रविवार, 16 फ़रवरी 2014

उपभोग और उत्पादन

उपभोग और उत्पादन की परिघटनाएं अनंतकाल से विद्यमान हैं यद्यपि उनके स्वरूप में निरंतर परिवर्तन होते रहे हैं। मनुष्य हो या अन्य कोई प्राणी, हर किसी को जिन्दा रहने के लिए कतिपय पदार्थों की जरूरत हमेशा रही है। आरंभिक दिनों में मनुष्य फल एवं कंदमूल बटोर और अन्य जीवों का शिकार कर जिंदा रह सका। बटोरने और शिकार करने की प्रक्रिया को उत्पादन का नाम दिया गया।
कालक्रम में उत्पादन और उपभोग के स्वरूप में बदलाव आए।  मनुष्य कृषि एवं पशुपालन से जुड़ा। जहां तक उपभोग का संबंध है उसमें भी बदलाव आया। मनुष्य प्रकृति से प्राप्त वस्तुओं का यों का त्यों इस्तेमाल करने के बदले नमक और मसालों के साथ खाने लगा। उसने पहनने-ओढ़ने की वस्तुओं में इस प्रकार परिवर्तन किए जिससे अपनी आवश्यकताओं को बेहतर ढंग से संतुष्ट कर सके।
उत्पादन के पैमाने चरित्र और स्वरूप में बदलाव हुए।  इस प्रकार उपभोग मानवीय दशा का दर्पण बन गया। इतिहास इंगित करता है कि उपभोग सर्जनात्मकता का स्रोत और सामाजिक संबंधों और मनुष्य की पहचान का आधार बन गया। उपभोग में क्या कुछ शामिल होता है यह बहुत कुछ पर्यवेक्षक पर निर्भर होता है। 1980 के दशक में कई लोगों ने इसे 'शापिंग' से जोड़ा जिसके बाद 'उपभोग' शब्द का निहितार्थ इतना व्यापक हो गया कि उसके अंतर्गत खरीदारी के अतिरिक्त इच्छा उत्पति की प्रक्रिया के साथ ही अपव्यय और रिसाइक्लिंग जैसी परिघटनाएं गईं।
प्रारंभ में उपभोग को पूर्ण तथा उत्पादन का विपरीतार्थक माना जाता रहा। यह धारणा व्यापक थी कि उत्पादन जहां सृजन करता है वहीं उपभोग सृजित वस्तुओं को समाप्त कर देता है।  रेमंड विलियम्स के अनुसार 'कंयूम' शब्द नष्ट करने, समाप्त करने, इस्तेमाल कर लेने और खपा देने का पर्याय होता था। इसी कारण वह क्षय रोग का भी द्योतक बन गया।
'उपभोक्ता' शब्द का प्रयोग भी इसी व्यापक अर्थ में सोलहवीं सदी से होने लगा। अठारहवीं सदी के मध्य से इसमें तब बदलाव दिखा जब पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के संदर्भ में इसका इस्तेमाल बाजार के बढ़ते वर्चस्व के तहत होने  लगा। जो भी हो, अप्रीतिकर निहितार्थ उन्नीसवीं सदी के आरंभ तक बने रहे। बीसवीं सदी के मध्य से 'उपभोग' और 'उपभोक्ता' शब्द आम बोलचाल में गए। तब से 'ग्राहक' या 'खरीदार' के लिए 'उपभोक्ता' शब्द का प्रयोग होने लगा।
यदि हम पीछे मुड़कर देखें तो पाएंगे कि उपभोग के इतिहास के दो कालखंडों में बांटा जा सकता है। पहले कालखंड का आरंभ सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दियों के दौरान होता है जब उपभोग एक महत्वपूर्ण तत्व के रूप में आता है। दूसरा कालखंड द्वितीय विश्वयुध्द के उपरांत आरंभ होता है जब उपभोक्ता समाज का वर्चस्व बढ़ता है।
आधुनिक उपभोक्ता समाज का उद्भव अमेरिका में हुआ। बाद में वह सारी दुनिया में फैला। अमेरिका ने अपने यहां पनपे उपभोक्ता समाज के मॉडल को शीतयुध्द के दौरान पश्चिमी यूरोपीय देशों को निर्यात कर उसे अपनाने पर बल दिया। कहा गया कि वही विकास के सोवियत मॉडल का एकमात्र प्रभावकारी विकल्प है। सोवियत मॉडल में अपरिग्रह और समानता पर जोर था जबकि उपभोक्ता समाज का अमेरिकी मॉडल रेखांकित करता है कि उपभोग को बढ़ावा दिया जाय जिससे वस्तुओं और सेवाओं की मांग बढेग़ी। उपभोग को बढ़ावा देने के लिए बेहतर वस्तुएं समाज में लाई जाएंगी। विज्ञापनों के जरिए संभावित उपभोक्ताओं को आकर्षित किया जाएगा।
उपर्युक्त अमेरिकी मॉडल के विषय में कहा गया कि वह 'समृध्द समाज' लाएगा। हर कोई अपनी उपभोक्तावादी पहचान प्राप्त करने की कोशिश करेगा। अमेरिका को ध्यान में रखकर कहा गया कि वह इसी के जरिए विकास के मार्ग पर अग्रसर हुआ है।
द्वितीय विश्वयुध्द के उपरांत, विशेषकर 1950 और 1960 के दशकाें के दौरान, उपभोक्ता समाज पर कोई उंगली नहीं उठाई गई। उसको लेकर जरूर बहस चली कि वह किस हद तक जनहित में है। एक तरफ डब्लू.डब्लू. रोस्टोवा ने कहा कि वह चयन की आजादी को बढ़ावा दे मुक्त समाज को मजबूत करेगा वहीं गालब्रेथ और वांस पैकार्ड जैसों ने इसका विरोध किया कि इससे कृत्रिम आवश्यकताएं पनपेंगी और सार्वजनिक जीवन में घटिया किस्म का व्यक्तिवाद बढेग़ा।
नील मैकेंद्रिक ने पाया कि अठारहवीं सदी में इंग्लैंड द्वारा भी ऐसे दावे किए गए थे। उनके अनुसार इस मॉडल के साथ जुडे अवयव जैसे चयन, बाजार, फैशन और स्वनिर्णयगत आय में वृध्दि देखने को मिले। औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप उत्पादन नवनिर्मित कारखानों में मशीनों और व्यापक श्रम-विभाजन एवं विशेषीकरण के आधार पर होने लगा था। रोशनी और ऊर्जा के नए  स्रोतों के उपलब्ध होने से उत्पादन की प्रक्रिया बेरोक-टोक चलने लगी। मैकेंद्रिक ने इस कारण-कार्य को उलट दिया और कहा कि उत्पादन के स्वरूप के व्यापक बनने के पीछे उपभोग का व्यापक होना था। औद्योगिक क्रांति होने के पहले ही चाय, सूती कपड़ों, चीनी मिट्टी के बर्तनों आदि का उपयोग बड़े पैमाने पर होने लगा था। फैशन से जुड़ी पत्रिकाओं और विपणन की रणनीतियों की अहम् भूमिका थी। यह निष्कर्ष रखा गया कि 'उपभोग क्रांति' ने 'औद्योगिक क्रांति' को जन्म दिया।
कई इतिहासकारों ने 'उपभोक्ता समाज' को पीछे ढकेलने के प्रयास आरंभ किए। पुनर्जागरण से जुडे लोगों ने उपभोक्ता क्रांति के चिन्ह और लक्षण इटली में ढूंढने की कोशिश की। वस्तुओें की नीलामी, वायदा खरीद, और निजी स्रोतों से मिलने वाले ऋणों की भरपूर उपलब्धि ने उपभोग को बढ़ाया। अप्रैल 2012 में प्रकाशित क्लेयर हाल्वेरन की पुस्तक 'शापिंग इन एशियंट रोम' में प्राचीन रोम के उपभोक्ता समाज की एक झलक देखने को मिलती है।
शीतयुध्द समाप्त होने के दो दशक बाद समाज विज्ञानियों ने पूर्वाग्रह त्याग उपभोक्ता समाज पर नए सिरे विचार आरंभ किया है। उन्होंने उपभोक्ता समाज को बनाए रखने और आगे बढ़ाने से जुड़े अनेक नए प्रश्नों की ओर अपना ध्यान दिया। आर्थिक संवृध्दि की सीमाओं तथा पर्यावरण को लेकर चिंताएं व्यक्त की जाने लगीं।
वर्तमान उपभोक्ता समाज का मॉडल अमेरिका में तैयार कर अन्यत्र निर्यात किया गया जिससे सोवियत संघ के प्रति बढ़ते आकर्षण से निबटा जा सके। स्पष्टतया  'उपभोक्तावाद' और 'अमेरिकीकरण' परस्पर पर्याय बन गए। कई लोग उपभोक्ता समाज के अमेरिकी मॉडल के निर्यात को अन्य देशों पर अमेरिकी वैचारिक आक्रमण के रूप में लेते हैं। परिणामस्वरूप अन्य देशों की अपनी परंपराओं, जीवन शैलियों तथा सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों की अपूरणीय क्षति हुई है।
स्पष्टतया, उपभोग केवल आवश्यकताओं को ही संतुष्ट नहीं करता बल्कि उपभोक्ता विशेष की सामाजिक-शक्ति और स्थिति को भी रेखांकित करता है। इसी से प्रदर्शन उपभोग की परिघटना आई है जिसे पहले पहल थोर्स्टीन वेबलेन ने उन्नीसवीं सदी के अंत में विस्तार से रखा। आगे चलकर उपभोग को सामाजिक विभेदीकरण और असमानता का जनक माना गया। ऐसी वस्तुओं और सेवाओं के उपभोग की ओर लोग उन्मुख हुए जिससे समाज के अन्य सदस्यों और वर्गों पर उनका रौब जमे और वे अपने को श्रेष्ठतर दिखा सकें। इस कारण वस्तुओं और सेवाओं का उपभोग उनके 'प्रतीक मूल्यों' के वजह से भी होने लगा।
इन उपभोक्ताओं के मुकाबले आने की ललक समाज के निचले पायदानों पर बैठे लोगों में भी जगी। इससे उपभोक्ता संस्कृति को बढ़ावा मिला और 'उपभोक्तावाद' की परिघटना का जन्म  हुआ। अलग-अलग जगह इस होड़ की अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न रूपों में देखी गई।  कई जगह उच्चतर हैसियत वालों ने बड़ी गाड़ियां खरीदने और उनपर ऐसे नम्बर लगवाने की होड़ अन्य लोगों में दिखी जिससे सड़क पर निकलते ही आम लोगों को आकर्षित करे। इन आकर्षक नम्बरों को प्राप्त करने के लिए राजनीतिक दबाव और रिश्वत का सहारा लिया गया। कतिपय देशों में इस प्रवृत्ति को भोंडा करार देने वाले भी देखे गए। वहां परंपरागत समृध्द लोगों ने नवधनाढयों से अपने को अलग करने के प्रयास किए।
औद्योगिक क्रांति के बाद वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन तेजी से बढ़ा। उत्पादकों ने खरीदारों की संख्या बढ़ाने के लिए विज्ञापन का सहारा विभिन्न रूपों में लिया। पत्र-पत्रिकाओं, प्रदर्शनियाें फिल्मों, नाटकों, रेडियो, टेलीविजन एवं व्यक्तिगत संदेशों के जरिये संभावित ग्राहकों को आकर्षित करने की मुहिम देखी गई। संभावित ग्राहकों के मानस को इस प्रकार प्रभावित किया जाने लगा कि वे आवश्यकता हो या हो, वे वस्तु विशेष को प्राप्त करने के लिए ललकें। वस्तु के गुणों को बढ़ा-चढ़ाकर विज्ञापित किया जाने लगा। प्रतिस्पर्धा इतनी बढ़ गई कि वे एक-दूसरे की वस्तुओं से बेहतर बताने की कोशिश करने लगे। छद्म आवश्यकताओं का सृजन किया गया।  कालक्रम में एक 'संस्कृति उद्योग' पनपा जिसने उपभोक्तावाद को नए आयाम दिए। उसने महिलाओें की ओर विशेष ध्यान दिए और यह बतलाने की कोशिश की गई कि वे उपभोक्तावाद के जरिए अपनी एक अलग पहचान बना सकती हैं।
उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों के दौरान महिलाएं खदीदार के रूप में सामने आईं। पेरिस के बॉन मार्च और लंदन के सेलफ्रिजेज जैसे डिपार्टमेंट स्टोर्स ने महिला खदीदारों को आकर्षित करने के विशेष प्रयास किए।
अल्फे्रड मार्शल ने उपभाग की कल्पना एक सीढ़ी के रूप में की थी जिसमें हर निचला पायदान आदतों और इच्छाओं से प्रेरित होकर अगले पायदानों की ओर ले जाता है। विलियम स्टेनले जेवंस ने 1870 के दशक के दौरान उपभोग को मूल्य-सृजन की प्रक्रिया के केंद्र में रखा और व्यक्तिगत चयन पर जोर दिया। उन्होंने माना कि उपभोग बर्बाद करने की प्रक्रिया का पर्याय है। उपभोग के परिणामस्वरूप वस्तु का अस्तित्व समाप्त हो जाता है।
पिछले कुछ दशकों के दौरान ही उपयोग के अध्ययन के क्रम में सांस्कृतिक, भूमंडलीय, और भौतिक इतिहास से जुड़े आयामों का समावेश हुआ है। हाल के वर्षों के दौरान समृध्दि और उपभोग पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर विशेष चर्चाएं हो रही हैं। कई लोग उपभोग के वर्तमानस्वरूप को समृध्दि जन्म बीमारियों के रूप में देखते हैं।  मोटापा, मधुमेह, हृदयरोग आदि को इनमें शामिल किया जाने लगा है।
बीसवीं सदी के उत्तरार्ध से उपभोग को हेराफेरी, चालबाजी, निजता, अविरोध, असंगति और कष्ट से उसके जुड़ाव को रेखांकित किया गया है। जबकि पहले उसे सर्जनात्मकता, निजी शैली और आकर्षक नवीनता और आनंद को प्रतीक माना जाता रहा।
द्वितीय विश्वयुध्द के उपरांत उपभोग की वस्तुओं में विविधता घटी।  विज्ञापनों, फिल्मों, टे्रडमार्क वाली वस्तुओं का प्रचार-प्रसार हुआ। यदि हम अपने आसपास नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि मैक्स वेबर के जमाने का मितव्ययी, अनुशासित और सादा जीवन बिताने वाले कबके विदा हो चुके हैं। उनकी जगह जो उपभोक्ता आए हैं उनका जोर वस्तुओं के इस्तेमाल से अपनी शान-शौकत, सामाजिक हैसियत और आर्थिक स्थिति के प्रदर्शन पर वही अधिक हैं। वे अपने को समाज के अन्य लोगों से अलग दिखलाने की पुरजोर कोशिश करते हैं। अब उत्पादक के बदले उपभोक्ता समाज का केन्द्रबिंदु बन गया है। खाद्य पदार्थ अब सिर्फ कैलोरी के आधार पर ही नहीं देखे जाते हैं। उनके प्रतिष्ठा और प्रतीक मूल्यों पर भी ध्यान दिया जाता है। कहना होगा कि वर्ग आधारित समाज में उपभोग हाशिए से निकलकर उसकी नींव के रूप में प्रतिष्ठित हुआ है। महिलाओं का महत्व उपभोग की प्रक्रिया के आयोजन और संचालन की दृष्टि से अहम् हो गया है।

नेहरू-इंदिरा के जमाने की तुलना में भारत का वर्तमान उपभोक्ता व्यय करने तथा तड़क-भड़क से रहने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखला रहा। शहरी समाज में बचत पर पहले जितना जोर नहीं है। क्रेडिट कार्ड ने शहरी उपभोक्ता को वर्तमान आय और उसके आधार पर ऋण लेने की क्षमता के घेरे से बाहर ला दिया है। शहर का नवोदित मध्यवर्गीय व्यक्ति एक से अधिक क्रेडिट कार्ड रखने लगा है।

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

बोझ से चरमराती व्यवस्था

आज दुनिया की आबादी सात अरब को पार कर चुकी है और सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि इसमें बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है। गौरतलब है कि साठ के दशक के आखिरी वर्षों में सालाना वैश्विक जनसंख्या वृद्धि दर 2$1 फीसदी थी जो 2011 में 1.2 फीसदी हो गई है। अभी वैश्विक आबादी में हर साल 8 से 9 करोड़ की वृद्धि हो रही है। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि भविष्य में कुछ बड़े अफ्रीकी और दक्षिण एशियाई देश ही वैश्विक आबादी को तेजी से बढ़ायेंगे। इसमें खासतौर से भारत शामिल है।

जहां तक भारत का सवाल है, भारत दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला दूसरा देश है। आने वाले 10-12 वर्षों में भारत चीन से भी आगे निकल जायेगा। यही नहीं, जैसे कि आशंका है वर्ष 2060 में भारत की आबादी 1.7 अरब तक पहुंच जायेगी। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार अगले चार दशक के दौरान भारत और चीन की शहरी आबादी में सबसे बड़ी बढ़ोतरी दर्ज की जायेगी। खासकर भारत के शहर बेतहाशा बढ़ती आबादी से बर्बाद हो जायेंगे। इससे इनके सामने अपने लोगों को नौकरी, घर, बिजली और बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने की चुनौती होगी। वर्ष 2010 से लेकर 2050 तक भारत में 49.7 करोड़ और अधिक शहरी आबादी जुड़ जायेगी। देखा जाये तो अफ्रीका और एशिया इसी समयावधि के दौरान वैश्विक शहरीकरण के मामले में जनसंख्या वृद्धि में सबसे आगे होंगे। इनमें भारत के साथ चीन, अमेरिका, नाइजीरिया और इंडोनेशिया प्रमुख होंगे जहां जनसंख्या वृद्धि में भारी बढ़ोतरी दर्ज की जायेगी।

संयुक्त राष्ट्र के तहत इस बीच नाइजीरिया में 20 करोड़, अमेरिका में 10.3 करोड़ और इंडोनेशिया में 9.2 करोड़ और लोग शहरों में रहने लगेंगे। यही नहीं, भारत और इंडोनेशिया में शहरी आबादी में वृद्धि का अनुमान पिछले 40 सालों की तुलना में अधिक होगा। यह प्रवृत्ति विशेषकर नाइजीरिया की दृष्टि से काफी मायने रखती है, जहां पर शहरी जनसंख्या वर्ष 1970 और 2010 के बीच केवल 6.5 करोड़ ही बढ़ी। लेकिन 2010 और 2050 के बीच इसमें 20 करोड़  की वृद्धि की संभावना जतायी जा रही है। इसके तहत दुनिया के सभी देशों में वृद्धि के मामले में नाइजीरिया का तीसरा स्थान होगा।

गौरतलब है कि वर्ष 2001 की तुलना में वर्ष 2011 में भारत की आबादी में 18 करोड़ की बढ़ोतरी दर्ज की गई। इसमें ग्रामीण आबादी के मुकाबले शहरी आबादी में अपेक्षाकृत बढ़ोतरी अधिक हुई। इसका एक कारण यह भी रहा कि वर्ष 2001 में 2500 के करीब मलिन बस्तियां जो ग्रामीण क्षेत्र में आती थीं, को 2011 में शहरी क्षेत्र में शामिल कर लिया गया। जहां तक शहरी आबादी में बढ़ोतरी का सवाल है, खासकर राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ के अलावा अन्य राज्यों में ग्रामीण जनसंख्या वृद्धि दर में तेजी से गिरावट दर्ज की गई है। वर्ष 2011 की जनगणना से यह साफ हो गया है कि 27 भारतीय राज्यों में मौजूदा दशक में ग्रामीण आबादी में तेजी से गिरावट आने की आशंका व्यक्त की जा रही है। इसे यदि जनसांख्यिकीय बदलाव की संज्ञा दें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। देखा जाये तो वर्ष 2001 से ही गोवा, केरल, नागालैंड और सिक्किम में ग्रामीण आबादी में गिरावट आने के संकेत मिलने शुरू हो गए थे जबकि आंध्र प्रदेश एक ऐसा राज्य था जहां ग्रामीण आबादी स्थिर है। जबकि पंजाब और पश्चिम बंगाल दो ऐसे राज्य रहे जहां ग्रामीण आबादी में तेजी से गिरावट आयी। इस दौरान जहां पंजाब में ग्रामीण आबादी में 12 लाख की बढ़ोतरी हुई, वहीं शहरी क्षेत्रों में 21 लाख की बढ़ोतरी दर्ज की गई जबकि पश्चिम बंगाल में जहां ग्रामीण आबादी में 44 लाख की बढ़ोतरी हुई, वहीं शहरी आबादी तकरीबन 67 लाख के पार जा पहुंची। यही नहीं, तटीय राज्य भी इस संक्रमण से अछूते नहीं रह सके।

गौरतलब है कि देश की आबादी में युवाओं की अधिक संख्या का उस देश की अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है क्योंकि अकसर 15 से 55 साल की कामकाजी उम्र को फायदेमंद माना जाता है। मौजूदा दौर में भारत में कुल कामकाजी आबादी में अधिकांशत:15 से 34 साल के युवा हैं। इससे साबित होता है कि भारत के पास अर्थव्यवस्था के मामले में अन्य देशों के मुकाबले तीव्र गति से विकास करने की क्षमता है।

असल में यह तभी संभव है जब हम मौजूदा चुनौतियों का सामना कर पाने में सक्षम हों। इसके अभाव में भारत अपने जनसांख्यिकीय लाभांश को भुनाने में नाकाम रहा है। इसमें दो राय नहीं है। जहां तक चुनौतियों का सवाल है, इनमें जनसंख्या नियोजन की नीतियों का कारगर न होना, अनियोजित गर्भधारण और अवांछित प्रजनन प्रमुख हैं।


इसके विपरीत दुनिया के ज्यादातर विकासवादी मॉडल यह दर्शाते हैं कि देश को गरीबी से छुटकारा शहरीकरण के माध्यम से ही मिल सकता है। समय की मांग है कि अब देश हित को मद्देनजर रखते हुए अपनी प्राथमिकताओं का फिर से निर्धारण किया जाये। इसमें उस दशा में ही सफलता की आशा की जा सकती है जबकि उन सरकारी स्कूलों और कालेजों में जहां गरीब व ग्रामीण छात्र पढ़ते हैं, में निवेश बढ़ाया जाये। यह सब देश के नीति-नियंताओं और उनसे जुड़े सगठनों-विभागों द्वारा समय पर अहम व सकारात्मक कदम न उठाये जाने का ही नतीजा है। अब यदि 12वीं पंचवर्षीय योजना में इस बाबत कदम उठाये जाते हैं तो निश्चित तौर पर देश की दशा-दिशा में बदलाव की उम्मीद की जा सकती है अन्यथा नहीं। इसमें दो राय नहीं है। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता।

पेटेंट व्यवस्था में बदलाव जरूरी

भारतीय मूल के सत्यानडेला को माइक्रोसाफ्ट कम्पनी का मुख्य अधिकारी नियुक्त किया गया है। यह प्रसन्नता का विषय है। माइक्रोसाफ्ट कम्पनी साफ्टवेयर को पेटेंट संरक्षण दिलाने में अग्रणी है। यह कम्पनी साफ्टवेयर पर अपना एकाधिकार बनाना चाहती है। माइक्रोसाफ्ट जैसी साफ्टवेयर कम्पनियों द्वारा बिजनेस साफ्टवेयर अलायन्स की स्थापना की गई है। इस संगठन का कहना है कि साफ्टवेयर की तस्करी से कम्पनियों को प्रतिवर्ष 11 अरब डालर का नुकसान लग रहा है। सरकार भी दो अरब डालर के राजस्व से वंचित हो रही है। इसी प्रकार के तर्क अमरीका जैसे अमीर देशों की सरकारें देती आई हैं। इन सभी का कहना है कि तस्करी रोकने से साफ्टवेयर कम्पनियों को लाभ अधिक होगा, वे नये उत्पादों के सृजन में निवेश कर सकेंगे और जनता को नये उत्पाद हासिल होंगे जिनके उपयोग से उनका कल्याण हासिल होगा। जैसे माइक्रोसाफ्ट ने विंडोज् एक्सपी बनाया। इसके उपयोग से करोड़ों लोग रिसर्च, लेखन, मूवी बनाना इत्यादि कर रहे हैं। यदि माइक्रोसाफ्ट के शुरुआती विंडोज् 93 की तस्करी होती तो कम्पनी को लाभ न्यून होते और विन्डोज्  एक्सपी का ईजाद नहीं हो पाता। तब करोड़ों लोगों को घटिया विन्डोज् 93 साफ्टवेयर से काम करना पड़ता और उनका कल्याण बाधित होता।

इस तर्क में आंशिक सत्य है। सच यह है कि सृजन पर कम्पनियों का एकाधिकार नहीं होता है। सामान्यजन भी सृजन करते हैं। विन्डोज् ा की तरह मुफ्त मिलने वाला एक साफ्टवेयर है जिसका नाम है लाइनक्स। इसे ओपन सोर्स कहा जाता है। कोई भी व्यक्ति इस साफ्टवेयर को इंटरनेट से डाउनलोड करके इसका उपयोग कर सकता है। इस साफ्टवेयर का आंतरिक प्रोग्राम ओपन यानि सर्वोपलब्ध होता है। व्यक्ति इसके प्रोग्राम में अपनी जरूरत के अनुसार परिवर्तन कर सकता है। साफ्टवेयर इंजीनियरों द्वारा लाइनक्स का ही उपयोग अधिक किया जाता है। लाइनक्स में वे अपनी जरूरत के अनुसार परिवर्तन कर सकते हैं। जैसे यदि आप चाहें कि विन्डोज् ा द्वारा एक फोल्डर में से फाइलों को छांटकर कापी किया जाए तो आप ऐसा परिवर्तन स्वयं नहीं कर सकते हैं। जबकि लाइनक्स में आप ऐसा प्रोग्राम जोड़ सकते हैं। आज लाइनक्स उपयोग करने वालों का एक विशाल अंतरराष्ट्रीय समुदाय बन गया है। ये लोग लाइनक्स के प्रोग्राम में सुधार करते हैं और एक-दूसरे को मुफ्त उपलब्ध कराते हैं।

प्रथम दृष्टया प्रतीत होता है कि पेटेंटीकरण से सृजन में तीव्रता आती है। जैसे विन्डोज् ा के 93, 95, 97, एक्सपी प्रोग्राम लगभग 2-2 वर्ष के अंतराल से बाजार में आये और प्रत्येक प्रोग्राम पिछले से उन्नत था। इतनी तीव्रता से लाइनक्स में सृजन नहीं हुआ प्रतीत होता है। परन्तु विन्डोज् ा एक्सपी के बाद माइक्रोसाफ्ट द्वारा सृजन में ठहराव आ गया है। विन्डोज् ा 7, विस्टा एवं 8 में विशेष सुधार नहीं हुआ है और ये प्रोग्राम बाजार में पिट गये हैं। ऐसे में पेटेंट जनकल्याण के लिये पूर्णतया हानिप्रद हैं। माइक्रोसाफ्ट स्वयं विन्डोज में सुधार नहीं कर पा रही है और पेटेंटीकृत होने के कारण दूसरे लोग भी इसमें सुधार नहीं कर पा रहे हैं।

ओपन सोर्स से सृजन धीमा हो तो भी पेटेंट के पक्ष में तर्र्क स्थापित नहीं होता है। अंतिम कसौटी जनकल्याण की है। हमें ज्ञात है कि विन्डोज़ 93 से एक्सपी तक पहुंचने में मइोसाफ्ट को लगभग 10 वर्ष लगे थे। मान लीजिये कि पेटेंट के अभाव में इसी सृजन में 25 वर्ष लगते। 15 वर्ष तक जनकल्याण से जनता वंचित हो जाती। परन्तु इन्हीं 15 वर्षों में विन्डोज् ा 93 का बड़े पैमाने पर फैलाव होता चूंकि वह मुफ्त रहता। अत: विषय बनता है केन्द्रीकरण बनाम फैलाव का। पेटेंट व्यवस्था में कम संख्या में लोगों को उत्तम उत्पाद शीघ्र मिल जाता है। अरबों लोग वंचित रहें परन्तु कुछ को बहुत कुछ उपलब्ध हुआ जैसे सपाट मैदान में कुतुबमीनार खड़ी है।  इसके विपरीत ओपन व्यवस्था राजघाट स्थित गांधीजी की समाधि जैसी होती है। इसमें फैलाव यादा होता है। जनकल्याण का मापदण्ड 'जन' यानि आम जनता है। इनका कल्याण तो ओपन साफ्टवेयर से ही हासिल होगा।

मेरे आकलन में साफ्टवेयर की नकल से जनकल्याण यादा हासिल होता है चूंकि सृजनात्मक प्रयासों का फैलाव होता है। यही बात हार्डवेयर पर लागू होती है। आज भारत में मदरबोर्ड की मरम्मत की जाती है। दूसरे देशों में इसका ज्ञान नहीं है। सर्वर जैसे उपकरण विकासशील देशों में सस्ते बनाए जा सकते हैं। इस प्रकार के तमाम सुधारों से आज समाज वंचित है। अत: वर्तमान पेटेंट व्यवस्था में बदलाव जरूरी है।

प्रश्न उठता है कि लाइनक्स जैसे ओपन साफ्टवेयर का अधिक उपयोग क्यों नहीं हो रहा है? यदि यह मुफ्त है और इसमें सुधार किया जा सकता है तो लोग इसका उपयोग क्यों नहीं कर रहे हैं? यह प्रश्न डॉक्टर और मरीज जैसा है। डॉक्टर के पास जानकारी होती है कि बीपी का नाप कैसे किया जाए। वह सस्ते परन्तु जटिल मरक्यूरी के उपकरण का उपयोग कर सकता है। परन्तु सामान्य नागरिक के लिए इलेक्ट्रानिक मशीन ही सुलभ होती है। इसी प्रकार साफ्टवेयर इंजीनियर मुफ्त लाइनक्स का उपयोग कर पाते हैं जबकि सामान्य नागरिक को विन्डोज् माफिक पड़ता है।
अर्थ हुआ कि सामान्य नागरिक तक उन्नत तकनीक को पहुंचाने का कार्य कम्पनियों द्वारा किया जा सकता है। इस मात्र के लिए पेटेंट संरक्षण देना चाहिए। लेकिन संरक्षण का यह उचित स्तर क्या हो इसे निर्धारित करना कठिन है। इसलिए सुझाव है कि पेटेंट कानून को डब्लूटीओ से बाहर कर देना चाहिए। बौध्दिक सम्पदा की नकल करने का अधिकार देना या न देना यह देशों के विवेक पर छोड़ देना चाहिए। कुछ देश पेटेंट अपनायेंगे। इनसे इन हाउस सृजन एवं तकनीकों का सरलीकरण होगा। दूसरे देश नकल करने की स्वीकृति देंगे। इससे तकनीकों का विस्तार एवं उत्पादों का फैलाव होगा। दोनों के सम्मिलित प्रभाव से वैश्विक स्तर पर जनकल्याण हासिल होगा।


सत्या नडेला ने कहा है कि वे नये उत्पादों को बनाने पर विशेष ध्यान देंगे। इस भावना का स्वागत करना चाहिए। परन्तु नये उत्पादों को बनाने का उद्देश्य क्या है? उद्देश्य इसे सस्ते में बेचकर और इसकी नकल करने की छूट देकर इन उत्पादों का फैलाव करना और जनहित हासिल करना है अथवा उद्देश्य इनपर पेटेंट कानून का शिकंजा कसकर जनता को महंगा माल बेचकर लाभ कमाना है और जनता को इनमें सुधार करने से वंचित करना है। नडेला जैसे भारतीय अप्रवासियों के लिये विदेशों में ऊंचे पद पर पहुंचना छोटी चुनौती है। बड़ी चुनौती मेजबान देश की आसुरी संस्कृति को तोड़कर नई दैवी संस्कृति को स्थापित करना है। नडेला जिस कम्पनी के मुख्याधिकारी बने हैं उसका अभी तक का चरित्र आसुरी रहा है। माइक्रोसाफ्ट ने नये उत्पाद बनाए हैं और सूचना क्रान्ति लाई है परन्तु साथ-साथ इस क्रान्ति पर कम्पनी का शिकंजा कसे रखने का भी प्रयास किया है। माइक्रोसाफ्ट के चरित्र का परिवर्तन करना ही नडेला की चुनौती है।  

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