परिचय
भारत सरकार की संसदीय प्रणाली के साथ एक संवैधानिक लोकतंत्र है और प्रणाली
के केन्द्र में नियमित, स्वतंत्र और निष्पक्ष निर्वाचनों की प्रतिबद्धता है। ये निर्वाचन,
सरकार का गठन, संसद के दो सदनों की सदस्यता, राज्य और संघ राज्य क्षेत्रों की विधान
सभाएं, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के पद निश्चित करते हैं।
निर्वाचन, संसद द्वारा बनाए गए कानूनों से अनुपूरित संवैधानिक उपबंधों
के अनुसार ही संचालित किए जाते है। मुख्य कानून हैं लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950, जो मुख्यत: निर्वाचक नामावलियों की तैयारी तथा पुनरीक्षण से संबंधित है, लोक
प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951, जो विस्तार से निर्वाचनों के संचालन के सभी पहलुओं और
निर्वाचनोपरांत विवादों से संबंधित है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह नियत किया है कि जहाँ
प्रचलित कानून मौन हैं या निर्वाचनों के संचालन से संबंधित किसी विशिष्ट स्थिति से
निपटने के लिए उनके द्वारा बनाए गए उपबंध अपर्याप्त हैं तो निर्वाचन आयोग के पास समुचित
रीति से कार्य करने के लिए संविधान के अधीन अवशिष्ट शक्तियाँ उपलब्ध हैं।
भारत में निर्वाचन, राजनीतिक गतिशीलता और संगठनात्मक पेचीदेपन को समेटे
हुए आश्चर्यजनक पैमाने की घटनाएं हैं। सन् 2004 में हुए लोकसभा निर्वाचन में 6 राष्ट्रीय
दलों से 1351 अभ्यर्थी, 36 राज्यीय दलों से 801 अभ्यर्थी, अधिकारिक मान्यता प्राप्त
दलों से 898 अभ्यर्थी और 2385 निर्दलीय अभ्यर्थी थे। कुल 67,14,87,930 निर्वाचकों में
से 38,99,48,330 लोगों ने मतदान किया। निर्वाचन आयोग ने लगभग 40 लाख लोगों को निर्वाचन
कराने के कार्य में लगाया। यह सुनिश्चित करने के लिए कि निर्वाचन शान्तिपूर्ण तरीके
से सम्पन्न हों, एक बहुत बड़ी संख्या में सिविल पुलिस और सुरक्षा बलों को लगाया गया।
संसद का नया निचला सदन (लोक सभा) को निर्वाचित करने के लिए भारत में साधारण
निर्वाचनों के संचालन में विश्व की एक विशाल घटना का प्रबन्धन समाहित होता है। विस्तृत
रूप से भिन्न भिन्न भौगोलिक और मौसमी क्षेत्रों में फैले हुए 7, 00,000 मतदान केन्द्रों
में निर्वाचक गण 67 करोड़ निर्वाचकों से भी अधिक होते हैं। मतदान केन्द्रों की स्थापना
हिमालय में बर्फ से ढके पहाड़ों में, राजस्थान के रेगिस्तानों में और हिन्द महासागर
में छुट पुट रूप में बसे हुए द्वीपों में की जाती है।
देश 543 संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में बँटा हुआ है इनमें से प्रत्येक,
लोक सभा, जो संसद का निचला सदन है, के लिए एक-एक संसद सदस्य भेजता है। संसदीय निर्वाचन
क्षेत्रों का आकार और रूप एक स्वतंत्र परिसीमन आयोग द्वारा निर्धारित किया जाता है
जिसका लक्ष्य भौगोलिक सघनता और राज्य व प्रशासनिक क्षेत्र की सीमाएं तथा मोटे तौर पर
समान जनसंख्या के आधार पर निर्वाचन क्षेत्र बनाना होता है।
परिसीमन, यह सुनिश्चित करने के लिए कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में,
जहाँ तक व्यवहार्य हो, बराबर संख्या में लोग हों, संसदीय या विधान सभा निर्वाचन क्षेत्रों
की सीमाओं को पुन: तय करना होता है। भारत में जनसंख्या में हुए बदलाव को दर्शाने के
लिए होने वाली दस वर्षीय जनगणना के पश्चात् सीमाओं की जाँच पड़ताल आवश्यक है, जिसके
लिए संसद विधि द्वारा एक स्वतंत्र परिसीमन आयोग का, जो मुख्य निर्वाचन आयुक्त और दो
न्यायाधीशों या सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीशों द्वारा
बनाया जाता है, गठन करती है। यद्यपि, 1976 के एक संवैधानिक संशोधन द्वारा, यह दिखाने
के लिए कि राज्यों के परिवार नियोजन कार्यक्रम लोक सभा और विधान सभाओं में उनके प्रतिनिधित्व
को प्रभावित नहीं करेगा, परिसीमन, को 2001 की जनगणना के पश्चात् तक के लिए स्थगित कर
दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि - निर्वाचन क्षेत्रों के आकार में कई बड़ी विसंगतियाँ,
जिनमें सबसे बड़े निर्वाचन क्षेत्र में 25,00,000 से अधिक निर्वाचक हैं और न्यूनतम
में 50,000 से कम निर्वाचक हैं। 2001 की जनगणना के 31 दिसम्बर, 2003 को जारी आंकड़ों
के आधार पर परिसीमन प्रक्रिया अब जारी है।
संविधान ने आंग्ल-भारतीय समुदाय को प्रतिनिधित्व देने के लिए राष्ट्रपति
द्वारा मनोनीत दो सदस्यों के अतिरिक्त लोक सभा पर 550 सदस्यों की सीमा लगा दी है। आरक्षित
निर्वाचन क्षेत्रों द्वारा, जिन में केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थी
ही निर्वाचन में खड़े हो सकते हैं, इन के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए भी
उपबंध बनाए गए हैं।
लोक सभा के लिए ‘पहले पहुँचा सो जीता’ निर्वाचन प्रणाली का उपयोग करते
हुए निर्वाचन कराए जाते हैं। देश को पृथक पृथक भौगोलिक क्षेत्रों में बाँटा गया है
जिन्हें निर्वाचन क्षेत्र के रूप में जाना जाता है और निर्वाचक एक अभ्यर्थी के लिए
केवल एक मत ही दे सकता है (यद्यपि अधिकतम अभ्यर्थी निर्दलीय के रूप में खड़े होते हैं,
अधिकतम सफल अभ्यर्थी, राजनीतिक दलों के सदस्य के रूप में अभ्यर्थी बनते हैं) और अधिकतम
मत प्राप्त करने वाला अभ्यर्थी विजेता होता है।
संघ की संसद राष्ट्रपति, लोकसभा और राज्यसभा से मिलकर बनती है। राष्ट्रपति
राष्ट्र का अध्यक्ष होता है और वह प्रधान मंत्री की नियुक्ति करता है, जो लोक सभा के
राजनीतिक गठन के अनुसार सरकार चलाता है। यद्यपि सरकार का मुखिया प्रधान मंत्री होता
है, मंत्रिमंडल सरकार की केन्द्रीय निर्णय लेने वाली इकाई होती है। एक से अधिक दल के
सदस्य सरकार बना सकते हैं और यद्यपि शासक दल संसद में अल्पमत में हों, वे तब तक शासन
कर सकते हैं जब तक उन्हें लोक सभा में बहुमत वाले संसद सदस्यों का विश्वास प्राप्त
हो। साथ ही साथ लोक सभा, राज्यसभा सहित ऐसी मुख्य विधायी निकाय है, जो यह निश्चित करती
है कि सरकार किसे बनानी है।
राज्य सभा के सदस्यों का निर्वाचन स्वतंत्र नागरिकों के द्वारा न होकर
परोक्ष रूप से होता है। राज्य सभा के सदस्यों को प्रत्येक राज्य विधान सभा के एकल संक्रमणीय
मत प्रणाली द्वारा निर्वाचित किया जाता है। बहुत सी संघीय प्रणालियों के विपरीत, प्रत्येक
राज्य द्वारा भेजे गए सदस्य मोटे तौर पर उनकी जनसंख्या के अनुपात में होते हैं। इस
समय, राज्य सभा में विधान सभाओं द्वारा निर्वाचित 233 सदस्य हैं और 12 सदस्य साहित्य,
विज्ञान, कला और समाज सेवा के प्रतिनिधि के रूप में राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत भी हैं।
राज्य सभा के सदस्यों का कार्यकाल छ: वर्ष का होता है और निर्वाचन भिन्न भिन्न वर्गों
के लिए होते हैं जिनसे परिषद् के एक-तिहाई सदस्य प्रति 2 वर्ष पर निर्वाचित होते है।
यदि ऐसा प्रतीत होता है कि आंग्ल-भारतीय समुदाय का प्रतिनिधित्व पर्याप्त
नहीं है तो राष्ट्रपति उनको प्रतिनिधित्व देने के लिए लोक सभा में 2 और राज्य सभा में
साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा के 12 सदस्यों को मनोनीत कर सकता है।
भारत एक संघीय देश है और संविधान, राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों को
उनकी अपनी सरकारों पर महत्वपूर्ण नियंत्रण प्रदान करता है। भारत के 28 राज्यों में
सरकार का प्रशासन चलाने के लिए विधान सभाएं सीधे निर्वाचित निकाय है। कुछ राज्यों में
विधान मंडल में उच्च सदन और निचला सदन सहित (bicameral) द्विसदनी व्यवस्था है। सात
संघ राज्य क्षेत्रों में से दो अर्थात् राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र दिल्ली और
पांडिचेरी में भी विधान सभाएं हैं।
विधान सभाओं के लिए निर्वाचन उसी रीति से कराए जाते हैं जैसे लोक सभा
के लिए। राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों को एक सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र में बाँटा
जाता है और ‘पहले पहुँचा सो जीता’ की निर्वाचन प्रणाली उपयोग में लाई जाती है। विधान
सभाओं का आकार जनसंख्या के अनुसार होता है। सबसे बड़ी विधान सभा उत्तर प्रदेश की 403 सदस्य और सबसे छोटी पांडिचेरी की 30 सदस्यों की है।
राष्ट्रपति का निर्वाचन विधान सभाओं, लोक सभा और राज्य सभा के निर्वाचित
सदस्य करते हैं और उसका कार्यकाल 5 वर्ष का होता है (यद्यपि वे पुनर्निर्वाचन के लिए
खड़े हो सकते हैं)। मतों के आबंटन के लिए एक सूत्र उपयोग में लाया जाता हे ताकि राज्य
विधान सभा सदस्यों और राष्ट्रीय संसद सदस्यों के बीच बराबर संतुलन देने के लिए प्रत्येक
राज्य की जनसंख्या और राज्य के विधान सभा सदस्यों द्वारा दिए जाने वाले मतों में संतुलन
रहे। यदि किसी अभ्यर्थी को बहुमत में मत नहीं मिलते तो एक प्रणाली उपयोग में लाई जाती
है जिसके द्वारा हारने वाले (न्यूनतम मत पाने वाले) अभ्यर्थी को स्पर्धा से निकाला
जाता है और उसके मतों को दूसरे अभ्यर्थियों को हस्तान्तरित किया जाता है जब तक कि किसी
को बहुमत न मिल जाए। उपराष्ट्रपति का निर्वाचन सभी लोक सभा और राज्य सभा के निर्वाचित
सदस्यों और मनोनीत सदस्यों के द्वारा सीधे मतों द्वारा किया जाता है।
भारत में जनतंत्र प्रणाली सार्वदेशिक वयस्क मताधिकार के सिद्धान्त पर
आधारित है; कि 18 वर्ष (1989 से पहले आयु सीमा 21 वर्ष थी) से अधिक का कोई भी नागरिक
निर्वाचन में मतदान कर सकता है। मत देने के अधिकार में जाति, पंथ, धर्म या लिंग का
कोई विचार नहीं है। जो पागल समझे जाते हैं या जो लोग किसी विशेष अपराध के सिद्धदोषी
हैं, उन्हें मतदान की अनुमति नहीं है।
निर्वाचक नामावली ऐसे सभी लोगों की सूची है, जो भारतीय निर्वाचनों में
मतदान के लिए रजिष्ट्रीकृत हैं। केवल उन्हीं लोगों को, जिनके नाम निर्वाचक नामावली
में हैं, मतदान की अनुमति है। निर्वाचक नामावलियों का, उनके नाम जोड़ने के लिए जो उस
वर्ष की 1 जनवरी को 18 वर्ष के होते हैं या जो किसी निर्वाचन क्षेत्र में आए हैं, या
उनके नाम हटाने के लिए जो दिवंगत हो गए हैं या जो निर्वाचन क्षेत्र से बाहर चले गए
हैं, सामान्यतया प्रतिवर्ष पुनरीक्षण किया जाता है। यदि आप मतदान के पात्र हैं और आपका
नाम निर्वाचक नामावली में नहीं है तो आप निर्वाचन क्षेत्र के निर्वाचक रजिष्ट्रीकरण
अधिकारी को आवेदन कर सकते हैं जो रजिस्टर को अद्यतन कर देगा। निर्वाचक नामावलियों का
अद्यतन करने का काम अभ्यर्थियों के नामांकन के पश्चात् निर्वाचन प्रचार की अवधि में
रूक जाता है।
सन् 1998 में निर्वाचन आयोग ने 62 करोड़ मतदाताओं की निर्वाचक नामावलियों
को कम्प्यूटरीकृत करने का ऐतिहासिक निर्णय लिया। यह कार्य पूरा हो चुका है और अब अच्छी
प्रकार छपी हुई निर्वाचक नामावलियाँ उपलब्ध हैं। परस्पर लिंक करने के लिए निर्वाचक
के फोटो पहचान पत्रों की संख्या भी अब निर्वाचक नामावलियों में छापी गई हैं। छपी हुई
निर्वाचक नामावलियां और इनकी कम्पैक्ट डिस्क्स भी जनसाधारण के लिए बिक्री पर उपलब्ध
हैं। राष्ट्रीय और राज्यीय दलों को प्रत्येक पुनरीक्षण के पश्चात् ये नि:शुल्क प्रदान
की जाती है। सम्पूर्ण देश की नामावलियाँ इस वैबसाइट पर भी उपलब्ध हैं।
निर्वाचक नामावलियों में शुद्धता लाने के प्रयास करने के लिए और निर्वाचक
धांधलियों को रोकने के लिए निर्वाचन आयोग ने अगस्त, 1993 में देश के सभी मतदाताओं के
लिए फोटो पहचान पत्र बनाने के आदेश किए। नवीनतम तकनीकी तरीकों का लाभ उठाने के लिए
आयोग ने ई.पी.आई.सी. कार्यक्रम के लिए मई, 2000 में संशोधित दिशा निर्देश जारी किए।
45 करोड़ से अधिक पहचान पत्र अब तक वितरित किए जा चुके हैं।
लोक सभा और प्रत्येक राज्य विधान सभा के लिए निर्वाचन, यदि इससे पहले
निर्वाचन की अपेक्षा न की जाए, प्रति 5 वर्ष पर होते हैं। यदि सरकार लोक सभा का विश्वास
प्राप्त न कर पाए और कोई वैकल्पिक सरकार कार्य-भार संभालने के लिए न हो तो राष्ट्रपति
पाँच वर्ष की अवधि पूरी होने से पहले लोक सभा को भंग कर सकता है और साधारण निर्वाचन
की अपेक्षा कर सकता है।
हाल के समयों में सरकारों को लोक सभा के पूरे कार्यकाल तक सत्ता में रहने
में बड़ी कठिनाइयां हुई हैं और इसलिए अक्सर पाँच वर्ष की सीमा तक पहुँचने से पहले निर्वाचन
हुए हैं। सरकार के द्वारा घोषित आपतकाल के फलस्वरूप 1975 में पारित एक संवैधानिक संशोधन
ने 1976 में होने वाले निर्वाचन को स्थगित कर दिया था। यह संशोधन बाद में रद्द कर दिया
गया और नियमित निर्वाचन 1977 में फिर आरंभ किए गए।
नियमित निर्वाचनों को संवैधानिक संशोधन द्वारा और निर्वाचन आयोग के परामर्श
से ही रोका जा सकता है और यह मान्य है कि नियमित निर्वाचनों में रूकावट केवल असाधारण
अवस्थाओं में ही स्वीकार्य है।
जब पाँच वर्ष का कार्यकाल पूरा हो जाए, या विधान मंडल भंग कर दिया गया
हो और नव निर्वाचनों की अपेक्षा की गई हो तो निर्वाचन आयोग निर्वाचन कराने के लिए निर्वाचन-पक्रिया
को आरम्भ कर देता है। संविधान कहता है कि भंग लोक सभा के आखिरी सत्र और नए सदन की अपेक्षा
करने के बीच 6 माह से अधिक का समय नहीं होना चाहिए, अत: निर्वाचन उससे पहले पूरे होने
चाहिए।
भारत जैसे विशाल और विभिन्नता वाले देश में ऐसी अवधि ढूँढ पाना, जब सारे
देश में निर्वाचन कराए जा सकें, सरल नहीं है। निर्वाचन आयोग को, जो निर्वाचनों के कार्यक्रम
का निर्णय लेता है, मौसम - सर्दियों में निर्वाचन क्षेत्र हिमाच्छादित हो सकते हैं,
और मानसून में दूर दराज के क्षेत्र पहुँच से बाहर हो सकते हैं - कृषि चक्र, - जिससे
कि फसल बोने और काटने में बाधा न पहुँचे - परीक्षा समय सारणी, - क्योंकि स्कूलों को
मतदान के लिए उपयोग में लाया जाता है और अध्यापकों को मतदान कर्मचारियों के रूप में
नियुक्त किया जाता है, और धार्मिक त्योहारों और सार्वजनिक अवकाशों का ध्यान रखना पड़ता
है। इन सबसे ऊपर व्यावहारिक कठिनाइयाँ हैं जो किसी निर्वाचन के संचालन के साथ चलती
हैं - जैसे मतपेटियों या ई.वी.एम. को बाहर भेजना, मतदान केन्द्रों की स्थापना, निर्वाचनों
के निरीक्षण के लिए कर्मचारियों की भर्ती।
आयोग सामान्यतः औपचारिक प्रक्रिया आरम्भ करने से कुछ सप्ताह पहले एक विशाल
प्रेस सम्मेलन में निर्वाचनों के कार्यक्रम की घोषणा करता है। अभ्यर्थियों और राजनीतिक
दलों के मार्गदर्शन के लिए आदर्श आचार संहिता ऐसी घोषणा के तुरन्त पश्चात् से लागू
हो जाती है। निर्वाचनों की औपचारिक प्रक्रिया निर्वाचकों से किसी सदन के सदस्यों को
निर्वाचित करने की अपेक्षा करने वाली अधिसूचना या अधिसूचनाओं के जारी होने के साथ प्रारंभ
होती है। जैसे ही अधिसूचनाएं जारी होती हैं, अभ्यर्थी, उस निर्वाचन क्षेत्र में, जहाँ
से वे निर्वाचन लड़ना चाहते हैं, अपने नामांकन पत्र दाखिल करना आरम्भ कर सकते हैं।
लगभग एक सप्ताह के पश्चात् इसकी अन्तिम तिथि समाप्त होने पर संबंधित निर्वाचन क्षेत्र
का रिटर्निंग आफिसर इनकी जांच करता है। विधिमान्य नामांकित अभ्यर्थी जाँच की तिथि से
दो दिन के अन्दर निर्वाचन से अपना नाम वापस ले सकते हैं। निर्वाचन में भाग लेने वाले
अभ्यर्थियों को मतदान की वास्तविक तिथि से पहले राजनीतिक प्रचार के लिए कम से कम दो
सप्ताह का समय मिलता है। प्रक्रिया के विशाल आकार-प्रकार और निर्वाचकों की विशाल संख्या
के कारण राष्ट्रीय मतदान कम से कम तीन दिन होता है। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की मतगणना
की तारीख और परिणाम की घोषणा संबंधित रिटर्निंग आफिसर के द्वारा की जाती है। आयोग निर्वाचित
सदस्यों की पूरी सूची का संकलन करता है और सदन के सम्यक गठन के लिए समुचित अधिसूचना
जारी करता है। इसके साथ ही निर्वाचन प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है और तत्पश्चात् लोक
सभा के मामले में राष्ट्रपति और राज्य विधान सभाओं के मामले में संबंधित राज्य के गवर्नर
अपने सदनों को सत्र आयोजित करने के लिए आह्वान कर सकते हैं। समस्त प्रक्रिया राष्ट्रीय
निर्वाचनों के लिए 5 से 8 सप्ताह और केवल विधान सभाओं के लिए पृथक निर्वाचनों के लिए
4 से 5 सप्ताह का समय लेती है।
कोई भी भारतीय नागरिक जो मतदाता के रूप में रजिस्ट्रीकृत है और 25 वर्ष
से अधिक की आयु का है, लोक सभा या राज्य विधान सभा के निर्वाचनों में अभ्यर्थी हो सकता
है। राज्य सभा के लिए आयु सीमा 30 वर्ष है।
प्रत्येक अभ्यर्थी को लोक सभा निर्वाचन के लिए रु.10,000/- और राज्य सभा
या विधान सभा निर्वाचन के लिए रु.5,000/- की जमानत राशि जमा करनी होती है, सिवाय अनुसूचित
जाति और अनुसूचित जन जाति के अभ्यर्थियों के जिन्हें इस राशि का आधा जमा करना होता
है, यदि निर्वाचन क्षेत्र में कोई अभ्यर्थी पड़े कुल विधिमान्य मतों के छठे भाग से
अधिक मत प्राप्त कर लेता है तो जमानत राशि लौटा दी जाती है। नामांकन, मान्यता प्राप्त
दल के अभ्यर्थी के मामले में कम से कम एक रजिस्ट्रीकृत निर्वाचक द्वारा और दूसरे अभ्यथियों
के मामले में निर्वाचन क्षेत्र के दस रजिस्ट्रीकृत निर्वाचकों द्वारा समर्थित होना
चाहिए। निर्वाचन आयोग द्वारा नियुक्त रिटर्निंग आफिसर को प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र
में, नामांकन पत्र प्राप्त करने और निर्वाचन की औपचारिकताओं के निरीक्षण के लिए प्रभारी
बनाया जाता है।
लोक सभा और विधान सभा में बहुत स्थानों में से, अभ्यर्थी, अनुसूचित जातियों
या अनुसूचित जन जातियों में से ही हो सकता है। इन आरक्षित स्थानों की संख्या प्रत्येक
राज्य में अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जन जाति के लोगों की संख्या के अनुपात के लगभग
होनी चाहिए। इस समय लोक सभा में अनुसूचित जाति के लिए 79 स्थान और अनुसूचित जन जाति
के लिए 41 स्थान आरक्षित हैं।
प्रत्येक निर्वाचन में निर्वाचन लड़ने वाले अभ्यथियों की संख्या निरंतर
बढ़ी है। 1952 के सामान्य निर्वाचन में प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में अभ्यथियों की
औसत संख्या 3.8 थी; 1991 तक यह 16.3 तक बढ़ गई थी; और 1996 में 25.6 पर थी। चूँकि गैर
संजीदा अभ्यथियों के लिए निर्वाचन में अभ्यर्थी बनना कुछ अधिक आसान हो गया था, अगस्त,
1996 में कुछ उपचारात्मक/सुधारात्मक उपाय किए गए जिनमें जमानत राशि को बढ़ाना और अभ्यर्थी
को नामांकित करने वाले व्यक्तियों की संख्या को बढ़ाना सम्मिलित है। बाद में होने वाले
निर्वाचनों में इन उपायों का प्रभाव काफी महत्वपूर्ण था। परिणामत: 1998 के लोक सभा
निर्वाचन में अभ्यथियों की संख्या प्रति निर्वाचन क्षेत्र 8.74 की औसत तक नीचे आ गई।
1999 के लोक सभा निर्वाचन में यह 8.6 थी और 2004 में यह 10 थी।
प्रचार का समय वह समय है जब राजनीतिक दल अपने अभ्यर्थी और दलील को सामने
रखते हैं और अपने अभ्यर्थी और दल के पक्ष में मत देने के लिए लोगों को प्रेरित करने
की आशा करते हैं। अभ्यथियों को अपने नामांकन प्रस्तुत करने के लिए एक सप्ताह का समय
दिया जाता है। इनकी जाँच रिटर्निंग आफिसर करता है और यदि सही नहीं पाया जाता तो एक
संक्षिप्त सुनवाई के पश्चात् अस्वीकृत कर दिया जाता है। विधिमान्य नामांकित अभ्यर्थी
नामांकन पत्रों की जांच के पश्चात् दो दिन के अन्दर अपनी अभ्यर्थिता वापिस ले सकते
हैं। सरकारी तौर पर प्रचार, निर्वाचन लड़ने वाले अभ्यथियों की सूची बन जाने के पश्चात्
से कम से कम चौदह दिन तक चलता है और मतदान खत्म होने से 48 घण्टें पहले समाप्त हो जाता
है।
निर्वाचन प्रचार के दौरान राजनीतिक दलों और अभ्यथियों से, राजनीतिक दलों
में परस्पर सहमति के आधार पर निर्वाचन आयोग द्वारा विकसित की गई, आदर्श आचार संहिता
के अनुपालन की अपेक्षा की जाती है। आदर्श आचार संहिता निर्वाचन प्रचार की अवधि में
राजनीतिक दलों और अभ्यथियों के आचरण के बारे में विस्तृत दिशानिर्देश स्थापित करती
है। इसका अभिप्राय प्रचार को स्वस्थ दिशा में चलाए रखना, प्रचार के दौरान और उसके पश्चात्
परिणामों की घोषणा तक, राजनीतिक दलों या उनके समर्थकों के बीच टकराव और विरोध को दूर
रखना और शान्ति तथा व्यवस्था को सुनिश्चित करना है। आदर्श आचार संहिता, केन्द्र या
राज्य में सत्तारूढ़ दल तथा अन्य दलों के लिए बराबर स्तर सुनिश्चित करती है ताकि किसी
ऐसी शिकायत, कि सत्तारूढ़ दल ने अपने निर्वाचन प्रचार के लिए अपनी शासकीय स्थिति का
उपयोग किया है, के लिए कोई कारण न हो पाये, के लिए भी दिशा निर्देश निर्धारित करती
है।
निर्वाचनों की घोषणा हो जाने पर, राजनीतिक दल, वह कार्यक्रम जिसको, यदि
वह सरकार में निर्वाचित हुए तो, कार्यान्वित करना चाहते हैं, उनके नेताओं की संख्या
और विपक्षी दलों और उनके नेताओं की विफलता का विवरण देने वाले चुनाव घोषणा पत्र को
जारी करते हैं। दलों से परिचित कराने और मुद्दों को लोकप्रिय बनाने के लिए नारे उपयोग
में लाए जाते हैं और निर्वाचकों को पोस्टर तथा पैम्फ्लेट वितरित किए जाते हैं। सभी
निर्वाचन क्षेत्रों में समर्थकों को मनाने, फुसलाने और उत्साहित करने के लिए और विरोधियों
को बदनाम करने के लिए रैलियां और सभाएं की जाती हैं। जितने संभव हो उतने सशक्त समर्थकों
को प्रभावित करने के लिए निर्वाचन क्षेत्रों में चारों ओर भ्रमण करके व्यक्तिगत अपीलों
और सुधारों के आश्वासन दिए जाते हैं। दल के प्रतीक प्रचुर मात्रा में पोस्टरों और
इश्तहारों पर छापे जाते हैं।
सुरक्षा बलों को और उनको जो कानून और व्यवस्था पर नजर रखते हैं और यह
सुनिश्चित करते हैं कि निर्वाचन निष्पक्ष हो, इस योग्य बनाने के लिए निर्वाचन सामान्यतया
विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में विभिन्न दिवसों पर होता है।
अभ्यर्थियों के नामांकन का कार्य सम्पूर्ण हो जाने पर, रिटर्निंग आफिसर
द्वारा निर्वाचन लड़ने वाले अभ्यर्थियों की एक सूची बनाई जाती है और मतपत्र छपवाए जाते
हैं। मतपत्र पर अभ्यर्थियों के नाम (आयोग द्वारा निर्धारित भाषा में) और प्रत्येक अभ्यर्थी
को आबंटित प्रतीक सहित, छापे जाते हैं। मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों के अभ्यर्थियों
को उनके दल के प्रतीक आबंटित किए जाते हैं।
मतदान गुप्तमत पत्र द्वारा होता है। मतदान केन्द्र साधारणत: सार्वजनिक
संस्थानों में स्थापित किए जाते है, जैसे स्कूल, सामुदायिक हॉल। निर्वाचन आयोग के अधिकारी
यह सुनिश्चित करने का प्रयास करते हैं कि मतदान केन्द्र प्रत्येक मतदाता की पहुँच के
2 किलोमीटर के अन्दर हो ताकि अधिक से अधिक मतदाता मतदान कर सकें और किसी भी मतदान केन्द्र
में 1500 मतदाताओं से अधिक मतदाता न हों । प्रत्येक मतदान केन्द्र मतदान दिवस पर कम
से कम 8 घंटे के लिए खुला रहता है।
मतदान केन्द्र में प्रवेश करने के पश्चात्, निर्वाचक का नाम निर्वाचक
नामावली में जाँचा जाता है और उसे एक मतपत्र दिया जाता है। मतदाता, मतदान केन्द्र में,
एक पर्देदार प्रखंड के अन्दर जाकर, मतपत्र पर अपनी पसंद के अभ्यर्थी के प्रतीक पर या
उसके समीप वहाँ रखी एक रबड़ की मुहर से निशान लगा कर मतदान करता है। फिर मतदाता मतपत्र
को मोड़ता है और उसे एक सांझी मतपेटी, में जो पीठासीन अधिकारी और मतदान अभिकर्ता की
नजर के सामने रखी होती है डाल देता है। मोहर लगाने की यह प्रणाली मतपत्रों को चोरी
छुपे मतदान केन्द्र से बाहर ले जाने या मतपत्र में न डालने की सम्भावना को समाप्त कर
देती है।
सन् 1998 से, आयोग ने प्रयोग बराबर बढ़ाते हुए मतपेटियों के स्थान पर
इलैक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों को उपयोग किया है। सन् 2003 में सभी राज्यीय निर्वाचन और
उपनिर्वाचन ई.वी.एम. का उपयोग करके सम्पन्न हुए। इससे उत्साहित होकर आयोग ने सन्
2004 में होने वाले लोक सभा निर्वाचन में केवल ई.वी.एम. उपयोग में लाने का ऐतिहासिक
निर्णय लिया। इस निर्वाचन में दस लाख से अधिक ई.वी.एम. उपयोग में लाई गईं।
राजनीतिक दल, आधुनिक गणतंत्र का एक स्थापित भाग है और भारत में निर्वाचनों
का संचालन मुख्यत: राजनीतिक दलों के आचरण पर निर्भर है। यद्यपि भारतीय निर्वाचनों के
लिए बहुत से अभ्यर्थी निर्दलीय होते हैं, तथापि, लोक सभा और विधान सभा निर्वाचन में
जीतने वाले अभ्यर्थी अधिकतर राजनीतिक दलों के द्वारा सदस्यों के रूप में खड़े किए जाते
हैं और अनुमानित मत (opinion polls) यह सुझाते हैं कि लोगों का झुकाव किसी विशेष अभ्यर्थी
के स्थान पर एक पार्टी को मत देने में है। दल, अभ्यर्थियों को बड़ा निर्वाचन प्रचार
दे कर के सरकार के काम-काज को देख कर और सरकार के लिए वैकल्पिक सुझाव प्रस्तुत करके
संगठनात्मक समर्थन प्रदान करते हैं, जो मतदाताओं की सरकार चलाने के बारे में पसन्द
बनाने में सहायता करते हैं।
राजनैतिक दलों को निर्वाचन आयोग के पास रजिस्ट्रीकरण कराना आवश्यक है।
आयोग यह निर्धारित करता है कि क्या दल की संरचना भारत की सम्प्रभुता, एकता और अखण्डता
को बनाए रखते हुए भारतीय संविधान के अनुसार लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद के सिद्धान्तों
पर हुई है। दलों से आशा की जाती है कि वे संगठनात्मक निर्वाचन करें और लिखित संविधान
बनाएं।
निर्वाचन आयोग द्वारा राजनीतिक क्रियाकलापों के विस्तार और निर्वाचनों
में सफलता के संबंध में निर्धारित कुछ मानदंडों के अनुसार आयोग द्वारा राजनीतिक दलों
का राष्ट्रीय या राज्यीय दलों या केवल रजिस्ट्रीकृत-अमान्यता प्राप्त दलों के रूप में
वर्गीकरण किया गया है। यह तथ्य कि कोई दल कैसे वर्गीकृत किया गया है, कुछ सुविधाओं
पर दल के अधिकार का निर्णय करता है जैसे निर्वाचक नामावलियों तक पहुँच, राज्य के टेलीविजन
और रेडियो स्टेशनों - आकाशवाणी और दूरदर्शन - पर राजनीतिक प्रसारण के लिए समय की सुविधा
और मुख्य प्रश्न है दल के प्रतीक का आबंटन । दल का प्रतीक अनपढ़ मतदाताओं को, दल के
अभ्यर्थी, जिसे वह मत देना चाहते हैं, को पहचानने के योग्य बनाता है। राष्ट्रीय दलों
को एक प्रतीक दिया जाता है जिसे केवल वही पूरे देश में उपयोग में ला सकते हैं। राज्यीय
दल उस राज्य में जिसमें वे मान्यता प्राप्त हैं अपने प्रतीक का अकेले उपयोग करते हैं
जबकि रजिस्ट्रीकृत - अमान्यता प्राप्त दल मुक्त प्रतीकों में से एक प्रतीक चुन सकते
हैं।
किसी अभ्यर्थी द्वारा निर्वाचन प्रचार के दौरान व्यय की जाने वाली धन
राशि पर कड़ी विधिक सीमाएं हैं। दिसम्बर, 1997 से अधिकांश लोक सभा निर्वाचन क्षेत्रों
में 15, 00,000/- रु. सीमा थी, यद्यपि कुछ राज्यों में सीमा 6, 00,000/- रु. थी। (विधान
सभा निर्वाचनों में अधिकतम सीमा 6, 00,000/- रु. और न्यूनतम सीमा 3, 00,000/- रु. थी)।
हाल ही में हुए अक्तूबर, 2003 में हुए संशोधन ने इन सीमाओं को बढ़ा दिया है। बड़े राज्यों
में लोक सभा स्थानों के लिए अब यह 25,00,000/- रु. है। अन्य राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों
में यह सीमा 10, 00,000/- रु. से 25, 00,000/- रु. के बीच भिन्न भिन्न है। इसी प्रकार
बड़े राज्यों में विधान सभा के स्थानों के लिए, अब यह 10,00,000/- रु. है जब कि अन्य
राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों में यह 5, 00,000/- रु. से 10, 00,000/- रु. के बीच
भिन्न भिन्न है। यद्यपि किसी अभ्यर्थी के समर्थक प्रचार में सहायता करने के लिए वे
जितना चाहें व्यय कर सकते है, तथापि उन्हें अभ्यर्थी की लिखित अनुमति प्राप्त करनी
होगी और दलों को भी वे जितना चाहें प्रचार पर व्यय करने की अनुमति है, वहीं सर्वोच्च
न्यायालय के निर्णयों में कहा गया है कि जब तक कोई राजनीतिक दल प्रचार की अवधि में
व्यय की गई राशि के लिए विशेष स्पष्टीकरण न दे दे, वह किसी भी क्रियाकलाप को अभ्यर्थी
के द्वारा धन सुलभ किया हुआ मानेगा और निर्वाचन व्यय में गिनेगा। अभ्यर्थियों और दलों
पर लादी गई जवाबदेही ने कुछ अधिक असंयत प्रचार, जो पहले भारतीय निर्वाचनों का हिस्सा
थे, में कमी ला दी है।
निर्वाचन आयोग द्वारा सभी मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय और राज्यीय दलों
को निर्वाचन की अवधि में राज्य के इलैक्ट्रोनिक मीडिया - आकाशवाणी और दूरदर्शन तक विस्तृत
पैमाने पर पहुँच की अनुमति प्रदान की गई है। राज्य के आकाशवाणी और दूरदर्शन चैनलों
पर आबंटित नि:शुल्क समय 122 घंटों तक बढ़ाया गया है। इसे हाल ही के, पिछले निर्वाचनों
में आधार सीमा और अतिरिक्त सीमा को मिला कर दल के प्रदर्शन से जोड़ कर आबंटित किया
जाता है।
विघटनों, विलयों और गठबंधनों ने राजनीतिक दलों की संरचना को बहुधा छिन्न-भिन्न
किया है। इसने ऐसे विवादों को उत्पन्न किया है कि विभाजित हुए दल के कौन से भाग को
दल का प्रतीक मिलेगा और दूसरे दल को राष्ट्रीय और राज्यीय दलों के विचार से कैसे वर्गीकृत
किया जाएगा। निर्वाचन आयोग को इन विवादों को निपटाना पड़ता है यद्यपि इसके निर्णयों
को न्यायालयों में चुनौती दी जा सकती है।
कोई भी निर्वाचक या अभ्यर्थी, यदि वह सोचता है कि निर्वाचन के दौरान धांधली
हुई है, तो निर्वाचन याचिका दायर कर सकता है। निर्वाचन याचिका कोई साधारण नागरिक मुकद्दमा
नहीं है वरन् इसे एक स्पर्धा के रूप में माना जाता है जिसमें पूरा निर्वाचन क्षेत्र
शामिल होता है। निर्वाचन याचिका की संबंधित न्यायालय द्वारा जाँच की जाती हैं और यदि
इसकी पुष्टि हो जाए तो उस निर्वाचन क्षेत्र में पुन: मतदान भी कराया जा सकता है।
यह सुनिश्चित करने के लिए कि प्रचार निष्पक्ष रूप से संचालित हो और लोग
जिसे चाहे उसे मत देने के लिए स्वतंत्र हों, निर्वाचन आयोग बड़ी संख्या में निर्वाचन
प्रेक्षक नियुक्त करता है। निर्वाचन व्यय प्रेक्षक, प्रत्येक अभ्यर्थी और दलों द्वारा
निर्वाचनों पर व्यय की जाने वाली राशि पर नजर रखता है।
मतदान समाप्त हो जाने के पश्चात् निर्वाचन आयोग द्वारा नियुक्त रिटर्निंग
आफिसरों और प्रेक्षकों के निरीक्षण में मतो की गणना होती है। मतगणना समाप्त होने के
पश्चात् रिटर्निंग आफिसर उस अभ्यर्थी के नाम की घोषणा, विजेता के रूप में और संबंधित
सदन के निर्वाचन क्षेत्र के विजयी अभ्यर्थी के रूप में करता है, जिसे अधिकतम मत प्राप्त
हुए हों।
निर्वाचन प्रक्रिया में यथा सम्भव पारदर्शिता लाने के लिए मीडिया को प्रोत्साहित
किया जाता है और मतों की गोपनीयता बनाए रखने की शर्त पर उन्हें निर्वाचनों की खबरें
भेजने के लिए सुविधाएं भी प्रदान की जाती हैं। मीडिया के व्यक्तियों को वास्तविक मतगणना
के दौरान मतदान प्रक्रिया की खबरों के लिए पोलिंग स्टेशन में और गणना हालों में प्रवेश
करने के लिए विशेष अनुमति पत्र दिए जाते हैं।
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