गुरुवार, 31 जनवरी 2013

भारत की निर्वाचन प्रणाली


परिचय
भारत सरकार की संसदीय प्रणाली के साथ एक संवैधानिक लोकतंत्र है और प्रणाली के केन्द्र में नियमित, स्वतंत्र और निष्पक्ष निर्वाचनों की प्रतिबद्धता है। ये निर्वाचन, सरकार का गठन, संसद के दो सदनों की सदस्यता, राज्य और संघ राज्य क्षेत्रों की विधान सभाएं, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के पद निश्चित करते हैं।
निर्वाचन, संसद द्वारा बनाए गए कानूनों से अनुपूरित संवैधानिक उपबंधों के अनुसार ही संचालित किए जाते है। मुख्य कानून हैं लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950, जो मुख्यत: निर्वाचक नामावलियों की तैयारी तथा पुनरीक्षण से संबंधित है, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951, जो विस्तार से निर्वाचनों के संचालन के सभी पहलुओं और निर्वाचनोपरांत विवादों से संबंधित है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह नियत किया है कि जहाँ प्रचलित कानून मौन हैं या निर्वाचनों के संचालन से संबंधित किसी विशिष्ट स्थिति से निपटने के लिए उनके द्वारा बनाए गए उपबंध अपर्याप्त हैं तो निर्वाचन आयोग के पास समुचित रीति से कार्य करने के लिए संविधान के अधीन अवशिष्ट शक्तियाँ उपलब्ध हैं।
भारतीय निर्वाचन – प्रचालन का पैमाना
भारत में निर्वाचन, राजनीतिक गतिशीलता और संगठनात्मक पेचीदेपन को समेटे हुए आश्चर्यजनक पैमाने की घटनाएं हैं। सन् 2004 में हुए लोकसभा निर्वाचन में 6 राष्ट्रीय दलों से 1351 अभ्यर्थी, 36 राज्यीय दलों से 801 अभ्यर्थी, अधिकारिक मान्यता प्राप्त दलों से 898 अभ्यर्थी और 2385 निर्दलीय अभ्यर्थी थे। कुल 67,14,87,930 निर्वाचकों में से 38,99,48,330 लोगों ने मतदान किया। निर्वाचन आयोग ने लगभग 40 लाख लोगों को निर्वाचन कराने के कार्य में लगाया। यह सुनिश्चित करने के लिए कि निर्वाचन शान्तिपूर्ण तरीके से सम्पन्न हों, एक बहुत बड़ी संख्या में सिविल पुलिस और सुरक्षा बलों को लगाया गया।
संसद का नया निचला सदन (लोक सभा) को निर्वाचित करने के लिए भारत में साधारण निर्वाचनों के संचालन में विश्व की एक विशाल घटना का प्रबन्धन समाहित होता है। विस्तृत रूप से भिन्न भिन्न भौगोलिक और मौसमी क्षेत्रों में फैले हुए 7, 00,000 मतदान केन्द्रों में निर्वाचक गण 67 करोड़ निर्वाचकों से भी अधिक होते हैं। मतदान केन्द्रों की स्थापना हिमालय में बर्फ से ढके पहाड़ों में, राजस्थान के रेगिस्तानों में और हिन्द महासागर में छुट पुट रूप में बसे हुए द्वीपों में की जाती है।
निर्वाचन क्षेत्र और स्थानों का आरक्षण
देश 543 संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में बँटा हुआ है इनमें से प्रत्येक, लोक सभा, जो संसद का निचला सदन है, के लिए एक-एक संसद सदस्य भेजता है। संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों का आकार और रूप एक स्वतंत्र परिसीमन आयोग द्वारा निर्धारित किया जाता है जिसका लक्ष्य भौगोलिक सघनता और राज्य व प्रशासनिक क्षेत्र की सीमाएं तथा मोटे तौर पर समान जनसंख्या के आधार पर निर्वाचन क्षेत्र बनाना होता है।
निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाएं कैसे तय की जाती है?
परिसीमन, यह सुनिश्चित करने के लिए कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में, जहाँ तक व्यवहार्य हो, बराबर संख्या में लोग हों, संसदीय या विधान सभा निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं को पुन: तय करना होता है। भारत में जनसंख्या में हुए बदलाव को दर्शाने के लिए होने वाली दस वर्षीय जनगणना के पश्चात् सीमाओं की जाँच पड़ताल आवश्‍यक है, जिसके लिए संसद विधि द्वारा एक स्वतंत्र परिसीमन आयोग का, जो मुख्य निर्वाचन आयुक्त और दो न्यायाधीशों या सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीशों द्वारा बनाया जाता है, गठन करती है। यद्यपि, 1976 के एक संवैधानिक संशोधन द्वारा, यह दिखाने के लिए कि राज्यों के परिवार नियोजन कार्यक्रम लोक सभा और विधान सभाओं में उनके प्रतिनिधित्व को प्रभावित नहीं करेगा, परिसीमन, को 2001 की जनगणना के पश्चात् तक के लिए स्थगित कर दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि - निर्वाचन क्षेत्रों के आकार में कई बड़ी विसंगतियाँ, जिनमें सबसे बड़े निर्वाचन क्षेत्र में 25,00,000 से अधिक निर्वाचक हैं और न्यूनतम में 50,000 से कम निर्वाचक हैं। 2001 की जनगणना के 31 दिसम्बर, 2003 को जारी आंकड़ों के आधार पर परिसीमन प्रक्रिया अब जारी है।
स्थानों का आरक्षण
संविधान ने आंग्ल-भारतीय समुदाय को प्रतिनिधित्व देने के लिए राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत दो सदस्यों के अतिरिक्त लोक सभा पर 550 सदस्यों की सीमा लगा दी है। आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों द्वारा, जिन में केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थी ही निर्वाचन में खड़े हो सकते हैं, इन के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए भी उपबंध बनाए गए हैं।
निर्वाचन प्रणाली
लोक सभा के लिए ‘पहले पहुँचा सो जीता’ निर्वाचन प्रणाली का उपयोग करते हुए निर्वाचन कराए जाते हैं। देश को पृथक पृथक भौगोलिक क्षेत्रों में बाँटा गया है जिन्हें निर्वाचन क्षेत्र के रूप में जाना जाता है और निर्वाचक एक अभ्यर्थी के लिए केवल एक मत ही दे सकता है (यद्यपि अधिकतम अभ्यर्थी निर्दलीय के रूप में खड़े होते हैं, अधिकतम सफल अभ्यर्थी, राजनीतिक दलों के सदस्य के रूप में अभ्यर्थी बनते हैं) और अधिकतम मत प्राप्त करने वाला अभ्यर्थी विजेता होता है।
संसद
संघ की संसद राष्ट्रपति, लोकसभा और राज्यसभा से मिलकर बनती है। राष्ट्रपति राष्ट्र का अध्यक्ष होता है और वह प्रधान मंत्री की नियुक्ति करता है, जो लोक सभा के राजनीतिक गठन के अनुसार सरकार चलाता है। यद्यपि सरकार का मुखिया प्रधान मंत्री होता है, मंत्रिमंडल सरकार की केन्द्रीय निर्णय लेने वाली इकाई होती है। एक से अधिक दल के सदस्य सरकार बना सकते हैं और यद्यपि शासक दल संसद में अल्पमत में हों, वे तब तक शासन कर सकते हैं जब तक उन्हें लोक सभा में बहुमत वाले संसद सदस्यों का विश्वास प्राप्त हो। साथ ही साथ लोक सभा, राज्यसभा सहित ऐसी मुख्य विधायी निकाय है, जो यह निश्चित करती है कि सरकार किसे बनानी है।
राज्य सभा – राज्यों की परिषद्
राज्य सभा के सदस्यों का निर्वाचन स्वतंत्र नागरिकों के द्वारा न होकर परोक्ष रूप से होता है। राज्य सभा के सदस्यों को प्रत्येक राज्य विधान सभा के एकल संक्रमणीय मत प्रणाली द्वारा निर्वाचित किया जाता है। बहुत सी संघीय प्रणालियों के विपरीत, प्रत्येक राज्य द्वारा भेजे गए सदस्य मोटे तौर पर उनकी जनसंख्या के अनुपात में होते हैं। इस समय, राज्य सभा में विधान सभाओं द्वारा निर्वाचित 233 सदस्य हैं और 12 सदस्य साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा के प्रतिनिधि के रूप में राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत भी हैं। राज्य सभा के सदस्यों का कार्यकाल छ: वर्ष का होता है और निर्वाचन भिन्न भिन्न वर्गों के लिए होते हैं जिनसे परिषद् के एक-तिहाई सदस्य प्रति 2 वर्ष पर निर्वाचित होते है।
मनोनीत सदस्य
यदि‍ ऐसा प्रतीत होता है कि आंग्ल-भारतीय समुदाय का प्रतिनिधित्व पर्याप्त नहीं है तो राष्ट्रपति उनको प्रतिनिधित्व देने के लिए लोक सभा में 2 और राज्य सभा में साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा के 12 सदस्यों को मनोनीत कर सकता है।
राज्य विधान सभाएं
भारत एक संघीय देश है और संविधान, राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों को उनकी अपनी सरकारों पर महत्वपूर्ण नियंत्रण प्रदान करता है। भारत के 28 राज्यों में सरकार का प्रशासन चलाने के लिए विधान सभाएं सीधे निर्वाचित निकाय है। कुछ राज्यों में विधान मंडल में उच्च सदन और निचला सदन सहित (bicameral) द्विसदनी व्यवस्था है। सात संघ राज्य क्षेत्रों में से दो अर्थात् राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र दिल्ली और पांडिचेरी में भी विधान सभाएं हैं।
विधान सभाओं के लिए निर्वाचन उसी रीति से कराए जाते हैं जैसे लोक सभा के लिए। राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों को एक सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र में बाँटा जाता है और ‘पहले पहुँचा सो जीता’ की निर्वाचन प्रणाली उपयोग में लाई जाती है। विधान सभाओं का आकार जनसंख्या के अनुसार होता है। सबसे बड़ी विधान सभा उत्तर प्रदेश की  403 सदस्य और सबसे छोटी पांडिचेरी की 30 सदस्यों की है।
राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति
राष्ट्रपति का निर्वाचन विधान सभाओं, लोक सभा और राज्य सभा के निर्वाचित सदस्य करते हैं और उसका कार्यकाल 5 वर्ष का होता है (यद्यपि वे पुनर्निर्वाचन के लिए खड़े हो सकते हैं)। मतों के आबंटन के लिए एक सूत्र उपयोग में लाया जाता हे ताकि राज्य विधान सभा सदस्यों और राष्ट्रीय संसद सदस्यों के बीच बराबर संतुलन देने के लिए प्रत्येक राज्य की जनसंख्या और राज्य के विधान सभा सदस्यों द्वारा दिए जाने वाले मतों में संतुलन रहे। यदि किसी अभ्यर्थी को बहुमत में मत नहीं मिलते तो एक प्रणाली उपयोग में लाई जाती है जिसके द्वारा हारने वाले (न्यूनतम मत पाने वाले) अभ्यर्थी को स्पर्धा से निकाला जाता है और उसके मतों को दूसरे अभ्यर्थियों को हस्तान्तरित किया जाता है जब तक कि किसी को बहुमत न मिल जाए। उपराष्ट्रपति का निर्वाचन सभी लोक सभा और राज्य सभा के निर्वाचित सदस्यों और मनोनीत सदस्यों के द्वारा सीधे मतों द्वारा किया जाता है।
कौन मतदान कर सकता है?
भारत में जनतंत्र प्रणाली सार्वदेशिक वयस्क मताधिकार के सिद्धान्त पर आधारित है; कि 18 वर्ष (1989 से पहले आयु सीमा 21 वर्ष थी) से अधिक का कोई भी नागरिक निर्वाचन में मतदान कर सकता है। मत देने के अधिकार में जाति, पंथ, धर्म या लिंग का कोई विचार नहीं है। जो पागल समझे जाते हैं या जो लोग किसी विशेष अपराध के सिद्धदोषी हैं, उन्हें मतदान की अनुमति नहीं है।
निर्वाचक नामावली
निर्वाचक नामावली ऐसे सभी लोगों की सूची है, जो भारतीय निर्वाचनों में मतदान के लिए रजिष्ट्रीकृत हैं। केवल उन्हीं लोगों को, जिनके नाम निर्वाचक नामावली में हैं, मतदान की अनुमति है। निर्वाचक नामावलियों का, उनके नाम जोड़ने के लिए जो उस वर्ष की 1 जनवरी को 18 वर्ष के होते हैं या जो किसी निर्वाचन क्षेत्र में आए हैं, या उनके नाम हटाने के लिए जो दिवंगत हो गए हैं या जो निर्वाचन क्षेत्र से बाहर चले गए हैं, सामान्यतया प्रतिवर्ष पुनरीक्षण किया जाता है। यदि आप मतदान के पात्र हैं और आपका नाम निर्वाचक नामावली में नहीं है तो आप निर्वाचन क्षेत्र के निर्वाचक रजिष्ट्रीकरण अधिकारी को आवेदन कर सकते हैं जो रजिस्टर को अद्यतन कर देगा। निर्वाचक नामावलियों का अद्यतन करने का काम अभ्यर्थियों के नामांकन के पश्चात् निर्वाचन प्रचार की अवधि में रूक जाता है।
नामावलियों का कम्प्यूटरीकरण
सन् 1998 में निर्वाचन आयोग ने 62 करोड़ मतदाताओं की निर्वाचक नामावलियों को कम्प्यूटरीकृत करने का ऐतिहासिक निर्णय लिया। यह कार्य पूरा हो चुका है और अब अच्‍छी प्रकार छपी हुई निर्वाचक नामावलियाँ उपलब्ध हैं। परस्पर लिंक करने के लिए निर्वाचक के फोटो पहचान पत्रों की संख्या भी अब निर्वाचक नामावलियों में छापी गई हैं। छपी हुई निर्वाचक नामावलियां और इनकी कम्पैक्ट डिस्‍क्‍स भी जनसाधारण के लिए बिक्री पर उपलब्ध हैं। राष्ट्रीय और राज्यीय दलों को प्रत्येक पुनरीक्षण के पश्चात् ये नि:शुल्क प्रदान की जाती है। सम्पूर्ण देश की नामावलियाँ इस वैबसाइट पर भी उपलब्ध हैं।
निर्वाचक फोटो पहचान पत्र (ई.पी.आई.सी.)
निर्वाचक नामावलियों में शुद्धता लाने के प्रयास करने के लिए और निर्वाचक धांधलियों को रोकने के लिए निर्वाचन आयोग ने अगस्त, 1993 में देश के सभी मतदाताओं के लिए फोटो पहचान पत्र बनाने के आदेश किए। नवीनतम तकनीकी तरीकों का लाभ उठाने के लिए आयोग ने ई.पी.आई.सी. कार्यक्रम के लिए मई, 2000 में संशोधित दिशा निर्देश जारी किए। 45 करोड़ से अधिक पहचान पत्र अब तक वितरित किए जा चुके हैं।
निर्वाचन कब होते हैं?
लोक सभा और प्रत्येक राज्य विधान सभा के लिए निर्वा‍चन, यदि इससे पहले निर्वाचन की अपेक्षा न की जाए, प्रति 5 वर्ष पर होते हैं। यदि सरकार लोक सभा का विश्वास प्राप्त न कर पाए और कोई वैकल्पिक सरकार कार्य-भार संभालने के लिए न हो तो राष्ट्रपति पाँच वर्ष की अवधि पूरी होने से पहले लोक सभा को भंग कर सकता है और साधारण निर्वाचन की अपेक्षा कर सकता है।
हाल के समयों में सरकारों को लोक सभा के पूरे कार्यकाल तक सत्ता में रहने में बड़ी कठिनाइयां हुई हैं और इसलिए अक्सर पाँच वर्ष की सीमा तक पहुँचने से पहले निर्वाचन हुए हैं। सरकार के द्वारा घोषित आपतकाल के फलस्वरूप 1975 में पारित एक संवैधानिक संशोधन ने 1976 में होने वाले निर्वाचन को स्थगित कर दिया था। यह संशोधन बाद में रद्द कर दिया गया और नियमित निर्वाचन 1977 में फिर आरंभ किए गए।
नियमित निर्वाचनों को संवैधानिक संशोधन द्वारा और निर्वाचन आयोग के परामर्श से ही रोका जा सकता है और यह मान्य है कि नियमित निर्वाचनों में रूकावट केवल असाधारण अवस्थाओं में ही स्वीकार्य है।
निर्वाचनों का कार्यक्रम
जब पाँच वर्ष का कार्यकाल पूरा हो जाए, या विधान मंडल भंग कर दिया गया हो और नव निर्वाचनों की अपेक्षा की गई हो तो निर्वाचन आयोग निर्वाचन कराने के लिए निर्वाचन-पक्रिया को आरम्भ कर देता है। संविधान कहता है कि भंग लोक सभा के आखिरी सत्र और नए सदन की अपेक्षा करने के बीच 6 माह से अधिक का समय नहीं होना चाहिए, अत: निर्वाचन उससे पहले पूरे होने चाहिए।
भारत जैसे विशाल और विभिन्नता वाले देश में ऐसी अवधि ढूँढ पाना, जब सारे देश में निर्वाचन कराए जा सकें, सरल नहीं है। निर्वाचन आयोग को, जो निर्वाचनों के कार्यक्रम का निर्णय लेता है, मौसम - सर्दियों में निर्वाचन क्षेत्र हिमाच्छादित हो सकते हैं, और मानसून में दूर दराज के क्षेत्र पहुँच से बाहर हो सकते हैं - कृषि चक्र, - जिससे कि फसल बोने और काटने में बाधा न पहुँचे - परीक्षा समय सारणी, - क्योंकि स्कूलों को मतदान के लिए उपयोग में लाया जाता है और अध्यापकों को मतदान कर्मचारियों के रूप में नियुक्त किया जाता है, और धार्मिक त्योहारों और सार्वजनिक अवकाशों का ध्यान रखना पड़ता है। इन सबसे ऊपर व्यावहारिक कठिनाइयाँ हैं जो किसी निर्वाचन के संचालन के साथ चलती हैं - जैसे मतपेटियों या ई.वी.एम. को बाहर भेजना, मतदान केन्द्रों की स्थापना, निर्वाचनों के निरीक्षण के लिए कर्मचारियों की भर्ती।
आयोग सामान्यतः औपचारिक प्रक्रिया आरम्भ करने से कुछ सप्ताह पहले एक विशाल प्रेस सम्मेलन में निर्वाचनों के कार्यक्रम की घोषणा करता है। अभ्यर्थियों और राजनीतिक दलों के मार्गदर्शन के लिए आदर्श आचार संहिता ऐसी घोषणा के तुरन्त पश्चात् से लागू हो जाती है। निर्वाचनों की औपचारिक प्रक्रिया निर्वाचकों से किसी सदन के सदस्यों को निर्वाचित करने की अपेक्षा करने वाली अधिसूचना या अधिसूचनाओं के जारी होने के साथ प्रारंभ होती है। जैसे ही अधिसूचनाएं जारी होती हैं, अभ्यर्थी, उस निर्वाचन क्षेत्र में, जहाँ से वे निर्वाचन लड़ना चाहते हैं, अपने नामांकन पत्र दाखिल करना आरम्भ कर सकते हैं। लगभग एक सप्ताह के पश्चात् इसकी अन्तिम तिथि समाप्त होने पर संबंधित निर्वाचन क्षेत्र का रिटर्निंग आफिसर इनकी जांच करता है। विधिमान्य नामांकित अभ्यर्थी जाँच की तिथि से दो दिन के अन्दर निर्वाचन से अपना नाम वापस ले सकते हैं। निर्वाचन में भाग लेने वाले अभ्यर्थियों को मतदान की वास्तविक तिथि से पहले राजनीतिक प्रचार के लिए कम से कम दो सप्ताह का समय मिलता है। प्रक्रिया के विशाल आकार-प्रकार और निर्वाचकों की विशाल संख्या के कारण राष्ट्रीय मतदान कम से कम तीन दिन होता है। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की मतगणना की तारीख और परिणाम की घोषणा संबंधित रिटर्निंग आफिसर के द्वारा की जाती है। आयोग निर्वाचित सदस्यों की पूरी सूची का संकलन करता है और सदन के सम्यक गठन के लिए समुचित अधिसूचना जारी करता है। इसके साथ ही निर्वाचन प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है और तत्पश्चात् लोक सभा के मामले में राष्ट्रपति और राज्य विधान सभाओं के मामले में संबंधित राज्य के गवर्नर अपने सदनों को सत्र आयोजित करने के लिए आह्वान कर सकते हैं। समस्त प्रक्रिया राष्ट्रीय निर्वाचनों के लिए 5 से 8 सप्ताह और केवल विधान सभाओं के लिए पृथक निर्वाचनों के लिए 4 से 5 सप्ताह का समय लेती है।
निर्वाचन के लिए कौन अभ्यर्थी हो सकता है?
कोई भी भारतीय नागरिक जो मतदाता के रूप में रजिस्ट्रीकृत है और 25 वर्ष से अधिक की आयु का है, लोक सभा या राज्य विधान सभा के निर्वाचनों में अभ्यर्थी हो सकता है। राज्य सभा के लिए आयु सीमा 30 वर्ष है।
प्रत्येक अभ्यर्थी को लोक सभा निर्वाचन के लिए रु.10,000/- और राज्य सभा या विधान सभा निर्वाचन के लिए रु.5,000/- की जमानत राशि जमा करनी होती है, सिवाय अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति के अभ्यर्थियों के जिन्हें इस राशि का आधा जमा करना होता है, यदि निर्वाचन क्षेत्र में कोई अभ्यर्थी पड़े कुल विधिमान्य मतों के छठे भाग से अधिक मत प्राप्त कर लेता है तो जमानत राशि लौटा दी जाती है। नामांकन, मान्यता प्राप्त दल के अभ्यर्थी के मामले में कम से कम एक रजिस्ट्रीकृत निर्वाचक द्वारा और दूसरे अभ्यथियों के मामले में निर्वाचन क्षेत्र के दस रजिस्ट्रीकृत निर्वाचकों द्वारा समर्थित होना चाहिए। निर्वाचन आयोग द्वारा नियुक्त रिटर्निंग आफिसर को प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में, नामांकन पत्र प्राप्त करने और निर्वाचन की औपचारिकताओं के निरीक्षण के लिए प्रभारी बनाया जाता है।
लोक सभा और विधान सभा में बहुत स्थानों में से, अभ्यर्थी, अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जन जातियों में से ही हो सकता है। इन आरक्षित स्थानों की संख्या प्रत्येक राज्य में अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जन जाति के लोगों की संख्या के अनुपात के लगभग होनी चाहिए। इस समय लोक सभा में अनुसूचित जाति के लिए 79 स्‍थान और अनुसूचित जन जाति के लिए 41 स्थान आरक्षित हैं।
अभ्‍यर्थियों की संख्‍या
प्रत्‍येक निर्वाचन में निर्वाचन लड़ने वाले अभ्यथियों की संख्या निरंतर बढ़ी है। 1952 के सामान्य निर्वाचन में प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में अभ्यथियों की औसत संख्या 3.8 थी; 1991 तक यह 16.3 तक बढ़ गई थी; और 1996 में 25.6 पर थी। चूँकि गैर संजीदा अभ्यथियों के लिए निर्वाचन में अभ्यर्थी बनना कुछ अधिक आसान हो गया था, अगस्त, 1996 में कुछ उपचारात्मक/सुधारात्मक उपाय किए गए जिनमें जमानत राशि को बढ़ाना और अभ्यर्थी को नामांकित करने वाले व्यक्तियों की संख्या को बढ़ाना सम्मिलित है। बाद में होने वाले निर्वाचनों में इन उपायों का प्रभाव काफी महत्वपूर्ण था। परिणामत: 1998 के लोक सभा निर्वाचन में अभ्यथियों की संख्या प्रति‍ निर्वाचन क्षेत्र 8.74 की औसत तक नीचे आ गई। 1999 के लोक सभा निर्वाचन में यह 8.6 थी और 2004 में यह 10 थी।
प्रचार
प्रचार का समय वह समय है जब राजनीतिक दल अपने अभ्यर्थी और दलील को सामने रखते हैं और अपने अभ्यर्थी और दल के पक्ष में मत देने के लिए लोगों को प्रेरित करने की आशा करते हैं। अभ्यथियों को अपने नामांकन प्रस्तुत करने के लिए एक सप्ताह का समय दिया जाता है। इनकी जाँच रिटर्निंग आफिसर करता है और यदि सही नहीं पाया जाता तो एक संक्षिप्‍त सुनवाई के पश्चात् अस्वीकृत कर दिया जाता है। विधिमान्य नामांकित अभ्यर्थी नामांकन पत्रों की जांच के पश्चात् दो दिन के अन्दर अपनी अभ्यर्थिता वापिस ले सकते हैं। सरकारी तौर पर प्रचार, निर्वाचन लड़ने वाले अभ्यथियों की सूची बन जाने के पश्चात् से कम से कम चौदह दिन तक चलता है और मतदान खत्म होने से 48 घण्टें पहले समाप्त हो जाता है।
निर्वाचन प्रचार के दौरान राजनीतिक दलों और अभ्यथियों से, राजनीतिक दलों में परस्पर सहमति के आधार पर निर्वाचन आयोग द्वारा विकसित की गई, आदर्श आचार संहिता के अनुपालन की अपेक्षा की जाती है। आदर्श आचार संहिता निर्वाचन प्रचार की अवधि में राजनीतिक दलों और अभ्यथियों के आचरण के बारे में विस्तृत दिशानिर्देश स्थापित करती है। इसका अभिप्राय प्रचार को स्वस्थ दिशा में चलाए रखना, प्रचार के दौरान और उसके पश्चात् परिणामों की घोषणा तक, राजनीतिक दलों या उनके समर्थकों के बीच टकराव और विरोध को दूर रखना और शान्ति तथा व्यवस्था को सुनिश्चित करना है। आदर्श आचार संहिता, केन्द्र या राज्य में सत्तारूढ़ दल तथा अन्य दलों के लिए बराबर स्तर सुनिश्चित करती है ताकि किसी ऐसी शिकायत, कि सत्तारूढ़ दल ने अपने निर्वाचन प्रचार के लिए अपनी शासकीय स्थिति का उपयोग किया है, के लिए कोई कारण न हो पाये, के लिए भी दिशा निर्देश निर्धारित करती है।
निर्वाचनों की घोषणा हो जाने पर, राजनीतिक दल, वह कार्यक्रम जिसको, यदि वह सरकार में निर्वाचित हुए तो, कार्यान्वित करना चाहते हैं, उनके नेताओं की संख्या और विपक्षी दलों और उनके नेताओं की विफलता का विवरण देने वाले चुनाव घोषणा पत्र को जारी करते हैं। दलों से परिचित कराने और मुद्दों को लोकप्रिय बनाने के लिए नारे उपयोग में लाए जाते हैं और निर्वाचकों को पोस्टर तथा पैम्फ्लेट वितरित किए जाते हैं। सभी निर्वाचन क्षेत्रों में समर्थकों को मनाने, फुसलाने और उत्साहित करने के लिए और विरोधियों को बदनाम करने के लिए रैलियां और सभाएं की जाती हैं। जितने संभव हो उतने सशक्त समर्थकों को प्रभावित करने के लिए निर्वाचन क्षेत्रों में चारों ओर भ्रमण करके व्यक्तिगत अपीलों और सुधारों के आश्‍वासन दिए जाते हैं। दल के प्रतीक प्रचुर मात्रा में पोस्टरों और इश्तहारों पर छापे जाते हैं।
मतदान दिवस
सुरक्षा बलों को और उनको जो कानून और व्यवस्था पर नजर रखते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि निर्वाचन निष्पक्ष हो, इस योग्य बनाने के लिए निर्वाचन सामान्यतया विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में विभिन्न दिवसों पर होता है।
मतपत्र और प्रतीक
अभ्यर्थियों के नामांकन का कार्य सम्पूर्ण हो जाने पर, रिटर्निंग आफिसर द्वारा निर्वाचन लड़ने वाले अभ्यर्थियों की एक सूची बनाई जाती है और मतपत्र छपवाए जाते हैं। मतपत्र पर अभ्यर्थियों के नाम (आयोग द्वारा निर्धारित भाषा में) और प्रत्येक अभ्यर्थी को आबंटित प्रतीक सहित, छापे जाते हैं। मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों के अभ्यर्थियों को उनके दल के प्रतीक आबंटित किए जाते हैं।
मतदान किस प्रकार होता है?
मतदान गुप्तमत पत्र द्वारा होता है। मतदान केन्द्र साधारणत: सार्वजनिक संस्थानों में स्थापित किए जाते है, जैसे स्कूल, सामुदायिक हॉल। निर्वाचन आयोग के अधिकारी यह सुनिश्चित करने का प्रयास करते हैं कि मतदान केन्द्र प्रत्येक मतदाता की पहुँच के 2 किलोमीटर के अन्दर हो ताकि अधिक से अधिक मतदाता मतदान कर सकें और किसी भी मतदान केन्द्र में 1500 मतदाताओं से अधिक मतदाता न हों । प्रत्येक मतदान केन्द्र मतदान दिवस पर कम से कम 8 घंटे के लिए खुला रहता है।
मतदान केन्द्र में प्रवेश करने के पश्चात्, निर्वाचक का नाम निर्वाचक नामावली में जाँचा जाता है और उसे एक मतपत्र दिया जाता है। मतदाता, मतदान केन्द्र में, एक पर्देदार प्रखंड के अन्दर जाकर, मतपत्र पर अपनी पसंद के अभ्यर्थी के प्रतीक पर या उसके समीप वहाँ रखी एक रबड़ की मुहर से निशान लगा कर मतदान करता है। फिर मतदाता मतपत्र को मोड़ता है और उसे एक सांझी मतपेटी, में जो पीठासीन अधिकारी और मतदान अभिकर्ता की नजर के सामने रखी होती है डाल देता है। मोहर लगाने की यह प्रणाली मतपत्रों को चोरी छुपे मतदान केन्द्र से बाहर ले जाने या मतपत्र में न डालने की सम्भावना को समाप्त कर देती है।
सन् 1998 से, आयोग ने प्रयोग बराबर बढ़ाते हुए मतपेटियों के स्थान पर इलैक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों को उपयोग किया है। सन् 2003 में सभी राज्यीय निर्वाचन और उपनिर्वाचन ई.वी.एम. का उपयोग करके सम्पन्न हुए। इससे उत्साहित होकर आयोग ने सन् 2004 में होने वाले लोक सभा निर्वाचन में केवल ई.वी.एम. उपयोग में लाने का ऐतिहासिक निर्णय लिया। इस निर्वाचन में दस लाख से अधिक ई.वी.एम. उपयोग में लाई गईं।
राजनीतिक दल और निर्वाचन
राजनीतिक दल, आधुनिक गणतंत्र का एक स्थापित भाग है और भारत में निर्वाचनों का संचालन मुख्यत: राजनीतिक दलों के आचरण पर निर्भर है। यद्यपि भारतीय निर्वाचनों के लिए बहुत से अभ्यर्थी निर्दलीय होते हैं, तथापि, लोक सभा और विधान सभा निर्वाचन में जीतने वाले अभ्यर्थी अधिकतर राजनीतिक दलों के द्वारा सदस्यों के रूप में खड़े किए जाते हैं और अनुमानित मत (opinion polls) यह सुझाते हैं कि लोगों का झुकाव किसी विशेष अभ्यर्थी के स्थान पर एक पार्टी को मत देने में है। दल, अभ्यर्थियों को बड़ा निर्वाचन प्रचार दे कर के सरकार के काम-काज को देख कर और सरकार के लिए वैकल्पिक सुझाव प्रस्तुत करके संगठनात्मक समर्थन प्रदान करते हैं, जो मतदाताओं की सरकार चलाने के बारे में पसन्द बनाने में सहायता करते हैं।
निर्वाचन आयोग के पास रजिस्ट्रीकरण
राजनैतिक दलों को निर्वाचन आयोग के पास रजिस्ट्रीकरण कराना आवश्यक है। आयोग यह निर्धारित करता है कि क्या दल की संरचना भारत की सम्प्रभुता, एकता और अखण्डता को बनाए रखते हुए भारतीय संविधान के अनुसार लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद के सिद्धान्तों पर हुई है। दलों से आशा की जाती है कि वे संगठनात्मक निर्वाचन करें और लिखित संविधान बनाएं।
प्रतीकों की मान्यता और आरक्षण
निर्वाचन आयोग द्वारा राजनीतिक क्रियाकलापों के विस्तार और निर्वाचनों में सफलता के संबंध में निर्धारित कुछ मानदंडों के अनुसार आयोग द्वारा राजनीतिक दलों का राष्ट्रीय या राज्यीय दलों या केवल रजिस्ट्रीकृत-अमान्यता प्राप्त दलों के रूप में वर्गीकरण किया गया है। यह तथ्य कि कोई दल कैसे वर्गीकृत किया गया है, कुछ सुविधाओं पर दल के अधिकार का निर्णय करता है जैसे निर्वाचक नामावलियों तक पहुँच, राज्य के टेलीविजन और रेडियो स्टेशनों - आकाशवाणी और दूरदर्शन - पर राजनीतिक प्रसारण के लिए समय की सुविधा और मुख्य प्रश्न है दल के प्रतीक का आबंटन । दल का प्रतीक अनपढ़ मतदाताओं को, दल के अभ्यर्थी, जिसे वह मत देना चाहते हैं, को पहचानने के योग्य बनाता है। राष्ट्रीय दलों को एक प्रतीक दिया जाता है जिसे केवल वही पूरे देश में उपयोग में ला सकते हैं। राज्यीय दल उस राज्य में जिसमें वे मान्यता प्राप्त हैं अपने प्रतीक का अकेले उपयोग करते हैं जबकि रजिस्ट्रीकृत - अमान्यता प्राप्त दल मुक्त प्रतीकों में से एक प्रतीक चुन सकते हैं।
निर्वाचन व्ययों पर सीमा
किसी अभ्यर्थी द्वारा निर्वाचन प्रचार के दौरान व्यय की जाने वाली धन राशि पर कड़ी विधिक सीमाएं हैं। दिसम्बर, 1997 से अधिकांश लोक सभा निर्वाचन क्षेत्रों में 15, 00,000/- रु. सीमा थी, यद्यपि कुछ राज्यों में सीमा 6, 00,000/- रु. थी। (विधान सभा निर्वाचनों में अधिकतम सीमा 6, 00,000/- रु. और न्यूनतम सीमा 3, 00,000/- रु. थी)। हाल ही में हुए अक्तूबर, 2003 में हुए संशोधन ने इन सीमाओं को बढ़ा दिया है। बड़े राज्यों में लोक सभा स्थानों के लिए अब यह 25,00,000/- रु. है। अन्य राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों में यह सीमा 10, 00,000/- रु. से 25, 00,000/- रु. के बीच भिन्न भिन्न है। इसी प्रकार बड़े राज्यों में विधान सभा के स्थानों के लिए, अब यह 10,00,000/- रु. है जब कि अन्य राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों में यह 5, 00,000/- रु. से 10, 00,000/- रु. के बीच भिन्न भिन्न है। यद्यपि किसी अभ्यर्थी के समर्थक प्रचार में सहायता करने के लिए वे जितना चाहें व्यय कर सकते है, तथापि उन्हें अभ्यर्थी की लिखित अनुमति प्राप्त करनी होगी और दलों को भी वे जितना चाहें प्रचार पर व्यय करने की अनुमति है, वहीं सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों में कहा गया है कि जब तक कोई राजनीतिक दल प्रचार की अवधि में व्यय की गई राशि के लिए विशेष स्पष्टीकरण न दे दे, वह किसी भी क्रियाकलाप को अभ्यर्थी के द्वारा धन सुलभ किया हुआ मानेगा और निर्वाचन व्यय में गिनेगा। अभ्यर्थियों और दलों पर लादी गई जवाबदेही ने कुछ अधिक असंयत प्रचार, जो पहले भारतीय निर्वाचनों का हिस्सा थे, में कमी ला दी है।
राज्य के इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए नि:शुल्क प्रचार समय
निर्वाचन आयोग द्वारा सभी मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय और राज्यीय दलों को निर्वाचन की अवधि में राज्य के इलैक्ट्रोनिक मीडिया - आकाशवाणी और दूरदर्शन तक विस्तृत पैमाने पर पहुँच की अनुमति प्रदान की गई है। राज्य के आकाशवाणी और दूरदर्शन चैनलों पर आबंटित नि:शुल्क समय 122 घंटों तक बढ़ाया गया है। इसे हाल ही के, पिछले निर्वाचनों में आधार सीमा और अतिरिक्त सीमा को मिला कर दल के प्रदर्शन से जोड़ कर आबंटित किया जाता है।
घटन और विलय और दल बदल विरोधी कानून
विघटनों, विलयों और गठबंधनों ने राजनीतिक दलों की संरचना को बहुधा छिन्न-भिन्न किया है। इसने ऐसे विवादों को उत्पन्न किया है कि विभाजित हुए दल के कौन से भाग को दल का प्रतीक मिलेगा और दूसरे दल को राष्ट्रीय और राज्यीय दलों के विचार से कैसे वर्गीकृत किया जाएगा। निर्वाचन आयोग को इन विवादों को निपटाना पड़ता है यद्यपि इसके निर्णयों को न्यायालयों में चुनौती दी जा सकती है।
निर्वाचन याचिकाएं
कोई भी निर्वाचक या अभ्यर्थी, यदि वह सोचता है कि निर्वाचन के दौरान धांधली हुई है, तो निर्वाचन याचिका दायर कर सकता है। निर्वाचन याचिका कोई साधारण नागरिक मुकद्दमा नहीं है वरन् इसे एक स्पर्धा के रूप में माना जाता है जिसमें पूरा निर्वाचन क्षेत्र शामिल होता है। निर्वाचन याचिका की संबंधित न्यायालय द्वारा जाँच की जाती हैं और यदि इसकी पुष्टि हो जाए तो उस निर्वाचन क्षेत्र में पुन: मतदान भी कराया जा सकता है।
निर्वाचनों का पर्यवेक्षण, निर्वाचन प्रेक्षक
यह सुनिश्चित करने के लिए कि प्रचार निष्पक्ष रूप से संचालित हो और लोग जिसे चाहे उसे मत देने के लिए स्वतंत्र हों, निर्वाचन आयोग बड़ी संख्या में निर्वाचन प्रेक्षक नियुक्त करता है। निर्वाचन व्यय प्रेक्षक, प्रत्येक अभ्यर्थी और दलों द्वारा निर्वाचनों पर व्यय की जाने वाली राशि पर नजर रखता है।
मतगणना
मतदान समाप्त हो जाने के पश्चात् निर्वाचन आयोग द्वारा नियुक्त रिटर्निंग आफिसरों और प्रेक्षकों के निरीक्षण में मतो की गणना होती है। मतगणना समाप्त होने के पश्चात् रिटर्निंग आफिसर उस अभ्यर्थी के नाम की घोषणा, विजेता के रूप में और संबंधित सदन के निर्वाचन क्षेत्र के विजयी अभ्यर्थी के रूप में करता है, जिसे अधिकतम मत प्राप्त हुए हों।
मीडिया द्वारा घटना-विवरण
निर्वाचन प्रक्रिया में यथा सम्भव पारदर्शिता लाने के लिए मीडिया को प्रोत्साहित किया जाता है और मतों की गोपनीयता बनाए रखने की शर्त पर उन्हें निर्वाचनों की खबरें भेजने के लिए सुविधाएं भी प्रदान की जाती हैं। मीडिया के व्यक्तियों को वास्तविक मतगणना के दौरान मतदान प्रक्रिया की खबरों के लिए पोलिंग स्टेशन में और गणना हालों में प्रवेश करने के लिए विशेष अनुमति पत्र दिए जाते हैं।

बुधवार, 30 जनवरी 2013

Economics vocabulary start from 'G'


Game theory
 Game theory is a technique for analysing how people, firms and governments should behave in strategic situations (in which they must interact with each other), and in deciding what to do must take into account what others are likely to do and how others might respond to what they do. For instance, competition between two firms can be analysed as a game in which firms play to achieve a long-term competitive advantage (perhaps even a monopoly). The theory helps each firm to develop its optimal strategy for, say, pricing its products and deciding how much to produce; it can help the firm to anticipate in advance what its competitor will do and shows how best to respond if the competitor does something unexpected. It is particularly useful for understanding behaviour in monopolistic competition.
In game theory, which can be used to describe anything from wage negotiations to arms races, a dominant strategy is one that will deliver the best results for the player, regardless of what anybody else does. One finding of game theory is that there may be a large first-mover advantage for companies that beat their rivals into a new market or come up with an innovation. One special case identified by the theory is the zero-sum game, where players see that the total winnings are fixed; for some to do well, others must lose. Far better is the positive-sum game, in which competitive interaction has the potential to make all the players richer. Another problem analysed by game theorists is the prisoners' dilemma.
GDP
Gross domestic product, a measure of economic activity in a country. It is calculated by adding the total value of a country's annual output of goods and services. GDP = private consumption + investment + public spending + the change in inventories + (exports - imports). It is usually valued at market prices; by subtracting indirect tax and adding any government subsidy, however, GDP can be calculated at factor cost. This measure more accurately reveals the income paid to factors of production. Adding income earned by domestic residents from their investments abroad, and subtracting income paid from the country to investors abroad, gives the country's gross national product (GNP).
The effect of inflation can be eliminated by measuring GDP growth in constant real prices. However, some economists argue that hitting a nominal gdp target should be the main goal of macroeconomic policy. This is because it would remind policymakers to take into account the effect of their decisions on inflation, as well as on growth. GDP can be calculated in three ways. The income method adds the income of residents (individuals and firms) derived from the production of goods and services. The output method adds the value of output from the different sectors of the economy. The expenditure method totals spending on goods and services produced by residents, before allowing for depreciation and capital consumption. As one person's output is another person's income, which in turn becomes expenditure, these three measures ought to be identical. They rarely are because of statistical imperfections. Furthermore, the output and income measures exclude unreported economic activity that takes place in the black economy but that may be captured by the expenditure measure.
GDP is disliked as an objective of economic policy by some because it is not a perfect measure of welfare. It does not include aspects of the good life such as some leisure activities. Nor does it include economically valuable activities that are not paid for, such as parents teaching their children to read. But it does include some things that lower the quality of life, such as activities that damage the environment.
Gearing
A company's debt expressed as a percentage of its equity; also known as leverage. (See also capital structure and leveraged buy-out.)
General Agreement on Tariffs and Trade
Or GATT, the vehicle for promoting international free trade, through a series of rounds of negotiations between the governments of trading countries. The first GATT round began in 1945. The last led to the establishment of the world trade organisation in 1995.
General equilibrium
Economic perfection. This is when demand and supply are in balance (the market is in equilibrium) for each and every good and service in the economy. Nobody thinks that real-world economies can ever be that perfect; at best there is "partial equilibrium". But most economists think that general equilibrium is something worth aspiring to.
Generational accounting
A relatively new way of analysing fiscal policy by identifying the financial costs and benefits of government policies to people of different ages, now living or yet to be born. Fiscal policy can distribute resources between different generations, sometimes deliberately and often inadvertently. At any moment in time, one generation may be in work and paying taxes that support other generations (those at school or retired) that are not working. Over its lifetime, one generation's mix of taxes paid and benefits received may differ sharply from that of another generation. Politicians are often tempted to ignore the needs of future generations (who, clearly, cannot vote at the time) in order to win the support of current generations, for instance by borrowing heavily to fund current spending. More fundamentally, because it incorporates all the tax and spending, current and future, to which a government is committed, generational accounting is a much better guide to whether fiscal policy is sustainable than measures such as the budget deficit, which looks only at taxes and spending in the current year.
Giffen goods
Named after Robert Giffen (1837-1910), a good for which demand increases as its price rises. But such goods may not exist in the real world.
Gilts
Shorthand for gilt-edged securities, meaning a safe bet, at least as far as receiving interest and avoiding default goes. The price of gilts can vary considerably over time, however, creating a degree of risk for investors. Usually the term is applied only to government bonds.
Gini coefficient
An inequality indicator. The Gini coefficient measures the inequality of income distribution within a country. It varies from zero, which indicates perfect equality, with every household earning exactly the same, to one, which implies absolute inequality, with a single household earning a country's entire income. Latin America is the world's most unequal region, with a Gini coefficient of around 0.5; in rich countries the figure is closer to 0.3.
Global public goods
Public goods that cannot be provided by one country acting alone but only by the joint efforts of many (strictly, all) countries. Some economists, along with global institutions such as the UN, reckon that such goods include international law and law enforcement, a stable global financial system, an open trading system, health, peace and enviromental sustainability.
Globalisation
A buzz word that refers to the trend for people, firms and governments around the world to become increasingly dependent on and integrated with each other. This can be a source of tremendous opportunity, as new markets, workers, business partners, goods and services and jobs become available, but also of competitive threat, which may undermine economic activities that were viable before globalisation.
The term first surfaced during the 1980s to characterise huge changes that were taking place in the international economy, notably the growth in international trade and in flows of capital around the world. Globalisation has also been used to describe growing income inequality between the world's rich and poor; the growing power of multinational companies relative to national government; and the spread of capitalism into former communist countries. Usually, the term is synonymous with international integration, the spread of free markets and policies of liberalisation and free trade. The process is not the result simply of economic forces. The decisions of policymakers have also played an important part, although not all governments have embraced the change warmly.
The driving force of globalisation has been multinational companies, which since the 1970s have constantly, and often successfully, lobbied governments to make it easier for them to put their skills and capital to work in previously protected national markets. Firms enjoying some national protection, and their (often unionised) workers, have been some of the main opponents of globalisation, along with advocates of fair trade.
Despite all the talk of globalisation during the 1990s, in some respects the world economy was more integrated in the late 19th century. The labour market was certainly more global. For example, the flow of people out of Europe, 300,000 people a year in the mid-19th century, reached 1m a year after 1900. Now governments are much fussier about immigration, and people are no longer free to migrate as they wish. As for capital markets, only in the 1990s did international capital flows, relative to the size of the world economy, recover to the levels of the few decades before the first world war.
This early globalised economy did not last for long, however. Between the two world wars, the flows of trade, capital and people collapsed to a trickle. Even before the first world war, governments started to put up the shutters against migrants and imports. Could such a backlash against globalisation happen again?
GNI
Short for gross national income, a term now used instead of gnp in national accounts.
GNP
Short for gross national product, another measure of a country's economic performance. It is calculated by adding to gdp the income earned by residents from investments abroad, less the corresponding income sent home by foreigners who are living in the country.
Gold standard
A monetary system in which a country backs its currency with a reserve of gold, and allows currency holders to exchange their notes and coins for gold. For many years up to 1914, most of the world's leading currencies had their exchange rate determined by the gold standard. The economic disruption resulting from the first world war led the combatants to abandon the link to gold. The UK (with others) returned to the gold standard in 1925, before quitting it for good in 1931. The widespread use of the gold standard ended during 1930-33 as a result of global depression and large cuts in international lending. The United States left the gold standard in 1933 and partially returned to it in 1934. After the second world war, a limited form of gold standard continued but only directly applied to the dollar; other major currencies had their exchange rates fixed to the dollar under the bretton woods arrangements. The dollar was finally cut loose from the gold standard in 1971.
Golden rule
Over the economic cycle, a government should borrow only to invest and not to finance current spending. This rule is certainly a prudent approach to fiscal policy, provided that governments are honest in describing spending as investment, that they invest in appropriate things and do so efficiently, and that they are careful to avoid crowding out superior private investment. But there are other fiscal policy options that may make as much sense. See, for example, balanced budget.
Government
There are few more hotly debated topics in economics than what role the state should play in the economy. Plenty of economists provided intellectual support for state intervention during the era of big government, particularly from the 1930s to the 1980s. keynesians argued that the state should manage the amount of demand in the economy to maintain full employment. Others advocated a command economy, in which the government would decide price levels, oversee the allocation of scarce resources and run the most important parts of the economy (the "commanding heights") or, in communist countries, the entire economy. The role of the state increased at the expense of market forces. Economists provided plenty of examples of market failure that seemed to justify this.
Since the 1950s, there has been growing evidence that government intervention can also be flawed, and can often impose even greater costs on an economy than market failure. One reason is that when a government acts, it usually does so as a monopoly, with all the attendant economic inefficiencies this implies.
In practice, policies of Keynesian demand management often resulted in inflation, and thus lost much of their credibility. There was growing concern that public investment was crowding out superior private investment, and that other public spending on things such as health care, education and pensions was similarly discouraging private provision. Government management of commercial enterprises was often seen to be inefficient and, starting in the 1980s, nationalisation gave way to privatisation. Even when the state was not directly responsible for economic activity, but instead set the rules governing private behaviour, there was evidence of regulatory failure. High rates of taxation started to discourage people and companies from undertaking economic activities that would, without the tax, have been profitable; wealth creation suffered.
Most economists agree that there is a need for some government role in the economy. A market economy can function only if there is an adequate legal system, and, in particular, clearly defined, enforceable property rights. The legal system is probably an example of what economists call a public good (although the existence in many countries and industries of some self-regulation shows it is not always so).
Although politicians in many countries spent most of the period since 1980 talking about the need to reduce the role of the state in the economy, and in many cases introduced policies of privatisation, deregulation and liberalisation to help this happen, public spending has continued to increase as a share of gdp. Within the oecd, public spending accounted for a larger slice of GDP in 2002 than in 1990, which was in turn higher than in 1980. Indeed, it has risen during every decade since the start of the 20th century. One reason was that governments had to honour spending commitments on pensions and health care made by previous generations of politicians.
Government expenditure
Spending by national and local government and some government-backed institutions. See fiscal policy, golden rule and budget.
Greenspan, Alan
The most famous of all central bank bosses, so far. A former jazz musician turned economist, he became chairman of the board of governors of America's Federal Reserve in 1987, shortly before Wall Street crashed. In 2003, he was reappointed until 2005. He won admirers for delivering monetary policy that helped to bring down inflation and create the conditions for strong economic growth. Some people considered him the nearest thing capitalism had to God. In 1996, he famously wondered aloud whether rising share prices were the result of "irrational exuberance". Economists debate whether history will judge him a failure because he did not prevent the growth of a huge bubble in America's economy.
Gresham's law
Bad money drives out good. One of the oldest laws in economics, named after Sir Thomas Gresham, an adviser to Queen Elizabeth I of England. He observed that when a currency has been debased and a new one is introduced to replace it, the new one will be hoarded and effectively taken out of circulation, while the old one will continue to be used for transactions, to be got rid of as fast as possible.
Growth
What economic activity is all about, but how can it be made to happen? Economists have plenty of theories, but none of them has all the answers.
Adam smith attributed growth to the invisible hand, a view shared by most followers of classical economics. neo-classical economics had a different theory of growth, devised by Robert Solow during the 1950s. This argued that a sustained increase in investment increases an economy's growth rate only temporarily: the ratio of capital to labour goes up, the marginal product of capital declines and the economy moves back to a long-term growth path. output will then increase at the same rate as the growth in the workforce (quality-adjusted, in later versions) plus a factor to reflect improvements in productivity.
This theory predicts specific relationships among some basic economic statistics. Yet some of these predictions fail to fit the facts. For example, income disparities between countries are greater than the differences in their savings rates would suggest. Moreover, although the model says that economic growth ultimately depends on the rate of technological change, it fails to explain exactly what determines this rate. Technological change is treated as exogenous.
Some economists argued that doing this ignored the main engine of growth. They developed a new growth theory, in which improvements in productivity were endogenous, meaning that they were the result of things taking place within the economic model being used and not merely assumed to happen, as in the neo-classical models. Endogenous growth was due, in particular, to technological innovation and investments in human capital. In looking for explanations for differences in rates of growth, including between rich and developing countries, the new growth theory concentrates on what the incentives are in an economy to create additional human capital and to invent new products.
Factors determining these incentives include government policies. Countries with broadly free-market policies, in particular free trade and the maintenance of secure property rights, typically have higher growth rates. Open economies have grown much faster on average than closed economies. Higher public spending relative to gdp is generally associated with slower growth. Also bad for growth are high inflation and political instability.
As countries grew richer during the 20th century annual growth rates declined, as a result of diminishing returns to capital. By 1990, most developed countries reckoned to have long-term trend growth rates of 2-2.5% a year. However, during the 1990s, growth rates started to rise, especially in the United States. Some economists said this was the result of the birth of a new economy based on a revolution in productivity, largely because of rapid technological innovation but also (perhaps directly stemming from the spread of new technology) to increases in the value of human capital.

मंगलवार, 29 जनवरी 2013

planning commission of india


In India the planned economic development began in 1951 with the inception of First Five Year Plan. The theoretical efforts for economic development in Indian economy had already begun before independence. In the year 1934, Sir M. Visheshvaraya wrote a book named 'Planned Economy of India', which was the first attempt in this direction. In 1938, the Indian National Congress, under the leadership of Pt. Jawaharlal Nehru, made a National Planning Committee. Its recommendations could not be implemented due to the beginning of the Second World War and and changes in the Indian Political Situation. In 1944, eight industrialists of Bombay presented well organised plan called "The Bombay Plan", which could not be brought into action due to various reasons. In August 1944, the Indian Government inaugurated separate department called 'The Planning and Development Department' and appointed Sir Ardishar Dalal, the controller of Bombay Plan, as its acting member.
Inspired by the economic views of Mahatma Gandhi, Shri Sriman Narayan constructed a plan in 1944 which is known as 'Gandhian Plan'. Mr. M. N. Rao, the Chairman of post-war Reconstruction Committee of Indian Trade Union, introduced a 'People's Plan' in April 1945. This plan introduced before independence again could not be implemented due to various reasons. In 1946, the Interim Government was formed in India. This Government established a High Level Advisory Planning Board in order to study the problems of planning and development in the country. The Board studied all the problems very deeply and gave recommendation to establish a stable planning commission at the central level which could continuously work for the planning and development of the country. In January 1950, Shri Jaiprakash Narayan published a plan called 'Sarvodaya Plan'. The Government did not accept the entire plan and adopted only a part of it. The Planning Commission was constituted on 15th March, 1950, by the Government of India.
Functions
The 1950 resolution setting up the Planning Commission outlined its functions as to:
1.      Make an assessment of the material, capital and human resources of the country, including technical personnel, and investigate the possibilities of augmenting such of these resources as are found to be deficient in relation to the nation’s requirement;
2.      Formulate a Plan for the most effective and balanced utilisation of country's resources;
3.      On a determination of priorities, define the stages in which the Plan should be carried out and propose the allocation of resources for the due completion of each stage;
4.      Indicate the factors which are tending to retard economic development, and determine the conditions which, in view of the current social and political situation, should be established for the successful execution of the Plan;
5.      Determine the nature of the machinery which will be necessary for securing the successful implementation of each stage of the Plan in all its aspects;
6.      Appraise from time to time the progress achieved in the execution of each stage of the Plan and recommend the adjustments of policy and measures that such appraisal may show to be necessary; and
7.      Make such interim or ancillary recommendations as appear to it to be appropriate either for facilitating the discharge of the duties assigned to it, or on a consideration of prevailing economic conditions, current policies, measures and development programmes or on an examination of such specific problems as may be referred to it for advice by Central or State Governments.
Evolving Functions
From a highly centralised planning system, the Indian economy is gradually moving towards indicative planning where Planning Commission concerns itself with the building of a long term strategic vision of the future and decide on priorities of nation. It works out sectoral targets and provides promotional stimulus to the economy to grow in the desired direction.
Planning Commission plays an integrative role in the development of a holistic approach to the policy formulation in critical areas of human and economic development. In the social sector, schemes which require coordination and synthesis like rural health, drinking water, rural energy needs, literacy and environment protection have yet to be subjected to coordinated policy formulation. It has led to multiplicity of agencies. An integrated approach can lead to better results at much lower costs.
The emphasis of the Commission is on maximising the output by using our limited resources optimally. Instead of looking for mere increase in the plan outlays, the effort is to look for increases in the efficiency of utilisation of the allocations being made.
With the emergence of severe constraints on available budgetary resources, the resource allocation system between the States and Ministries of the Central Government is under strain. This requires the Planning Commission to play a mediatory and facilitating role, keeping in view the best interest of all concerned. It has to ensure smooth management of the change and help in creating a culture of high productivity and efficiency in the Government.
The key to efficient utilisation of resources lies in the creation of appropriate self-managed organisations at all levels. In this area, Planning Commission attempts to play a systems change role and provide consultancy within the Government for developing better systems. In order to spread the gains of experience more widely, Planning Commission also plays an information dissemination role.
Organisation
The composition of the Commission has undergone a lot of change since its inception. With the Prime Minister as the ex-officio Chairman, the committee has a nominated Deputy Chairman, who is given the rank of a full Cabinet Minister. Mr. Montek Singh Ahluwalia is presently the Deputy Chairman of the Commission.
Cabinet Ministers with certain important portfolios act as part-time members of the Commission, while the full-time members are experts of various fields like Economics, Industry, Science and General Administration.
The Commission works through its various divisions, of which there are three kind:
·         General Planning Divisions
·         Programme Administration Divisions
·         The majority of experts in the Commission are economists, making the Commission the biggest employer of the Indian Economic Services.

1st Five Year Plan (1951-56)
It aimed towards the improvement in the fields of agriculture, irrigation and power and the plan projected to decrease the countries reliance on food grain imports, resolve the food crisis and ease the raw material problem especially in jute and cotton.

Nearly 45% of the resources were designated for agriculture, while industry got a modest 4.9%. The focus was to maximize the output from agriculture, which would then provide the momentum for industrial growth.

1st five year plan proved dramatic success as agriculture production hiked, national income went up by 18%, per capita income by 11% and per capita consumption by 9%.

2nd Five Year Plan (1956-61)
It projected towards the agriculture programs and to meet the raw material needs of industry, besides covering the food needs of the increasing population. The Industrial Policy of 1956 was socialistic in nature. The plan aimed at 25% increase in national income.

Second Five Year Plan showed a moderate success. Agricultural production was greatly affected by the unfavorable monsoon in 1957-58 and 1959-60 and also the Suez crisis blocked International Trading increasing commodity prices.

3rd Five Year Plan (1961-66)
Plan’s main motive was to make the country self reliant in agriculture and industry and for this allotment for power sector was increased to 14.6% of the total disbursement.

The plan aimed to increase national income by 30% and agriculture production by 30% and to promote economic developments in backward areas; unfeasible manufacturing units were augmented with subsidies and agriculture production by 30%.

The 3rd five year plan was affected by wars with China in 1962 and Pakistan 1965 and bad monsoon.

4th Five Year Plan (1969-74)
This five year plan mainly emphasized on encouraging education and creating employment opportunities for the marginalized section of the society as improvement in their standard of living would only make the country economically self- reliant.

Another aim of the plan was to create awareness about the Family planning program among Indians. The achievements of the fourth plan were not as per the expectations as agriculture and industrial growth was just at 2.8% and 3.9% respectively.

5th Five Year Plan (1974-79)
The fifth plan mainly aimed on checking inflation and various non-economic variables like nutritional requirements, health, family planning etc. The plan anticipated 5.5% growth rate in national income.

The plan could not complete its 5 year tenure and was discontinued by the new Janata government in the fourth year only.

6th Five Year Plan (1980-85)
The 6th five year plan was formulated by the Congress government in 1980 which equally focused on infrastructure and agriculture. The plan was successful in achieving a growth of 6% pa.

7th Five Year Plan (1985-1989)
The plan focused at improving various sectors like welfare, education, health, family planning and also encouraged employment opportunities. The plan introduced programs like Jawahar Rozgar Yojana.

This plan was proved successful in spite of severe drought conditions for first three years consecutively.

Period (1989 - 1991)
This period was of political instability hence, no five year plan was implemented during the period; only annual plans were made for the period between 1990 and 1992. The country faced severe balance of payment crisis.

8th Five Year Plan (1992-1997)
The eighth plan aimed towards modernization of industries, poverty reduction, encouraging employment, strengthening the infrastructure. Other important concerned areas were devaluation of rupees, dismantling of license prerequisite and decrease trade barriers.

The plan helped to achieve an annual growth rate of 5.6% in GDP and also controlled inflation.

9th Five Year Plan (1997-2002)
The ninth five year plan focused on increasing agricultural and rural income and to improve the conditions of the marginal farmer and landless laborers.

The plan helped to achieve average annual growth rate of 6.7%.

10th Five Year Plan (2002-2007)
The 10th five year plan targeted towards making India’s economy as the fastest growing economy on the global level, with an aim to raise the growth rate to 10% and to reduce the poverty rate and increase the literacy rate in the country.

The plan showed success in reducing poverty ratio by 5%, increasing forest cover to 25%, increasing literacy rates to 75 % and taking the economic growth of the country over 8%.

11th Five Year Plan (2007-2012)
The eleventh five year plan targets to increase GDP growth to 10%, to reduce educated unemployment to below 5% while it aims to reduce infant mortality rate to 28 and maternal mortality ratio to 1 per 1000 live births, reduce Total Fertility Rate to 2.1  in the health sector.

The plan also targets to ensure electricity connection and clean drinking water to all villages and increase forest and tree cover by 5%.

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