Mineral
Elements
|
Sources
|
Significance
|
Effects
of deficiency.
|
Macro
Elements
|
|||
Calcium(Ca)#
|
Milk, cereals, Cheese,
Green Vegetables.
|
Required for formation
of teeth and Bones , blood clotting, function of nerves and muscles
|
Weak theeth and bones
; retarded body growth.
|
Phosphorus(P)
|
Weak theeth and bones
; retarded body growth and physiology.
|
||
Sulphur(S)
|
Many protiens of food.
|
Component of many
amino acids.
|
Distributed protein
metabolism.
|
Pottassium(K)
|
Meat, milk,
cereals,fruits and vegetables.
|
Required for acid-base
balance, water regulation nad function of nerevs..
|
Low
blood pressure, weak muscles; risk
of paralysis..
|
Chlorine(Cl)
|
Table salt
|
Required for acid base
balance; component of gastric juice.
|
Loss of appetite;
muscles cramps
|
Magnesium(Mg)
|
Cereals, green
vegetables.
|
Cofactor of many
enzymes of glycolysis anda number of another metabolic reactions dependent
upon ATP
|
Irregularties of
metabolism principally affecting nervous functions.
|
Iron(Fe)
|
Meat, eggs , cereals,
green vegetables.
|
Component of
haemoglobin and cytochromes.
|
Anaemia, weakness and
weak immunity.
|
Iodine(I)
|
Milk, cheese, sea
food, iodized salt
|
important component of
thyroxine hormone
|
Goitre, Cretinism
|
Micro
Elements
|
|||
Fluorine(F)
|
Drinking water, tea ,
sea food
|
Maintence of bones and
teeth.
|
Weak theeth, larger
amount causes motting of teeth.
|
Zinc(Zn)
|
Cereals, Milk, eggs,
meat, sea food
|
Cofactor of digestive
and many other enzymes
|
Retarded growth,
anaemia, rough skin, weak immunity and fertility
|
Copper(Cu)
|
Meat, dry fruits ,
POds , Green vegetables, sea food
|
Cofactor of cytochrome
oxidase enzyme.Necessary for iron metabolism and development of blood vessels
and connective tissues
|
Anaemia,weak blood
vessels and connective tissues
|
Manganese(MN)
|
Dry fruits,
cereals,tea fruits and green vegetables
|
Cofactor of some
enzymes of urea synthesis and transfer of phosphate group
|
Irregular growth of
bones, cartilages and connective tissues
|
Cobalt(Co)
|
MIlk, cheese, meat
|
Important component of
vitamin B12
|
Anaemia
|
Selenium(SE)
|
Meat, cereals, sea
food
|
Cofactor of many
enzymes; assists vitamin E
|
Muscular pain;
weakness ofcardiac muscles
|
Chromium(CR)
|
Yeast, sea food, meat,
some vegetables
|
Important for
catabolic metabolism
|
Irregularities of
catabolic meatbolism and ATP production
|
Molybdenum(MO)
|
Cereals, pods, some
vegetables
|
Cofactor of some
enzymes
|
Irregular excreation
of nitrogenous waste products
|
Vitamin
|
Chemical
Name
|
Properties
|
Deficiency
disease
|
A
|
Retinol
|
General health giving
vitamin, can be stored liver
|
Night blindness
|
B1
|
Thiamine
|
For Growth,carbohydrate
metabolism, functioning of heart
|
Beri-Beri
|
B2
|
Riboflavin
|
For Keeping skin and
mouth healthy
|
Cheilosis
|
B5
|
Niacin
|
For healthy skin,
sound mental health
|
Pellagra
|
B6
|
Pyridoxine
|
Processing of proteins
and for nervous system
|
Convulsions in child
|
B12
|
Cynacobalamin
|
Required for formation
and maturation of RBCs
|
Pernicious anaemia
|
C
|
Ascorbic Acid
|
For keeping teeth ,
gums and joints healthy .Gets destroyed on heating
|
Scurvy
|
D
|
Calciferol
|
For normal bones and
teeth, can be stored in liver
|
Rickets
|
E
|
Tocopherol
|
For normal
reproduction , removes scars and wrincles
|
Sterility
|
K
|
Phylloquinone
|
For normal clotting of
blood
|
Haemophilia
|
IAS Charisma is a brainchild of Dr. Kumar Ashutosh, a Ph.D. in History, PGDM(Marketing) and Double M.A.(History and Philosophy), an IAS aspirant himself, he cleared IAS Mains twice and faced IAS interview before starting on this journey of guiding future IAS aspirants to help them in tackling with the problems that he had to face during IAS preparation. IAS Charisma is an endeavor to light a candle for IAS aspirants who sometimes get lost in commercialization of education.
गुरुवार, 28 मार्च 2013
Minerals and their Significance to a Human Body
भारतीय संस्कृति और विश्व
विश्व
के अनेक देशों के निवासियों की भारतीय संस्कृति में सदैव विशेष रूचि रही है, ये लोग इसके
बारे में ज्यादा से ज्यादा जानना चाहते हैं। भारत के ऋषि-मुनियों ने 5000 से अधिक समय
पहले समाज और व्यक्ति के लक्ष्यों की व्याख्या की। कुल मिलाकर ऐसी व्याख्या
आज भी कायम है लेकिन समयानुकूल दृष्टिकोण में कुछ परिवर्तन आता गया। भारतीय परंपरा
के अनुसार जीवन का लक्ष्य आनंद या यूं कहिए कि पूर्ण स्वतंत्रता है। यदि आज के
परिप्रेक्ष्य में इसे समझा जाये तो मानना होगा कि अपनी क्षमता के अनुसार समझना, देखना, सोचना और महसूस
करना तथा दूसरों को भी ऐसा करने में मदद देना हमारे लक्ष्यों में शामिल है।
भारतीय संस्कृति ने ऐसा करने के लिए अलग से कुछ लघु लक्ष्य निर्धारित किये जिन्हें
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का
नाम दिया गया।
धर्म
का अर्थ है ऐसे मूलभूत मूल्य, जिनसे हमारे जीवन का संचालन होता है। अर्थ के
मायने है आर्थिक और राजनीतिक शक्ति, जबकि काम का मतलब है विभिन्न वस्तुओं और
सेवाओं का उपयोग एवं उपभोग।
भारतीय
संस्कृति में यह माना जाता है कि पहले धर्म को निभाना जरूरी है जिसके बाद
राजनीतिक और आर्थिक शक्ति हासिल की जा सकती है और इसके बाद वस्तुओं और सेवाओं को
उपयोग एवं उपभोग किया जाता है। यदि इसी क्रम में कर्तव्यों का निर्वहन किया जाये
तो मोक्ष की प्राप्ति संभव है। यह भी देखा गया है कि अगर इस क्रम का पालन न किया
जाये, जैसा
कि अमरीका जैसे देश में किया जाता है, जहां धर्म के बजाय अर्थ और काम को ज्यादा महत्व
दिया जाता है, सब
कुछ अस्त-व्यस्त होने लगता है।
यूनान
की एक उक्ति के अनुसार जीवन प्रकृति का उपहार है, लेकिन बुद्धि के इस्तेमाल से किये गये
प्रयासों से जीवन सुंदर बनता है। इसी तरह भागवत गीता में कहा गया है कि 'योगा कामसु
कोशलम' इसका
मतलब है कि प्रभावी तरीके से अपने कर्तव्य का पालन योगा है। 'प्रेसन्ना
चेतसे बुद्धि परिया वाशी थे' - मतलब है कि प्रसन्न रहने से आप प्रभु के निकट
आ जाते हैं। समूची भागवत गीता को दो वाक्यों में गागर में सागर की तरह प्रस्तुत
किया जा सकता है,
यानी आप प्रभावी तरीके से अपना कर्तव्य निभायें और प्रसन्न रहें, यही गीता का सार
है और बुद्धिमत्ता का आधार है।
अकसर
यह कहा जाता है कि अगर भारतीय संस्कृति इतनी महान है तो भारतीय सर्वश्रेष्ठ
प्रदर्शन क्यो नहीं कर पाते। इसका उत्तर यही दिया जा सकता है कि लगातार सीखने से
ही प्रगति के रूप में पुरस्कार मिलता है। भारतीय संस्कृति ने अत्याधिक योगदान
दिया, लेकिन
समय के साथ-साथ इसमें अभिमान आने लगा। जब किसी में अहंकार आता है तो वह धीरे-धीरे
अनभिग्य भी हो जाता है, जो प्रगति में गिरावट का रास्ता भी बनता है। भारत को निरंतर सीखने
का प्रयास करना होगा, क्योंकि केवल उत्तम शिष्य ही उत्तम गुरू बन सकता है।
जरूरत
इस बात की है कि अहम और आत्म सम्मान के बीच की लक्ष्मण रेखा का पता लगाया जाये।
आत्मसम्मान संस्कृति की बुनियाद मानी जाती है, जबकि अहं से प्रगति में गिरावट का
सिलसिला शुरू होता है। भारत को अपनी संस्कृति, अपनी भाषा, अपनी उपलब्धियों
पर आत्मसम्मान करना चाहिए, लेकिन उसे अधिक अहं और अभिमान से दूर रहना
होगा। खुला दृष्टिकोण और विनम्रता महानता की निशानी है न कि दुर्बलता की। जरूरत इस
बात की है कि भारतीय संस्कृति में किसी भी मुद्दे के खुले दिमाग से विशलेषण की
आदत विकसित की जाये। हमें अपनी धरोहर का सम्मान और विश्लेषण करना होगा, क्योंकि इसके
बारे में अधिक से अधिक जानने से बीते समय की बुद्धिमत्ता सजीव होगी और उस काल की
गलतियों से हम नसीहत हासिल कर सकेंगे। भारत और विश्व के प्रति सम्मान पूर्वक
जानना, सोचना
और विशलेषण करना ही भारतीयों के लिए सही दृष्टिकोण हैं। बीते समय में भी भारत महान था और भविष्य में भी
इसकी महानता में चार चांद लगने वाले हैं, लेकिन हमें सम्मान पूर्वक किसी भी
विषय की तह तक जाने का दृष्टिकोण हासिल करना है।
भारतीय
संस्कृति सिखाती है कि किस तरह बुद्धिमत्तापूर्ण तरीके से जिया जाये और किस तरह
मोक्ष प्राप्त किया जाये। प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. आईन्स्टाईन ने कहा था कि
भारतीय संस्कृति ने मुझे जीवन की वास्तविकता और चुनौतियां स्वीकार करने की
शिक्षा दी है। उन्होंने यह भी कहा था कि मैंने अपना कर्तव्य निभाया है और अब
मेरे कार्य का समय समाप्त हो रहा है और मैं शांति और संतोष के साथ जा रहा हूं। यह
कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति प्रभावी तरीके से जीने और संतोषपूर्वक मोक्ष
प्राप्त करने का मार्गदर्शन करती है।
बुधवार, 27 मार्च 2013
वन्य जीव संरक्षण
प्रकृति के महत्वपूर्ण अंगों में
वन्य जीवों का प्रमुख स्थान है। भारत में संपूर्ण विश्व के लगभग 5 प्रतिशत वन्य प्राणी
निवास करते हैं। पूरी दुनिया में पायी जाने वाली लगभग 130
लाख वन्य प्रजातियों में से लगभग 76,000 प्रजातियाँ हमारे
देश में पायी जाती हैं। इन प्रजातियों में 340 स्तनधारी,
1200 पक्षी, 420 सरीसृप, 140 उभयचर, 2000 मत्स्य, 50,000
कीट, 4000 मोलस्क तथा नगण्य बिना रीढ़ वाले जीव हैं। भारत का
यह सौभाग्य है कि विश्व के 12 सर्वाधिक जैव विविधाता वाले
देशों में से एक है। इस भूमि का क्षेत्रफल 32,87,267 वर्ग
किमी है। इसके अलावा यह क्षेत्र 7,516 किमी लंबे समुद्री
किनारे, विशालकाल नदियों, झीलों,
हिमालय जैसी पर्वत श्रृंखलाओं, थार का
रेगिस्तान, दलदलों, द्वीप समूहों एवं
विभिन्न वनस्पतियों से समृध्द है।
राष्ट्रीय वन्य जीवन कार्य योजना
वन्य जीवन संरक्षण के लिए कार्यनीति कार्यक्रम और परियोजना की रूप रेखा प्रस्तुत
करती है। भारतीय वन्य जीवन बोर्ड जिसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री होते हैं, वन्य जीवन संरक्षण
की अनेक योजनाओं के अमलीकरण की निगरानी और निर्देशन करने वाला शीर्ष सलाहकार है।
वर्तमान में संरक्षित क्षेत्र के अंतर्गत 84 राष्ट्रीय
उद्यान और 447 राष्ट्रीय अभयारण्य आते हैं, जो देश के सकल भौगोलिक क्षेत्र का 4.5 प्रतिशत है।
वन्य जीवन सुरक्षा अधिनियम, 1972 जम्मू कश्मीर को छोड़कर,
क्योंकि इसका अपना अधिनियम है, शेष सभी
राज्यों में स्वीकार किया जा चुका है। इसमें वन्य जीवन संरक्षण और विलुप्त होती जा
रही प्रजातियों के संरक्षण के लिए दिशा-निर्देश दिये गये हैं। दुर्लभ और विलुप्त
होती जा रही प्रजातियों के व्यापार पर इस अधिनियम ने रोक लगा दी है।
फरवरी, 2008 में प्रस्तुत राष्ट्रीय बाघ संरक्षण
प्राधिकरण की रिपोर्ट के अनुसार देश में 2001-02 में बाघों
की संख्या 3642 थी जो 2008 मै घटकर 1411 हो गयी थी। भारत में पिछले एक दशक के दौरान पहली बार बाघों की संख्या में
वृद्धि हुई है। इसके लिए संरक्षण के बेहतर प्रयासों को श्रेय जाता है। इस समय
बाघों की संख्या 1706 है, जो वर्ष 2008 की संख्या के मुकाबले 295 अधिक है।
बड़ी बिल्ली की अन्य प्रजाति- तेंदुए
के बारे में भी कहानी कोई अलग नहीं है। वर्ष 2012 के पहले नौ महीनों में भारत में 252 तेंदुए की मौत
हुई, जो भारतीय वन्य जीव संरक्षण सोसायटी के पास उपलब्ध
आंकड़ों के अनुसार वर्ष 1994 से यह संख्या सबसे अधिक
है। सन 1911 में यह
संख्या 187 थी। एक दशक पहले यह संख्या औसतन लगभग 200 प्रति वर्ष थी।
भारत में जनवरी महीने में कम से कम
तीन और बाघों की मृत्यु हो गई है। 1994 से 2010 तक हमने 923 बाघ खो
दिए हैं। देश में लगभग 100 वर्ष पहले बाघों की संख्या करीब 40 हजार थी, जो अब मुट्ठी भर रह गई है। बाघों की
संख्या में कमी की कहानी वास्तव में समूचे विश्व में एक समान ही है। अनुमान है कि
विश्व में बाघों की संख्या कोई 3500 से 4000 के आसपास है। इनमें से आधे भारत में हैं।
लगभग आधे से ज्यादा तेंदुए अवैध
व्यापार के लिए मार दिए जाते हैं। बावजूद इसके कि बाघ वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के
अंतर्गत सुरक्षित हैं, उसका शिकार किया जाता है। उसके शरीर के अंगों, खासकर
खाल का गैर-कानूनी तरीके से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापार किया जाता है। चीतों
के बारे में भी यही स्थिति है। उनका रहने का क्षेत्र मात्र दस प्रतिशत क्षेत्र में
रह गया है और सिमटकर लगभग 75 लाख एकड़ हो गया है। आवास के
अलावा बाघ अपने शिकार की प्रजातियां भी खोता जा रहा है। इससे इसका मनुष्यों के साथ
टकराव हो गया है जिसके परिणामस्वरूप बाघों का ज्यादा शिकार होने लगा है। हालांकि
सरकार ने सन 1972 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम पारित करके
बाघों के शिकार पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन समस्या अभी
भी वैसी ही बनी हुई है। अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि पहाड़ी और वन्य क्षेत्रों
में सड़कों के जाल और पन-बिजली परियोजनाओं जैसे विकास कार्यों के कारण बाघों के
प्राकृतिक आवास में काफी कमी हो गई है। इससे लिए वनों के निकट लोगों की तेजी से
बढ़ती हुई आबादी एक अन्य कारण है।
यदि कुछ बुनियादी बातों पर ध्यान
दिया जाए तो इस स्थिति में बदलाव की अभी भी आशा है, ये बाते हैं – बाघों के
अवैध शिकार पर कड़ी नजर, लोगों में इस बात की जागरुकता पैदा
करना कि बाघों का संरक्षण स्वयं मानवता के हित में है, क्योंकि
पर्यावरण व्यवस्था में संतुलन और वन्य क्षेत्रों के निकट रहने वाले लोगों की
रोजमर्रा की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए बाघों का होना जरूरी है। इस क्षेत्र
में समर्पित गैर सरकारी संगठनों का संज्ञान लेकर उनकी भागीदारी बढ़ाने और उन्हें
पूर्ण समर्थन देने से भी लाभ होगा।
कुछ निराशाओं के बावजूद, परियोजना बाघ के
अच्छे परिणाम निकले हैं। सत्तर के दशक में जब बाघों की जनसंख्या सबसे निचले स्तर
पर पहुंच गई थी, उस समय 1973 में यह
परियोजना शुरू की गई थी। सत्तर के दशक में
जहां यह संख्या 1200 पहुंच गई थी वहां नब्बे के दशक में यह 3500 हो गई, हालांकि बाद में इसमें फिर कमी होने लगी थी।
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने राज्य
सरकारों और संघ शासित प्रदेशों को बाघ संरक्षण योजनाएं तैयार करने को कहा है। उसने
उन्हें ऐसा करने के लिए छह महीने का समय दिया है। यह योजनाएं कार्यान्वित किए जाने
से पहले राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की स्वीकृति के लिए भेजी जानी हैं। गत
वर्ष जुलाई में उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय पार्कों और वन्य जीव अभ्यारण्य में
पर्यटन पर अंतरिम प्रतिबंध लगाया था। अभ्यारण्यों को बाघों के आवास की आवश्यकता के
अनुसार तैयार किया गया है, पर इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। न्यायालय ने इन क्षेत्रों में
पर्यटन पर लगा अंतरिम प्रतिबंध बाद में हटा लिया। लेकिन सभी हितधारकों से इस बारे
में उपयुक्त कार्रवाई करने को कहा गया है।
दुर्लभ जीवों के संरक्षण को महत्व
देने के लिए देश में पांच और वन्य जीवों के पांच और पार्क बनाने को स्वीकृति दी गई
है। बाघों से छह और संरक्षणस्थल बनाने का भी प्रस्ताव है। इनकों मिलाकर ऐसी
अभ्यारण्यों की संख्या 41 से बढ़कर 52 हो जाएगी। राष्ट्रीय पार्कों और
वन्यजीव अभ्यारण्यों की संख्या भी उत्तरोत्तर बढ़ रही है।
योजना आयोग ने भी 12वीं योजना में बाघ
संरक्षण के लिए आवंटन में उदारता बरती है। कहने का तात्पर्य है कि बाघ संरक्षण को
बड़ा महत्व दिया गया है। आयोग ने 12वीं योजना में बाघ
संरक्षण के लिए 5889 करोड़ रुपए का आवंटन किया है जबकि 11वीं योजना में यह राशि मात्र 651 करोड़ रुपए थी।
इससे आवंटित राशि में नौ गुना वृद्धि होने का पता चलता है। अन्य सभी दुर्लभ
प्रजातियों के लिए आवंटित राशि 3600 करोड़ रुपए है। इनमें
हाथी, शेर, हिरन, गैंडा और तेंदुआ शामिल हैं, जिनकी संख्या 45,000 से अधिक है। यह दलील दी जाती है कि बाघ को महत्व देने से अन्य कुछ
प्रजातियां जैसे हिरन व गैंडा स्वतः लाभान्वित होंगी। यह किसी हद तक सत्य हो सकता
है लेकिन अन्य प्रजातियों के बारे में संभवतः अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।
हजारों वर्ष से बाघों के शिकार को
हैसियत का प्रतीक मान लिया गया है। उसे यादगार के रूप में प्रयोग किया जाता है।
इसके अंग एशिया की परंपरागत दवाइयों में प्रयोग किए जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप 1930 तक बाघों की
संख्या में कमी आती रही। बाघों की नौ प्रजातियों में से तीन प्रजातियां पहले ही
विलुप्त हो गई हैं। इसलिए खासकर बाघों की आबादी और सामान्य रूप में वन्य जीवों की
अन्य प्रजातियों की घटती संख्या पर रोक लगाने के लिए अधिक कारगर उपाय करने की
आवश्यकता है। यह हमारे हित में है और इस बारे में त्रुटि महंगी सिद्ध हो सकती है।
चुनौती बड़ी जरूर है लेकिन इसे पूरा करना ही होगा।
यह पूरी दुनिया का दुर्भाग्य है कि
आज वन्य प्राणियों का तेज़ी से विनाश हो रहा है। वन्य प्राणियों के विनाश के लिए
मुख्यत: दो कारण ज़िम्मेदार होते हैं-प्राकृतिक कारण व मानवीय कारण। वैसे तो दोनों
प्रकार के कारण वन्य जीवों के विनाश के लिए उत्तरदायी हैं, फिर भी प्राकृतिक
कारण, मानवीय कारणों की अपेक्षा का हानिकारक सिध्द हुए हैं।
इसका कारण प्राकृतिक कारकों की धीमी प्रक्रिया का होना है। प्राकृतिक कारकों
द्वारा वन्य प्राणियों का विनाश एक अत्यंत धीमी प्रक्रिया है। इसका प्रथम ज्ञात
विनाश डायनासोरों से संबंधिात है, यह महाविनाश 7 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ था। वर्तमान समय में सत्रहवीं शताब्दी से आज तक 120 पक्षी प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। मानवीय कारण वन्य जीवों के विनाश
में सर्वाधिाक महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाते हैं। इनके अंतर्गत वनों की कटाई,
प्राकृतिक संसाधानों का अविवेकपूर्ण दोहन आदि आते हैं। इनके कारण
वन्य जीवों के प्राकृतिक आवासों में कमी आई है और असंख्य प्रजातियाँ या तो लुप्त
हो चुकी हैं या लुप्त होने की कगार पर हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के
अनुसार पूरी दुनिया में जीवों की लगभग 130 लाख प्रजातियों
में से लगभग 10,000 प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं या
विलुप्त होने की कगार पर हैं।
हमारे देश में वन्य जीवों को विलुप्त
होने से रोकने के लिए सर्वप्रथम 1872 में ''वाइल्ड एलीकेंट प्रोटेक्शन एक्ट'' पारित हुआ था। इसके बाद 1927 में ''भारतीय वन अधिनियम'' का
निर्माण किया गया। जिसके प्रावधानों के अनुसार वन्य जीवों के शिकार एवं वनों की
अवैधा कटाई को दण्डनीय अपराधा घोषित किया गया। देश आज़ाद होने के पश्चात, भारत सरकार द्वारा ''इंडियन बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ''
की स्थापना की गई। फिर 1956 में पुन: 'भारतीय वन अधिानियम' पारित किया गया। 1972 में ''वन्य जीवन संरक्षण अधानियम'' पारित किया गया। यह एक व्यापक केन्द्रीय कानून है, जिसमें
विलुप्त होते वन्य जीवों तथा अन्य लुप्त प्राय: प्राणियों के संरक्षण का प्रावधान
है।
वन्य जीवों के संरक्षण हेतु, भारत के संविधान में
42 वें संशोधान(1976) अधिनियम के
द्वारा दो नए अनुच्छेद 48-। व 51 को
जोड़ कर वन्य जीवों से संबंधित विषय के समवर्ती सूची में शामिल किया गया। वन्य जीवों
की बिगड़ती स्थिति के सुधार एवं वन्य जीवों के संरक्षण के लिए ''राष्ट्रीय वन्य जीव योजना'' 1983 में प्रारंभ की गई।
भारत में राष्ट्रीय उद्यान तथा अभ्यारण्यों का पिछले दो दशकों में तेज़ी से हुआ
विकास इस बात का द्योतक है कि हमारी सरकार वन्य जीव संरक्षण की दिशा में तेज़ी से
प्रयासरत है। 1935 में, हमारे देश में
मात्र एक राष्ट्रीय उद्यान था, जबकि सबसे ज्यादा राष्ट्रीय
उद्यान मधयप्रदेश में है। भारत में अभयारण्यों की कुल संख्या 441 है, जो देश के कुल क्षेत्रफल के 4.5 प्रतिशत भाग पर स्थित हैं। भारत में वन्य जीव एवं पर्यावरण के संरक्षण
हेतु अनेक जन आंदोलन भी चलाए गए हैं। इसमें से देश के उत्तरी भाग में चलाया गया ''चिपको आंदोलन'' और दक्षिण भारत में चलाया गया ''एठिपको आंदोलन'' प्रमुख हैं। इन आंदोलनों के साथ-साथ
वन्य जीव संरक्षण हेतु भारत में चलाई जा रही कुछ महत्वपूर्ण परियोजनाओं का भी बहुत
योगदान है। इनमें बांधा परियोजना, कस्तूरी मृग परियोजना,
हंगुल परियोजना, थामिन परियोजना, हाथी परियोजना, गिरसिंह अभ्यारण्य परियोजना आदि
प्रमुख हैं।
यह हमारे लिए खुशी की बात है कि वन्य
जीवों के संरक्षण हेतु किये गये उपायों एवं प्रयासों से उत्साहजनक परिणाम सामने आए
हैं। वन्य जीवों के संरक्षण के लिए किये जानेवाले सरकारी उपायों के साथ-साथ समाज
के सभी वर्गों में जागरूकता उत्पन्न करना भी सरकार के लिए अति आवश्यक कार्य है।
मनुष्य की इस संदर्भ में जागरूकता के अभाव में वन्य जीवों का विनाश हो रहा है। अत:
मूक निरीह और संकोची स्वभाव के वन्य जीवों की रक्षा हेतु देश के प्रत्येक नागरिक
को आगे आकर पहल करनी होगी।
POLITICAL EXECUTIVE
At
the apex of Public Organisations is the political executive which takes
different forms in different countries depending upon their political system as
enshrined in their Constitutions. The political executive is headed by a Chief
Executive again known by various names such as King, President, Emir, Imam,
etc.
Types
of Political Executive
The
type of political executive depends upon the political system prevailing in a
country. These political systems may be of following types —
·
Monarchy as prevailing in Countries like UAE, Saudi Arabia.
·
Presidential form of government as prevailing in USA.
·
Parliamentary democracy as prevailing in UK, India etc.
·
Collegiate (mixed) types as prevailing in Switzerland.
We
will now study in brief the political executives as existing under these
political systems.
Political
Executive in a Monarchy
The
political power in a Monarchial political system is concentrated in a single
individual known as a King or an Emir or an Imam. He may have a set of advisers
known as Ministers or Wazirs or Secretaries, but, he wields the ultimate
authority. He appoints the advisers and can change them at his will. He can
delegate certain powers to them, but can withdraw such delegation whenever he
so wishes. He makes laws, wields the executive powers of the state and is also
the fountain-head of justice. It is more or less a single man political
executive enjoying unfettered discretion in all matters connected with the
affairs of the state. Of course, such an executive is also subject to the pulls
and pressures of interest groups, socio-political elites and public opinion.
International political and economic pressures also affect their decisions.
But, ultimately the king is the final arbiter of the Country’s destiny.
Similar
situation prevails in military dictatorships where the military overthrows a
civilian government and usurps power. In such a situation there is no
hereditary monarch, but the military dictator takes his place. He sometimes assumes
a Civilian title like ‘President’ and creates advisory paraphernalia to give
some sort of legitimacy to the military regime, but in practice he functions
like a monarch.
Political
Executive in a Presidential form of Government
Under
the Presidential form of Government, administrative organisation is less
integrated than in the Parliamentary form. The President (of the USA) is
neither a member of legislature nor is he accountable to it. The two are
co-equal authorities getting their mandate from people directly. This dichotomy
creates friction between the two. The Congress not only has the power to lay
down policy, it can also create administrative machinery to carry out that
policy. At times it does create independent commissions or boards to execute
the policies which it feels the President is not likely to carry out willingly.
The administrative structure of the USA is thus not very well-knit. There are
only ten departments which are under direct supervision of the President. The
rest of the executive business of the Federal Government is carried out by
independent Regulatory Commissions, Boards and other agencies. The American
President, therefore, does not wield the same authority over the administrative
organisation as the Cabinet does in the UK or India. The superiority of Cabinet
system being apparent, USA has tried to improve the position of the President
so as to make him the general manager of administration. This is supposed to be
achieved by the following means:
Adoption
of the Merit System - The spoils system, though politically useful to the Chief
Executive, did not give him meritorious, professional people loyal to him. It
brought the influence of legislators into the administration thereby reducing
the authority of the President over the administrative machinery.
Budget
System -
Formerly estimates of every spending unit were to be authorised by the
legislature individually and there was no central financial control. Budget and
Accounting Act 1921 gave the President controlling power over the spending
process. Thus, the power of the Chief Executive has increased over time and
enabled the President to control and review the expenditure of all Government
demands.
Reorganisation
Programme -
The reorganisation Act of 1939 has brought the initiative of bringing
administrative reorganisation to the President. It has pulleddown a number of
Independent Regulatory Commissions and brought back Government Corporations
into administrative hierarchy etc.
These
developments have brought the functions and powers of the President nearer to
those of the Cabinet in the Parliamentary system.
Political
Executive in Parliamentary form of Government
The
system is characterised by close collaboration between the legislature and the
executive. The Ministers are selected from the majority party of the
legislature by the leader of the party who is the Prime Minister. The Cabinet
is responsible to Parliament. The Cabinet exercises full administrative
authority and provides legislative and fiscal leadership to the legislature.
The Ministers, who are in the Cabinet by virtue of their position in the
majority party have a perfectly legitimate authority to formulate public policy
according to the popular mandate secured in a general election and to execute
it through an administrative machinery which it can create and control
according to the needs of the policy.
Thus
in a Parliamentary democracy, Cabinet has a pre-eminent position, unrivalled by
any other organ of the Government. It is known variously by indiscriminately
used terms such as “Government” “Executive” and “Administration”. These terms,
however, reflect three important functions of the Cabinet as defined by Lord
Haldane:
·
Final determination of policy to be submitted to the
Parliament;
·
The Supreme control of the national executive in accordance
with the policy prescribed by Parliament;
·
The continuous co-ordination and determination of the
functions of the various departments of the State.
The
Cabinet usually consists of a number of Ministers who hold various portfolios
in the Government and are top leaders in the Party. It functions as a team
under the dual principle of collective responsibility and party solidarity.
While
the Cabinet system has many advantages, it is not free from its weaknesses. The
most important problem with the system is that due to its closeness to
(actually dependence on) the legislature the Cabinet finds it difficult to
insulate the administrative machinery from undue political pressures. The
problems are further accentuated in the countries where the same political
party continues in Government over a very long period of time. The distinction
between the party and the Government then starts getting blurred and there
develops a tendency to treat Government’s administrative machinery as
subordinate to the party also.
The
Collegiate Executive (The Swiss Executive Council)
It
is a mixed type of Executive having some features of both the Presidential and
Parliamentary systems. Like Parliamentary Executive, it is a collective body of
seven Ministers who are members of the legislature and participate in its
proceedings, get their mandate from legislature and are accountable to it. But,
unlike Cabinet system, there is no Prime Minister. In some respects Swiss
Executive resembles the President. For example, it has a fixed tenure and
cannot be removed before that. If the legislature does not approve its
policies, it does not have to resign, but has to readjust its policies. Like
President, the Council cannot dissolve the legislature.
However,
Swiss system can cause friction between the legislature and the executive. In
practice, no such friction has been reported. It cannot be said that the system
will work equally well in other countries.
The
Soviet Executive (before break up)
USSR
also had a mixed executive although it had more features of a Cabinet type than
of Swiss type. It had a Council of Ministers with a Premier. Ministers were
chosen by the Supreme Soviet which was the legislature of the country. They
were in fact elected by a joint session of the houses. The Ministers were
jointly and severally responsible to the legislature. However, in one party
system, this responsibility worked out differently. In fact, the most important
principle working in Soviet Union was not Cabinet responsibility, but
democratic centralism which meant complete command in hands of the party caucus
called the politburo headed by the Secretary General of the Party. The
Secretary General may or may not have held any office in the Government but his
power was supreme. Due to the veil of secrecy in the Soviet Government it was
difficult to really find out the exact relationship between different organs of
the party and the Government. In fact the Soviet Executive was a type by itself
and could not be compared with any particular form of Government. However, one
thing was quite clear. So far as the administrative machinery of the Government
was concerned, it was characterised by complete unity of command and centralisation
of authority.
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