बुधवार, 6 अगस्त 2014

भारत-अमेरिका: रणनीतिक साझेदारी की दरकार

अमेरिकी विदेशी मंत्री जॉन केरी ने जब नई दिल्ली पहुंचकर अपना लम्बा-चौड़ा भाषण पढ़ा जिसमें कई बार भारत-अमेरिका सम्बंधों के महत्व का उल्लेख किया गया था, तभी यह लग गया कि केरी किस उद्देश्य से भारत आए हैं। सामान्यतया तो वे भारत के साथ पांचवीं वार्षिक 'रणनीतिक साझेदार' साझेदारी की बैठक में हिस्सा लेने वाले प्रतिनिधि मंडल के मुखिया के रूप में आए हैं लेकिन वास्तव में इसके पीछे मकसद दूसरा है। इस मकसद का एक पक्ष तो फ्रेंक स्नूकर, जो कि बिल क्लिंटन के समय नई दिल्ली में अमेरिकी राजदूत रह चुके हैं, के इन शब्दों में दिखाई देता है कि 'हमें बुद्धिमत्ता का प्रयोग करते हुए सोचना चाहिए कि यह सरकार भारत में 10 साल रह सकती है और इस लिहाज से हमारे पास राजनीतिक और सुरक्षा रिश्तों को नया मोड़ देने का वक्त है। दूसरा पक्ष विशुद्ध कारोबारी है। अब देखना यह है कि अमेरिका भारत में विशुद्ध कारोबारी उद्देश्य पूरे करना चाहता है या फिर वास्तव में वह भारत के साथ स्वाभाविक रणनीतिक साझेदारी चाहता है? यह सवाल तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, जब सही अर्थों में भारत और अमेरिका के बीच रणनीतिक साझेदारी दिशाहीन हो चुकी हो।

भारत के अमेरिका के साथ रिश्ते हमेशा से उतार-चढ़ाव वाले ही रहे हैं। उनमें एक विशेष बात यह दिखी कि अमेरिका को जब भारत की जरूरत पड़ी तो वह तत्काल भारत के करीब गया और जब उसे लगा कि भारत अपने बनाए रास्ते पर चलकर आगे बढ़ रहा है तो उसने किसी किसी प्रकार से भारत के मार्ग में अवरोध पैदा करने की कोशिश की। हालांकि अब केरी कह रहे हैं कि भारत-अमेरिका सम्बंधों में उतार-चढ़ाव इतिहास की बात हो चुकी है और अब भारत और अमेरिका 21वीं सदी के संभावित सहयोगी हैं। केरी का संभावित सहयोगी वाला शब्द नया नहीं है, बल्कि 2007 से लगभग 2011 तक यह कई बार प्रयुक्त हुआ, लेकिन सम्बंधों की इस नई छतरी के नीचे कोई प्रगति नहीं हो सकी। हालांकि इसके कई कारण भी रहे हैं। एक कारण तो भारत का कानून है जो अमेरिका की कई प्रकार की कमोडिटीज और सेवाओं को मुक्त मार्ग उपलब्ध कराने में बाधक बन रहा है। अमेरिकी प्रशासन कई बार इस प्रकार के नियमों को अमेरिकी व्यापार के विरुद्ध बताता रहा है और बदले में भारत के खिलाफ कुछ इसी तरह की कार्रवाइयां भी करता रहा है। यदि अमेरिकी वस्तुओं और सेवाओं का निर्यात निर्बाध रूप से तीव्रगति से भारत की ओर होता रहता तो शायद दोनों के मध्य स्थापित रिश्तों पर भी प्रभाव नहीं पड़ता। लेकिन भारत की विकासदर लगातार घटती गई और तत्कालीन सरकार सुधारों के पैमाने पर लगातार पिछड़ती चली गई। जिससे अमेरिकी कम्पनियों को भारत से ज्यादा कमाई करने का अवसर हाथ नहीं लग सका। इसके साथ ही कुछ मसलों में भारत उसके साथ मिलकर नहीं चल पाता, बल्कि उसे विरुद्ध चला जाता है, फिर चाहे वह विश्व व्यापार संगठन में ट्रेड फैलिसिटेशन एग्रीमेंट (टीएफए) का मामला हो या यूएनएचआरसी में इजराइल के खिलाफ वोटिंग हो... पिछले एक दशक में जिस तरह से क्षेत्रीय वैश्विक परिस्थितियां परिवर्तित हुई हैं, उससे नये रणनीतिक-सामरिक समीकरणों का निर्माण हुआ है जिससे नई जटिलताएं उपजी हैं और नई चुनौतियों का जन्म भी हुआ है। अमेरिका को इनके समाधान निकालने में भारत का साथ प्रत्येक स्थिति में चाहिए है, लेकिन भारत कई मोर्चों पर अमेरिका के साथ होता है और बहुत से मोर्चों पर नहीं भी, फिर चाहे वह यूक्रेन का मसला हो अथवा ईरान का, सीरिया का, इजराइल-हमास अथवा एशिया-प्रशांत का। 

हालांकि भारत के सामने भी कुछ ऐसी चुनौतियां हैं जिन पर अमेरिका का सहयोग जरूरी है, लेकिन इसके लिए भारत को वरीयताएं तय करनी होंगी और यह देखना होगा कि उसे तुलनात्मक तौर कहां से ज्यादा लाभ मिल सकता है, विशेषकर पाकिस्तान, अफगानिस्तान, चीन और आतंकवाद के मसले पर। अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी के बाद स्थितियां अनियंत्रित हो सकती हैं जिनका फायदा तालिबान उठाएगा। यह भी संभव है कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान तालिबान आपस में मिलकर ताकत को और बढ़ाएं। चूंकि यह आईएसआई के बिना संभव नहीं हो सकता और आईएसआई इसका प्रयोग भारत के खिलाफ करना चाहेगी। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद पर सार्थक सफलता प्राप्त करने के लिए अमेरिकी सहयोग की जरूरत होगी।  हालांकि कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जहां अमेरिकी प्रभाव बढऩे से अस्थिरता बढऩे की संभावना बढ़ेगी, विशेषकर एशिया-प्रशांत क्षेत्र में, लेकिन इसके बावजूद भी चीन की आक्रामकता को रोकने के लिए अमेरिकी सैन्य प्रभाव का बढऩा जरूरी है।

भारत-अमेरिकी रिश्तों पर गौर करें तो पता चलेगा कि शीतयुद्ध के समय से ही भारत और अमेरिका के बीच वैमनस्यता का रिश्ता रहा। इस वजह से दोनों के बीच गतिरोध के अतिरिक्त और कोई गुंजाइश ही नहीं थी। लेकिन सोवियत संघ के पतन के बाद भारत ने अपना ट्रैक बदल दिया जो आर्थिक और वैदेशिक दोनों ही क्षेत्रों में दिख रहा था। ऐसे में यह संभव था कि दोनों देश एक-दूसरे के निकट आएं लेकिन पोखरण दो के बाद यह संभावना भी समाप्त हो गई। अमेरिका ने 1994 के 'परमाणु प्रसार निषेध कानूनÓ के अन्तर्गत 13 मई 1998 को भारत पर तमाम प्रतिबंध लगा दिए। चूंकि भारत इसके बावजूद भी झुका और ही रुका, अत: वर्ष 2000 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भारत आने पर विवश हो गए। इसके बाद जॉर्ज बुश ने नई दिल्ली के साथ अमेरिकी सहयोग की संरचना पर पुन: विचार किया और अनेक प्रतिबंधों को हटाने की घोषणा की। साथ ही उन्होंने भारत के साथ निकटता स्थापित करके उच्च तकनीकी सहयोग के लिए दरवाजे खोल दिए, आतंकवाद के खिलाफ भारत की अपनी लड़ाई के लिए राजनीतिक समर्थन प्रदान किया, कश्मीर के मामले पर पाकिस्तान के साथ ऐतिहासिक नीति का अंत कर दिया तथा चीनी-भारतीय समीकरण के प्रति अमेरिकी नीति में परिवर्तन करने की कोशिश की। यही नहीं, अब कुछ भारत-अमेरिका सम्बंधों में कुछ ऐसे विषय जुड़े, जैसे-अन्तरराष्ट्रीय आतंकवाद, परमाणु अस्त्र-शस्त्रों तथा व्यापक विनाश के शस्त्रों के प्रसार पर रोक, वैश्विक लोकतंत्र का बढ़ावा, नए ऊर्जा संसाधन और जीवाश्म ईंधन के नए विकल्पों की खोज तथा चीन का आर्थिक शक्ति के रूप में उदय... आदि, जिसके चलते भारत-अमेरिका सम्बंध रणनीतिक स्तर तक पहुंच गए। इन रिश्तों ने एक तरफ भारत के प्रति वैश्विक नजरिया बदल दिया और दूसरी तरफ भारत को अमेरिका का रणनीतिक सहभागी (स्ट्रैटेजिक पार्टनर) बना दिया। इस दिशा में 'भारत-अमेरिका असैनिक परमाणु समझौताÓ बेहद महत्वपूर्ण रहा। लेकिन इसके बाद कुछ दोनों तरफ से ऐसे कदम उठाए गए कि दोनों देशों के मध्य खास बढ़ती गई, उदाहरण के तौर पर अमेरिका ने परमाणु समझौते के साथ एग्रीमेंट 123, हाइड एक्ट और 'एंड यूज मॉनिटरिंग एग्रीमेंटÓ (इयूएमए) जैसे कुछ नकारात्मक कानून जोड़ दिए तो भारत ने 'सिविल न्यूक्लियर लिएबिलिटी बिलÓ जैसे कानून बनाकर अमेरिकी प्रोवाइडर्स की स्वच्छंदता को समाप्त कर दिया। चूंकि 2011 से भारत की अर्थव्यवस्था में गिरावट आनी शुरू हो इसलिए इसलिए अमेरिकी कम्पनियां मायूस होने लगीं। जैसे-जैसे ये परिवर्तन आते गए दोनों देशों के बीच सम्बंधों में खटास भी आती गई।
 

बहरहाल अब अमेरिका को लगता है कि वह मोदी सरकार के साथ बेहतर कारोबारी साझेदारी कायम कर सकते हैं  जिससे आर्थिक और रणनीतिक, दोनों ही मोर्चों पर बेहतर प्रभाव पड़ेगा।  ऐसा इसलिए है क्योंकि अमेरिकी अर्थशास्त्रियों और एजेंसियों को यह भरोसा है कि मोदीकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था तेजी से ग्रोथ करेगी फलत: अमेरिकी कम्पनियों की लाभ की संभावनाएं बढ़ेंगी। अभी जब प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका जाएंगे तो अमेरिकी रक्षामंत्री चेक हेगल से बातचीत होगी जिससे अमेरिकी मिलिट्री-इण्डस्ट्री के लिए भी रास्ते खुल सकते हैं। लेकिन क्या अमेरिका उस दर्द को बर्दाश्त करेगा जिसकी चुभन प्राय: व्यक्त हो जाती है। इनमें एक है भारत का डब्ल्यूटीओ के प्रति रुख जो पिछले कई वर्षों से उसकी खाद्यान्न उत्पादन और सब्सिडी को लेकर शर्तों का विरोध कर रहा है। दूसरा है, भारत की ब्रिक्स में सक्रियता जिसे चीन और रूस अमेरिकी अर्थव्यवस्था के विरुद्ध एक रणनीतिक मंच की तरफ प्रयुक्त करना चाहते हैं और तीसरी है मध्य-पूर्व में भारत का अमेरिका से भिन्न रुख... आदि। फिलहाल चाहे वह कारोबार का क्षेत्र हो, चाहे रणनीति का हो अथवा प्रौद्योगिकीय विकास का भारत में पर्याप्त पोटेंशियल (संभावित क्षमता) है, इसलिए अमेरिका प्रत्येक स्थिति में भारत के साथ सम्बंधों में बहुआयामी विकास चाहेगा, लेकिन आगे बढऩे से पहले भारत को अपनी वरीयताएं सुनिश्चित करनी होंगी।

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