गत
वर्ष विश्व व्यापार
संगठन (डब्लूटीओ) की इंडोनेशिया
में वार्ता हुई
थी। दो महत्वपूर्ण
मुद्दों पर सहमति
बनी थी। पहला
मुद्दा गरीब को
दिए जाने वाले
सस्ते खाद्यान्न का
था। सरकार द्वारा
किसान से महंगा
खाद्यान्न खरीदकर गरीब को
सस्ते दाम पर
मुहैया कराया जा रहा
है जैसे 15 रुपये
किलो में गेहूं
खरीदकर बीपीएल परिवार को
1 रुपये में बेचा
जा रहा है।
डब्लूटीओ के वर्तमान
नियमों के अंतर्गत
इस सब्सिडी की
अधिकतम सीमा निर्धारित
है। उपरोक्त सब्सिडी
इस सीमा से
अधिक है। पूरी
सम्भावना थी कि
आस्ट्रेलिया जैसे निर्यातक
देशों द्वारा डब्लूटीओ
की अदालत में
भारत के खिलाफ
वाद दायर किया
जाता। अत: डब्लूटीओ
के नियमों में
बदलाव करना जरूरी
थी। इंडोनेशिया में
सहमति बनी थी
कि विकासशील देशों
के द्वारा यह
सब्सिडी अगले चार
वर्षों तक दी
जा सकेगी। इन
चार वर्षों में
समस्या का स्थायी
समाधान खोज लिया
जायेगा।
इस
निर्णय में महत्वपूर्ण
सिद्धान्त छुपा हुआ
था। तब तक
मान्यता थी कि
भोजन में भी
खुले व्यापार को
अपनाना चाहिए। जो देश
गेहूं महंगा पैदा
करते हैं उन्हें
उन्हें आयात करके
अपने नागरिकों का
पेट भरना चाहिए।
अपनी जरूरत के
भोजन का स्वयं
उत्पादन करने का
प्रयास नहीं करना
चाहिए। अपने किसानों
की जीविका बचाने
के लिये उन्हें
सस्ते आयातों से
संरक्षण नहीं देना
चाहिए। पिछले
दशक में इस
सिद्धान्त के कारण
कई विकासशील देशों
को भारी परेशानी
हुई है। हुआ
यूं कि कुछ
समय पहले तक
विश्व बाजार में
खाद्यान्न सस्ते थे। इन
देशों ने अपनी
अर्थव्यवस्था को सस्ते
खाद्यान्न के आयात
के लिए खोल
दिया। इनकी घरेलू
उत्पादन व्यवस्था जर्जर हो
गई जैसे नहर
का रखरखाव नहीं
हुआ। समयक्रम में
विश्व बाजार में
खाद्यान्न के मूल्यों
में एकाएक उछाल
आ गया। अब
इन देशों को
महंगे खाद्यान्न को
खरीदना पड़ा। चूंकि घरेलू
उत्पादन व्यवस्था चौपट हो
चुकी थी। खाद्यान्न
के मूल्यों में
वृद्धि के कारण
कई देशों में
आन्दोलन और उत्पात
हुए। डब्लूटीओ
के इस मौलिक
सिद्धान्त में अब
परिवर्तन हो गया
है। नया सिद्धान्त
है कि हर
देश को अपने
देश को, अपने
नागरिकों को सस्ता
अनाज मुहैया कराने
का अधिकार है।
ऊंचे मूल्यों पर
खाद्यान्न खरीदने का भी
अधिकार है। एक
प्रकार से कृषि
को डब्लूटीओ से
बाहर कर दिया
गया है जो
कि ठीक ही
है।
इंडोनेशिया
में दूसरी सहमति
व्यापार के सरलीकरण
पर हुई थी।
वर्तमान में हर
देश अपनी सुविधा
के अनुसार आयातित
माल की जांच
के नियम बनाता
है। जैसे एक
देश गेहूं में
आधा प्रतिशत मिट्टी
हो तो उसे
साफ मान सकता
है जबकि दूसरा
देश उसी गेहूं
को अस्वीकार कर
सकता है। माल
के इनवायस में
कितनी डिटेल लिखी
होनी चाहिए इत्यादि तमाम नियम
हर देश द्वारा
अलग-अलग बनाए
जाते हैं। इससे
निर्यातकों को खासी
परेशानी होती है।
उन्हें माल भेजते
समय अलग-अलग
देशों के नियमों
के अनुसार अलग-अलग कागजाद
बनाने पड़ते हैं
और अलग-अलग
क्वालिटी का ध्यान
रखना पड़ता है।
इसके अतिरिक्त बंदरगाह
अथवा हवाईअड्डे से
माल को बाजार
तक पहुंचाने की
सड़क आदि की
समुचित व्यवस्था हर देश
में नहीं थी।
इस मुद्दे पर
इंडोनेशिया में सहमति
बनी थी कि
आयात एवं निर्यात
के समान नियम
बनाये जायेंगे और
हर देश को
सड़क एवं कन्टेनर
टर्मिनल जैसी न्यूनतम
सुविधाएं उपलब्ध करानी होगी। अमेरिका
समेत अमीर देश
इस समझौते पर
दबाव दे रहे
थे। उनका आकलन
था कि व्यापार
के सरलीकरण से
उनकी कम्पनियों के
लिये निर्यात करना
आसान हो जायेगा।
सही
है कि इस
समझौते से माल
की ढुलाई का
खर्च कम होगा
और विश्व व्यापार
में वृद्धि होगी।
परन्तु मुझे संशय
है कि यह
अमीर देशों के
लिए विशेष लाभकारी
होगा। कारण कि
ढुलाई खर्च कम
होने का हमारे
निर्यातों पर भी
सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। माल
की क्वालिटी आदि
के समान मानदण्डों
के लागू होने
से हमारे निर्यातकों
की राह भी
आसान हो जायेगी।
बंदरगाह से बाजार
तक पहुंचाने के
लिए आयातित माल
के लिए जो
सड़क बनाई जायेगी
उसी सड़क पर
निर्यात की ढुलाई
करने वाली ट्रक
भी दौड़ेगी। अत:
व्यापार के सरलीकरण
से दो तरफा
लाभ होगा जैसे
सड़क के एक
तरफ लगे अवरोध
को हटाने से
दूसरे तरफ की
ट्रैफिक भी चल
निकलती है।
सच
यह है कि
वैश्विक प्रतिस्पर्धा में अमीर
देश पीछे पड़
रहे हैं। 1995 में
डब्लूटीओ समझौता सम्पन्न हुआ
था। उस समय
अमेरिका का व्यापार
घाटा 166 बिलियन डालर था।
2012 में अमेरिका का व्यापार
घाटा बढ़कर 741 बिलियन
डालर हो गया
है। 1995 के पहले
विश्व व्यापार ज्यादा
जटिल था। डब्लूटीओ
संधि के बाद
यह तुलना में
सरल हुआ है।
परन्तु अमेरिका का व्यापार
घाटा घटने के
स्थान पर बढ़ा
है चूंकि डब्लूटीओ
से विकासशील देशों
के निर्यातों का
रास्ता खुला है
और अमीर देश
हमारे सस्ते मालों
से स्पर्धा नहीं
कर पा रहे
हैं।
अमीर
देशों की चाहत
है कि व्यापार
के सरलीकरण का
समझौता तत्काल लागू कर
दिया जाए। इंडोनेशिया में सहमति
बनी थी कि
इस समझौते को
31 जुलाई 2014 तक लागू
कर दिया जायेगा।
इस माह के
अंत में इस
उद्देश्य से डब्लूटीओ
की वार्ता सम्पन्न
हो रही है।
समस्या है कि
व्यापार सरलीकरण के समझौते
पर दस्तखत करने
पर खाद्य सब्सिडी
का मामला लटका
रह जायेगा। चूंकि
वर्तमान छूट केवल
चार वर्षों के
लिये दी गई
है। चार वर्षों
में स्थायी समझौता
नहीं हो पाने
की स्थिति में
हम दोनों तरह
से मारे जायेंगे।
व्यापार सरलीकरण समझौते से
हम बंध चुके
होंगे और खाद्य
सब्सिडी को मिली
छूट चार वर्षों
के बाद समाप्त
हो जायेगी।
दूसरी
तरफ भी
संकट है। यदि
हम इंडोनेशिया में
हुए समझौते को
तोड़ते हुए खाद्य
सब्सिडी का स्थायी
हल तत्काल मांगेंगे
तो औद्योगिक देश
भी इंडोनेशिया के
समझौते को तोडऩे
को स्वतंत्र होंगे।
ऐसी स्थिति में
उन्हें व्यापार सरलीकरण के
लाभ नहीं मिलेंगे
परन्तु हमारे द्वारा दी
जा रही खाद्य
सब्सिडी डब्लूटीओ कानून के
अन्तर्गत अवैध हो
जायेगी और औद्योगिक
देश हमारे निर्यातों
पर प्रतिक्रिया के
रूप में प्रतिबंध
लगाने को स्वतंत्र
होंगे। इस घटनाक्रम
के शुरू होने
पर डब्लूटीओ की
मूल संधि पर
भी आंच आ
सकती है।
फिलहाल
भारत सरकार ने
निर्णय लिया है
कि व्यापार सरलीकरण
समझौते पर तब
तक दस्तखत नहीं
किए जायेंगे जब
तक खाद्य सब्सिडी
का स्थायी हल
नहीं ढूंढ़ लिया
जाता है। भारत
सरकार को अपने
इस मन्तव्य पर
टिके रहना चाहिये।
डब्लूटीओ से औद्योगिक
देशों को लाभ
ज्यादा और विकासशील
देशों को लाभ
कम हुआ है।
यह संधि निरस्त
हो जाए तो
घबराना नहीं चाहिए।
संयुक्त परिवार के टूटने
से अकसर छोटे
परिवार तेजी से
प्रगति करते हैं।
इसी प्रकार डब्लूटीओ
के टूटने से
भारत तेजी से
प्रगति कर सकता
है।
परन्तु
सुस्ताने की जरूरत
नहीं है। डब्लूटीओ
संधि लागू होने
के बाद गरीब
देशों की स्थिति
में मामूली सुधार
ही आया है।
गरीब और अमीर
देशों के बीच
फासला ज्यों का
त्यों बना हुआ
है। इस दुरूह
स्थिति का पहला
कारण है कि
डब्लूटीओ में देशों
के बीच माल
के आवागमन को
आसान बनाया गया
है लेकिन मनुष्य
के आवागमन पर
प्रतिबन्ध लगाने को हर
देश स्वतंत्र है।
दूसरा कारण पेटेंट
कानून है जिसके
बल पर अमीर
देश भारी लाभ
कमा रहे हैं।
इन मुद्दों को
अगली मंत्री स्तरीय
मीटिंग में उठाने
की हमें तैयारी
करनी चाहिए।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें