शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

राजीव गांधी विद्यार्थी डिजिटल योजना

संचार क्रांति के माध्यम से नई पीढी़ का भविष्य संवारने के मकसद से राजस्थान सरकार की राजीव गांधी विद्यार्थी डिजिटल योजना मेधावी विद्यार्थियों के लिए दिली सुकून देने वाली सिद्ध हुई है।
हमें देश की युवा पीढ़ी को सोचने के लिए प्रेरित करना है। शिक्षा व्यवस्था ऎसी होनी चाहिए कि छोटे बालक-बालिकाएं सवाल करने के लिए प्रोत्साहित हों, सिर्फ याद करने के बजाय शिक्षकों से उन चीजों के बारे में पूछने को प्रेरित हों जो उन्हें समझ में नहीं आई हैं। यह न केवल विद्यार्थियों के लिए बल्कि शिक्षकों के लिए भी अच्छा होगा क्‍योंकि उन्हें जवाब देने होंगे। इससे न सिर्फ शिक्षा प्रणाली बल्कि पूरा तंत्र विकसित होगा और नए विचार पैदा होंगे।
पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी ने 29 अगस्त 1985 को नई दिल्ली में आयोजित शिक्षा मंत्रियों के सम्मेलन में जब ये उद्गार व्यक्त किए थे, तो निश्चय ही उनका सपना 21वीं सदी में एक ऎसा भारत देखने का रहा होगा, जहां मेधावी विद्यार्थी ज्ञान प्राप्ति के लिए पुस्तकों पर ही निर्भर नहीं होंगे, वे सूचना तकनीक के हुनर से सुसज्जित होकर शिक्षा के क्षेत्र में स्वावलंबी बन जाएंगे।
राजस्थान सरकार ने ऎसे दूरदर्शी व्यक्तित्व के विचारों से प्रेरणा पाकर ही विद्यार्थियों को ज्ञान की शक्ति से समृद्ध करने के उद्देश्य से राजीव गांधी विद्यार्थी डिजिटल योजना की शुरुआत की है। राज्य सरकार की फ्लैगशिप योजनाओं में शुमार  राजीव गांधी विद्यार्थी डिजिटल योजना के अन्तर्गत सत्र 2011-12 में माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, राजस्थान की कक्षा 10 एवं 12वीं की मेरिट में प्रथम रहे 10-10 हजार विद्यार्थियों को और राज्य के सभी राजकीय विद्यालयों की कक्षा 8 में प्रथम स्थान प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को पुरस्कार के रूप में लैपटॉप दिए जा रहे हैं। इसके लिए में राज्यभर में 25 से 29 जुलाई 2013 तक जिला और लॉक स्तर पर लैपटॉप वितरण समारोह आयोजित किए गए। इस दौरान जिलों के प्रभारी मंत्रियों ने इन समारोहों में स्वयं उपस्थित होकर छात्र-छात्राओं का उत्साहवर्धन किया और उन्हें लैपटॉप प्रदान किए।  कुल 55 हजार 819 विद्यार्थियों को लैपटॉप दिए गए।
वर्ष 2013-14 के बजट में भी राज्य सरकार ने राजीव गांधी विद्यार्थी डिजिटल योजना जारी रखी है जिसके अंतर्गत 53 हजार 923 प्रतिभावान विद्यार्थियों को लैपटॉप वितरित किए जाने हैं। इस योजना के अंतर्गत ही वर्ष 2012-13 में राजकीय विद्यालयों की कक्षा 8 में दूसरे से 11वां स्थान प्राप्त करने वाले कुल 3.50 लाख विद्यार्थियों को टेबलेट पीसी खरीदने के लिए 6 हजार रुपए के चेक वितरित किए जा चुके हैं। उचित प्रशिक्षण के अभाव में विद्यार्थी लैपटॉप के उपयोग से वंचित न रह जाएं इसका ध्यान भी राज्य सरकार ने रखा है। विद्यार्थियों को लैपटॉप चलाने का प्रशिक्षण राजस्थान नॉलेज कॉरपोरेशन लिमिटेड द्वारा संचालित ज्ञान केन्द्रों पर निःशुल्क दिया जा रहा है।

लैपटॉप योजना में मेधावी विद्यार्थियों के हितों को ध्यान में रखते हुए यह भी प्रावधान रखा गया है कि यदि किसी विद्यार्थी को कक्षा 8 या 10 में लैपटॉप मिल जाता है और वह क्रमशः कक्षा 10 या 12 में भी लैपटॉप प्राप्त करने की पात्रता र्अजित कर लेता है तो उसे लैपटॉप के स्थान पर 5हजार रुपए तक का 3जी डाटा कार्ड उपलध करवाया जा सकता है। यदि कोई विद्यार्थी कक्षा 8 और 10 के बाद 12वीं कक्षा में भी लैपटॉप का पात्र है तो उसे 12वीं में दूसरा लैपटॉप दिया जा सकता है।

आधुनिकतम ई-कंटेंट जैसे डिजिटल लिटरेसी, एक्टिविटी बुस, शब्‍दकोश, ई-टेसटबुक, ऑडियो पाठ, टेस्ट सीरीज आदि से समृद्ध ये लैपटॉप व टेबलेट पीसी विद्यार्थियों की ज्ञान जिज्ञासा को शान्त करने में महती भूमिका निभाएंगे। भारी-भरकम पुस्तकों की तुलना में लैपटॉप कहीं अधिक पाठ्य सामग्री संधारित कर सकते हैं। विद्यार्थी इनमें ईबुस को ऑफलाइन व ऑनलाइन और दैनिक समाचार पत्रों को इंटरनेट के माध्यम से सरलता से पढ़ सकेंगे। अलग-अलग स्थानों पर बैठे हुए विद्यार्थी ऑनलाइन वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग करते हुए अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। विद्यार्थी घर बैठे ही रोजगार के अवसरों की जानकारी ऑनलाइन प्राप्त कर सकेंगे, विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं के फॉर्म भर सकेंगे। इन परीक्षाओं  की तैयारी में भी लैपटॉप खासे मददगार साबित होंगे। अंग्रेजी समेत किसी अन्य भाषा के शब्‍दों का अर्थ जानना हो या सही-सही उच्चारण, वे इंटरनेट के माध्यम से सरलता से इसकी जानकारी पाकर अपने भाषा ज्ञान और कौशल में निखार ला सकते हैं।


युवा पीढ़ी तथा छात्र-छात्राओं में शैक्षणिक दृष्टि से गुणवत्ता बढ़ाने के लिए राज्य सरकार की तरफ से की गई यह पहल निस्संदेह उनके लिए विश्वभर में फैली ज्ञान और सूचनाओं की नई खिड़कियां खोलेगी जो अंततः उन्हें सम्भावनाओं के नए द्वार दिखाएगी।

प्रत्यक्ष लाभ अंतरण

1. प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी) में केन्द्र सरकार की कई योजनाओं के अंतर्गत मिलने  वाले लाभ जैसे सब्सिडी, वजीफा, छात्रवृति या अन्य लाभ, लाभार्थी के बैंक खाते में सीधे पहुंच जाते हैं, जो अंततः आधार संख्या से जुड़ेंगे। यह योजना फिलहाल उन लाभार्थियों के लिए भी शुरू कर दी गई है, जिनके पास आधार संख्या नहीं है।
2. प्रत्यक्ष लाभ अंतरण का उद्देश्य सही लाभार्थी को लाभ पहुचाना और भ्रष्ट्राचार को कम करना है। सब्सिडी राशि के अंतरण में इससे कुछ बेकार नहीं जाएगा।
3. प्रत्यक्ष लाभ अंतरण की योजना इस समय 121 जिलों में चलाई जा रही है। यह योजना एक जनवरी 2013 को 16राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों के 43 जिलों में शुरू की गयी थी। इसका दूसरा चरण एक जुलाई 2013 को शुरू हुआ था, जिसमें 78 और जिले जोड़ दिये गये थे। इस प्रकार इस योजना के अंतर्गत 121 जिले हो गये हैं। जल्दी ही इस योजना के अंतर्गत अन्य जिलों को भी शामिल किया जाएगा।
4.  प्रत्यक्ष लाभ अंतरण में 26 योजनाएं हैं, जिनमें 17 छात्रवृति योजनाएं हैं और इन्दिरा गांधी मातृत्व सहयोग योजना, धनलक्ष्मी योजना, जननी सुरक्षा योजना, बीड़ी कार्यकर्ताओं के लिए आवास सब्सिडी, कोचिंग के लिए अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति को वजीफा, मार्ग दर्शन और व्यावसायिक प्रशिक्षण, नक्सलवाद से प्रभावित 34जिलों में कौशल विकास योजना के अंतर्गत प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले को वजीफा जैसी योजनाएं शामिल हैं।
5. एक जुलाई 2013 से प्रत्यक्ष लाभ अंतरण में वृद्धावस्था, विकलांगता और विधवाओं के लिए तीन पैंशन योजनाओं को शामिल किया गया है। एक अक्तूबर 2013 से मनरेगा के लाभ भी सीधे लाभार्थियों के बैंक खातों में जमा होने लगेंगे।
6. एक अक्तूबर 2013 से प्रत्यक्ष लाभ अंतरण योजना का विस्तार करके इसमें डाकघरों और डाकघर खातों के जरिये चलने वाली योजनाओं को शामिल किया जाएगा। लाभार्थी अपने डाकघर खाते में प्रत्यक्ष लाभ अंतरण के लाभ प्राप्त कर सकेंगे।
7. उन क्षेत्रों में जहां बैंक नहीं है और डाकघर भी तैयार नहीं है, केन्द्र सरकार बैंकिंग कॉरेसपोंडेंट नियुक्त कर रही है, जो बैंक के प्रतिनिधि हैं और बैंक खाता खुलवाने में गांव वासियों की मदद करेंगे।     
8. बैंकिंग कॉरेसपोंडेंट के पास एक छोटी सी मशीन माइक्रो एटीएम होती है। गांव वासी महिला या पुरूष अपने अंगूठे की छाप देते हैं और जांच के बाद उनका खाता खुल जाता है और उसके बाद वे खाते से पैसा निकाल सकते हैं।
9. सरकार ने एक जून 2013 से एलपीजी के लिए भी प्रत्यक्ष लाभ अंतरण की योजना शुरू की है। इसका लाभ प्राप्त करने के लिए लाभार्थी के पास एलपीजी का खाता और बैंक खाता होना चाहिए, जो आधार संख्या से जुड़ा होना चाहिए।
10. आधार से जुड़े सभी घरेलू एलपीजी ईंधन गैस के उपभोक्ता जैसे ही सब्सिडी वाले पहले सिलेंडर की बुकिंग करेंगे या सिलेंडर की आपूर्ति से पहले उनके खाते में 435 रुपये की अग्रिम सब्सिडी राशि पहुंच जाएगी। जैसे ही उपभोक्ता को पहला सिलेंडर मिल जाएगा। आपूर्ति की तारीख पर मिलने वाली सब्सिडी फिर उसके बैंक खाते में पुहंच जाएगी, जो बाजार भाव पर अगले सिलेंडर की खरीद के लिए उपलब्ध होगी।
11. सार्वजनिक क्षेत्र की वितरण कंपनियां, जो सिलेंडर उपलब्ध कराती हैं, अपनी वेबसाइट पर जानकारी भी उपलब्ध कराती हैं, जिससे पता लग सकता है कि आधार संख्या को एलपीजी उपभोक्त संख्या/ बैंक खाते से जोड़ दिया गया है या नहीं। इसके लिए टॉल फ्री नम्बर 1800 23 33 555  भी उपलब्ध है।

गुरुवार, 22 अगस्त 2013

Alarming Decline in Women’s Employment – Savera

An alarming scenario is emerging in women’s employment in India. For nearly three decades, the share of working women in the total women’s population has been declining slowly. But the latest survey says that there has been a dramatic decline in just the past two years. A report on employment and unemployment by the government’s National Sample Survey Organisation (NSSO) covering the years 2011-12 revealed that since the previous survey in 2009-10, over 9 million women had been lost from India’s workforce in the rural areas.

The situation would have been catastrophic but for the fact that in urban areas women’s jobs increased by about 3.5 million over the same period thus somewhat balancing out the staggering decline in rural areas.

“Despite very rapid economic growth in India in recent years, we’re observing declining female labour force participation rates across all age groups, across all education levels, and in both urban and rural areas,” said International Labor Organisation (ILO) economist Steven Kapsos during a presentation of the Global Employment Trends 2013 report in India, earlier this year.

These figures are for what is called usual principal status (ups). This refers to women who are usually doing a particular work (say, cultivation, or construction) for the ‘major part of the year’. But women have always done more than one type of work. In addition to their ‘principal’ work they may be doing unpaid work like helping the man of the house in his work (say, blacksmithy) or they may be tending to milch animals. These types of supplementary works are called ‘subsidiary’ work, and they are also recorded by NSSO surveys.

A better picture of the women’s world of work emerges if both ‘principal’ and ‘subsidiary’ work is counted and added up. According to the NSSO, the number of women doing such work declined by 2.7 million in rural areas but increased by 4.5 million in urban areas.

What is implied by the strange fact that principal status work declined by 9 million but the more comprehensive principal plus subsidiary status declined by 2.7 million? It means that regular work which lasts for a longer time, and presumably is better paying, is getting shot to pieces – hence the huge decline in usual principal status. On the other hand, subsidiary work – short term, marginal, low-paying – is still available although less than before. So the decline is less.

This also reveals the true nature of women’s work: a very large share of women’s work is of ‘subsidiary’ nature. That is, it is not done throughout the year, it is not too paying, often it may be unpaid, and it is usually unskilled. In other words – it is a survival strategy for families under economic duress – take whatever work is available for whatever time, and then look for other.

Declining women’s employment in rural areas is a long term trend in India despite high economic “growth” in recent years. In 1983, women’s participation in work stood at 34 percent in rural areas. This dipped to about 30 percent at the turn of the century, and in the first decade, it has further plummeted to just short of 25 percent. In urban areas women’s work participation has hovered around the 15 percent mark since 1983. In the latest survey, it is 14.7 percent.

In India, there is a strong trend of occupational segregation – women are working in certain industries and occupations, such as basic agriculture, sales and elementary services and handicraft manufacturing in the rural areas, and in personal services (teachers, health workers and maid servants, especially in urban areas).

About 48 percent of women are working in cultivation related occupations, 33 percent as laborers in agriculture, construction, mines etc., and 10 percent in handicrafts related work. The rest are distributed over other types of work.

For the past several years, agriculture and related occupations have had very small job growth, forcing women out of traditional jobs. This makes up the bulk of job losses suffered by women. Similarly, handicrafts have not been creating many jobs.

While education may explain a small number of women remaining out of workforce, the argument of women dropping out of work because of increasing incomes of households is not correct, experts say.

If that was the case then urban areas should have witnessed an even higher decline in women’s work participation because incomes have risen more in towns and cities, and more women are attending schools or colleges. But it is the rural areas which are seeing the biggest decline, where incomes are rising slowly.

But what is the reason behind this jobs crisis in rural India?

A decline in public investment in agriculture, severe cutback in extension work for dissemination of knowledge and increasing mechanization are the main causes of this crisis of jobs according to experts. Very slow expansion of irrigation and supply of electricity to rural areas – both of which would cause growth of employment by increasing crops and encouraging non-farm employment – is also causing jobs to dry up.

The relative rise of employment in urban areas also has a story to tell. It is mostly in low paying, insecure jobs involving very tough working conditions, and extreme fluidity. This includes construction, of which there was a boom till very recently, and occupations like maidservants, cooks, governesses, and other care-giving work.

According to calculations done by researchers, the number of women working in construction shot up by over 300 percent between 1993-4 and 2009-10, while those working in services mostly including care-giving work increased by about 36 percent in the same period. Based on NSSO data, it is estimated that the number of women employed as maids, cooks, baby-sitters or governesses in homes is a whopping 2.5 crore – one of the largest employment segments for women!


Policymakers in India need to pay a long hard look at this picture and reform their prescriptions – the nation is losing out in a big way, and a big chunk of our population – the women – are suffering because society and the economic structures are unwilling to accept them as workers.


http://indiacurrentaffairs.org/women%E2%80%99s-employment/

Mughal School of Painting

With the mention of Mughal School of Painting, stylized images of ornately draped figures implicated in various court activities flashes in front of eyes. These paintings confine your imagination because of their exclusive style, choice and medley of themes. These paintings are an intermingling of the Indian and the Persian style and depicted assorted themes. The themes were both instructive and stimulating. The splendor of Mughal eras and a bent for beauty is skillfully presented through these paintings.

Origin of Mughal School of Paintings
The genesis, nature and progress of Mughal School of painting are an amalgamation of numerous components. Chinese art which had impact of Buddhist Indian art, Hellenic, Mogolian and Iranian art was brought to Iran in the 13th century and it kept on flourishing till 16th century in Iran. From Persia, Mughals carried this art to India. Later, Humayun's fascination with Persian Paintings in the court of Shah Tahmasp II in Tabriz was the foundation cause of existence of Mughal School of Paintings. He was so infatuated with the Persian art Form that two Persian Painters were with him when he came to India. The Indian version of their work is today known as the Mughal Paintings. The Tutinama (‘Tales of a Parrot’) is the first example of Mughal School of Painting. It is now in the Cleveland Museum of Art.


Themes of Mughal School of Painting
Mughal Paintings gave blossoming shades of variety. The rich assortment included events, portraits and scenes from the court life, hunting scenes, wild life and illustrations of battle fronts. Some paintings also illustrated lovers in warm positions.

Style of Mughal School of Paintings
Mughal paintings eagerly paid attention to the particulars of the designs of drapes and jewels. Beauty was greatly concentrated upon.

Mughal School of Painting during Babur
Babur inherited an artistic taste. He was a great lover of art. Flowers, streams and springs fascinated him. Paintings in Alwar manuscript of Persian version of Babur’s Memoirs may represent the type of work his court painters created.

Mughal School of Painting during Humayun
When Humayun returned to Kabul from Persia, he invited Mir Sayyad Ali and Abdus Samad and requested to illustrate Dastan-i-Amir Hamzah. Because of his early demise, great painting works couldn’t be completed.

Mughal School of Painting during Akbar
Painting reached great heights during Akbar’s reign. He created a painting department. He called painters from every part of India and abroad. It is believed that he had an album of portraits. Eminent painters during his reign included Mir Sayyad Ali, Abdus Samad, Daswant, Basawan, Tara Chand, Jagannath and Sanwal Das.

Naldaman, Ramayana, Zafarnama, Razmanamah, Chingiznama and Kalyadaman were illustrated during his tenure.

Mughal School of Painting during Jahangir
He gave great impetus to painting. He was himself a prudent collector, an enthusiast and an art critic. It was during his time when the Miniature paintings reached the pinnacle of glory. Celebrated painters of his time included Mohammad Nadir, Manohar, Farrukh Beg, Keshav Brothers, Aqa Riza, Bishan Das, Ustad Mansur and Madhav.

Flowers, birds, animals, natural objects and buildings were the most preferred subjects of paintings.

Characteristics of paintings of this time included predominance of realism. In the then portrait studies, real human beings were illustrated rather than imaginary figures. Strict Purdah system of those times makes the existence of portrait of royal ladies doubtful. Paints and pigments used in paintings were carefully chosen and tastefully employed. Red, golden, green, silvery white and blue were most common hues of paintings. Paintings were also mounted and embellished with a creative foliated border.

Mughal School of Painting during Shah Jahan
Painting didn’t receive much encouragement during his reign as he was more towards architecture. Anupa Chitra, Mir Hasan and Chintamani were among the few notable painters. At this time Dara Shikoh and Asaf Khan patronized painting.

Mughal School of Painting during Aurangzeb
Aurangzeb also didn’t give momentum to painting. Under the patronage of nobles or on their own, painters continued the legacy of painting.


Today Mughal School of Paintings has been appreciated all over the globe. They have made their own recognition and place in museums as far flung as the San Diego Museum of Art and Victoria and Albert Museum, London. Mughal School of paintings bended many elements. These paintings have given a new dimension to paintings.

बुधवार, 21 अगस्त 2013

Bengal School of Painting

The Bengal School of Painting was a style and approach of art which flourished in India during the British Raj in the early part of the 20th century. The art was associated to Indian nationalism, at the same time; it was supported and promoted by British arts administrators as well. Just like the richness of the culture of Bengal, Bengal school of painting is affluent and vibrant. The colors and graceful beauty of this painting school are splashed in the piece of writing that follows.

History of Bengal School of Painting
The Bengal school came up as an avant garde and nationalist movement acting in response against the academic art styles that were previously promoted in India, both by Indian artists and in British art schools. Following the impact of Indian religious ideas in the West, the British art teacher Ernest Binfield Havell tried to improve the teaching methods at the Calcutta School of Art by motivating students to try to be like Mughal miniatures. This resulted in controversy. Students went on a strike; complaints from the local press started to come up including nationalists who found it to be a retrogressive move. Havell was fully supported by the artist Abanindranath Tagore, nephew of the poet Rabindranath Tagore. Tagore painted scores of works that were influenced by Mughal art. Abanindranath Tagore and Havell believed that the former’s style is an expression of distinct spiritual qualities of India, as contrasting to the materialism of the Western countries. Tagore's best ever known painting, Bharat Mata (Mother India), illustrated a young woman, who is portrayed with four arms in the manner of Hindu deities, carrying objects that are symbolic of India's national ambitions. Later, Tagore made efforts to develop links with Japanese artists as part of a goal to build a pan-Asianist model of art.

When modernist ideas spread in the second decade of last century, the influence of Bengal school of painting declined.

Characteristic Features of Bengal School of Painting
Bengal School of painting has the following characteristics-

·         The essence of Ajanta is clearly noticeable in Bengal paintings. The Bengal painters have made best possible efforts to bring in the rhythm, linear gracefulness and poise of Ajanta in their painting.
·         The paintings were simple and standard.
·         Figures were refined and elegant without any hardness.
·         Attractive color scheme technique has been used with no bright colors to bring synchronization wash.
·         The paintings have an impact of Mughal and Rajasthani School.
·         The paintings exhibited dexterously exposed light and shade with no hardness.
Artists of Bengal School of Painting
Bengal still houses some of the most eminent and excellent artists of modern India. Among the best artists of Bengal School of painting, the most popular artists of this day Bengal are Nirmal Dutta, Ganesh Pyne, Manishi Dey, Jahar Dasgupta, Devajyoti Ray, Nilima Dutta, Sudip Roy and Paresh Maiti and Bikash Bhattacharje. Pradosh Dasgupta, Chittoprosad Bhattacharya and Subrata Kundu are other notable painters of this school. Sanat Chatterjee is amongst the last living legendary pioneer of Bengal School of art.


Bengal School of Painting is elegant and lively. Its grace and glamour has given new heights to the Indian painting.

एंटीबॉयोटिक नीति

देश में एंटीबॉयोटिक/रोगाणुरोधी दवाओं के व्यापक और अनियमित प्रयोग के कारण बहु-दवा प्रतिरोध के समस्या का समाधान करने के उद्देश्य से सरकार ने पहले ही रोगाणुरोधी प्रतिरोध रोकथाम नामक एक व्यापक राष्ट्रीय नीति तैयार की है। यह नीति स्वास्थ्य सेवा महानिदेशक की अध्यक्षता में गठित टास्क फोर्स द्वारा विकसित की गई है। यह नीति केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध है। इस नीति की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

1. देश में एंटीबॉयोटिक के विनिर्माण, प्रयोग और दुरूपयोग के संबंध में मौजूदा स्थिति की समीक्षा करना।

2. एंटीबॉयोटिक प्रतिरोध के लिए राष्ट्रीय निगरानी प्रणाली के निर्माण संबंधी प्रारूप की सिफारिश करना।

3. परामर्श मानदंड संबंधी दस्तावेज का अध्ययन और उसके लिए एक निगरानी प्रणाली स्थापित करना।

4. मानव एवं पशु चिकित्सा तथा औद्योगिक उपयोग में एंटीबॉयोटिक दवाओं के प्रयोग के लिए विनियामक प्रावधानों को लागू करना।

5. अस्पतालों में एंटीबॉयोटिक दवाओं और एंटीबॉयोटिक नीतियों का उचित उपयोग हो, इसके लिए विशेष उपायों की सिफारिश करना।

6. रोगाणुरोधी प्रतिरोध निगरानी से संबंधित निदान के तरीके।


12वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान देश में रोगाणुरोधी प्रतिरोध की रोकथाम के लिए 30 प्रयोगशाला नेटवर्क तथा एंटीबॉयोटिक के विवेकपूर्ण उपयोग के लिए जागरूकता कार्यक्रम के जरिए उपाय सुनिश्चित करने का लक्ष्य रखा गया है।

एलपीजी ईंधन गैस : ग्राहकों के लिए सेवा में सुधार

भारत में एलपीजी ईंधन गैस का इस्‍तेमाल 1955 से शुरू हुआ, जब तत्‍कालीन बर्मा शैल कंपनी ने मुंबई में एलपीजी की बिक्री शुरू की। पिछले छह दशकों में एलपीजी सबसे अधिक लोकप्रिय रसोई गैस बन गई है। 1980 में महत्‍वपूर्ण गतिविधि हुई, जिससे एलपीजी वितरण व्‍यवस्‍था के विस्‍तार की गाथा दो भागों में लिखी जा सकती है। 1978 से पहले एलपीजी की बिक्री केवल स्‍वदेशी स्रोतों से प्राप्‍त ईंधन गैस की मात्रा तक सीमित थी। एलपीजी के लिए खोज यूनिटों की स्‍थापना और तेल शोधन कं‍पनियों (रिफाइनरी) के विस्‍तार से एलपीजी ईंधन गैस की उपलब्‍धता बढ़ने पर 1980 में एलपीजी की बिक्री बड़े पैमाने पर शुरू की गई। एलपीजी गैस की लोकप्रियता बढ़ने से इसकी मांग भी बढ़ती गई, जिसके लिए स्‍वदेशी उपलब्‍धता कम पड़ गई और बड़े पैमाने पर एलपीजी का आयात करने की जरूरत महसूस की गई।

शुरू के वर्षों में एलपीजी ईंधन गैस की बिक्री केवल शहरी इलाकों में थी, बाद में इसका विस्‍तार धीरे-धीरे अर्द्धशहरी और ग्रामीण इलाकों तक किया गया।

आज भारत में एलपीजी ईंधन गैस की आपूर्ति 15 करोड़ (1 जुलाई, 2013 को 15.43 करोड़) से अधिक घरों में पहुंच गई है, जिसका मतलब है कि देश की 60 प्रतिशत से अधिक आबादी इसका इस्‍तेमाल कर रही है। कोई नहीं सोच सकता था कि 1955 में जिसकी साधारण सी शुरूआत हुई थी और कई सारे लोग इसको स्‍वीकार करने के पक्ष में भी नहीं थे, एक दिन उस एलपीजी की लोकप्रियता इतनी अधिक बढ़ जाएगी।

स्‍वच्‍छ और हरित ईंधन

पुराने समय के धुएं से काले हुए रसोई घर और आज के चमकते हुए आधुनिक रसोई घर, जहां एलपीजी ईंधन गैस का इस्‍तेमाल होता है, की तुलना से इस बात का स्‍पष्‍ट प्रमाण मिलता है कि कोयला, लकड़ी, उपलों आदि जैसे ईंधन के मुकाबले एलपीजी एक स्‍वच्‍छ, सुविधाजनक और हितकारक ईंधन है।

इसके स्‍पष्‍ट लाभों को देखते हुए सरकार ने ईंधन के लिए एलपीजी पर सब्सिडी देने का फैसला किया, ताकि ज्‍यादा से ज्‍यादा घरों को इस ईंधन के इस्‍तेमाल की प्रेरणा मिले, जो सुरक्षित और साफ-सुथरा है। अमरीका, चीन, सऊदी अरब और जापान के बाद आज भारत दुनिया में एलपीजी ईंधन गैस की खपत करने वाला पाँचवाँ सबसे बड़ा देश है। देश में एलपीजी ईंधन गैस का लगभग 90 प्रतिशत इस्‍तेमाल घरेलू ईंधन गैस के रूप में होता है। इस दृष्टि से अमरीका और चीन के बाद भारत घरेलू इस्‍तेमाल के लिए एलपीजी की खपत करने वाला तीसरा सबसे बड़ा देश है। देश में 15 करोड़ घरों को हर रोज एलपीजी ईंधन गैस के 30 लाख सिलेंडर यानी एक साल में 90 करोड़ से भी अधिक सिलेंडर वितरित किए जाते हैं, जो एक विशाल संख्‍या है।

देश के अंदरूनी इलाकों में एलपीजी की आपूर्ति के लिए नेटवर्क का विस्‍तार

एलपीजी की तेजी से बढ़ती लोकप्रियता ने इसके प्रचालन-तंत्र के सामने कई सारे मुद्दे खड़े कर दिए, जैसे देशव्‍यापी आपूर्ति शृंखला विकसित करने की आवश्‍यकता, बेरोक-टोक आपूर्ति शृंखला की स्‍थापना, सब्सिडी की बढ़ती राशि और गलत तरीकों और भ्रष्‍टाचार को कम करने की चुनौती आदि। यह वास्‍तव में सरकार के लिए और सार्वजनिक क्षेत्र की तेल वितरण कंपनियों इंडियन ऑलय कारपोरेशन, भारत पेट्रोलियम और हिन्‍दुस्‍तान पेट्रोलियम के लिए सराहना की बात है, जो देश के सभी भागों में एलपीजी के 12,791 डिस्ट्रिब्‍यूटरों  का विशाल नेटवर्क स्‍थापित किया गया है और एलपीजी के 186 बॉटलिंग प्‍लांट लगाए गए हैं। इनके साथ देश की 22 रिफाइनरियां भी जुड़ी हुई हैं, जो एलपीजी की अबाध आपूर्ति कर रही हैं।

देश के अंदरूनी इलाकों में एलपीजी की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए सरकार की योजना ग्रामीण और अर्द्धशहरी इलाकों में और ज्‍यादा एलपीजी बॉटलिंग प्‍लांट लगाकर इसके ढांचे का विस्‍तार करने की है।

अब तक सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां कम से कम 20,000 की आबादी वाले कस्‍बों और शहरों में एलपीजी  की बिक्री कर रही थीं, लेकिन 2009 में राजीव गांधी ग्रामीण एलपीजी वितरण योजना की शुरूआत ने छोटे कस्‍बों और गांवों में भी एलपीजी पहुंच को सुनिश्चित कर दिया है। इस योजना के अंतर्गत एलपीजी के लिए 6619 डिस्ट्रिब्‍यूटर नियुक्‍त किये जाने थे, जिनमें से लगभग 2200 ने कार्य करना शुरू कर दिया है, जिससे ग्रामीण इलाकों में इस सुरक्षित, विश्‍वसनीय और सुविधाजनक ईंधन गैस की आपूर्ति होने लगी है। ग्रामीण इलाकों में एलपीजी की आपूर्ति सुनिश्चित करने के अलावा इस योजना में कई गरीब-हितैषी पहलू भी शामिल हैं, जैसे बीपीएल परिवारों के लिए एलपीजी कनेक्‍शन जारी करना, जिसके लिए सिक्‍योरिटी की राशि तेल वितरण कंपनियों की सामाजिक दायित्‍व की राशि में से दी जाएगी, डिस्ट्रिब्‍यूटरशिप पंचायत या स्‍थानीय लोगों को आवंटित करना, पति-पत्‍नी दोनों के नाम पर एलपीजी की आपूर्ति करना, जिससे महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा मिलेगा आदि। इस योजना की सफलता का पता इस बात से चलता है कि एक जुलाई, 2013 तक इन डिस्ट्रिब्‍यूटरों के माध्‍यम से 1.42 लाख बीपीएल परिवारों सहित एलपीजी के 38.8 लाख ग्राहक दर्ज किये गये हैं।

ग्राहकों की सुविधा पहली प्राथमिकता

सरकार एलपीजी गैस की आपूर्ति ग्राहकों के घरों तक पहुंचाने और सेवा के बेहतर मानदंड सुनिश्चित करने की लगातार कोशिश कर रही है। इन दोनों उद्देश्‍यों को ध्‍यान में रखते हुए कई नये प्रयास शुरू किये गये हैं, जैसे गैस की आपूर्ति के लिए लगे समय के आधार पर डिस्ट्रिब्‍यूटरों का मूल्‍यांकन करना और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के एलपीजी पारदर्शी पोर्टल पर डिस्ट्रिब्‍यूटरों के कार्य के बारे में ऑन लाइन जानकारी उपलब्‍ध कराना। इससे यह सुनिश्चित रहेगा कि मानवीय नियंत्रण से बाहर की रूकावटों को छोड़कर एलपीजी के सिलेंडर ग्राहकों को यथा संभव जल्‍द से जल्‍द मिलेंगे।

सरकार ने प्रायोगिक आधार पर चंडीगढ़ में एक योजना शुरू की है, जिसके अंतर्गत ग्राहक अगर किसी डिस्ट्रिब्‍यूटर की सेवा से संतुष्‍ट नहीं है, तो वह ऑन लाइन अपना डिस्ट्रिब्‍यूटर बदल सकता है। इस पोर्टबिलिटी सेवा को चरणबद्ध तरीके से दूसरे स्‍थानों पर शुरू किया जाएगा।

गैस सिलिंडरों के रिफिल की बुकिंग और इसे जारी करने के सिलसिले में ग्राहकों को मोबाइल टेलीफोनों के जरिए सुविधा देने के लिए प्रौद्योगिकी का पूरा इस्‍तेमाल किया गया है और शिकायतों के निपटान के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की सभी कंपनियों की ओर से एक शुल्‍क मुक्‍त (टोलफ्री) नम्‍बर (18002333555) शुरू किया गया है। उपभोक्‍ता अब अपने डीलरों के बारे में  कंपनी के पोर्टल या पारदर्शी पोर्टल में उपलब्‍ध जानकारी के आधार पर राय बना सकते हैं।

सब्सिडी राशि का सीधा अंतरण

सरकार का हमेशा इरादा रहा है कि एलपीजी की सब्सिडी की राशि लाभार्थियों तक पहुंचे, लेकिन व्‍यवस्‍था की खामियों को दूर करना एक बहुत बड़ी चुनौती रही है। यह मामला कितना बड़ा है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले वर्षों में रसोई गैस की लागत को सीमित रखने के लिए सरकार को सब्सिडी की कितनी बड़ी राशि की व्‍यवस्‍था करनी पड़ी। 2012-13 में घरेलू एलपीजी के लिए सब्सिडी की राशि 41,547 करोड़ रूपए थी। सब्सिडी की राशि स‍ही उपभोक्‍ताओं तक पहुंचे, यह सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने एलपीजी के लिए प्रत्‍यक्ष लाभ अंतरण की योजना शुरू की है, जिसके अंतर्गत एलपीजी सिलिंडरों पर दी जा रही सब्सिडी की राशि, जो 465 रूपए प्रति सिलिंडर है, लाभार्थी के बैंक खातों में सीधे पहुंचाई जा रही है। प्रायोगिक आधार पर यह योजना 1 जून, 2013 को देश के 18 जिलों में शुरू की गई थी और 1 जुलाई, 2013 को मैसूर में तथा 1 अगस्‍त, 2013 को मंडी में शुरू की गई। यह योजना 8 राज्‍यों और 2 केन्‍द्र शासित प्रदेशों में शुरू की गई है, जहां आधार संख्‍या के पात्रों की संख्‍या अधिक है। अब तक के प्राप्‍त परिणामों के अनुसार एलपीजी के लिए शुरू की गई प्रत्‍यक्ष लाभ अंतरण योजना बहुत सफल रही है। इसके अंतर्गत 40 लाख से अधिक लेन-देन हुए हैं और इन 20 जिलों में आज की तारीख तक एलपीजी उपभोक्‍ताओं के खातों में 150 करोड़ रूपए से अधिक की राशि सीधे पहुंचाई गई है।
1 सितम्‍बर 2013 को यह योजना देश के और 35 जिलों में शुरू की जाएगी, जिसके बाद इसे चरणबद्ध तरीके से पूरे देश में लागू किया जाएगा।

पारदर्शी पोर्टल

एलपीजी  की बिक्री और वितरण के विभिन्‍न पहलुओं की जानकारी ग्राहक को ऑन लाइन उपलब्‍ध कराने के लिए 22 जून, 2012 को पारदर्शी पोर्टल की शुरूआत की गई थी। सब्सिडी वाली एलपीजी की आपूर्ति में पारदर्शिता लाने की दिशा में यह पोर्टल एक बहुत बड़ा कदम है, क्‍योंकि इससे सभी महत्‍वपूर्ण जानकारियां मिल जाती हैं। एलपीजी  सिलिंडरों की प्राप्ति और आपूर्ति के बारे में ग्राहक और डिस्ट्रिब्‍यूटर अब काफी जागरूक हैं। इस प्रकार जानकारी उपलब्‍ध कराना वास्‍तव में एक सशक्‍त सामाजिक लेखा परीक्षण व्‍यवस्‍था भी साबित हुई है।

सरकार द्वारा उठाए जा रहे नये कदमों से एलपीजी ईंधन गैस अब देश के दूर-दराज के भागों तक पहुंचाई जा सकेगी, जिससे रसोई का काम और आसान हो जाएगा। इस प्रणाली के विस्‍तार के साथ-साथ पारदर्शी और बेहतर उपभोक्‍ता सेवाओं के जरिए ग्रामीण और दूर-दराज के इलाकों में रहने वाले लोगों सहित देश के लोगों के रहन-सहन के स्‍तर में सुधार लाने में बहुत मदद मिलेगी।                                              

(पसूका विशेष लेख)

मंगलवार, 20 अगस्त 2013

जनसंख्याः समृद्धि का एक कारण

जब ऐसा कहा गया है कि मानव धन पैदा करने के लिए तैयार किया गया एक यंत्र है, तो भारतीय अर्थशास्त्र में बताए जा रहे उस तर्क की जांच करना अत्यंत आवश्यक हो जाता है, जिसके अनुसार भारत की विशाल जनसंख्या गरीबी का एक कारण है। यदि मनुष्य एक मात्र ऐसी प्रजाति है जो धन पैदा कर सकती है, तो इसकी अधिक संख्या गरीबी का कारण कैसे हो सकती है? सच क्या है ?

सच यह है कि नक्शे पर अंकित प्रत्येक बिंदु, जो किसी शहर या कस्बे को प्रदर्शित करता है और घनी आबादी वाला है, अन्य स्थानों (यथा गांव आदि जो नक्शे पर नहीं दिखते) की अपेक्षा समृद्धि है। भीड़ भरी दिल्ली में खाली पड़े झुमरी तलैया के मुकाबले कहीं ज्यादा लखपति व करोड़पति, ज्यादा मोबाइल फोन या बड़ी कारें और तरण ताल हैं। स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है ऐसा क्यों? उत्तर के लिए हमें देखना होगा अर्थशास्त्र की ओर। अर्थशास्त्र यानि धन पैदा करने का अध्ययन।

चूंकि हम व्यापार कर सकते हैं, अतः अपने उन कार्यों में हम विशेषज्ञता अर्जित करते हैं, जिन्हें हम ही सबसे अच्छे तरीके से कर सकते हैं और इन्हें दूसरों की उन वस्तुओं या कार्यों से बदल लेते हैं, जिन्हें वे सबसे अच्छी तरह से कर सकते हैं। जानवरों की तरह मनुष्य स्व-पर्याप्ती (self-sufficient) होने की कोशिश नहीं करते हैं। वरन् ये अपने लिए एक विशेष कार्यक्षेत्र चुनते हैं। इन विशिष्ट कार्यक्षेत्रों में वे उन वस्तुओं या सेवाओं का उत्पादन करते हैं, जिनका बाजार अर्थव्यवस्था में विनिमय किया जा सके। किसान, मछुआरे, गड़रिये, पत्रकार, दंत चिकित्सक, धोबी इत्यादि सभी इसी व्यवस्था के उदाहरण हैं। मनुष्यों के अतिरिक्त कोई भी अन्य प्रजाति इस ढंग से विशेषीकृत नहीं होती है क्योंकि उनके पास बाजार अर्थव्यवस्था नहीं होती है। यह बजार अर्थव्यवस्था सिर्फ हम मनुष्यों की व्यापार करने की विशेष योग्यता का ही परिणाम है। इसी प्रकार धन पैदा किया जाता है।

अतः आर्थिक रूप से मनुष्यों को कभी भी स्व-पर्याप्ती (self-sufficient) होने की सलाह नहीं दी जानी चाहिए। जरा सोचिए कि यदि आपने निश्चय किया कि आप सभी कार्य अपने आप करेंगे तथा सेवाओं व वस्तुओं का आदान-प्रदान नहीं करेंगे, तो क्या होगा? सोचिए यदि आपका परिवार, फिर आपका गांव या शहर सभी स्व- पर्याप्ती हो जायें? इसका अर्थ यह होगा कि आपको न केवल अपना भोजन पैदा करने एवं कपड़े धोने के लिए बाध्य होना पड़ेगा वरन् आपको अपना मकान बनाना, सर्जरी या ऑपरेशन करना आदि भी सीखना पड़ेगा। इस प्रकार स्व-पर्याप्तता कभी भी जीवन स्तर को ऊपर नहीं उठाती। इसका कुल परिणाम यही होता है कि आपकी उत्पादन ऊर्जा आपके विशेष योग्यता वाले क्षेत्रों से हटकर ऐसी जगहों व कार्यों पर बर्बाद होना शुरू होती है जिनमें आपको महारत नहीं होती।

यदि इस प्रकार की स्व-पर्याप्तता एक व्यक्ति, परिवार, एक गांव, एक कस्बे के ले नुकसानदेह है तो निश्चित ही भारत जैसा एक महना देश भी इस रास्ते को अपनाकर फायदे में नहीं रह सकता।

स्व-पर्याप्तता एक प्रकार की आर्थिक आत्महत्या है

स्व-पर्याप्तता को समझने के लिए एक छोटा सा प्रयोग करें बच्चों की एक कक्षा में जाइये और उनसे पूछिए कि वे बडे होकर क्या बनना चाहते हैं? वे जवाब देंगे एक्टर, डान्सर, सिपाही, डॉक्टर आदि। मैं शर्त लगा सकता हूं कि उनमें से कोई भी यह नहीं कहेगा कि मैं बड़ा होकर स्व-पर्याप्ती बनूंगा। (अर्थात स्वयं को इस रूप में विकसित करूंगा कि सारे कार्य स्वयं कर सकूं, किसी पर निर्भर न रहना पड़े)। यदि स्व-पर्याप्तता छोटे बच्चों के तर्कों से विरोधी है तो यह पूरे देश के लिए कैसे तार्किक हो सकती है?

जब हम बाजार-अर्थव्यवस्था को विशेषीकृत करते हैं तो एक प्रक्रिया शुरू होती है, जिसे अर्थशास्त्री श्रम विभाजनकहते हैं।

अर्थशास्त्र श्रम विभाजन द्वारा धन की उत्पत्ति का अध्ययन है

अनेक विशेष योग्यताओं वाली भूमिकाओं के बीच श्रम विभाजन शहरी क्षेत्रों में ही सर्वाधिक उपयुक्त रूप से संभव है। एक गांव में जहां बहुत कम लोग होते हैं, वहां श्रम विभाजन अत्यंत दुष्कर कार्य है। यही वजह है कि गांव में सफल शल्य चिकित्सक, यहां तक कि सफल धोबी होने की गुंजाइश भी कम होती है।

इसीलिए नक्शे पर दिखने वाला प्रत्येक बिंदु (कोई शहर या कस्बा) घनी आबादी वाला होता है और समृद्ध होता है। किसी भी शहर या कस्बे (जहां अपेक्षाकृत जनसंख्या ज्यादा होती है) में कम जनसंख्या वाले गांव के मुकाबले अधिक संपन्नता होती है क्योंकि वहां श्रम विभाजन अधिक होता है। श्रम विभाजन की सीमा व मात्रा बाजार के आकार पर निर्भर करती है। बाजार जितना व्यापक होता है, श्रम विभाजन उतना ही ज्यादा होता है। उदाहरण के लिए यदि आप एक चाइनीज भोजनालय खोलना चाहते हैं और चाहते है कि प्रतिदिन कम से कम 100 ग्राहक आएं और यदि 100 में एक व्यक्ति किसी दिन चाइनीज भोजन करना चाहता है तो अपने 100 ग्राहक प्रतिदिन की आवश्यकता की पूर्ति के लिए आपको ऐसे कस्बे या शहर की आवश्यकता होगी जहां कम से कम दस हजार संभावित ग्राहक हों। यही कारण है कि भीड़ भरे, ज्यादा जनसंख्या वाले शहर समृद्ध हैं क्योंकि वहां श्रम का विभाजन ज्यादा होता है। यह एक शाश्वत प्रक्रिया है- केवल दिल्ली या मुंबई ही नहीं वरन् लंदन, टोकियो, न्यूयार्क एवं पेरिस आदि सभी घनी जनसंख्या युक्त एवं समृद्ध हैं।

संसार का लगभग 50 प्रतिशत शहरीकरण हो चुका है अर्थात विश्व की 50 प्रतिशत जनसंख्या शहरों एवं कस्बों में निवास करती है। भारत विश्व के इस औसत प्रतिशत से काफी नीचे, मात्र 30 प्रतिशत पर है। परंतु भारते के समृद्धतम राज्य गुजरात एवं महाराष्ट्र में शहरीकरण का औसत विश्व के औसत 50 प्रतिशत के आस-पास है जबकि भारत के सबसे गरीब राज्य जैसे असम एवं बिहार में शहरीकरण का औसत 10 प्रतिशत से भी कम है।

यहां यह जानना महत्वपूर्ण है कि सभ्यता शब्द लैटिन भाषा के शब्द सिविटास (civitas) से लिया गया है, जिसका अर्थ शहर होता है। सभ्यता की कहानी, मध्य सागर के चारो ओर बसे हुए तथा एक दूसरे के साथ वस्तुओं और सेवाओं के आदान-प्रदान अर्थात व्यापार करने वाले बड़े शहरों के निर्माण की ही कहानी है। मोहन-जो-दाड़ो एवं हड़प्पा भी, लोथल बंदरगाह द्वारा, मध्य सागर से जुड़े हुए महान शहर थे। इस छोटे और सुरक्षित सागर ने परिवहन की सुविधा दी, जिससे व्यापार को बढ़ावा मिला। शहर एवं कस्बे मानव उपनिवेशिकों की बांबी हैं। शहर को बर्बाद कर विकास को कोई भी प्रयास निरर्थक है।

सम्पूर्ण विश्व में शहरीकरण श्रम विभाजन की सहायता से समृद्धि बढ़ाता है। इसलिए भारत जैसे देशों में शहरीकरण को संपन्नता बढ़ाने के साधन के रूप में अपनाना सरकार के पिछले 50 वर्षों के प्रयासों (ग्रामीण विकास के नाम पर निर्रथक धन का व्यय) की अपेक्षा बेहतर विकल्प है। अभी हाल ही के आर्थर एंडरसन फार्च्यून के विश्वव्यापी सर्वे में भारत के शहरों को सबसे खस्ताहाल स्थिति में पाया गया। निश्चित ही संपन्न देश होने का यह तरीका नहीं है।

सामान्य कुप्रशासन के अलावा, सड़कों की बदतर स्थिति भी हमारे नगरीय क्षेत्र की बर्बादी का एक प्रमुख कारण है। इस मुद्दे पर हम बाद के अध्यायों में विस्तार पूर्वक चर्चा करेंगे। अभी के लिए यह समझें कि हमारे यहां की एसटीडी कोड की पुरस्तक में 400 से अधिक नाम है। अर्थात इतने सारे शहर हैं। परंतु शहरी जनसंख्या का अधिकांश (एक अनुमान के मुताबिक 62.5%) केवल कुछ मुट्ठीभर विशाल महानगरों में केंद्रित है, जो कि प्रतिदिन और बढ़ रहा है। शहरी भूगोल शास्त्री (जो शहरों एवं कस्बों के भूगोल का अध्ययन करते हैं) इस प्रक्रिया क आधिपत्य (Primacy) कहते हैं। आधिपत्य तब होता है जब मुख्य शहर अपने आस पास के कस्बों से सही प्रकार से जुड़ा नहीं होता तथा स्वयं भरता जाता है। यदि सडकें अच्छी होती तो उपनगरों (सैटेलाइट कस्बों) का विकास होता और केवल कुछ गिने चुने महानगरों पर पड़ने वाला अत्यधिक दबाव कम होता और एसटीडी कोड की किताब का प्रत्येक नाम एक छोटा सिंगापुर होता।

अंग्रेजों ने अपने समय में भारत मे कई बढ़िया शहर व असंख्य हिल स्टेशन बनाए। पिछले पचास वर्षों में हमारे सभी शहरी क्षेत्र बर्बाद हो चुके हैं। ब्रिटिश कालीन भारत में सभी हिल स्टेशन किसी न किसी महानगर से जुड़े थे। यथा दार्जिलिंग-शिलांग का क्षेत्र कोलकाता से, पूना-महाबलेश्वर का क्षेत्र मुंबई से, ऊटू-कुन्नूर का क्षेत्र चेन्नई से तथा शिमला-मसूरी का क्षेत्र दिल्ली से जुड़ा है। इसी तरह से यदि हमारे शहीर भेत्र महानगरों से जुड़ जायें तो वे सभी सिंगापुर की तरह हो सकते हैं। ध्यान रहें, सिंगापुर 1965 में ही आजाद हुआ और कुलियों तथा फेरी वालों की भीड़ से भरे छोटे से गंदे शहर से आज उभरता हुआ विकसित शहर बन गया है।

सड़कों की बदतर स्थिति के कारण भारत मे जरूरत से ज्यादा भीड़ है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि देश में आवश्यकता से अधिक जनसंख्या है। कभी ट्रन या हवाई जहाज से यात्रा करें तो आप पायेंगे कि भारत में विशाल खुले मैदान हैं। जापान, जर्मनी, हॉलैंड एवं बेल्जियम का जनसंख्या घनत्व (प्रति वर्ग किलोमीटर में व्यक्तियों की संख्या) भारत के जनसंख्या घनत्व से अधिक है फिर भी इन देशों के शहरों में अत्यधिक भीड़ की समस्या नहीं है। शहरों में बढ़ती अत्यधिक भीड़ को रोकने का उपाय परिवार नियंत्रण नहीं है, वरन् वे सड़कें हैं जो बहुत सारे कस्बों को मुख्य शहर से जोड़ेंगीं। बहुत सारे शहरी क्षेत्र अर्थात 400 सिंगापुर होने से भारतीयों के पास आवश्यकतानुरूप रहने के लिए स्थान होगा तथा अत्यधिक भीड़ की समस्या समाप्त होगी।

इसलिए यह तर्क दृष्टिकोणों में द्वंद पैदा करता है। हजारों स्वशासित व स्व-पर्याप्त ग्रामीण संघों (गांधी व नेहरू का दृष्टिकोण) के रूप में भारत का भविष्य देखने की अपेक्षा हम भारत को एक शहरी सभ्यता के रूप में देख सकते हैं। ऐसे 400 बढ़िया शहरों के मध्य, जो कि सड़क, रेल, या वायुमार्ग द्वारा भली प्रकार जुड़े हों, सर्वाधिक व्यापार सबसे कम कीमत पर संपन्न हो सकता है। घटिया परिवहन व्यवस्था व्यापार को मंहगा व धीमा बनाती है। एक ट्रक एक दिन में भारतीय राजमार्गों पर लगभग 250 किमी चलता है जबकि शेष संसार में 600 किमी से अधिक चलता है।

ऐसा कहा जाता है कि प्रत्येक बड़ा शहर अपने परिवहन तंत्र पर विशाल मकड़ी की तरह बैठा होता है।भारत को भी ऐसे शहरों एवं कस्बों की आवश्यकता है।

चूंकि मानव मात्र ही आर्थिक गतिविधियां संपन्न कर सकते हैं और चूंकि शहर समृद्ध होते हैं अतः ऐसा कहा जाना चाहिए कि जनसंख्या को गरीबी का कारण बताने वाला सिद्धांतशैतान का दर्शन है। यह दर्शन माता-पिता को बच्चे पैदा करने के कारण शर्मिंदा करता है। यह दर्शन बच्चों में यह भावना पैदा करता है कि वे संसाधन नहीं हैं वरन् समस्या हैं। यह दर्शन मार्ग-दुर्घटनाओं के आंकड़ों पर मानवद्वेषी नजर रखता है और कहता है कि हमारी असुरक्षित सड़कें बढ़ती जनसंख्या की समस्या का एक उदाहरण हैं।

मानव दुनिया के सर्वोत्तम संसाधन हैं क्योंकि उनके पास सोचने के लिए मानव मस्तिष्क है। आप उसी मस्तिष्क में ज्ञान उड़ेलने का अर्थात् खुराक देने का प्रयास कर रहे हैं। अतः कृपया यह निश्चित कर लें कि जो भी खुराक आप मस्तिष्क को दें वह सत्य पर आधारित हो। असत्य दर्शन आपके मस्तिष्क को मृत कर देगा तथा फिर आपको यह नहीं सोचने देगा कि आप अपने दिमाग के प्रयोग व व्यापार करने की योग्यता से, मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था में अपना सर्वोत्तम कार्य करते हुए धन पैदा कर सकते हैं। बल्कि यह आपको इस प्रकार सोचने के लिए प्रशिक्षित करेगा कि आप एवं आपके भाई-बंधु ही विकराल समस्या हैं, जिनके समाधान के लिए आपको राजनीतिक कार्यवाही की आवश्यकता है।

- पार्थ जे. शाह

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