मंगलवार, 17 सितंबर 2013

सेंट पिट्सबर्ग में जी-20 सम्मेलन

जी -20 इस समय वैश्विक अर्थव्यवस्था का कर्ताधर्ता बना हुआ है, लेकिन वह औपचारिक प्रस्तावों और समाधानों से आगे नहीं बढ़ पाया। शायद यही कारण है कि वह यूरोप को आर्थिक संकट से उबारने में असफल रहा। हालांकि यदि वह आर्थिक मसलों पर धीरे-धीरे आगे बढ़ता रहता तो भी यह संतोष किया जा सकता था कि वह लक्ष्य को कुछ हद तक हासिल कर ले जाएगा, लेकिन इधर वह अपने उद्देश्यों से पूरी तरह से भटकता दिखा। आखिर इसकी वजह क्या है? क्या अमेरिका और रूस फिर से शीतयुध्द की ओर बढ़ रहे हैं, इसलिए या फिर दुनिया की विकसित और उभरती अर्थव्यवस्थाएं अभी दिशा ही नहीं तय कर पाई हैं?

सेंट पिट्सबर्ग  के कांसटेनटाइन पैलेस में जी-20 देशों के 8वें शिखर सम्मेलन की जैसे ही शुरूआत हुई, उस पर परम्परागत आर्थिक विषय के प्रभाव की बजाय गैरपरम्परागत विषय यानि सीरिया संकट की छाया कहीं अधिक गहरी दिखायी दी। संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी राजदूत ने जब रूस पर यह आरोप लगाया कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद सीरिया के लोगों की आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरी है और इस हालात के लिए रूस जिम्मेदार है, उसके बाद जी-20 शिखर सम्मेलन दो धड़ों में विभाजित नजर आया। एक तरफ वे देश थे जो अमेरिका के समर्थन में थे और दूसरी तरफ वे जो रूस और चीन के साथ थे। जी-20 के सम्मेलन इस विभाजन को देखकर सवाल यह उठता है कि क्या सीरिया इतना अहम् मुद्दा है कि दुनिया के ये 20 देश, जो वैश्विक अर्थव्यवस्था का नेता होने का दावा करते हैं, आर्थिक चुनौतियों के समाधान को तलाशने की बजाय सीरिया पर उलझे नजर आएं? सेंट पीटर्सबर्ग में जी-20 देशों के विभाजन को देखकर क्या ऐसा नहीं लगा कि अमेरिका और रूस अपनी खेमेबंदी के जरिए दुनिया को शीतयुध्द की ओर ले जाने की एक गलत कोशिश कर रहे हैं?

वर्ष 2008 में अमेरिका में वित्तीय संकट के आने के पश्चात वैश्विक आर्थिक सहयोग के लिए जी-20 का गठन अथवा ऑपरेशनल शुरूआत हुई क्योंकि इसका प्रस्ताव 1999 में ही कनाडियन प्रधानमंत्री पॉल मार्टिन ने किया था लेकिन सार्थक कदम उठाते-उठाते इसे कई साल लग गये। 19 देशों और यूरोपीय संघ से निर्मित इस समूह के पास सामूहिक रूप से वैश्विक सकल उत्पाद (जीडब्ल्यूपी) तथा विश्व व्यापार का 80-80 प्रतिशत तथा विश्व की दो-तिहाई आबादी है, इसलिए वास्तव में यह समूह वैश्विक अर्थव्यवस्था का नेतृत्व करने की सामर्थ्य तो रखता है। लेकिन यदि यह समूह संरक्षणवाद, गैरबराबरी के कानूनों तथा अन्य आर्थिक चुनौतियों जैसे विषयों पर गम्भीर विमर्श नहीं कर सकता, तो फिर यह कहा जा सकता है कि जी-20 अपने उद्देश्यों से भटक रहा रहा है। ऐसा नहीं है कि सेंट पीटर्सबर्ग में आर्थिक लिहाज से कुछ भी ऐसा नहीं हुआ जो आज प्रासंगिक न हो लेकिन सीरिया के सामने वह सब गौण हो गया।

दरअसल पिछला एक बड़ा अंतराल ऐसा रहा है जिसमें दुनिया में आर्थिक विकास धीमा रहा, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संकट में प्रतिबिंबित अंतरविरोध तीव्र हुआ और ढांचागत समस्या का समाधान नहीं हो सका। इसलिए सम्मेलन में विभिन्न पक्षों द्वारा दलील दी गयी कि जी 20 के विभिन्न सदस्य देशों को नीतिगत समन्वय व सहयोग को प्रगाढ़ कर मुद्रा नीति के प्रभाव का अच्छी तरह निपटारा करना चाहिए, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय बाजार की स्थिरता की रक्षा करनी चाहिए और विभिन्न देशों के कल्याण पर ख्याल करना चाहिए, ताकि विश्व की अर्थव्यवस्थाएं मजबूत, सतत व स्थिर विकास के लिए नींव डाल सकें। इसके बाद जी-20 द्वारा 27 पृष्ठों का एक घोषणापत्र जारी किया गया जिसमें कहा गया है कि कर नियमों को बेहतर बनाने की जरूरत है। इसमें यह भी प्रावधान किया गया है कि कई देशों में काम करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने मुनाफे को ट्रांसफर प्राइसिंग के जरिये कम कर वाले देशों में ले जाने का मौका नहीं मिलना चाहिये और न ही ऐसी गतिविधियों को प्रोत्साहन मिलना चाहिये। घोषणापत्र में कहा गया है मुनाफे पर कर उसी जगह लगना चाहिये जहां आर्थिक गतिविधियां हुईं और मुनाफा अर्जित किया गया और कारोबार हुआ। इस घोषणा-पत्र की सीमित विषय सामग्री को देखकर यह कहा जा सकता है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था को सही अर्थों में पटरी पर लाने के लिए जिस तरह के कदमों को उठाने की जरूरत थी, वे नहीं उठाए गये, बल्कि जी-20 के देश रणनीतिक खेमेबंदी में उलझे दिखे। यहां दो खेमे दिखे जिनमें से एक की अगुवाई अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा कर रहे थे जबकि दूसरे की अगुवाई रूसी राष्ट्रपति के हाथों में थी। अमेरिका चूंकि सीरिया पर आमण करने के लिए प्रतिबध्द दिख रहा है इसलिए राष्ट्रपति बराक ओबामा ने यह सिध्द करने की कोशिश की कि बीते महीने दमिश्क में हुए रासायनिक हमलों में सीरियाई सरकार का हाथ है। इसलिए संयुक्त राष्ट्र का समर्थन मिले या न मिले लेकिन दुनिया प्रतियिा व्यक्त करने के लिए बाध्य है। जबकि रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने इस विचार को 'बिल्कुल बेतुका' बताते हुए खारिज कर दिया। चूंकि सीरिया का मामला आधिकारिक रूप से जी-20 के एजेंडे में नहीं था, इसलिए सेंट पीटर्सबर्ग में इस विषय पर कोई निर्णायक कदम नहीं उठाया जा सकता था। फिर भी लामबंदी कुछ कह रही थी। हालांकि भारत और इंडोनेशिया का रुख भी ढुलमुल है भले ही भारत ने यह कह दिया हो वह सीरिया में सैन्य कार्रवाई का समर्थन नहीं करता। दक्षिण अफ्रीका और अर्जेटीना ने संयुक्त राष्ट्र की मंजूरी का बहाना बनाया। यह भी सम्भावना है कि ब्राजील और मैक्सिको भी अमेरिका के साथ न खड़े हों। इसे देखकर कोई भी कह सकता है अमेरिका को वैश्विक स्तर पर कमजोर समर्थन ही हासिल होगा।
बराक ओबामा जानते हैं कि उन्हें सैन्य कार्रवाई के लिए भले ही ब्रिटेन का समर्थन हासिल न हो लेकिन फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वां होलांद का समर्थन हासिल है, तुर्की लंबे समय से सीरिया में हस्तक्षेप की मांग कर रहा है, सउदी अरब सीरियाई विद्रोहियों को समर्थन दे रहे खाड़ी देशों के गठजोड़ का हिस्सा है। कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया, जापान, जर्मनी और यूरोपीय संघ अलग-अलग मसलों पर अलग राय रखते हैं। यानी ओबामा सीरिया पर हमला करने के लिए पर्याप्त समर्थन रखते हैं। अब यह ओबामा को तय करना है कि वे सीरिया पर किस प्रकार का हमला करना चाहते हैं। सवाल यह भी है कि अमेरिका सीरिया पर हमला क्यों करना चाहता? इसका सीधा और सरल उत्तर यह है कि अमेरिका के समक्ष अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने का संकट उत्पन्न हो रहा है? वास्तव में इस विषय पर कोई संशय नहीं होना चाहिए कि यदि अमेरिका सीरिया पर हमला नहीं करता है तो अमेरिकी साख गिरेगी और उसके सहयोगी भी उससे छिटककर बाहर जा सकते हैं। अमेरिकी ताकत ही है कि जिससे चलते यूरोप के देश अमेरिका के पीछे खड़े होने को तैयार हो जाते हैं। इसलिए यदि उन्हें यह आभास हो जाएगा कि अमेरिका कमजोर हो रहा है, तो वे अमेरिकी बैनर के नीचे अपनी सुरक्षा के उपाय नहीं तलाश करेंगे। ऐसा होने पर अमेरिका की साख और गिरेगी और अमेरिकी बाजार में विश्वसनीयता घटेगी जिससे अमेरिका के एक साथ कई मोर्चों पर विफल होने की सम्भावनाएं पैदा हो जाती हैं। अमेरिका ऐसा कदापि नहीं चाहेगा, इसलिए उसे सीरिया पर हमला तो करना ही है। परन्तु इसके लिए वह सर्वप्रथम पुख्ता लामबंदी करना चाहेगा, जिससे कि परिणाम शीघ्रतर और श्रेष्ठ आएं। लेकिन अभी उसे ब्रिटेन और रूस की मनोदशा का सही अध्ययन करना होगा। देर-सबेर ब्रिटेन अमेरिका के पक्ष में खड़ा हो जाएगा और ऐसा होते ही स्थितियां बदलेंगी। दअरसल अमेरिका समझबूझ के साथ कदम बढ़ाना चाहता है ताकि उसकी सैन्य कार्रवाई अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा एक स्वीकृति वैधानिक कार्रवाई मान ली जाए।


बहरहाल सीरिया की भौगोलिक स्थिति कुछ ऐसी है जो एक तरह से ग्लोबल जियो-स्ट्रैटेजिक केन्द्र अथवा स्ट्रेटेजिक कोर जोन का हिस्सा है। इसलिए देखना यह होगा कि अमेरिका सीरिया में लघु स्तर का युध्द लड़ेगा अथवा क्षेत्रीय युध्द को प्रोत्साहित करेगा या फिर वह दुनिया को किसी विश्वयुध्द जैसी स्थिति की ओर ले जाएगा। फिलहाल तो जी 20 में जो दिखा उससे इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि दुनिया धीरे-धीरे शीतयुध्द की ओर बढ़ रही है जिसका निदान जी-20 के पास है भी और नहीं भी। हां इतना जरूर कहा जा सकता है कि जी 20 ने सेंट पीटर्सबर्ग में ऐसा कोई मार्ग नहीं खोजा जा सका जो दुनिया को शांतिपूर्ण, सतत् और स्थायी विकास की ओर ले जाने में समर्थ हो।  

Khajuraho Temple Sculptures

Khajuraho Temples do not need any introduction. They enjoy being popular for the eroticism engraved on its walls in the form of classical sculptures. The temples depict a rich blend of architecture and science. These temples belong to the 10th-11th century and the legend behind them is fascinating one. It articulates the origin of Chandela dynasty. These temples are erected mostly with sand-stone of various colors including yellow, brown, pale buff and pink. In some temples granite is also used. Possibly, Khajuraho temples are biggest temple group of medieval India. Khajuraho temple Sculptures not just depict eroticism but also illustrate other courtly activities like dance and music.

Sculptures of Khajuraho Temples
The origin of Khajuraho Temples has a legend. It states that the Moon God seduced a beautiful Brahmin girl- Hemavati in a fit of lustful obsession. Consequently, Chandravarman, the founder of the Chandela dynasty was born. In his dream Hemavati asked him to build a temple revealing all facets of collection of passion and erotic fancy to the humankind. Therefore, he built Khajuraho temples in his capital city.

These temples have beautiful carvings on Granite and Sand stone but carving on granite is relatively difficult. As sand stone is softer than granite, this might be the reason for having sand stone in most of temples because it would have made carving works easier. Finishing of carving on sand stone is much defined and clear-cut than carving on granite.

Sculptures at Khajuraho can be divided into five wide categories. In the following lines, you will find these categories along with their respective explication.

Cult Images
These images consist of formal cult-images. They are sculptured approximately entirely in the round and in canonical formulae with firm conformity. Such types of cult-images are found in maximum Western and Eastern group of Temples. These images mainly belong to Hinduism and some of them belong to Jainism.

Family, Helper and Enclosing Deities
Family, helpers and religious sculptures are comprised in this category. Sculpted against the walls of Khajuraho Temples, these sculptures are either executed in circle or in relief varying from high to medium. Figures of these sculptures hold iconographic character of cult-images. Rest of the images of deities include dikpalas or eight guardians of the quarters are less formal than the images having iconographic character of cult-images. Their unusual mounts, head-dresses and other unique attributes normally held in more than two hands made them distinguishable.

Celestial Nymphs
Celestial nymphs were popular as sura-sundaris or apsaras. They were the most commonly used sculpture and best piece of art in Khajuraho. They are depicted either in the round, medium or high relief of inner or outer walls, ceilings and pillars of temples. These nymphs are shown with delicately designed ornaments around waists, neck, arms, wrist and legs. A careful observation will show an emaciated lining in designed pattern, around their waists and legs. These thin linings are traditional Indian sarees. Majority of these apsaras are executed in various dancing postures. A reading of their expressions tells us about their feelings and moods. The apsaras are illustrated scratching, disrobing, playing with pets like parrot, fondling babies, yawning, looking mirror to do make-up, removing thorn from feet, writing letters, touching their breasts, playing flute and vina and the like.

Animals and Other Species
This category shows sculptures of animals consisting of the legendary sardula, the tremendous beast signified often as raging horned lion having an armed human seated on its back. Sculpture of creature with body of lion and head of some other creature is also found here. Sculptures of creatures like lions, parrots, dragons and elephants are also found here. Every creature of such sort is displayed for a specific cause and significance; for instance elephant executed in a row in Lakshmana Temple is showed to greet guests, lion depicts might and authority. In the same way, wild boar shows presence of lord Vishnu- the Hindu god whose one appearance is of human body with wild boar’s head. Nandi Bull has been engraved who is devoted to lord Shiva as he rides a bull known as Nandi.

Temples with Changeable Art-Level
The temples like Vesvanatha Temple hold the classical aroma of the sculptures of Parsvanatha and Lakshmana temples. Vesvanatha Temple houses figures in proportion that display commendable dignity and poise. Amongst the most artistic sculptures in Khajuraho are that of Chitragupta and Jagadambi.

Maturity of the sculptures of Khajuraho temples is clearly visible in Kandariya Mahadev Temple. It depicts human figures with characteristic countenance. Here the sculptures are noticeably slim and taller and demonstrate the best range of apsara figures. These sculptures are the ultimate watermark of the typical art projection of Khajuraho. The Adinatha and Vamana temples execute the sculptural tradition. In these temples the apsaras are shown in several intricate, nearly circuitous poses.


Chatrubhuja and Javari temples show mainly conventionalized figures lacking much verve or expression. The very last flicket of the dying lamp is represented by Duladeo. It involves greatly energetic and passionate sculptures like dancing nymphs and flying vidyadharas, with typecast and generously bejeweled figures. According to historian Krishna Deva, Duladeo iconographically marks the exhaustion of the notable vivacity for which the Khajuraho sculptures are illustrious. Art forms of these temples are believed to be the illustrations of Kamasutra by many. Khajuraho temples went under obscurity and were discovered only by chance. Quickly, they turned second most favored tourist destination of India after Taj Mahal. From the original 85 temples, only 22 temples have survived. Khajuraho temple sculptures display the most exclusive stone-carving work. In 1986 the temple was declared as the World Heritage Site. As per the art historian Krishna Deva, the sculptural art of Khajuraho temples exceeds the medieval school of Orissa in enlightening the opulent charms of human body. Khajuraho presents the admiration of human body and show it from the most mesmerizing angles.

सोमवार, 16 सितंबर 2013

Link To A Better Relation

The Karakoram Pass played a significant role in the flourishing trade on the Silk Route between India-China and Central Asia. The pass was shut down and trade stopped in 1949 when Xinjiang became a part of People’s Republic of China. Leh was a busy cosmopolitan commercial town, with traders from Central Asia, Kashgarh, Yarkand, Kabul, Tibet, Kashmir, Punjab and Himachal Pradesh who stayed on for one or two months after their exhausting journey.

The trade, through the Karakoram, influenced the dress, food and dance forms of Ladakh. On the other side of the Pass, “Chini Bagh” at Kashgarh (the residence of the British Joint Commissioner of Trade), “Gurdial Sarai” and “Kashmiri Kucha” (street) at Yarkand, where Indian traders used to stay, still remind us of the magnitude of commerce that took place. The Bactrian camel (double hump) of Nubra valley is a relic from Xinjiang. A generation of people in Nubra still speaks the Uyghur dialect. Food served in some of old streets of Leh has a distinctly Central Asian flavour.

Central And Popular

At 18,250 feet, Karakoram was one of the highest trade routes. Now, a motorable road exists through Khardungla (18,680 feet) and Turumputila up to the base of Saser Kangri. Thereafter, a track moves over to camp sites of Murgo (in Yarkandi, also known as the gateway of death), Burtsa, Kazilangar, Deptsang la, Daulat Beg Oldi (the Indo-Tibetan Border Police post named after a Xinjiang caravan leader who was buried here) and finally to the Karakoram Pass. Notably, the India-China boundary at the pass is not disputed; it is indicated by two heaps of stones at a distance of 50 feet, one Indian, and the other Chinese. It is an eight daytrek from the picturesque Nubra Valley to the Karakoram Pass. It is not possible to get lost there — the trail of bones and skeletons of men and animals constantly remind the weary traveller of the ruggedness of terrain and weather. But in spite of those drawbacks, the Karakoram Pass remained popular due to its centrality and affinity with Ladakhis. The Silk Route, through which passed Chinese merchandise, notably silk to Rome, is a primary axis of transportation through the heart of Asia. A number of auxiliary axes feed into the Silk Route. An important feeder route from the lower Himalayas was from Hunza via Sarikol into Xinjiang via the Mintaka Pass. This route is now a part of the Northern Areas of Pakistan. Another more important route was via Karakoram from the Leh-Nubra valley or Leh-Changla pass-Shyok Valley.

Modern Link

Pakistan has always enhanced its strategic power much more than its economic and scientific potential by making full use of its geostrategic location. It was at the 1955 Bandung Non-Aligned nations conference that President Ayub Khan and Premier Chou en Lai met for the first time and later concluded, in 1963, the historic Sino-Pakistan Boundary Agreement. Earlier, Pakistan Army engineers had built a Indus Valley road to Gilgit. Later, Pakistan concluded an agreement with China to transform this road into an allweather dual carriageway all the way up to the Mintaka Pass.

Completed in 1969, the Karakoram Highway pushes north through Islamabad, Gilgit and crosses the Karakoram range through the 16,000ft Khunjerab Pass. The highway abandoned the Mintaka Pass because of its proximity to Russia and the road is now closer to and strengthens the Xinjiang-Aksai Chin Western Tibet road. Approximately 10,000 Chinese and 15,000 Pakistani engineers and army troops were employed in building the road with 80 bridges. The road was hailed by the Londonbased Financial Times as “China’s new trade outlet to Africa and Middle East” in the Pakistan Himalayas via a “modernized ancient silk route” (quoted by Dawn , Karachi, April 30, 1971).

Cultural Bridges

India should negotiate with China to open the ancient trade route for mutual gain. India enjoys historic popularity with the people of Central Asia and Xinjiang. Most of the merchandise sold by Pakistani traders across the border in China is of Indian origin. The economy of Ladakh, which has traditionally depended on trade, would thrive with the opening of the Karakoram Pass. Ever suspicious of links between militant Uyghurs and terrorist outfits in Pakistan, China would have no such fears regarding Ladakh. There are immense possibilities for the revival of an ancient Buddhist connection and for two-way tourism to ancient Buddhist sites in Central Asia and India. Ladakh Buddhists long to visit the “Thousand Buddhist caves” at Dunhuang in Xinjiang. The Karakoram Pass has also been a traditional Haj route from Xinjiang. Pilgrims can take advantage of direct Haj flights from Srinagar. As strong cultural bridges already exist, we have to revive them by resuming trade through the pass.

Energy Gateway

Karakoram can also act as a gateway for hydrocarbon pipelines from Central Asia. The planned Turkmenistan-Afghanistan-Pakistan- India pipeline (TAPI) from the city of Shymkent must pass through disturbed and insecure areas of Afghanistan and Pakistan. Another pipeline from Kazakhstan, which would also pass through the same territory, is being conceived. The security of the pipeline would always be in doubt despite local government guarantees. The route from the Central Asian countries via Xinjiang and the Karakoram Pass would be more secure. There is another advantage, most of the hydrocarbon pipelines in Central Asia are on an east-west axis. A pipeline through Karakoram, at least up to the pass, would have an eastwest line. It would be economical and technologically easier. China is already planning an oil pipeline connecting Gwadar Port with Xinjiang along with the Karakoram Highway. India can make a beginning by proposing a comparatively secure pipeline through Xinjiang and Karakoram. It would be a good confidencebuilding step by both countries. It may be argued that the economic viability of the Pass is not great, especially through the allweather motorable roads over the Khunjerab Pass; through here, a truck from Kashgarh can get to Karachi in five days for seven months in a year, compared to 12 through the Karakoram Pass. The author would argue that the opening of the Karakoram Pass would hugely benefit the people of Ladakh and Xinjiang. Tibet, as a source of merchandise, has not been successful as Chinese goods are available from Nepal. The commercial potential of central Asian carpets, silk, leather goods, dry fruits in India and the direct export of Indian goods to Xinjiang would be very high. The popularity of Indian and Xinjiang goods and the revival of ancient cultural links make a good case for opening the Karakoram Pass for trade. Once done, development of infrastructure for traffic and energy pipelines, and other benefits will follow.


Mahabalipuram Sculptures In India

Mahabalipuram also known as Mamallapuram is as old as the Pallava dynasty in the 7th-9th century in Tamil Nadu. A majority of the structures at Mahabalipuram are straightaway carved out of granite. The sculptures here are one of the oldest examples of Dravidian (South Indian) architecture that have survived till date. It is also declared as UNESCO World Heritage Site.

Because of the number of sculptural wonders at Mahabalipuram, it is known as an open air museum as well. Mahabalipuram is a collection of sanctuaries that were founded by the Pallava kings. These sanctuaries were carved out of rock along the Coromandel Coast. Mahabalipuram is especially celebrated for its mandapas (cave sanctuaries), rathas (temples in the shape of chariots), colossal open-air reliefs like s the famous 'Descent of the Ganges', and the temple of Rivage, along with scores of sculptures giving glory to Lord Shiva. Mahabalipuram sculptures in India exhibit the rich variety of sculptural beauty spread all through the country.

Sculptures of Mahabalipuram
Here are the Mahabalipuram sculptures in India. Check them out.

Ratha Temples
Ratha temples are the monolithic erections that are cut into the residual blocks of diorite that came out from the sand. These temples, as mentioned above are in form of the processional chariots. The five rathas of the south India, which are the most renowned, date back to the sovereignty of Naharasimhavarman Mamalla, the great Pallava king.

Mandapas
Rock sanctuaries are known as mandalas as well. They are modeled in form of rooms that are enveloped with bas-reliefs. The mandapa of Varaha, mirrors the works of this incarnation of Vishnu; the mandapa of Mahishasuramardini, the mandapa of the Pandavas and the mandapa of Krishna are notable.

Descent of the Ganges
A well-liked episode in the iconography of Siva is depicted by the rock reliefs in the open air. This illustration is that of the Descent of the Ganges. According to the legends, the prudent king Baghiratha requested him to do so, thus, Siva commanded the Ganges to tumble down to Earth and to nurture the earth. The sculptors have made use of the natural cleft and have divided the cliff to put forward this celestial event which is witnessed by a teeming crowd of gods, goddesses, mythological beings such as Gandherya, Kinnara, Gana, Apsara, Naga and Nagini, along with wild and domestic animals.

Temple of Rivage
This temple is devoted to the glory of Shiva. This is built from the cut stone. It was built during the reign of King Rajasimha Narasimavarmn II with its high-stepped tower resembling a pyramid along with a great number of sculptures all dedicated to Lord Shiva.

Monolithic Rathas
Monolithic rathas depict an assortment of architectural structures ranging from single- to triple-storeyes. While the Dharmaraja Yudhishthir, Arjuna and Draupadi rathas are quadrangle in plan, the rathas of Bhima and Ganesa are rectangular, and the Sahadeva ratha is apsidal. It was during the reign of Pallava Rajasimha when structural architecture was established on a splendid scale and concluded in the creation of the Shore Temple.

Shore Temple

The Shore temple is another piece of architectural beauty. It stands against the backdrop of the sparkling cobalt waters of the ocean. It was constructed in a period when the style of the Pallavas was at its climax regarding its ornamental exquisiteness and inherent excellence. This building went through erosion by the acerbic action of seawater and air therefore; the sculptures of this temple have become unclear. Mahabalipuram sculptures in India bring appreciation and praises to the artworks of India. They are unique and distinctive in their own way.

भारतीय हस्तशिल्प उद्योग

भारत का हस्तशिल्प उद्योग सच्ची भावना के साथ हमारी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है क्योंकि भारतीयों की जीवन शैली की झलक उन उत्पादों से मिलती है जो बड़ी सादगी और देशज औजारों के साथ यहां के दस्तकार बनाते हैं। इन उत्पादों में भारतीय परंपरा और कलात्मक निपुणता समाहित रहती है। भारतीय हस्तशिल्प उद्योग की परंपरा बहुत व्यापक है क्योंकि यह देश की सांस्कृतिक विविधता का प्रतिनिधित्व करती है। यह उद्योग वर्षों से रोजगार और विदेशी मुद्रा की कमाई में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। इतने बड़े उत्पादन के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय बाजार में इसकी संभावनाएं नहीं तलाशी गई हैं। विश्व के हस्तशिल्प निर्यात उद्योग में भारत का हिस्सा 2 प्रतिशत से भी कम है। लघु और कुटी उद्योग क्षेत्र शिल्पकारों की सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं को हल करने में मदद करता है। यह क्षेत्र 60 लाख से अधिक दस्तकारों को रोजगार उपलब्ध कराता है जिसमें बड़ी संख्‍या में महिलाएं और समाज के कमजोर वर्ग के लोग शामिल हैं। उपभोक्ता की बदलती रुचि और रुझानों से यह क्षेत्र प्रभावित हुआ है।

उत्पादन और निर्यात

भारतीय हस्तशिल्प उद्योग में करीब 5 अरब 60 करोड़ अमरीकी डॉलर का उत्पादन होता है। भारत ने वित्त वर्ष 2012-13 में 3 अरब 30 करोड़ 40 लाख अमरीकी डॉलर के हस्तशिल्प का निर्यात किया। पिछले वर्ष की तुलना में निर्यात में 22.15 प्रतिशत वृद्धि हुई। 2012-13 के दौरान कुल हस्तशिल्प निर्यात में से सबसे अधिक योगदान कसीदाकारी और कांटे से बुने गए सामान का योगदान रहा और इससे करीब 858.08 मिलियन अमरीकी डॉलर की विदेशी आय हासिल हुई। इसके बाद कृत्रिम मृण्पात्रों को योगदान रहा जिससे 612.17 मिलियन अमरीकी  डॉलर की विदेशी मुद्रा हासिल हुई। तीसरे स्थान पर 506.78 मिलियन अमरीकी डॉलर की विदेशी मुद्रा के साथ विविध हस्तशिप रहे। काष्ठ मृण्पात्रों से 505.01 मिलियन अमरीकी डॉलर की आय हुई। हस्तशिल्प क्षेत्र देश के 74 लाख लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार देता है। देश में अनुमानित 2 अरब 30 करोड़ अमरीकी डॉलर के हस्तशिल्प की खपत है।

भारतीय हस्तशिल्प में बहुत अधिक विविधता है। इनमें बिदरी, बेंत एवं बांस, कार्पेट, कॉन्च-शेल, कॉयर ट्विस्टिंग, गुड़िया एवं खिलौने, जरी का काम एवं चांदी का काम, लोक चित्रकला, फर्नीचर, घास, पत्ती, रीड एवं फाइबर, सींग एवं हड्डी, आभूषण, चमड़ा (फुटवीयर), चमड़ा (अन्य वस्तुएं), धातु मृण्पात्र, धातु छवियां (क्लासिकल), धातु छवियां (फॉक), संगीत उपकरण, मिट्टी की वस्तुएं और भांडकर्म, ग़लीचे और दरियां, पत्थर (नक्काशी), पत्थर (पच्चीकारी), टेराकोटा, थियेटर, वेशभूषा एवं कठपुतली, वस्त्र (हथकरघा), वस्त्र (हाथ की कसीदाकारी), वस्त्र (हाथ का छापा), लकड़ी (नक्काशी), लकड़ी (पच्चीकारी), लकड़ी (टर्निंग एवं लैकक्वेर वेयर), जरी, विविध शिल्प पेंटिंग्स शामिल हैं।

किसी एक देश की बात करें तो भारत ने हस्तशिल्प का सबसे अधिक निर्यात अमरीका को किया। 2012-13 में देश के कुल निर्यात में से 26.29 प्रतिशत संयुक्त राज्य अमरीका को किया गया। ब्रिटेन को 9.57 प्रतिशत निर्यात किया गया। इसके बाद जर्मनी का स्थान रहा जहां 7.82 प्रतिशत निर्यात किया गया। फ्रांस को 4.25 प्रतिशत तो इटली को 3.34 प्रतिशत निर्यात किया गया। नीदरलैंड्स को 2.97 प्रतिशत, कनाडा को 2.29 प्रतिशत, आस्ट्रेलिया को 1.70 प्रतिशत और जापान को 1.63 प्रतिशत निर्यात किया गया। अन्य देशों का योगदान 26.61 प्रतिशत रहा।

भारतीय हस्तशिल्प की ताकत

देश में स्थानीय स्तर पर कच्चा माल अर्थात प्राकृतिक रेशों, बांस, बेंत, सींग, पटसन, चमड़े इत्यादि की अनोखी प्रचुर उपलब्धता है। यहां की संस्कृति बहुत समृद्ध और विविधतापूर्ण है जो व्यापक एवं विशिष्ट हस्तशिल्प उपलब्ध कराती है। यहां अनेक कुशल शिल्पी मौजूद हैं। देशज ज्ञान से प्राप्त कौशल के कारण पारंपरिक हस्तशिल्प का असीम भंडार है। महिलाओं, युवाओं और विकलांगों के रोजगार के लिए इस क्षेत्र में असीम संभावनाएं हैं। भारत के हस्तशिल्प की उत्पादन लागत कम है।

हस्तशिल्प उद्योग में अवसर

देश के हस्तशिल्प उद्योग में असीम अवसर विद्यमान हैं। उत्पाद विकास एवं डिजाइन को उन्नत बनाने पर अब अधिक ध्यान दिया जा रहा है। घरेलू और पारंपरिक बाजार में भारतीय हस्तशिल्प की मांग बढ़ रही है। विकसित देशो में उपभोक्ता यहां के हस्तशिल्प की सराहना करते हैं और यह रुझान बढ़ता जा रहा है। सरकार अब इस उद्योग को समर्थन दे रही है और हस्तशिल्प के संरक्षण में दिलचस्पी ले रही है। लातिन अमरीका, उत्तरी अमरीका और यूरोपीय देशो में उभरते बाजारों ने इस क्षेत्र में अवसर बढ़ा दिए हैं। हस्तशिल्प के व्यापार में निष्पक्ष परिपाटियां भी इस क्षेत्र में अवसर बढ़ा रही हैं। भारत में अब ज्यादा पर्यटक आने लगे हैं जिससे उत्पादों के लिए बड़ा बाजार उपलब्ध हो रहा है।

हस्तशिल्प उद्योग में खामियां

देश के हस्तशिल्प उद्योग में हालांकि विकास के असीम अवसर मौजूद हैं लेकिन इसमें कुछ खामियां भी हैं जिन्हें तत्काल दूर करने की जरूरत है। डिजाइन, नवाचार और प्रौद्योगिकी उन्नयन का अभाव इस क्षेत्र की बहुत बड़ी कमजोरी है। यह उद्योग अत्यधिक बंटा हुआ है। उत्पादन और उत्पाद निर्माण प्रणाली अत्यधिक व्यक्तिगत है और समुचित सरंचना का अभाव है। इस क्षेत्र की रक्षा के लिए सशक्त मुख्य संगठनों का अभाव है। पूंजीकरण बहुत सीमित है और निवेश भी कम किया जाता है। निर्यात के रुझान, अवसरों एवं कीमतों के बारे में बाजार की जानकारी पर्याप्त नहीं होती। कर्ज की उपलब्धता बहुत सीमित है। उत्पादन, वितरण और विपणन के लिए सीमित संसाधन उपलब्ध हैं। उत्पादक समूहों में ई-कॉमर्स दक्षता सीमित है। पर्याप्त बुनियादी ढांचे की कमी है और आधुनिक प्रौद्योगिकी का अभाव है।

हस्तशिल्प क्षेत्र में विद्यमान खतरे

किसी भी उद्योग में यदि अवसर विद्यमान होते हैं तो उसमें कुछ कमजोरियां और खतरे भी मौजूद होते हैं। हस्तशिल्प क्षेत्र में भी अनेक खतरे मौजूद हैं। अनेक राज्य सरकारों की प्राथमिकता वाली योजनाओं में यह क्षेत्र शामिल नहीं है। एशियन बाजारों से स्पर्द्धा बढ़ती जा रही है। अच्छे कच्चे माल की आपूर्ति कम होती जा रही है। अन्य देशों में बेहतर क्वालिटी के घटक, फाइंडिंग्स और पैकेजिंग भी इस क्षेत्र में नई चुनौती पेश कर रही हैं। इस क्षेत्र में क्वालिटी मानकीकरण प्रक्रिया की कमी है। व्यापक रूप से विकसित अर्थव्यवस्थाओं में इस क्षेत्र में निवेश घटता जा रहा है और उपभोक्ता परिष्कृत शिल्प को महत्व देने लगे हैं। सांस्थानिक समर्थन का अभाव भी है। एयर कार्गो और शिपमेंट संबंधी माल ढुलाई की लागत बहुत अधिक है। भारतीय हस्तशिल्प की बढ़ती लागत बाजारों में इसकी स्पर्द्धा पर बुरा असर डाल रही है।
हस्तशिल्प के प्रमुख केंद्र
देश भर में विविधतापूर्ण हस्तशिल्प का निर्माण किया जाता है। लेकिन कुछ क्षेत्र अपने विशिष्ट शिल्प के लिए बहुत प्रसिद्ध हैं। ऐसे ही कुछ क्षेत्रों में शामिल हैं:-
धातु पर शिल्पकारी - मुरादाबाद, संभल, अलीगढ़, जोधपुर, जयपुर, बाड़मेर, दिल्ली, रिवाड़ी, तंजावुर, चेन्नई, मण्डप, बीदर, केरल, जगाधरी और जैसलमेर।

लकड़ी पर शिल्पकला - सहारनपुर, नगीना, जयुपर, जोधपुर, बाड़मेर, होशियारपुर, श्रीनगर, अमृतसर, जगदलपुर, बंगलुरू, मैसूर, चेन्नापटना, चेन्नई, मण्डप, केरल, बहरामपुर, अहमदाबाद और राजकोट।

हाथ की छपाई वाले वस्त्र - जयुपर, बाड़मेर, बगरू, सांगानेर, जोधपुर, भुज, फर्रुखाबाद और अमरोहा।

कसीदाकारी का सामान - बाड़मेर, जोधपुर, जयुपर, जैसल़मेर, कच्छ-गुजरात, अहमदाबाद, लखनऊ, आगरा, अमृतसर, कुल्लू, धर्मशाला, चम्बा और श्रीनगर।

मार्बल और सॉफ्ट स्टोन शिल्प - आगरा, चेन्नई, बस्तर और जोधपुर।

टेराकोटा ज़री और ज़री का सामान - राजस्थान, चेन्नई, बस्तर, सूरत, बरेली, वाराणसी, अमृतसर, आगरा, जयुपर और बाड़मेर।

फैशन आभूषण - दिल्ली, मुरादाबाद, संभल, जयपुर, कोहिमा (आदिवासी)।

भारतीय हस्तशिल्प बहुत विशाल, व्यापक और विविधतापूर्ण है। इस क्षेत्र में विकास की असीम संभावनाएं मौजूद हैं। यह क्षेत्र रोजगार करने के मामले में भी बहुत महत्वपूर्ण है। बड़े पैमाने पर व्यक्तिगत होने के कारण इसे कीमत, फैशन, बाजार की मांग जैसेी जानकारी के अभाव का सामना करना पड़ता है। अन्य देशों से बढ़ती प्रतिस्पर्द्धा, सीमित बाजारों, अपर्याप्त बुनियादी ढांचा और आधुनिक प्रौद्योगिकी की कमी जैसी चुनौतियों के लिए सरकारी समर्थन के साथ इस क्षेत्र में जागरूकता बढ़ाने की भी जरूरत है।

भारतीय हस्तशिल्प उद्योग 74 लाख से अधिक शिल्पकारों को रोजगार उपलब्ध कराता है। इसकी वृद्धि के लिए डिजाइन एवं उत्पाद के विकास पर ध्यान दिया जा रहा है। एकीकृत और समावेशी समूह के दृष्टिकोण पर अमल किया जा रहा है। बाजार की मांग के अनुसार उत्पाद डिजाइन किए जा रहे हैं। शिल्प समूहों में समर्पित बुनियादी ढांचे के विकास पर बल दिया जा रहा है। आजीविका और काम करने के माहौल को सुधारने के प्रयास किए जा रहे हैं। ब्रैंड निर्माण, भौगोलिक संकेतकों पर ध्यान दिया जा रहा है। कौशल विकास एवं क्षमता बढ़ाने पर भी बल दिया जा रहा है। कमजोर शिल्पकला के जीर्णोद्धार की योजना चलाई जा रही है। इस क्षेत्र में ऋण और अच्छा कच्चा माल उपलब्ध कराने के भी  प्रयास किए जा रहे हैं। संशोधित औजारों की आपूर्ति के जरिए प्रौद्योगिकी उन्नयन और सामान्य सुविधा केंद्रों की स्थापना की जा रही है। इन सभी उपायों के मद्देनजर यह कहा जा सकता है कि भारतीय हस्तशिल्प क्षेत्र का भविष्य उज्ज्वल हैं।


रविवार, 15 सितंबर 2013

India’s Position on Syria is Correct and Justified

The G 20 meeting in St Petersburg has further exposed and deepened international divisions on Syria. President Barack Obama believes that the Syrian government is responsible for last month’s chemical weapon attack in Damascus, whereas as the Russian President is convinced that the rebels staged this attack to discredit the Syrian government.

Today, chemical weapons use by any government would be considered unpardonable because of the 1993 Chemical Weapons Convention(CWC) that outlaws their production and use and enjoins destruction of exisiting stocks. That Syria is not a signatory shields it technically from an infringment, but, given the evolution of international humanitarian law, a pre-meditated use of such weapons by a state even within its own territory would not be internationally tolerated.

Which is why the facts on the ground must first be established impartially in the Syrian case. Only then can a consensus be built on steps to punish and deter those responsible. Only on-site inspection by a UN team and its report can provide an objective basis to proceed.

Unilateral
America’s Syria policy, as well as those of its close allies, has been one-sided from the start. They have sought a regime change in Syria by providing the rebels with funds and arms. They have made public statements repeatedly that President Assad’s days are numbered. Syrian opposition leaders have been officially received and given political recognition. The western media has generously purveyed unverified stories of human right violations in Syria sourced from rebel outfits. The Syrian President has been demonized incessantly. The good faith of the US and others when they liberally accuse Syria of humanitarian misdeeds lies eroded as a result.

Unfortunately, even before the UN inspectors could begin their work, the US and its key allies determined that the Syrian regime was guilty. Such alacrity in reaching this conclusion without physical presence and investigation on the ground puzzles. Evidence from partisan rebel sources can hardly be considered reliable. Are the powerful technical means at US’s disposal sufficient to reach definitive conclusions so quickly in a highly murky situation? And if its evidence is so unimpeachable, why cannot it be fully shared with others?

After all, the stakes involved are consequential in terms of state sovereignty, UN’s role and authority, peace and stability in a volatile region and the humanitarian consequences of external military intervention as Libya and Iraq showed. Russia has found the evidence presented by the US unconvincing and queries the standard US response that more cannot be shared as the intelligence is “classified”. US claims to possess irrefutable evidence is contested by others because in Iraq’s case the same intelligence sources purveyed pumped-up information to make the case for intervention. The Russians, in turn, have presented a detailed report which finger-points at the rebels for the chemical weapons attack.

Growing Opposition
To make the UN report irrelevant to their decision to “punish” President Assad, the US announced even before the team could begin its work that its mandate was to determine if chemical weapons were used, not who used them, besides alleging that the team was not given access to the site for five days, and that constant bombardment of the area by the Syrian military was intended to destroy all evidence. Failing to make a case for intervention at St. Petersburg, the US and others are now willing to wait till the UN report is submitted, but they have effectively untied their hands already.

President Obama’s declared willingness to strike at Syria even without UN approval confirms this. He is seeking US Congressional approval as if that can replace UN approval and legitimize US action against a third country with which the US is not at war and which has not committed any act of aggression against it. President Putin has declared that such Congress-approved US action would constitute aggression and that US unilateralism will fuel insecurity globally.

President Obama claims that the “international community” wants action against Syria seems to exclude Russia, China, India, Brazil, South Africa and many others from its ambit. To their credit, NATO, the EU and major countries like Germany do not support military action. The Pope is opposed; the UN Secretary General has cautioned that action without UN approval would be against international law.

Popular opinion even in the US, UK and France is against military action, with the UK parliament restraining the Cameron government from joining the US and many senior French politicians opposing military intervention and pressing the government to seek parliamentary approval.

India’s Position
Too much focus on the US-Russia spat over Syria is distorting perceptions about the merits of the Syrian situation. To argue that Russia is responsible for the blockage in the UN Security Council because it is either protecting its selfish interests or its position is morally skewed begs the question whether the disinterested US stand is fired with a superior moral purpose alone, in which Israel, Saudi Arabia, Qatar, Turkey, Iran, the Hezbollah, the Shia-Sunni conflict are non-existent factors.

The argument that if Assad goes unpunished, other dictators would use chemical weapons and US interests and security are therefore threatened is exaggerated. While Myanmar and Israel have not ratified the CWC, only Angola, North Korea, Egypt, South Sudan and Syria have not signed it. Unlike Syria, none of these countries is in the throes of a civil war and the danger from North Korea is nuclear.

India’s position at St. Petersburg was correct: the use of chemical weapons in Syria is deplorable if true, the responsibility for it should be determined without bias and any action should be taken only with UN approval.

Rendering justice is important but who has committed the crime should also be clear.

लोकतंत्र बचाने का तीन सूत्रीय एजेंडा

पिछले दो दशकों में भारत का आर्थिक उदय उल्लेखनीय घटना है। इसने करोड़ों लोगों को घोर गरीबी से निकालकर ठोस मध्यवर्ग  बनाया है। बहुत ही खराब शासन के बीच समृद्धि हासिल की गई है। भारतीय निराश हैं कि सरकारें कानून-व्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य और साफ पानी जैसी आधारभूत सेवाएं भी नहीं दे पा रही हैं। देश को ईमानदार पुलिसकर्मियों, सक्षम अधिकारियों, तेजी से न्याय देने वाले न्यायाधीशों, अच्छे स्कूलों व प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की सख्त जरूरत है। जब अन्य जगहों पर सड़क बनाने में तीन साल लगते हैं तो हमारे यहां दस साल नहीं लगने चाहिए। न्याय दो साल में मिल जाना चाहिए।
एक सफल लोकतंत्र में निर्णायक कार्रवाई सुनिश्चित करने वाली शक्तिशाली केंद्रीय अथॉरिटी होनी चाहिए। कानून का पारदर्शी राज होना चाहिए और यह लोगों के प्रति जवाबदेह हो।  सफल लोकतंत्र के ये तीन मूलभूत तत्व हैं। हमने हाल ही में स्वतंत्रता दिवस मनाया है। आइए इस मौके पर सवाल करें कि हम ऐसी राज्य-व्यवस्था कैसे हासिल करेंगे?

तीन सूत्रीय एजेंडा:
बदलाव की उम्मीद हैं दुर्भाग्य है कि अन्ना हजारे का आंदोलन सुधार के लिए जागृति तो ला सकता है पर देश की अवस्था को सुधारने के लिए जरूरी कठोर राजनीतिक काम नहीं कर सकता। एक व्यापक भ्रष्टाचार विरोधी कानून है तो अच्छा विचार पर यह केवल पहला कदम है। शासन की प्रमुख संस्थाओं-नौकरशाही, न्यायपालिका, पुलिस और संसद में सुधार लाने के लिए धैर्य और संकल्प के साथ लगातार प्रयास जरूरी हैं।
देश का सौभाग्य होगा यदि वह एक ऐसा ताकतवर नेता ला सके जो इन संस्थाओं का सुधारक सिद्ध हो। हमारी उम्मीदें तो महत्वाकांक्षाओं से भरी युवा पीढ़ी पर टिकी हैं। यह वर्ग सुधारों के लिए बेचैन है। लेकिन इसके सामने विकल्प नहीं है। मौजूदा दल मतदाताओं को गरीबों, अनपढ़ों की भीड़ समझते हैं, जिसे चुनाव आने पर लुभावनी घोषणाओं से तथा मुफ्त की चीजें देकर खुश करना होता है। युवा ऐसे नागरिक जीवन को ठुकरा देंगे जिसे ताकतवर भ्रष्ट लोगों ने आकार दिया हो।

भारत के राजनीतिक शून्य को भरना:
एजेंडे का पहला बिंदु एक नई उदारवादी पार्टी है जो आर्थिक नतीजों के लिए अधिकारियों की बजाय बाजार पर भरोसा रखती हो और जो शासन संबंधी संस्थाओं में सुधार के लिए लगातार ध्यान केंद्रित करे। चूंकि मौजूदा राजनीतिक पार्टियां दक्षिणपंथी झुकाव वाले मध्यमार्ग में मौजूद शून्य को भरने से इनकार कर रही है, युवा भारत ऐसी उदारवादी पार्टी को पूरा समर्थन देगा। इसे चुनावी सफलता जल्दी नहीं मिलेगी, लेकिन यह शासन में सुधार की बात को चर्चा के केंद्र में लाने में सफल होगी।
युवाओं को यह समझ में नहीं आता कि अद्भुत धार्मिक व राजनीतिक आजादी देने वाला उनका देश आर्थिक आजादी देने में क्यों नाकाम हो जाता है। भारत में हर पांच में से दो व्यक्ति स्वरोजगार में लगे हैं पर बिजनेस शुरू करने के लिए 42 दिन लगते हैं। व्यवसायी अंतहीन लालफीताशाही व भ्रष्ट इंस्पेक्टरों का शिकार हो जाते हैं। आश्चर्य नहीं कि वैश्विक स्वतंत्रता सूचकांकपर भारत 119वें और व्यवसाय करने की सहूलियतमें 134वें स्थान पर है।

भारत की नई नैतिक धुरी की खोज :
लोग सिर्फ सजा के डर से कानून का पालन नहीं करते बल्कि इसलिए भी करते हैं कि उन्हें लगता है कि यह निष्पक्ष और न्यायसंगत है। दुर्भाग्य यह रहा कि स्वतंत्र भारत के नेता संविधान के उदार मूल्यों को आगे बढ़ाने में विफल रहे। इसलिए उदार राजनीतिक दल बनाने के बाद एजेंडे का दूसरा बिंदु है संविधान को लोगों तक पहुंचाकर संवैधानिक नैतिकता को पुर्नस्थापित करना।
स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत में ही महात्मा गांधी को यह अहसास हो गया था कि संवैधानिक नैतिकता की पश्चिमी भाषा आम लोगों को आंदोलित नहीं करेगी पर धर्म की नैतिक भाषा इसमें सफल होगी। इसलिए उन्होंने साधारण धर्म के आम नीतिशास्त्र को पुनर्जीवित किया। हमारे संविधान निर्माताओं ने अपने भाषणों में गाहेबगाहे धर्म का आह्वान किया है।
यहां तक की राष्ट्रध्वज में भी धर्मचक्र (अशोकचक्र) को स्थान दिया। चाहे गांधी छुआछूत को खत्म न कर पाए हों पर उन्होंने इससे स्वतंत्रता आंदोलन में प्राण फूंक दिए। इसी तरह आज संविधान के आदर्शो को युवाओं तक पहुंचा कर संविधान को नैतिक आईने का रूप देने की चुनौती है। ये आदर्श सहज रूप से हमारे जीवन का अंग बन जाने चाहिए। नए  दल का यह सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य होगा।

राजनीति में भागीदारी :
उदारवादी एजेंडे का तीसरा बिंदु है राजनीति में अच्छे लोगों की भागीदारी। आजादी के 66 साल बाद राजनीति में कुलीनता का स्थान आपराधिकता ने ले लिया है। शुरुआत उस कॉलोनी से हो सकती है जहां हम रहते हैं। अच्छे लोगों के राजनीति में आने से राजनीतिक दलों को प्रबल संकेत मिलेगा कि काले धन और वंशवाद को और सहन नहीं किया जाएगा। राजनीतिक दलों को भारतीय कंपनियों  से प्रतिभाओं की कद्र करना सीखना होगा।
ये तीन बिंदु मिलकर भारत के लिए उदारवादी एजेंडाबनाते हैं। अपना काम करने पर मनमाने तरीके से दंडित किए जाने वाले दुर्गा शक्ति, अशोक खेमका और ऐसे सैकड़ों ईमानदार व मेहनती सिविल अधिकारी मिलकर वह नैतिक आईनाबनाते हैं जिसमें हम अपना चेहरा देख सकते हैं। वे हमें सिखाते हैं कि शिकायत करते रहने का कोई अर्थ नहीं है। इसका जवाब तो इसी में है कि अच्छे स्त्री-पुरुष राजनीति में आएं और धीरे-धीरे हमारे सार्वजनिक जीवन की नैतिक धुरी को बदलकर रख दें। यदि अच्छे लोग राजनीति में नहीं आते तो अपराधी उस पर पूरी तरह कब्जा कर लेंगे।

  

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