शुक्रवार, 14 मार्च 2014

भारत का पहला 'सुनहरा युग'!

कहते हैं कि अमेरिका में दूसरा 'सुनहरा युग' आरंभ हो गया है जब कि भारत, चीन और अन्यत्र पहला 'सुनहरा युग' शुरू हुआ है। आज से लगभग डेढ़ सौ साल पहले अमेरिका में 'गिल्डेड एज' आरंभ हुआ था। यह नामकरण मार्क ट्वेन ने अपने मशहूर उपन्यास में दिया था। सन् 1934 में प्रसिध्द अमेरिकी पत्रकार मैथ्यू जोसेफसन ने इसके नायकों को ''रॉबर बैंरस: ग्रेट अमेरिका कैपिटलिस्टस 1861-1901''

मुक्त बाजार और नवउदारवाद के समर्थक मिल्टन फ्रीडमैन ने कहा था कि वह समाज जो स्वतंत्रता को समानता के नीचे रखता है वह कुछ भी नहीं प्राप्त कर सकता। स्वतंत्रता को समानता के मुकाबले तरजीह देने से दोनों की प्राप्ति हो सकती है। कहना होगा कि समानता की बात करनी चाहिए। जो जैसे चाहे अपने उद्योग धंधों को लगाए। सरकार की ओर से कोई रोक-टोक नहीं होनी चाहिए। लोगों को घबराने की भी जरूरत नहीं है।

वर्ष 1991 में भारत ने नेहरू-इंदिरा के विकास के मॉडल को पूरी तरह तिलांजलि दे दी। अब सरकारी हस्तक्षेप के बिना निवेशक यह तय कर रहे हैं कि वे क्या उत्पादन करें, कैसे उत्पादन करे और किनके लिए उत्पादन करें। जहां उनको पसंद है वहां उद्योग लगाते हैं, जिस प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करना चाहते हैं उसे काम में लाते हैं तथा बाजार में जिसके पास पैसे होते हैं उसी के लिए उत्पादन करते हैं। उनको इसकी चिंता नहीं है कि देश का संतुलित विकास हो या समाज में अर्थिक विषमता घटे। बाजार की शक्तियां ही उनका निर्देशन करती हैं।

किसी जमाने में पिट्सबर्ग अमेरिका के 'गिल्डेड एज' का प्रतीक था। ढेर सारे उद्योग वहीं लगे थे। इसके एक अग्रणी पूंजीपति एंड्रयू कारनेगी को जब मालूम हुआ कि मजदूर किस अवस्था में रहते हैं तब उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। करोड़पति लोगों के महलों और मजदूरों की झोपड़ियों को देख उन्हें बड़ा ही तााुब हुआ। अब तक लोगों के बीच इतना फर्क नहीं देखा गया था। उस जमाने को छोड़कर अब जरा भारत को देखें। मुम्बई में सताइस मंजिला अम्बानी परिवार का महल है जिसको बनाने पर कम से कम एक अरब डालर से कहीं अधिक ही खर्च हुआ है। उससे मात्र सात मील दूर धारावी की मलिन बस्ती है। धारावी दुनिया की एक बड़ी मलिन बस्ती है। अगर हम अम्बानी के महल और धारावी की किसी झोपड़ी को देखें तो पाएंगे कि एंड्रयू कारनेगी ने भी इसकी कल्पना नहीं कर सके थे। कहना होगा कि समाज में धनी-गरीब एक दूसरे की स्थिति से काफी कुछ अनमिज्ञ हैं। उनकी अलग-अलग दुनिया है। आज अन्ना हजारे हों या केजरीवाल जो भी कहें, बिना रिश्वत दिए कोई काम नहीं बनता। दानी कॉफमैन का अनुमान है कि सारी दुनिया में हर साल दास खरब डालर रिश्वत के रूपमें दिए जाते हैं।

क्रिस्टिया फ्रीलैंड ने अपनी पुस्तक ''प्लुटोक्रेट्स राइज ऑफ न्यू ग्लोबल सुपर-रिच एंड फॉल ऑफ एवरीमैन एल्स'' के लिखने के क्रम में मुम्बई के कुछ बड़े सेठों का साक्षात्कार लिया था। उसे राज नामक एक व्यक्ति मिले जो देश के 0.1 प्रतिशत लोगों में आते हैं। उनका मानना है कि भ्रष्टाचार सर्वत्र व्याप्त है। यहां पर शायद ही कोई यह दावा कर सकता है कि देश में भ्रष्टाचार नहीं है। यदि हम 'जिनी को एफ्फिसियेंट' की गणना करें तो पाएंगे कि देश में लगातार असमानता बढ़ती ही जा रही है।

क्रिस्टिया फ्रीलैंड ने योजना आयोग के सदस्य अरुण मैरा का साक्षात्कार किया। मैरा उद्योग से घनिष्ठ रूप से जुड़े रहे हैं। उनका मानना है कि यदि आप कोई नये अवसर जैसे मुक्त बाजार उपलब्ध कराएंगे तब सत्ता में बैठे लोग कुछ कुछ जरूर लेंगे। इंफोसिस के सह-अध्यक्ष गोपाल कृष्णन का मानना है कि जो सत्ता और सरकार में बैठे हैं वे अपना हिस्सा अवश्य लेंगे।

इस सौदे की तय कराने के लिए नीरा राडिया जैसे लोगों की जरूरत होती है। इनके जरिए ही सौदा  पटाया जाता है। नीरा राडिया के संवाद में 140 लोगों के सोच परस्पर संवाद हैं। वर्ष 2008 से रघुरामजी राजन के बम्बई चैम्बर ऑफ कॉमर्स में दिए गए भाषण का जिक्र हम पिछली बार कर चुके हैं। उन्होंने रेखांकित किया कि आर्थिक संवृध्दि की दर धीमी होने के साथ ही सत्ता में बैठे लोग अपने चुनाव और राजनीतिक गतिविधियों को चलाने के उद्देश्य से धन उगाहते हैं और उन्हें अकूत वनसंपदा खनिज पदार्थों को उपलब्ध कराते हैं। कहना होगा कि 1991 में अब तक जितने अरबपति भारत में पनपे हैं उनमें से अधिकतर अपनी उद्यमिता के कारण सामने नहीं आए हैं।

अभी-अभी राना दासगुप्त की एक पुस्तक ''कैपिटल : पोटे्रट ऑफ टवेंटी-फर्स्ट सेंचुरी दिल्ली'' आई है। दासगुप्त आज से लगभग चौदह वर्ष पहले बाहर से आगर दिल्ली में बसे थे। यह उनकी गैर औपन्यासिक कृति है। वे बतलाते हैं कि दिल्ली में बने अधिकतर बार और मॉल राजनीतिक संबंधों के परिणाम हैं और दिल्ली के व्यावसायिक परिवारों की दूसरी या तीसरी पीढ़ी चल रही है। इनमें से अधिकतर परिवार शहर के अपने घरों को छोड़कर बाहर रहते हैं जिन्हें उन्होंने 'फार्म हाउसेज' का नाम दिया है। इस पुस्तक में दक्षिण एशिया पर भूमंडलीकरण के असर को रेखांकित किया गया है। दासगुप्त का  मानना है कि 1991 के बाद राजनीतिक नेताओं और व्यवसायियों के बीच गठजोड़ बना और गहरा हुआ है। बड़े कारर्पोशनों और राजनेताओं ने एक साथ मिलकर सार्वजनिक संपदा को लूटना शुरू किया है। पुराने जमाने से अफसरों को बख्शीश देने की बात चली रही है लेकिन तत्काल मुक्त बाजार व्यवस्था में वह कुछ भी नहीं है। अब खुलेआम पैसों का बड़े पैमाने पर लेनदेन हो रहा है। वर्ष 2010 में रिश्वतखोरी भ्रष्टाचार का एक अभिन्न अंग बन गया। दासगुप्त का अनुमान है कि 14 अरब डॉलर कॉमन वेल्थ गेम्स पर खर्च हुआ। आज काले धनवाले अपना दबदबा जमा रहे हैं।

अब आइए, मैथ्यू जोसेफसन की पुस्तक ' रॉबट बैरंस' की ओर लौटें। इस पुस्तक की सबहेडिंग है ' ग्रेट अमेरिकन कैपिटलिस्टस : 1861-1901' यह पुस्तक अपने छपने के बाद से ही चर्चा में रही है। यह पुस्तक अमेरिकी गृहयुध्द के दौरान पनपे एक छोटे से जनसमुदाय से संबंधित है। जो गृहयुध्द के दौरान सत्तासीन हो गया। असली शक्ति और सत्ता उन्हीं के हाथों में रही। इस छोटे से वर्ग को हम 'बैरंस', 'राजा', 'साम्राय निर्माता', और यहां तक कि हम 'सम्राट' के नाम से पुकार सकते हैं। ये लोग काफी आक्रामक थे। उन्हें कानून-कायदे की काई परवाह थी। जब भी कोई महत्वपूर्ण संकट आए, ये सारे लोग एकजुट होकर आगे बढ़े। उनमें ऊर्जा की कमी थी और जोरदार ढंग से संकट का सामना किया। इन लोगों के समूह को लेखक ने ''रॉबर बैरंस'' का नाम दिया। अगर ये लोग होते तो अमेरिकी गृहयुध्द से लेकर उन्नीसवीं सदी के अंतिम दिनों तक अमेरिका आने वाली कठिनाइयों का सामना शायद ही कर पाता। उस दौरान राष्ट्रपति और अग्रणी सिनेटर जो भी रहे हों असली सत्ता इन्हीं के हाथों में रही।

जब इन रॉबर बैरंस (लुटेरे सरदारों) का उदय हुआ जब अमेरिका एक मर्केंटाइल- एग्रेरियन गणतंत्र था और जब वे सक्रिय जीवन से चले गए तब तक एक औद्योगिक समाज का रूप ले चुका था और इस पर इन्हीं का कब्जा था। संक्षेप में कहें तो इन लोगों ने औद्योगिक क्रांति लाने में एक अहम् भूमिका अदा की। इनके आपसी झगड़े भी हमारे इतिहास को संचालित करने में एक जबदस्त भूमिका रही। इन्होंने हमारे आर्थिक जीवन को आगे बढ़ाया बड़े पैमाने के उत्पादन ने बिखरी हुई उत्पादन की इकाइयों की जगह ली। औद्योगिक उत्पादन संकेद्रित हो गया और पहले की अपेक्षा अधिक कार्यकुशल बन गया।

याद रहे कि उद्योगों के जो सिरमौर आगे आए उनका एकमात्र उद्देश्य अधिक से अधिक पैसे बटोरना रहा। देश के संसाधनों को बड़े पैमाने पर लूटना शुरू किया। वहां के खेतिहरों और मजदूरों को निजी मुनाफे के लिए लूटा। खेतिहरों और मजदूरों की कहीं भी सुनवाई थी। देश के प्राकृतिक संसाधनों और व्यापार के विभिन्न स्रोतों को लूटा गया। राजनीतिक संस्थानों पर इनका पूरी तरह कब्जा हो गया। इस गुट का सामाजिक दर्शन मात्र पैसे बटोरने का जरिया बन गया। इस लोगों ने जो कुछ किया उनका एकमात्र उद्देश्य पैसे बटोरना था।

अमेरिकी गृहयुध्द के बाद के साल के दौरान इन पूंजीपतियों ने मांग की बाजार में वे जो कुछ भी करते हैं उन पर कोई रोक लगे। वे अपने को धनवान बनाने के साथ ही देश को भी धनवान बना देंगे। उन्होंने पूरे देश को रेलवे नेटवर्क से जोड़ा और बड़े-बड़े औद्योगिक संयंत्र लगाए। यह सब कुछ उस माहौल में हुआ जब उन्हें करों से पूरी छूट दे दी गई। उनका मानना था कि वे इस माहौल में इस कारण सफल हो सके कि वे सक्षम थे। आम नागरिकों, राष्ट्रपतियों और कांग्रेस के सदस्यों ने उनका विरोध किया मगर उनकी रफ्तार को रोक नहीं पाए। स्वयं कार्ल मार्क्स ने माना कि जो भी हो वे 'प्रगति के एजेंट' थे। उनके नेतृत्व में 'एग्रेरियन-मर्केंटाइल इकॉनामी' को बड़े पैमाने की अर्थव्यवस्था में तेजी से बदल दिया गया।

आज भारत जिस जगह खड़ा है वहां नवउदारवाद का बोलबाला है। कम्युनिस्ट और नेहरूवादी कांग्रेसियों को धक्का देकर अलग करने की कोशिश हो रही है। नरेंद्र मोदी हाें या अरविंद केजरीवाल दोनों ही पूंजीवाद या यों कहें नवउदारवादी पूंजीवाद को गुणगान करने में लगे हैं। इन दोनों का मानना है कि सरकार को अपने को अलग रखना चाहिए। उद्योग और व्यवसाय को चलाने के क्रम में कोई हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं है। वे जैसे चाहें वैसे अपना धंधा चलाएं।  केजरीवाल का कहना है कि भ्रष्टाचार करें। अब तक यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि यह भ्रष्टाचार क्या है। जहां तक नरेन्द्र मोदी का प्रश्न है उनका मानना है कि हर प्रकार के कारोबार करने वाले सीमा पर देश की सुरक्षा में लगे सैनिकों से कहीं अधिक बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। 19 अक्टूबर, 2013 के 'इकॉनामिस्ट' के अंक को देखें तो मालूम हो जाएगा कि नरेन्द्र मोदी देशी-विदेशी पूंजीपतियों के 'नए बिजनेस आइडल' हैं।


गुरुवार, 13 मार्च 2014

बदलाव की राह पर चीन

यह संयोग है कि भारत में आगामी लोकसभा चुनावों की घोषणा वाले दिन ही चीन की नेशनल पीपुल्स कांग्रेस यानी एनपीसी की वार्षिक बैठक शुरू हुई। यह संस्था हमारी संसद के निचले सदन लोकसभा के समकक्ष है। इस सदन के समक्ष प्रधानमंत्री ली कछ्यांग और चीन के अन्य कैबिनेट मंत्रियों ने अपनी सरकार की प्रथम कार्य रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस रिपोर्ट का ठीक वही महत्व है जो भारत में आम बजट का है। रिपोर्ट में वर्ष 2014 के लिए सकल घरेलू उत्पाद अर्थात जीडीपी का लक्ष्य 7.5 फीसद रखा गया। यह इस बात का संकेत है कि इस वर्ष के अंत तक चीन की कुल जीडीपी में 10 खरब अमेरिकी डॉलर का इजाफा होगा। इसकी तुलना में दो फीसद की दर से अमेरिकी जीडीपी में कुल वृद्धि 17 खरब अमेरिकी डॉलर की होगी, जबकि 5.5 फीसद की दर से भारत की जीडीपी में कुल इजाफा महज दो खरब अमेरिकी डॉलर होगा। हालांकि भारत ने अपने हालिया अंतरिम बजट में घोषणा की है कि वह अपने बजट घाटे को कुल जीडीपी के 4.6 फीसद पर सीमित करने की कोशिश करेगा। इसके लिए सरकार को योजनागत खचरें में कटौती करनी होगी, जबकि दूसरी ओर गैर योजनागत खर्च लगातार बढ़ता रहेगा। इसके विपरीत चीन में स्थानीय सरकारों द्वारा इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में हो रहे खचरें में कटौती करने की बड़ी चुनौती है। चीन में 218 अरब अमेरिकी डॉलर बजटीय घाटे का अनुमान है। देश की कुल जीडीपी का 2.1 फीसद तक घाटा सहा जा सकता है, लेकिन इसके साथ ही चीन में बढ़ रहा घरेलू कर्ज चिंता का एक और विषय है। हालांकि यह एक सच्चाई है कि बड़े ऋण संकट को भी हल करने में बीजिंग समर्थ है।

चीन में निचले स्तर पर स्थानीय सरकारें बड़े सामाजिक खचरें के लिए जिम्मेदार हैं। अपर्याप्त कर राजस्व के कारण बीजिंग स्थानीय सरकारों को पर्याप्त धन मुहैया करा पाने में असमर्थ है। इस कारण राच्य सरकारें प्राय: अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन करने में विफल होती हैं। इस सबका परिणाम यह हुआ है कि तमाम विरोध प्रदर्शन उभर रहे हैं और देश के भीतर लोगों में असंतोष बढ़ रहा है। चीन में बैंक आमतौर पर स्थानीय सरकारों के अधीन हैं। बढ़ते सामाजिक असंतोष को रोकने के लिए उन्हें स्थानीय सरकारों को कर्ज देने के लिए विवश होना पड़ता है, लेकिन सच्चाई यह है कि इसका एक बड़ा हिस्सा रियल इस्टेट क्षेत्र में चला जाता है। इसका नतीजा औद्योगिक अधिकता के रूप में देखने को मिलता है। एक तथ्य यह है कि चीन की बहुत बड़ी राशि स्थानीय सरकारों के कर्ज के तौर पर फंसी हुई है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री ली कछ्यांग को स्थानीय प्रशासन के लिए वित्तीय सुधार योजना की घोषणा करनी पड़ी। इसके लिए स्थानीय प्रशासन को बांड जारी करने की अनुमति दी गई है और व्यापक नियंत्रण नीति ढांचे में सुधार की बात कही गई है।

इसके अतिरिक्त चीन के प्रधानमंत्री ने यह भी घोषणा की है कि शहरी ढांचे में सुधार के साथ-साथ उसी तरह की सुविधाएं ग्रामीण लोगों को भी दी जाएंगी। वास्तव में चीन की यह एक महत्वाकांक्षी योजना है कि गांवों से निकल करके शहरों में आए तकरीबन 10 करोड़ लोगों को शहरी आवास और सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं। इसके लिए शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों का नए सिरे से निर्माण किया जाना है। इसके विपरीत भारत में ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन करके शहरों में पहुंचे लोगों की स्थिति बिल्कुल अलग है। व्यावाहारिक तौर पर यहां सामाजिक कल्याण की कोई भी योजना नहीं है। औद्योगिक विकास और नौकरी के अभाव में लोग वापस अपने गांवों में लौटने को विवश हो रहे हैं। चीन में आर्थिक नीति बनाते समय शहरों में रिहायशी सुविधाओं का विशेष ध्यान रखा गया है। आर्थिक विकास और बेहतर शासन के लिए चीन सरकार अपने स्तर पर नीतिगत प्रोत्साहन देती है। भारत में शहरी परिदृश्य इस मायने में अलग है कि यहां चुने हुए लोगों के हाथ में इस तरह की स्थिति से निपटने के लिए बहुत कम शक्ति होती है और यहां पर प्रशासन भी शहरी लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से अलग व्यवहार करता है।

चीन के प्रधानमंत्री ली ने पिछले नवंबर में निवेश और निर्यात आधारित विकास के आर्थिक ढांचे को बदलकर उसे घरेलू मांग पर आधारित करने की घोषणा की थी। यह भी ध्यान देने योग्य है कि पहली बार चीन की कुल जीडीपी में औद्योगिक क्षेत्र के बजाय सेवा क्षेत्र का योगदान 46.1 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गया है। सरकार ने यह भी घोषणा की है कि निजी क्षेत्र को सार्वजनिक पूंजी तक पहुंच बनाने के च्यादा अवसर मिलेंगे। इसका एक अर्थ यह है कि उन्हें वित्तीय संस्थान खोलने की भी अनुमति मिलेगी और उन्हें वार्षिक सरकारी समीक्षाओं का सामना भी नहीं करना होगा। अभी तक इस व्यवस्था के चलते सरकारी भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता रहा है। हालांकि सरकार द्वारा संचालित उपक्त्रमों में सुधारों को अभी भी लंबी राह तय करनी है। इस प्रक्त्रिया को भी रफ्तार मिल सकती है। चीन के एक पूर्व शीर्ष सुरक्षा अधिकारी झाऊ योंगकांग और पिछले पोलित ब्यूरो की स्थायी समिति के एक सदस्य को जल्द ही भ्रष्टाचार के आरोपों में गिरफ्तार कर लिया जाएगा। झाऊ के राच्य संचालित उपक्त्रमों से गहरे संबंध रहे हैं। स्पष्ट है कि झाऊ के परिदृश्य से बाहर होने के बाद चीन के मौजूदा नेताओं को इस क्षेत्र में अहम सुधारों के लिए अधिक खुला हाथ मिल जाएगा। यह गौर करने लायक है कि एक ओर भारत की 15वीं लोकसभा के नाम सबसे कम कामकाज का रिकार्ड बना और दूसरी ओर उसके एक पड़ोसी देश जहां लोकतंत्र नहीं, बल्कि एक दल का शासन है वहां की नेशनल पीपुल्स कांग्रेस ने अपेक्षाकृत अधिक सक्त्रियता का परिचय दिया। कम्युनिस्ट पार्टी भले ही सर्वोच्च हो, लेकिन एनपीसी में कार्यवाही से अनुपस्थिति और नकारात्मक मतदान की प्रवृत्ति बढ़ रही है। निश्चित ही चीन की बढ़ती समस्याओं के साथ अब यह अपरिहार्य होता जा रहा है कि एनपीसी को चीन की प्रतिनिधि सभा के रूप में अपनी भूमिका बढ़ानी होगी तथा और अधिक मुद्दों पर बहस के लिए तैयार होना होगा। हो सकता है कि इससे सत्ताधारी पार्टी और सरकार को कुछ अधिक जवाबदेही के दायरे में लाया जा सके।


बुधवार, 12 मार्च 2014

राजनीति में महिलाएं

राजनीति एक ऐसा क्षेत्र है, जिसका प्रभाव प्रत्येक नागरिक पर पड़ता है। देश का कानून बनाने वाले लोग राजनीतिज्ञ ही होते हैं। मंत्री के रूप में किसी भी सार्वजनकि क्रियाकलाप के मुखिया, राजनीतिज्ञ ही होते हैं। शासन के कार्यकारी अमले को यहां से वहां स्थानान्तरित कर सकने वाले लोग भी मंत्री के रूप में राजनीतिज्ञ ही होते हैं।
किन्तु यह भी एक सत्यता है कि राजनीति को अपने जीवन का लक्ष्य या व्यवसाय बनाकर चलने वाले लोग बहुत कम ही होते हैं। अक्सर राजनीति में लोग अपनी तकनीकी योग्यता आदि आजमाने के बाद, अपनी तीक्ष्ण बुध्दि, भाषण देकर लोगों को प्रभावित कर सकने की योग्यता, जोड़-तोड़ करने की बुध्दि के चलते ही कूदने की हिम्मत करते हैं, और इसमें उन्हें अपने समय, धन, पारिवारिक सम्पर्क सभी कुछ दांव पर लगाने पड़ते हैं। राजनीति को अपना कार्यक्षेत्र बनाने के लिए  घर वालों की रजामन्दी, अपनी गांठ से पैसा लगाना, अधिक से अधिक लोगों   लोगों से मेलजोल चर्चा के लिये चौबीसों घंटे तत्पर रहना, लम्बी-लम्बी दूरियां तय करना- यह सब तैयारी लगती है।
अतएव महिलाओं को राजनीति में आने के लिये (जब तक कि वे किसी बड़े राजनैतिक व्यक्ति की नजदीकी रिश्तेदार आदि हों) अपना सर्वस्व दांव पर लगाना होता है। अक्सर इसमें उन्हें बहुत दिक्कतें आती हैं। हर भारतीय नारी के लिए अपना पत्नी, गृहिणी माता का रूप सबसे पसन्दीदा होता है। अब पति घर बच्चों  को छोड़कर बाहर की दुनिया को अपनाना- वह तब तक नहीं हो सकता, जब तक महिला को परिवार से पूरा सहयोग और प्रोत्साहन मिले, और दूसरे, जब तक उसे राजनीति में पड़ने से, कोई स्पष्ट लाभ दिखाई दे।
वैसे ऊंचा ओहदा, सम्मान और पूछ परख तो सबको पसन्द होती है। लेकिन महिलाएं एक तो अपने ऊंचे पद को पैसे से नहीं भुनातीं और दूसरे ऊँचे ओहदे की चमक उन्हें बहुत जल्दी झूठी और बेमानी लगने लगती है। शायद उनकी शक्ति भी बेतहाशा जन-सम्पर्क बढ़ाने की दिशा में कम पड़ती है। ऐसा प्रतीत होता है, कि ये ही सब कारण रहे हैं कि महिलाओं की राजनीति में उपस्थिति पिछले : दशकों में : प्रतिशत भी नहीं बढ़ी।
वर्ष 1952 में भारत की संसद में कुल 499 सीटों में से 22 (4.4 प्रतिशत) पर महिलाएं चुनी गई थीं। 1957-62 में 500 सीटों में से 27 (5.4 प्रतिशत)पर महिलायें चुनी गई। फिर वर्ष 62-67 में 34 (6.7 प्रतिशत) पर, तथा 1967-71 में 31 (5.9 प्रतिशत) पर, 1971-76 में 22 (4.2 प्रतिशत)पर महिलाएं आर्इं। 1977-80 में 19 (3.4 प्रतिशत), 80-84 में 28 (5.1 प्रतिशत) पर, 85-90 में 44 (8.1 प्रतिशत) पर महिलायें चुनी गईं तथा 1990-91 में 27 (5.22 प्रतिशत) पर वे चुनी गईं।
जब हम केन्द्रीय सरकार में मंत्री पदों पर आसीन होने वाली महिलाओं की संख्या देखते हैं तो पता चलता है कि 1952-57 में 4.9 प्रतिशत मंत्री महिलायें थीं।  यह आंकड़ा कमोबेश होते-होते 1984-89 में अपने अधिकतम यानी 10 प्रतिशत पर पहुंचा, एवं पुन: एक बार 1999-2004 में 10 पर पहुंचा। संक्षेप में, यह बहुत बढ़ नहीं पाया है।
हमारा प्रबुध्द वर्ग यह मानता है, कि संसद सदस्य और मंत्री पदों पर और अधिक महिलाओं के आने से हमारे समाज में महिलाओं की ही नहीं, बल्कि समस्त समाज की स्थिति सुधरेंगी। मगर महिलाओं की संख्या बढ़ेगी कैसे?
चुनाव में भागीदारी बेहद खर्चीली हो गई है। महिलाओं के पास अमूमन तो अपनी कमाई का यादा पैसा होता ही नहीं। दूसरे, वे पैसे को चुनाव जैसे काम के लिए दांव पर लगाकर हार का मुंह देखने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं होतीं। तीसरे, अपने वोट बढाने और दूसरों के वोट काटने के लिये साम-दाम-दंड-भेद के हथकंडे अपनाने की, वे सोच भी नहीं सकती। किन्तु महिलाओं को अपने बूते पर आगे बढ़ना ही होगा चूंकि समाज में उनकी साझेदारी बढ़ती जा रही है-यों यों शिक्षा में उनकी प्रगति बढ़ रही है, कारपोरेट क्षेत्र में उनका प्रतिनिधित्व बढ़ रहा है, तथा उन्हें और अधिक आवागमन चर्चा मेलजोल, ग्रामीण शहरी दोनों क्षेत्राें में अपने काम सिलसिले में जाने-आने की, स्त्री-पुरुष, सबसे मिलने-जुलने के बाध्यता बढ़ रही है और उनकी पारिवारिक जिम्मेदारियां थोड़ी घट रही हैं, परिवार छोटे और एकल होते जा रहे हैं। वे अगर राजनीति में बढेंग़ी, तो वे ध्यान देंगी, कि उनका आवागमन सुरक्षित हो, पुलिस की उपस्थिति और गुप्त कैमरे आवश्यक स्थानों पर सक्रिय हों, होटलों का वातावरण स्वच्छ हो, लोगों का व्यवहार स्त्रियों के प्रति शिष्ट और संयत हो। दिल्ली दुष्कर्म के बाद जो भी आन्दोलन और प्रदर्शन महिलाओं के वहां हुए, उनके कारण दिल्ली की मेट्रो में पुरुषों का व्यवहार बहुत बदल गया है। वे काफी सावधानी से और नपे-तुले ढंग से पेश आने लगे हैं। वहीं महिलाओं की हिम्मत बढ़ी है, और वे अब स्टाफ की किसी भी अशिष्टता के विरुध्द उनके उच्चाधिकारियों को रिपोर्ट करने में चूकती नहीं हैं।
समाज में महिलाओें के प्रति कई तरह की विषमतायें चली रही हैं। राजनीति में महिलाओं के आने से, इन्हें दूर करने की ओर यादा ध्यान दिया जायेगा।  आज घरेलू हिंसा की शिकार अनेक महिलाएं चुपचाप सब कुछ सहती हैं। उनके स्वास्थ्य पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता और खर्च नहीं किया जाता। उन्हें अपना निर्णय लेने की स्वतंत्रता नहीं होती। हाल ही में यह समाचार पढ़ने को मिला कि एक आदिवासी महिला को उसके ससुर ने लकड़ी से सिर पर ऐसा मारा कि कुछ समय बाद उसका देहांत हो गया। उसका दोष? केवल इतना ही कि वह अपने पिता से मिलने चली गई, और (शायद) उन्हें अपनी तनख्वाह से कुछ पैसे भी देती थी।

कई समस्याएं केवल महिलाओं को दु: देती हैं, जैसे कि पुत्र को जन्म दे पाना, अनचाही सन्तान को जन्म देना तथा उसे पालने की बाध्यता, मातृत्व अवकाश प्राप्त होना, बच्चे की परवरिश (काम की बाध्यता के कारण) ठीक से कर पाना- भले ही बच्चा बीमार हो। पुरुषों को तो ये समस्याएं कभी छूएंगी ही नहीं इनका हल निकालने के लिये अपने प्रमाद का सदुपयोग करने के लिये महिलाओं को राजनीति में आना चाहिये। बल्कि कुछ लोगों का तो यह मानना है कि कनाडा, जर्मनी आइसलैंड नाइजीरिया, फिलीपीन्स, रूस स्पेन की तरह महिलाओं को अपनी पृथक राजनैतिक पार्टी बनानी चाहिये। यही नहीं, राजनीतिज्ञों पर दबाव डालने के लिये उन्हें अपने प्रेशर ग्रुप्स भी बनाने चाहिये, ताकि उनकी प्राथमिकताओं के अनुसार नीति निर्णय हो सकें। इससे समाज अधिक शालीन और नमनीय होगा। उसका भविष्य और उज्जवल होगा।

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