सोमवार, 14 अक्टूबर 2013

नदियों में मूर्ति विसर्जन

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला देते हुए गंगा-यमुना में मूर्ति विसर्जन की इजाज़त देने से इन्कार कर दिया है। अदालत ने प्रशासन के उस सुझाव को मानने से भी इन्कार कर दिया है कि मूर्तियों को विसर्जन के बाद निकाल लिया जाए। गंगा प्रदूषण जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति अरुण टंडन की खंडपीठ ने अपने फैसले में प्रशासनिक लापरवाही के प्रति नाराजगी जताते हुए अदालत ने कहा कि साल भर पहले आदेश देने के बावजूद अगर अधिकारी सोते रहे तो अब जनता का गुस्सा भी भुगतें। गौरतलब है कि हाईकोर्ट ने नौ अक्तूबर 2012 को ही गंगा-यमुना में दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन पर रोक लगा दी थी। मगर पिछले साल प्रशासन के पास कोई वैकल्पिक प्रबंध नहीं था, इसलिए इस शर्त के साथ विसर्जन की अनुमति दी गई कि मूर्तियों के साथ फूल-माला, कास्मेटिक कपड़े और रंग आदि प्रवाहित नहीं किए जाएंगे। कोर्ट ने विसर्जन से पूर्व और बाद में प्रदूषण का तुलनात्मक अध्ययन करके रिपोर्ट भी मांगी थी। छह नवंबर 2012 को प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने रिपोर्ट दी कि विसर्जन के बाद प्रदूषण की मात्रा कई गुना बढ़ जाती है। इसके बाद से हाईकोर्ट ने मूर्ति विसर्जन पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाते हुए प्रशासन को वैकल्पिक तौर पर झील या तालाब विकसित करने का निर्देश दिया था।
यह विडंबना है कि अपने पर्यावरण, नदियों-तालाबों को संरक्षित रखने की जिम्मेदारी निभाने के लिए भी समाज को अदालती आदेश की बाट जोहनी पड़ रही है। भारत औद्योगिक तरक्की में इतना आत्ममुग्ध हो गया कि उसे यह तक नजर नहींआया कि कैसे उसका पर्यावरण, प्राकृतिक सौंदर्य, नदी, झीलें, तालाब नष्ट होते जा रहे हैं। हर वर्ष गर्मी देश के बड़े हिस्से में पानी के लिए हाहाकार मचता है, एक-एक बूंद के लिए तरसने की स्थिति बनती है, दूसरी ओर बारिश के मौसम में बाढ़ की स्थिति बन जाती है, गांव के गांव डूबते हैं, शहरों के कई इलाके जलमग्न हो जाते हैं। ऐसा क्यों होता है, इसका कारण अब बच्चा-बच्चा जानता है। हर साल पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। स्कूलों, कालेजों, संस्थाओं में पर्यावरण के प्रति जागरूकता फैलाने का उपक्रम किया जाता है और बताया जाता है कि नदियां हमारी जीवनरेखा है, वर्षा की हर बूंद सहेजना चाहिए, पानी व्यर्थ नहींबहाना चाहिए, तीसरा विश्वयुध्द अगर होगा, तो पानी के लिए होगा। सार्वजनिक नल पर पानी भरने के लिए लड़ती महिलाओं के लिए पानीपत का युध्द जैसे व्यंग्यात्मक जुमले भी खूब जड़े जाते हैं। लेकिन इस बतकही से ऊपर उठकर जल संरक्षण, नदी-तालाबों की धरोहरों को संभालने का काम व्यवहार में कैसे किया जाए, इस ओर कोई ठोस कदम समाज की ओर से उठाया जाए, ऐसा बहुत कम होता है।
औद्योगिक कचरे से नदी-तालाबों-झीलों का कितना नुकसान हुआ है, इसका विश्लेषण करें तो बेहद भयावह और बहुत हद तक दर्दनाक तस्वीर हमारे सामने आती है कि किस क्रूरता से हम जल के स्वाभाविक स्रोतों को बर्बाद कर रहे हैं। इमारतें खड़ी करने के लिए तालाबों को पाट दिया गया। बावड़ियों-कुओं को पानी की जगह कचरे से भर दिया। नदियों में अविचारित तरीके से अपशिष्ट पदार्थों का निकासी स्थल बनाकर जल को जहरीला बना दिया। अधजली लाशों को नदी में बहाकर हम यह मान रहे हैं कि इससे आत्मा का उध्दार होगा। जो प्रत्यक्ष नहींहै, उसके कल्याण की चिंता है और जो सामने नष्ट हो रहा है, उसकी ओर से हमने आंखें मूंद ली। फूल-मालाएं, पूजन सामग्री के साथ-साथ मूर्तियों के विर्सजन की सदियों से परंपरा चली आ रही है। लेकिन इस ओर ध्यान नहींदिया गया कि पहले मूर्तियों में रासायनिक रंग और पदार्थ प्रयुक्त नहींहोते थे, जो जल को दूषित करते हैं। पहले धार्मिक कार्यों में आडंबर कम और आस्था अधिक होती थी। अब तो आडंबर का ही बोलबाला है। जनसंख्या बढ़ने के साथ-साथ धार्मिक गतिविधियों में भी बढ़ोत्तरी हुई और आडंबर में भी। धर्म का ऐसा बोझ उठाते-उठाते हमारी नदियों का दम टूट रहा है, लेकिन उस ओर न समाज अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है, न सरकारें। समाज हमेशा इस इंतजार में रहता है कि उसके कल्याण के लिए सरकार ही काम करेगी और अगर न करे तो वह उसकी निंदा करेगा। उधर सरकारें कोई भी कड़ा कदम उठाने से पहले यह निश्चित कर लेना चाहता है कि उसका मतदाता नाराज न हो। ऐसे में सदियों से चली आ रही परंपरा को बदलने का साहस कोई नहींदिखाना चाहता। लेकिन अब वक्त आ गया है कि इस परंपरा को बदला जाए, वर्ना परंपरा निभाने के लिए न नदियां बचेंगी, न इंसान। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गंगा-यमुना के प्रदूषण को रोकने के लिए जो आदेश दिया है, उसे समूचे देश में स्वेच्छा से अपनाया जाए, तो धर्म और पर्यावरण दोनों का भला होगा!

देशबन्धु



तभी अपराध मुक्त होगी राजनीति

राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ जारी अभियान अपने निर्णायक मोड़ पर है, लेकिन इसे अभी खत्म नहीं माना जा सकता। तब तो और नहीं, जब हमारे संसदीय लोकतंत्र की नैतिकता में लगातार गिरावट की चिंता स्पष्ट है और इस पर सार्वजनिक तौर पर चर्चा भी हो रही है। इस दिशा में सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला 10 जुलाई, 2013 को आया, जिसमें देश की सबसे बड़ी अदालत ने जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 (4) को निरस्त कर दिया। इसके तहत किसी भी मामले में दोषी और कम से कम दो साल की सजा पाए सांसद या विधायक की सदस्यता खत्म हो जाएगी। साथ ही, वह छह साल तक चुनाव लड़ने के अयोग्य होगा। इस फैसले के प्रभाव को खत्म करने के लिए केंद्र सरकार एक अध्यादेश लेकर आई थी, पर उसे भी वापस लेना पड़ा। यह इस बात का संकेत है कि जनाक्रोश को नजर अंदाज करने का बहाना करने वाली संस्थाओं ने सबक सीखना शुरू कर दिया है। अदालत के हालिया फैसलों की मीडिया और नागरिक समूहों ने भी यह कहते हुए सराहना की है कि राजनीति से अपराधियों को बाहर रखने में ये अग्रणी भूमिका निभाएंगे।

हालांकि इन फैसलों पर राजनीतिक वर्ग की प्रतिक्रिया बेहद सधी हुई थी; वे नहीं चाहते कि उन्हें अपराधियों के समर्थक के तौर पर देखा जाए। लेकिन वे यह नहीं मानते कि संसद स्वयं में संप्रभु न होकर देश के लोकतांत्रिक बुनियाद का एक खंभा भर है, जो संविधान द्वारा चालित होता है। वस्तुतः देश की वास्तविक संप्रभुता देश के नागरिकों को संविधान के जरिये प्रदान की गई है। और देश में चुनाव सुधारों की दिशा में उठे कदम उस संविधान की सर्वोच्चता को ही साबित करते हैं, जो जनता को सर्वोच्च मानता है।

इसी संदर्भ में पब्लिक इंटरेस्ट फाउंडेशन (पीआईएफ) और नागरिक समाज से जुड़ी अन्य संस्थाओं ने 2011 में एक जनहित याचिका दाखिल करके चार प्रमुख सिफारिशें कीं। पहला, गंभीर आपराधिक मामलों में आरोपी संसद और राज्य विधानमंडलों के चुनाव न लड़ सकें, यह सुनिश्चित करने के लिए दिशानिर्देश जारी किए जाएं। दूसरा, जघन्य मामलों में आरोपी जनप्रतिनिधियों के मुकदमों की सुनवाई अधिकतम छह महीने में पूरी हो जाए। तीसरा, गंभीर मामलों के आरोपियों को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए कानून बनाने के लिए सरकार को निर्देश दिया जाए। और चौथा, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 (4) के प्रावधानों को असांविधानिक घोषित किया जाए। सर्वोच्च न्यायालय ने शुरू की तीन सिफारिशों पर तो अभी कुछ कहा नहीं है, पर आखिरी सिफारिश उसने स्वीकार कर ली है।

ज्यादातर मामलों में दोषसिद्धि में देरी की मुख्य वजह न्यायालयों में भारी संख्या में मुकदमों का लंबित होना है। इसके अलावा आरोपी भी न्यायिक प्रक्रिया में देरी के लिए सुनियोजित कोशिश करते हैं। इसी वजह से अपराध कानून, 2013 में संशोधन से संबंधित न्यायमूर्ति वर्मा समिति की रिपोर्ट में यह सिफारिश की गई थी कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 (1) (ए) में संशोधन कर उसमें किए जाने वाले अपराधों को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), 1860 के तहत दंडनीय घोषित किया जाए।

जघन्य अपराधों के निर्धारण के लिए इस सिफारिश को तत्काल प्रभाव से स्वीकार करने की जरूरत है, जिससे पांच साल या उससे अधिक के कैद की सजा वाले प्रावधानों में न्यायालय द्वारा आरोप तय किए जाने की स्थिति में उम्मीदवार को अयोग्य घोषित किया जा सके। इसके लिए जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 (1), 8 (2) और 8 (3) में संशोधन की जरूरत होगी। गंभीर और जघन्य अपराधों में आरोपी उम्मीदवारों के मुकदमों को समयसीमा के भीतर निपटाने के लिए विशेष फास्ट ट्रैक अदालतें चलाने की जरूरत है। इससे फैसले का प्रभावी क्रियान्वयन संभव होगा। इस तरह की अदालतें उन लोगों के लिए सबक होंगी, जिनके खिलाफ आपराधिक मामले अदालतों में लंबित हैं। जाहिर है, मुकदमों के त्वरित गति से निपटने पर ऐसे लोगों के चुनावी मैदान में उतरने की संभावनाएं ध्वस्त हो जाएंगी।

ये फास्ट ट्रैक अदालतें जनप्रतिनिधियों के मुकदमों की सुनवाई के मामले में सक्षम होनी चाहिए, जिससे कि संसद और राज्य विधानमंडलों में अनिश्चय की स्थिति खत्म हो। मीडिया में इस तरह की खबरें आई हैं कि सरकार उस जनहित याचिका का समर्थन कर सकती है, जिसमें चुनावी राजनीति में अपराधियों को रोकने के प्रयास के तहत फास्ट ट्रैक अदालतों के गठन का अनुरोध किया गया है। इस याचिका की पिछली सुनवाई विगत 19 अगस्त को हुई थी, जिसमें न्यायालय ने कानून के जरिये राजनीति को अपराधियों से मुक्त रखने के प्रयास के रूप में केंद्र सरकार से ऐसे लोगों को चुनाव लड़ने से रोकने पर विचार करने के लिए कहा था, जिन पर हत्या और बलात्कार जैसे जघन्य आरोप हैं। यही सिफारिश चुनाव आयोग ने भी की है और अपनी 170वीं रिपोर्ट में विधि आयोग ने भी। इस मामले में आज फिर सुनवाई है।

आज देश के लोग लोकतांत्रिक संस्थाओं में नैतिकता और ईमानदारी की मांग कर रहे हैं। इसे देखते हुए विवश सरकार ने दागी जनप्रतनिधियों को बचाने से संबंधित अध्यादेश केंद्रीय कैबिनेट की मंजूरी के बावजूद वापस ले लिया। यह कदम भारतीय लोकतंत्र के संस्थानों में ज्यादा पारदर्शिता, जवाबदेही और लोकतंत्रीकरण हासिल करने की दिशा में एक नई शुरुआत है। पर इस अभियान की गति को बनाए रखना बहुत जरूरी है, क्योंकि अगर 2014 से पहले यह प्रभावी नहीं हुआ, तो आने वाले वर्षों में इसका फायदा नहीं मिल सकेगा। इसकी वजह यह है कि अगला लोकसभा चुनाव पांच साल बाद ही होगा।



नृपेंद्र मिश्र

साभारः अमर उजाला

दृष्टिबाधित लोगों का सशक्तिकरण

सदियों से दृष्टिबाधित लोग चलने फिरने के लिए लाठी का उपयोग करते रहे हैं लेकिन प्रथम विश्‍व युद्ध के बाद से वह सफेद रंग की छड़ी का उपयोग करते हैं। जेम्‍स बिग्‍स नामक फोटोग्राफर एक दुर्घटना में अपनी आंखें खो बैठे और उसके बाद 1921 में जब उन्‍हें अपने घर के आस-पास चलने में मुश्किलों का सामना करना पड़ा तो उन्‍होंने अपनी छड़ी को सफेद रंग से रंग दिया। दस वर्ष बाद फ्रांस में गुली द हरर्बेमोंट ने दृष्टिबाधित लोगों की सहायता के लिए एक सफेद रंग की छड़ी की शुरुआत की।

दुनिया भर में प्रतिवर्ष्‍ 15 अक्‍टूबर को 'सफेद छड़ी दिवस' मनाया जाता है। इसका उद्देश्‍य विश्‍व को दृष्टिहीनता के बारे में शिक्षित करना और यह बताना दृष्टिबाधित लोग अपना जीवन और कार्य किसी पर निर्भर हुए बिना स्‍वयं कर सकते हैं।

पिछले कुछ सालों में दृष्टिबाधित लोगों की मदद के लिए विभिन्‍न उपकरणों के शोध और उत्‍पादन के क्षेत्र में क्रांति आई है ताकि दृष्टिबाधित लोग चलने-फिरने, काम करने, पढ़ने और अपना जीवन बिना किसी सहारे के बिता सके। सूचना का प्रसार, गतिशीलता और कंप्यूटर तक पहुंच शोध के तीन प्रमुख क्षेत्र हैं।

सफेद छड़ी में भी कई बदलाव किए गए हैं। आजकल मोड़कर रखली जाने वाली और हल्‍की छडि़यां उपलब्‍ध हैं यहां तक कि संवेदकी लगे इलैक्‍ट्रॉनिक छडियां भी उपलब्‍ध हैं।

दृष्टिबाधित लोगों को कम्‍पयूटर के प्रति आकर्षित करने के लिए कई उपकरण विकसित किए गए हैं, जिनमें आवाज वाला सिंथेसाइजर्स, बातचीत करने वाला सॉफ्टवेयर और स्‍क्रीन मैग्निफायर, और ब्रेल लिपि की कीज़ शामिल हैं। भारत सरकार ने दृष्टिबाधित लोगों के सशक्तिकरण के लिए कई कदम उठाए गए हैं। उनकी मदद के लिए उपकरण विकसित किए हैं, ताकि उन्‍हें शिक्षा, रोजगार और गतिशील बनाने में आत्‍मनिर्भर बनाया जा सके।

निशक्‍त लोगों की सहायता के लिए उपकरण खरीदने/लगवाने की योजना एडीआईपी के जरिए उपकरणों को खरीदने के लिए वित्‍तीय सहायता दी जाती है। इस योजना के तहत विकलांग मामलों के विभाग द्वारा स्‍वयं सेवी संस्‍थाओं को टिकाउ, संवेदनशील और उच्‍च तकनीक वाले आई एस आई स्‍तर के उपकणों के लिए वित्‍तीय सहायता दी जाती है।

सरकार ने देश में दृष्टि बाधित लोगों को शिक्षा, रोजगार, चलने-फिरने और उन्‍हें आत्‍म  निर्भर बनाने की दिशा में कई कदम उठाए हैंजिनमें रोजाना के कार्यक्रमों तथा गतिविधियों में सहायक उपकरणों का विकास तथा उन्‍हें पहुंच के दायरे में लाना शामिल है।

शारीरिक रूप से विकलांग लोगों को ऐसे उपकरणों की खरीद के लिए वित्‍तीय सहायता उपलब्‍ध कराई जाती है। इस योजना के तहत विकलांग मामलों का मंत्रालय ऐसे बेहतर उपकरण उपलब्‍ध कराने के लिए विभिन्‍न गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) को अनुदान राशि देता है। इन विकलांग लोगों की श्रेणी में दृष्टि बाधित विकलांग भी है। इस योजना में सहायता राशि तथा आय की सीमा को भी ध्‍यान में रखा जाता है। जिन व्‍यक्तियों की मासिक आयु 6500 रूप्‍ए प्रतिमाह है उन्‍हें ऐसे उपकरणों के लिए पूरी लागत राशि प्रदान की जाती है और 6501 रूपये से 10 हजार रूपए प्रतिमाह आय वाले विकलांग व्‍यक्तियों की उपकरण की कुल राशि की 50 प्रतिशत सहायता राशि दी जाती है। इस योजना को विभिन्‍न गैर-सरकारी संगठनों, मंत्रालय के विभिन्‍न संस्‍थानों तथा कृत्रिम बाहं निर्माण निगम (एलिम्‍को) क्रियान्वित करती है।

हालांकि इन उपकरणों की लागत के खर्चे के लिए सहायता राशि दिए जाने की स्‍वीकृत सीमा काफी कम है और सरकार इसे बढ़ाए जाने की दिशा में प्रयत्‍न कर रही है। सामाजिक न्‍याय एवं आधिकारिता मंत्रालय के तहत ''विकलांग मामलों के विभाग'' की स्‍थापना पिछले वर्ष की गई थी। इसके गठन का मुख्‍य मकसद मौजूदा योजनाओं को मजबू‍ती प्रदान करना तथा नई नीतियां बनाना है। इसमें तकनीकी नवाचार तथा विभिन्‍न संगठनों के साथ सामंजस्‍य स्‍थापित करना भी है। इसमें केन्‍द्रीय मंत्रालयों के अलावा राज्‍य सरकारें और अंतर्राष्‍ट्रीय संगठन भी शामिल है।

''साइंस एंड टेक्‍नालाजी प्रोजेक्‍ट इन मिशन मोड'' योजना का लक्ष्‍य तकनीकी पहलुओं के इस्‍तेमाल से कम लागत पर प्रभावी सहायता उपकरण उपलब्‍ध कराना है ताकि समाज के साथ जोड़कर उनके लिए रोजगार के अवसरों में वृद्धि की जा सके। इन योजना के तहत शोध एवं विकास परियोजनाओं की पहचान कर ऐसे उपकरणों के विकास के लिए उन्‍हें धनराशि उपलब्‍ध कराई जाती है। यह योजना भारतीय प्रौद्योगिकी संस्‍थान, शैक्षिक संस्‍थाओं, शोध एजेंसियों एवं स्‍वैच्छित संगठनों के जारिये लागू की जाती है।

आई आई टी दिल्‍ली ने एक ''स्‍मार्ट केन'' विकसित की है जिसिमें विद्युत सेंसर लगे है और यह जमीन पर किसी भी अवरोध का आसानी से पता लगा सकता है। राष्‍ट्रीय परियोजना ''इंफार्मेशन टेक्‍नालाजी फार द ब्रेल लिटरेसी इन इंडियन लेंग्‍वेजज'' में पश्चिम बंगाल सरकार के उपक्रम ''वेबल मीडियाट्रानिक'' ने देशभर के 190 विशेष दृष्टिबाधित स्‍कूलों में सूचना प्रौद्योगिकी आधारित ''ब्रेल प्रणाली'' लगाई है। इसने इंटरनेट ऐक्‍सेसे एंड रिहेबिलीटेशन टूल्‍स'' भी विकसित किया है। इसमें इलैक्‍ट्रानिक्‍स ब्रेल डिस्‍पले, आटोमेटिक ब्रेलर एम्‍ब्रोसर और कई साफ्टवेयर है।

सामाजिक न्‍याय एवं आधिकारिता मंत्रालय के तहत दृष्टिबाधितों के क्षेत्र में कार्यरत अग्रणी संस्‍थान ''द नेशनल इंस्‍टीट्यूट फार द विजुअली हैंडीकैप्‍पड'' भी शोध एवं विकासात्‍मक गतिविधियों में हिस्‍सा ले रहा है। इसने दृष्टिबाधितों के लिए कई लाभदायक उपकरण एवं तकनीक विकसित की हैं।

देश में ब्रेल साहित्‍य और उपकरणों के निर्माण एवं वितरण के क्षेत्र में यह सबसे बड़ा संस्‍थान है। कई स्‍थानीय भाषाओं में ब्रेल आधारित इसकी एक आनलाइन लाइब्रेरी  भी है।

विकलांग मामलों के मंत्रालय ने एक और पहल करते हुए हाल ही में राजधानी  दिल्‍ली में इस तरह के सहायक यंत्रों तथा उपकरणों पर राष्‍ट्रीय मेले स्‍वावलंबन का  आयोजन किया था। इस मेले का मुख्‍य लक्ष्‍य निर्माताओं, आपूर्तिकर्ताओं, शोध एवं विकास से जुड़े संगठनों को आपस में विचार विमर्श करने का एक अवसर प्रदान करना और ऐसा रास्‍ता निकालना था ताकि इन आधुनिक सहायक उपकरणों को जरूरतमंदो को सस्‍ती दरों पर उपलब्‍ध कराया जा सके।

विश्व के 20 प्रतिशत दृ‍ष्टिबाधित लोग भारत में हैं। उनके विकास से जुड़ी कई सुविधाओं और सहायक मशीनों के बावजूद भी दुर्भाग्‍यवश देश में नेत्रहीन विद्यार्थियों के लिए ब्रेल लिपि में लि‍खी पुस्तकों की कमी है। उनके चलने में सहायक यंत्र (सफेद छड़ी) की आपूर्ति भी निर्माता मांग के हिसाब से पूरी नहीं कर पा रहे हैं।
हालांकि अनेक स्‍पर्शी यंत्र उनके पढ़ने, खेलने और मनोरंजन के लिए बनाए गए हैं लेकिन अभी भी उचित दामों पर कई यंत्रों को बनाने की जरूरत है जैसे कि बोलने वाला थर्मामीटर, रक्‍तचाप मापक, रंगों की पहचान कराने वाला और फिल्‍मों के दृश्‍यों को बताने वाला यंत्र।
अखिल भारतीय नेत्रहीन परिसंघ के अध्‍यक्ष श्री ए के मित्‍तल ने कहा कि उन्‍हें आशा है कि सरकार से उन्‍हें मिलने वाली सहायता राशि बढ़ेगी और भुगतान प्रक्रिया में भी तेजी आएगी। श्री मित्‍तल वर्ल्‍ड ब्रेल काउंसिल के सदस्‍य भी हैं, उनका कहना है कि नेत्रहीनों की शिक्षा के लिए बहुत कुछ किया गया है और अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है। उनका कहना है कि उच्‍च तकनीक से महंगे उपकरणों को बनाने की जरूरत है जैसे कि ब्रेल नोट टेकर और देश में ही विकसित एवं जोड़े जाने वाले अन्‍य सहायक उपकरण ताकि वे सस्‍ती दरों पर उपलब्‍ध हो सकें।

हालांकि ब्रेल लिपि ने दृ‍ष्टिबाधितों के पढ़ने और लिखने में काफी मदद की और सफेद छड़ी ने उनको गतिशीलता दी, फिर भी कई सहायक उपकरणों को उचित दामों पर उपलब्‍ध कराने की जरूरत है जिससे दृ‍ष्टिबाधित लोग दूसरों पर निर्भर न होकर सशक्‍त व आत्मनिर्भर बनें।



(पसूका फीचर)



शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2013

Education For Different Facets Of Development

Introduction

Educational inequality in India involves more than social class and gender. Backward caste groups such as the Scheduled Castes, Scheduled Tribes and the Other Backward classes (groups that are constitutionally recognized for certain preferential policies) lag behind the higher castes with respect to both enrolment and completion at each educational transition stage. Moreover, within these backward communities, women suffer an additional disadvantage (Sengupta and Guha, 2002; Agrawal and Aggarwal, 1994; Acharya, 1994; Dreze and Sen, 1995; Vaid, 2004). Viewed in this background it may be argued that equality is a stronger expression of equity and similarly equality of opportunity is more difficult than equitable distribution. With the prevailing social syndrome of inequality in various facets of life, the distribution between "haves" and "have nots" is becoming more glaring.

In such a situation giving equal opportunity will imply giving more to those who already have it and giving less to those who do not have it and, therefore, equality to all is a concept which is not conceivable because the category of "all" itself is not a homogeneous one. It consists of heterogeneous groups having disparate levels of socio-economic development. Therefore, equality is unjust when it is perceived to be distributed in the groups which themselves are unequal. It implies that equal distribution among unequal will lead to perpetuation of inequality. "Growth with equity" is now considered one of the major objectives of planning, including educational planning. It may be noted that in the Indian context there is no contradiction between the demands for equity and growth. Equity without growth is a stagnant cesspool wherein only misery, ignorance, obscurantism and superstition can be equitably distributed. Growth without equity leads to the accentuation of the structural disequilibrium, which constrains growth itself. The social concern for the two can be handled together, sustaining each other and sustained by each other.

Equity in Education

A primary and explicitly stated objective of education policy of a welfare state must be to ensure equality of opportunities by way of securing that all citizens have access to the resources necessary. The countries of the third world are passing through a serious dilemma resulting from the inherent social contradictions between the principle of equality and the principle of equity. This calls for a distinction between equity and equality. Equality means that every person would receive same treatment irrespective of status, caste, creed, etc. Equity means fairness or "recourse to principle of justice", which implies that a policy of protective discrimination has to be adopted if this is deemed fair or just. While equality has a quantitative meaning, equity is a qualitative concept. Education policy need not necessarily aim at achieving identical results for all, but rather aim at equivalent outcomes. It assumes a strong emphasis on identical treatment of all students to greater individual autonomy and diversity. The aim of equity should be all children will complete the equivalent of higher secondary school and that all be given the opportunity to pursue higher studies if they desire.

Obstacles to Equity

Whether we like it or not, today education has become a marketable commodity. The quality of this commodity in general depends upon the cost of it. There is a plethora of schools catering to the students with varying paying capacity. Normally the Government schools are for poor people, Government aided ones are for middle classes and the unaided are for the rich and super rich population. These categories of schools in general sequentially offer better quality. Thus there is a great disparity of educational achievements between good public schools and government run institutions in rural and metropolitan areas. One finds its expression in large-scale teacher absenteeism in government schools. Another issue is that students do not inherit only economic status from their parents they inherit social divides like cast, religion, gender, level of urbanization and the customs and biases based upon all these divides as well. Students coming from rural background, lower casts, belonging to minority religions and of feminine gender are a disadvantaged lot.

Conclusion


Development and empowerment of socially disadvantaged groups a commitment enshrined in the Constitution, and education is the most effective instrument of social empowerment. Schemes for the educational uplift of the SCs and STs have borne fruit but still the gap between the general population and SCs and STs are at unacceptable levels. Some minorities have fallen far behind the national average in education. It will be necessary to go to the root of the problem and examine the reasons for the decline so that remedial measures can be taken in future. Today, the thin line separating privatisation and commercialisation is getting blurred and merit alone does not remain the only criteria for moving upwards in education. There is a visible loss of credibility of existing systems of imparting education in schools and also in institutions of higher learning. On one hand, we are short of basic infrastructures and on the other hand, optimum utilization of existing infrastructures has not been ensured.


Countercurrents.org

Utility Analysis - Law of Equimarginal Utility (EMU)

This law of Equimarginal Utility is another fundamental principle of Economics. It is also known as law of substitution or law of Maximum satisfaction. We have already seen that human wants are unlimited whereas the means to satisfy these wants are strictly limited. It therefore becomes necessary to pick up the most urgent wants that can be satisfied with the money that a consumer has.

In order to get maximum satisfaction out of the funds (money) we have, we carefully weigh the satisfaction obtained from each rupee that we spend. If we find that a rupee spend in one direction has greater utility than in another, we shall go non spending money, on the former ( first) commodity, till the satisfaction derived from the last rupee spent in the two cases is equal. In other words, we substitute some units of commodity of greater utility for some units of the commodity of less utility. The results of this substitution will be the MU of the former will fall and that of the latter will rise, till the two marginal utilities are equalized. That is why this law is called the laws of substitution or equimarginal utility.

This law has been illustrated with the help of table given below.


Units
Marginal Utility of oranges
Marginal Utility of apples.
1
10
8
2
8
6
3
6
4
4
4
2
5
2
0
6
0
2
7
2
4
8
4
6

Suppose apples and oranges are the commodities to be purchased suppose we have go seven rupees to spend. Let us spend three rupees on oranges and four rupees on apples. The utility of 3rd unit of oranges is 6 and that of the 4th unit of apples is 2. As the MU of oranges is higher, we should buy more of oranges and less of apples. Let us substitute one orange for one apple so that we buy four oranges and three apples. Now the MU of both oranges and apples is the same i.e. 4. This arrangement yields maximum satisfaction. Thus total utility of 4 oranges would be 10+8+6+4=23 and of three apples 8+6+4=18 which gives a total utility of 46. The satisfaction given by 4 oranges and 3 apples of on one rupee each is grater than could be obtained by any other the total utility fiends less than 46. Thus, it can be concluded that we obtain maximum satisfaction when we equalize marginal utilities by substituting some unit of the more useful for the less useful commodity.

Limitation of the Law of Equi- Marginal Utility:

  1. Ignorance: If a consumer is ignorant and blindly follows custom, he will may not make wrong use of money.
  2. Inefficient organizer: The inefficient business organizer will final to achieve the best result from the land, labour and capital. That he employs. 
  3. Unlimited resources: When the resources are sample this law will be meaning less. 
  4. Hold of custom and fashion: It the purchase is strongly influence by customer and fashion he will not obtain maximum satisfaction. 
  5. Frequent changes in prices of different goods and services are occurred the observance of this law is difficult.


Practical Importance of Law of EMU:

Consumption: A wise consumer acts on this law while arranging his expenditure and obtains maximum satisfaction.

Production: To obtain maximum net profit, he must substitute one factor of producing to another so as to have most economical combination.

Exchange: Exchange implies substitution of one thing to another and hence this law is important.

Distribution: It is on the principle of the marginal productivity that the share of each factor of production is determined.

Public finance: The Govt. is also guided by this law in public expenditure. The Govt. can expend its revenue (money) in such a way that it will secure maximum welfare of the people.



Utility Analysis

Two techniques are used in the analysis of consumer’s behavior.

Utility analysis: Marshallian or cardinal approach.

Indifference curve technique: Modern of ordinal approach.

Here the utility analysis (Marshallian approach) has been discussed. In view of this two laws. Law a Diminishing Marginal Utility (DMU) and law of Equimarginal Utility (EMU) have been explained in next topics.

Utility Analysis: Law of Diminishing marginal Utility (DMU)

Dr. Marshall states this, law as follow: The additional benefit which a person derives from a given increase of his stock of anything diminishes with the growth of the stock that he has another words the law of DMU simply states that other things being equal, the marginal utility derived from successive units of a given commodity goes on decreasing. Hence the more we have of a thing; the less we want of it, because every successive unit gives less and less satisfaction.

The law is explained with the help of following example


Units of commodity No. Of mangoes
Total Utility (TU)
Marginal Utility (MU)
1
3
8
2
14
6
3
16
2
4
16
0
5
14
(-) 2

It will be better to know some terms for understanding the law and they are.

Initial Utility: It is the utility of the initial or the first unit. In the table initial utility is 8

Total Utility: In column 3 of the table, it gives the total utility at each step. For example it you consume on mango are total utility is 3, if you consume two mangoes, the total utility is 14.

Zero Utility: When the consumption of a unit of a commodity makes no addition to the total utility, then it is the point of zero utility. In our table, the TU after the 3rd unit is consumed is 16 and ar the 4th also it is 16. Thus, the 4th mango results in no increase. Thus is the point of zero utility. It is seen that the total utility is maximum when the MU is zero.

Marginal Utility: The addition to the total utility by the consumption of the last unit considered just worthwhile. The can be worked out by using following formula.

Negative Utility: It the consumption of a unit of a commodity is carried to excess, then instead of giving any satisfaction, it may cause dissatisfaction. The utility in such cases is negative. In the table given above the marginal utility of the 5th unit is negative.

Assumptions: The assumptions of the law of DMU are:

·         All the units of the given commodity are homogenous i.e. identical in size shape, quality, quantity etc.

·         The units of consumption are of reasonable size. The consumption is normal.

·         The consumption is continuous. There is no unduly long time interval between the consumption of the successive units.

·         The law assumes that only one type of commodity is used for consumption at a time.

·         Though it is psychological concept, the law assumes that the utility can be measured cardinally i.e. it can be expressed numerically.

·         The consumer is rational human being and he aims at maximum of satisfaction.

Exceptions: The exceptions to the law of DMU are as follows:

Hobbies: In case of certain hobbies like stamp collection or old coins, every addition unit gives more pleasure. MU goes on increasing with the acquisition of every unit.

Drunkards: It is believes that every does of liquor Increases the utility of a drunkard.

Miser: In the case of miser, greed increases with the acquisition of every additional unit of money.

Reading: reading of more books gives more knowledge and in turn greater satisfactions.


Importance of the law of DMU:

Basic of economic law and concepts: This law of DMU forms the basis of law of demand, law of Equimarginal utility, elasticity of demand etc.

Public finance: The Govt. can impose and justify progressive income tax on the ground of this law, as the income increases, the MU of income diminishes.

Businessmen: A businessman or producer can increase the sale of his product by fixing a lower price. Since consumers 

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