गुरुवार, 10 अक्टूबर 2013

Standard of Living

Standard of Living refers to the necessaries, comforts and luxuries which a person is accustomed to enjoy.

It can be defined as the mode of living. In other words, the standard of living of the people means the quantity and quality of their consumption.

Factors determining standard of living:

The factors affecting the standard of living have been discussed below, in respect of country and individual separately.

A. Factors of which the standard of living in a country depends.

Level of national income (output):
The level of national income depends upon the total volume of production in the country. The countries having higher national income enjoy higher standard of living.

Level of productivity:
The national income depends upon the productivity of a person engaged in agriculture, industry, industry or any economic activity. Thus high productivity resulted in high national income and high standard of living. The advanced countries enjoy high standard of living because their productivity is high.

Size of population:
The per capita income can be estimated by the total national income and size of population. Thus if size of population is larger, the per capita income will be smaller and as such standard of living will be lower.

Distribution of National Income:
It the distribution of income is not equal, the standard of living will affect. National income which has been ill distributed resulted into wide disparity. Thought the per capita income is higher, Due to ill distribution of income few rich person only enjoy higher standard of living and the masses of people have to live with extremely low standard.

Level of Education:
 Generally it is observed that educated people tend to have high standard of living on the contrary the illiterate people are reluctant to improve the living standard even though they are provided large income.

General Price level:
 Different countries are having different price levels. The country having low price level can provide good standard of living to her people and vice-a versa.

Terms of trade:
The terms of trade can be measured by the taking the ratio of price level of its exports to the price level of its imports, thus only physical production is not sufficient to have higher standard of living, the terms of trade is also equally important in this regard.

B. Factors determining individual standard of living:

Following are the important factors on which the standard of living of a person depends
1. Income          2. Size of family           3. Family tradition
4. Education    5. Social customer     6. General Price level.

Causes of low standard of living in India:

1. Low national income
2. Large size of population
3. Religious traditions
4. Social and family obligations.
5. Under development - Means economically under development in respect agriculture, industry etc. Hence total national income is low and hence low standard of living India is enjoying.


मिस्र: कट्टरवाद से गृहयुध्द की ओर

मुर्सी सरकार को हटाए जाने के बाद से मिस्र में स्थिति बहुत चिंताजनक बन पड़ी है। लेकिन 14 अगस्त के बाद जिस तेजी से यह बिगड़ी है उसकी कल्पना बहुत कम लोगों ने की थी। बड़े पैमाने पर हुई हिंसा में इतने यादा लोग मारे गए हैं या घायल हुए हैं कि अब सुलह-समझौते की संभावना भी बहुत कम हो गई है।

इसी के साथ यह संभावना बहुत कम रह जाती है कि वर्तमान सरकार व सेना मुर्सी समर्थकों को सत्ता की ओर लौटते हुए देंखे। दूसरी ओर, मुर्सी समर्थक लगातार यही मांग करते रहे हैं कि चूंकि मुर्सी के नेत्तृत्व की लोकतांत्रिक चुनाव में निर्वाचित सरकार को हटाना गैर-कानूनी था, अत: उन्हें फिर सत्ता सौंप दी जाए। अतएव इस स्थिति में आपसी सुलह-समझौते की गुंजाइश बहुत कम रह जाती है।

ऐसी स्थिति में अब एक ही संभावना बचती है कि कोई बाहरी शक्ति दोनों पक्षों पर या किसी एक पक्ष पर ऐसा दबाव बनाए कि सुलह-समझौते की कोई राह निकल आए। ऐसी संभावना कम है कि मुस्लिम ब्रदरहुड पर ऐसा कोई दबाव काम कर पाएगा। जहां तक मिस्र की सेना का सवाल है, उस पर तो केवल अमेरिका ही अधिक दबाव बना सकता है। अमेरिका से मिस्र को व विशेषकर वहां की सेना को अरबों डालर की सहायता मिलती है। इस सहायता के बल पर उसके सेना में नजदीकी मित्र भी हैं और वह सेना को प्रभावित करने की स्थिति में भी है। दूसरी ओर यह भी सच है कि अमेरिका ने सेना द्वारा की गई हिंसा की स्पष्ट निंदा की है।

पर सवाल यह है कि अमेरिका क्या इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में अपने और इजराइल के रणनीतिक हितों के विरुध्द जाना चाहेगा? फिलहाल अमेरिका और इजराइल के रणनीतिक हितों में मिस्र की सेना की सहयोगी भूमिका को बहुत महत्वपूर्ण स्थान मिला हुआ है। मिस्र अरब का सबसे बड़ा देश है, इसकी सेना अरब देशों की सबसे बड़ी सेना है। ऐसे में क्या अमेरिका वहां की सेना पर कभी इतना दबाव बनाना चाहेगा कि जिससे उसके रणनीतिक हित ही खतरे में पड़ जाएं? इसका उत्तर है ''नहीं''।  
 
यहां यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि अमेरिका स्वयं भी मुर्सी सरकार के कुछ कार्यों या निर्णयों से चिंतित था। न्यूयार्क टाइम्स में प्रकाशित एक विवरण के अनुसार सेना द्वारा मुर्सी को हटाने के निर्णय में अमेरिका का भी कुछ हद तक हाथ था। लेकिन अमेरिका इतना जरूर चाहता था कि सेना को इतनी हिंसा का इस्तेमाल न करना पड़े।

संभवत: मिस्र की सेना के जनरल भी यह नहीं चाहते थे कि उन्हें इतनी भयानक हिंसा का उपयोग करना पड़े। जब मुर्सी के समर्थन में जबरदस्त प्रदर्शन हो रहे हों, समर्थकों की संख्या अधिक हो व वे मुर्सी को सरकार को फिर स्थापित करने की मांग उठा रहे हों तो सेना के सामने क्या विकल्प बच पाते हैं। उसे या तो हिंसक होना पड़ेगा या मुर्सी समर्थकों के आगे झुकना पड़ेगा। चूंकि दूसरा विकल्प तो उसे किसी तरह स्वीकार्य नहीं है, अत: उसने पहली राह अपनाई है। विरोध प्रदर्शन करने वालों को कुछ दिन चेतावनी देने के बाद सेना ने उनके विरुध्द भयंकर हिंसा की कार्रवाई की है।

अमनपसंद व लोकतांत्रिक लोगों के लिए यह पूरा घटनाक्रम बहुत दुखद रहा है। कहां तो एक समय अरब बसंत की बात हो रही थी, और कहां अब स्थिति ऐसी बन गई है कि लोकतंत्र की स्थापना खून के धब्बों के बीच धूमिल होती जा रही है। दूसरी बड़ी समस्या है कि इस पूरे घटनाम से धार्मिक कट्टरवाद अंत में मजबूत ही होगा। कट्टरवादी संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड को इस समय उत्पीड़न सहना पड़ रहा है। परंतु जो अन्याय व उत्पीड़न का शिकार होता है उसके साथ बाद में अधिक लोग जुड़ते हैं।

हाल के घटनाक्रम में धार्मिक कट्टरवादी दल से लोकतांत्रिक चुनावों के माध्यम से प्राप्त सत्ता को छीना गया था। इससे उनमें यह अनुचित संदेश जाएगा कि सत्ता प्राप्त करने के लिए हिंसा का उपयोग जायज है। ऐसी स्थिति में जब पहले से कुछ कट्टरवादी संगठन हिंसक हैं, तो घटनाक्रम इसे एक खतरनाक हिंसा की राह की ओर ले जा सकता है।

कुछ दिन पहले मिस्र में अनेक पुलिसकर्मियों की जिस तरह हत्या कर दी गई उससे यह संकेत मिलता है कि कुछ कट्टरवादी संगठन अब तेजी से हिंसा के रास्ते की ओर भी बढ़ सकते हैं। इस तरह से गृहयुध्द की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। मुस्लिम ब्रदरहुड के एक बड़े आध्यात्मिक नेता की गिरफ्तारी से भी स्थिति और भड़क गई है।

यह सच है कि मुस्लिम ब्रदरहुड और उससे जुड़े राजनीतिक दलों ने भी सत्ता का सही उपयोग नहीं किया था। मुर्सी की अनेक नीतियां व निर्णय आपत्तिजनक थे। उन्होंने सब को साथ लेकर चलने की नीति नहीं अपनाई। ईरान के राष्ट्रपति अहमदीनेजाद के मिस्र के दौरे के समय जो बातचीत उनसे हुई उसे लेकर सेना के मन में जो गहरे संदेह पैदा हुए थे जिनका निवारण होना चाहिए था।


मुर्सी सरकार गलतियां तो कर रही थी परंतु इन गलतियों के बावजूद लोकतांत्रिक ढंग से चुनी सरकार को इस तरह जोर-जबरदस्ती से हटाना अनुचित था। इससे मिस्र की समस्याएं और बढ़ गई हैं। अब वह गृहयुध्द की ओर जा रहा है। इसका पूरे अरब जगत पर और आसपास के अन्य देशों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। वहां की इस त्रासद स्थिति का सबसे बड़ा सबक यह है कि धार्मिक कट्टरवाद जैसी प्रवृत्तियां चाहे कितनी हानिकारक हों, परंतु उनका सामना लोकतांत्रिक तौर-तरीकों से करना चाहिए, जोर-जबरदस्ती से नहीं।

देशबन्धु

Connecting People: The Department of Posts

One of the most enduring symbols of India as a nation is the post man who makes his daily round, come rain or shine. The famous Malayalam humour writer Gopalakrishnan, who had a long and meritorious service in the Railways, as well as Kerala’s former Chief Election Officer T N Jayachandran have written that the first person they befriend on being transferred to a new place is the post man! Such is the friendliness and charm of the postal service – one of the most people friendly and accessible of the Government services.

For more than 150 years, the Department of Posts (DoP) has been the backbone of the country’s communication and has played a crucial role in the country’s socio-economic development. It touches the lives of Indian citizens in many ways: delivering mails, accepting deposits under Small Savings Schemes, providing life insurance cover under Postal Life Insurance (PLI) and Rural Postal Life Insurance (RPLI) and providing retail services like bill collection, sale of forms, etc. The Department of Posts also acts as an agent for Government of India in discharging other services for citizens such as wages disbursement of the unique Mahatma Gandhi National Rural Employment Guarantee Scheme (MGNREGS) as well as various old age pension payments.

The Mission Statement of the Postal department says explicitly that the department will maintain its iconic status as a unique and trusted national institution by always providing the human touch in all our interactions with society, being responsive and reliable, demonstrating the highest order of integrity, honesty, transparency and professionalism and discharging our responsibilities towards the society in an environment of deep trust, mutual respect and a culture of service before self.

The latest figures say that there are 1,55, 515 post offices in the country. Of this 1,39,040 (89.78 percent) are in rural areas and 15,826 (10.22 percent) are in urban areas. This figure includes 25,464 departmental post offices and 1,29,402 extra-departmental branch post offices. At the time of Independence, there were 23,344 post offices. Moreover, these post offices were mainly in urban areas. The figures show that the network has increased by six times after Independence, with the focus primarily on rural areas.

On an average, a post office serves an area of 21.23 square kilometres (8.20 sq mi) and a population of 7,114. This could well make the Indian Postal System  the most widely distributed postal system in the World. Because of this mind boggling reach and the ubiquitous presence in remote areas, the Indian postal service is close to people and the people are close to the postal services!

As far as available records show, by 1861, there were 889 post offices in India. The system was handling nearly 43 million letters and over 4.5 million newspapers annually. It has to be remembered that the administration was taken over by the British government from the East India Company in 1858.

The establishment of the modern postal system in India can be traced back to the second half of the 18th century. For the facility of prepayment of postage on letters, 'Copper Tickets' , pre-paid token stamps in 2 anna value were introduced from Patna in 1774 by the East India Company during the period of Warren Hastings, the then Governor General of India.

The postal system, established by Lord Clive in the year 1766, was further developed by Warren Hastings by establishing the Calcutta G.P.O. under a Postmaster General in the year 1774. Postal Service was open to the public for the first time.

The first superintendent of the post office was appointed in 1870 and he was based in Allahabad.

At present, the Department of Posts comes under the Ministry of Communications and Information Technology. The Postal Service Board, the apex management body of the Department, comprises the Chairman and six Members. The Joint Secretary and Financial Advisor to the Department is a permanent invitee to the Board. The Board is assisted by a senior staff officer of the Directorate as Secretary to the Board. Deputy Directors General, Directors and Assistant Directors General provide the necessary functional support for the Board at the Headquarters.

The world's first official airmail flight took place in India on 18 February 1911, a journey of 18 kilometres (11 mi) lasting 27 minutes. Henri Piquet, a French pilot, carried about 15 kilograms of mail (approximately 6,000 letters and cards) across the river Ganga from Allahabad to Naini. The mail thus carries is said to have included a letter addressed to King George the Fifth. The first floating post office was inaugurated in August 2011 at Dal Lake in Srinagar, Kashmir.

The first adhesive postage stamps in Asia were issued in the Indian district of Scinde in July 1852 by the then chief commissioner of the region. The Scinde stamps became known as Scinde Dawks", dawk being the English spelling of the Hindi word Dak or (post). These stamps, with a value of 1⁄2-anna, were in use until June 1866. The first all-India stamps were issued on 1 October 1854.

At present, the postal department is under the process of finalizing its IT enablement project.  Trends such as urbanisation, increased demand for financial services, increased funding by the government for the weaker sections and the rural sector, have opened up new opportunities for the Department of Posts. This has made necessary the development of new processes and supporting technology.

The department is also faced with twin challenges of increasing competition and continuing advances in communication technology, especially in mobile telephony and the Internet. In order to provide the best-in-class customer service, deliver new services and improve operational efficiencies, the Department of Posts has undertaken an end to end IT Modernization project to equip itself with requisite modern tools and technologies.

The project, intends to achieve wider reach to the Indian populace through more customer interaction channels, better customer service, growth through new lines of business and enhanced IT enablement of business processes.

The postal identity card is a service offered by the postal department under clause 63 of the postal guide. The card is basically meant for the benefit of tourists, traveling representatives of firms and other members of the public who experience difficulty in establishing their identity in connection with postal transactions, e.g., receipt of registered and insured articles and payment of money orders in the post town through which they pass. These cards will be obtainable at any head post office by literate persons whose identity is well established in the locality in which they reside or who can be vouched for by substantial permanent residents known to the postmaster.

The card will contain a full description of its holder, his signature and photograph and will be current for a period of three years from the date of issue. After the expiry of the period of validity of the card, a fresh card will have to be applied for.

The use of these cards is entirely optional. Holders will ordinarily receive delivery of postal articles and payment of money orders on their presentation but in cases of doubt it will be open to postmasters to make such further enquiry as they may consider necessary to establish the identity of the applicants.

The cost of application for the card is Rs 20 and the card itself will cost Rs 250. In order to make the cards more attractive, they are being issued in the form of plastic cards like smart cards incorporating information like date of birth, telephone/mobile number and blood group in addition to the address of the person.

(PIB Features.)


मंगलवार, 8 अक्टूबर 2013

Girl Education: A Challenge For Rural Transformation In India

Introduction

Socialization of the girl child in India seems to have followed a set pattern where she has-been trapped and moulded by deep-rooted combined cultures of patriarchy and hierarchy. Women as such can be dubbed as a population at risk because of their limited access to resources and opportunities and their systematic exclusion from the position of decision-making. What is more important is that the process of exclusion tends to start at the grass root, the family level. Herein a girl child is subjected to kind of languages and practices, which patronize exclusion of various natures at variety of levels. What could be more heinous than killing female fetus and infants? The female foeticide and infanticides, the most horrendous of gender crimes, increasing steeply. It is the violation of the most basic human rights, the right to be born. Women with higher social status are likely to be more sensitive to female child’s need and aspiration. Therefore, education brings economic liberation, which in turn facilitates social liberation. Further, women’s economic rights in terms of land ownership and inheritance may be important. The positive aspect is that a good mix of public policy can influence all these. Meaning thereby, there are chances that the missing women can be rescued.

Policy Perspectives

The policy framework, provision of educational opportunities for women and girls has been an important part of the national endeavor in the field of education since Independence. Though these endeavors did yield significant results, gender disparities persist, more so in rural areas and among disadvantaged communities. The National Policy on Education (NPE, 1986) as revised in 1992 was landmark in the field of policy on women’s education in that it recognized the need to redress traditional gender imbalances in educational access and achievement. The NPE also recognized that enhancing infrastructure alone will not redress the problem. It recognized that “the empowerment of women is possibly the most critical pre condition for the participation of girls and women in the educational process”. The programme of Action (POA, 1992), in the section “Education for Women’s Equality” (Chapter-XII, pages. 105-107), focuses on empowerment of women as the critical precondition for their participation in the education process. The POA states that education can be an effective tool for women’s empowerment, ensuring equal participation in developmental processes; The Rashtriya Madhyamik Shiksha Abhiyan stresses on improving access to secondary schooling to all young person according to norms through proximate location (say, Secondary Schools within 5 kms, and Higher Secondary Schools within 7-10 kms) / efficient and safe transport arrangements/residential facilities, depending on local circumstances including open schooling and ensures that no child is deprived of secondary education of satisfactory quality due to gender, socio-economic, disability and other barriers.

Gender Inequality in Access to Education

Education seems to be the key factor, which only can initiate a chain of advantages to females. However, the access to education is differently perceived for male and female. Key indicators such as literacy, enrollment and years spent in school explain the situation in the access to education and each of these indicators reveal that the level of female education in India is still low and lagging far behind their male counterpart. The low adult literacy rates for women are a reflection of past underinvestment in the education of women and thus do not necessarily capture the recent progress. The problem is not only confined to low enrollments, the girl’s school attendance has also been found incredibly low. Rural girls belong to disadvantaged groups as if SC and ST present the worst scenario. As per the data, girl dropout ratio has tended to increase with the enhancement in the level of education. This clearly outlines the pattern of gender inequality in access to education, which seems to be deepening as we move from lower to higher educational attainment and from urban to rural and to disadvantaged group in the society.

Why Women Remain Undereducated?

What explains the gender differentials in educational attainment? What makes women to remain outside the preview of change? Studies have tried to answer these questions on various planes. Economic benefits of education and the costs involved in undertaking such educational attainment have been perceived differently for men and women. Parents who bear the private costs of investing in schooling for girls and women fail to receive the full benefits of their investment. This is largely true because much of the payoff in educating women is broadly social in nature rather than economic. This endures the gender differentials.

Parent’s perception of current costs of education and future benefits there from influences the decision whether girl child should continue taking education or not. Costs are often measured in terms of distance to school and other direct costs involved such as fee paid, books bought, dress made etc. At times, the favor to son is made not only in education but also in allocation of food at mealtime, distribution of inheritance and even the language used. Apart from economic costs and benefits, there are costs involved at psychological planes well. The differential access based on the psychological perceptions is more firm and real threat. The factors herein include all such motives, which tend to make a parent reluctant to send daughters to school. One of the glaring factors is the concern for the physical and moral safety of a girl child which makes parents unwilling to let them travel distances to school each day. Religion and socio-cultural factors influence parents’ choice they may tend to search for a school where only girls are admitted and the one where women teachers are employed. The concern arises when girls reach puberty even education beyond the level of literacy for girls may be perceived as threat for their possibilities for marriage. Studies suggest that in Indian household’s seven-to-nine year old girls work as many as 120-150 per cent more hours than boys do do. Naturally, girls who would work more than their brothers at home will have less probability of attending school. In a joint family, the possibility of increased opportunity costs in these terms will be more. Does this mean when opportunity costs of educating girls and boys are identical, both will have equal chances of going to school? The answer, unfortunately, is no. Parents still keep girls at home to work and send their sons to school.

Conclusion


Education is one composite single variable, which has the capacity to transform many odds turning in favor of girls more specially so in the rural India. Therefore, an exclusive emphasis on girls’ education is necessary. Education for adolescent girls is constraint due to many factors; the most prominent of them is non-availability of infrastructure and schools. Secondly, the travel time taken in reaching school, fear of crime and unknown eventuality would rise therefore provision of public transport exclusively for girl child is necessary. A legal provision would help rescue girls from the early marriages and open doors of development for them. Awareness programme are needed which would focus on the dynamics of nutrition in physical and mental growth. However, it is to be reiterated at the end that girls need a lot of compassionate treatment and favor to enable them to lead a respectable and meaningful life, and in ensuring this, the role of family members and society is undoubtedly crucial and of prime significance and the change attitude of elders towards girls is urgently called for.





By Swaleha.A.Sindhi
Countercurrents.org

सोमवार, 7 अक्टूबर 2013

भोजन की मिली गारंटी

किसी भी कल्याणकारी सरकार की पहली जिम्मेदारी यह होती है कि वह अपने नागरिकों को रोटी,कपड़ा और मकान मुहैया करवाये। पिछले नौ सालों से यह सरकार लगातार इस दिशा में काम कर रही है। हमारे देश की एक बहुत बड़ी आबादी अपनी रोजी रोटी के लिए खेती पर निर्भर है। इसके लिए कृषि के क्षेत्र को मजबूत करने की कोशिशें लगातार चलती रही हैं। 11वीं पांच साला योजना में सरकार को इसमें कामयाबी हासिल हुई है। 10वीं पांच साला योजना में हमारी कृषि विकास दर 2.4 फीसदी थी जो अब बढ़ कर 3.6 फीसदी हो गई है। क्योंकि सरकार ने किसानों को उनकी उपज के अच्छे दाम दिये इसलिए उन्होंने अपनी फसलों की ओर अधिक ध्यान देना शुरू किया। अनाज की पैदावार में लगातार होने वाली बढ़ोतरी से सरकार को हौंसला बढ़ा और उसने कानूनन लोगों को सस्ता अनाज मुहैया करवाने का काम हाथ में लिया। इसके लिए सरकार ने पिछले दिनों संसद में खाद्य सुरक्षा अधिनियम पारित करवाया। वर्त्तमान सरकार ने इस योजना को अपने एक सपने के रूप में देखा था। जिसे पूरा करने के लिए उसने पहले ही, जुलाई में, एक अध्यादेश के द्वारा जनता को खाद्य सुरक्षा प्रदान कर दी थी। वर्तमान अधिनियम उसी अध्यादेश का स्थान लेने के लिए संसद द्वारा पारित किया गया है। राष्ट्रपति की अनुमति के बाद यह अधिनियम विधेयक का रूप् ग्रहण कर लेगा।

भोजन गांरटी का मतलब है कि घरेलू जरूरतों के लिए सबको पूरा अनाज उस कीमत पर मिले जिसे हमारे देश के अधिकतर लोग आसानी से वहन कर सकें। इसलिए पूरी योजना की रूप रेखा देश की तीन चौथाई आबादी को ध्यान में रख कर तैयार की गई है। यह आबादी लगभग 82 करोड़ है। भोजन की गारंटी देने वाले कानून को बनाने में विपक्ष ने भी सरकार का साथ दिया है। इसे किसी भी सरकार की बहुत बड़ी उपलब्धि माना जाना चाहिए।

इस अधिनियम के माध्यम से सरकार ने किसानों को इस बात का भी भरोसा दिलाया है कि यह कानून लागू होने के बाद भी उनकी उपज पर मिलने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य में कोई कटौती नहीं की जायेगी। इस कानून से शहरों की पचास प्रतिशत और गांवों की 75 फीसदी आबादी फायदा उठा सकेगी।

इस कानून के लागू होते ही प्रत्येक गरीब को हर महीने पांच किलो सस्ता अनाज मिलेगा। इसमें चावल तीन रुपये किलो,गेहूं दो रुपये प्रति किलो और ज्वार इत्यादि मोटा अनाज एक रुपया किलो के हिसाब से उपलब्ध करवाया जायेगा। इस बात का इंतजाम किया गया है कि अंत्योदय कार्ड वाले परिवार को 35 किलो अनाज मिलेगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अब गरीब लोगों को अनाज उनके हक के तौर पर मिलेगा। इस विधेयक के माध्यम से लोगों की कुपोषण की समस्या का समाधान करने की कोशिश भी की जायेगी। इस योजना को लागू करने के लिए सरकार को 612.3 लाख टन अनाज की जरूरत होगी।

केन्द्र सरकार की यह योजना राज्य सरकारों के माध्यम से लागू होगी। किसी कारण से अगर राज्य सरकार सस्ते दर पर अनाज मुहैया नहीं करवा पायेगी तो उसे गरीबों को खाद्य सुरक्षा भत्ता  देना पड़ेगा। यह भत्ता कितना होगा इसका फैसला राज्य सरकारें अपनी स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में रख कर करेंगी।

वर्त्तमान सरकार ने शुरू से ही महिला सशक्तिकरण को बहुत महत्व दिया है। महिलाओं को परिवार में अधिक आदर सम्मान मिले इसके लिए सरकार ने यह प्रावधान किया है कि परिवार की सबसे अधिक आयु वाली महिला को ही परिवार का मुखिया माना जायेगा। यह कार्ड उसी के नाम पर जारी होगा। यदि किसी पीिवार में 18वर्ष से अधिक आयु की महिला नहीं होगी तभी सबसे बड़ी आयु वाले पुरुष के नाम पर कार्ड बनवाया जा सकेगा। इस योजना के तहत प्रत्येक गर्भवती महिला को 6000 रुपये सहायता के तौर पर मिलेंगे। संबधित राज्य सरकारें इस बात का फैसला भी करेंगी कि यह धनराशि उन्हें एकमुश्त दी जाये अथवा किस्तों। गर्भवती महिलाओं को आंगनवाड़ियों और ग्रामीण स्वास्थ्य केन्द्रों से गर्भावस्था के दौरान और बच्चे के जन्म के छह महीने बाद तक अच्छा पौष्टिक खाना बिना किसी मूल्य के मिलेगा। इसमें गांवों में चल रहे आशा केन्द्र उनकी मदद करेंगे। छह महीने से 14 साल तक के बच्चों को राशन अथवा खाना मुहैया करवाया जायेगा। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के तीन साल से लेकर छह साल तक के सभी बच्चों को सुबह का नाश्ता और पकाया हुआ गर्म भोजन निशुल्क मिलेगा। जो बच्चे कुपोषण के शिकार होंगे उनका खास ख्याल रखा जायेगा। इसी प्रकार पर्वतीय और दूर दराज के इलाकों में और जनजातीय क्षेत्रों में कमजोर वर्ग के लोगों का भी खास ख्याल रखा जायेगा। गरीबों की पहचान आधार कार्ड के आधार पर की जायेगी। इसके लिए राज्य सरकारें भी अपने मानदंड़ तय करेंगी।

इस बात का भी प्रबंध किया गया है कि इस योजना का राज्य सरकारों पर कोई अतिरिक्त भार न पड़े। इसके लिए अनाज की ढुलाई के लिए राज्यों को केन्द्र सरकार से सहायता मिलेगी। राशन का वितरण करने वालों को भी आर्थिक सहायता दी जायेगी।  खाद्यान्न सुरक्षा के मद में सरकार को लगभग 1.25 लाख करोड़ रुपये का अनुदान देना होगा जो 2015-16 में बढ़ कर 1.50 लाख करोड़ हो जायेगा। इसके लिए सरकार को हर साल अपनी आमदनी में 10 से 15 फी सदी का इजाफा करना पड़ेगा। यह सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है जिसे उसने स्वीकार किया है।

सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि अनाज के वितरण में किसी प्रकार की धांधली न हो। काला बाजारी को रोकने के सभी उपाय किये जायेंगे। सार्वजनिक वितरण प्रणाली में फैले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए हर जिले में प्रबंध किये जायेंगे। इस बात का प्रयास किया जायेगा कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुकानें चलाने का जिम्मा प्राथमिकता के आधार पर पंचायतों, स्वयं सहायता समूहों और सहकारी समितियों को दिया जाये। लोगों को होने वाली असुविधाओं को रोकने के लिए कॉल सेन्टर और हेल्प लाइन का प्रावधान किया जायेगा। सार्वजनिक वितरण प्रणाली से जुड़े सभी दस्तावेज आम लोग देखना चाहेंगे तो देख सकेंगे। यदि कोई अधिकारी विधेयक के नियमों का पालन नहीं करता तो उसे इसके लिए सजा दी जायेगी। उन पर 5000 रुपये तक जुर्माना किया जा सकेगा।


इस विधेयक के माध्यम से वत्तमान सरकार ने पूरी दुनिया को भी यह सन्देश दिया है कि भारत अपने सभी देश्वासियों की अनाज गारंटी की जिम्मेदारी लेता है। किसी भी कल्याणकारी राज्य के लिए यह एक बहुत ही बड़ा और महत्वपूर्ण कदम है।

पेंशन से सुरक्षित भविष्य

भारत में आज तक यह आम धारणा रही है पेंशन केवल सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त (रिटायर) होने वाले कर्मचारियों को ही मिलती है। कुछ प्रतिशत लोग यह जानते हैं कि बड़े उद्योग धन्धों में काम करने वाले लोगों की भी पेंशन मिलती है। यहां यह जानना आवश्यक है कि पेंशन योजनाओं से हमारा अभिप्राय है क्या। पेंशन योजनायें ऐसी व्यक्तिगत योजनायें हैं जो आपके भविष्य की प्रतिभूति तथा बुढ़ापे के दौरान वित्तीय स्थिरता की पूर्व तैयारी रखती है। ये पालिसियां वरिष्ट नागरिकों, और जो सुरक्षित भविष्य की योजनायें बना रहे उनके लिए अत्यंत आवश्यक हैं इसीलिए आप जीवन में सर्वोत्तम चीजों को कभी नहीं खोते। स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर आज तक आम जनता के लिए सामाजिक सुरक्षा के नाम पर कोई बहुत ठोस उपाय नहीं किये गये। इसका एक मुख्य कारण यह भी रहा है कि आम भारतीय अपने रिटायर होने के समय से संबंिधत योजनाओं पर गंभीरता से विचार विमर्श नहीं करते। जबकि यह उतना ही आवश्यक है जितना कि कर बचत करने के विषय में सोचना।

सरकार का उद्देश्य है कि पेशन का लाभ केवल सरकारी केन्द्रीय कर्मचारियों और संगठित श्रमिकों तक ही सीमित न रह कर आम आदमी तक भी पहुंचे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सरकार ने संसद से पेंशन कोष नियामक तथा विकास प्राधिकरण विधेयक 2011 को पारित करवाया है। इसके माध्यम से नई पेंशन प्रणाली(एनपीएस) के नियमन का अधिकार पेंशन कोष नियामक तथा विकास प्राधिकरण (पीएफआरडीए) को मिल गया है।

हमारे देश में एक जनवरी 2004 से पूर्व भर्ती हुए कर्मचारियों पर लागू पुरानी पेंशन व्यवस्था एक निश्चित लाभ प्रणाली पर आधारित थी। इसके अन्तर्गत किसी भी कर्मचारी के रिटायर होने पर एक निश्चित राशि प्रति माह उसे पेंशन के रूप में मिलती थी। यह राशि उस कर्मचारी द्वारा नौकरी में व्यतीत किये गये वर्षों तथा उसके वेतनमान पर निर्भर करती थी। जबकि नई व्यवस्था में उसे मिलने वाली पेंशन उसके द्वारा किये गये योगदान तथा शेयर बाजार में उस पर मिलने वाले लाभांश पर आधारित होगी। नई पेंशन प्रणाली धन अर्जित करने के साथ साथ धन की बचत करने पर आधारित की गई है। इसके माध्यम से सरकारी कर्मचारियों को वृद्धावस्था आय सुरक्षा भी प्रदान की जायेगी। इससे पेंशनधारी को अपना बुढ़ापा सुविधापूर्वक व्यतीत करने में सुगमता होगी।

प्रारम्भ से ही पेंशन को परिवार के सुरक्षित भविष्य की गारंटी माना जाता रहा है। आम आदमी इस प्रकार की सुरक्षा गांरटी से सदैव वंचित रहा है। पेंशन फंड नियमन व विकास प्राधिकरण विधेयक के पारित होने से देश के लाखों असंगठित मजदूरों के परिवारों में खुशहाली छायेगी ऐसी आशा की जा रही है। देश के आम लोगों को पेंशन स्कीम का लाभ उपलब्ध हो सके इसके लिए सरकार ने स्वावलंबन योजना को लागू किया है। इसमें असंगठित क्षेत्र के श्रमिक और 18 वर्ष से 55 वर्ष तक की आयु का कोई भी भारतीय न्यू पेंशन स्कीम में निवेश कर सकता है। इस प्रकार नियमित रूप से नौकरी न करने वाले और छोटे मोटे धन्धों में कार्यरत कामगर भी स्वैच्छिक आधार पर इस योजना में सम्मिलित हो सकेंगे। इस योजना के अन्तर्गत सदस्य बनने वाले सदस्यों के योगदान के साथ साथ नियोक्ता भी अपना अंश जमा करवायेंगे। नियोक्ता द्वारा इस योजना में कर्मचारियों के वेतन का दस प्रतिशत तक के अंशदान को व्यवसाय के खर्च के तौर पर सम्मिलित किया गया है जबकि वर्त्तमान में नियोक्ता द्वारा न्यू पेंशन स्कीम में किये जा रहे अंशदान को व्यवसाय के खर्च के रूप में सम्मिलित करने की पात्रता नहीं है।

इस योजना के अन्तर्गत नियोक्ता को अंशदान पर आयकर में छूट प्राप्त होगी। स्वावलंबन योजना के अन्तर्गत अब फंड से पैसा निकाले की आयु 50 वर्ष अथवा 20वर्ष की अवधि जो भी अधिक हो कर दी गई है। इससे पूर्व इस फंड से धन 60 वर्ष की आयु के बाद ही निकाला जा सकता था।

स्मरणीय है कि इस क्षेत्र में कई वर्षों से पेंशन फंड नियमन और विकास प्राधिकरण कार्यरत था परन्तु प्राधिकरण के पास किसी प्रकार के संवैधानिक अधिकार न होने के कारण वांछित परिणाम सामने नहीं आ रहे थे। इस विधेयक के पारित होने से प्राधिकरण (पीएफआडीए) को संवैधानिक अधिकार प्राप्त हो गये हैं। इस अधिकार के कारण अब प्राधिकरण कहीं अधिक कारगर ढंग से कार्य कर पायेगा। अब तक लोगों का भरोसा भी इस योजना के प्रति कम था जिसमें अब बढ़ोतरी हो सकेगी क्योंकि यदि कोई व्यक्ति अथवा संस्था इसमें किसी प्रकार का गलत काम करेगी तो प्राधिकरण को उसे दंड़ित करने का अधिकार प्राप्त हो गया है। अब जब पेंशन कम्पनियां अपना काम अधिक जिम्मेदारी से करेंगी तो निश्चित तौर पर ग्राहकों को बेहतर सेवा उपलब्ध होगी। अनेक उन्नत पेंशन उत्पादों का विकल्प भी उनके सम्मुख होगा।

इस अधिनियम के माध्यम से सरकार ने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कर दिया कि देश के सभी नागरिक इस प्रकार की योजनाओं से जुड़ें। इस समय देश के कामगरों का महज 17 प्रतिशत हिस्सा ही पेंशन का लाभ उठा रहा है जबकि 87 प्रतिशत लोग इससे बाहर हैं। इस अधिनियम के बाद प्रतिवर्ष पेंशन फंड का आकार दोगुना होने की संभावना व्यक्त की जा रही है। इस समय इस फंड का आकार 35 हजार करोड़ रुपये है। आगामी पांच सालों में इसका आकार कितना विस्तृत हो जायेगा इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। एक अनुमान के अनुसार 13वीं पंचवर्षीय योजना तक पेंशन कोष का 35 हजार करोड़ रुपया बढ़ कर आठ-दस लाख करोड़ के आस पास हो जायेगा। इस राशि का एक बड़ा भाग देश में सड़क और बिजली उत्पादन जैसी ढांचागत परियोजनाओं के माध्यम से विकास कार्यों पर लगाया जायेगा। इससे हमारे देश के ढांचागत आधार का विस्तार होगा।

सरकार द्वारा इस तथ्य का बहुत गंभीरता से अध्ययन करवाने पर ज्ञात हुआ कि असंगठित क्षेत्र में पेंशन उत्पादों की सबसे अधिक आवश्यकता है। इसकी लोकप्रिय होने की संभावनाएं भी अपार हैं। इसके लिए पीएफआरडीए ने सरकार से मांग की है कि स्वावलंबन योजना में जो वित्तीय सहायता दो तीन वर्षों के लिए दी जा रही है उसे एकमुश्त 25 वर्षों तक देने की घोषणा की जाये ताकि लोगों का अधिक भरोसा प्राप्त किया जा सके। इससे लगभग 35 करोड़ ऐसे असंगठित लोगों को भी लाभ मिलेगा जिन्होंने कभी कहीं जम कर कोई नौकरी नहीं की। ऐसे लोग जिनका जीवनयापन रेहड़ी खोमचे और छोटे मोटे काम धन्धों के बल पर होता रहा है। इस योजना को कार्य रूप में लाने के लिए राज्य सरकारों की महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी। गत दिनों दिल्ली सरकार ने गलियों में फेरी लगाने वालों के लिए भी पेंशन की घोषणा की है। इस प्रकार इस योजना के दायरे में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले कम आय के लोग आयेंगे। इसके तहत दस्तकार, छोटे मजदूर, घरेलू काम में लगे लोग, चमड़े का काम करने वाले, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, आटो टैक्सी चालक और कुली इत्यादि भी राष्ट्रीय सुरक्षा बीमा योजना का लाभ लेने वाले लोगों को पेंशन मिलेगी। इस योजना में उन सभी व्यक्तियों को शामिल किया गया है जिन्हें केन्द्रीय सरकार, राज्यसरकार, सार्वजनिक क्षेत्र आदि के अन्तर्गत रिटायरमेंट का लाभ नहीं मिल रहा ।

सरकार का यह उद्देश्य है कि इस योजना को ग्रामीण क्षेत्रों में लोकप्रिय बना कर खेतीहर मजदूरों को भी अधिक से अधिक लाभ पहुंचाया जा सके। इस अधिनियम से पहले भी पीएफआडीए अपना काम कर रहा था परन्तु लोगों में जागरूकता लाने के स्तर पर कमी रह जाती थी। अब ग्रामीण क्षेत्रों और दूरस्थ इलाकों पर अधिक ध्यान दिया जा सकेगा। बड़े पैमाने पर मीडिया के सहयोग से जागरूकता लाने का कार्य अधिक सुचारु ढंग से किया जा सकेगा। इससे अधिक से अधिक लोग पेंशन सुरक्षा की ओर प्रवृत्त होंगे।

इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जीवन बीमा कंपनियों ने कुछ वर्ष पूर्व पर्याप्त मात्रा में पेंशन पालिसियां बाजार में प्रस्तुत की थीं परन्तु धीरे धीरे उनका आकर्षण कम होने लगा था क्योंकि उनके साथ काफी जोखिम भी जुड़ा हुआ था। ऐसी कम्पनियों के साथ धन निवेश करके कई लोग स्वयं को ठगा महसूस करते थे। ऐसी स्थिति में उन पालिसियों को संपूर्ण पेंशन उत्पाद नहीं कहा जा सकता था। इस अधिनियम के कारण लोग पुनः इस ओर आकर्षित होने लगे हैं क्योंकि यह पूरी तरह से पेंशन प्लान है। इतना ही नहीं अब लोगों को यह जानकारी भी उपलब्ध होगी कि उनके धन का निवेश कहां पर किया जा रहा है। विधेयक में उपभोक्ताओं को अपने धन का निवेश करने के व्यापक विकल्प उपलब्ध होंगे। इनमें सरकारी बॉण्ड में निवेश का विकल्प तथा उनकी जोखिम क्षमता के अनुरूप अन्य किसी कोष में निवेश का विकल्प भी होगा। इसके माध्यम से ग्राहक को एक सीमा के भीतर शेयर बाजार में निवेश करने की अनुमति मिलेगी। अधिनियम में प्रतिभूति की सुरक्षा का भी प्रावधान है।

इसके माध्यम से प्रत्येक ग्राहक को व्यक्तिगत पेंशन खाता मिलेगा जिसे चालू खाते में भी बदलने की अनुमति होगी। सरकार ने न्यू पेंशन योजना खातों में अपने अंशदान की अवधि 3 वर्ष से बढ़ा कर पांच वर्ष कर दी है। ग्राहक स्वयं अपने लिए फंड मैनेजर और योजना चुन सकेंगे। उन्हें अपना फंड मैनेजर बदलने की भी छूट होगी।  पेंशन फंड मैनेजरों में से कम से कम एक सार्वजनिक क्षेत्र से होगा। पेंशन क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा भी निर्धारित कर दी गई है। इस प्रकार यह विधेयक विश्व के सामने भारतीय अर्थव्यवस्था का एक नया चित्र प्रस्तुत करेगी।

एफआरडीए अधिनियम के अन्तर्गत नियम बनाने जैसे मामलों पर भी गौर किया गया है। अब प्राधिकरण को परामर्श देने के लिए एक सलाहकार समिति के गठन का निर्णय लिया गया है। इस परामर्श समिति में सभी हितधारकों का भी प्रतिनिधित्व होगा। सरकार का यह मानना है कि यह विधेयक बहुसंख्यक जनता का जीवन स्तर ऊपर उठाने में सहायक होगा।


कुछ अर्थशास्त्री इस प्रकार की आशंका व्यक्त कर रहे हैं कि समाजिक सुरक्षा वाली धनराशि को अस्थिर स्टाक बाजार में लगाने तथा लोगों की गाढ़ी कमाई के प्रबंधन के लिए एफडी आई की अनुमति देने के प्रावधान उचित नहीं हैं। समाज का एक बुद्धिजीवी वर्ग यह मानता है कि पेंशन के पैसे को शेयर बाजार में निवेश करने की अनुमति एक सही निर्णय नहीं है। फिर भी सरकार ने यह कदम बहुत सोच समझ कर जन हित में ही उठाया है और उसे संसद में विपक्षी दलों का पूरा समर्थन मिलना भी यह दर्शाता है कि इस सुधारवादी कदम को आम आदमी के हितों को ध्यान में रखते हुए ही पारित करवाया गया है। भारतीय अर्थव्यवस्था पर इसके दूरगामी परिणाम होंगे।

रविवार, 6 अक्टूबर 2013

Human Wants and their Classification

Man is a bundle of desires. His wants are infinite in variety and number. Some wants are natural, for example foods, air, clothing and shelter without which existence of man’s life is not possible. Similarly wants vary from individual to individual and they multiply with civilization.

Characteristics of Human Wants:

Human wants are unlimited:
 Man’s mind is so made that he never completely satisfied and hence there is no end to human wants. One want is satisfied another want will crop up to take its place and thus it is never ending cycle of want.

Any particular want is satiable:
 Though the wants are unlimited, but it is possible to satisfy a particular want, provided has the means (resource).

Wants are complementary:
It is a common experience that we want things in groups. A single article out of group can not satisfy human wants by it self. It needs other things to complete its use e.g. a motor-car needs petrol and mobile oil it starts working. Thus the relationship between motor-car and petrol is complementary.

Wants are competitive:
 Some wants competes to other. We all have a limited amount of money at our disposal; therefore we must choose some things and reject the other. E.g. sugar and jaggery, tea and coffee.

Some Wants are both complimentary and competitive:
 When use of machinery is done the use of labour needs to be reduced. This indicates competitive nature. But to run the machinery the labour is also required and as such it indicates complimentary relationship.

Wants are alternative:
There are several ways of satisfying a particular want. If we feel thirsty, we can have water, lassi, in summer while coffee, tea in winter. The final choice depends upon availability of money and the relative prices.

Wants vary with time place and person:
 Wants are not always the same. It varies with individual to individual. People want different things at different times and in different places.

Wants vary in Urgency and Intensity:
 All wants are not equally urgent and in tense. Some wants are urgent while some are less urgent.

Wants multiply with civilization:
With the advancement the wants multiply. Therefore the wants of people living in urban area are more than the villagers. With civilization the demand for radio, T.V, motor-car etc, are increasing.

Wants are recur:
 Some wants are recurring in nature, e.g. food we require again and again.

Wants change into habits:
If a particular want is regularly satisfied a person becomes used to it and it grows into habit e.g. smoking of cigarate and use of drugs.

Wants are influenced by income, salesmanship and advertisement:
 It income is higher more wants can be satisfied. Many things we buy of particular brands due to salesmanship or advertisement.

Wants are the result of custom or convention:
 As a part of custom and convention we buy many thins. Really they are not required but unlikely we have to purchase it e.g. expenses on social ceremonies.

Present wants are more important then future wants:
 Future is uncertain and hence man is more concerned with the satisfaction of the present wants rather than future wants.

Classification of Wants:

The wants can be classified as under.

Necessaries:
 These can be sub divided as

Necessaries of existence:
 The things without which we cannot exist e.g. water, food, clothing, shelter.

Conventional necessaries:
The things which we are forced to use by social custom.

Comforts:
 After satisfying our necessaries we desire to have some comforts. For example table and chair for a student help to increase the efficiency. But cushioned costly chair is not a comfort.

Luxuries:
 Luxury means superfluous consumption. After getting comforts, man desire luxury. The luxury articles need not required e.g. gold and silver, costly furniture, etc.


The Case Against The Ordinance to Protect Criminal Legislators

The National Commission to Review the Working of the Constitution (NCRWC) which was headed by the eminent jurist and former Chief Justice of India Mr. M. N. Venkatachalaiah recommended that the election law be amended to bar any person charged with an offence punishable with imprisonment up to five years, from contesting elections to parliament and state assemblies. Further, it said any person convicted for heinous offences like murder, rape, dacoity and smuggling must be permanently barred from contesting elections.
The Second Administrative Reforms Commission headed by Mr.Veerappa Moily, a member of the Union Cabinet, recommended that Section 8 of the Representation of the People Act, 1951 be amended “to disqualify all persons facing charges related to grave and heinous offences and corruption”, with the modification suggested by the Election Commission. The Law Commission suggested 14 years ago that mere framing of charges by a court in regard to election-related offences should by itself be a ground for disqualifying a person from contesting an election. In other words, all the three august commissions named above held the view that mere framing of charges was enough to bar individuals from contesting elections to parliament and state assemblies.
The Election Commission decided 16 years ago that candidates in parliament and state assembly elections should file affidavits about their convictions in cases covered by Section 8 of the RP Act, 1951. The commission was of the view that conviction by a trial court was sufficient to attract disqualification “and even those released on bail during the pendency of their appeals against their convictions are disqualified from contesting elections”.
Thereafter, in September, 1997, the Chief Election Commissioner wrote to the Prime Minister in this regard and pressed for immediate amendment of the law to deal effectively with the malaise. He said there were “grave incongruities” in the existing provisions in Section 8 and wanted the same amended. The Commission said that under jurisprudence, a person is presumed to be innocent unless proved otherwise and convicted by a court of law. Thus, in strict legal parlance, a criminal is one who has been convicted of a crime by a court of law. “But the common man perceives otherwise. In his eyes, a person who has been charged with certain types of offences and is under trial is also a criminal. The common man considers it criminalization of politics if he sees a history-sheeter or a notorious bad character, involved in various crimes of a heinous nature like murder, dacoity or rape, contesting elections and getting elected”.
It held the view that “a person facing trial in a serious offence, if kept out of the electoral fray till he is exonerated of the charge, should not have a legitimate grievance, as such restriction on his right to contest elections would be a reasonable restriction in the greater public interest and for bringing sanctity to the august Houses which are the supreme law making bodies of the country”. The Election Commission’s efforts to keep criminals out of electoral politics were stonewalled by successive governments at the Centre for 16 years.
It is in this context that the Supreme Court decided last July to strike down Section 8 (4) of the RP Act, 1951 which enabled criminals to continue their tenures in Parliament and state assemblies if they filed appeals against their conviction in a higher court. Any judge in any democracy who sees steady deterioration in democratic values is bound to correct the aberration. And that is exactly what the Supreme Court did last July. Though the court did not bar politicians who are charge-sheeted from contesting polls, it declared that a person convicted and sentenced to two years’ imprisonment, should be kept out of the electoral fray, even if his appeal is pending in a higher court. The court also barred persons in jail from contesting elections because such persons lose the right to vote.
The Union Cabinet’s first response to the Supreme Court verdict was to amend the Representation of the People Act, 1951 in order to save the seats of criminal legislators. At its meeting on August 22, it approved two amending bills to negate the recent Supreme Court verdict on disqualification of convicted legislators. The first amendment sought to add a proviso to sub-section (4) of section 8 of the Representation of the People Act, 1951 stating that the convicted member shall continue to take part in proceedings of Parliament or Legislature of a state but he or she shall neither be entitled to vote nor draw salary and allowances till the appeal or revision is finally decided by the court. The other amendment said an MP or MLA would not lose his right to vote if under arrest even for a short duration and thereby would retain his right to contest a poll. However, despite the government’s desperate efforts during the Monsoon Session of parliament, it could not effect these changes because a key amending bill was referred to a parliamentary standing committee.
The latest decision of the Union Cabinet to bring an ordinance to undo the Supreme Court’s historic verdict in this case betrays its utter contempt for the opinions of some of the best legal minds in the country. Rejecting the sage counsel of eminent jurists, the political class has almost unanimously decided to challenge the Supreme Court’s verdict and to take legislative measures to undo parts of the apex court’s order. Sailing along with this view, which was expressed forcefully by politicians from across the political spectrum at an all-party meeting convened prior to the Monsoon Session of Parliament, the government announced its resolve to seek a review of the apex court’s judgement and simultaneously introduced a Bill to amend the Representation of the People Act, 1951. The purpose of this amendment is to protect the so-called rights of criminal-politicians rather than that of the people. They are also meant to overturn the verdict of the Supreme Court relating to the prohibition on persons in jail losing their right to file nominations in elections. The Rajya Sabha cleared this amendment first. The Law Minister Mr.Kapil Sibal, who piloted this Bill decided to utilize the opportunity to lecture the judiciary and all and sundry. He advised the judiciary to be “extremely careful” in giving rulings which have an impact on the polity. He claimed that there was a negative perception in the country that all politicians were criminals and that the courts were enthusiastic to prove this to be right.
Only a few political parties have had the gumption to oppose this atrocious move to protect criminal-politicians. Among them are the two main communist parties. The Communist Party of India opposed the ordinance which enables convicted MPs and MLAs to continue in their posts if they have filed appeals against their conviction. It said the government had introduced a Bill to this effect in Parliament during the Monsoon Session and the same had been referred to a parliamentary standing committee. Under these circumstances, the CPI said the government should not be in a hurry to insulate convicted MPs and MLAs from disqualification as per the Supreme Court’s judgement. Opposing the ordinance, it said this matter needed to be discussed in parliament after the standing committee presented its report. The Communist Party of India (Marxist) also opposed the ordinance. It declared that the ordinance route was “undemocratic”. The Bharatiya Janata Party sent a delegation to the President urging him not to sign the ordinance.
Thanks to the Supreme Court’s directive many years ago, we have enough information on the criminal background of our legislators. So, let us test the actions of the union government and the Law Minister’s defence of the politician on the basis of available facts and the analysis of the background of our representatives done by the Association of Democratic Rights (ADR). This organization has found that 1460 of the 4807 sitting MPs and MLAs in the country (constituting 30 per cent) have declared criminal cases against themselves in their self- sworn affidavits submitted to the Election Commission of India prior to contesting elections. 688 (14%) out of the total number of sitting MPs and MLAs have declared serious criminal cases against themselves. Further, ADR has found that 162 of the 543 Lok Sabha MPs (30 per cent) have declared criminal cases against themselves. 14 per cent of the current Lok Sabha MPs have declared serious criminal cases against themselves. Of the 4032 MLAs in the country, as many as 1258 (31%) from all state assemblies have declared criminal cases against themselves. 15 per cent of the current MLAs from all state assemblies have declared serious criminal cases against themselves, according to this analysis by ADR.
Mr.Sibal also made the extraordinary claim that the political class was the most accountable class in the country and that the politicians were accountable to parliament, to the election commission, to the country and to the people, to whom they go every five years. It was strange to hear this from the Law Minister of a government that wants the Supreme Court to review its decision to bar convicted persons from continuing in parliament and state assemblies and which has decided desperately to take the ordinance route to overturn the Supreme Court verdict. It is equally strange to hear this from a Law Minister whose actions betray utter contempt for the opinions of the Law Commission, the Justice Venkatachalaiah Commission, the Second Administrative Reforms Commission, the Election Commission and the Supreme Court.

But the strangest development of all is the manner in which Mr.Rahul Gandhi, the Congress Vice-President who virtually slept through all the governmental moves since mid-July to bail out criminal-politicians, suddenly woke up last week and publicly rebuked his own government for bringing the ordinance. Realising belatedly that the government’s move had created much revulsion among the people and that even the President, Mr.Pranab Mukherjee was reluctant to sign on the dotted line, Mr.Gandhi has tried to salvage his own image at the cost of the Prime Minister and members of the Union Cabinet. But this will not wash. Intemperate conduct before cameras will not explain his deafening silence on this issue for 45 days. This is yet another example of what political power does to individuals. They think they have the power to fool all the people all the time.


Dr. A Surya Prakash, Distinguished Fellow, VIF

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