थी। इंडियन एयरलाइन के पायलटों के वेतन कम थे। दोनों कंपनियों
के विलय के बाद इंडियन एयरलाइंस के पायलटों ने बराबर वेतन की मांग की। इसे मंजूर न
किए जाने पर असंतोष व्याप्त हो गया। दूसरा कारण सरकारी कंपनियों की मौलिक अकुशलता
है। नेतागण एयर इंडिया पर दबाव बनाते हैं कि उनके शहर से विमान सेवा शुरू की जाए
या इन रूटों पर उड़ने वाले हवाई जहाजों की संख्या बढ़ाई जाए। इन राजनीतिक रूटों पर
कंपनी को घाटा होता है। सरकारी कर्मियों का मनमौजी स्वभाव भी आड़े आता है।
लोग बताते हैं कि साठ के दशक में
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के अगले दिन ही कर्मियों की कार्यशैली मस्त हो गई। उन्हें
भरोसा हो गया कि अब काम करें या न करें, नौकरी तो सुरक्षित है। वेतन वृद्धि और पदोन्नति पर भी कोई असर नहीं
पड़ने वाला। इसी लिए एयर इंडिया के पायलट अपनी सुविधा के अनुसार उठते हैं। पायलट
साहब एयरपोर्ट नहीं पहुंचे तो उड़ान में देर हो जाती है। सुबह एक फ्लाइट में देरी
होने से पूरे दिन कार्यक्रम बिगड़ जाता है और देरी का सिलसिला जारी रहता है।
कभी-कभी खबर आती है कि एयर इंडिया के स्टाफ ने ओवर ड्यूटी करने से मना कर दिया, जिस कारण हवाई जहाज उड़ान ही नहीं भर
पाया। एयर इंडिया के विमानों का उपयोग कम किया जाता है। कापा सेंटर फार एविएशन के
अनुसार एयर इंडिया के 127एयरक्राफ्ट में से करीब सौ ही उड़ाए जाने के काबिल हैं।
इन सौ का उपयोग भी दूसरी कंपनियों की तुलना में कम है। पिछले समय में एयर इंडिया
की कार्यकुशलता में कुछ सुधार हुआ है। उड्डयन में कंपनी का कुछ हिस्सा 14 प्रतिशत
से बढ़कर 20प्रतिशत हो गया है। एयरक्राफ्ट के उपयोग में भी सुधार हुआ है। परंतु
मैं इन सुधारों को महत्व नहीं देता हूं। जैसे कि मौसम अच्छा होने पर कैंसर का रोगी
उठकर चल पड़े तो उसे सुधार नहीं कहा जा सकता। यह अकुशलता दूसरे देशों की एयरलाइनों
में भी व्याप्त है।
एक रपट के अनुसार फ्रांस की एयर फ्रांस, इटली की अलिटालिया, बेल्जियम की सबेना, ग्रीस की ओलिंपिक और स्पेन की आइबेरिया
को भी सरकारी मदद देकर जिंदा रखा गया है। जापान की राष्ट्रीय एयरलाइन 2009 में
दिवालिया हो गई थी। तत्पश्चात कर्मचारियों की भारी छंटनी की गई थी। अब छोटे और नए
आकार में यह पुन: चालू हुई है। आशय है कि भीषण स्पर्धा में सरकारी कंपनियां असफल
हैं। प्रश्न उठता है कि फिर दूसरी सरकारी कंपनियां सफल क्यों हैं? मेरा मानना है कि इनकी सफलता का प्रमुख
कारण एकाधिकार है। जैसे स्टेट बैंक की शाखाओं का पूरे देश में जाल बिछा हुआ है।
मैं दिल्ली में रहता था। फिर उत्तराखंड में रहने लगा। यहां मेरे गांव के पास स्टेट
बैंक की ही अकेली ब्रांच थी। मजबूरन मुङो दिल्ली में अपना खाता स्टेट बैंक में ही
खुलवाना पड़ा ताकि दोनों शाखाओं के बीच मनी ट्रांसफर आसानी से हो सके।
मेरा मानना है कि सरकारी कंपनी के सफल
होने की संभावना नगण्य है। इनका मूल चरित्र अकुशलता और आरामतलबी का होता है। अटल
बिहारी वाजपेयी सरकार ने इस बात को सही समझा था। अरुण शौरी के नेतृत्व में कई
अकुशल सरकारी कंपनियों का निजीकरण कर दिया गया था, जैसे बालको का। निजीकरण का अर्थ होता है कि कंपनी की बागडोर को निजी
उद्यमी के हाथों सौंप दिया जाए और कंपनी पर सरकारी नियंत्रण समाप्त कर दिया जाए।
फार्म्युला है कि उद्यमी बड़ा है और सरकार छोटी। मनमोहन सिंह की सरकार ने निजीकरण
के स्थान पर विनिवेश की नीति को लागू किया है। विनिवेश में सरकारी सरकारी कंपनी के
कुछ शेयरों को बेच दिया जाता है। कंपनी का नियंत्रण मंत्री और सचिव महोदय के हाथों
में ही रहता है। ऊपर से विनिवेश से मिली रकम को खर्च करने का मौका इन्हें मिल जाता
है। सरकार का दायरा छोटा करने के स्थान पर विनिवेश की रकम को खर्च करने में सरकार
के दायरे को बड़ा कर दिया है।
एयर इंडिया समेत तमाम सरकारी कंपनियों
का निजीकरण कर देना चाहिए, खासतौर पर घाटे में चलने वाली कंपनियों का। मिली रकम का नए जरूरी
क्षेत्र में निवेश करना चाहिए जैसे अंतरिक्ष अन्वेशन, जेनेटिक रिसर्च, स्वास्थ्य पर्यटन, पैटियट मिसाइल के उत्पादन इत्यादि में।
सरकार को वहीं निवेश करना चाहिए जहां जोखिम अथवा पूंजी की कमी के कारण निजी उद्यमी
बढ़ने का साहस न कर सकें। उड्डयन जैसे क्षेत्र में निजी उद्यमी सक्षम हो चुके हैं।
इससे सरकार को पीछे हटकर नए उद्यमियों के प्रवेश का रास्ता सुलभ करना चाहिए। विशेष
बात यह कि मंत्रियों के लिए अपने क्षेत्र में जाने को आसान बनाने के लिए गरीबों से
टैक्स वसूल नहीं करना चाहिए।
डा. भरत झुनझुनवाला
साभारः दैनिक जागरण
गुरुवार, 17 अक्टूबर 2013
पारिस्थितिकी का पक्ष
भारत में पारिस्थितिकी संतुलन के लिहाज
से एक बेहद संवेदनशील क्षेत्र के रूप पश्चिमी घाट का महत्त्व किसी से छिपा नहीं
है। लेकिन विचित्र है कि सरकार को जहां इसके संरक्षण के लिए खुद आगे आना चाहिए था, उसने इस समूचे क्षेत्र में प्राकृतिक
संसाधनों के दोहन की व्यापक पैमाने पर अनदेखी की। यहां तक कि इस क्षेत्र के
पारिस्थितिकी संकट पर गठित माधव गाडगिल समिति की रिपोर्ट को भी लंबे समय तक दबा कर
रखा गया। मगर पिछले साल जब संयुक्त राष्ट्र ने पश्चिमी घाट को विश्व धरोहरों की
सूची में शामिल किया, उसके
बाद इस मसले पर स्पष्ट नीति की घोषणा का दबाव सरकार पर बढ़ गया। शायद यही वजह है कि
अब पर्यावरण मंत्रालय ने वन संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत छह राज्यों के लगभग साठ हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में
फैले पश्चिमी घाट इलाके को पारिस्थितिकीय दृष्टि से संवेदनशील घोषित करते हुए
उसमें किसी भी तरह के खनन, तापविद्युत संयंत्र और प्रदूषण फैलाने वाली अन्य औद्योगिक इकाइयां
संचालित करने पर प्रतिबंध लगा दिया है। हालांकि पिछले कुछ सालों में कई अदालतों के
फैसलों के चलते इस इलाके में खनन और दूसरी पर्यावरण गतिविधियों पर लगाम लगी है।
फिर संयुक्त राष्ट्र के विश्व धरोहरों में पश्चिमी घाट को शामिल करने के बाद यों
भी किसी परियोजना को मंजूरी दिला पाना थोड़ा मुश्किल काम हो गया था। मगर सरकार के
ताजा फैसले के बाद अब कोई भी परियोजना लगाने की इजाजत तभी दी जाएगी, जब इसके लिए इलाके की ग्राम सभाओं की
पूर्व सहमति ले ली गई हो।
पर्यावरण मंत्रालय का ताजा फैसला
पारिस्थितिकी विशेषज्ञ माधव गाडगिल और योजना आयोग के सदस्य के कस्तूरीरंगन की
अगुआई में हुए दो अलग-अलग अध्ययन के आधार पर आया है। अब दक्षिण में कन्याकुमारी से
लेकर उत्तर में ताप्ती नदी तक करीब डेढ़ हजार किलोमीटर का पश्चिमी घाट का दायरा देश
का सबसे बड़ा संरक्षित क्षेत्र हो जाएगा। गौरतलब है कि
कस्तूरीरंगन समिति ने इलाके की जैव विविधता को समृद्ध करने,
मानव
आबादी के घनत्व को नियंत्रित करने और वनक्षेत्र को नुकसान से बचाने के मकसद से ‘लाल सूची’
में
शामिल औद्योगिक इकाइयों के साथ-साथ खनन और विद्युत परियोजनाएं लगाने पर पाबंदी की
सिफारिश की थी। हालांकि पर्यावरण सचिव ने विनियमित क्षेत्र से आम आबादी को बाहर
रखने के मसले पर अपनी अलग राय दी थी, लेकिन इसके उलट मंत्रालय ने पुराने
नियम को बहाल रखा है। अगर पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचे तो पवनचक्की लगाने के
मामले में सरकार ने रियायत देने का फैसला किया है। इसी तरह,
सख्त
नियम-कायदों के पालन की शर्त पर पनबिजली परियोजना लगाने की भी इजाजत दी जाएगी।
पश्चिमी घाट जैव विविधता के मामले में
समूचे विश्व में एक खास स्थान रखता है। यहां फूलों की पांच हजार से ज्यादा किस्में
हैं। स्तनपायी जीवों की एक सौ चालीस, पक्षियों की लगभग पांच सौ,
उभयचर
जीवों की पौने दो सौ प्रजातियां हैं, जिनमें से अधिकतर दुनिया में कहीं और
नहीं पाए जाते। खासतौर पर केरल का ‘साइलेंट वैली राष्ट्रीय पार्क’
भारत
का ऐसा उष्णकटिबंधीय हरित वन है, जो अभी तक अछूता है। इसके अलावा,
देश
में नदियों के कम से कम चालीस फीसद हिस्से का पोषण पश्चिमी घाटों से ही होता है।
लेकिन अतिक्रमण, वन माफिया, अवैध खनन और विद्युत परियोजनाओं के
कारण पश्चिमी घाट अपनी करीब तीन चौथाई से ज्यादा जैव संपदा खो चुका है। देर से ही
सही, पश्चिमी
घाट को बचाने की सरकारी स्तर पर पहल हुई है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इसके संरक्षण
के लिए तय किए गए नियम-कायदों पर सख्ती से अमल होगा।
जनसत्ता
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